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श्री समयसारनाटक.
७६५ अने ग्रंथनी टीकानी कला अने कविकला ए त्रणे कला अमल , अबाधित , थ लख पुरुषनागुणनुं गायन करतीज रहे डे तेथी पावन डे, जव्यत्व पणानी परम शुद्ध जावना , अने ए त्रणेकला, मिथ्यात्वरूप अंधकारनी अपहरण करनार , अने च डते परिणामे बे; जेम चढता बे पोहोरो लगी सूर्यना किरण चढता चढता दीपेने, तेम ए कलापण वधती वधती दीपेबे, एवी अमृतचं श्राचार्यनी कला ले ते त्रण प्रकार- रूप धारण करे , एक तो अनुनवदशा, बीजी ग्रंथनी टीका करी ते अने त्रीजी काव्य बंध करतां कविकला कीधी ॥६ए ॥ साध्य साधक सामे वा रमो घार वीक कह्यो; अमृतचं श्राचार्यनो करेलो कलशरूप समयसार नाटक ग्रंथ टीका समेत संपूर्ण थयो ॥ ७० ॥ ॥इतिश्री समयसार नाटकनो साध्य साधकनामा बारमोछार बालावबोधरूप
संपूर्ण थयो ॥ ग्रंथाग्रंथ 3000 श्लोक मान बे. ॥ हवे ग्रंथनी अंते अमृतचंड श्राचार्य कवि श्रआलोचनाकरे:-अथ कविशालोचन:
॥दोहराः॥-श्रब कविजन पूरव दशा, कहै श्रापसों श्राप; सहज हरष मनमें धरै, करै न पाताप. ॥ १॥ सवैया श्कतिसाः॥-जो मे आप बोमि दीनो पररूप गही लीनो, कीनी न वसेरो तहां जहां मेरो थल है; जोगनिको जोगी रहि करमको कर्ता जयो, हिरदे हमारे राग दोष मोह मल है; ऐसी विपरीति चाल नई जो श्र तीत काल, सो तो मेरी क्रियाकी ममता ताको फल है; ज्ञान दृष्टि लासी जयो क्रिया सों उदासी वह, मिथ्या मोह निखामे सुपनको सो बल है. ॥७२॥ दोहरा॥:-अमृत चंदमुनिराज कृत, पूरन नयो गरंथ; समयसार नाटक प्रगट, पंचमगतिकोपंथ ॥३॥
अर्थः-हवे कलसनो करनार कविजे, ते पोतानेज पोतानी पूर्वदशा कहेले. पोताना मर्म जाण्याथी सहज हर्ष उपज्यो , ते बालोचनामां धारे , पण पस्तावो करतो नथी. ॥ १ ॥ अतीत काले जे महारो यात्मानो स्वन्नाव हतो ते मे मिदीधो, अने पर जे कर्मादिक पररूप हतो ते में लई लीधो, अने ज्यां समाधिविषे मारो निवा स हतो, त्यां में वास न कीधो. पांच इंजियोना विषय जोगनो जोगी थईने कर्मनो कर्त्ता थयो, अमारा हैयामां राग द्वेषरूप महा मोह मल हतो, एवी उलटी चाले चाल्यो तेतो थतीत कालमा वात वीती; एवं जे कार्य थयुं, तेतो मारी क्रियामां म मता राखी तेनुं फल थयु; हवे तो ज्ञान दृष्टि जासी तेथी क्रियाश्री उदासी थयो, श्रने जे अतीत कालमा अवस्था थई तेतो मोह मिथ्यात्व निनामां स्वपना जेवो खेल थयो. ॥ २ ॥ अमृतचंद आचार्यनो करेलो ग्रंथ संपूर्ण थयो; था समयसार नाटक जे ग्रंथ डे ते प्रगट पणे पंचम गतिके० मुक्तिनो पंथ जे. ॥७३॥
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