________________
श्री समयसारनाटक.
७६३
वंग है; यहे स्याद्वाद याको नेद स्याधादी जानै, मूरष न माने जाकी हियो हग जंग दे. ॥ ६५ ॥ निचे दरव डिष्टि दीजे तब एकरूप, गुन परनति जेद जावसों बहुत हे, असं प्रदेश संयुगत सत्ता परवान, ज्ञानकी प्रजासों लोकालोकमां न जुत दे, प रजे तरंग निके अंग बिनजंगुर हे, चेतना सकति सो अखंगीत अचुत है, सोहे जीव जगति विनायक जगत सार, जाकी मौज महिमा अपार श्रदद्भुत है. ॥ ६६ ॥ वि नाव सकति परिनतिसों विकल दीसे, सुद्ध चेतना विचारते सहज संत है; करम सं योग सो कहा वे गतिको निवासी, निहचे सरूप सदा मुक्त महंत है; ज्ञायक सुनाउ धरे लोकालोक परगासी, सत्ता परवान सत्ता परगास वंत है; सोहे जीव जानत जहां न कौतुकी महान, जाके कीरति कहान अनादि अनंत है. ॥ ६७ ॥
अर्थः- कार्मण शरीर सहित श्रात्मानी कर्म अवस्थामां दृष्टि दईए, तो श्रात्माने शुद्ध देखीए बीए. अने कर्म कलंक रहित केवल श्रात्मामांज दृष्टि दए तो तो शु अंग बे ने ए बेजनय समकालेज प्रमाण करीए तो शुद्धशुद्धरूप कयुं जाय. एमां पर्यायनी धाराये करीने जीवना विचित्र प्रकार बे. शुद्ध शुद्ध बने शुद्धाशुद्ध ए रूप आत्माना एकज समय पामीए, यद्यपि एम बे तथापि त्ररूपमां श्रात्मानी अखंडित चेतना शक्ति सर्व अंगमां जरि रहि बे, तेज स्याद्वाद कहीए, तेनो नेद जे स्याद्वादी होय, तेज जाणे, पण जेनुं हइयुं दृगजंग के० सम्यग् दृष्टि रहित बे, ते मूर्ख नो नेद न जाणे. ॥ ६५ ॥ निश्चयनयथी द्रव्य उपर दृष्टि पिये तो खात्म sor एकरूप ने ए आत्म द्रव्यना गुण परिणतिरूप नेद जावथी जोइये तो आत्मा बहुरूपे बे ने श्रात्मानी सत्ता असंख्यात आकाश प्रदेश संयुक्त बे, अने ते सत्ताने प्रमाण श्रात्मा को जाय. छाने ज्ञाननी प्रजा विचारीएतो लोकालोक प्र माण क्षेत्री संयुक्त आत्मा कह्यो जायबे, तथा क्षणक्षणमां पर्याय रूप तरंगना अंग विचारी एतो जीव क्षणभंगुरज कहेवाय बे, घने तेने चेतना शक्तिथी विचारीए तो सदा सर्वदा खंज कहेवाय, श्रने अच्युत कहेवाय बे. तेज जीव जगत्नो विना यक के धणी ने जगत्मां सारभूत पदार्थ बे. जेना मोज श्रने महिमा अपार बे अने अद्भुत बे ॥ ६६ ॥ हवे वीजुं पण स्यादवाद कहेबे : - राग द्वेषादिक विजाव श तिथी परिणम्यो देखीए तो आत्मा विकल देखाय बे; धने तेनी शुद्ध चेतनाज वि चारीएतो सहज संतरूप दीसे बे; कर्म संयोग सहित श्रात्मा विचारीये तो चारे ग तिनो वासी छाने चोराशी लाख योनिनी दासी कहेवाय बे; छाने निश्चयनयथी एवं स्वरूप जो विचारीए तो सदा सर्वथा मुक्तिरूप महंत बे; अने जो एने ज्ञायक स्व नाव धारी विचारीए तो लोकालोक प्रकाशक अमेय कहेवाय; श्रने जो ए आत्मानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org