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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. चि ज्ञान जिन्न मानी लीजीये; ज्ञानकी शकती साधि अनुलो दशा श्रराधि, करमकों--- त्यागिके परम रस पीजिये ॥७॥
अर्थः-कोई बौध मतिनो नेद शुन्यवादी एम कहे जे के, ज्ञेय बते ज्ञान उपजे जे, अने ज्ञेयनो विनाश थए ज्ञाननो पण विनाश थाय बे. अहो! प्रतिवादी! तमेज कहो बो, के ज्ञान ते जीवनुं रूप ले. तो ज्ञाननो विनाश थएथी जीव पण विणसी जाय तो जीव केम होय? तेनो उत्तर के जीवितव्यनी स्थिरताने कारण एटले शाश्वत जीव राखवा निमित्त ज्ञानमा जे झेयाकार परिणाम उपजे , तेनो नाश करिये तो जीवनी स्थिरता थाय, हवे ते जपर सत्यवादी जैनी कहे जे. अहो! नाई! एम खेदमा खिन्न के० श्राकुलव्याकुल न थर्बु. झेयथी विरचिने उदासीन थईने ज्ञान वस्तु निन्नज मानी लश्ये. ए झाननी झायक शक्ति बे, ते शक्तिनुं साधन करीने श्रनुजव दशामां ए झायकने श्राराधिने कर्मने त्यागी परम रस पीजीए ॥७॥ हवे नवमो एकांत नय देहनो नाश थातां जीवनो नाश तेनो प्रपंच कही देखाडे:
श्रथ नवम देहके नाश होते जीवको नाश यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः॥-कोउ कर कहे काया जीव दोउ एक पिम, जब देह नसै गी तबही जीव मरेगो; बायाको सो बल किधों मायाकोसो परपंच, कायामें समाई फिरि कायाकों न धरेगो; सुधी कहे देहसों व्यापक सदीव जीव, समोपाइ परको ममत्व परिहरेगो; अपने सुनाउ श्राक्ष धारना धरामे धाइ, आपुमे मगन व्हेके श्रापा शुरू करेगो. ॥ए ॥ दोहराः॥-ज्यों तन कंचुकि त्यागसों, विनसे नांहि नुयंग: त्यों शरीरके नासते, अलख अखंमित अंग. ॥ १० ॥ . अर्थः- कोई चार्वाक मती कर एम कहे बे के, काया अने जीव बने एक पिंक बे, तेथी ज्यारे देह नाश पामशे त्यारे जीव पण नाश पामशे. जेम वृदनो विनाश थये तेनी बाया पण विनाश पामे , तेम काया अने जीवनी बायानो बल बनी रह्यो बे. अथवा इंग्रजालनी मायानो प्रपंच बनी रह्यो , तेथी ते कायामां समाश्ने एटले दीपकनी परे थोलवाश्ने पागे कायाने धरशे नही. हवे तेने सुधी के पंमित स्याछादी कहे, अहो! नाई! जीव डे ते देहथी सदा श्रव्यापक जे. एटले जीव देह पणे परिणम्यो नथी. श्रा जीव पोतानो समय प्रस्ताव पामीने परनो ममत्व बोमशे. त्यारे पोताना शुरू स्वनावमां श्रावीने, धारनाधरामेधाश्के एटले स्थिरता रूप नू मिमा रहीने श्राप स्वरूपमा श्रापज मग्न थईने श्रात्मानी शुद्धता करशे ॥ए ॥ जेम सर्पना शरीर उपर कांचली श्रावे, ते कांचलीना तजवाथी जुजंग विणशे
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