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श्री समयसारनाटक. नहीं, तेमज शरीरनो त्याग थतां अलप जीव ने ते अखंमित अंगे रहे पण जी वनो विनाश थतो नथी. ॥१॥ हवे दशमो एकांत नय देह उपजवाथी जीव उपजे तेनो प्रपंच कही देखामे:
अथ दशम देह उपजत जीव उपजे यह कथनः॥ सवैया इकतीसाः ॥-कोउ उरबुद्धि कहे पहिले न हूंतो जीव, देह उपजत उ पज्यो हे अब श्राश्के; जोलों देह तोलों देहधारी फिर देह नसे, रहेगो अलष ज्योति ज्योतिमे समाश्के, सदबुझी कहे जीव अनादिको देह धारी, जब ज्ञान, होगो कबहीं काल पाश्के; तबही सो पर तजि अपनो सरूप नजि, पावेगो परम पद करम नसाश्के ॥ ११ ॥
अर्थः-कोई पुष्ट बुद्धि धरनार एक ममत्व वालो एम कहेडे के, पहेलो जीव ह तो नहीं. अने पृथ्वी, जल, तेज, वायु, ए चार नूतना मिलापथी देह उपज्यो तेमा ज्ञान शक्तिरूप जीव श्रावी उपज्यो. हवे ज्यांसुधी देह वर्ते त्यांसुधी देहधारी नाम धरावे अने पाबो देहनो नाश थशे त्यारे अलख पुरुष ज्योति रूपी , ते ज्योति मां समाजाशे. हवे सबुकि स्याहादी कहे, अहो! नाई! जीव अनादि कालथी देह धारी मूर्तिक डे एटले नवो जपनो नथी. अने ए जीव कोई काले काललब्धि पामीने हानी थशे, त्यारे देहादिक पर वस्तुने त्यागिने पोताना स्वरूपने नजशे. पली कर्मोनो नाश करीने परम पदने पामशे. ॥ ११॥ हवे अग्यारमो एकांत नय श्रात्मा अचेतन तेनो प्रपंच विस्तारथी कहे :
अथ एकादशम श्रातमा अचेतन यह कथन:॥ सवैया श्कतीसाः ॥-कोज पक्षपाती जीव कहे डेयके आकार, परिनयो ज्ञान ताते चेतना असत हे; ज्ञेय के नसत चेतनाको नास ता कारन, श्रातमा थचेतन त्रिकाल मेरे मत है; पंमित कहत ज्ञान सहज अखंमित हे, शेयको श्राकार धरे शेयसों विरत हे; चेतनाके नाश होत सत्ताको विनाश होय, याते ज्ञान चेतना प्रवान जीव तत हे॥१२॥
अर्थः-कोई पक्षपाती हठवादी जीव कहेडे, ज्ञान डे ते झेयनो आकार परिण म्यो होय, अने श्राकार परिणाम असत् , तेथी चेतना पण असत् बे. तेनो हे तु कहे जे; जु इयनो नाश थाय त्यारे चेतनानो नाश थाय बे. जे सत् वस्तु होय तेनो तो विनाश क्यारे पण न थाय. ते कारणथी चेतना असत् थई तेथी त्रणे कालमां श्रात्मा श्रचेतन थयो एवो मारो मत बे. हवे पंडित स्याहादी क हे , अहो! नाई! ज्ञान वस्तु सहज स्वनावे अखंमित बे, अने झेयनो आकार धरेने
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