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________________ श्री समयसारनाटक. ६५७ . जाके थलमें; जामें तप्तता नही रागरंग नांइ रंच, लट् लदे समता समाधि जोग ज लमें; ऐसी ज्ञानदीपकी सिखा जगी अनंगरूप, निराधार फुरी पें डुरी है पुदगल में ॥ अर्थः- जे ज्ञान दीपकमां घुमाडानो लेश नथी ने जेमां वायुनो पण प्रवेश नथी ने जे कर्मरूपी पतंग जीवनो पलकमां नाश करे बे, ने जेमां दशा के० दीवेटनो जोग नथी, ( बीजो अर्थ ) - कोइ विकल्प दशा नथी ने जेने सनेह के० घृत तेलनो संयोग नथी; वली जेना प्रकाशमां मोहरूप अंधकारनो वियोग थयो बै; वली जे दीपकमां तत तापं नथी; वली जेमां लालरंगनी रंचमात्र लालाश नथी, अने जे समता समाधिनो जोगते रूप जल ते विषे लहलहायमान थई रह्यो बे, एवो जे ज्ञानदीपक बे, तेनी शिखा सदा अनंगरूप जागी रही बे, अने ए शिखा सर्व पदार्थनुं ज्ञान करवानो आधार बे पोते निराधार फुरी रही बे, अने पुलमां डुरी के० पी रही बे. ॥ १५ ॥ हवे ज्ञानना वजावमां खंमना नथी ते उपर दृष्टांत अथ ज्ञान वजाव अखंमित दृष्टांत कथनंः पेढे: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जैसो जो दरब तामें तैसोही सुजान सधे, को दर्द का को सुनाउ न गहतु है; जैसे संख उज्वल विविध वर्ण माटी नखे, माटी सो न दीसे नित उज्वल रहुतु है; तैसे ज्ञानवंत नाना जोग परिगह जोग, करत विलास न श्र ज्ञानता लहतु है; ज्ञानकला डूनी होइ रुंद दशा सूनी होइ ऊनी होई जौथिति वनारसी कहतु है- ॥ १६ ॥ अर्थः- जे जेवुं द्रव्य बे, तेमां तेवोज स्वनाव सिद्ध बे, पण कोई द्रव्य अन्य व्यनो स्वजाव ग्रहण करे नही. जेम कोई जलाशयमां संख बेइंडीजीव होय ते स्वरू मां उज्वल होय बे, पण जात जातनी माटी खाय बे, तेम बतां माटीनो रंग तेना स्वरूपमा देखा तो नथी, तेतो नित्य उज्वलज देखाय बे; तेम ज्ञानवंत प्राणी परिय हना जोग की नाना प्रकारना जोग जोगवतो बताने विलास करतो बतां अज्ञानता पामतो नथी. ने ज्ञाननी कला बमणी थाय बे, अने द्वंद्वदशा के चमदशा ते शुनी या बे ने जवस्थिति के० संसारस्थिति ते उणी के० बी थाय बे, एवी रीतें वना रसी दासनुं कहेतुं बे ॥ १६ ॥ हवे सम्यग् ज्ञाननी साथै सम्यक् क्रिया स्याद्वाद मतने श्राश्रयी कहे बे:अथ स्याद्वाद प्ररूपन कथनं: ॥ सवैया इकतीसाः ॥ - जोलों ज्ञानको उदोत तोलों नहीं बंध होतु, वरते मिथ्या त तब नाना बंध होहि है; ऐसो नेद सुनिके लग्यो तुं विषै जोगनिसों, जोगनिसों उद्यमकी रीतितें विबोहि है; सुनो नैया संतत कहे में समकितवंत, यहु तो एकंत प ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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