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श्री समयसारनाटक.
६४७ थयो, तेथी हैया सुन्य थको मुनिराजनी पेठे क्रिया करे, पण ते जीव मूर्खज कहेवा यडे पण वैरागी कहेवाय नही ॥५॥ हवे जे सर्व क्रिया करता थका पण मूढ कहेवाय जे ते कहे जेः
अथ मूढ क्रिया वर्णनंः॥सवैया तेश्साः ॥- ग्रंथ रचै चरचै शुन पंथ लखै जगमें व्यवहार सुपत्ता; साधि संतोष अराधि निरंजन, देश सुसीख न वेश् अदत्ता; नंग धरंग फिरे तजि संग के सरवंग मुधारस मत्ता; ए करतुति करै शठ में समुफै न अनातम श्रातम सत्ता-॥६॥ ध्यान धरै करि इंडिय निग्रह, विग्रहसों न गिनै निज नत्ता; त्यागि विनूति विनूति मिटै तन जोग गदै नवजोग विरत्ता; मौन रदै लहि मंद कषाय सहै वध बंधन होश न तत्ता; ए करतुति करै सठ पै समुफै न शनातम श्रातम सत्ता ॥ ७ ॥
अर्थः- ग्रंथ रचना करे, जला मार्गनी चरचा करे, जला मार्गने लखे, जगत्मा व्यवहार मार्गमा प्राप्ति थको रहे, संतोषी थने निरंजनने आराधे, लोकोने सारी शीखामण थापे, श्रदत्तदान ले नही, परिग्रह संग त्यागीने नंग धरंग फिरे के दि गंबर थई फरे, श्रने मुधा के मुग्धपणे पोताना रसमां मातो थको सर्वांगे बक्यो रहे एवी एवी क्रिया मूर्ख होय ते करे डे पण अनातम सत्ता के० आत्माथी पृथक् जे मो हनी गहलता ने तेने अने यात्मसत्ता के शुद्ध जाणपणानी जे सत्ता, तेने जदी जुदी जाणे नही तेमने मूर्ख कहेवा ॥ ६ ॥
वली मूढनी क्रिया केहे के, ध्यान धरे, इंज्यि दमन करे, विग्रह करे ते शरीर नी साथे पोताना थात्मानो संबंध गणे नही. विनूति के संपत्तिनो त्याग करीवि जूति के नस्म शरीर उपर लगाडे, योग मार्ग पहे, अने संसारना नोगथी विरक्त रहे, मौनपणे रहे, कषाय, मंदपणुं समजे, वध बंधन सहतो थको पण तातो नही थाय, क्रोधादिक न करे, एवी क्रिया शठ मूढ होय ते करे , पण अनातम सत्ता एटले कर्मादिक प्रजावनी सत्ता थने श्रात्मसत्ता एटले आत्मानुं सत्य स्वरूप तेने स मजे नही माटे तेने मूर्ख समजवो. ॥ ७ ॥
हवे फरी मूढपणानुं स्वरूप बतावेः- पुनः मूढ वर्णन:॥ चौपाई॥- जो बिनुज्ञान क्रिया अवगाहै; जो बिनु क्रिया मोख पद चाहै; जो विनु मोख कहै में सुखिया; सो अजान मूढनिमें मुखिया ॥ ७ ॥
अर्थः- जे जन ज्ञान विना क्रिया अवगाहे अने क्रिया विना मोद पद वांडे, वली जे मोद पाम्या शिवाय कहे के हुँ सुखी बुं, तेने अजाण मूर्खनो शिरोमणि जाणवो.
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