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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. नाना प्रकारनी क्रिया करे, पण क्रियाने पुजल संयोगवाली जाणी आत्मस्वरूपश्री जिन्न माने बे, तेथीज कर्म बंध कलंकथी जुदो रहे ॥ २ ॥
हवे विषय जोगवता थका कर्म बंध न थाय एवी ज्ञानवैराग्यनी शक्ति बतावे :अथ ज्ञान वैराग शक्ति वर्णनं:
॥ सोरठाः।।- पूर्व उदय संबंध, विषय नोगवै समकिती; करै न नूतन बंध, महि मा ज्ञान विरागकी ॥ ३ ॥
अर्थः- पूर्व संचित कर्म उदय श्राव्याश्री तेना संबंधे समकीति जीव विषय जोग जोगवे , पण नवां कर्मबंध करतो नथी, ए सम्यग ज्ञान तथा वैरागनी शक्ति ॥३॥ __ हवे जे ज्ञाता होय जे ते सम्यग् ज्ञान अने विषयनी अरुचि ए बेजने साधेने, ते कहेजेः- अथ ज्ञाताकी व्यवस्था कथनः
॥सवैया तेश्साः ।- सम्यकवंत सदा जर अंतर, ज्ञान विराग उनै गुन धारै; जासु प्रजाव लखै निज लछन, जीव अजीव दशा निरवारै श्रातमको अनुन्नौ करि व्है थिर, आपु तरै अरु औरनि तारै; साधि सुदर्व लहै शिवसम सुकर्म उपाधि व्यथा वमिडारै.
अर्थः-जे समकिती होय ते सदा पोताना अंतःकरणने विषे झान थने वैराग ए बे गुणने धारे जे गुणना प्रनाववडे पोतानुं ज्ञातापणुं लक्षण जोईने जीव अजीव दशा एटले जीव अजीवनुं स्वरूप निरवार के जुडं जुडं जाणे, ते पठी श्रात्माने यथार्थ पणे वेदीने आत्मिक स्वनावमा स्थिरता थक्ष रहे; ते पोते पण तरे अनेसत्यनपदे श थापी बीजाने पण तारेजे; ए रीते पोताना श्रात्मडव्यने साधीने मोक्षसुखने पामे, अने कर्मउपाधि सहित जे व्यथा तेनुं वमन करे ॥ ४ ॥
हवे विषयनी अरुचि विना ज्ञान- बल निष्फल बे, श्रने एवा ज्ञानीने एकांत पढ़ने विषे रहेवाश्री मिथ्या दृष्टि ठरावे बेः- श्रथ मिथ्यादृष्टि व्यवस्था कथनः
॥सवैया तेश्साः॥- जो नर सम्यक्वंत कहावत, सम्यग् ज्ञान कला नहि जागी; श्रातमभंग श्रवंध विचारत, धारत संग कहै हम त्यागी; नेष धेरै मुनिराज पटंतर. मोह महानल अंतर दागी; सून्य हिये करतुति करै परि,सोश जीव न हो विरागी.
अर्थः- जे मनुष्य पोते सम्यक्त्ववंत कहेवाय अने सम्यग् ज्ञाननी कला न जागी, एटले सम्यग् ज्ञाननी प्राप्ति न थई तेथी आत्माना अंगविषे बंधविचारे नही, आत्मा अबंध डे एम माने ने तेथी ते अत्यंतर संयोग धारे बे. वली कोई निश्चय नयनो पद लश्ने पोते त्यागी ने एम कहे, मुनिराजनी पठे पटंतर के नेष धरे; पण अंतर नेविषे मोहमहानल के मोहरूप अग्नि शलगी रही होय; विषय थकी वैरागी न
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