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________________ १३ श्रीसमयसारनाटक. धिका कहाई है. ॥२४॥ दोहराः॥- वह कुवजा वह राधिका, दोउ गती मति मान; वह अधिकारनि करमकी, यह विवेककी खान. ॥ २५॥ दरब करम पुजल दसा, जा व कर्म मति वक्र; जो सुझानको परिनमन, सो विवेक गुनचक्र.॥ २६ ॥ अर्थः-सुबुकियात्मरूपनी रसीली बे. श्रने राधा पण रूपनी रसीली , अनेच मरूप तालाने खोलवानी कुंची बे. सुबुद्धि शील रूप सुधा समुद्रमा ऊली रदेडे अने राधा पण तेवी , एम ए बेन शील प्रकृतीयेकरी महा सुखदायी बे, ज्ञानरूप जानुनों उदय करवाने प्राची के पूर्व दिशा जेवी, निदाननी जाचनारी नथी, एटखे निस्ने हीपणे सुबुद्धि अने राधिका बे. निरवाची के वचन गोचर नथी, एवे ठेकाणे राची रहे, जेनी साची ईश्वरता धाम के जे पोतानुं श्रात्म घर तेनी खबरदार ने, जेनी साथे रमी रही ते राम एटले पोताना इष्टनी साये रमनारी जे. राधा रस पंथ ए टले राधावसनीना मार्गना रसग्रंथमां राधानामे ईश्वरनी प्यारी बे, तेवीज सुबुकि पण जे. एवी संतजननीमानीती थने स्वस्थपणे रेहेनारी श्रने नूर के शोनानी नि शाणी बे एवी सुबुकि वर्त्तने, माटे सुबुझिने राधिका राणी कहेवी ॥ २४ ॥ ए रीते कुबुद्धि कुब्जा थई श्रने सुबुछि राधिका थई, ए बे पोतपोतानी गति अने मति ली धी रहे. ते कुबुकि जे कुब्जा तेतो कर्म बंधनी अधिकारणी बे, अने सुबलि राधि का तो विवेकनी खाण . ॥ २५ ॥ ज्ञानावरणीय श्रादिक अव्य कर्म बे. ते पुद्गल रूप अने मतिनी वक्रता दे ते नाव कर्म जाणीए, जे सुझाननो परिणमन हाय तेने विवेक गुणनुं चक्र कहीए ॥ २६ ॥ हवे नाव कर्मना चक्रनी उपर दृष्टांत कहेजेः- श्रथ कर्म चक्र यथाः॥कवित्त बंदः॥-जैसे नर खेलार चोपरको, लान विचार करै चित चान; धरि स वारिसा बुझि बलसों, पासाको कुछ परे सुदाउ; तैसें जगत जीव स्वारथको करि उद्य म चिंतवे उपाज; लिख्यो ललाट हो सोई फल, कर्म चक्रको यही सुनाज ॥२७॥ ___ अर्थः- जेम कोई चोपटनो खेल करे, ते पुरुष चित्तमा लान विचारी खेलवानो चाह राखे, एहले हौस राखे, पोतानी बुद्धि बल ने जुग प्रमुखनो यत्न राखीने त्रिक चोक प्रमुख दाव उपर सारी संजाल राखीने रमे, पण दाव तो पासाने आधीन बे. तेम जगतनो जीव उद्यम करीने पोताना खारथनो उपाय चिंतवे, पण पोताना ल लाटमां लिख्युं होय तेज फल थाय,कर्म चक्र उदय माफक थाय एनो एज स्वजावलेश हवे विवेक चक्र उपर दृष्टांत कहे बेः- श्रथ विवेक चक्र यथाः॥कवित्त बंदः॥- जैसे नर खेलार सतरंजको, समुळे सब सतरंजकी घात; चले चा ल निरखै दोउ दल, मोह राग न विचारे मात, तैसे साधु निपुन शिव पथमे लदन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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