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श्रीसमयसार नाटक.
७६ए अर्थः-साते नयमां हर कोई एक नयनो पद ग्रहीने पोताना जाणपणामां की जायजे, अने दद के तत्ववेत्ता कदेवाय, ते एकांत मतनो स्थापक मीमांसक नैया यक प्रमुख पुरुषले ते प्रत्यक्षपणे अनिग्रहीक मिथ्यात्वी ॥ ४ ॥
हवे जाणपणामां तो कांईक अनेकांतपणुं बे, पण हग्थकी विपरीत कडेले माटे तेनुं लक्षण कहेजेः-अथ विपरीत यथाः
॥ दोहराः ॥-ग्रंथ उकति पथ उपे, थापे कुमत मुकीय, सुजस देत गुरुता ग्रहे, सो विपरीती जीय ॥ ५ ॥
अर्थः-ग्रंथमां जे कह्यो एवो मार्ग तेने उथापीने निन्दवादिक पोतानी कुमति थापे, पोतानी प्रसिद्धि थवाने माटे गुरुता के प्राचार्यपणुं ग्रहेजे, ते जीव अनेकांतताश्री विपरीत थयो तेने अन्तिनिवेशिक मिथ्यामती कहीए ॥ ५ ॥ हवे जेनुं विनय मिथ्यात्व बे एवा अनजिग्रहिक मिथ्यात्वी, लक्षण कहे:
। श्रथ विनय मिथ्यात्व यथाः- ॥ दोहराः ॥-देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गिने समान जु कोश नमें जगतिसों सव निकों, विनय मिथ्याती सोश ॥ ६ ॥
अर्थः-सुदेवने श्रने कुदेवने सुगुरुने अने कुगुरुने जे को समानज गणे , अने तामली तापसनीपरे परिणाम प्रवा लेझ्ने नक्तिश्री सर्वने नमे, पण गुणदो पनी खबर न होय ते विनय मिथ्यात्व कहिये ॥ ६ ॥ हवे जेना जाणपणामां संदेह , ते संशय मिथ्यात्वी कहिये तेनुं लक्षण कहे:
श्रथ संशय यथाः॥ दोहराः ॥-जो नाना विकलप गहे, रहे हिए हेरान; थिर व्हे तत्व न सदहे, सो जिय संसयवान ॥ ७ ॥
अर्थः-जे अपार नय जाल देखिने जीवमा संशय राखे, नानाप्रकारना चित्त वि कल्प ग्रहे श्रने हेरान थई रहे. स्थिरता राखीने तत्त्वने सर्दै नही तेज जीव संशय वंत मिथ्यात्वी कहीये ॥ ७ ॥
हवे पांचमा श्रझान मिथ्यात्वीन लक्षण कहेजेः-अथ अज्ञान यथाः॥दोहराः ॥-जाको तन पुष दहलसों, सुरति होति नहिं रंच; गहल रूप वरते सदा, सो अज्ञान तिरयंच ॥ ॥ पंच नेद मिथ्यातके, कहे जिनागम जोश; सादि अनादि सरूप अब, कहों अवस्था दो ॥ नए॥ ___ अर्थः-शरीरमा फुःखना दहेलथी जेने हेय उपादेयनी,रंचमात्र सुरता रेहेती नथी, मूर्चित रूपे जे सदा वर्ने बे, ते एकेंजियादिक तिर्यंच अज्ञान मिथ्यात्वी कहिये।
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