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श्री समयसारनाटक. हवे परिग्रह बतां ज्ञातानी परिग्रह उपर अलिप्त दशा कहे :
अथ ज्ञाता अलिप्त कथनं:॥ चोपाई॥-- पूरव कर्म उदै रस चुंजे; ज्ञान मगन ममता न प्रयुंजे, उरमें उदा सीनता लहिये, यों बुध परिगह वंत न कहिये ॥ ए॥ ___ अर्थः- पूर्व कर्मना उदयथकी जे शुजाशुन रस उपजे ते जोगवे पण ते रस नोग नेविषे ममता प्रयुंजे नही, मात्र ज्ञाननेविषेज मग्न रहे, पण परिग्रहना संयोग वियो गनेविषे हर्ष विषाद उपजे नहीं, एवी रीते जेना मनमा उदासीनता पामीये श्ये, एवा बुध के पंमितने परिग्रहवंत कहेवाय नही ॥ ए॥
हवे ज्ञानीनी निस्पृह दशा वखाणे बेः- श्रथ ज्ञानी अवांढक कथनं:___॥ सवैया इकतीसाः॥- जे जे मनवंडित विलास जोग जगतमें, तेते विनासिक सब राखे न रहत हैं; और जे जे नोग अनिलाष चित्त परिणाम, तेते विनासीक धर्मरूप व्है वहत हैं; एकता न उदों मांहि ताते वांबा फुरे नाही, ऐसे ब्रम कारजको मूरख वहत हैं; सतत रहे सचेत परसो न करे हेत, याते ज्ञानवंतको अवंबक कहत हैं॥१॥
अर्थः- मनना मानी लीधेला जे जे जगत्ना जोग विलास , ते ते नाश रूप ले, थापणा राख्या रेहेता नथी. वली जे जे जोग अनिलाषरूप चित्त परिणाम रहेने ते ते चित्त परिणाम चंचलपणे विनासी धर्म रूपने विषे थई रह्या बे. एवा नोगने विष तथा नोग थनिलाषने विषे अनेकता बे, पण एकता नथी. वली विनश्वरपणुं ने तेथी एना उपर ज्ञानीनी वांग फुरती नथी. एवा व्रम कार्यने मूर्ख होय तेज चाहेबे, जे सतत के निरंतर सावधान रहे अने परवस्तु साथे हेत करे नही, एज माटे ज्ञान वंतने अवंडक निस्पृही कहे. ॥१०॥
हवे परिग्रहमा रेहेता बतां ज्ञाताने अलिप्तपणुं केवी रीते कहेवाय ते दृष्टांत श्रा पीने समजावे बेः- अथ झाता अलिप्त दृष्टांत कथनः
॥सवैया इकतीसाः।- जैसे फिटकडी लोड हरकी पुटविना स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमें; नीग्यो रहै चिरकाल सर्वथा न हो लाल, नेदे नही अंतर सपेती रहे चीरमें; तैसे समकितवंत राग दोष मोह बिनु, रहे निशिवासर परिग्रहकी नीरमें, पूरव करम हरे नूतन न बंध करे जाचे न जगत सुख राचे न शरीरमें ॥ ११ ॥
अर्थः- जेम को स्वेत वस्त्र होय तेने फटकमी लोदर तथा हरमानी पुट के पट दीधा शिवाय मजीठना लाल रंगना पाणीमां चिरकाल के घणाकाल सुधी नीनावी राखे तोपण ते वस्त्र सर्वथा प्रकारे लाल थाय नही; अंतरंग नेदे नही तेथी ते ची रमां सफेती रहेज; तेमज समकितवंत जे जीव होय ते राग वेष मोहना पटविना
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