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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मबायो . क्रिया के ते प्रगट माया जाल , तथा ते साकरनी बरी , मीठास थापी मारेले. श्रा करणीनी जालमां चिदानंद परमात्मा उरजी के मग्न थई रह्यो बे, थने क्रियाना श्रोथे ज्ञानरूप सूर्यनी ज्योति बपी रही बे. श्री श्राचार्य कहे के कि या करतो थको जीव व्यवहारीज कहिए. पण निश्चय रूपे देखवाथी क्रिया सदा सर्वदा बुरी बे, एटले खोटी जे.॥४६॥ .
हवे पोतानी समज पामे तेने ज्ञाता कहेजेः- अथ ज्ञाता कथन:॥चौपाई॥- मृषा मोहकी परिनति फैली, तातें करम चेतना मैली; ज्ञान होत हम समुजी एती, जीव सदीव निन्न परसेती ॥४४॥ दोहराः॥-जीव अनादि सरूप मम, करम रहित निरुपाधि; अविनाशी अशरन सदा, सुखमय सिक समाधि ॥ ४ ॥
अर्थः- श्रमारामां पहेला मिथ्या मोहनी परिनति फेलाई, एटले मोहथी श्र शुक थई, त्यारे फेलाणी. तेनो उदय गाढो थयो, तेथी चेतना शुभ हती पण अशु कथई, कर्मसहित चेतना मलीन थई. हवे झान चेतना प्रगट थतां अमे एटली वात जाणी, के जे जीव ले ते निश्चये परजोगथी न्यारो ले ॥४॥ अनादि कालथी जे जीव प्राणधारी कहेवायजे, ते माझं स्वरूप जे. ते स्वरूप के ले ते कहेले. कर्म रहित बे; अने संयोगादिक उपाधि रहित बे; वली विनाश न पामे, सदा ईश्वर डे; कोई, शरण न राखे, अने था स्वरूप सिकसमाधिना सुखमय ॥४॥ हवे ज्ञानखरूप कर्म उपाधिथी जिन्नते कहेजेः- श्रथ ज्ञान स्वरूपी कथनः
॥चौपाई॥- में त्रिकाल करणीसों न्यारा, चिदविलास पद जगत उज्यारा; राग वि रोध मोह मम नाही, मेरो श्रवलंबन मुफमांही ॥४॥ सवैया तेइसाः।- सम्यकवंत कहे अपने गुनमें नित राग विरोधीँ रीतो, में करतूति करों निरवंबक, मोह विषे रस लागत तीतो; सुछ सुचेतनको अनुनौ करि, में जग मोह महा जड जीतो, मोष समीप नयो अब मो कहुँ काल अनंत ही विधि वीतो ॥५०॥ दोहाः॥- कहे विचलन में सदा, रह्यो ज्ञान रस राचि, सुझातम अनुनूति सों, खलित न होक दाचि ॥५१॥ पूर्व करम विष तरु नए, उदे लोग फल फूल; में इन्हको नहिं जो गता, सहज होहुँ निरमूल ॥५॥
अर्थः- हुं त्रणे कालमा क्रिया करणीथी न्यारो बु. मारे कर्मथी संग नथी तो कि याथी संगती केम थाय ?मारं पद के स्वरूप, चिदविलास के ज्ञान विलास बे, ते जगत्मां अजवालु बे. अने राग द्वेष मोहन्नाव वर्ते , तेतो माझं स्वरूप नथी. मारो अवलंब थाधार मारा स्वरूपमा डे ॥४ए॥ समकिती जीव पोताना गुण कहेजे. ढुं नित्य प्रत्ये राग केष मोहथी, रीतो के रिक्त एटले रहित बु. हुँ जे कि
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