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प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. बे, मोदनो साधक डे, श्रने कोई मुक्तिथी नांगे नही, तेथी ते बाधा रहित ने श्रद -- य बे. श्रने सर्व नयमां फेलि रह्यो तेथी अखंमित एनी थाण ॥ १७॥ श्रीश्रा चार्य एम कहे जे के, था कंईक स्याछादनो अधिकार अल्पविस्तारथी कह्यो. हवे श्री अमृतचंद श्राचार्य बारमो साध्य साधक हार कहे . ॥ १७ ॥
इति श्री समयसारना नाटकमां स्याछादनामा इग्यारमा छारनो अधिकार बालबोध सहित समाप्तः ॥
हवे साध्य वस्तु अने साधक वस्तुनु स्वरूप देखामे :
अथ श्री साध्य साधक स्वरूप कथनः॥सवैया इकतीसाः॥-जोश्जीव वस्तु अस्ति प्रमेय श्रगुरु लघु, अजोगी अमूरतिक प रदेशवंत हे; उसपतिरूप नाशरूप अविचल रूप, रतनत्रयादि गुण नेदसों अनंत हे; सोई जीव दरब प्रवान सदा एकरूप, ऐसो शुद्ध निदचे सुनाउ विरतंत हे; स्यादवाद मांहि साधि पद अधिकार कह्यो, अब आगे कहिवेकों साधक सिधांत हे ॥१॥
॥दोहराः॥-साधि शुक केवल दशा, अथवा सिक महंत; साधक अविरत श्रा दिबुध, बीन मोह परजंत. ॥२०॥
अर्थः-जे कोई जीव वस्तु बे ते अव्यथी अस्तिपणे, प्रमेयपणे, अगुरु लघु पणे, थ जोगीपणे, अमूर्तिक पणे, प्रदेशवंत पणे, प्रवर्ते , तेमां जे नास्तिपणुं नही ते थ स्तिपणुं जाणवू, अने प्रमाण ग्रहण करवा योग्य , तेथी प्रमेयपणुं . अपौद्गलिक पणाथी अगुरु लघुपणुं बे, इत्यादि धर्म . उत्पत्तिरूप पर्यायथी, विनाश रूप पर्या यथी, अविचलरूपथी, शान दर्शन चारित्र रत्नत्रय काहिए. इत्यादिक गुणोना नेदयी अनंत पणुं लीधो वर्ते बे. तेज जीवजव्य एकरूपज सदा प्रमाण बे. ते एकरूपने श्र स्तित्व प्रमेयत्वादिक धर्मे करी आगल कह्यो तेज शुछ निश्चयनयथी एनो एवो ख नाव वृत्तांत बे. तेज साध्य पद कडं एटले साधवालायक वस्तु ते स्याहाद अधि कारमा कही. हवे बागल एने साधवानो सिझांत साधक ॥ १५ ॥ शुरू केवलीनी दशाने साध्य वस्तु कहीए. श्रथवा महंत सिकपणुं ते साध्य वस्तु . अने चोथा अविरत गुणगणाथी मामीने बारमा क्षीणमोह गुणगणा पर्यंत नव गुणगणाना धणी जे बुध के पंमित , ते सर्वेने साधक कहीए. ॥२०॥
हवे अविरत्यादि साधकनी व्यवस्था कहेजेः-श्रथ साधक व्यवस्था कथन:• ॥ सवैया इकतीसाः ॥-जाको अधो श्रपूरव श्रनवर्ति करनको, नयो लान नईगु रु वचनकी बोहनी; जाके अनंतानुबंध क्रोध मान माया लोन, अनादि मिथ्यात मि श्र समकित मोहनी; सातों परकिति खपी किंवा उपसमी जाके, जगी उरमांही स
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