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श्री समयसारनाटक.
६६३ कोईपर के बीजो एनो जदक पण नथी. जेवारे एवो विचार हृदयमां नकी करी राखे, त्यारे अनरक्षा जय नाश पामे, एवा ज्ञानी होय ते अनरदा नयथी निःशंक थका पोताना निष्कलंक झानस्वरूपने सदा निरखे ॥३१॥ हवे चौरजय निवारण रूप मंत्र कहे :-श्रथ चौरजय, निवारनमंत्रः
॥प्पय बंदः॥-परम रूप परतब, जासु ललन चिन् मंमित; पर प्रवेश तहाँ नाहि महि माहिं अगम अखंमित; सो मम रूप अनूप, अकृत अमित अखूट धन; तांहि चोर किम गहै, ठगेर नहि लहै और जन; चितवंत एम धरि ध्यान जब, तब अगुप्त नय उपसमित; ज्ञानी निसंक निकलंक निज, झानरूप निरखंत नित. ॥३॥
अर्थः-जे परम स्वरूप कहेवाय बे, अने मान सन्मानवडे प्रत्यद , चिन्ममित के चिन्मय एवं जेनुं लक्षण बे, अने जेना स्वरूपनेविषे परस्वरूपनो प्रवेश नथी; महीमांहि के पृथ्वीना वचमा अगम्य बे, अने अखंडित बे, एवं तो अनूपम मारु रूप बे, ते कोईनुं कीधेवू नथी, अमित के प्रमाण विना, एवे श्रखूट धन , ते ध नने चोर केम हरी शके ? अने और के बीजा कोई लोक तेनी जगा पामी शके नही. ज्यारे ध्यान धरीने एवं चिंतवन करे त्यारे अगुप्त नय के० उघाडा धननो जे जय ते उपशमी जाय. अने एवा हानी होय ते अगुप्त नयथी निःशंक थका पोताना निष्कलंक ज्ञान स्वरूपने सदा निरखता रहेजेः ॥३२॥
हवे अकस्मात्नय निवारण रूप मंत्र कहेजेः-अथ अकस्मात्नय निवारण मंत्रः
॥उप्पय बंदः॥-शुक शुरू अविरुफ, सहज सु समृक सिक सम; अलख अनादि अनंत, अतुल अविचल सरूप मम; चिद विलास परगास, वीत विकलप सुख थानक; जहाँ सुविधा नहि को, होइ तहाँ कबु न अचानक; जब यह विचार उपजंत तब, अकस्मात नय नहि जदित; ज्ञानी निसंक निकलंक निज, ज्ञान रूप निरखंत नित. ॥३३॥
अर्थः-जे वस्तु शुफ, केवल पोताना स्वरूपने विषेज बे, बुद्ध के ज्ञानमय , अविरोधी बे, सिकसमान शहिवंत बे, अलद बे, श्रादिरहित बे, अने अंत रहित बे, जेनी तुलना कोईथी न थाय माटे अतुल बे, एवं अविचल मारु रूप बे. चिदविलास के ज्ञान विलासनो जेने प्रकाश बे. वीतविकलप के० अवस्था नेद रहित बे, अने समाधि सुखनुं थानक बे. ज्यां कोई विजातीय न पामिये त्यां कोई अणचिंतव्यो अचानक जय शोक कांई उपजे नही, श्रावो विवेक विचार हृदया मां ज्यारे उपजे जे, त्यारे अस्कमात् जय जे , ते उदय थतो नथी. जे ज्ञानी हो
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