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प्रकरण रत्नाकर जाग पहेलो.
ते कस्मात् जयथी निःशंक थको पोताना निष्कलंक ज्ञान स्वरूपने सदा जोता रहे. ॥ ३३ ॥
दवे निर्जराना करनार ज्ञानीनी व्यवस्था कहे :- श्रथ ज्ञानी व्यवस्था कथनंः॥ बप्पय छंदः॥ - जो परगुन त्यागंत, शुद्ध निजगुन गत धुव; विमल ज्ञान अंकूरा जासु घट मदि प्रकास दुव; जो पूरव कृतकर्म, निर्जरा धार वदावत; जो नव बंध निरोध, मोक्ष मारग मुख धावत; निःसंकतादि जस ष्ट गुन, अष्ट कर्म र संदर सो पुरुष विचन तासु पद, बनारसी बंदन करत. ॥ ३४ ॥
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अर्थः- जे कोई पुलादि गुणनो त्याग करे, अने ध्रुव के० निश्चयरूप एवा शुद्ध पोताना गुणनुं ग्रहण करे; निर्मल ज्ञाननो अंकुर के उदय जेना घटमां प्रकाशित थयो, अने जे पूर्वकृत कर्मने निर्जरानी धार के० श्रेणि विषे वदावि दिये वली जे नवा बंधनो निरोध करीने एटले निराभव थईने मोक्षमार्गने सन्मुख दोडे बे; गुण श्रेणिमां दोडे, निशंकित प्रमुख जेना आठ गुण बे, ते याठे कर्मरूप शत्रुनो संहार करे, तेज विचक्षण पुरुष कदेवाय, अने तेना चरणकमलने वणारसीदास वंदन करे ॥ ३४ ॥ दवे व अंगनां नाम कहे :- अथ अष्टांगके नाम कथनं:
॥ सोरठाः ॥ - प्रथम निसंसैजानि, डुतिय श्रवंबित परिनमन; तृतिय अंग गि लान, निर्मल दृष्टि चतुर्थ गुन ॥ ३५ ॥ पंच कथ परदोष, थिरी करन बम सहज सत्तम वचल पोष, श्रम अंग प्रजावन ॥ ३६ ॥
अर्थः- पेलुं निःसंशय के० निःशंकित, बीजुं समकितनो गुण जे अवांतक पणारूप मननो परिणाम, त्री अंग अग्लान, चोथुं गुण निर्मल दृष्टि एटले मूढ दृष्टि नही ते ॥ ३५ ॥ पांचमुं परदोष कथन, बतुं यंग समकित स्थिर करवाना स्वनावरूप, सा मुं सर्व साथै वालपणुं अध्यात्मक पोषक, अने आठमुं अंग प्रजावना गुणरूप ॥३६॥ हवे अंगनां लक्षण कहे बे:- अथ यंग लक्षणंः
॥ सवैया इकतीसाः ॥ धर्ममें न संसै शुभकर्म फलकी न इछा, अशुजको देखि न गिलानि खाने चित्तमें; साचि दृष्टि राखे काढू प्रानीको न दोष जाखै, चंचलता जानि थिति नै बोध चित्तमें; प्यारे निजरूपसों उबाहके तरंग उठे, एह आगे गजब जागे समतिमें; तांहि समकितकों धरे सो समकितवंत, वहे मोषपावे न श्रावै फिर इसमें ॥ ३७ ॥
पुनः- धर्मविषे संदेह नहोय ते निःशंकित गुण, शुज कर्मना फलनी इछा न होय निस्पृह गुण, अनिष्ट वस्तुने जोइने चित्तमा ग्लानी न लाववी ते श्रग्लान गुण, कोईना
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