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________________ ६६२ प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. झान प्राण संयुक्त; जीव तिहु काल न बीजे; यह चित करत नहि मरण नय, नय प्र माण जिनवर कथित; झानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंतनित.॥ ए॥ अर्थः- स्पर्श, रसना, घ्राण, चनु, श्रोत्र, ए पांचे इंजिय; मनोबल, वचनबल, ने कायबल ए त्रण, श्वासोश्वास, आयुस्थिति, ए दश प्राण आदिनो विनाश थाय, तेने जगत्मां मरणनय कहे , पण जीव पदार्थ डे ते ज्ञानरूपी नाव प्राण संयुक्त डे, तेतो जीवने ज्ञान प्राण त्रणे कालनेविषे त्रूटे नही, एवो विचार मनमां करवाथी मरणनय उपजे नही. नय प्रमाण वडे एवं जिनेश्वरनु कथन बे, ज्ञानी लोक निःशंक पणे पोताना निष्कलंक स्वरूप ज्ञानरूपने सदा निरंतर निरखत के सत्यपणे जुए ॥२॥ हवे वेदना जय निवारणरूप मंत्र कहे जेः-अथ वेदना जय निवारण मंत्र: उप्पय बंद॥:-वेदनवारो जीव, जांहि वेदंत सोन जिय; यह वेदना अनंग, सुतो मम अंग नांहि व्यय; करम वेदना विविध, एक सुखसमय पुतीय उख; दोऊ मोह विकार, पुजलाकार बहिरमुख; जब यह विवेक मनमहिं धरत, तब न वेदना जय विदित; झानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥ ३० ॥ अर्थः-वेदनावारो एटले जाणनारो तेतो जीव , अने जेने जाणवू बे, तेपण जीवज में, एटले वेदनावंत ते ज्ञानी जीवए ज्ञानरूप वेदन जे अन्नंग रूप ले तेतो मारु अंग , श्रने कर्म वेदना जे जे ते मारी नथी. थने ते कर्मरूप वेदना बे प्र कारनी , एक सुखमय वेदना ने बीजी फुःखमय वेदना बे, ए बेन मोह विकार बे, एवी सुख दुःखनी वेदना पुजलाकार , पुजलनी बाया बाह्यरूप बे, ज्यारे एवो विवेक विचार मनमां धरे बे, त्यारे वेदनानो नय वेदी शकातो नश्री. ज्ञानी लोक होय तेतो वेदनाना जयथी निःशंक रहे श्रने निष्कलंक एवं पोतानुं ज्ञान स्वरूप तेने सदा जोता रहे ॥ ३० ॥ हवे अनरदानय निवारणरूप मंत्र कहे जेः-अथ अनरला जय निवारण मंत्र: ॥उप्पय बंदः॥-जो स्ववस्तु सत्ता सरूप जगम हि त्रिकाल गत; तास विनास न हो। सहज निहचे प्रमाण मत; सो मम श्रातम दरब, सरवथा नहि सहायधर; तिहि कारन रडक न, होइ नछक न कोई पर; जब यहि प्रकार निरधार किय, तब अन रग नय नसित; शानी निसंक निकलंक निज, ज्ञानरूप निरखंत नित ॥३१॥ अर्थः-स्ववस्तु के निजात्मरूप वस्तु; सत्तास्वरूप के० ऽव्यपणे बतुं कहेवा य ते जगत्मांत्रणे कालनेविषे पामिये, तेनो क्यारे पण विनाश नथी थतो, एवं स हज स्वरूप निश्चयनयना प्रमाणवडे जाणवू; एज मारुं श्रात्मजव्य जे , तेतो सर्वथा प्रकारे कोनो सहाय धरतुं नथी, तेमाटे ए श्रात्मअव्यनो कोई रक्षक नथी. तेमज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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