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प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो. मूरख न साहस गहतु है; सुरग निवासी नूमिवासी औ पतालवासी, सबहीको तन मन कंपत रहतु है; उरको उजारो न्यारो देखिये सपत नेसों, डोलतु निशंक नयो श्रानंद लहतु है; सहज सुवीर जाको सासुतो शरिर ऐसो, ज्ञानी जीव आरज श्रा चारज कहतु है ॥२४॥
अर्थः- श्राहं संसारनेविषे जे असाता वेदनीय कर्म , ते केवां कुःखदाता ? अहिं उत्प्रेदा करे बेः- जमकोसो नाता के यमना नाई बे, तेनो उदय थता मूरख जन जे बे, तेतो साहस ग्रही शके नही. सुरगनिवासी के देवता नूमिवासी के म नुष्य तियेंचू अने पातालवासी देवता नारकी एवा सर्व त्रिलोकवासी जीवोनां तन मन असातावेदनीय थकी कांपता रहे, हवे ज्ञानी जीवना उरनुं अजवायुं जे ते अंत रना चांदरणां जेवू , ते केवु ? ते समजावे के, ते सात जय थकी जुउंज , जे अजवालाथी साते जय प्राप्त यता नश्री, श्रने ए प्रजावधी निःशंक थई मोले , अने आनंद पामे बे. सहज सुवीर के महोटो साहसीक सुजट, जेनुं ज्ञानरूपी शरीरशा श्वत , एवा झानी जीवो श्राचार्य के महा पुरुष पूज्य जाणवा, एवं श्राचार्य कहे.॥॥
हवे साते जयनां नाम कहेजेः- अथ सप्त नयनामः॥ दोहाः॥-श्ह नव नय परलोक लय, मरन वेदना जात; अनरदा अनगुप्तजय अकस्मात नय सात ॥ २५॥
अर्थः- या नवनो जय, परलोकनो जय, मरण जय, वेदना उपजवानो नय, अनर दानो नय, अनगुप्त नय, अने अकस्मात् जय. ए सात नय जाणवा ॥२५॥ हवे साते जयनां लक्षण कही जुदां जुदां उलखावे बेः-श्रथ सप्त नय सहन कथनंः
॥ सवैया इकतीसा॥- दसधा परिग्रह वियोग चिंता श्ह जव, मुर्गति गमन पर लोक लय मानिये; प्रान निको हरन मरन ने कहावै सोई, रोगादिक कष्ट यह वेदना वखानिये; रक्षक हमारो कोउ नांही अनरदा जय, चौर नै विचार अनगुप्त मन था निये, अनचिंत्यो अबहि अचानक कहांधों होश, ऐसो जय अकस्मात जगतमें जानिये.॥
अर्थः- शास्त्रमा जे दश नातनो परिग्रह कह्यो , तेना विजोगनी चिंता रहे तेज था जवनो जय जाणवो. उर्गतिगमननो जे जय ते परलोकनो जय कहिये; प्राण बूटवा नोजे जय ते मरण जय; रोग प्रमुखथकी जे कष्ट उपजे ते वेदना नय वखाणिये; श्र मारी रक्षा करनार कोई नथी देखातो ए अनरदा जय; चोर अथवा पुश्मन थाव्या थी हुं शुं यत्न करी शकीश एवो जे जय तेने थनगुप्त जाणिये. अणचिंत्युं शुं थशे एवो जे जय मननेविषे रहे तेनुं नाम अकस्मात् जय जाणवो.॥ २६ ॥
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