________________
श्री समयसारनाटक.
०५ ज्यांसुधी मिथ्यामति वालो , त्यांसुधी तो कापणुं केदेवतमां साचो . पण ज्यारे ए अज्ञान जायजे, त्यारे जीव श्रक पणे बे एवं स्पष्ट जणाय बे. ॥५३॥ हवे श्रात्माना शुद्ध स्वन्नाव तथा विनावनुं वर्णन:-श्रथ स्वजाव विनाव वर्णनं:
॥सवैया इकतीसाः॥-निहाचे निहारत सुनाउ जाहि आतमाको, श्रातमीक धर म परम परगासना; अतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल सरूप गुन लोका लोक नासना; सोई जीव संसार श्रवस्थामांहि करमको, करतासो दीसे लिये नरम उपासना; यहे महा मोहके पसार यहे मिथ्याचार, यहे नौ विकार यहे व्यव हार वासना ॥ ५४॥
अर्थः- निश्चय दृष्टिए जोतां जे श्रात्मानो श्रामिक धर्म परम प्रकाशरूप सदा स्वनाव बे. एटले निश्चयनयथी अतीत, अनागत तथा वर्तमान कालमां लोकालोक ना सनानो करनार केवल स्वरूप गुण बे. तेज आत्मा संसार श्रवस्थानेविषे भ्रम उपा सनावडे एटले मिथ्यात्व-अज्ञाननी सेवाने सीधे कर्मना कर्त्तानी पेठे देखाय , एम मिथ्यात्वनी सेवामां जे रेहेवं ते मोहनो पसार जे, एज मिथ्याचार बे; जीवने नव ब्रमणनो एज विकार . तथा एज व्यवहार वासना डे ॥ ५४॥
हवे जीवनी अनोक्ता अवस्थानुं वर्णन करे:- श्रथ जीव अनोक्ता वर्णनं:
॥चोपाई॥- तथा जीव करता न कहावै; तथा नोगता नाउ न पावै; हे जोगी मिथ्यामति मांही; मिथ्यामती गयेतें ते नाही.॥५५॥
अर्थः- जेम जीव कर्ता नश्री तेम जोक्ता पण नथी, मात्र मिथ्यात्वमा कर्ता जीव बे, ने जोक्ता पण जीव , पण मिथ्यात्व नाश थाय त्यारे जीव कर्ता अने जोक्ता नाम धरावतो नथी. ॥५६॥ हवे नय स्वरूपमा नोक्ता अजोक्का पणानां लक्षण बतावेजेः
श्रथ जोगतापना अनोगतापनाको लक्षणः॥सवैया इकतीसाः॥- जगवासी अज्ञानी त्रिकाल परजाय बुद्धी, सोतो विषे जोग निको जोगता कहायो है; समकिती जीव जोग नोगसों उदासी तातें, सहज थनोगता गरंथ निमे गायो है; याही नाति वस्तुकी व्यवस्था अवधारे बुध, परनाउ त्यागि अपनो सुनाउ आयो है; निरविकलप निरुपाधि आतमा अराधि, साधि जोग जुगति समाधिमें समायो है. ॥ ५६ ॥
अर्थः- जगत्वासी जे अज्ञानी , त्रणे काल विषे पर्याय बुद्धि , एटले अव्यबुद्धि नधी, ने हं सुखी, हुं पुःखी एवी पर्याय बुद्धि करेजे, पण निन्नपणे शुफ आत्म ७ व्यने नही जाणे, एवो अज्ञानी जीव तो विषय नोगनो जोक्ता केहेवायडे, श्रने सम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org