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श्री समयसारनाटक.
अथ फूल के नाम:--
॥ दोहा ॥ -- जयारथ मिथ्या मृषा, वृथा असत्य ालीक; मुधा मोघ निष्फल वि तथ, अनुचित असत ठीक ॥ ५० ॥
अर्थः-- यथार्थ, मिथ्या, मृषा, वृथा, असत्य, अलीक, मुधा, मोघ, निष्फल, वि तथ, अनुचित, सत्य, घने, अठीक, ॥ २० ॥ इति नाममाला समाप्ता. अथ समयसार के द्वादश द्वार वर्णन:--
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॥सवैया इकतीसाः ॥ -- जीव निरजीव करता करम पुण्य पाप, आश्रव संवर निरजरा बंध मोष है; सरब विशुद्धि स्याद्वाद साधिसाधक खासद दुवार घरे समसार कोष है; दरवानुयोग दरवानुयोग दूर करे, निगमको नाटक परम रस पोष है; ऐसो परमागम बनारसी बखाने यामें, ज्ञानको निदान शुद्ध चारितकी चोष है ॥ ५१ ॥
अर्थ:-जीवद्वार, जीवद्वार, कर्त्ता कर्म क्रियाद्वार, पुण्यपाप द्वार, श्राश्रवद्वार, सं वरद्वार, निर्जराद्वार, बंधद्वार, मोक्षद्वार, सर्व विशुद्धिद्वार, स्याद्वादद्वार, साध्य सा धकद्वार, या समयसारना ए बार द्वाररूप कोष के० कोठार बे; या ग्रंथमां द्रव्यानुयोग के द्रव्यनो विचारकरवो, पढी द्रव्यानुयोग दूर करवो, ने शुद्ध आत्मसत्ता नोज विचार करवानुं छाने निगमके० परमात्मानुं नाटक एमां परम शांतरसनो पोष बे, ए परम सिद्धांतने वणारसीदास वखाणे. वली या ग्रंथमां ज्ञाननुं निदानके मूलविवरो तथा शुद्ध चारित्रनी चोखी क्रिया कही बताववानीठे ॥ ५१ ॥
अथ ग्रंथारंजको नमस्कार मंगलाचरण रूप
॥ दोहराः॥ - शोजित निज अनुभूतियुत, चिदानंद भगवान; सार पदारथ श्रातमा,
सकल पदारथ जान ॥ ५२ ॥
:- जे पदार्थ पोताना अनुभव युक्त शोजित बे, चित्के० चेतना अने श्रानंद तेचिदानंद कहियें; तथा जगवान के० ज्ञानवंत बे, एवो साररूप पदार्थ संसारमां आत्मा बे, जे समस्त पदार्थनो जाणनार महोटो ज्ञाता बे ॥ ५२ ॥
आत्मानं वर्णन करी नमस्कार करे:
॥ सवैया तेईसाः ॥ - जो अपनी पुति श्रापु विराजत, है परधान पदारथ नामी ; चेतन क सदा निकलंक महासुखसागरको विसरामी; जीव जीव जिते जगमें तिनको गुन ज्ञायक अंतरजामी; सो शिवरूप बसै शिवथानक, ताहि बिलोकन में शिवगामी ॥ ५३ ॥
अर्थ | जे पोतानी द्युतिवमेज पोते विराजमान बे, एटले पोताथी पोते जासी रह्यो बे, पण बीजा पदार्थवडे जेनो जास थतो नथी एवो कोई प्रधान पदार्थ नामी प्र
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