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________________ უდე प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो. सिद्धबे. जेनुं चेतनरूप अंक के लक्षण बे; जे सदा निकलंक बे; निरंजन बे; महोटा सुखसमुद्रमां जेनो विश्राम थई रह्योबे, एटले एकाग्रचित्ते जे सहेजे समाधिसुखमां रमी रह्योबे; जगत्मां जेटला जीव छाजीव पदार्थ बे, ते सर्वना गुणनो ग्राहक बे, अंतरजामी बे. जे घटघटमां विराजमान बे. तेहज शिवरूप के० सिद्धरूप यो थको लोकाजागे सिद्धावस्थामां वसेबे; जेने ज्ञान दृष्टिवडे जोईने मुक्ति गामी जीव नमस्कार करे बे ॥ ५३ ॥ वे जगवानी वाणीने नमस्कार करे. अथ जिनवाणी वर्णनं. ॥ सवैया तेइसाः ॥ - जोग धेरै रहि जोगसुंजिन्न अनंत गुनातम केवल ज्ञानी; तासहृदे हसों निकसी सरिता सम व्है श्रुत सिंधु समानी; यातें अनंत नयातम लखन; सत्य सरूप सिद्धांत बखानी; बुद्धलखे न लखे डुबुद्धि सदा जगमांहि जगे जिन बानी ॥ ५४॥ अर्थः- जे त्रण योगने धारेबे तथापि ते मन वचन कायना जोगथी प्रथक रहे बे, अलिप्त रहेबे, घने अनंत गुण प्रगटताने लीधे जेनो आत्मा कोई केवल ज्ञानी पुरुष बे ते केवल ज्ञानीना ह्रदय रूप वह बे, तेमांथी जे नदीरूप थईने निकली ते शास्त्ररूप समुद्रमां जई नली बे, ज्यांथी अनंता नय स्वरूप लक्षण सत्य स्वरूपे जिनजीयें सिद्धांतमा वखाणी बे, एवी जे वाणी ते तो बुद्धिवंत तत्त्व दर्शी होय तेज लखे, अने दुर्बुद्धि मिथ्यामति होय ते लखे नही, जाणे नही, एवी जिनेश्वरनी वाणी जगत्मां सदा जागृत थई रही बे. ॥ ५४ ॥ दवे जीव द्वारनो विचार लखेबे, ते जीव कवीश्वर पोतेज बे माटे पोतानी व्यवस्था क. थ जीवद्वार कवि व्यवस्था कथनः - || बप्पय छंदः || - हों निहचें तिहुं काल, शुद्ध चेतनमय मूरति; पर परिनति संयोग, नई जडता विस्फुरति मोह कर्म पर हेतु, पाइ चेतन पर रचै; ज्यौं धतूर रस पान, करत नर बहुविध नचै, छाब समय सार वर्नन करत, परम शुद्धता दोन मुज; श्र नयास बनारस दास कहि, मिटौ सहज चमकी रु. ॥ ५५ ॥ अर्थः- शुद्ध निश्चयनयवमे व्यतीत अनागत वर्त्तमान कालमां हुं शुद्ध चेतना मय पिंड बुं, एहिज मारी मूर्ति बे, ते एवी बे, त्यारे शुद्ध स्वभाव बांगीने विजा मां के परिणम्यो बे ? एनो उत्तर कहेबे जे, कर्मादिक परवस्तु बे, तेनुं अहीं प रिणमन थयुं, तेथी तेनी जडता यहीं विस्फुरति थई, एटले जमता फेली. शिष्य पूबे बे के, एवो शुद्ध स्वभाव हतो त्यारे परपरिणति केम ग्रहण करी ? तेनो उतर, मोह कर्म राग द्वेष रूप जे बे तेज परहेतु उत्कृष्ट कारण पामीने चेतन आत्मा परनी साथे मोहित थयो बे; तेनो द्रष्टांत कहे बेः- जेम धतुरानो रस पान करी मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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