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श्री समयसारनाटक. श्रर्थः-श्रादि निगोद श्रने अंत सिक अवस्था, तेनी वच्चे चेतना रूप पोताना पूर्ण खनावेकरी संयुक्त के अने ए चेतनामां पर खरूप जे जड स्वरूप, अने परजोग जे पुजल संयोग, तेनी दशा, कल्पना--विचारणा तेणेकरी मुक्त बे. श्रादि अंतसुधी एकज खनाव . सदा एक चेतना रसमय प्रगट वस्तु बे; ते शुफ निश्चय नयनुं
आलंबन लईने जैन श्रागममां कही ने जेवी कही तेवी वचन व्यवहारमा पण विराजमान . ॥ ६ ॥ हवे एकुंज खरूप वचन द्वारवमे गुरु हितोपदेश रूप केदेजेः- अघ हितोपदेश.
कवित बंदः॥-सतगुरु कहै नव्य जीवनिरसों, तोरह तुरत मोहकी जेल; समकित रूप गहो अपनो गुन, करहु शुद्ध अनुजवको खेल; पुद्गल पिंम नाव रागादिक, ३ नसों नही तुमारो मेल; ए जमप्रगट गुपत तुम चेतन, जैसै जिन्न तोय अरु तेलने॥३॥ __ थर्थः-अहो नव्यलोक ! वेला थार्ज, मोहनो बंध तोडो. अने तमारो पोतानो स मकित गुण बे, ते ग्रहण करो; अने ते लईने पोताना शुरू श्रनुजवनो खेल खेलो. अने देखवामां जे या शरीर ते पुद्गल पिंम बे. अने कर्म पण पुद्गल पिंम . अने आ पुद्गल पिंडनो राग द्वेषादिक नाव ते स्वजाव बे, पण ए वस्तु साथे त हारो मिलाप नथी. केमके, ए वस्तु तो जम, ने प्रगट , एटले देखवामां आवेडे, ने तमे तो चेतन बो तथा गुप्त बो. त्यारे ते पुद्गल पिंडनी ने तमारी जिन्नता परी; जेम पाणीने तेल निन्न बे, तेनीपरे जाणी लेवं. ॥३॥
हवे एवो उपदेश सांजलीने ते ज्ञाता पुरुष थयो तेनो विलास कहे. अथ ज्ञाताविलास.
॥सवैया इकतीसाः॥-कोउ बुद्धिवंत नर निरखै शरीर घर, नेद ज्ञान प्रष्टिसों वि चारै वस्तु वासतो; अतीत अनागत वरतमान मोहरस, निग्यो चिदानंद लखै वं धमें विलासतो; बंधको बिमारि महा मोहको सुनाउ मारि, बातमको ध्यान करी देखो परगासतो; करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप अचल अबाधित विलोकै देव सासतो.॥२४॥
अर्थः- कोई बुद्धिवंत् सम्यग्दृष्टि मनुष्य होय ते पोताना शरीरमां घरने जुये; अने जड चेतननो निन्न निन्न खनाव जाणवो ते नेद ज्ञान कह्यु;तेमां दृष्टि श्रापीने वस्तु वासतो के वस्तु वनावनो विचार करे. अतीतकाल, अनागतकाल ने वर्तमान कालमां मोहरसविषे नीनो थको, कर्मबंधमां विलास करतो थको पोताना चिदानंद परमात्माने लखे. ते पनी कमेक्रमे बंधने विदारतोज जाय. एवं कार्यकरी मोहना स्व नावने मूकतो जाय श्रने पोताना आत्मानुं ध्यान करे, अने अनुनवमां प्रकाशरूप
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