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श्रीसमयसारनाटक.. पुण्यनो खेद नथी, जेमा कोइ क्रियाकरणी नथी, जेमा राग द्वेष नथी, जेमां बंध मोद नथी, जेमा प्रजुताने दासपणुं नथी, जेमां श्राकाश श्रने धरती नथी, जेमांकु लनी रीत नथी, जेमा हारने जीत नथी, जेमां गुरु अने शिष्य नथी, जेमा विष जर नी एटले चालवू हालवू नथी, जेमां कोई श्राश्रम व्यवहार नथी, तथा वर्ण व्यवहार नथी, जे कोश्नी शरण रूप नथी, एवी शुभ सत्तानी नूमि ते समाधिरूप वरणवी. एटले खरूपनी शुभ समाधिने विषेज शुरू सत्ता पामीये. ॥२०॥
हवे मिथ्यादृष्टिने चोर अने अपराधी कही देखडावे :
अथ मिथ्यादृष्टि अपराधि यह कथनंः॥ दोहराः॥- जाके घट समता नही, ममता मगन सदीव; रमता राम न जान ही, सो अपराधी जीव ॥ २१॥ अपराधी मिथ्यामती, निरदै हिरदै अंध; परकों माने श्रातमा, करे करमको बंध ॥२२॥ फूठी करनी आचरे, फूलै सुखकी श्रास; फूठी जगती हिय धरे, फूठगे प्रज्जुको दास ॥२३॥
अर्थः-जेने केवल जाणपणुं जे समता ने समाधि ते नथी, अने जे सदा परवस्तुनी ममताविषे मगन थई रहे, ने निज घट अथवा खरूपने विषे रमी रह्यो एवो जे था त्मराम तेने जेणे जाएयो नथी तेनेज अपराधी चोर जीव कहीये ॥१॥ जे पर वस्तु लेय ते अपराधी ने तेज मिथ्यामति, तेज निर्दय ने तेज हैयानो अंध कहिये, एटले जे पररूप पुजलने श्रात्मा माने ते कर्मनो बंध करे ॥२२॥ ज्यांसुधी पोतानी वस्तुने न जाणे त्यांसुधी तो जे क्रिया याचरे ते सर्व फूली बे, थने तेने जे मोद सुखनी श्राशा डे, ते सर्व फूठी बे. पोताना प्रज्नु जाएया विनानी जे नक्ति हैयामां धरे , ते सर्व फूठी जाणवी, अने परमेश्वरने उलख्याविना दासपणुं राखq ते पण सघj फूलु डे ॥२३॥
हवे मूढ लोकना फूठपणानी व्यवस्था कहे बेः- श्रथ मूढ व्यवस्था यथाः
॥ सवैया इकतीसाः॥-माटी नूमि सैलकी सु संपदा बखाने निज, कर्ममें अमृत जाने ज्ञानमें जहर है; अपनो न रूप गहै थोरहीसों थापु कहै, साता तो समाधि जाके असाता कहर है; कोपको कृपान लिये मान मदपान किये, मायाकी मरोरि हिये लोजकी लहर है, याही जांति चेतन श्रचेतनकी संगतिसों, साचसों विमुख जयो फूठमें बहर है ॥ २४ ॥ तीन काल थतीत अनागत वरतमान, जगमें अखं डित प्रवाहको महर है; तासों कहै यह मेरो दिन यह मेरी घरी, यह मेरोई प रोई मेरोई पहर है; पेहको खजानो जोरे तासों कहे मेरो गेह, जहां वसे तासों
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