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श्री समयसारनाटक.
६३५ तना बंधनी करनारी; अने ज्ञानधारा मोक्षस्वरूप जे; मोदनी करनारी बे ने दोष मा त्रनी हरनारी श्रने नवसमुख तरवाने तरनी के नाव समान बे. ॥ ४ ॥ हवे मोद कर्ता जे ज्ञान क्रिया एवो जे स्याहाद तेनी प्रशंसा करे:
अथ स्याहाद प्रशंसाः॥सवैया इकतीसाः॥-समुफै न ज्ञान कहै करम कियेसों मोद, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहलमें; ज्ञान पर गहै कहै श्रातमा अबंध सदा, वरते सुबंद तेउ बूझे है च हलमें; जथाजोग करम करे मैं ममता न धरै, रहै सावधान ज्ञान ध्यानकी टहलमें तेईन वसागरके उपर व्है तरै जीव, जिन्हको निवास स्याद्वादके महल में ॥ ५० ॥
अर्थः- क्रियावादी कहे के, “ न झान श्रेय” एनो अर्थ एडे के ज्ञान नबुं नथी. जेमा संशय उपजे बे, अने संशय थया थकी जीव श्रहींनो नहीं ने तहीनो पण नहीं एवो थाय , माटे क्रिया कर्म करवाथीज मोक्ष बे, एम विकल थयलो जीव मिथ्यात्व नी गहलमां कहे. हवे जे ज्ञानवादी सांख्यमती ते झाननोज पद ग्रहीने रहे ने एवं कहेजे के बंध ने मोक्ष प्रकृतिने विषेज , पण यात्मा तो सदा प्रबंध पणे वर्त्त बे; एवी श्रद्धावडे खबंद के पोतानी मरजीमां श्रावे तेम चाले, तेउ चहल केक दममां बूमेला . अने जे स्याहादी बे ते कोश्ना विरोधी नथी, तेथी यथायोग्य ए टले गुण गणा माफक कर्म क्रिया करेबे, पण कर्मने उदय दशामा राखे बे, अने म मताने धरता नथी, ज्ञान ध्याननी सेवामां सावधान रहे बे; एवा स्याहादी जीव उप र थइ रह्या थका जवसागर तरे, जेनो निवास स्याहाद रूपमेहेलमां बे. ॥५०॥ हवे मूढनी तथा विचक्षणनी क्रियानुं वर्णन करे :- अथ मूढविचक्षण क्रिया वर्णनंः.
॥ सवैया श्कतीसाः॥- जैसे मतवारो कोउ कहै और करै और, तैसे मूढ प्रानी वि परीतता धरतु है; अशुन करम बंध कारन बखानै माने, मुगतिके हेतु शुन रीति श्रा चरतु है; अंतर सुदृष्टि नई मूढता विसरि गई, ज्ञानको जयोत म तिमिर हरतु है; करनसों निन्न रहै बातम सरूप गहै, अनुनौ आरंनि रस कौतुक करतु है. ॥५१॥
अर्थः- जेम कोई मतवारो पुरुष कहे कई थने करे कई तेम मूढ प्राणी उलटोज नाव धारे डे, एटले अशुज कर्मने बंधनुं कारण समजे अने मुक्तिनो हेतु शुज रीत के शुज क्रियाने श्राचरेडे. हवे ज्ञानीने अंतर सुदृष्टि थई तेथी मूढता मटी गई ने ज्ञान नो उद्योत थयो; तेणे करीने चमरूप तिमिरनो नाश थयो, त्यारे मुक्तिनुं कारण जे शुन क्रिया के तेथी ते ज्ञानी जिन्न रहे, ममतान धरे, अने आत्मानुज स्वरूप ग्रही थात्माना अनुजवना थारजना रसनुं कौतुक करे बे. ॥५१॥
॥ इति श्री समयसार नाटकको पुण्य पाप एकत्वी कथन चतुर्थ घार संपूर्णः॥
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