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श्री समयसारनाटक.
६ए लास गंजीर, धीर थिर रहै विमल मति; जब लगि प्रबोध घटमहि नदित, तब लग अनय न पेखियैजिम धरमराज वरतांतपुर, जह तह नीति परेखिये ॥ ३५॥
अर्थः- जीव बे ते मिथ्यारूपी कर्म करे नही, एनो हेतु कहे के, भ्रम मल रूपी जे नार ले तेने ए जीव धारण करे नही. अने ज्ञान ज्ञाननाज रसमां रमे एटले झा तापणामा रहे. अने कर्मादिक जे झानावरणादिक राग वेषादिक तेतो पुजलसाम ग्रीले. अने ए जीवना तो असंख्यात प्रदेशने विषे एवी शक्ति अति प्रगटपणे जग मगी रही बे. ते कहीये बश्ये के, चिदविलास के ज्ञान विलासने विषे गंनीरजे, धीर ने विमल मतिवंत थको स्थिरता थई रह्यो बे; एवं प्रबोध सम्यग् ज्ञान जां सुधी घट पिंझमा प्रकाशमान थई रह्यु डे त्यांसुधी अनय के अन्याय खंरूपने दे खीये नही, ते उपर दृष्टांत कहे जेम पुर नगरमां धर्मराज वर्त्तता थका जहां तहां नीतिज जोवामां आवे ॥ ३५॥ ॥ इति श्रीसमयसार नाटक कर्ता कर्म क्रिया छार तृतीय बालबोध सहित समाप्तं ॥
॥दोहराः।- करता किरिया करमको, प्रगट बखान्यो मूल; अब बरनौं अधिकार यह, पाप पुण्य समतूल ॥३६॥
अर्थः- कर्त्ता क्रिया अने कर्म एउनुं मूल के रहस्य ते प्रगट करी वखाण्यु. हवे. पाप अने पुण्य ए बने बराबर ले तेनो अधिकार वर्णन करुं बुं ॥३६॥ हवे पाप पुण्य छार विषे प्रथम ज्ञानचंधनी कलाने नमस्कार करे:
अथ ज्ञानचंड कला वर्णनं:॥कवित्तबंदः॥-जाके उदै होत घटअंतर, विनसे मोह महातम रोक; सुन अरु अशु न करमकी सुविधा, मिटे सहज दीसे इक थोक; जाकी कला होतु संपूरन, प्रतिनासै सब लोक अलोक; सो प्रबोध शशि निरखि बनारसि, सीश नमार देतु पग धोक ॥३॥
अर्थः- जे प्रबोध चंजना प्रकाशवाथी समान घटमां जे मोहरूप महातम के घोर अंधकारनुं रोक जे अटकाव ते नाश पामे, अने जेम अंधकार गयाथी एक कर्म शुज श्रने एक कर्म अशुन एवी जे कर्मने विषे द्विविधा बे ते मटी जाय, अने स हज नावे कर्म बंधरूप बे एवं एक थोक देखाय अने जेने प्रबोधचंजनी सर्व संपूर्ण कला प्रगट थयेथके सर्व लोकालोकनो प्रतिनास थाय ते प्रबोधरूपी चंडकलाने नि रखीने बनारसीदास माथु नमावीने पगधोकदेतुहे के प्रणाम करे. ॥ ३७॥
हवे मोहमा शुन्न अशुन कर्मनी विविधता देखाय ते एकरूपपणे देखाडेबेः
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