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श्री समयसारनाटक.
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निशेष निरबार ते सम विजाव दशानुं निवारण करीने पढी ए रीते ज्ञाता पुरुष मनमां चितवे ने मां स्थिर रहे ॥ ६६ ॥
sar sor पर्याय अनेद कथन व्यस्था.
॥ कवित्त बंदः ॥ - - जहँ ध्रुव धर्म कर्म बय लछन, सिद्ध समाधि साध्य पद सोइ; सु धोपयोग जोग महि मंमित, साधक ताहि कहै सब कोइ; यों परत परो स्व रूप सु, साधक साध्य अवस्था दोश; दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सेवै शिव क थिर हो. ॥ ६७ ॥
अर्थ :- विज्ञान घन बे ते द्रव्य बे, घने ज्ञाता केवाय ते पर्याय बे, एम विज्ञान छाने ज्ञाता एक बे, तेथी द्रव्य पर्यायनुं श्रजेदपणुं बतावे बेः- ज्यां सकल क नो दय लखिये एवो ध्रुव धर्म जे निश्चल स्वभाव बे, एवं कोइक सिद्धपणानुं यतुं ते तो पद साध्य केदेवाय बे, छाने शुद्ध उपयोग लेता थका ए मन वचन काय यो गमां मंमित थका तीर्थंकर साधु प्रमुख पर्याय लई रह्या बे; तेमने सहु कोई साधु कदेबे एवं साधुपणुं ते प्रत्यक्ष स्वरूप बे; अने साध्यपणुं ते परोक्ष स्वरूप बे. ए बन्ने अवस्था लईने एक विज्ञान घन बे. मोक्षने इछनार साध साध्य बन्नेने एक ज्ञान संचयवडे सेवे, ते बन्ने पदमां विज्ञान घन एक बे; अने ए बन्ने पदनी सेवामां स्थिर थई रहे ॥ ६७ ॥
sarso गुण पर्याय भेद व्यवस्था कथन.
॥ कवित्त छंदः ॥ - दर्शन ज्ञान चरन त्रिगुनातम, समल रूप कहिये विवदार; नि दचे दृष्टि एकरस चेतन, जेद रहित अविचल विकार; सम्यग् दशा प्रमाण उ नै नीर्मल समल एकही बार; यों समकाल जीवकी परिनति, कड़े जिनंद गढ़े गनधार• ॥ ६८ ॥
नय,
अर्थः- शिष्य बेबे के, स्वामी ! तमे अजेद व्यवस्था कही ते कया नयना बल बड़े कही ? गुरु देबे के, व्यवहार नय वडे द्रव्य गुण पर्यायनी जेद अवस्था बे ते कहुं हुं . - ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रणे आत्माना गुण बे; ए स्वरूपथी जे व्यवहार क ही ते समल रूप बे; छाने एज निश्चय दृष्टिथी जोइये तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र एक चेतना रसमय देखाय बे, छाने चेतनाज चेतन बे, तेथे करीने जेदरहित श्रविचल
विकार निर्मल रूप बे. निश्चय नय ने व्यवहार नय ए बन्ने बे ते सम्यग् दशामां प्रमाण बे; जे नय बे ते तो अभिप्राय विशेष बे, माटे एकज श्रव्यक्त रूप निर्मल तथा समल रूप जाणिये. एम समकाले निर्मल ने समल जीवनी परिणति थई रही बे, ते श्री जिन देव कहे बे ने गणधर देव सर्दहे बे. ॥ ६८ ॥
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