________________
६ एश्
प्रकरणरत्नाकर नाग पहेलो.
धार है ॥ ६ ॥ ॥ दोहराः ॥ - चेतन लबन श्रातमा, श्रतम सत्ता मांहि; सत्ता प रिमित वस्तु है, नेद तिहूमें नांहि ॥ ७ ॥
अर्थः- श्रात्मानो दर्शन गुण जे निराकार कही ये बइये तेतो निराकार चेतना थई, जे श्रात्माने शुद्ध ज्ञान गुण सारभूत कही ये बइये तेतो साकार चेतना थई, विशेषताने बीधे रह्यो बे माटे साकार कहिये, ए रीते निराकार याने साकारपणे दर्शन तथा ज्ञानने विषे द्वैत जाव थयो, पण चेतनाने विषे तो अद्वैत नावज रह्यो बे, ने चेतनागुण थकी चेतन द्रव्य बे, तेथी चेतन द्रव्यमां बेड समाइ गयां. वली निराकार ने साकारपणुं सामान्य ने विशेषपणाथकी बे, ते तो सामान्यता ने वि शेषता चेतना द्रव्यनी सत्तानो विस्तार बे; कोई मूढमति वैशिषिक प्रमुख दर्शन चालाक बे, के, श्रात्माने विषे चेतन चिन्ह नथी, चेतना लक्षण नथी, तेने केहेतुं के
रे! मूढ, ! जो चेतन चिन्ह न कहिये तो चेतनानो नाश श्रवाथी त्रिविध विकार उ पजशे, ते कया ? तो के मन वचन ने कायाना विकार जाणवा, माटे लक्षणनो नाश थ वाथी वस्तुनी सत्तानो नाश यशे अने वस्तुनी सत्तानो नाश थवाथी मूल रूप वस्तु नो पण नाश यशे, माटे जीवने जाणवानो तो एक आधार चेतनानोज बे ॥ ६ ॥ श्रात्मानं चेतना लक्षण बे, सत्ता धर्मविना आत्मा वरे नही तेथी आत्मा सत्ताने वि जबे, ने पोतपोतानी सत्ता प्रमाणेज सर्व वस्तु बे, वस्तु द्रव्य विचारी जोइये त्यारे उत्पादादि त्रणे वस्तुमां नेद कोई नयी ॥ ७ ॥
दवे चेतना लक्षणनुं शाश्वत तथा अविनाशीपणुं दृड करावेढेःअथ चेतना अविनाशी यह कथनं:
॥ सवैया तेईसाः ॥ - ज्यों कलधौत सुनारकि संगति, भूषन नांड कहै सब कोई; कंचनता न मिटी तिहिं हेतु वहै फिरि टि तु कंचन होई, त्यों यह जीव जीव संयोग यो बहु रूप जयो नदि दोई, चेतनता न गई कबहू तिहिं, कारन ब्रह्म क दावत सोई. ॥ ८ ॥ देखु सखी यह आपु विराजत याकि दसा सव यादिकुँ सोहै; एक मेँ एक नेक अनेक में, द्वंद्व लिये दुविधामहि दो है; यापु सँजारि लखै श्र पनो पद, श्रपु विसारकें श्रापुदि मोहै; व्यापक रूप यहै घट अंतर, ज्ञान मेँ कौन ज्ञानुमेँ को ! ॥ ए ॥ ज्यों नट एक धरै बहु जेष कला प्रगटै जग कौतुक देखै;
लखै अपनी करतूत व नट जिन्न विलोकत पेखै; त्यों घटमें नट चेतन राज विजाउ दसा धरि रूप विसेखै; खोलि सुदृष्टि लखै अपनो पद, डुंद विचार दसा नदि लेखे. ॥ १० ॥
अर्थः- जे कलधौत के० सोनुं तेने सोनी घमीने भूषण बनावेढे, त्यारे ते घाटना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org