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________________ ७३४ प्रकरणरत्नाकर जाग पहेलो.. . हवे शुद्ध पारस्वरूपना अनुनवविना महाव्रत्ति पण अव्यलिंगी जाणवा ते कहे: अथ व्यलिंगी व्यवस्था कथन:॥सवैया इकतीसाः ॥-कश् मिथ्या दृष्टि जीव धारे जिन मुजा नेष, क्रियामें म गन रहे कहे हम जती है; अतुल अखं मलरहित सदा उदोत, ऐसे ज्ञान नाव सों विमुख मूढमति है; श्रागम संजाले दोष टाले विवहार नाले, पाले वृत्त यद्यपि तथापि अविरती है; आपुकों कहवे मोष मारगके अधिकारी मोषसों सदीव रुष्ट पुष्ट, पुरगति है. ॥ ६७ ॥ दोहराः॥-जे विवहारी मूढ नर, परजे बुद्धी जीव, तिनको बा डिज क्रीयको, हे अवलंब सदीव. ॥ ६॥ ॥ अर्थः-कैक जीव मिथ्या दृष्टि डे अने आचार्य उपदेश रसथी जिन मुखानेषधारी ने अने साधुनी क्रियामां मग्न रहेडे, अने पोताना मनथी अथवा कोईना पूवाथी अमे जति बश्ये एम कहे एटले महाव्रत्ति बैये. अने जेनी तुलना नथी एवं अखंड के संपूर्ण विनाव मलरहित सदा प्रकाशवंत पोतानुं अनुजवरूप जे ज्ञान नाव डे तेथी विमुख डे माटे मूढमति बे. ते क्रिया करेबे, बागम सिफांत संनारेबे, अने श्रादारादिकना दोष टाली व्यवहारमा दृष्टि राखेडे, एम यद्यपि महावृत्त पाले ने, तोपण निश्चय नयथी ए अविरतीज कहीए. एवा जे जीव ते पोते मोक्ष मार्गना अधिकारी लोकमां कहेवाय. मोक्षथी ए सदा रुग्याज रहे एटले अन्नव्यने पण क्रिया केवल नवमा ग्रैवेयकसुधी गति कही बे; पाबो ए मुख पुर्गतिमां पडेना जे को मूर्ख मनुष्य व्यवहारमांज रहे अने जे जीव पर्याय बुद्धिवंत जे ते शुज गतियो जीव होय तो जली एवी पर्याय बुधि धारे तेने तो बाह्य क्रियानुं श्रव लंबन सदाय कयुंडे ॥ ६॥ वे व्यवहारे महामूढ तेनुं वर्णन करेजेः- श्रथ महामूढ बननः॥चौपाई॥-जेसे मुगध धान पहिचाने; तुष तंडुलको नेद न जाने; तैसे मूढमती व्यवहारी; लखे न बंध मोष विधि न्यारी ॥॥ दोहराः॥-कुमति बाहिज दिष्टिसो, बाहिज क्रिया करत, माने मोष परंपरा, मनमें हरष धरंत ॥ १॥ शुधात्तम श्रनुजो कथा, कहे समकिती को, सो सुनिके तासों कहे, यह सिवपंथ न हो ॥ ७ ॥ अर्थः-जेम को मननो नोलो पुरुष ३ ते धानने तो ओलखे पण तूस अने तंफुल मां जिन्नता ले ते न जाणे तेम, जे व्यवहारी मूढमति ने तेतो बंधविधि अने मोद विधि जदो जूदो लखी शके नहीं; केवल विधि जाणे ॥ ७० ॥ जे कुमति होय ते प र्याय बुकिथी शाता वेदनीय पणे समाधि सुख जाणीने बाह्य अष्टिथी तेनी हेतुरूप बाह्यक्रिया करे अने बाह्यक्रियामां मग्न होय तो तेथी तेने निर्जरा मानीने मोक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002165
Book TitlePrakarana Ratnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhimsinh Manek Shravak Mumbai
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1903
Total Pages228
LanguageHindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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