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श्री समयसारनाटक.
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परंपरा माने अने मनमां श्रानंद पामे ॥ ७१ ॥ ते मूढने कोइ समकिती जीव शुद्ध आत्मानी अनुभव दशाने मोनुं कारण कहे तो तेनुं वचन सांजलीने तेने एवं कहे के ए रीतेतो मोक्षमार्ग थाय नदी ॥ ७२ ॥
हवे मूढ तथा ज्ञानीनुं लक्षण कदेबे :- छाथ मूढ तथा ज्ञानी लक्षण कथनः॥ कवितः। - जिन्दके देह बुद्धि घट अंतर, मुनि मुद्रा धरि क्रिया प्रवानहि; ते दि ध बंध करता, परम तत्वको नेद न जानहि; जिन्दके दिये सुमतिकी क निका, बादिज क्रिया द्वेष परमानदि; ते समकिती मोष मारग मुष, करि प्रस्थान नव स्थिति जानहि ॥ ७३ ॥
अर्थः- जेना हीयामां देह बुद्धि रहेने एटले देहधारी ने पण जिन्नपणे जाणतो नयी ने मुनीश्वरनी मुद्रा धारिने क्रियानेज प्रमाण करेढे, तेतो हीयानो अंध बे छाने बंधन करनार बे ने परम तत्त्वके० मोक्ष तत्त्वना भेद ने जाणतो नयी अने जेना हैयामां सम्यग् दृष्टिने लीधे सुबुद्धिनी करणीका जागी तेतो बाह्य क्रियाने जेष रूप प्रमाण करे. तेनेतो समकिती कही ए; ते जीव मोक्ष मार्ग ने सन्मुख प्रस्था न के० प्रयाण करीने जवस्थितिने निश्चयेनांजे बे ॥७३॥
दवे संपथी निःकेवल उपादेयरूप मोक्ष मार्गनो उपदेश देते:Bar मोक्षको उपदेश संक्षेप मात्र कथन: -
॥ सवैया इकतीसाः ॥ - श्राचारिज कड़े जिन वचनको विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो !, बहुत बोलवेसों न मकसूद चुप जली, बोलीए सुवचन प्रयोजन है जितनो; नानारूप जलपसों नाना विकल्प उठे, ताते जेतो कारिज कथन जलो तितनो; शुद्ध परमातमको अनुमौ श्रन्यास कीजे, यहे मोष पंथ परमारथ है इतनो ॥ १४ ॥ दोहराः ॥ - सुद्धातम अनुजो क्रिया, सुद्ध ज्ञान दृग दौर, मुकति पंथ साधन वहै, वाग जाल सब और ॥ ७५ ॥
अर्थ :- श्राचार्यजी शिष्यने कहे बे. अहो! शिष्य ! जिनेश्वरनां वचननो विस्तार तो नय प्रमाण करीने अगम छापार बे. छामे केटलोक कहीए, यहीं बहु बोलवु ते अ मारी मकसुद नथी तेथी चुप रहेनुं तेज ठीक बे, घने जेटलुं प्रयोजन बे तेटलुंज बोल पण नाना प्रकारनु जल्प के० बोलवुं कहिये तो नाना प्रकारना विकल्प उवेबे, तेथ जे एक कार्य पुरतुंज बोलकं बस बेशुद्ध परमात्म द्रव्यना छानुनव योगना अन्यास करीए एज मोक्ष मार्ग जाणीए, बधी वातमां एटलोज परमार्थ बे ॥ ७४ ॥ जे क्रियाथी शुद्ध श्रात्मानो अनुभव थाय तेज क्रियाबे अने शुद्ध ज्ञान दृष्टिनी दोर तेज मुक्ति पथनुं कारण बे. बीजु सर्व वचनाम्बरवे ॥ ७५ ॥
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