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प्रकरणरत्नाकर जाग पडेलो. धाम धनमें; जे सदीव श्रापकों विचारै सरवंग सुझ, जिन्हके विकलता न व्यापै कब मनमें; तेई मोक्ष मारगके साधक कहावै जीव, जावै रहो मंदिरमें जावे रहो बनमें
अर्थः- जेना हश्यामां सुबुद्धि जागी, अने विषय जोगथी जे वैरागी थया, अने जे रागद्वेषादिक परनाव बे, तेना सेवना संग के त्रण लोकनेविषे तेना त्यागी जे पु रुष , श्रने जे राग द्वेषादिक नाव पदार्थ ते थकी जेनी रेहेणी न्यारी बे, तेथी धाम के घर अने धन तेनेविषे मग्न थई न रहे, अने जे सदा निश्चय दृष्टिए देखीने श्रा त्माने सर्वांग शुभ विचारे बे, तेथी जेना मनने विषे विकलता नही व्यापे, एवी दशा लईने जे जीव रह्या , तेज जीव मोद मार्गना साधक केदेवाय, पनी ते नावे तो मं दिरमा रहे, ने नावे तो वनमा रहे, पण तेनी दशा सर्व स्थानके एकज होय ॥१॥ हवे मोदगामी जीव विचक्षण पुरुषनी दशा कहेजेः- श्रथ विचदणदशा वर्णनं:
॥ सवैया तेईसाः॥- चेतन मंडित अंग अखंडित शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो; राग विरोध विमोह दशा समुफे ब्रम नाटिक पुग्गल केरो; जोग सँयोग वियोग व्यथा श्र विलोकि कहै यह कर्मज घेरो; है जिन्हकों श्रनुजौ इहि नांति सदा तिन्हिकों परमारथ नेरो. ॥ १३ ॥
अर्थः- जे परमात्माने विषे दृष्टि दैने विचार करे के, जे मारो पदार्थ , ते चेतन मंमित , अने अखंडित ने, अवेद्य , अन्नेद्य , अने शुद्ध, पवित्र , अने एथी जुदी जे राग द्वेषने मोहनी दशा थई रही, तेने तो चमरूप मिथ्याजाल पुद्गलनुं नाटक करी समके , अने पंचेंजियना नोगसंयोगने वियोग एवी बाह्यात्माने विषे व्यथा अवलोकीने एवं कहे के, एतो कर्मनो घेरो , कर्मनो उदय बे, एवो अनुभव जेने नित्य रहे, तेने परमार्थरूप मोद ते सदा नेरो के नजीक बे. ॥ १३ ॥ हवे जे मोक्षथी पूर ते चोर, ने मोदथी निकट ते साहुकार एवं कहेजेः
अब चोर तथा साहुकार वर्णन:॥ दोहराः ॥- जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अझ; जो अपनो धन विव हरै, सो धनपति धरमझ.॥ १४ ॥ परकी संगति जो रचै, बंध बनावे सोश, जो निज सत्तामें मगन, सहज मुक्त सो होश. ॥ १५॥
अर्थः-जे पुमान के पुरुष परधनने हरे, ते अपराधी जीव अझ के अजाण क हीये; ने जे पोतानाज धननो व्यवहार राखे, ते धनपति कहिये, धर्मज्ञ के धर्मने जाणनार कहियें ॥ १४ ॥ तेम जे परवस्तुनी संगतीए राचे ते चोर केहेवाय, ने तेज पोताना बंधने वधारे, अनेजे पोतानी सत्तामां सदाकाल मग्न रहे तेज मुक्तरूप थाय.
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