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श्री समयसारनाटक.
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बहीरकोसो ससा है; ऐसो मन चंचल पताका कोसो अंचल सु ज्ञानके जगेसें निर
वान पथ धसा है ॥ ८ ॥
अर्थः- श्र मन क्षणमां प्रवीण थायडे, क्षणमां मायाने विषे मलीन थायबे, दण मां दीन दशा धरेबे, क्षणमां शक्र के इंद्र जेवुं बनेबे, क्षणमां दोम धाम करेबे, द मां अनंतरूप धरे बे, जेम दद्दीने वलोवतां कोलाहल थायडे, तेवो कोलाहल ए मन करे. वली नट जे नाचनार घुमे तेवो, के रट्टनी माला घुमे तेवो, के नदीनो वम ल घुमेढे तेवो, अथवा कुंनारनुं चक्र फरेबे तेवो सदाकाल मननो नामक स्वाव े. एवं ए मन याज केम स्थिर थाय ? जाते चंचल ने अनादिकालथी वाकुं चालनारुं मन बे. वली केवुं बे ? ॥ ८८ ॥ हमेशा दोडतुं फरेबे, पण एने किहांय साधुं सुख प्राप्त यतुं नथी, पोताना समाधिसुखथी विमुख ययुंबे छाने दुःखरूप कूप वास मां वस्युं बे, वली ए मन धर्मनुं घाती बे, अने धर्मनुं संघाती वे, एवं महा कुरा फाती बे, ए मननी दशा तो जेम कोई पुरुषने सन्निपात थयो होय तेना सरखी बे. द्रोह तथा वंचनाने ऊट यही लिये ने कायाना मोहश्री मग्न रहे, ने जम जालमां पकी ब्युंज फरे. जेम कटकनी जीममां ससलुं श्रावी पदे ने जमतुं फरे, तेवुं मन a. ने पताका के० ध्वजा तेना अंचल के० बेमानी पेठे जाणवुं. ते ज्यारे ज्ञान प्रगटे त्यारे निरवाण के मोह मार्ग तेने विषे गमन करे एवं बे ॥ ८ ॥
॥ दोहराः ॥ - जो मन विषय कषायमें, वरते चंचल सोइ; जो मन ध्यान विचार रुके सुविचल होइ ॥ ए० ॥ ताते विषय कषायसों, फेरि सु मनकी वानि; तम अनुजौ विषे, कीजे अविचल यानि १ ॥
अर्थः- जो मन विषय कषायरूप राग द्वेषमां वर्त्ते तो चंचल जाणवुं श्रने जो ए मन राग द्वेष बांडो ध्यान विचारथी रोक्युं रहे तो अविचल जाणवुं ॥ ० ॥ माटे विषय कषायमां मननी लागणी बे तेने काढी निज शुद्धात्मना अनुजवमां लगामीने मनने अविचल करियें ॥ ५१ ॥
वे मन स्थिर करवाने श्रात्मानो विचार करवो ते कड़े :arr विचार शिक्षा कथनंः
॥ सवैया इकतीसा ॥ - श्रलख मूरति रूपी अविनासी अज, निराधार निगम निरंजन निरंध है; नानारूप जेष धरे द्वेषको न लेस धरे, चेतन प्रदेस धरे चेतनाको बंध है मोह धरे मोहीसो विराजे तोमें तोही सो, न तोहिसो न मोदीसो नि रागी निरबंध है; ऐसो चिदानंद याही घटमैं निकट तेरे, ताही तुं विचार मन और सर्व धंध है. ॥ २ ॥
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