Book Title: Agam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज विरचितयाऽऽचारचिन्तामणि-व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दीगुर्जरभाषाऽनुवादसहितम् आचाराङसूत्रम्। (प्रथमो भागः अध्य० १) [ प्रथमः श्रुतस्कन्धः ] ACHARANGA SUTRA PART 1 CHAPTER 1 नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डित-मुनिश्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशक. अ०भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुग्वः श्रेष्ठि-श्री-शान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट द्वितीय आवृत्ति वीर संवत विक्रम संवत ईस्वीसन प्रति १००० २०१४ मूल्यम्-रू. 38-0-० KOS २४८४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : શ્રી અ. ભા. ધ. સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ૐ ગરેડિયા ફૂવારાડ, ગ્રીન લેાજ પાસે, રાજકોટ. સૌરાષ્ટ્ર ) બીજી આવૃત્તિ ઃ પ્રત ૧૦૦૦ વીર સંવત ઃ ૨૪૮૪ વિક્રમ સંવત : ૨૦૧૪ ઈ સ્વી સ ન : ૧૯૫૮ : સુદ્રક : મણિલાલ છગનલાલ શાહ ધી નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ ઘીકાંટા રાડ : : અમદાવાદ, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; રૂા. ૧૦,૦૦૦) આપનાર આદ્ય સુબ્બી સમિતિના પ્રમુખ; દાનવીર શેઠશ્રી, *** 1 L. dow શેશાં તિ લા લ મ ગ ળ દા સ ભા અ સ ી વા દે. Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રીવ માન-શ્રમણ-સંઘના આચાર્ય શ્રી પૂજ્ય આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ આપેલ સમ્મતિપત્ર * ઉપરાંત પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ-રચિત બીજા સૂત્રેાની ટીકા માટે તેઓશ્રીના મતવ્યેા * તેમજ અન્ય મહાત્માઓ, મહાસતીજીએ, અદ્યતન-પદ્ધતિવાળા કાલેજના પ્રોફેસરા તેમજ શાસ્ત્રજ્ઞ શ્રાવકોના અભિપ્રાયે Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-प्रधानाचार्य-पण्डित-मुनिश्रीमदात्मरामजीमहाराजानाम् आचारागसूत्रस्याचार चिन्तामणिटीकायां ...... सम्मतिपत्रम् . . श्रीमल्लब्धसपाचार्यवयंघासीलालजित्कृता श्रीमदाचारागसूत्रप्रथमाध्ययनस्याचारचिन्तामणिवृत्तिःसाकल्येनोपयोगितापूर्वकं कर्णकुहरीकृता, वृत्तिरियं न्यायसिद्धान्तोपेता व्याकरणनियमोपनिबद्धा, तथा च प्रासङ्गिकरीत्या अन्यसिद्धान्तसङ्ग्रहोऽप्यस्यां याथातथ्येनाभासत एव, अपि च निखिला अपि विषयाः सम्यग व्यक्तीकृता लेखकेन, विशेषण प्रौढविषयाणां स्फुटतया गीर्वाणवाण्यां प्रतिपादनम् अधिकतरं मनोरक्षकम् । अत आचार्यमहोदयो धन्यवादमहतीति । आशासे जिज्ञासुमहोदया अस्याः सम्यम् अध्ययनेन जैनागमसिद्धान्तपीयूषं पायं पायं मनोमोदं विधास्यन्तीति । अस्याः परिशीलनेन चतुर्णामनुयोगानां परिचयं प्राप्तुवन्तु सज्जनाः। अथ आचार्यमहोदया एवमेवान्येषामपि जैनागमानां विशदव्याख्यानेन श्वेताम्बराणां स्थानकवासिनां महोपकृति विधाय यशस्विनो भविष्यन्तीति । पञ्चनप्रान्तान्तर्वति-लुध्यानामण्डल-स्थानकवास्तव्यो जैनमुनिरुपाध्याय आत्मारामः। विक्रमान्दः २००२, मार्गशीर्षशुक्ला प्रतिपत्, शुभमस्तु । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જૈનાગમવારિધિ-જૈનધર્મદિવાકર પ્રધાનાચાર્ય પડિતમુનિશ્રી આત્મારામજી મહારાજ (પંજાબ) ના એ આચારાંગસૂરની આચારચિંતામણિ ટીકાપર આપેલ સંમતિપત્રને ગુજરાતી અનુવાદ. મેં પૂજ્ય આચાર્યવયે ઘાસીલાલજી મહારાજ) ની બનાવેલ શ્રીમદ્ આચારાંગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનની આચારચિંતામણિ ટીકા સપૂર્ણ ઉપગપૂર્વક સાંભળી. આ ટીકા ન્યાય સિદ્ધાંતથી યુક્ત, વ્યાકરણના નિયમથી નિબદ્ધ છે. તથા એમાં પ્રસંગે પ્રસંગે કમથી અન્ય સિદ્ધાંતને સંગ્રહ પણ ઉચિતરૂપથી જણાઈ આવે છે. ટીકાકારે અન્ય તમામ વિષયે સમ્યક પ્રકારથી સ્પષ્ટ કરેલ છે. તેમજ પ્રૌઢ વિષયને વિશેષરૂપથી સંસ્કૃત–ભાષામાં સ્પષ્ટતાપૂર્વક પ્રતિપાદન અતિ મનેરંજક છે. એ માટે આચાર્ય મહદય ખરેખર ધન્યવાદને પાત્ર છે. હું આશા રાખું છું કે જિજ્ઞાસુ મહેદ એના સારી રીતે પઠન પાઠન દ્વારા જૈનાગમ સિદ્ધાંતરૂપ અમૃત પીય પીયને મનને આનંદિત કરે. અને તેના મનનથી દક્ષજને ચાર અનુયેનું સ્વરૂપજ્ઞાન મેળવે. તથા આચાર્યવય આવી જ રીતે બીજા પણ જૈનાગમોના સ્પષ્ટતાપૂર્વક વિવેચન દ્વારા શ્વેતાંબર સ્થાનકવાસી સમાજ પર મહાન ઉપકાર કરીને યશસ્વી બને. વિ. સં. ૨૦૦૨ માગસર સુદી ૧ જૈનમુનિ-ઉપાધ્યાય આત્મારામ લુધિયાના (પંજાબ) શુભમતુ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवेत्ता जैनधर्मदिवाकर उपाध्याय श्री १००८ श्री आत्मारामी महाराज तथा न्यायव्याकरणके ज्ञाता परम पण्डित मुनिश्री १००७ श्री हेमचन्द्रजी महाराज, इन दोनों महात्माओंका दिया हुआ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रका प्रमाण पत्र निम्न प्रकार है सम्मइवत्तं सिरि-वीरनिव्याण-संवच्छर २४५८ आसोई (पुण्णमासी) १५ सुक्कवारो लुहियाणाओ । मए मुणिहेमचंदेण य पंडियरयणमुणिसिरि-घासीलालविणिम्मिया सिरिउवासगसुत्तस्स अगारधम्मसंजीवणीनामिया वित्ती पंडियमूलचन्दवासाओ अज्जोवंतं सुया, समीईणं, इयं वित्ती जहाणामं तहा गुणेवि धारेइ, सच्चं अगाराणं तु इमा जीवण (संजमजीवण) दाई एव अस्थि । वित्तिकत्तुणा मूलसुत्तस्स भावो उज्जुसेलीओ फुडीकओ, अहय उवासयस्स सामण्णविसेसधम्मो, णयसियवायवाओ, कम्मपुरिसट्ठवाओ, समणोवासयस्स धम्मदढया य, इच्चाइविसया अस्सि फुडरीइओ वणिया, जेण कत्तुणो पडिहाए मुठ्ठप्पयारेण परिचओ होइ, तह इइहासदिटिओवि सिरिसमणस्स भगवओ महावीरस्स समए वट्टमाणभरहवासस्स य कत्तुणा विमयप्पयारेण चित्तं चित्तियं, पुणो सक्कयपाढीणं, वट्टमाणकाले हिन्दीणामियाए भासाए भासीगं य परमोवयारो कडो, इमेण कत्तुगो अरिहत्ता दोसइ, कत्तुणो एयं कज्ज परमप्पसंसणिज्जमत्थि । पत्तेयजणस्स मज्झत्थभावाओ अस्स सुत्तस्स अवलोयणमईव लाहप्पयं, अवि उ सावयस्स तु (उ) इमं सत्थं सव्यस्समेव अस्थि, अओ कत्तुणो अणेगकोडिसो धन्नवाओ अत्थि, जेहिं अच्चंतपरिस्समेण जइणजणतोवरि असीमोवयारो कडो, अह य सावयस्स वारस नियमा उ पत्तेयजणस्स पढणिज्जा अस्थि, जेसिं पहावओ वा गहणाओ आया निव्वाणाहिगारी भवइ, तहा भवियव्ययावाओ पुरिसत्कारपरकमवाओ य अवस्समेव दंसणिज्जो, किंवहुणा इमोए वित्तीए पतेय. विसयस्स फुडसदेहिं वण्णणं कयं, जइ अन्नोवि एवं अम्हागं पमुत्तप्पाए समाजे विज्ज भवेज्जा तया नाणस्स चरित्तस्स तहा संघस्स य खिप्प उदयो भविस्सइ, एवं ह मन्ने॥ भवईओउवज्झाय-जइणमुणि-आयाराम-पंचनईओ, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिपत्र (भाषान्तर) श्रीवीरनिर्वाण सं० २४५८ आसोज शुक्ल १५ (पूर्णिमा) शुक्रवार लुधियाना मैंने और पंडितमुनि हेमचन्दजीने पंडितरत्नमनिश्री घासीलालजीकी रची हुई उपासकदशांग सूत्रकी गृहस्थधर्मसंजीवनी नामक टीका पंडित मूलचन्द्रजी व्याससे आद्योपान्त सुनी है। यह वृत्ति यथानाम तथागुणवाली-अच्छी बनी-है। सच यह गृहस्थोंके तो जीवनदात्रीसंयमरूप जीवनको देनेवाली-ही है। टीकाकार ने मृलसत्र के भावको सरल रीतिसे वर्णन किया है, तथा श्रावकका सामान्य धर्म क्या है ? और विशेष धर्म क्या है ? इसका खुलासा इस टीकामें अच्छे ढंगसे बतलाया है। स्थाडादका स्वरूप, कर्म-पुरुषार्थ-वाद और श्रावकोंको धर्मके अन्दर दृढ़ता किस प्रकार रखना, इत्यादि विषयोंका निरूपण इसमें भलीभांति किया है। इससे टीकाकारकी प्रतिभा खूब झलकती है। ऐतिहासिक दृष्टिसे श्रमण भगवान महावीरके समय जैनधर्म किस जाहोजहाली पर था और वर्तमान समय जैनधर्म किस स्थितिमें पहुंचा इस विषयका तो ठीक चित्र ही चित्रित कर दिया है। फिर संस्कृत जाननेवालोंको तथा हिन्दीभाषाके जाननेवालोंको भी पूरा लाभ होगा, क्योंकि टीका संस्कृत है, उसकी सरल हिन्दी कर दी गई है। इसके पढनेसे कर्ताकी योग्यताका पता लगता है कि वृत्तिकारने समझानेका कैसा अच्छा प्रयत्न किया है। टीकाकारका यह कार्य परम प्रशंसनीय है। इस सूत्रको मध्यस्थ भावसे पढने वालोंको परम लाभकी प्राप्ति होगी। क्या कहें! श्रावकों (गृहस्थों ) का तो यह सूत्र सर्वस्व ही है, अतः टीकाकारको कोटिशः धन्यवाद दिया जाता है, जिन्होंने :अत्यन्त परिश्रमसे जैनजनताके ऊपर असीम उपकार किया है। इसमें श्रावक के बारह नियम प्रत्येक पुरुषके पढने योग्य हैं, जिनके प्रभावसे अथवा यथायोग्य ग्रहण करनेसे आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है, तथा भवितव्यतावाद और पुरुषकार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमवाद हरएकको अवश्य देखना चाहिये । कहां तक कहें, इस टीका में प्रत्येक विषय सम्यक् प्रकारसे बताये गये हैं। हमारी सुप्तप्राय ( सोई हुई सी) समाजमें अगर आप जैसे योग्य विद्वान फिर भी कोई होंगे तो ज्ञान, चारित्र तथा श्रीसंघका शीघ्र उदय होगा, ऐसा मैं मानता हूँ । आपका उपाध्याय जैनमुनि आत्माराम पंजाबी. इसी प्रकार लाहोर में विराजते हुए पण्डितवर्य विद्वान मुनिश्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा पं० मुनिश्री त्रिलोकचन्दजी महाराजके दिये हुए, श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रके प्रमाणपत्रका हिन्दी सारांश निम्न प्रकार है श्री श्री स्वामी घासीलालजी महाराज- कृत श्री उपासकदशाङ्ग सूत्रकी संस्कृत टीका व भाषाका अवलोकन किया, यह टीका अतिरमणीय व मनोरञ्जक है, इसे आपने वडे परिश्रम व पुरुषार्थसे तय्यार किया है, सो आप धन्यवादके पात्र हैं । आप जैसे व्यक्तियोंकी समाजमें पूर्ण आवश्यकता है। आपकी इस लेखनीसे समाजके विद्वान् साधुवर्ग पढ कर पूर्ण लाभ उठायेंगे, टीकाके पढनेसे हमको अत्यानन्द हुवा, और मनमें ऐसे विचार उत्पन्न हुए कि हमारी समाजमें भी ऐसे २ सुयोग्य रत्न उत्पन्न होने लगे यह एक हमारे लिये वडे गौरवकी बात है । वि. सं. १९८९ मा. आश्विन कृष्णा १३ वार भौम लाहोर. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ. ૬૦૦૦) આપનાર આદ્ય મુરબ્બીશ્રી * * * * * *. શેઠ હરખચંદ કાળીદાસ વારીયા ભાણવડ, Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र की 'अनगारधर्माऽमृतवर्पिणी ' टीका पर जैनदिवाकर साहित्यरत्न जैनागमरत्नाकर परमपूज्य श्रद्धेय जैनाचार्य श्री आत्मारामजी महाराजका सम्मतिपत्र लधियाना, ता. ४-८-५१ मैंने आचार्यश्री घासीलालजी म. द्वारा निर्मित 'अनगार-धर्माऽमृत-वर्षिणी' टीका वाले श्री ज्ञाताधर्मकयाङ्ग मूत्रका मुनिश्री रत्नचन्द्रजीसे आद्योपान्त श्रवण किया। ____ यह निःसन्देह कहना पड़ता है कि यह टीका आचार्यश्री घासीलालजी म० ने बढे परिश्रम से लिखी है। इसमें प्रत्येक शब्दका प्रमाणिक अर्थ और कठिन स्थलों पर सार-पूर्ण विवेचन आदि कई एक विशेषतायें हैं । मूल स्थलों को सरल बनानेमें काफी प्रयत्न किया गया है, इससे साधारण तथा असाधारण सभी संस्कृतज्ञ पाठकोंको लाभ होगा ऐसा मेरा विचार है। ___ मैं स्वाध्यायप्रेमी सज्जनों से यह आशा करूंगा कि वे वृत्तिकारके परिश्रम को सफल बना कर शास्त्रमें दी गई अनमोल शिक्षाओं से अपने जीवनको शिक्षित करते हुए परमसाध्य मोक्षको प्राप्त करेंगे। श्रीमान्जी जयवीर ___आपकी सेवामें पोष्टद्वारा पुस्तक भेज रहे हैं और इस पर आचार्यश्रीजी की जो सम्मति हैं वह इस पत्रके साथ भेज रहे हैं, पहुंचने पर समाचार देवें । श्री आचार्यश्री आत्मारामजी म० ठाने ६ सुखशान्तिसे विराजते हैं। पूज्य श्री घासीलालजी म. सा० ठाने ४ को हमारी ओरसे वन्दना अर्जकर सुखशाता पूर्छ। पूज्यश्री घासीलालजी म. जीका लिखा हुआ (विपाकसूत्र) महाराजश्रीजी देखना चाहते हैं । इसलिये १ कापी आप भेजनेकी कृपा करें; फिर आपको वापिस भेज देवेंगे । आपके पास नहीं हो तो जहांसे मिले वहांसे १ कापी जरूर भिजवाने का कष्ट करें, उत्तर जल्द देनेकी कृपा करें। योग्य सेवा लिखते रहें। लुधियाना ता. ४-८-५१ निवेदक प्यारेलाल Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-उपाध्याय-पण्डित-मुनि श्रीआत्मारामजी महाराज (पंजाब) का आचारागसूत्र की ___ आचारचिन्तामणि टीका पर सम्मतिपत्र मैंने पूज्य आचार्यवर्य श्री घासीलालजी (महाराज )की बनाई हुई श्रीमद् आचारागसूत्रके प्रथम अध्ययन की आचारचिन्तामणि टीका सम्पूर्ण उपयोगपूर्वक सुनी। ___यह टीका, न्यायसिद्धान्त से युक्त, व्याकरण के नियम से निबद्ध है। तथा इसमें प्रसङ्ग २ पर क्रमसे अन्य सिद्धान्त का संग्रह भी उचित रूप से मालूम होता है। टीकाकारने अन्य सभी विषय सम्यक् प्रकार से स्पष्ट किये हैं, तथा प्रौढ विषयोंका विशेषरूप से संस्कृत भाषा में स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन अधिक मनोरंजक है, एतदर्थ आचार्य महोदय धन्यवादके पात्र हैं। _____ मैं आशा करता हूं कि जिज्ञासु महोदय इसका भलीभांति पठन-द्वारा जैनागमसिद्धान्तरूप अमृत पी-पी कर मन को हर्षित करेंगे, और इसके मनन से, दक्ष जन चार अनुयोगों का स्वरूपज्ञान पावेंगे । तथा आचार्यवर्य इसी प्रकार दूसरे भी जैनागमोंके विशद विवेचन द्वारा श्वेताम्बर-स्थानकवासी समाज पर महान उपकार कर यशस्वी बनेंगे। वि. सं. २००२ । जैनमुनि-उपाध्याय आत्माराम मृगसर सुदि १ । लुधियाना (पंजाब). शुभमस्तु ॥ यीकानेरवासी समाजभूपण शास्त्रज्ञ भेरुदानजी शेठियाका अभिप्राय आप जो शास्त्रका कार्य कर रहे हैं यह वडा उपकारका कार्य है। इससे जैनजनताको काफी लाभ पहुंचेगा। (ता. २८-३-५६ के पत्रमेंसे) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीः॥ जैनागमवारिधि-जैनधर्मदिवाकर-जैनाचार्य-पूज्यश्री आत्मारामजीमहाराजानां पञ्चनद-(पंजाब) स्थानामनुत्तरोपपातिकमुत्राणा मर्थबोधिनीनामकटीकायामिदम् सम्मतिपत्रम् आचार्यवर्यैः श्री घासीलालमुनिभिः सङ्कलिता अनुत्तरोपपातिकसूत्राणामर्थबोधिनीनाम्नी संस्कृतवृत्तिरुपयोगपूर्वकं सकलाऽपि स्वशिष्यमुखेनाऽश्रावि मया, इयं हि वृत्तिमुनिवरस्य वैदुष्यं प्रकटयति । श्रीमद्भिर्मुनिभिः सूत्राणामर्थान् स्पष्टयितुं यः प्रयत्नो व्यधायि तदर्थमनेकशो धन्यवादानहन्ति ते। यथा चेयं वृत्तिः सरला सुबोधिनी च तथा सारवत्यपि । अस्याः स्वाध्यायेन निर्वाणपदमभीप्सुभिनिर्वाणपदमनुसरद्भिनि-दर्शन-चारित्रेषु प्रयतमानैर्मुनिभिः श्रावकैश्च ज्ञानदर्शन-चारित्राणि सम्यक् सम्प्राप्याऽन्येऽप्यात्मानस्तत्र प्रवर्तयिष्यन्ते ।। ____ आशासे श्रीमदाशुकविमुनिवरो गीर्वाणवाणीजुषां विदुषां मनस्तोपाय जैनागमसूत्राणां साराववोधाय च अन्येषामपि जैनागमानामित्थं सरलाः सुस्पष्टाश्च वृत्तीविधाय तांस्तान् सूत्रग्रन्थान् देवगिरा सुस्पष्टयिष्यति । ___ अन्ते च “ मुनिवरस्य परिश्रमं सफलयितुं सरलां सुबोधिनी चेमां सूत्रवृत्तिं स्वाध्यायेन सनाथयिष्यन्त्यवश्यं सुयोग्या हंसनिभाः पाठकाः" इत्याशास्ते विक्रमाव्द २००२ ) श्रावणकृष्णा प्रतिपदा लुधियाना उपाध्याय आत्मारामो जैनमुनिः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्री दशवैकालिकसूत्रका सम्मतिपत्र) ॥श्री वीरगौतमाय नमः॥ सम्मतिपत्रम् मए पंडितमुणि-हेमचंदेण य पंडिय-मूलचन्दवासवारा पत्ता पंडिय-रयण-मुणि-घासीलालेण विरहया सक्कय-हिन्दी-भाषाहिं जुत्ता सिरि-दसवेयालिय-नामसुत्तस्स आयारमणिमंजूसा वित्ती अवलोइया, इमा मणोहरा अस्थि, एत्थ सदाणं अइसयजुत्तो अत्थो वण्णिओ, विउजणाणं पाययजणाण य परमोवयारिया इमा वित्ती दीसइ। आयारविसए वित्तीकत्तारेण अइसयपुव्वं उल्लेहो कडो, तहा अहिंसाए सख्वं जे जहा-तहा न जाणंति तेसिं इमाए वित्तीए परमलाहो भविस्सइ, कत्तुणा पत्तेयविसयाणं फुडस्वेण वण्णणं कडं, तहा मुणिणो अरहत्ता इमाए वित्तीए अवलोयगाओ अइसयजुत्ता सिज्झइ। सक्कयछाया सुत्तपयाणं पयच्छेओ य सुबोहदायगो अत्थि, पत्तेयजिण्णासुणो इमा वित्ती दुव्वा। अम्हाणं समाजे एरिसविज्ज-मुणिरयणाणं सम्भावो समाजस्स अहोभग्गं अत्थि, किं उत्तविज्जमुणिरयणाणं कारणाओ, जो अम्हाणं समाजो सुत्तप्पाओ अम्हकेरं साहिच्चं च लुत्तप्पायं अस्थि, तेसिं पुणोवि उदओ भविस्सइ ? जस्स कारणाओ भवियप्पा मोक्खस्स जोग्गो भवित्ता पुणो निव्वाणं पाविहिड्। अओहं आयारमणिमंजूसाए कत्तुणो पुणो पुणो धन्नवायं देमि-।। वि. सं. १९९० फाल्गुन ) इइ शुक्लत्रयोदशी महाले । उवज्जाय जइण-मुणी, आयारामो (अलवरस्टेट) (पंचनईओ) ऐसे ही: मध्यभारत सैलाना-निवासी श्रीमान् रतनलालजी डोसी श्रमणोपासक जैन लिखते हैं कि श्रीमान् की की हुई टीकावाला उपासकदशांग सेवक के दृष्टिगत हुवा, सेवक अभी उसका मनन कर रहा है, यह ग्रन्थ सर्वाङ्गसुन्दर एवम् उच्च कोटि का उपकारक है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N ' ' ', = ' , કે ૧ 1 1 - 5 Fe - * રાજ કે ટ. કે ઠારી હ ર ગે વિંદ ભાઈ જે ચંદ રૂા. પર૫આપનાર આધ મુરબી શ્રી * , , : ::: :: , S . * - * * thd_Mud મન કે : ૧૪ ડિનર અસ્તર , મદ..31. Stu ‘જા અન nal..sh,019.5 14 Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ निरयावलिका सूत्रका सम्मतिपत्र आगमवाराधि-सर्वत्रन्त्रस्वतन्त्र - जैनाचार्य पूज्यश्री आत्मारामजी महाराजकी तरफका आया हुवा सम्मतिपत्र लुधियाना ता. ११ नवम्बर ४८ श्रीयुत गुलाबन्दजी पानाचंदजी ! सादर जयजिनेन्द्र || पत्र आपका मिला, निरयावलिका विषय पूज्यश्रीका स्वास्थ्य ठीक न होने से उनके शिष्य पं. श्री हेमचन्द्रजी महाराजने सम्मतिपत्र लिख दिया है, आपको भेज रहे हैं, कृपया एक कोपी निरयावलिका की और भेज दीजिये, और कोई योग्य सेवा कार्य लिखते रहें ।! भवदीय. गूजरमल - बलवंतराय जैन ॥ सम्मति ॥ ( लेखक जैनमुनि पण्डित श्री हेमचंद्रजी महाराज ) सुन्दरबोधिनीटीकया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर - भाषानुवादसहितं च श्रीनिरयावलिकासूत्रं मेधाविना मल्पमेधसां चोपकारकं भविष्यतीति सुदृढं मेऽभिमतम्, संस्कृतटीकेयं सरला सुबोधा सुललिता चात एव अन्वर्थनाम्नी चाप्यस्ति । सुविशदत्वात् सुगमत्वात् प्रत्येकदुर्बोधपदव्याख्यायुतत्वाच टीकैषा संकृत साधारण ज्ञानवतामप्युपयोगिनी भाविनीत्यभिप्रेमि । हिन्दी - गुर्जर भाषानुवादावपि एतद्भाषाविज्ञानां महीयसे लाभाय भवेतामिति सम्यक् संभावयामि । जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजी - महाराजानां परिश्रमोऽयं प्रशंसनीयो, धन्यवादार्हाच ते मुनिसत्तमाः । एवमेव श्रीसमीरमलजी - श्रीकन्हैलालजी - मुनिवरेण्ययोर्नियोजनकार्यमपि श्लाध्यं, तावपि च मुनिवरौ धन्यवादाह स्तः । सुन्दर प्रस्तावनाविषयानुक्रमादिना समलङ्कृते सूत्ररत्नेऽस्मिन् यदि शब्दकोषोऽपि दत्तः स्यात्तर्हि वरतरं स्यात् । यतोऽस्यावश्यकतां सर्वेऽप्यन्वेषकविद्वांसोऽनुभवन्ति । पाठकाः सूत्रस्याध्ययनाध्यापनेन लेखकनियोजक महोदयानां परिश्रमं सफलयिष्यन्तीत्याशास्महे । इति । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ श्री उपासकदशाङ्ग सूत्र परत्वे जैनसमाजना अग्रगण्य जैनधर्मभूषण महान् विद्वान् संतोष तेमज विद्वान् श्रावकोए सम्मतिओ समर्प छे, तेमना नामो नीचे प्रमाणे छे (१) लुधियाना - संवत् १९८९, आश्विन पूर्णिमाका पत्र, श्रुतज्ञान के भंडार आगमरत्नाकर जैनधर्मदिवाकर श्री १००८ श्री उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज, तथा न्यायव्याकरणवेत्ता श्री १००७ तच्छिष्य श्री मुनि हेमचन्द्रजी महाराज. (२) लाहौर - वि० सं० १९८९ आश्विन वदि १३ का पत्र, पण्डित श्री १००८ श्री भागचन्दजी महाराज तथा तच्छिष्य पण्डितरत्न श्री १००७ श्री त्रिलोकचंदजी महाराज. (३) खीचन - से ता. ९ - ११ - ३६ का पत्र, क्रियापात्र स्थविर श्री १००८ श्री भारतरत्न श्री समरथमलजी महाराज. (४) वाला चोर - ता. १४-११-३६ का पत्र, परममसिद्ध भारतरत्न श्री १००८ श्री शतावधानी श्री रत्नचंदजी महाराज. (५) बम्बई - ता. १६ - ११-३६ का पत्र, प्रसिद्ध कवीन्द्र श्री १००८ श्री कवि नानचंद्रजी महाराज. (६) आगरा - ता. १८-१२- ३६, जगत्-वल्लभ श्री १००८ जैनदिवाकर श्री चौथमलजी महाराज, गुणवन्त गणीजी श्री १००७ श्री साहित्यप्रेमी श्री प्यारचन्दजी महाराज. (७) हैद्राबाद - (दक्षिण) ता. २५ - ११ - ३६ का पत्र, स्थविरपदभूषित भाग्यवान पुरुष श्री ताराचंदजी महाराज, तथा प्रसिद्धवक्ता श्री १००७ श्री सोभागमलजी महाराज, (८) जयपुर - ता. २७-११-३६ का पत्र, संप्रदाय के गौरववर्धक शांतस्वभावी श्री १००८ श्री खूबचन्दजी महाराज. (९) अम्बाला - ता. २९-११-३६ का पत्र, परममवापी पंजावकेशरी श्री १००८ श्री पूज्य श्री काशीरामजी महाराज. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) सेलाना-ता. २९-११-३६ का पत्र, शास्त्रोके ज्ञाता श्रीमान रतनलालजी डोसी. (११) खीचन-ता. ९-११-३६ का पत्र, पंडितरत्न न्यायतीर्थ सुश्रावक श्रीयुत् माधवलालजी. सादर जय जिनेन्द्र आपका भेजा हुवा उपासकदशांग सूत्र तथा पत्र मिला यहां विराजित प्रवर्तक वयोवृद्ध श्री १००८ श्री ताराचंदजी महाराज पण्डित श्री किशनलालजी महाराज आदि ठाणा १४ सुख शांति में विराजमान हैं आपके वहां विराजित जैनशास्त्राचार्य पूज्यपाद श्री १००८ श्री घासीलालजी महाराज आदि ठाणा नव से हमारी वन्दना अर्ज कर सुख शांति पूछे, आपने उपासकदशांग सूत्र के विषय में यहां विराजित मुनिवरों की सम्मति मंगाई, उसके विषय में वक्ता श्री सोभागमलजी महाराजने फरमाया है कि वर्तमानमें स्थानकवासी समाजमें अनेकानेक विद्वान् मुनि महाराज मौजूद है मगर जैनशास्त्र की वृत्ति रचनेका साहस जैसा घासीलालजी महाराजने किया है वैसा अन्यने किया हो ऐसा नजर नहीं आता। दूसरा यह शास्त्र अत्यन्त उपयोगी तो यों है ही, संस्कृत प्राकृत हिंदी और गुजराती भाषा होने से चारों भाषा वाले एक ही पुस्तक से लाभ उठा सकते हैं । जैनसमाज में ऐसे विद्वानों का गौरव बढे, यही शुभ कामना है । आशा है कि स्थानकवासी संघ विद्वानों की कदर करना सीखेगा। योग्य लिखें शेष शुभ भवदीय जमनालाल रामलाल कीमती आगरा से श्री जैनदिवाकर प्रसिद्ध वक्ता जगदल्लभ मुनि श्री चोथमलजी महाराज व पंडितरत्न सुव्याख्यानी गणीजी श्री प्यारचन्द जी महाराज ने इस पुस्तक को अतीव पसन्द की है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् न्यायतीर्थ पण्डित माधवलालंजी खीचनसे लिखते हैं किउन पंडितरत्न महाभाग्यवंत पुरुषों के सामने उनकी अगाधतत्वगवेषणा के विषय में मैं नगण्य क्या सम्मति दे सकता हूं। परन्तु मेरे दो मित्रों ने जिन्होंने इसको कुछ पढा है बहुत सराहना की है, वास्तव में ऐसे उत्तम व सबके समझने योग्य ग्रन्थों की बहुत आवश्यकता है, और इस समाज का तो ऐसे ग्रन्थ ही गौरव बढा सकते हैं । ये दोनों ग्रन्थ वास्तव में अनुपम हैं। ऐसे ग्रन्थरत्नों के सुप्रकाशसे यह समाज अमावास्या के घोर अन्धकारमें दीपावली का अनुभव करती हुई, महावीर के अमूल्य वचनों का पान करती हुई अपनी उन्नति में अग्रसर होती रहेगी। ता. २९-११-३६ अम्बाला (पंजाब) पत्र आपका मिला। श्री श्री १००८ पंजावकेसरी पूज्य श्री काशीरामजी महाराज की सेवा में पढ़ कर सुना दिया। आपकी भेजी हुई उपासदशाङ्गसूत्र तथा गृहिधर्मकल्पतरकी एक २ प्रति भी प्राप्त हुई। दोनों पुस्तकें अति उपयोगी तथा अत्यधिक परिश्रम से लिखी हुई हैं। ऐसे ग्रन्धरत्नों के प्रकाशित करवानेकी बड़ी आवश्यकता है। इन पुस्तफों से जैन तथा अजैन सबका उपकार हो सकता है । आपका यह पुरुषार्थ सराहनीय है। आपका शशिभूषण शास्त्री अध्यापक जैन हाईस्कूल अम्याला शहर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂા. પ૦૦૧) આપનાર આઈ મુરબ્બીશ્રી છે આ * * * * * "? + + 4 + + , અને અમને *** Sc. રાd : ટીમ • (વ.) શેઠ ધા રસી ભાઈ જીવણભાઈ સે લાપુર, Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तस्वभावी वैराग्यमूर्ति तत्ववारिधि, धैर्यवान श्री जैनाचार्य पूज्यवर श्री श्री १००८ श्री खूबचंदजी महाराज साहेबने सूत्र श्री उपासकदशाङ्गजी को देखा । आपने फरमाया कि पण्डित मुनि श्री घासीलालजी महाराज ने उपासकदशाङ्ग सूत्रकी टीका लिखने में बड़ा ही परिश्रम किया है । इस समय इस प्रकार प्रत्येक सूत्रोंकी संशोधनपूर्वक सरल टीका और शुद्ध हिन्दी अनुवाद होनेसे भगवान निग्रन्थों के प्रवचनों के अपूर्व रसका लाभ मिल सकता है। बालाचोर से भारतरत्न शतावधानी पण्डित मुनि श्री १००८ श्री रतनचन्दजी महाराज फरमाते हैं कि उत्तरोत्तर जोतां मूलसूत्रनी संस्कृत टीकाओ रचवामां टीकाकारे स्तुत्य प्रयास कों छे, जे स्थानकवासी समाज माटे मगरूरी लेवा जेवू छे, वळी करांचीना श्री संधे सारा कागळमां अने सारा टाईपमा पुस्तक छपावी प्रगट कर्यु छ जे एक प्रकारनी साहित्य सेवा बजावी छे. बम्बई शहरमें विराजमान कवि मुनि श्री नानचन्दजी महाराजने फरमाया है कि पुस्तक सुन्दर है प्रयास अच्छा है। खीचन से स्थविर क्रियापात्र मुनि श्री रतनचन्दजी महाराज और पंडितरत्न मुनि श्री समर्थमळजी फरमाते हैं कि-विद्वान् महात्मा पुरुषों का प्रयत्न सराहनीय है, जैनागम श्रीमद् उपासकदशाङ्गसूत्र की टीका, एवं उसकी सरल सुबोधिनी शुद्ध हिन्दी भाषा बडी ही सुंदरता से लिखी है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः। श्री श्री श्री १००८ जैनधर्मदिवाकर जैनागमरत्नाकर श्रीमज्जैनाचार्य श्री पूज्य घासीलालजी महाराज चरणवन्दन स्वीकार हो । अपरश्च समाचार यह है कि आपके भेजे हुए ९ शास्त्र मास्टर शोभालालजी के द्वारा प्राप्त हुए, एतदर्थ धन्यवाद ! आपश्रीजीने तो ऐसा कार्य किया है जो कि हजारों वर्षों से किसी भी स्थानकवासी जैनाचार्यने नहीं किया। आपने स्थानकवासीजैनसमाज के ऊपर जो उपकार किया है वह कदापि भुलाया नहीं जा सकता और नहीं भुलाया जा सकेगा। हम तीनों मुनि भगवान महावीर से अथवा शासनदेव से प्रार्थना करते हैं कि आपकी इस वज्रमयो लेखनीको उत्तरोत्तर शक्तिप्रदान करें ता कि आप जैनसमाज से ऊपर और भी उपकार करते रहें, और आप चिरञ्जीवी हों। हम हैं आपके मुनि तीन मुनि सत्येन्द्रदेव, मुनि लखपतराय, मुनि पद्मसेन, Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतबारी बाजार नागपुर ता. १९-१२-५६ प्रखर विद्वान् जैनाचार्य मुनिराज श्री घासीलालजी महाराजद्वारा जो आगमोद्धारा हुआ और हो रहा है सचमुच महाराज श्री का यह स्तुत्य कार्य है। हमने प्रचारकजी के द्वारा नौ सूत्रोंका सेट देखा और कइ मार्मिक स्थलोंको पढा, पढ कर विद्वान मुनिराजश्री की शुद्ध श्रद्धा तथा लेखनीके प्रति हार्दिक प्रसन्नता फूट पड़ी। वास्तवमें मुनिराज श्री जैन समाज पर ही नहीं इतर समाज पर भी गहरा उपकार कर रहे हैं। ज्ञान किसी एक समाज का नहीं होता वह सभी समाज की अनमोल निधि है जिसे कठिन परिश्रम से तैयार कर जनता के सम्मुख रक्खा जा रहा है, जिसका एक एक सेट हर शहर गांव और घर घरमें होना आनश्यक है। साहित्यरत्न मोहनमुनि सोहनमुनि जैन KWANT Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રનું સમ્મતિપત્ર શ્રમણ સંઘના મહાન આચાર્ય આગમ વારિધિ સર્વતન્ત્રસ્વતંત્ર જૈનાચાર્ય પૂજ્યશ્રી આત્મારામજી મહારાજે આપેલા સમ્મતિપત્રને ગુજરાતી અનુવાદ. મેં તથા પંડિત મુનિ હેમચંદ્રજીએ પંડિત મુલચંદ વ્યાસ (રામર મારાવા) દ્વારા મળેલી પંડિત રત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મુનિ વિરચિત સંસ્કૃત અને હિન્દી ભાષા સહિત શ્રી દશવૈકાલિક સૂત્રની આચારમણિમંજૂષા ટીકાનું અવલોકન કર્યું. આ ટીકા સુંદર બની છે. તેમાં પ્રત્યેક શબ્દનો અર્થ સારી રીતે વિશેષભાવ લઈને સમજાવવામાં આવેલ છે. તેથી તે વિદ્વાને અને સાધારણ બુદ્ધિવાળાઓ માટે ઉપકાર કરવાવાળી છે. ટીકાકારે મુનિના આચાર વિષયને ઉલ્લેખ સા કરેલ છે. જે આધુનિકમતાવલંબી અહિંસાના સ્વરૂપને નથી જાણતા, દયામાં પાપ સમજે છે તેમને માટે “અહિંસા શું વસ્તુ છે. તેનું સારી રીતે પ્રતિપાદન કરેલ છે. વૃત્તિકારે સૂત્રને પ્રત્યેક વિષયને સારી રીતે સમજાવેલ છે. આ વૃત્તિના અવલોકનથી વૃત્તિકારની અતિશય યોગ્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ વૃત્તિમાં એક બીજી વિશેષતા એ છે કે મૂલસૂત્રની સંસ્કૃત છાયા હેવાથી સૂત્ર, સૂત્રનાં પદ અને પદચ્છેદ સુબેધદાયક બનેલ છે. પ્રત્યેક જીજ્ઞાસુએ આ ટીકાનું અવલોકન અવશ્ય કરવું જોઈએ. વધારે શું કહેવું? અમારી સમાજમાં આવા પ્રકારના વિદ્વાન મુનિનનું હોવું એ સમાજનું અહોભાગ્ય છે. આવા વિદ્વાન મુનિરત્નના કારણે સુપ્તપ્રાય-સુતેલે સમાજ અને લુપ્તપ્રાય એટલે લેપ પામેલું સાહિત્ય એ બનેને ફરીથી ઉદય થશે. અમે વૃત્તિકારને વારંવાર ધન્યવાદ આપીએ છીએ. વિક્રમ સંવત ૧૯૦ ફાગુન શુકલ | ઈતિ તેરસ મંગળવાર ઉપાધ્યાય જૈનમુનિ આત્મારામ ( અલવર સ્ટેટ) (પંજાબી) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રમણ સંઘના પ્રચારમંત્રી પંજાબકેશરી મહારાજ શ્રી પ્રેમચંદજી મહારાજ જેઓશ્રી રાજકોટમાં પધારેલ હતાં ત્યારે તેના તરફથી શાને માટે મળેલ અભિપ્રાય. શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ તરફથી પૂજ્યપાદ શાસ્ત્રવારિધિ પંડિતરાજ સ્વામીશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ દ્વારા શાસ્ત્રોદ્ધારનું જે કાર્ય થઈ રહ્યું છે તે કાર્ય જેનસમાજ તેમાં ખાસ કરીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજને માટે મૂળભૂત મૌલિક સંસ્કૃતની જડને મજબુત કરવાવાળું છે. એટલા ખાતર આ કાર્ય અતિ પ્રશંસનીય છે માટે દરેક વ્યક્તિએ તેમાં યથાશકિત ભેગ દેવાની ખાસ આવશ્યકતા છે અને તેથી એ ભગીરથ કાર્ય જલ્દીથી જલ્દી સંપૂર્ણપણે પાર પાડી શકાય અને જનતા શ્રુતજ્ઞાનને લાભ મેળવી શકે. દરીયાપુર સંપ્રદાયના પૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઈશ્વરલાલજી મહારાજ સાહેબના સૂત્રે સંબંધે વિચારે નમામિ વિર ગિરિસારધીર પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર શ્રી ઘાસીલાલ મહારાજ તથા પંડિતશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ આદિ થાણુ છની સેવામાં– અમદાવાદ શાહપુર ઉપાશ્રયથી મુનિ દયાનંદજીના ૧૦૮ પ્રણિપાત. આપ સર્વે થાણાએ સુખ સમાધિમાં હશે નિરંતર ધર્મધ્યાન પમરાધનામાં લીન હશે. સૂત્ર પ્રકાશન કાર્ય ત્વરિત થાય એવી ભાવના છે દશવૈકાલિક તથા આચારાંગ એક એક ભાગ અહીં છે, ટીકા ખુબ સુંદર, સરળ અને અર્થ સાથે પ્રકાશન થાય તે શ્રાવકગણ તેને વિશેષ લાભ લઈ શકે, અને પૂજ્ય આચાર્ય ગુરૂદેવને આંખે મોતી ઉતરાવ્યો છે અને સારું છે એજ. આ સુદ ૧૦, મંગળવાર, તા. ૨૫-૧૦-૫૫ પુનઃ પુનઃ શાતા ઈચ્છતે, દયામુનિના પ્રણિપાત. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરિયાપુર સંપ્રદાયના પંડિતરત્ન ભાઈચંદજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી રાણપુર તા. ૧૯-૧૨-૧૯૫૫ પૂજ્યપાદ જ્ઞાનિપ્રવર પંડિતરત્ન પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આદિ મુનિવરેની સેવામાં, આપ સર્વ સુખસમાધીમાં હશે. સૂત્રપ્રકાશનનું કામ સુંદર થઈ રહ્યું છે તે જાણું અત્યંત આનંદ. આપના પ્રકાશિત થયેલાં કેટલાંક સૂત્રો મેં જોયાં. સુંદર અને સરલ સિદ્ધાંતના ન્યાયને પુષ્ટિ કરતી ટીકા પંડિતરત્નને સુપ્રિય થઈ પડે તેવી છે. સૂત્રપ્રકાશનનું કામ ત્વરિત પૂર્ણ થાય અને ભવિ આત્માઓને આત્મકલ્યાણ કરવામાં સાધનભૂત થાય એજ અભ્યર્થના. લી. પંડિતરત્ન બાળબ્રહ્મચારી પૂ. શ્રી ભાઈચંદ મહારાજની આજ્ઞાનુસાર શાન્તિમુનીના પાયવંદન સ્વીકારશો. તા. ૧૧-૫-૫૬ વિરમગામ ગચ્છાધિપતિ પૂજ્ય મહારાજ શ્રી જ્ઞાનચંદ્રજી મહારાજના સંપ્રદાયના આત્માથી, ક્રિયાપાત્ર, પંડિતરત્ન, મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજને અભિપ્રાય. ખીચનથી આવેલ તા. ૧૨-૨-૧૬ના પત્રથી ઉદ્ધત. પૂજ્ય આચાર્ય ઘાસીલાલજી મહારાજના હસ્તક જે સૂનું લખાણ સુંદર અને સરળ ભાષામાં થાય છે તે સાહિત્ય, પંડિત મુનિશ્રી સમરથમલજી મહારાજ સમય એ મળવાને કારણે સંપૂર્ણ જોઈ શકયા નથી. છતાં જેટલું સાહિત્ય જેયું છે, તે બહુ જ સારું અને મનન સાથે લખાયેલું છે, તે લખાણ શાસ્ત્ર-આજ્ઞાને અનુરૂપ લાગે છે. આ સાહિત્ય દરેક શ્રદ્ધાળું જીવેને વાંચવા ગ્ય છે. આમાં સ્થાનકવાસી સમાજની શ્રદ્ધા, પ્રરૂપણ અને ફરસાણની દૃઢતા શાસ્ત્રાનુકૂળ છે. આચાર્યશ્રી અપૂર્વ પરિશ્રમ લઈ સમાજ ઉપર મહાન ઉપકાર કરે છે. લી. કિશનલાલ પકવીરાજ માલુ. મુ. ખીચન. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લીંબડી સંપ્રદાયના સુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજને અભિપ્રાય શ્રી વીતરાગદેવે જ્ઞાનપ્રચારને તીર્થકર—નામ–ત્ર બાંધવાનું નિમિત્ત કહેલ છે. જ્ઞાનપ્રચાર કરનાર, કરવામાં સહાય કરનાર, અને તેને અનુમોદન આપનાર, જ્ઞાનાવરણીય કમને ક્ષય કરી કેવળ જ્ઞાનને પ્રાપ્ત કરી પરમપદના અધિકારી બને છે. શાસ્ત્રજ્ઞ, પરમ શાન્ત અને અપ્રમાદી પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પોતે અવિશ્રાન્તપણે જ્ઞાનની ઉપાસના અને તેની પ્રભાવના અનેક વિકટ પ્રસંગેમાં પણ કરી રહ્યા છે. તે માટે તેઓશ્રી અનેકશઃ ધન્યવાદના અધિકારી છે. વંદનીય છે. તેમની જ્ઞાનપ્રભાવનાની ધગશ ઘણું પ્રમાદિઓને અનુકરણીય છે. જેમ પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પિતે જ્ઞાન પ્રચાર માટે અવિશ્રાન્ત પ્રયત્ન કરે છે. તેમજશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના કાર્યવાહકે પણ એમાં સહાય કરીને જે પવિત્ર સેવા કરી રહેલ છે. તે પણ ખરેખર ધન્યવાદના પૂર્ણ અધિકારી છે. એ સમિતિના કાર્યકરોને મારી એક સુચના છે કે – શાસ્ત્રોદ્ધાર પ્રવર પંડિત અપ્રમાદી સંત ઘાસીલાલજી મહારાજ જે શાસ્ત્રોદ્વારકનું કામ કરી રહેલ છે. તેમાં સહાય કરવા માટે-પડિ વિગેરેના માટે જે ખર્ચો થઈ રહેલ છે તેને પહોંચી વળવા માટે સારું સરખું ફંડ જોઈએ. એના માટે મારી એ સુચના છે કે-શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના મુખ્ય કાર્યવાહકે—જે બની શકે તે પ્રમુખ પિતે અને બીજા બે ત્રણ જણાએ ગુજરાત, સૌરાષ્ટ્ર, અને કચ્છમાં પ્રવાસ કરી મેમ્બરે બનાવે અને આર્થિક સહાય મેળવે. જો કે અત્યારની પરિસ્થિતિ વિષમ છે. વ્યાપારીઓ, ધંધાદારીઓને પિતાના વ્યવહાર સાચવવા પણ મુશ્કેલ બન્યા છે. છતાં જે સંભાવિત ગૃહસ્થ પ્રવાસે નીકળે તે જરૂરી કાર્ય સફળ કરે એવી મને શ્રદ્ધા છે. * આર્થિક અનુકૂળતા થવાથી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પણ વધુ સરલતાથી થઈ શકે. પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જ્યાં સુધી આ તરફ વિચરે છે ત્યાં સુધીમાં એમની જ્ઞાનશકિતને જેટલો લાભ લેવાય તેટલે લઈ લે, કદાચ સૌરાષ્ટ્રમાં વધુ વખત રહેવાથી તેમને હવે બહાર વિહરવાની ઈચ્છા થતી હોય તે શાન્તિભાઈ શેઠ જેવાએ વિનંતિ કરી અમદાવાદ પધરાવવા, અને ત્યાં અનુકૂળતા મુજબ બે-ત્રણ વર્ષની સ્થિરતા કરાવીને તેમની પાસે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ પૂર્ણ કરાવી લેવું જોઈએ. થડા વખતમાં જામજોધપુરમાં શાસ્ત્રોદ્ધારકમીટી મળવાની છે, તે વખતે ઉપરની સૂચના વિચારાય તે ઠીક. - - - , , , ' , Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફરી શાસ્ત્રોદ્ધારક પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને એમની આ સેવા અને પરમ કલ્યાણકારક પ્રવૃત્તિને માટે વારંવાર અભિનંદન છે. શાસનનાયક દેવ તેમના શરીરાદિને સશકત અને દીર્ધાયુ રાખે જેથી સમાજ ધર્મની વધુ ને વધુ સેવા કરી શકે ૩૪ અસ્તુ. ચાતુર્માસ સ્થળ લીંબડી | સ. ૨૦૧૦ શ્રાવણ વદ ૧૩ ગુરૂ સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી શ્રી વર્ધમાન સંપ્રદાયના પૂજ્યશ્રી પુનમચંદ્રજી મહારાજને અભિપ્રાય શાસ્ત્રવિશાદ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ જૈન આગમ ઉપર જે સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચેલ છે તે માટે તેઓશ્રી ધન્યવાદને પાત્ર છે. તેમણે આગ ઉપરની સ્વતંત્ર ટીકા રચીને સ્થાનકવાસી જૈન સમાજનું ગૌરવ વધાર્યું છે, આગમો ઉપરની તેમની સંસ્કૃતટીકા ભાષા અને ભાવની દષ્ટિએ ધણી જ સુંદર છે. સંસ્કૃતરચના માધુર્યો. તેમજ અલંકાર વગેરે ગુણોથી ચુત છે. વિદ્વાનોએ તેમજ જૈન સમાજના આચાર્યો, ઉપાધ્યાયે વગેરે એ શાસ્ત્ર ઉપર રચેલી આ સંસ્કૃતરચનાની કદર કરવી જોઈએ. અને દરેક પ્રકારને સહકાર આપ જોઈએ. આ મહાન કાર્યમાં પંડિતરત્ન પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જે પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે તે અલૌકિક છે. તેમનું આગમ ઉપરની સંસ્કૃત ટીકા વગેરે રચવાનું ભગીરથ કાર્ય શીધ્ર સફળ થાય એ જ શુભેચ્છા સાથે. અમદાવાદ, તા. ૨૨-૪-૫૬ રવીવાર મુનિ પુનમચંદ્રજી મહાવીર જયંતિ ખંભાત સંપ્રદાયના મહાસતી શારદાબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય લખતર તા. ૨૫–૪–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાંતીલાલભાઈ મંગળદાસભાઈ. પ્રમુખ સાહેબ અખિલ ભારત - સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. અમદાવાદ અમે અત્રે દેવગુરૂની કૃપાએ સુખરૂપ છીએ. વિ. મા. આપની સમિતિ દ્વારા ૫ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી વાસીલાલજી મહારાજ સાહેબ જે સૂત્રોનું કાર્ય કરે છે તે પિકીનાં સૂત્રોમાંથી ઉપાસક દશાંગસૂત્ર, આચારાંગસૂત્ર, અનુત્તરપતિકસૂત્ર Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દશવૈકાલિકસૂત્ર વિગેરે સૂત્રે જયાં તે સૂત્રે સંસ્કૃત હિન્દી અને ગુજરાતી ભાષાઓમાં હોવાને કારણે વિદ્વાન અને સામાન્ય જનેને ઘણું જ લાભદાયક છે. તે વાંચન ઘણું જ સુંદર અને મનોરંજન છે. આ કાર્યમાં પૂજ્ય આચાચંશ્રી જે અગાધ પુરૂષાર્થ કાર્ય કરે છે તે માટે વારંવાર ધન્યવાદને પાત્ર છે. આ સૂત્રોથી સમાજને ઘણે લાભ થવા સંભવ છે. હંસ સમાન બુદ્ધિવાળા આત્માઓ સ્વપરના ભેદથી નિખાલસ ભાવનાઓ અવલક કરશે તે આ સાહિત્ય સ્થાનકવાસી સમાજ માટે અપૂર્વ અને ગૌરવ લેવા જેવું છે. દરેક ભય આત્માઓને સૂચન કરું છું કે આ સૂત્રે પોતપિતાના ઘરમાં વસાવવાની સુંદર તકને ચૂકસે નંહિ. કારણ આવા શુદ્ધ પવિત્ર અને સ્વપરંપરાને પુષ્ટિરૂપ સૂત્રે મળવાં બહુ મુશ્કેલ છે. આ કાર્યમાં આપશ્રી તથા સમિતિના અન્ય કાર્યકરે જે શ્રમ લઈ રહ્યા છે તેમાં મહાન નિજેરાનું કારણ જોવામાં આવે છે તે બદલ ધન્યવાદ. એ જ લી, શારદાબાઈ સ્વામી ખંભાત સંપ્રદાય. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી મોંઘીબાઈ સ્વામીને અભિપ્રાય ધંધુકા તા. ર૭–૧–૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ પ્રમુખ અo ભાવ . સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ મુ. રાજકોટ અત્રે બીરાજતા ગુરુ ગુરુના ભંડાર મહાસતીજી વિદુષી સેંઘીબાઈ સ્વામી તથા હીરાબાઈ સ્વામી આદિઠાણાં બને સુખશાતમાં બીરાજે છે. આપને સૂચન છે કે અપ્રમત્ત અવસ્થામાં રહી નિવૃત્તિ ભાવને મેળવી ધર્મધ્યાન કરશે એજ આશા છે. વિશેષમાં અમને પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના રચેલાં સૂત્રો ભાઈ પિપટ ધનજીભાઈ તરફથી ભેટ તરીકે મળેલાં તે સૂત્રે તમામ આઘોપાત્ત વાંચ્યાં મનન કર્યા અને વિચાર્યા છે તે સૂત્રો સ્થાનકવાસી સમાજને અને વીતરાગમાર્ગને ખુબ જ ઉન્નત બનાવનાર છે. તેમાં આપણું શ્રદ્ધા એટલી ન્યાયરૂપથી ભરેલી છે તે આપણા સમાજ માટે ગૌરવ લેવા જેવું છે. હંસ સમાન Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આત્માઓ જ્ઞાનઝરણાઓથી આત્મરૂપવાડીને વિકસિત કરશે, ધન્ય છે આપને અને સમિતિના કાર્યકરને જે સમાજ ઉત્થાન માટે કેઈની પણ પરવા કર્યા વગર જ્ઞાનનું દાન ભવ્ય આત્માઓને આપવા નિમિત્તરૂપ થઈ રહ્યા છે. આવા સમર્થ વિદ્વાન પાસેથી સંપૂર્ણ કાર્ય પુરૂં કરાવશે તેવી આશા છે. એજ લિ. બરવાળા સંપ્રદાયના વિદુષી મહાસતીજી સેંઘીબાઈ સ્વામી ના ફરમાનથી લી. ખેડીદાસ ગણેશભાઈ--ધંધુકા સ્થાનકવાસી જૈન સંઘના પ્રમુખ અઘતન પદ્ધતિને અપનાવનાર વડેદરા કેલેજના એક વિદ્વાન . પ્રોફેસરને અભિપ્રાય સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ જૈનશાસ્ત્રોના સંસ્કૃત ટીકાબદ્ધ, ગુજરાતીમાં અને હિન્દીમાં ભાષાંતરે કરવાના ઘણા વિકટ કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે. શાસ્ત્રો પિકી જે શાસ્ત્રો પ્રસિદ્ધ થયાં છે તે હું જોઈ શકે છુ, મુનિશ્રી પિતે સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી હિંદી ભાષાઓના નિષ્ણાત છે. એ એમને ટુંક પરિચય કરતાં સહજ જણાઈ આવે છે. શાસ્ત્રોનું સંપાદન કરવામાં તેમને પોતાના શિષ્ય વર્ગને અને વિશેષમાં ત્રણ પંડિતેને સહકાર મળે છે. તે જોઈ મને આનંદ થા.સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયના અગ્રેસરએ પંડિતેને સહકાર મેળવી આપી,મુનિશ્રીના કાર્યને સરળ અને શિષ્ટ બનાવ્યું છે. સ્થાનકવાસી સમાજમાં વિદ્વત્તા ઘણી ઓછી છે, તે દિગંબર મૂર્તિપૂજક શ્વેતાંબર વગેરે જૈનદર્શનના પ્રતિનિધિઓના ઘણા સમયથી પરિચયમાં આવતાં હું વિરોધના ભય વગર કહી શકું. પૂ. મહારાજને આ પ્રયાસ સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં પ્રથમ છે એવી મારી માન્યતા છે. સંસ્કૃત સ્પષ્ટીકરણે સારાં આપવામાં આવ્યાં છે, ભાષા શુદ્ધ છે એમ ચેકસ કહી શકું છું. ગુજરાતી ભાષાંતરે પણું શુદ્ધ અને સરળ થયેલાં છે. મને વિશ્વાસ છે કે મહારાજશ્રીના આ સ્તુત્ય પ્રયાસને જેનસમાજ ઉત્તેજન આપશે અને શાસ્ત્રોના ભાષાંતરને વાચનાલયમાં અને કુટુંબમાં વસાવી શકાય તે પ્રમાણે વ્યવસ્થા કરશે. પ્રતાપગંજ, વડોદરા કામદાર કેશવલાલ હિંમનરામ તા. ૨૭–૨–૧૯૫૬ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭ મુંબઇની બે કલેજના પ્રોફેસરને અભિપ્રાય મુંબઈ તા. ૩૧-૩-૫૬ શ્રીમાન શેઠ શાન્તિલાલ મંગળદાસ પ્રમુખ શ્રી અખિલ ભારત છે. સ્થા. જૈનશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ, રાજકેટ. પૂજ્યાચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજે તૈયાર કરેલા આચારાંગ, દશવૈકાલિક, આવશ્યક, ઉપાસકદશાંગ વગેરે સૂત્રે અમે જોયાં, આ સૂત્રે ઉપર સંસ્કૃતમાં ટીકા આપવામાં આવી છે, અને સાથે હિંદી અને ગુજરાતી ભાષાંતરે પણ આપવામાં આવ્યાં છે. સંસ્કૃતટીકા અને ગુજરાતી તથા હિંદી ભાષાંતરે જોતાં આચાર્યશ્રીના આ ત્રણે ભાષા પરના એક સરખા અસાધારણ પ્રભુત્વની સચોટ અને સુરેખ છાપ પડે છે. આ સૂત્ર ગ્રંથમાં પાને પાને પ્રગટ થતી આચાર્યશ્રીની અપ્રતિમ વિદ્વત્તા મુગ્ધ કરી દે તેવી છે. ગુજરાતી તથા હિંદીમાં થયેલાં ભાષાંતરમાં ભાષાની શુદ્ધિ અને સરળતા નેધપાત્ર છે. એથી વિદ્વદુજન અને સાધારણ માણસ ઉભયને સંતોષ આપે એવી એમની લેખનની પ્રતીતિ થાય છે. ૩૨ સૂત્રોમાંથી હજુ ૧૩ સૂત્રે પ્રગટ થયાં છે. બીજાં ૭ સૂત્રે લખાઈને તૈયાય થઈ ગયાં છે. આ બધાં જ સૂત્રે જ્યારે એમને હાથે તૈયાર થઈને પ્રગટ થશે ત્યારે જૈનસૂત્ર-સાહિત્યમાં અમૂલ્ય સંપત્તિરૂપ ગણાશે એમાં સંશય નથી. આચાર્યશ્રીના આ મહાન કાર્યને જૈન સમાજનો વિશેષતઃ સ્થાનકવાસી સમાજને સંપૂર્ણ સહકાર સાંપડી રહેશે એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. છે. રમણલાલ ચીમનલાલ શાહ સેંટ ઝેવિયર્સ કોલેજ, મુંબાઈ. પ્રો. તારા રમણલાલ શાહ સેફિયા, કલોજ, મુંબાઈ રાજકેટ ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજના પ્રોફેસર સાહેબને અભિપ્રાય જમહાલ જાગનાથ પ્લેટ રાજકોટ, તા. ૧૮-૪-૧૬ પૂજ્યાચાર્ય પં. મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ આજે જેનસમાજ માટે એક એવા કાર્યમાં વ્યાપ્ત થયેલા છે કે જે સમાજ માટે બહુ ઉપયોગી થઈ પડશે. મુનિશ્રીએ તૈયાર કરેલાં આચારાંગ, દશવૈકાલિક, શ્રી વિપાકકૃત વિ. મેં જોયાં. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સૂત્રો જોતાં પહેલી જ નજરે મહારાજશ્રીને સંસ્કૃત, અર્ધમાગધી, હિન્દી તથા ગુજરાતી ભાષાઓ ઉપર અસાધારણ કાબુ જણાઈ આવે છે. એક પણ ભાષા મહારાજશ્રીથી અજાણ નથી. આપણે જોઈએ છીએ કે એ સૂત્ર ઉચ્ચ અને પ્રથમ કેટીના છે. તેની વસ્તુ ગંભીર, વ્યાપક અને જીવનને તલસ્પર્શી છે, એટલા ગહન અને સર્વગ્રાહ્ય સૂત્રોનું ભાષાંતર પૂ૦ ઘાસીલાલજી મહારાજ જેવા ઉચ્ચ કેટીના મુનિરાજને હાથે થાય છે તે આપણાં અહોભાગ્ય છે. યંત્રવાદ અને ભૌતિકવાદના આ જમાનામાં જ્યારે ધર્મભાવનાં ઓસરતી જાય છે એવે વખતે આવા તત્ત્વજ્ઞાન આધ્યાત્મિકતાથી ભરેલાં સૂત્રોનું સરળ ભાષામાં ભાષાંતર દરેક જિજ્ઞાસુ, મુમુક્ષુ અને સાધકને માર્ગદર્શક થઈ પડે તેમ છે. જન અને જૈનેતર, વિદ્વાન અને સાધારણ માણસ સાધુ અને શ્રાવક દરેકને સમજણ પડે તેવી સ્પષ્ટ, સરળ અને શુદ્ધ ભાષામાં સૂત્રો લખવામાં આવ્યાં છે. મહારાજશ્રીને જ્યારે જોઈએ ત્યારે તેમના આ કાર્યમાં સંકળાયેલા જોઈએ છીએ. એ ઉપરથી મુનિશ્રીના પરિશ્રમ અને ધગશની કલ્પના કરી શકાય તેમ છે. તેમનું જીવન સૂત્રોમાં વણાઈ ગયું છે. મુનિશ્રીના આ અસાધારણ કાર્યમાં પોતાના શિષ્યને તથા પંડિતેને સહકાર મળે છે. અને આશા છે કે જે દરેક મુમુક્ષુ આ પુસ્તકને પિતાના ઘરમાં વસાવશે અને પિતાના જીવનને સાચા સુખને માર્ગે વાળશે તે મહારાજશ્રીએ ઉઠાવેલે શ્રમ સંપૂર્ણપણે સફળ થશે. પ્રો. રસીકલાલ કસ્તુરચંદ ગાંધી એમ. એ. એલ. એલ. બી ધર્મેન્દ્રસિંહજી કેલેજ રાજકોટ (સૌરાષ્ટ્ર) પોતાના શિષ્ય લાવો અને પાતાની આશા છે કે મુંબઈ અને ઘાટકેપરમાં મળેલી સભાએ ભિનાસર કેરેન્સ તથા સાધુસંમેલનમાં મેકલાવેલ ઠરાવ હાલ જે વખત શ્રી ઝવેતાંબર સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ માટે આગમ સશેધન અને સ્વતંત્ર ટીકાવાળા શાસ્ત્રોદ્ધારની અતિ આવશ્યકતા છે અને જે મહાનુભાવોએ આ વાત દીર્ધ દૃષ્ટિથી પહેલી પિતાના મગજમાં લઈ તે પાર પાડવા મહેનત લઈ રહ્યા છે તેવા મુનિ મહારાજ પંડિતરત્ન શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કે જેઓને સાદડી અધિવેશનમાં સર્વાનુમતે સાહિત્યમંત્રી નીમ્યા છે, તેઓશ્રીની દેખરેખ નીચે અ.ભા.. સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ જે એક મેટી વગવાળી કમિટી છે તેની મારફતે કામ થઈ રહ્યું છે. જેને પ્રધાનાચાર્ય શ્રી તથા પ્રચારમંત્રીશ્રી Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તથા અનેક અનુભવી મહાનુભાવોએ પોતાની પસંદગીની મહેર છાપ આપી છે. અને છેલ્લામાં છેલ્લા વડેદરા યુનિવર્સીટીના પ્રોફેસર કેશવલાલ કામદાર એમ. એ. પિતાનું સવિસ્તર પ્રમાણપત્ર આપ્યું છે. તે શાસ્ત્રોદ્ધાર કમિટીના કામને આ સંમેલન તથા કેન્ફરન્સ હાર્દિક અભિનંદન આપે છે. અને તેમના કામને જ્યાં જ્યાં અને જે જે જરૂર પડે–પંડિતની અને નાણાંની તે તે પિતાની પાસેના ફંડમાંથી અને જાહેર જનતા પાસેથી મદદ મળે તેવી ઈચ્છા ધરાવે છે. આ શાસ્ત્રો અને ટીકાઓને જ્યારે આટલી બધી પ્રશંસાપૂર્વક પસંદગી મળી છે, ત્યારે તે કામને મદદ કરવાની આ કેન્ફરન્સ પોતાની ફરજ માને છે અને જે કઈ ત્રુટી હોય તે પં. ૨. શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજની સાંનિધ્યમાં જઈ બતાવીને સુધારવા પ્રયત્ન કરે . આ કામને ટલ્લે ચઢાવવા જેવું કઈ પણ કામ સત્તા ઉપરના અધિકારીઓના વાણું કે વર્તનથી ન થાય તે જોવા પ્રમુખ સાહેબને ભલામણ કરે છે. (સ્થા. જૈન પત્ર તા. ૪-૫-૫૬) સ્વતંત્રવિચારક અને નિડર લેખક “જેનસિદ્ધાંત ના તંત્રી શેઠ નગીનદાસ ગીરધરલાલને અભિપ્રાય શ્રી સ્થાનકવાસી શાદ્ધાર સમિતિ સ્થાપીને પૂ. ઘાસીલાલજી મહારાજને સૌરાષ્ટ્રમાં બોલાવી તેમની પાસે બત્રીસ સૂત્ર તૈયાર કરવાની હિલચાલ ચાલતી હતી ત્યારે તે હિલચાલ કરનાર શાસ્ત્રજ્ઞ શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ સાથે મારે પત્રવ્યવહાર ચાલે ત્યારે શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈએ તેમના એક પત્રમાં મને લખેલું કે આપણા સૂત્રેના મૂળ પાઠ તપાસી શુદ્ધ કરી સંસ્કૃત સાથે તૈયાર કરી શકે તેવા સ્થાનકવાસી સંપ્રદાયમાં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ. સિવાય મને કઈ વિશેષ વિદ્વાન સુનિ જોવામાં આવતા નથી. લાંબી તપાસને અંતે મેં મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીને પસંદ કરેલા છે.” શેઠ શ્રી દામોદરદાસભાઈ પિતે વિદ્વાન હતા. શાસ્ત્રજ્ઞ હતા તેમ વિચારક પણ હતા. શ્રાવકે તેમજ મુનિએ પણ તેમની પાસેથી શિક્ષા વાંચના લેતા, તેમ જ્ઞાનચર્ચા પણ કરતા. એવા વિદ્વાન શેઠશ્રીની પસંદગી યથાર્થ જ હોય એમાં Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० નવાઈ નથી. અને પૂ. શ્રી ઘાસીલાલજીના બનાવેલાં સૂત્રો જોતાં સૌ કાઇને ખાત્રી થાય તેમ તે કે દામદરદાસભાઇએ તેમજ સ્થાનકવાસી સમાજે જેવી આશા શ્રી ઘાસીલાલજી મ. પાસેથી રાખેલી તે ખરાખર ફળીભૂત થયેલ છે. શ્રી વમાન શ્રમણ્સ'ઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજે શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સૂત્રેા માટે ખાસ પ્રશંસા કરી અનુમતિ આપેલ છે તે ઉપરથી જ શ્રી ઘાસીલાલજી મ ના સૂત્રાની ઉપચાગિતાની ખાત્રી થશે. આ સૂત્રેા વિદ્યાર્થીને. અભ્યાસીને તેમજ સામાન્ય વાંચકાને સર્વને એક સરખી રીતે ઉપયેગી થઈ પડે છે. વિદ્યાર્થીને તેમજ અભ્યાસીને મૂળ તથા સંસ્કૃત ટીકા વિશેષ કરીને ઉપયાગી થાય તેમ છે. ત્યારે સામાન્ય હિંદી વાંચકને હિંદી અનુવાદ અને ગુજરાતી વાંચકને ગુજરાતી અનુવાદથી ખુ` સૂત્ર સરળતાથી સમજાય છે. કેટલાકના એવા ભ્રમ છે કે સૂત્રેા વાંચવાનુ કામ આપણું નહિ, સૂત્રેા આપણને સમજાય નહિ. આ ભ્રમ તદ્દન ખોટા છે. બીજા કાઈ પણ શાસ્ત્રીય પુસ્તક કરતાં આ સૂત્રેા સામાન્ય વાચકને પણ ઘણી સરળતાથી સમજાઈ જાય છે. સામાન્ય માણસ પણ સમજી શકે તેટલા માટે જ ભગવાન મહાવીરે તે વખતની લેાકભાષામાં ( અર્ધમાગધી ભાષામાં) સૂત્ર બનાવેલાં છે. એટલે સૂત્રેા વાંચવા તેમજ સમજવામાં ઘણાં સરળ છે. માટે કોઈ પણ વાંચકને એના ભ્રમ હાય તા તે કાઢી નાંખવા અને ધનુ તેમજ ધર્મના સિદ્ધાતાનું સાચું જ્ઞાન મેળવવા માટે સૂત્ર વાંચવાને ચૂકવું નિહ. એટલું જ નહિ પણ જરૂરથી પહેલાં સૂત્રેા જ વાંચવાં. સ્થાનકવાસીઓમાં આ શ્રી સ્થા॰ જૈન શાસ્રોદ્ધાર સમિતિએ .જે કામ કર્યું' છે. અને કરી રહી છે તેવુ કાઈ પણ સંસ્થાએ આજ સુધી કર્યું" નથી. સ્થા॰ જૈન શાસ્ત્રાદ્ધાર સમિતિના છેલ્લા રિપોટ પ્રમાણે ખીજા છ સૂત્રા લખા ચેલ પડયા છે, એ સૂત્રેા-અનુયાગદ્વાર અને ઠાણાંગ સૂત્ર-લખાય છે તે પણ ઘેાડા વખતમાં તૈયાર થઈ જશે. તે પછી બાકીના સૂત્રો હાથ ધરવામાં આવશે. તૈયાર સૂત્રી જલ્દી છપાઈ જાય એમ ઇચ્છીએ છીએ અને સ્થા. ખંધુએ સમિતિને ઉત્તેજન અને સહાયતા આપીને તેમનાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવે એમ ઈચ્છીએ છીએ. · જૈન સિદ્ધાંત પત્ર~મે ૧૯૫૫ 3 ¥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ શ્રુત-ભકિત (પૂર્વ આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ॰ સાની આજ્ઞા અનુસાર લખનાર) ૬. સ. ના જૈન મુનિ શ્રી દયાનંદજી મહારાજ તા. ૨૩-૬-૫૬ શાહપુર, અમદાવાદ આજે લગભગ ૨૦ વર્ષથી શ્રદ્ધેય પરમપૂજ્ય, જ્ઞાનદિવાકર ૫' મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મ૦ ચરમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીરના અનુત્તર, અનુપમ ન્યાય યુક્ત, પૂર્વાપર અવિાધસ્વરૂપ કલ્યાણકારક, ચરમ શીતળ વાણીના ઘોતક એવા શ્રી જિનાગમ પર પ્રકાશ પાડે છે, તેઓશ્રી પ્રાચીન, પૌર્વાત્ય સંસ્કૃતાદિ અનેક ભાષાના પ્રખર પંડિત છે, અને જિનવાણીના પ્રકાશ સસ્કૃત, ગુજરાતી અને હિંદીમાં મૂળ શબ્દાર્થ, ટીકા, વિસ્તૃત વિવરણ, સાથે પ્રકાશમાં લાવે છે. એ જૈન સમાજ માટે અતિ ગૌરવ અને આનંદના વિષય છે. ભ॰ મહાવીર અત્યારે આપણી પાસે વિદ્યમાન નથી. પરંતુ તેમની વાણી રૂપે અક્ષરદેહ ગણુધર મહારાજોએ શ્રુતપરંપરાએ સાચવી રાખ્યા શ્રુતપર પરાથી સચવાતું જ્ઞાન જ્યારે વિસ્તૃત થવાના સમય ઉપસ્થિત થવા લાગ્યા ત્યારે શ્રી દેવદ્ધિગણિ ક્ષમાશ્રમણે વલ્ભીપુર–વળામાં તે આગમાને પુસ્તક રૂપે આરૂઢ કીઁ, આજે આ સિદ્ધાંતા આપણી પાસે છે. તે અર્ધમાગધી ભાષામાં છે. અત્યારે આ ભાષા ભગવાનની, દેવાની તથા જનગણની ધર્મભાષા છે. તેને આપણા શ્રમણેા અને શ્રમણીએ તથા મુમુક્ષુ શ્રાવક શ્રાવિકાએ મુખપાઠ કરે છે, પરન્તુ તેના અર્થ અને ભાવ ઘણા ઘેાડાએ સમજે છે. જિનાગમ એ આપણાં શ્રદ્ધેય પવિત્ર ધમ સૂત્રેા છે. એ આપણી આંખેા છે. તેનેા અભ્યાસ કરવેા એ આપણી સૌની–જૈન માત્રની ફરજ છે. તેને સત્ય સ્વરૂપે સમજાવવા માટે આપણા સદ્ભાગ્યે જ્ઞાનદિવાકર શ્રી ઘાસીલાલ મહારાજે સત સંકલ્પ કર્યાં છે અને તે લિખિત સૂત્રાને પ્રગટાવી શાસ્ત્રાદ્ધાર સમિતિદ્વારા જ્ઞાન પરમ વહેતી કરી છે. આવા અનુપમ કાર્યોંમાં સકળ જૈનોના સહકાર અવશ્ય હાવ ઘટે અને તેને વધારેમાં વધારે પ્રચાર થાય તે માટે પ્રયત્ના કરવા ઘટે. ૯૦ મહાવીરને ગણધર ગૌતમ પૂછે છે કે હે ભગવાન, સૂત્રની આરાધના કરવાથી શું ફળ પ્રાપ્ત થાય ? ભગવાન તેને પ્રતિ ઉત્તર આપે છે કે શ્રુતની આરાધનાથી જીવાના અજ્ઞાનના નાશ થાય છે, અને તે સંસારના કલેશેાથી નિવૃત્તિ મેળવે છે, અને સંસાર કલેશાથી નિવૃત્તિ અને અજ્ઞાનના નાશ થતાં મેાક્ષની ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે આવા જ્ઞાનકાર્યમાં મૂર્તિપૂજક જૈનો, દિગ ંબરા અને અન્ય ધર્મિ હજારી અને લાખેા રૂપીયા ખર્ચે છે. હિંદુ ધર્મમાં પવિત્ર મનાતા ગ્રંથ ગીતાના સેંકડો નહુિ પણ હજારે ટીકા ગ્રંથા દુનિયાની લગભગ સ` ભાષાઓમાં પ્રગટ થયા છે. ઈસાઈ ધર્મના પ્રચારકા તેમના પવિત્ર ધર્મ ગ્રન્થ માઈબલના પ્રચારાર્થે તેનુ જગતની સવ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી તેને પડતર કરતાં પણ ઘણી ઓછી કિંમતે વેચી ધર્મસૂત્રને પ્રચાર કરે છે. મુસ્લિમ લેકે પણ તેમના પવિત્ર મનાતા ગ્રન્થ કુરાનનું અનેક ભાષાઓમાં ભાષાંતર કરી સમાજમાં પ્રચાર કરે છે. આપણે પૈસા પરને મોહ ઉતારી ભગવાનના સિદ્ધાંતોને પ્રચાર કરવા માટે તન, મન, ધન સમર્પણ કરવાં જોઈએ. અને સૂત્ર પ્રકાશનના કાર્યને વધુ ને વધુ વેગ મળે તે માટે સક્રિય પ્રયત્ન કરવા જોઈએ આવા પવિત્ર કાર્યમાં સાંપ્રદાયિક મતભેદે સૌએ ભૂલી જવા જોઈએ અને શુદ્ધ આશયથી થતા શુદ્ધ કાર્યને અપનાવી લેવું જોઈએ. સમિતિના નિયમનુસાર રૂ. ૨૫૧ભરી સમિતિના સભ્ય બનવું જોઈએ. ધાર્મિક અનેક ખાતાઓના મૂકાબલે સૂત્ર પ્રકાશનનું–જ્ઞાનપ્રચારનું આ ખાતું સર્વશ્રેષ્ઠ ગણવું જોઈએ. આ કાર્યને વેગ આપવાની સાથે સાથે એ આગમ–ભગવાનની એ મહાવાણીનું પાન કરવા પણ આપણે હરહંમેશ તત્પર રહેવું જોઈએ. જેથી પરમ શાંતિ અને જીવનસિદ્ધિ મેળવી શકાય. (સ્થા. જૈન તા. ૫-૭-૫૬) શ્રી. અ.ભા. ઝવે. સ્થા. જૈન શાદ્ધાર સમિતિના પ્રમુખ શ્રી વગેરે. રાણપુર પરમ પવિત્ર સોરાષ્ટ્રની પુણ્ય ભૂમિ પર જ્યારથી શાંત-શાસ્ત્રવિશારદ અપ્રમાદિ પૂજ્ય આચાર્ય મહારાજ શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં પુનીત પગલાં થયાં છે ત્યારથી ઘણા લાંબા કાળથી લાગુ પડેલ જ્ઞાનાવરણીય કર્મનાં પડળ ઉતારવાને શુભ પ્રયાસ થઈ રહ્યો છે. અને જે પ્રવચનની પ્રભાવના તેઓશ્રી કરી રહ્યા છે તે અનંત ઉપકારક કાર્યોમાં તમે જે અપૂર્વ સહાય આપી રહ્યા છે તે માટે તમે સર્વને ધન્ય છે અને એ શુભ પ્રવૃત્તિના શુભ પરિણામોને જનતા લાભ લે છે, અને તે સમજાય છે કે સાધુજી છઠે ગુણસ્થાનકે હોય છે પણ પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ તે બહુધા સાતમે અપ્રમત્ત ગુણસ્થાનકે જ રહે છે એવા અપ્રમત્ત માત્ર પાંચ-સાત સાધુઓ જે સ્થાનકવાસી જૈન સમાજમાં હોય તો સમાજનું શ્રેય થતાં જરાએ વાર ન લાગે સમાજાકાશમાં સ્થા. જૈન સંપ્રદાયને દિવ્ય પ્રભાકર જળહળી નીકળે પણ વો દિન શ્રી શાદ્ધારસમિતિને મારી એક નમ્ર સુચના છે કે–પૂજ્યશ્રીની વૃદ્ધીવસ્થા છે, અને કાર્યપ્રણાલિકા યુવાનને શરમાશે તેવી છે. તેમને ગામેગામ વિહાર કરવું અને શાદ્ધારનું કાર્ય કરવું તેમાં ઘણાં શારીરિક માનસિક અને વ્યવહારિક મુશ્કેલી વેઠવી પડે છે. તો કઈ ચોગ્ય સ્થળ કે ત્યાંના શ્રાવકો ભક્તિ વાળા હેય. વાડાનાં રાગના વિષથી અલિપ્ત હોય. એવા કેઈ સ્થળે શાદ્ધારનું કાર્ય પૂર્ણ થાય ત્યાં સુધી સ્થિરતા કરી શકે એના માટે પ્રબંધ કર જોઈએ. બીજી કઈ એવા સ્થળની અનુકુળતા ન મળે તો છેવટ અમદાવાદમાં ચગ્ય સ્થળે રહેવાની સગવડ કરી અપાય તે વધુ સારું. મ્હારી આ સુચના પર ધ્યાન આપવા ફરી યાદ આપું છું. ફરીવાર પૃત્ય આચાર્યશ્રીને અને તેમના સત્કાર્યના સહાયકને મારા અભિનંદન પાઠવું છું તે સ્વીકારશે. લી. સદાનંદી જૈનમુનિ છોટાલાલજી Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ “જૈનસિદ્ધાંતના′′ તંત્રીશ્રીના અભિપ્રાય સ્થાનકવાસીઓમાં પ્રમાણભૂત સૂત્રા બહાર પાડનારી આ એકની એક સંસ્થા છે, અને એના આ છેલ્લા રિપેટ ઉપરથી જણાય છે કે તેણે ઘણી સારી પ્રગતી કરી છે તે જોઈ આનંદ થાય છે. મૂળ પાઠ, ટીકા, હિંદી તથા ગુજરાતી અનુવાદ સહિત સૂત્રેા ખહાર પડવાં એ કાંઈ સહેલું કામ નથી એ એક મહાભારત કામ છે અને તે કામ આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ઘણી સફળતાથી પાર પાડી રહી છે તે સ્થાનકવાસી સમાજ માટે ઘણા ગૌરવના વિષય છે અને સમિતિ ધન્યવાદને પાત્ર છે. સમિતિ તરફથી નવસૂત્રો મહુાર પડી છપાય છે. નવ સૂત્રો લખાઈ ગયાં છે અને તૈયાર થઈ રહ્યાં છે. હાલમાં મત્રી શ્રી સાંકરચ'દ ભાઈચંદ સમિતિના કામમાં જ તેમના આખા વખત ગાળે છે અને સમિતિના કામકાજને ઘણા વેગ આપી રહ્યા છે. તેમના ખત માટે ધન્યવાદ. ચુકયાં છે, હાલમાં ત્રણ સૂત્રો જમૂદ્દીપપ્રજ્ઞપ્તિ તથા નંદીસૂત્ર અને આ મહાભારત કામના મુખ્ય કાર્ય કર્તા તા છે વચેાવૃદ્ધ પ'ડિત મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ, મૂળ પાઠનું સ ંશાધન તથા સંસ્કૃત ટીકા તેઓશ્રી જ તૈયાર કરે છે. મુનિશ્રીના આ ઉપકાર આખાય સ્થા. જૈન સમાજ ઉપર ઘણેા મહાન છે. એ ઉપકારના બદલા તે વાળી શકાય તેમજ નથી. પરંતુ આ સમિતિના મેમ્બર બની તેના બહાર પડેલાં સૂત્રો ઘરમાં વસાવી તેનું અધ્યયન કરવામાં આવે તે જ મહારાજશ્રીનું ઘેાડું ઋણુ અદા કર્યું” ગણાય. ભગવાને કહ્યું છે કે પમ નાળ તો ચા પહેલુ જ્ઞાન પછી યા, દયા ધર્મ યથાથ સમજવાં હોય તા ભગવાનની વાણીરૂપ આપણા સૂત્રો વાંચવાં જ જોઇએ તેનું અધ્યયન કરવું જોઇએ અને તેના ભાવાથ સમજવા જોઈ એ. એટલા માટે શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિના સર્વ સૂત્રેા દરેક સ્થા. જૈને પેાતાના ઘરમાં વસાવવાં જ જોઈએ સર્વ ધર્મજ્ઞાન આપણા સૂત્રામાંજ સમાયેલું છે અને સૂત્રા સહેલાઈથી વાંચીને સમજી શકાય છે, માટે દરેક સ્થા. જૈન આ સૂત્રેા વાંચે એ ખાસ જરૂરતુ છે. “ જૈનસિદ્ધાંત ” ડીસેમ્બર-૫૬ 20 ४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી ઉપાસકદશાંગસૂત્રને માટે અભિપ્રાય મૂળ સૂત્ર તથા પૂજ્ય મુનિશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજે બનાવેલ સંસ્કૃત છાયા તથા ટીકા અને હિંદી તથા ગુજરાતી-અનુવાદ સહિત. પ્રકાશક-અ. ભા. શ્વે. સ્થાનકવાસી જૈનશાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ, ગરેડીઆ કુવા રેડ, બીન લેજ પાસે, રાજકોટ. (સૌરાષ્ટ્ર) પૃષ્ઠ ૬૧૬ બીજી આવૃત્તિ બેવડું (૮) કદ. પાકું પુછું, જેકેટ સાથે સને ૧૯૫૬ કિંમત રૂા. ૮-૮-૦ આપણા મૂળ બાર અંગ સૂત્રોમાંનું ઉપાસકદશાંગ એ સાતસું અંગ સૂત્ર છે. એમાં ભગવાન મહાવીરના દશ ઉપાસકે-શ્રાવકોનાં જીવનચરિત્રો આપેલાં છે, તેમાં પહેલું ચારિત્ર આનંદ શ્રાવકનું આવે છે. આનંદ શ્રાવકે જૈનધર્મ અંગીકાર કર્યો અને બાર વ્રત ભગવાન મહાવીર પાસે અંગીકાર કરી પ્રતિજ્ઞા (પ્રત્યાખ્યાન) લીધાં તેનું સવિસ્તર વર્ણન આવે છે, તેની અંતર્ગત અનેક વિષયો જેવા કે, અભિગમ, કાલકસ્વરૂપ, નવતત્વ નરક, દેવલોક વગેરેનું વર્ણન પણ આવે છે. આનંદ શ્રાવકે બાર વ્રત લીધા તે બાર વ્રતની વિગત અતિચારની વિગત વગેરે બધું આપેલું છે. તે જ પ્રમાણે બીજા નવ શ્રાવકોની પણ વિગત આપેલ છે. આનંદ શ્રાવકની પ્રતિજ્ઞામાં વરિય શબ્દ આવે છે. મૂર્તિપૂજકે મૃતિપૂજા સિદ્ધ કરવા માટે તેને અર્થ અરિહંતનું ચિત્ય (પ્રતિમા) એ કરે છે. પણ તે અર્થ તદૃન બેટે છે. અને તે જગ્યાએ આગળ પાછળના સંબંધ પ્રમાણે તેને એ બે અર્થ બંધ બેસતું જ નથી તે મુનિશ્રી ઘાસીલાલજીએ તેમની ટીકામાં અનેક રીતે પ્રમાણે આપી સાબિત કરેલ છે અને પિતાને અર્થ સાધુ થાય છે. તે બતાવી આપેલ છે. આ પ્રમાણે આ સૂત્રમાંથી શ્રાવકના શુદ્ધ ધર્મની માહિતી મળે છે તે ઉપરાંત તે શ્રાવકની ઋદ્ધિ, રહેઠાણ. નગરી વગેરેના વર્ણને ઉપરથી તે વખતની સામાજિક સ્થિતિ, રીતરિવાજ રાજવ્યવસ્થા વગેરે બાબતેની માહિતી મળે છે. એટલે આ સૂત્ર દરેક શ્રાવકે અવશ્ય વાંચવું જોઈએ, એટલું જ નહિ પણ વારંવાર અધ્યયન કરવા માટે ઘરમાં વસાવવું જોઈએ. પુસ્તકની શરૂઆતમાં વર્ધમાન શ્રમણસંઘના આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજનું સંમતિપત્ર તથા બીજા સાધુઓ તેમજ શ્રાવકોના સંમતિપત્ર આપેલ છે, તે સૂત્રની પ્રમાણભૂતતાની ખાત્રી આપે છે. જૈનસિદ્ધાંત” જાન્યુઆરી–૫૭ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેંકડ સર્ટીફીકેટ ઉપરાંત હાલમાં મળેલ કેટલાક તાજા અભિપ્રાયે શાસ્ત્રો દ્વારના કાર્યને વેગ આપો તંત્રીસ્થાનેથી (જૈનતિ ) તા. ૧૫-૯-૧૭ પૂજ્ય શ્રી ઘા સીલાલજી મહારાજ ઠાણા ૪ હાલમાં અમદાવાદ મુકામે સરસપુરના સ્થા. જૈન ઉપાશ્રયમાં બિરાજમાન છે. તેઓ શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધારનું કાર્ય ખૂબ જ ખંત અને ઉત્સાહથી વૃદ્ધવયે પણ કરી રહ્યા છે. તેઓશ્રી વૃદ્ધ છે છતાં પણ આખો દિવસ શાસ્ત્રની ટીકાઓ લખી રહ્યા છે. આજ સુધીમાં તેમણે લગભગ ૨૦ જેટલાં શાસ્ત્રોની ટીકાઓ લખી નાખી છે અને બાકીનાં સૂત્રની ટીકા જેમ બને તેમ જલદી પૂર્ણ કરવી તેવા મને રથ સેવી રહેલ છે. સ્થા. જૈન સમાજમાં શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવાને આ પ્રથમ જ પ્રયાસ છે અને તે પ્રયાસ સંપૂર્ણ બને એવી અમે શાસનદેવ પ્રત્યે પ્રાર્થના કરીએ છીએ. આજ સુધી ઘણું મુનિવરોએ શાસ્ત્રોનું કામ શરૂ કરેલ છે પણ કેઈએ પૂર્ણ કરેલ નથી. પૂજ્યશ્રી અમુલખાષીજી મહારાજે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર હિંદી અનુવાદ કરેલ અને સંપૂર્ણ બનેલ, ત્યારબાદ આચાર્ય શ્રી આત્મારામજી મહારાજશ્રીએ હિંદી ટીકા કેટલાક શા ઉપર લખેલ પણ ઘણાં શાસ્ત્રો બાકી રહી ગયાં. પૂજ્ય હસ્તિમલજી મહારાજે એક બે શા ઉપરની ટીકાઓના અનુવાદ કરેલ. પૂજ્ય શ્રી જવાહરલાલ મહારાજશ્રીએ સૂયગડાંગસૂત્ર ટીકા સહિત હિન્દી અનુવાદ સાથે કરેલ. શ્રી સૌભાગ્યમલજી મહારાજે આચારાંગની હિંદી ટીકા લખેલ. પણ સંપૂર્ણ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા હજી સુધી સ્થા. જૈન સાધુઓ તરફથી થયેલ નથી. જ્યારે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજશ્રીએ ૨૦ શા ઉપર સંસ્કૃત ટીકા તેને હિંદી ગુજરાતી અનુવાદ કરાવેલ છે આથી હવે આશા બંધાય છે કે તેઓશ્રી બત્રીસે બત્રીસ શાસ્ત્રો ઉપર સંસ્કૃત ટીકા લખવામાં સકળ થશે અને શાદ્ધાર સમિતિએ આજ સુધી ૧૦ થી ૧૨ શા છપાવી પણ દીધાં છે અને હજી પણ તે શા વિશેષ જલદી છપાય તે માટે શાદ્વાર સમિતિ સંપૂર્ણ પ્રયત્ન કરી રહેલ છે તે ધન્યવાદને પાત્ર છે. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિના રૂા. ૨૫૧] ભરીને લાઈફ મેમ્બર થનારને તમામ શાસ્ત્રો શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી ભેટ મળે છે. આ રીતે એક પંથ અને દે કાજ, બંને રીતે લાભ થાય તેમ છે. રૂા. ૨૫૧ માં ૫૦૦ રૂપિયાની કિંમતમાં શાસ્ત્રો મળે એ પણ મટે લાભ છે અને પ્રવચનની પ્રભાવના કરવાને ધર્મ. લાભ પણ મળે છે. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આ સાલે પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજના સુશિષ્ય પં. મિનશ્રી કનૈયાલાલજી મહારાજ મલાડ મુકામે ચાતુર્માસ બિરાજે છે અને તેઓશ્રી શાસ્ત્રોના મેમ્બરો કરવા માટે અથાગ પ્રયત્ન કરીને પ્રવચનની સેવા બજાવી રહ્યા છે. અને અત્યાર સુધીમાં મુંબઈ તેમજ પરાઓના લગભગ ૪૦ જેટલા ગૃહસ્થ લાઈફ મેમ્બર બની ગયા છે અને મુંબઈમાં લગભગ ૩૦૦ જેટલા મેમ્બરો થાય તે ઈચ્છવા ગ્ય છે. શ્રીમંત ગૃહસ્થો હજારો રૂપિયા પિતાના ઘર ખર્ચમાં તેમજ જશેખના કામમાં તેમજ વ્યવહારિક કામમાં વાપરી રહ્યા છે તો આવા શાસ્ત્રોદ્ધાર જેવા પવિત્ર કાર્યમાં રૂપિયા વાપરશે તે ધર્મની સેવા કરી ગણાશે. અને બદલામાં ઉત્તમ આગમસાહિત્યની એક લાયબ્રેરી બની જશે. જેનું વાંચન કરવાથી આત્માને શાંતિ મળશે અને શાસ્ત્રાજ્ઞા પ્રમાણે વર્તવાથી જીવન સફળ થશે. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શતાવધાની મુનિશ્રી ચંતિલાલજી મહારાજશ્રીને અમદાવાદને પત્ર “સ્થાનકવાસી જૈન” તા. પ-૯-૧૭ ના અંકમાં છપાએલ છે જે નીચે મુજબ છે. સૂત્રોના મૂળ પાઠેમાં ફેરફાર હોઈ શકે ખરે ? તા. ૭-૮-૧૭ના રોજ અ બિરાજતા શાસ્ત્રોદ્ધારક આચાર્ય મહારાજશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ પાસે, મારા ઉપર આવેલ એક પત્ર લઈને હું ગયો હત, તે સમયે મારે પૂ. મ. સા. સાથે જે વાતચીત થઈ તે સમાજને જાણ કરાવા સારૂ લખું છું. શાસ્ત્રોનું કામ એક ગહન વસ્તુ છે. અપ્રમાદી થઈ તેમાં અવિરત પ્રયત્ન કરવા જોઈએ. સંપૂર્ણ શાસ્ત્રોનું જ્ઞાન તેમજ દરેક પ્રકારની ખાસ ભાષાનું જ્ઞાન હેય તેજ આગમ દ્વારકનું કાર્ય સફળતાથી થાય છે. આ પ્રકારનો પ્રયત્ન હાલ અમદાવાદ ખાતે સરસપુર જેન સ્થાનકમાં બિરાજતા પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ કરી રહ્યા છે. શાસ્ત્રલેખનનું આ કાર્ય થઈ રહ્યું છે, તેમાં અનેક વ્યક્તિઓને અનેક પ્રકારની શંકાઓ થાય છે તેમાં શાસ્ત્રોના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થાય છે? કરવામાં આવે છે? એ પ્રશ્નન પણ કેટલાકને થાય છે અને તે પ્રશ્ન થાય તે સ્વાભાવિક છે; કેમકે અમુક મુનિરાજે તરફથી પ્રગટ થયેલ સૂત્રના મૂળ પાઠમાં ફેરફાર થયેલા છે. જેથી આ કાર્યમાં પણ સમાજને શંકા થાય. પણ ખરી રીતે જોતાં, અત્યારે જે શાસ્ત્રોદ્ધારનું કામ ચાલી રહ્યું છે તે વિષે સમાજને ખાત્રિ આપવામાં આવે છે કે, શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ તરફથી અત્યાર સુધીમાં પ્રગટ થયેલાં આગમના મૂળ પાઠમાં જરાપણ ફેરફાર કરવામાં આવેલ નથી અને ભવિષ્યમાં જે સૂત્રે પ્રગટ થશે તેમાં ફેરફાર થશે નહિ તેની સમાજ નેંધ લ્ય. લી. શતાવધાની શ્રી યંત મુનિ–અમદાવાદ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને ટુંક પરિચય સ્થાનકવાસી સમાજની આ એકની એક સંસ્થા છે કે જેણે અત્યાર સુધીમાં તેર સૂત્ર છપાવી બહાર પાડી દીધાં છે. સાત સૂત્ર છપાય છે અને બીજા કેટલાક છાપવા માટે તૈયાર થઈ ચૂક્યા છે. આ પ્રમાણે આ સંસ્થાએ મહાન પ્રગતિ સાધી છે તેને ટુંક પરિચય આ પત્રિકામાં આપેલ છે તે વાંચી જઈ સર્વ સ્થા. જૈન ભાઈબહેનોએ આ સંસ્થાને યથાશક્તિ મદદ કરી તેના કાર્યને હજુ વિશેષ વેગવાન બનાવવાની જરૂર છે. ખાલી ઘડો વાગે ઘણે એમ સ્થા. કેન્ફરન્સ જેમ બેટાં બણગાં કુંકનારી સંસ્થાની કિંમત નથી, ત્યારે નક્કર કામ કરનારી આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને દરેક પ્રકારે ઉત્તેજન આપવાની દરેક સ્થાનકવાસી જૈનની અનિવાર્ય ફરજ છે. અને આ સર્વ સૂત્રો તયાર કરનાર પૂજ્ય મુનિશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજને સ્થાનકવાસી સમાજ ઉપર ઘણે મહાન ઉપકાર છે. વયેવૃદ્ધ હવા છતાં તેઓશ્રી જે મહેનત લઈ સૂત્રે તૈયાર કરાવે છે તેવું કામ હજુ સુધી બીજા કેઈએ કર્યું નથી અને બીજું કંઈ કરી શકશે કે નહિ તે પણ શંકાભર્યું છે. પૂજ્ય મુનિશ્રીના આ મહાન ઉપકારને કિંચિત બદલે સમાજે આ શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિને બની શકતી સહાય કરીને વાળવાને છે. સ્થાનકવાસી સમાજ જ્ઞાનની કદર કરવામાં પાછા હઠે તેમ નથી એવી અમે આશા રાખીએ છીએ. જૈન સિદ્ધાંત પત્ર ૪ ઓકટોમ્બર ૧૯૫૭ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ શ્રી દશવૈકાલિક તથા ઉગાસદશાંગ સૂત્રો : ગુજરાતી ભાષામાં અનુવાદ થયેલાં પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત શ્રી ઉપરાસ્ત એ સૂત્રેા જૈન ધર્મ પાળતા દરેક ઘરમાં હોવા જ જોઈએ. તે વાંચવાથી શ્રાવક ધર્મ અને શ્રમણ ધર્મના આચારનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત થઈ શકે છે અને શ્રાવકા પેાતાની નિરવધ અને અણુિય સેવા શ્રમણ પ્રત્યે મજાવી શકે છે. વર્તમાનકાળે શ્રાવકામાં તે જ્ઞાન નહિ હૈાવાને લીધે અધશ્રદ્ધાએ શ્રમણ વર્ગની વૈયાવચ્ચ તે કરી રહેલ છે. પરંતું ‘કલ્પ શું અને અકલ્પ શું ’ એનું જ્ઞાન નહિ હેાવાને લીધે પે।તે સાવદ્ય સેવા અર્પી પેાતાના સ્વાને ખાતર શ્રમણ વર્ગને પેાતાને સહાયક થવામાં ઘસડી રહ્યા છે, અને શ્રમણ વની પ્રાયઃ કુસેવા કરી રહ્યા છે. તેમાંથી ખચી લાભનું કારણ થાય અને શ્રમણને યથાતથ્ય સેવા અર્પી તેમને પણ જ્ઞાનદર્શન ચારિત્રની આરાધના કરવામાં સહા યક થઈ પેાતાના જ્ઞાનદન ચારિત્રની આરાધના કરી સુગતિ મેળવી શકે. શ્રમણની યથાતથ્ય સેવા કરવી તે અવશ્ય ગૃહસ્થની ફરજ છે. પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મ. શાઓદ્ધારનુ' અનુવાદન ત્રણ ભાષામાં રૂડી રીતે કરી રહ્યા છે અને રૂપીયા ૨૫૧] ભરી મેમ્બર થનારતે રૂા. ૪૦૦-૫૦૦ ની લગભગ કીંમતના બત્રીસે આગમા ફ્રી મળી શકે છે તે તે રૂ ૨૫૧] ભરી મેમ્બર થઈ ખત્રીસે આગમે! દરેક શ્રાવક ઘરે મેળવવા જોઈ એ. ખત્રીસે શાસ્ત્રોના લગભગ ૪૮ પુસ્તકા મળશે. તેા તે લાભ પેાતાની નિર્જરા માટે પુન્યાનુ બધી પુન્ય માટે જર મેળવે. ઉપરોક્ત અને સૂત્રોની કી'મત સમિતિ કંઈક ઓછી રાખે તેા હરકેાઈ ગામમાં શ્રીમત હોય તે સૂત્રો લાવી અરધી કીંમતે, મફત અથવા પૂરી કીમતે લેનારની સ્થિતિ જોઈ દરેક ઘરમાં વસાવી શકે. —એક ગૃહસ્થ નોંધ-ઉપરની સુચનાને અમે આવકારીએ છીએ. આવાં સૂત્રો દરેક ઘરમાં વસાવવા ચાગ્ય તેમજ દરેક શ્રાવકે વાંચવા ચૈાગ્ય છે. તંત્રી ૮ રત્નજ્યેાત ” પત્ર તા. ૧-૧૦-૫૭ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- પૂજ્ય આચાર્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજનાં બનાવેલાં સૂત્રો કાશ્મીરથી કન્યાકુમારી તેમજ કરાંચીથી ... કલકત્તા સુધી દરેક સ્થળે હોંશથી વંચાય છે. કારણ કે આવી રીતે શાસ્ત્રો તૈયાર કરવાનું અનેખું કાર્ય હજુ સુધી કેઇ કરી શક્યું નથી શ્રી સ્થાનક્વાસી જૈન સમાજ ઉપરાંત શ્રી દેરાવાસી સંપ્રદાયના મહાન આચાર્યશ્રી રામવિજયસૂરીજી તથા અન્ય મુનિવરેએ તેમજ તેરાપંથી મહાસભા કલકત્તાવાળાએ આ સૂત્રો અપનાવ્યાં છે. દેશ-પરદેશના મેમ્બરે સૂત્રો વાંચી જૈન ધર્મના શ્રતજ્ઞાનને અણમેલો લાભ લઈ રહ્યા છે. હમણાંજ લંડનની ઈન્ડિઆ ઓફીસ લાયબ્રેરીએ આ સૂત્રો મંગાવ્યાં છે. આપ રૂપીઆ ૨૫૧-૦-૦ મોકલી મેમ્બર તરીકે નામ નોંધાવી હપ્તે હપ્ત લગભગ રૂપીઆ પાંચ સુધીની કિંમતનાં શાસ્ત્રો વિના મૂલ્ય મેળવી શકે છે. * વધુ વિગત માટે લખે ઠે. ગ્રીન લોજ પાસે,ી મંત્રી ગરેડીઆકુવા રેડ કે શ્રી અખિલ ભારત . સ્થા. જૈન રાજકેટ. ) શાસ્ત્રોદ્ધારસમિતિ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ श्री आचाराङ्गसूत्र प्रथमश्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययनका विषयानुक्रम विषय मङ्गलाचरण अवतरणा (१) भगवान् के वचनों में कल्पवृक्ष के के पच्चीस (२५) गुणोंकी उपमा (२) भगवान् की वाणी के ३५ अतिशय (३) अनुयोग (४) (३) गणितानुयोग ४-१३ १४-१९ २०- १५८ २०-२३ (१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग २३-२४ (१) आक्षेपाप्यादिधर्मकथा ( ४ ) २५ - ३१ (२) धर्ममहिमा ३२-३४ ३५-५३ ३६-५३ प्रव्रज्यादानसमयनिर्णय (१) मासविचार (२) पक्षविचार (३) तिथिविचार (४) वारविचार (५) नक्षत्रविचार (६) योगविचार (७) करणविचार (८) लग्नविचार फूलों (९) ग्रहविचार (१०) शीघ्रप्रव्रज्यासमयनिरूपण पृष्ठाङ्क १- ३ ३-१५९ ३७ ३८ ३८ ३९ ३९ ४१ ४१ ४६ ४६ ४७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क(११) केशलुश्चन (१२) प्रथमगोचरीविचार ५२ (१३) नूतनपात्रव्यापारण (१४) आचार्यादिपदप्रदानसमय (४) द्रव्यानुयोग द्रव्यलक्षण पर्यायलक्षण द्रव्यविभाग ( भेद-६) [१] धर्मास्तिकायस्वरूप [२] अधर्मास्तिकायस्वरूप [३] आकाशास्तिकायस्वरूप [४] कालनिरूपण कालशब्दव्युत्पत्ति कालसिद्धि काललक्षण कालस्वरूप [५] पुद्गलास्तिकाय पुद्गलशब्दार्थ पुद्गललक्षण पुद्गलादेशसंख्या पुद्गलक्षेत्रस्थिति पुद्गलभेद परमाणुस्वरूप स्कन्धस्वरूप और उसके भेद १०८ परमाणुवन्धकारण ११२ परमाणुबन्धव्यवस्था कोष्टक १२१ ::::४८८ ८७७.४४३५४३४५३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क१२२ १२२ १२४ १२५ १२६ १२७ १२७ १२८ १३० १३२ विषय[६] जीवास्तिकाय जीवशब्दार्थ जीव स्वरूप भाव और उसके भेद-५ (१) औपशमिक भाव (२) क्षायिक भाव (३) क्षायोपशमिक भाव (४) औदयिक भाव (५) पारिणामिक भाव जीव का स्थितिक्षेत्र जीव की हास-वृद्धि जीव की ऊर्ध्वगति जीवलक्षण इति जीवास्तिकाय षड्द्रव्य विचार जीवस्कन्ध विचार षद्रव्यों का सक्रियनिष्क्रिय विचारव्यवहारनय को लेकर षड्द्रव्य विचारषडूद्रव्यों के विषय मेंकर्तृत्वाकर्तृत्वनिरूपण व्यवहार नय-(६) (१) शुद्धव्यवहार नय (२) अशुद्धव्यवहार नय (३) शुभव्यवहार नय (४) अशुभव्यवहार नय १३४ १३५ १४० १४१ १४३ १४७ १४७ १४८ १४८ १५० १५१ १५२ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ac पृष्ठाङ्क १५२ १५४ १५६ १५९ १५९ १६० १६१ १६४-१९५ विषय(५) उपचरितव्यवहार नय (६) अनुपचरितव्यवहार नय जीव के स्वरूप में सदृशविसदृश विचार इति अवतरण सम्पूर्ण सूत्र का उपक्रम सूत्र प्रथम 'भग' शब्दार्थ सूत्र द्वितीय (संज्ञा) संज्ञा के भेद (१६) (१) आहारसंज्ञा (२) भयसंज्ञा (३) मैथुनसंज्ञा (४) परिग्रहसंज्ञा (५) क्रोधसंज्ञा (६) मानसंज्ञा (७) मायासंज्ञा (८) लोभसंज्ञा (९) लोकसंज्ञा (१०) ओघसंज्ञा (११) सुखसंज्ञा (१२) दुःखसंज्ञा (१३) मोइसंज्ञा (१४) विचिकित्सासंज्ञा (१५) शोकसंज्ञा (१६) धर्मसंज्ञा ज्ञानसंज्ञा के मेद-(५) १६७ १६९ १६९-१७० १७१ १७१ १७२ १७२ १७२-१७३ १७३ १७३ १७४ १७४ १७४-१७५ १७५ १७५-१७६ १७६ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क विषय(१) मतिज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनःपर्ययज्ञान (५) केवलज्ञान मतिज्ञान के भेद (५) १७६ १७७ १७९ १८१ १८५-१९० १८५-१८६ १८६-१८७ १८७ १८७ १८८ १८८ १८८-१८९ अपोह मीमांसा मार्गणा गवेषणा संज्ञा स्मृति मति प्रज्ञा सूत्र तृतीय (संज्ञा) तीन प्रकार का जन्म (१) संमूर्छनजन्म (२) गर्भजन्म (३) उपपातजन्म सूत्र चतुर्थ (संज्ञा) सूत्र पञ्चम आत्मवादिप्रकरण आत्मशब्दार्थ आत्मास्तित्वसिद्धि आत्म का द्रव्यत्व आत्माका स्वरूप (१३) १९० १९५-२०२ १९८ १९८-१९९ १९९-२०० २०१ २०२-२०८ २०९-३९७ २१०-२६८ २११ २१३ २२८ २३३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांङ्क२३३ २३७ २४३ २४४ २४७ २४८ विषय(१) जीवत्वनिरूपण (२) नित्यत्वनिरूपण (३) चेतनावत्त्वनिरूपण (४) उपयोगवत्त्वनिरूपण (५) परिणामित्वनिरूपण (६) प्रभुत्वनिरूपण (७) कर्तृत्वनिरूपण (८) भोक्तृत्वसिद्धि (९) शरीरपरिणामत्वसिद्धि (१०) अमूर्त्तत्वनिरूपण (११) प्रतिशरीरभिन्नत्वसिद्धि (१२) पौद्गलिककर्मसयुक्तत्वसिद्धि (१३) ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वसिद्धि इति आत्मवादि प्रकरण लोकवादिप्रकरण षड्जीवनिकाय (१) पृथिवीकायभेद (२) अप्कायभेद (३) तेजस्कायभेद (४) वायुकायभेद (५) वनस्पतिकायभेद (६) त्रसकायभेद (१-४) द्वित्रिचतुरिन्द्रियभेद (६) पञ्चेन्द्रियभेद (४) मनुष्यभेद अकर्मभूमि देवनिकाय (४) २५० २५३ २५५ २५९ २६३ २६३ २६८ २६८ २६९-२९९ २७०-२७१ २७१ २७३ २७४ २७४-२७५ २७५-२७६ २७६ २७७-२७८ २७९ २८० २८२ २८३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क २८४ २८६ २८७ २८८ २९४ २९५ २९८ २९९ ३१२ विषय (१) भवनपतिदेवभेद (२) व्यन्तरदेवभेद (३) ज्योतिष्कदेवभेद (४) वैमानिकदेवभेद कल्पातीत षड्जीवनिकायभेदसंकलन जीवसंख्या कर्मवादिप्रकरण (१) कर्मस्वरूप (२) कर्मसिद्धि (३) कर्म का मूर्तत्व (४) जीव और कर्म का संबन्ध (५) कर्म का अनादित्व (६) अकर्मवादिमतनिराकरण (७) बन्धस्वरूपनिरूपण (८) बन्धकारणनिरूपण (१) प्रकृतिवन्ध आठ कर्मों के लक्षण (२) स्थितिबन्ध स्थितिबन्धकोष्ठक (३) अनुभाववन्ध पुण्यपापकर्मनिरूपण सर्वघाति प्रकृतिया (२०) देशघाति प्रकृतियाँ (२५) अघाति प्रकृतिया (७५) उत्तरप्रकृतिसंख्या (१४८) ३१३ ३१७ ३१८ ३२० ३२५ ३३२ " Ww ३३३ ३३६-३३७ ३३८ ३४४ ३४७ ३५२ ३५६ ३५८-३७४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ३८३ ३८३-३९७ ३८६ ૨૮૮ m ३९१ ३९२ ३९२-३९७ विषयकर्मक्षयविचार इति कर्मवादिप्रकरण क्रियावादिप्रकरण प्राणातिपातक्रिया मृगवध में उद्यत की क्रिया कुसूल में लोह डालने वाले की क्रिया धनुष से वींधने वाले की क्रिया दृष्टिज्ञान के लिये हस्तादिफैलाने वाले की क्रिया ताड पर चढ कर उसके फल तोडनेवाले की क्रिया अठारह पापस्थान (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन (६) परिग्रह (६-१८) क्रोध से मिथ्यादर्शनशल्यतक इति क्रियावादि प्रकरण छठा सूत्र (कर्मसमारम्भ ) सूत्र सप्तम ( अपरिज्ञात कर्मजीव) सूत्र अष्टम (जीव का योनिसंधान) योनिभेद (९) चोरासी लाख योनिया सूत्र नवम (परिज्ञा) मूत्र दशम (कर्मसमारम्भ) भूत्र एकादश (उपसंहार) सूत्रद्वादश (उपसंहार) ३९४ ३९४-३९५ ३९५ ३९५-३९७ ३९७ ३९७-४०१ ४०२-४०३ ४०३-४०९ ४०४ ४०७ ४०९ ४११ ४१५ ४१६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - पृष्ठाङ्क प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशकी समाप्ति ४१७ दूसरे उद्देशका उपक्रम ४१८ ४२० जीव के विशिष्ट ज्ञानके अभावका कारण पृथिवीकाय की हिंसा में तदाश्रित जीवों की हिंसा पृथिवीकाय लक्षण पृथिवीकायप्ररूपणा पृथिवीकायजीव परिणाम पृथिवीकायवधद्वार - शस्त्रद्वार पृथिवीकाय का उपभोग पृथिवीकायसमारम्भप्रयोजन पृथिवीकायसमारम्भफल दृष्टान्तद्वारा पृथिवी जीवसिद्धि पृथिवीकायसमारम्भनिवृत्ति उपसंहार - उद्देशसमाप्ति तृतीय उद्देश उपक्रम और दृष्टान्त अनगारलक्षण अनगारकर्त्तव्य श्रद्धास्वरूप (१) यथावृत्तिकरण (२) अपूर्वकरण (३) अनिवृत्तिकरण (४) अधिगमश्रद्धा अकायश्रद्धोपदेश अकाय की हिंसा में तदाश्रित अन्य जीवों की हिंसा अकायशत्र अकायरक्षोपदेश अष्कायभोग ४२३ ४२५ ४३३ ४३७ ४४० ४४१ ४४२ ४४९ ४५५ ४६१ ४६३ ४६४ ४६४-४६८ ४६९ ४७३ ४७४-४९८ ४८५ ४८९ ४९२ ४९४ ४९९-५०३ ५०४ ५०५ ५०९ ५१२ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ५२० ५२२ ५२४ ५२८ ५३० विषयअकायसचित्तता अप्कायजीवलक्षण अकायनरूपणा अकायजीवपरिमाण अप्कायशस्त्र धावनजल-धावनपानी-(२१) अप्कायविराधनादोष अकाय के विषय में अन्यमत समीक्षा अन्यमतागमविरोध उपसंहार चतुर्थोद्देशक उपक्रम अग्निकाय के अभ्याख्यान में आत्मा का अभ्याख्यान अग्निकायलक्षण अग्निकायसचित्तता अग्निकायप्ररूपणा अग्निकायजीवपरिणाम अग्निकायापलाप दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय ) का ५३२ ५३४ ४३७ ५३८ ५३८ ५३९ ५४१ ५४२ ५४६ ५४८ खेदज्ञ ५५० ५५३ दीर्घलोकशब्दार्थ अग्निकायशस्त्र अग्निकायसमारम्भनिवृत्तिपतिज्ञा अग्निविराधनादोष अग्निकायोपभोग अग्निसमारम्भदोष अग्निसमारम्भ में उसके आश्रित अन्य जीवों की हिंसा उपसंहार ५५५ ५६० ५६२ ५६७ ५७० ५७३ ५७९ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयउद्देशकसमाप्ति पञ्चमदेशक (वनस्पति) उपक्रम अनगारलक्षण वनस्पतिकायसचित्तता ( लक्षणद्वार ) वनस्पतिप्ररूपणा ( भेद ) वनस्पतिपरिमाण वनस्पतिकायोपमर्द्दन संसार का ११ हेतु है रूपादि गुण में मूर्च्छा संसार का कारण है रूपादिगुण मूर्च्छादोष वनस्पतिशस्त्रसमारम्भ में तदाश्रित अनेक जीवहिंसावनस्पतिविराधक साध्वाभास उपभोगद्वार वनस्पतिविराधनाफल मनुष्यशरीर के साथ वनस्पतिकी सचित्तता की सिद्धि उपसंहार उद्देशसमाप्ति षष्ठोद्देश (सकाय) उपक्रम सों के भेद त्रसकायलक्षण त्रसकायप्ररूपणा काय परिणाम प्रत्येक सजीवों के सुख दुःख अलग अलग हैं पृष्ठाङ्क ५८१ ५८२ ५८२ ५८४ ५८६ ५९१ ६०९ ६१२ ६१७ ६२१ ६२२ ६२६ ६३० ६३२ ६३६ ६४१ ६४३ ६४४ ६४४ ६४५ ६५० ६५१ ६५२ ६५४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - प्रत्येक दिशा विदिशा में पृथिवी आदि आश्रित त्रसजीवों को परिताप १२ देने से संसार भ्रमणकाय के समारम्भ में अन्य प्राणियों की हिंसा काय की हिंसा में परिज्ञा ( सकाय समारंभदोष ) उपभोगद्वार वेदनाद्वार सजीवविराधनाफल सजीवहिंसाप्रयोजन उपसंहार उद्देशसमाप्ति सप्तम उद्देश (वायुकाय ) वायुकायविराधनविवेक वायुकायलक्षण वायुकायप्ररूपणा वायुकायपरिमाण वायुका यशस्त्र वायुकाय की हिंसा में पड़जीवनिकायरूप लोक की हिंसा द्रव्यलिङ्गिकृत वायुकायविराधना वायुकायोपभोग वायुविराधनादोप वायुविराधनापरिहार मुखस्त्रिकाविचार पइनिकायारम्भदोष पजीवविराधनापरिहार प्रथम अध्ययन समाप्ति पृष्ठाङ्क ६५७ ६५९ ६६३ ६६४ ६६६ ६६७ ६७० ६७३ ६७५ ६७६ ६७७ ६८३. ६८४ ६८५ ६८६ ६८९ ६९० ६९३ ६९६ ७०० ७०४ ७१२ ७१७ ७२० mr t Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्यश्री - घासीलालजीमहाराजविरचिताऽऽचारचिन्तामणिटीकासमलङ्कृतम् आचाराङ्गसूत्रम् । [ प्रथमः श्रुतस्कन्धः ] -००००० मङ्गलाचरणम्. अर्थदं वीरजिनं प्रणम्य, लब्धेर्धरं गौतम -माप्तशक्तिम् । गणीश्वरं पूर्वधरं च चित्ते, सन्धाय जैनीं गिरमुज्ज्वलन्तीम् ॥ १ ॥ आचाराङ्गसूत्रकी आचारचिन्तामणिटीका का हिन्दीभाषानुवाद | मङ्गलाचरण ( १ ) भव्य जीवोंके मनोरथ पूर्ण करते जो जुदा, () उन वीतराग जिनेन्द्र के चरणाम्बुजों से नति सदा । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे - आचारसूत्रे मुनिघासिलाल, प्रयत्नतः साधुजनेष्टसिद्धथै । आचारचिन्तामणिमादधेऽहं, __भव्याः सदैनं-हदि धारयन्तु ॥२॥ अनेक लब्धिग्राहि चौदह पूर्वधारक जो तथा, अध्यात्मशक्ति विभूतियुक्त विराजते है जिन यथा ॥ (२) आचार्य गणधर लोक हित गौतमपदाम्बुज में नती, __ मेरी विराजे सर्वदा देवे विमल मति शुभ गती। निर्दोषतत्त्वनिरूपिणी उनकी समुज्ज्वल भारती, धरते उसे हिय में सदा जो भव्यजन को तारती ॥ (३) विनीत 'घासीलाल' मुनि जनता तथा मुनि के लिये, भगवत्सुभाषितरत्न 'आचाराङ्ग गुणगुंफित किये । मणिमालिका के रूपमें करते प्रकाशित है अभी, आचारचिन्तामणि हृदयगृह में रखे जनता सभी ॥ . (४) जड द्रव्य चिन्तामणि हृदयपै बाहिरे जाते धरे, 'आचारचिन्तामणि' (टीका ) हृदयमें धारिता तमको हरे । सब भव्यजन संसार वन में घूमते इसको गहे, । जिससे प्रकाशित मार्ग हो निज लक्ष्य पद सत्वर लहे ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा इह सार्द्धतृतीयद्वीपाभ्यन्तरे पञ्चदशक्षेत्रात्मकनन्दनकानने सम्यक्त्वालवालमध्ये आत्मरूपाः कलम्बा विंशतिस्थानकपुनःपुनःसमाराधनसलिलेन संवर्द्धिताः सन्तस्तीर्थङ्कस्वरूपा अभिनवकल्पपादपाः प्रादुर्भवन्ति । भव्यजीवो के समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाले श्री वीर भगवान् को प्रणाम करके, तथा विविध प्रकार की लब्धियो के धारक चौदह १४ पूर्वो के ज्ञाता आध्यात्मिक शक्ति से सम्पन्न श्री गौतम गणधर को नमस्कार करके समस्त दोषो से रहित होने के कारण, तथा वास्तविक वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करने के कारण उज्ज्वल जिनवाणीको हृदय मे धारण करके मै 'घासीलाल' मुनि प्रयत्न करके भव्य पुरुषों की तथा मुनिजनो की इष्टसिद्धि के लिये आचारान रूप सूत्र (दोरे) मे भगवद्भाषित विविध आचाररूप मणियां मालारूपमें पिरोता हूँ । भव्यजन इसे सदैव अपने हृदयमें धारण करें। जडद्रव्यरूप चिन्तामणि हृदय पर अर्थात् वक्षःस्थल पर धारण किया जाता है किन्तु यह आचारचिन्तामणि (टीका) हृदय में धारण करने योग्य है ॥ २॥ इस अढाई द्वीप के भीतर पन्द्रह कर्मभूमि रूप नन्दनवन में सम्यक्त्वरूप क्यारीमें आत्मारूपी कलम्ब, तीर्थकर गोत्र वांधने के कारणभूत बीस स्थानो की वारंवार आराधना रूपी जलसे वृद्धिको प्राप्त होकर तीर्थङ्कररूप नूतन कल्पवृक्ष उत्पन्न होते है । આચારાંગ સત્રની આચારચિન્તામણિ ટીકાનો ગુજરાતી અનુવાદ, मंगलाय२५.. ભવ્ય જીના તમામ મનોરથ પૂર્ણ કરવાવાળા શ્રી વીર ભગવાનને પ્રણામ કરીને, તથા વિવિધ પ્રકારની લબ્ધિઓના ધારક,ચૌદ પૂર્વેના જ્ઞાતા, આધ્યાત્મિક શક્તિથી સમ્પન્ન શ્રી ગૌતમ ગણધરને નમરકાર કરીને સકલ દેથી રહિત હેવાના કારણે તથા વાસ્તવિક વસ્તુસ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાના કારણે ઉજ્જવલ જિનવાણીને હૃદયમાં ધારણ કરીને ધારીલાલ મુનિ પ્રયત્ન કરીને, ભવ્ય પુરૂષે-જીની તથા મુનિજનોની ઈષ્ટ સિદ્ધિ માટે, શ્રી આચારાંગરૂપ સૂત્ર (દેરા)માં ભગવદુભાષિત–વિવિધ આચાર રૂપ મણિને માલારૂપમાં પરેવું છું. ભવ્ય મનુષ્ય તેને હમેશાં હૃદયમાં ધારણ કરે. જડદ્રવ્ય રૂપ ચિતામણિ હૃદય પર અર્થાત્ વક્ષસ્થળ ઉપર ધારણ કરાય છે. કિન્તુ આ આચારચિન્તામણિ (ટીકા) હૃદયમાં ધારણ કરવા છે. ૨. આ અઢી દ્વીપની અંદર, પંદર કર્મભૂમિરૂપી નન્દન–વનમાં સમ્યકત્વરૂપ ક્યારીમાં આત્મરૂપી કલમ્બ–કલમ (ડાળી), તીર્થકરગેત્ર બાંધવામાં કારણભૂત વસ સ્થાનની વારંવાર આરાધનારૂપી જલથી વૃદ્ધિ પામીને તીર્થકરરૂપ નૂતન–નવીન કલ્પવૃક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमत्रे तद्वचनेषु हि कल्पतरुकुममगतसौन्दर्यादिगुणाः समुपलभ्यन्ते । यथा (१)-सौन्दर्यम् , (२)-सुगन्धः, (३)-त्रिदोषनाशकत्वम् , (४)-सप्तधातुपौष्टिकत्वम् , (५)-त्वगोमवलकरत्वम् , (६)-हृदयालादकत्वम् , (७)-तापशमनत्वम् , (८) शोभाकारित्वम् , (९) उत्साहकत्वम् , (१०) स्फूर्तिकारकत्वम् , (११) वीर्यवर्द्धकत्वम् , (१२)-श्रमहारित्वम् , (१३)-मधुरत्वम् , (१४)-स्निग्धत्वम् , (१५)बहुदलत्वम् , (१६)-विपविनाशकत्वम् , (१७)-मकरन्दधारित्वम् , (१८)व्याधिनाशकत्वम् , (१९)-विकशनशीलत्वम् , (२०)-तृष्णानिवारकत्वम् , जैसे कल्प वृक्षों के फूलों में सौन्दर्य आदि गुण पाये जाते है उसी प्रकार तीर्थङ्करोंके वचनोंमें भी सौन्दर्य आदि सभी गुण पाये जाते है । दोनोमे समान रूपसे पाये जाने वाले गुण इस प्रकार है (१)-सौन्दर्य, (२)-सुगन्ध, (३)-त्रिदोषनाशकता, (४)-सप्तधातुपुष्टिकरता, (५) त्वक् रोम-बलकारित्व, (६) हृदयाह्लादकत्व, (७) तापशमनत्व, (८) शोभाकारित्व, (९)-उत्साहकता, (१०)-स्फूर्तिजनकता, (११)-वीर्यवर्धकता, (१२)-श्रमहारित्व, (१३)मधुरता, (१४)-स्निग्धता, (१५)-बहुदलता, (१६)-विषविनाशकता, (१७)-मकरन्द(पुष्परस) धारित्व, (१८)-व्याधिविनाशकता, (१९)-विकसनशीलता, (२०)-तृष्णा જેવી રીતે કલ્પવૃક્ષોના ફૂલેમાં સૌન્દર્ય આદિ ગુણે દેખાય છે, તે પ્રમાણે તીર્થકરેના વચનેમાં પણ સૌન્દર્ય આદિ તમામ ગુણ દેખાય છે. બન્નેમાં સમાન રૂપથી દેખાતા ગુણે આ પ્રકારના છે— (१)-सौन्हयः, (२)-सुगंध, (3)-त्रिदोषनाशपा, (४)-सात घातुनी पुष्ट ४२ना२, (५)-यामडी, 40-4100, ()-४यने मान॥२४, (७)-duपनुशमन ४२वापा, (८)-शा , (८)-Sत्साया', (१०)-भूतिना , (११)वापा , (१२)-श्रमनिवारपा, (१३)-मधुरता (१४)-स्निग्धता-थिzel पा, (१५)-मसता, (१६)-विषविनाशपा, (१७)-भ४२४-४०५२स-धा२४ता, (१८)-व्याधिविनाशता, (१८)-विसनशीस्ता, (२०)-तृनिवा२४ता, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा (२१) मूर्छाहारकत्वम्, (२२) पथ्यत्वम्, (२३) मेध्यत्वम्, (२४) उत्कृष्टभावोत्पादकत्वम्, (२५) अवयवसन्निवेशविशेषवत्वम् । तत्र सौन्दर्यादिकं यथा कल्पतरुक्कुरुसुमेषु भगवद्वचनेषु च विद्यते, तथा प्रदर्शयाम :सं. गुणाः १ सौन्दयम् २ सुगन्धः कल्पतरुकुसुमपक्षे भगवद्वचनपक्षे माधुर्यप्रसाद गुणवन्वम्, मनोहरा कृतिमच्चम्, घ्राणेन्द्रियतृप्तिजनकत्वम् । दिव्यध्वनिरूपत्वेन भगवद्वचनस्यार्यानार्यद्विपदचतुष्पदादीनां निवारकता, (२१) - मूर्छाहारित्व, (२२) - पध्यता, (२३) मेध्यता (२४) - उत्कृष्टभावो - त्पादकता, (२५) - अवयव सन्निवेशविशेषवत्त्व । ये पचीस गुण कल्प वृक्षके फूलों मे तथा भगवान् के वचनो में किस प्रकार समानरूप से पाये जाते है यह बतलाते है. सं. गुण (१) सौन्दर्य, (२) सुगन्ध, कल्पवृक्ष के फूलों के पक्ष में मनोहर आकृति वाला, घ्राणेन्द्रियको तृप्त करने वाला, (२१)-भूर्छानिवार४ता, (२२) -पथ्यता, (२३)-भेध्यता, उत्पा६४पाशु ं मने (२५)- अवयवसन्निवेशविशेषयागु. સ. ગુણ (१) सोन्दर्य, આ પચીસ ગુણે કલ્પવૃક્ષના કૂલામાં તથા ભગવાનના વચનેામાં કેવી રીતે સમાનપણે દેખાય છે તે ખતાવે છે— (२) सुगन्ध, भगवानके वचनों पक्षमें । माधुर्य और प्रसाद गुण वाला दिव्यध्वनिरूप होने के कारण आर्य, अनार्य, द्विपद, तथा (२४)- उत्कृष्ट लावोनुं કલ્પવૃક્ષના કુલાના પક્ષમાં મનહર આકૃતિવાળા, નાસિકાને તૃપ્ત કરનાર, ભગવાનના વનાનાપક્ષમાં મધુર અને માહક શબ્દ सौन्दर्य. દિવ્યધ્વનિરૂપ હાવાથી मार्य, अनार्य, ये यशवाजां તથા ચાર પગવાળાં Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गात्रे स्वस्वभाषापरिणतत्वेन तृप्ति जनकत्वम् । ३ त्रिदोषनाशकत्वम् , वात-पित्त-कफ नाश- मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वमोहनीय कत्वम् , दोपनाशकत्वम् । ४ सप्तधातुपौष्टिक- रसासृङ्-मांसमेदोऽस्थिम- द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक-नयात्वम् , ज्जाशुक्र-बर्द्धकत्वम् , भ्यां स्थादस्त्यादिसप्तभङ्गानां पुष्टिकरत्वम् । चतुप्पद आदि की अपनी २ भाषा में परिणत होजानेके कारण तृप्तिकारक । (३) त्रिढोपनागकत्व, वात पित्त और कफ इन तीन मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व दोषों को दूर करने वाला। मोहनीय इन तीन कर्मों को नष्ट करने वाला। (४) सप्तधातुपोष्टि- रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक और वीर्य, इन सात धातुओ नय की अपेक्षा कथंचित् को बढाने वाला। अनित्यता आदि सात भंगो का पोषक । જીને પિત પિતાની ભાષામાં પરિણત હોવાના કારણે तृप्तिा२६. (3) त्रिोषनाशय, पात, पित्त भने ४५, मात्र मिथ्यात्प, मिश्र अने. सभ्यદોને દુર કરવા વાળા કત્વ-મોહનીય, આ ત્રણને નાશ કરનાર (४) सातयातुने पुट, २स, २४ मांस, मेद, ४i व्यार्थि भने पर्यायाथि કરવાપણું મજા અને વીર્ય, આ સાત નયની અપેક્ષાએ કથંચિત, ધાતુને બલવાન કરનાર, નિત્યતા કથંચિત અનિત્યતા આદિ સાત ભંગોના પિષક कत्व, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ५ त्वग्रोमबलकरत्वम् , शारीरिकविकारहारक- आत्मवर्तिन आर्त्तरौद्रध्यानात्वम् स्मकविकारस्य निवारकत्वम्। दर्शनमात्रेण हृदयसुखजन- श्रवणमात्रेण सर्वेषां माणिनाकत्वम् ममन्दानन्दजनकत्वम् । ७ तापशमनत्वम् , शैत्यगुणवत्त्वेन तापहारक- शान्तरसवत्त्वेन कषायानलतापत्वम् , हारकत्वम् । ८ शोभाकारित्वम्, भूषणरूपेण द्युतिवर्द्धकत्वम् , मिथ्यात्वादिकालुण्यापहरणपू र्वकमात्मतेजःप्रकाशकत्वम् । (५) त्वग् रोमबलकरत्व, शरीरसंबंधी विकार दूर करने आत्मा के आर्तध्यान और वाला। रौद्रध्यानरूप विकारोका नाशक। (६) हृदयाह्लादकत्व, दृष्टि पडते ही हृदयको आनन्दित कानमे पडतेही प्राणिमात्र करने वाला। को अत्यन्त आनन्द देने वाला । (७) तापशमनत्व, शीतल होने से सन्ताप हरने शान्तरसमय होने के कारण वाला। कषायजनित सन्तापको नष्ट करने वाला। (८) शोभाकारित्व, आभूषणरूप होने के कारण मिथ्यात्व आदि की मलीनता शोभा बढाने वाला। दृर करके आत्माका तेज चमकाने वाला। (૫) ચામડી અને વાળને શરીરસંબંધી વિકાર દૂર આત્માના આર્તધ્યાન અને બળકારક રૌદ્ર ધ્યાનરૂપ વિકારેને નાશ ४२ना२. કરનાર (૬) હૃદયને આનંદકારી, દષ્ટિ પડતાં જ હૃદયને આનંદ આપનાર (૭) તાપનિવારણ કરનાર, શીતલ હેવાથી સંતાપ २नार, કાનમાં પડતાં જ પ્રાણી માત્રને અત્યંત આનંદ આપનાર શાક્તરસમય હોવાથી કષાયજનિત સંતાપનો નાશ ४२ना२. મિથ્યાત્વ આદિની મલિનતા દૂર કરીને આત્માના તેજને પ્રકાશિત કરનાર, (८) शोमारीपा, ઘરેણાંરૂપ હોવાથી શોભા વધારનાર Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे ९ उत्साहकत्वम् , उत्साहजनकत्वम्, प्रमादपञ्चकनिवारकत्वेन धर्मा राधने योगत्रयोत्तेजकत्वम् । १० स्फूर्तिकारकत्वम् , हर्षोत्पादकत्वेन स्वेष्टला- मोक्षाय पराक्रमस्फोटनत्वम् । भाय प्रवृत्तिजनकत्वम् , ११ वीर्यवर्द्धकत्वम् , सकलेन्द्रियशक्तिदायकत्वम् , तपःसंयमाभ्यामात्मबलोत्कर्ष कत्वम् । (९) उत्साहकत्व, (१०) स्फूर्तिकारकत्व, उत्साह उत्पन्न करने वाला। पांच प्रमादों का निवारण करके धर्म की आराधना में तीनो योगों को उत्तेजित करने वाला। हर्षजनक होने के कारण मोक्ष के लिये पराक्रम फोडने अपनी इष्ट सिद्धि के लिये प्रवृत्ति की प्रेरणा करने वाला । कराने वाला। सब इन्द्रियो को शक्ति देने तप, और संयम द्वारा आध्यावाला । स्मिक बल बढाने वाला। (११) वीर्यवर्धकत्व (૯) ઉત્સાહક પણું. ઉત્સાહ ઉત્પન્ન કરનાર પાંચ પ્રમાદનું નિવારણ કરીને ધર્મની આરાધનામાં ત્રણેય યોગોને ઉત્તેજન આપનાર. (૧૦) સ્કૃતિ ઉત્પન્ન ४२वापर હર્ષ ઉત્પન્ન કરનાર હોવાથી મોક્ષ માટે પરાક્રમ કરવાની પિતાની ઈચ્છાનુસાર સિદ્ધિ પ્રેરણા કરનાર માટે પ્રવૃત્તિ કરાવનાર તમામ ઈન્દ્રિયને શક્તિ તપ અને સયમ દ્વારા આધ્યા ત્મિક બળ વધારનાર, (૧૧) વીર્યવર્ધકપણું. આપનાર Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा १२ श्रमहारित्वम् , सौगन्ध्यादिविविधगुणोत्क- चतुर्गतिपरिभ्रमणेन श्रान्तानां र्षेण तत्तदिन्द्रियाणां शैथि- भवभ्रमणोपरमेण खेदात्यन्तिक ल्यनिवारकत्वम् , विध्वंसकत्वम् । १३ मधुरत्वम् , मधुररसवत्त्वम् , अपूर्वाक्षयशिवसुखानुभवात्मक रसत्वम् । १४ स्निग्धत्वम् , सुखदस्पर्शकत्वम् , श्रवणमात्रेणाऽऽत्मनः प्रतिप्रदेश धर्मानुरागजनकत्वम् । (१२) श्रमहारित्व, सुगन्ध आदि अनेक गुणो की अधिकता होनेसे उससे इन्द्रियों की शिथिलता दूर करने वाला। चार गतियो में भ्रमण करके थके हुए प्राणियो का भवभ्रमण मिटाकर उनके खेदको सर्वथा नाश करने वाला। ___ (१३) मधुरत्व, मधुर रस वाला। (१४) स्निग्धत्व चिकनापन । अपूर्व अविनाशी मोक्षसुखकीअनुभूति रस वाला। कान में पडते ही आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में धर्मानुराग जगाने वाला। (૧૨) શ્રમનિવારણ કરવાપણું. (१3) मधु२५ સુગંધ આદિ અનેક ગુણોની ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરીને વિશેષતા હોવાથી તે તે થાકી ગયેલા જીવોના ભવ ઈદ્રિયોની શિથિલતા દૂર ભ્રમણને નિવારણ કરીને તેના કરનાર ખેદને સર્વથા નાશ કરનાર મધુર રસવાળા, અપૂર્વ, અવિનાશી મોક્ષ સુખના અનુભવ રૂપ રસવાળા ચિકણાપણું. કાનમાં પડતાં જ આત્માના हरे-हरे प्रदेशमा धर्मानुરાગ જગાડનાર (१४) स्निग्धत. प्र. आ.-२ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे स्वपर समय स्वरूपप्रदर्श बहुविधप्रमाणनयनिक्षेपादिवत्त्वम् । १६ विषविनाशकत्वम्, स्थावरजङ्गमविपद्दारकत्वम्, विषयवासनाऽपहारकत्वम् । १७ मकरन्दधारित्वम्, परागवत्वम्, १० १५ बहुदलत्वम्, (१५) बहुदलत्व, (१६) विषविनाशकत्व. (१७) मकरन्दधारित्व, (१५) मुहुहणता, (१६) विषनाशणु. शतपत्रसहस्रपत्रादिरूपेणाऽधिकपत्रवत्त्वम्, अनित्यादिभावनाजनितवैरा ग्यवत्त्वम् । (१) शतपत्र, सहस्रपत्र आदि रूपसे स्वसमय और परसमय के बहुत पत्तोवाला । स्वरूपका प्रकाशक होने के कारण भांति-भांति के प्रमाण, नय, निक्षेप, आदि से युक्त | स्थावर और जगम विष का नाश विपय वासनारूप विषका नाश करने वाला । करने वाला । पुष्परसवाला । સેા પુત્ર, હજાર પુત્ર આદિ રૂપથી ઘણાં પત્રો ( પાંદડા ) વાળા (१७) भ४२न्द्र-धारित्व. हुसोना रस वाजा. अनित्य आदि बारह भावनाओं से उत्पन्न वैराग्यजनित शान्त रस वाला । સ્થાવર અને જંગમ વિષને વિષયવાસનારૂપ વિષના–ઝેરને નાશ કરનાર નાશ કરનાર. १.... वैराग्यवत्त्वम् - प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावसम्बन्धेन । સ્વસમય અને પરસમયના સ્વરૂપના પ્રકાશક હાવાના કારણે જાદી જોદી જાતના प्रभाणु, नय, निक्षेप माहिथी युक्त. અનિત્ય આદિ માર ભાવનાએથી ઉત્પન્ન વૈરાગ્યજનિત શાંતરસ પ્રગટાવનાર. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा १८ व्याधिनाशकत्वम्, क्षतक्षयादिसकलातङ्कनिवा- सर्वघातिप्रभृतिसकलकर्मनाशकरकत्वम् , त्वम् । १९ विकसनशीलत्वम्, मुकुलितपत्रस्फुटन स्वभाव- अनन्तकालप्रसुप्तात्मगुणविकात्वम् , सित्वम् । २० तृष्णानिवारकत्वम् , अभिलापापहारकत्वम् , विषयाभिलापनिवर्तकत्वम् । २१ मूर्छाहारकत्वम् , नष्टचेष्टानिवारकत्वम् , मोहविनाशकत्वम् । (१८) व्याधिनाशकत्व, भय आदि समस्त व्याधियोको सर्वघाति आदि समस्त कर्मोंका हटानेवाला । नाश करने वाला। (१९) विकसनशीलत्व, क्रमशः विकसित होता जानेवाला। अनादिकालसे सोये पडे आत्मा के गुणोंका विकास करनेवाला। (२०) तृष्णानिवारकत्व, लालसा हटानेवाला । विषयों की अभिलाषा दूर करने वाला। (२१) मूर्छाहारकत्व, मूर्छा (बेहोशी) मिटाने वाला। मोह का नाशक । प . (૧૮) વ્યાધિ વિનાશક- ભય આદિતમામ વ્યાધિઓને સર્વઘાતિ પ્રકૃતિ આદિ નિવારણ કરનાર, તમામ કર્મોને નાશ કરનાર, (૧) વિકાસવાપણું ક્રમશઃ વિકાસ પામવાવાળા. અનાદિ કાલથી સુતા પહેલા આત્માના ગુણને વિકાસ ४२ना२. (२०) तृनिवा२४ा. दासस्य २ ४२ना२. વિષયેની અભિલાષા દૂર ४२ना२. (૨૧) મૂછનિવારકપણું. બેભાનપણું મટાડનાર મેહ નાશ કરનાર, Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसत्रे २२ पथ्यत्वम् हितकरत्वम् , ऐहिकपारत्रिकसुखोत्पादकत्वे नात्मनो नितान्तोपकारित्वम् । २३ मेध्यत्वम् , पवित्रत्वम् , मिथ्यात्वमलाभावेल नैर्मल्यम् । २४ उत्कृष्टभावोत्या. दैन्यशोकादिजनितदुश्चिन्त- विभावपरिणामजन्यदुर्वासनापदकत्वम् नापनयेन विशुद्धविचारा- नयनेन तीर्थङ्करगोत्रोपार्जन ऽऽविष्कारकत्वम् । योग्यविशिष्टभावनाजनकत्वम् । (२२) पथ्यत्व, हितकर । इहलोक और परलोक सम्बन्धी सुखजनक होनेसे आत्मा का अत्यन्त उपकारी। (२३) मेध्यत्व, पवित्रता वाला। मिथ्यात्वादि पांच आस्त्रव रूपी मल से रहित होने के कारण निर्मल । (२४) उत्कृष्टभावोत्पा- देन्यशोक आदि से उत्पन्न विभाव परिणति द्वारा जनित दकत्व, हुई चिन्ता को दूर करके दुर्वासना को दूर करके तीर्थङ्कर विशुद्ध विचार उत्पन्न गोत्र बांधने के योग्य विशिष्ट करने वाला। भावनाको उत्पन्न करने वाला। (२२) ५थ्यता. હિતકર. આ લોક અને પરલેક સંબંધી સુખ ઉત્પન્ન કરનાર હોવાથી આત્માને અત્યન્ત ઉપકારી. (२३) मेध्यता. પવિત્રતા કરનાર. મિથ્યાત્વ આદિ પાંચ આશ્રવ રૂપી મળથી રહિત રહેવાના કારણે નિર્મલ. (૨૮) ઉશ્કટ ભાવે ઉત્પન્ન. દૈન્યશેક આદિથી ઉત્પન્ન વિભાવપરિણતિ દ્વારા ઉત્પન્ન કરવાપણું. થનાર ચિંતાને દૂર કરીને થયેલી દુર્વાસનાને દૂર કરીને વિશુદ્ધ વિચાર ઉત્પન્ન કરનાર તીર્થ કર નેત્ર બાંધવા ગ્ય વિશિષ્ટ ભાવના ઉત્પન્ન ४२नार. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा २५ अवयवसंनिवेश- सकलावयवपूर्णत्वम्, विशेषवत्त्वम् सकलाङ्गोपाङ्गपूर्णत्वम् । (२५) अवयवसन्निवेश- सब अवयवों से परिपूर्ण । विशेपवत्त्व. १३ तीर्थङ्करकल्पपादपानां वचनप्रसूनानि गणधराः श्रद्धामुत्रे संग्रन्थ्य गद्यपद्यात्मक विविधाङ्गोपाङ्गरूपा माला व्यरीरचन् । अथ ता माला हृदये निधाय तत्तगत स्वात्मनि भावयन्तो भावितात्मानः सन्तो ज्ञानक्रियाभ्यां कर्मरजोऽपनीय बाधापीडाsपवर्जितमपुनरावृत्ति सिद्धिगतिनामधेयं शिवपदं समाश्रयन्ति, भवभीरून भव्यानपि तत्पदं प्रापयन्ति । सब अड्डों और उपागोसे युक्त | तीर्थङ्कररूपी कल्पवृक्षों के वचनरूपी पुष्पों को गणधरोंने श्रद्धारूपी सूतमें गूंथकर गद्यपद्यरूप विविध अगउपाङ्गमय मालाऍ रचीं, उन मालाओ को धारण करके उनकी महत्ता का अन्तःकरण में विचार करते हुए भावितात्मा पुरुष ज्ञान और क्रिया के द्वारा कर्मरजको हटाते हैं । तथा सब प्रकार की बाधा और पीडासे रहित, जिहे पाकर फिर कभी आना नहीं पडता, ऐसे सिद्धिगतिरूप शिवपद प्राप्त करते हैं, साथ ही भवभीरु अन्य भव्य जीवों को भी उसी पद की प्राप्ति कराते है । (૨૫) અવયવસન્નિવેશનુ સર્વ અવયવાથી પરિપૂર્ણ સ અગા અને ઉપાંગથીયુક્ત વિશેષપણુ તીર્થં કરરૂપી કલ્પવૃક્ષોના વચનરૂપ પુષ્પાને, ગણુધરાએ શ્રદ્ધારૂપી સૂતર-દોરામાં ગુથી કરી ગદ્ય-પદ્યરૂપ વિવિધ અગ-ઉપાંગમય માળાએ રચી તે માળાએને હૃદયમાં ધારણ કરીને, તેની મહત્તાનેા અંતઃકરણમાં વિચાર કરનાર ભાવિતાત્મા પુરૂષજ્ઞાન અને ક્રિયા દ્વારા કરજકણને દૂર કરે છે. તથા સર્વ પ્રકારની ઉપાધિ અને પીડાથી રહિત, જેને પ્રાપ્ત કરીને ફરીથી કેાઈ વખત આવવુ પડતુ નથી. એવી સિદ્ધિગતિરૂપ શિવપુત્તુને પ્રાપ્ત કરે છે, તેમજ ભવભીરૂ અન્ય ભવ્ય જીવાને પણ તે પદ ( શિવપદ )ની પ્રાપ્તિ उरावे छे. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे कल्पपादपा हि ऐहिकमेवाध्रुव क्षणभङ्गरं सुखं प्रदातुमीशते, इमे तु लोकोत्तरमक्षयं शाश्वतं सुखं वितरन्ति । लौकिकसुखं तु सुतरां सिद्धमेव, न पुनस्तत्र मदानापेक्षेति भावः । १४ भगवद्वचनेषु पञ्चत्रिंशद् अतिशया लोकोत्तराः सर्वैरनुभूयन्ते, पञ्चत्रिंशतोऽतिशयानां समवायाङ्गसूत्रे निर्देशात् । तथा च सूत्रम् - " पणतीसं सच्चवयणाइसेसा पनत्ता" इति । पञ्चत्रिंशत् सत्यवचनातिशेषाः प्रज्ञप्ताः, इति च्छाया । सत्यवचनं - भगवद्ववचनं सकलहितकरत्वात् तस्य अतिशेषाः = अतिशयाः पञ्चत्रिंशत् प्रज्ञप्ताः कथिताः इत्यर्थः । तत्रैते पञ्चत्रिंशदविशयाः - परंपरयाऽवगम्यन्ते , " कल्पवृक्ष तो इसी लोकसम्बन्वी सुख दे सकते है और वह सुख भी अध्रुव और क्षणभङ्गुर होता है, किन्तु तीर्थकर भगवान् लोकोत्तर अक्षय और शाश्वत सुख प्रदान करते है । लौकिक सुख तो किसान के लिये भूसे के समान स्वतः सिद्ध है ही वह आनुषङ्गिक है । भगवान् के वचनों में पैतीस लोकोत्तर अतिशयों का सभी प्राणियो को अनुभव होता है | श्री समवायाद्ङ्गसूत्र में पैतीस अतिशयों का उल्लेख पाया जाता है । मूल पाठ इस प्रकार है - " पणतीसं सच्चत्रयणाइसेसा पण्णत्ता ।" अर्थात् सत्य वचन के पैंतीस अतिशय - गुण कहे गये हैं । પવૃક્ષ તે આ લોક સબંધી સુખ આપી શકે છે અને તે સુખ પણ અધ્રુવ અને ક્ષણભંગુર હોય છે, પરન્તુ તી કર ભગવાન લેાકેાત્તર અક્ષય અને શાશ્વત–નિત્ય સુખ આપેછે, લૌકિક સુખ તે ખેડુત માટે ભુશકા ( અનાજ વિનાનાં ‡ાંતરાં ) સમાન સ્વાભાવિક સિદ્ધજ છે. ભગવાનના વચનામાં પાંત્રીશ લેાકેાત્તર અતિશયાના સર્વ પ્રાણીઓને અનુભવ થાય છે, શ્રી સમવાયાંગ સૂત્રમા એ પાંત્રીશ અતિશયાના ઉલ્લેખ જોવામાં આવે છે. भूल पाया अहारे छे - " पणतीस सच्चवयणाइसेसा पण्णत्ता " અર્થાત્—સત્ય વચનના પાંત્રીશ અતિશય ગુણુ કહેવામાં આવ્યા છે. અહિં સત્યવચનના અર્થ છે–ભગવાનના વચન, કેમકે તે સર્વ હિત કરનારા છે. તે વચનાને અતિશય અર્થાત્ ગુણુ પાંત્રીશ છે. પરંપરાના નિયમ પ્રમાણે પાંત્રીશ અતિશય આ પ્રમાણે માનવામાં આવ્યા છે— Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा (१) संस्कारवत्त्वम् = प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गवचनादियुक्तत्वम् । (२) उदात्तत्वम् = श्रोतृसुवेद्यत्वम् (३) उपचारोपेतत्वम् = अप्राज्ञजनभाषावदश्लीलादि दोषरहितत्वम् । (४) गम्भीरध्वनित्वम् = मेघवद् गम्भीरनादवत्त्वम् । (५) । अनुनादित्वम् = प्रतिशब्दोपेतत्वम् । (६) दक्षिणत्वम् = ऋजुत्वम् । (७) उपनीतरागत्वम् = मालकोशरागगुणवत्त्वम् , यथा मालकोशरागः प्रस्तरानपि द्रावयति, तथा कठिनचेतसोऽपि जनान् भगवद्वचनं द्रावयतीति हृदयद्रावकत्वमिति भावः । (८) महार्थत्वम् = मोक्षमार्ग यहा सत्य वचन का अर्थ है—भगवान के बचन, क्योंकि वे सबके हित करने वाले है । उन वचनों के-वाणीके अतिशय अर्थात् गुण पैतीस हैं । परम्परा के अनुसार वाणीके पैंतीस गुण इस प्रकार माने जाते हैं (१) संस्कारवत्त्व-प्रकृति, प्रत्यय, लिङ्ग, वचन आदि से युक्त होना (२) उदात्तता-श्रोताओ के लिये सुगम । (३) उपचारोपेतता-गँवारो की भाषा में पाये जाने वाले अश्लीलता आदि दोषो से रहित । (४) गंभीरध्वनित्व-मेघकी समान गम्भीर नाद होना । (५) अनुनादित्व-प्रतिध्वनिसे युक्त होना । (६) दक्षिणता-सरलता। (७) उपनीतरागवत्त्व-मालकोश राग सरीखा गुण होना, अर्थात् जैसे- मालकोश राग पाषाण को भी पिघला देता है, उसी प्रकार भगवान् के वचन कठोर हृदय को भी पिघला देते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान के वचन बडे ही हृदयद्रावक होते हैं। (८) महार्थता-भगवान् के बचन मोक्ष-मार्ग के प्रतिपादक होने से महत्वपूर्ण और अर्थ (१) २२४२१त्व-कृति, प्रत्यय, लिंग, वयन पाहिथीयुत मन. (२) हात्तताश्रोतामा भाटे सुगम. (3) ७५यारोपेतता-भूर्म-neी माणुसोनी भाषामा लेवामा આવતા અસલીલ-ખરાબ, શરમ આવે તેવા ભાષાના દોષ રહિત. (૪) ગંભીરધ્વનિત્વમેઘના २वाली२ २५४. (५) मनुनाहित्य-प्रतिध्वनियुतडा (५७॥३५ ). (६) इक्षिताસરલતા (૭) ઉપનીતરાગ––માલકોશ રાગ જે ગુણ હોવુ. અર્થાતુ-જેવી રીતે માલકોશ રાગ પથ્થરને પણ પિગળાવી દે છે. તે પ્રમાણે ભગવાનના વચને કઠેર હદયવાળા માણસને પણ પિગલાવી દે છે, તાત્પર્ય એ છે કે–ભગવાનના વચન મહાન હદય દ્રાવક હોય છે. (૮) મહાWતા—ભગવાનના વચન મોક્ષમાર્ગનું પ્રતિપાદન કરનારા છે તેથી મહત્વપૂર્ણ અને અર્થથી યુક્ત હોય છે. (૯) અવ્યાહતપૌર્વાપર્ય—પૂર્વાપર Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ आचाराङ्गसूत्रे प्रतिपादकत्वेन महत्वविशिष्टार्थकत्वम् (९) अव्याहतपौर्वापर्यत्वम् | = पूर्वापरविरोधराहित्यम् । (१०) शिष्टत्वम् = शिष्टाभिमततत्त्वबोधकत्वम् । (११) असंदिग्धत्वम् = अभिधेयार्थानां स्फुटतया प्रतिपादनेन संशयाजनकत्वम् । ( १२ ) अपहृतान्योत्तरस्त्रम् = सकलगुणपूर्णत्वेन परकृतदोषान्वेपणाऽविपयत्वम् । (१३) । हृदयग्राहित्वम् = सर्वेषां प्राणिनां श्रवणमात्रेण हृदयहारित्वम् । (१४) देशकालाव्यतीतत्वम् = द्रव्यक्षेत्रकालभावानुकूलत्वम् । (१५) तत्वानुरूपत्वम् विवक्षितचस्तुद्रव्यपर्यायस्वरूपप्रकाशकत्वम् । (१६) अप्रकीर्णप्रसृतत्वम् = प्रसङ्ग विनापदानामर्थानां वा । न विस्तीर्णत्वं नातिसंक्षिप्तत्यम् (१७) अन्योन्यप्रगृहीतत्वम् = संयुक्त होते हैं । (९) अव्याहत पौर्वापर्य - पूर्वापर विरोध से रहित होते हैं । (१०) शिष्टता-गिष्ट पुरुषो द्वारा स्वीकृत तत्व का बोध कराते हैं । (११) असंदिग्धता -अभिधेय अर्थ का स्पष्ट रूप से प्रतिपादन करने के कारण संगयजनक नहीं होते । (१२) अपहृतान्योत्तरत्व - समस्त गुणों से युक्त होने के कारण दूसरे बाढी उनमें कोई दोष नहीं निकाल सकते । (१३) हृदयग्राहित्व - समस्त श्रोतागणों के हृदय को हरण करने वाले । (१४) देशकालाव्यतीतत्व – द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुकूल । (१५) तत्त्वानुरूपत्व - विवक्षित वस्तुके द्रव्य और यय का स्वरूप प्रकाशित करने वाले (१६) अप्रकीर्णप्रमृतत्व--' વિરાધથી રહિત હોય છે. (૧૦) શિષ્ટ પુરૂષો દ્વારા સ્વીકારેલા તત્ત્વના આધ કરાવે છે (૧૧) અસંદિગ્ધતા—અભિધેય-વાકચાતુ સ્પષ્ટ રૂપથી પ્રતિપાદન કરવાના કારણે સંશય ઉત્પન્ન થતા નથી (૧૨) અપહતાન્યાન્તરત્ન- સમસ્ત ગુણોથી યુક્ત હેાવાથી ખીજા પક્ષના વાદી તેમા કોઈ પણ પ્રકરના દોષ કહી શકતા નથી. (૧૩) હૃદયગ્રાહિ–તમામ શ્રોતાવર્ગના હૃદયને હણ્ કવાવાળા (૧૪) દેશક લાવ્યતીત્વ——દ્રશ્ય, ક્ષેત્ર કાલ અને ભાવને અનુકૂળ, (૧૫) તત્ત્વાનુરૂ પત્ન—વિત્રક્ષિત -વસ્તુ એટલે બેલવા માટે મનમાં નક્કી કરેલુ, તેના દ્રવ્ય અને પર્યાયના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાવાળા, (૧૬) અપ્રકીર્ણ-પ્રતન્ત્ર પ્રશ્નગ વિના વિસ્તાર સહિત નહિ કહેવુ, તથા સંક્ષેપમાં નહિં કહેવુ. (૧૭) અન્યોન્ય સગૃહીનવ-પૂર્વાપર પાની અને અર્થાની અપેક્ષા રાખવા વાળા, અર્થાત્ પ્રકરણ સમત Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पूर्वापरसापेक्षत्वम् । (१८)-अभिजातत्वम् = सूक्ष्मस्यापि जीवादिस्वरूपस्य चाक्षुषप्रत्यक्षीकरणवत्पतिपादकत्वम् । (१९)-अतिस्निग्धमधुरत्वम्-अमृतवत्तृप्तिजनकत्वम् । (२०)-अपरमर्मवेधित्वम् = परमर्मोद्धाटनरहितत्वम् । (२१)-अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वम् पारमार्थिकार्थधर्मबोधकत्वम् (२२)-उदारत्वम्-सर्वप्राणिकल्याणकारित्वं, तुच्छार्थानभिधायकत्वं वा । (२३)-परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वम् = परोत्क्षेपात्मप्रशंसाहीनत्वम् (२४)-उपगतश्लाघत्वम् = सकलहितकरत्वेन समादतत्वम् (२५) प्रसग के विना न कहना, न विस्तारयुक्त और न संक्षिप्त कहना, (१७) अन्योन्यप्रगृहीतत्व पूर्वापर पदों की और अर्थ की अपेक्षा रखनेवाले, अर्थात् प्रकरणसङ्गत, (१८) अभिजातता - जीव आदि के अत्यन्त सूक्ष्मस्वरूपको भी इतना स्पष्ट निरूपण करने वाले जैसे कि आंखों से देख रहे हों, (१९) अतिस्निग्धमधुरता – अमृत के समान तृप्तिकारक, (२०) अपरमर्मवेधित्व -- दूसरों के मर्म को न प्रगट करने वाले, अथवा प्रतिपक्षियों के मर्म ( हेतुओं एवं युक्तिओं ) का निराकरण करने वाले, (२१) अर्थधर्माभ्यासानपेतता ~ परमार्थ अर्थात् मोक्ष तथा मोक्ष के साधनरूप धर्म का बोध कराने वाले, (२२) उदारता - प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले अथवा तुच्छ अर्थों का प्रतिपादन न करने वाले, (२३) परनिन्दाऽऽत्मोत्कर्षविप्रमुक्तता - परनिंदा और आत्मप्रशंसा रहित, (२४) उपगतश्लाघत्व - सर्वहितकारी होने के कारण सभी - (૧૮) અભિજાતતા–જીવ આદિ તના અત્યન્ત સૂક્ષ્મ સ્વરૂપનું પણ એટલું સ્પષ્ટ નિરૂપણ કરવાવાળા જેમકે નેત્રથી જોઈ રહ્યા હોય. (૧૯) અતિસ્નિગ્ધ મધુરતા–અમૃત સમાન તૃપ્તિ કરવા વાળા. (૨૦) અપરમધિત્વ—બીજાના મર્મને પ્રગટ નહિ કરવા વાળા, અથવા પ્રતિપક્ષીઓના મર્મ (હેતુઓ-યુક્તિઓ) નું નિરાકરણ-કરવા વાળા. (૨૧) અર્થ ધર્માભ્યાસાનપતતા–પરમાર્થ—અર્થાત્ મોક્ષ તથા મેક્ષના સાધનરૂપ ધર્મને બેધ કરવાવાળા. (૨૨) ઉદારતા–પ્રાણીમાત્રનું કલ્યાણ કરવા કરાવાવાળા, અથવા તુચ્છ અર્થોનું પ્રતિપાદન નહિ કરવા વાળા (૨૩) પરનિન્દાડમેત્કર્ષવિપ્રમુક્તતા–પર નિન્દા અને આત્મપ્રશંસાથી રહિત (૨૪) ઉપગતશ્લાઘ––સર્વહિતકારી હોવાને प्र. आ.-३ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे अनपनीतत्वम् = श्रुतिकटुत्वादिवचनदोषापेतत्वम् (२६) - उत्पादिताच्छिन्नकौतू'हेलत्वम् = नवनवार्थप्रतिपादकत्वेन पुनः पुनः श्रवणाभिलापजनकत्वम् । (२७)अद्भुतत्वम् = शीघ्रतारहितत्वम् । ( २८ ) - अनतिविलम्बितत्वम् = वाक्यापरिसमाप्तौ विश्रामरहितत्वम् । (२९)- विभ्रमविक्षेपरोषा वेशादिराहित्यम् = विभ्रमो = भ्रान्तिः, विक्षेपः=विवक्षितार्थं प्रत्यनासक्तता, रोपावेशः = क्रोधावेगस्तैर्विमुक्तत्वम् । (३०)विचित्रत्वम् = वर्णनीयवस्तुस्वरूपप्रकाशनेन लोकोत्तरत्वम् । ( ३१ ) - आहितविशेषत्वम् =द्रव्य-पर्याय-विशेषप्रतिपादकत्वम् । (३२) - साकारत्वम् = हेतुकारणादिमिः स्फुटतया १८ के लिये उपादेय, (२५) अनपनीतत्व - कर्णकटुकता आदि दोषों से रहित, (२६) उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्व - नूतन नूतन अर्थ का निरूपण करने के कारण वार वार सुनने की अभिलाषा उत्पन्न करनेवाले, अर्थात् - भगवानके वचनोको वार वार सुनने की इच्छा होती है । (२७) अद्भुतत्व - शीघ्रता से रहित, (२८) अनतिविलम्बितत्व - बहुत विलम्ब से उच्चारण न किये जाने वाले, अर्थात् वाक्य समाप्त होने से पहले विश्राम लिए विना ही बोले जाने वाले । (२९) विभ्रम - विक्षेप - रोषाssवेशादिराहित्य, विभ्रम अर्थात् भ्रान्ति, विक्षेप अर्थात् प्रतिपाद्य वस्तु के प्रति असावधानी, रोष अर्थात् क्रोध के आवेश से रहित, (३०) विचित्रता वर्णन की जाने वाली वस्तु का स्वरूप प्रकाशित करने के कारण लोकोत्तर, (३१) आहितविशेषता - द्रव्य और पर्याय की विशेषता का प्रतिपादन करने वाले, કારણે સર્વને માટે ઉપાદેય-ગ્રહણ કરવા ચેાગ્ય. (૨૫) અનપનીતત્વ—કાનને અપ્રિય લાગે એવા દોધેાથી રહિત. (૨૬) ઉત્પાદિતાચ્છિન્નકૌતૂહલત્વ—નવા-નવા અર્થનું નિરૂપણું કરવાના કારણે વારંવાર સાંભળવાની અભિલાષા ઉત્પન્ન કરવાવાળા, અર્થાત્ ભગવાનના વચનેને વારંવાર સાંભળવા અભિલાષા-ઇચ્છા થાય છે, (૨૭) અદ્ભુત~~શીવ્રતાથી રહિત (२८) मनतिविसभ्णितत्व - पाहुन विद्याथी उभ्यारण नहि श्वावाणा, अर्थात् वाय सभाप्त थया पडेसां विश्राम सीधा विनान्न मोसवावाजा (२८) विभ्रभ - विक्षेय- शेषावेशाहिरहितत्व-विभ्रम अर्थात् भ्रांति, विक्षेप-अर्थात् पतिपाद्य वस्तु तर गलत, રાષ–અર્થાત્ ધના આવેશથી રહિત (૩૦) વિચિત્રતા–વર્ણન કરવા ચેાગ્ય વસ્તુના સ્વરૂપને પ્રકાશિત કરવાના કારણે લેકેત્તર (૩૧) આહિતવિશેષતા દ્રવ્ય અને પર્યાયની Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां प्रकाशनेनार्थानां साक्षात्कारजनकत्वम् । (३३)-सत्त्वपरिगृहीतत्वम् उत्पादव्ययघ्रौव्ययुक्तसत्तयाऽर्थप्रकाशकत्वम् । (३४)-अपरिखेदितत्वम् = स्वपरखेदानुत्पादकत्वम् । (३५)-अव्युच्छेदित्यम् = वर्णनीयपदार्थनिर्णयं यावदविच्छिन्नत्वम् । ' वृद्धसप्रदायविद्भिरप्युक्तम् (१)-सकारवत्तं, (२)-उदत्तत्तं, (३)-उवयारोवेयत्तं (४)-गंभीरभुणित्तं, (५)-अणुणादित्तं, (६)-दक्षिणतं, (७)-उवणीयरागत्तं, (८)-महत्थत्त, (९)अव्वाहयपुव्वावज्जत्तं, (१०)-सिट्टत्त, (११)-असंदिद्धत्तं, (१२)-अवहरियअन्नुत्तरत्तं, (१३)-हिययग्गाहित्तं, (१४)-देसकालअव्वईयत्तं, (१५)-तत्ताणुरूवत्तं, (१६)अण्णपइण्णसरियत्त, (१७)-अन्नुन्नप्पग्गहीयत्तं, (१८)-अहिजायत्तं, (१९)-अइणिद्धमहुरत्तं, (२०)-अवरमम्मवेहित्त, (२१)-अत्थधम्मभासाणवेयत्त, (२२)-उयारत, (२३)-परनिंदाअप्पुक्करिसविप्पजुत्तत्तं, (२४)-उवगयसिलाघत्तं, (२५)-अणवणीयत्तं, (२६)-उप्पाइयच्छिन्नकोउहलत्तं, (२७)-अदुयत्तं, (२८)-अणइविलंवियत्त, (२९)विन्भमविक्खेवरोसावेसाइराहिचं, (३०)-विचित्तत्तं, (३१)-आहियविसेसत्त, (३२)सागारत्तं, (३३)-सत्तपरिग्गहीयत्तं, (३४)-अपरिखेइयत्तं, (३५)-अव्वुच्छेइत्तं । (३२) साकारता-हेतु कारण आदि के द्वारा स्पष्ट रूप से प्रकाशित करके पदार्थों का साक्षात्कार कराने वाले, (३३) सत्त्वपरिगृहीतत्व - उत्पाद व्यय और ध्रौव्यमय सत्ता के रूपमें अर्थ के प्रकाशक (३४) अपरिखेदितत्व - स्व को और पर को खेद न पहुंचाने वाले, (३५) अव्युच्छेदित्व – प्रतिपाद्य विषय का निर्णय हुए' विना न रुकने वाले, अर्थात् विवक्षित वस्तु का पूर्ण निर्णय करने वाले । વિશેષતાનું પતિપાદન કરવા વાળા (૩૨) સાકારતા–હેતુ, કારણ આદિ વડે સ્પષ્ટ રૂપથી પ્રકાશિત કરીને પદાર્થોને સાક્ષાત્કાર કરાવવા વાળા. (૩૩) સર્વોપરિગ્રહીતત્વઉત્પાદ, વ્યય, અને ધૌવ્ય-મય સત્તાના રૂપમાં અર્થના પ્રકાશક (૩૪) અપરખેદિતત્વ પિતાને અને પારકાને ખેદ નહિ પહોંચાડનાર (૩૫) અવ્યુચ્છેદિવ–પ્રતિપાદ્ય વિષયને નિર્ણય થયા વિના નહિ અટકનારા, અર્થાત્ વિવક્ષિત વસ્તુને પૂર્ણ નિર્ણય કરવા વાળા, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे भगवद्वचनानि चतुर्विधेऽनुयोगे प्रविभक्तानि स चेत्थम्(१)—चरणकरणानुयोगः, (२) - धर्मकथानुयोगः, (३) - गणितानुयोग:, (४) - द्रव्यानुयोगच । ३० युज्यते = संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योगः = गणधरकथनरूपः, अनु = अनुकूलो योगोऽनुयोगः । भगवद्वचनानुरूपा गणधरोक्तिरित्यर्थः । (१) (१) अथ चरणकरणानुयोगः (१) चर्यते = गम्यते प्राप्यते भवोदधेः परं कूलं चतुर्दशगुणस्थानाभगवान् के वचनों में ये पैंतीस अतिशय अर्थात् गुण होते हैं । प्राचीन आचार्यों ने भी कहा है – 'सक्कारवत्तं ' इत्यादि ३५ । ( वाणी के पैंतीस गुण पहले कह चुके हैं अतः यहाँ इनका अर्थ कहने की आवश्यकता नहीं । = भगवान् के वचन चार अनुयोगों में विभक्त हैं । चार अनुयोग ये है : १ चरणकरणानुयोग, २ धर्मकथानुयोग, ३ गणितानुयोग, और ४ द्रव्यानुयोग । भगवानके वचनों के अनुकूल गणधरों का व्याख्यान अनुयोग कहलाता है । (१) चरणकरणानुयोग - जिसके द्वारा भव-सागर का किनारा अर्थात् चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त किया जाय ભગવાનના વચનામાં આ પ્રમાણે પાંત્રીશ અતિશય અર્થાત્ ગુણ હોય છે. પ્રાચીન मायायेथे यशु ह्युं छे :- “ सक्कारवत्तं" इत्यादि उप. ( यांत्रीश वाशीना गुगु पडेसा કઢી ગયા છીએ જેથી અહિં એના અથ કહેવાની આવશ્યકતા નથી.) ભગવાનના વચન ચાર અનુયાગામાં વહેંચાયેલા છે. ચાર અનુયાગ આ છે— (१) यरशुरामानुयोग. (२) धर्मस्यानुयोग, ( 3 ) गणितानुयोग भने (४) द्रव्यानुयोग. ભગવાન-દ્વારા પ્રરૂપિત અર્થની સાથે ગણધરાના વચનના ચાગ હોય તે અનુયાગ કહેવાય છે, તાત્પર્ય એ છે કે:—ભગવાનના વચનને અનુકૂળ ગણુધરાએ કરેલ વ્યાખ્યાન તે અનુયાગ કહેવાય છે. (१) यरशुरणानुयोग - તેને જેનાથી ભવસાગરના કિનારા અર્થાત્ ચૌદમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરી શકાય, અર્થાત્ મૂલગુણુને ‘ચરણ” કહે છે, અથવા વ્રત આદિ ચરણ કહેવાય છે. તે સિત્તેર ( ७० ) छे. उधुं पशु छे- Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां वस्थास्वरूपमनेनेति चरण = मूलगुणरूपम् । यद्वा चरण-व्रतादि, तच्च सप्ततिसंख्यकम् , उक्तञ्च " वय५ समणधम्म१० संजम१७, वेयावच्चं१० च बंभगुत्तीओ ९। णाणाइतियं३ तव१२ कोहनिग्गहाई४ चरणमेयं ॥ १॥” इति । क्रियते चरणस्य पुष्टिरनेनेति करणम् = उत्तरगुणरूपम् । यद्वा करणंपिण्डविशुद्धयादि, एतदपि सप्ततिसंख्यकम् , उक्तश्चउसे अर्थात् मूलगुणको ‘ चरण' कहते हैं । अथवा व्रत आदि 'चरण' कहलाते हैं। वे ७० सत्तर हैं । कहा भी है - पांच महावत, दश श्रमणधर्म, सत्रह संयम, दश वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियां, रत्नत्रय - (सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र), बारह प्रकारका तप, चार क्रोधादिविजय-(क्रोधविजय, मायाविजय, मानविजय, लोभविजय), यह ७० सत्तर प्रकारका 'चरण' कहलाता है। __चरण की पुष्टि करने वाला 'करण' कहलाता है । करण का अभिप्राय है-- उत्तर गुण । अथवा पिण्डविशुद्धि आदिको करण कहते हैं। इसके भी सत्तर ७० भेद हैं। कहा भी है : પાંચ મહાવ્રત, દસ શ્રમણધર્મ, સત્તર સંચમ, દશ વૈયાવૃત્ય, નવ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિઓ, રત્નત્રય-(સમ્યગ્રજ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર) બાર પ્રકારનો તપ, ચાર धाहिविय,-(औषविल्य, मानविय, मायाविन्य, बलविन्य ) प्रमाणे सित्तर (७०) प्रा२ना २५ उपाय छे. ॥१॥ ચરણની પુષ્ટિ કરવા વાળા કરણ કહેવાય છે. કરણને અભિપ્રાય છે–ઉત્તર ગુણ, અથવા પિંડાવિશુદ્ધિ આદિને કરણ કહે છે, તેના પણ સિત્તેર ભેદ છે. કહ્યું પણ છે Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ आचाराङ्गसूत्रे “ पिंडविसोही४-समिई५, भावण १२ पडिमा १२ य इंदियानि रोहो५ । पडिलेहण२५ गुत्तीओ३, अभिग्गहा४ चेव करणं तु ॥ १ ॥” इति । तयोरनुयोगश्चरण करणानुयोगः (१) । धर्मकथानुयोगादयश्चरणकरणयोर्भव्यजीवान् प्रवर्त्तयन्तीति तेषां चरणकरणाङ्गतया प्राधान्यमेतस्यानुयोगस्य, अत एवास्य प्राथम्यम् । उक्तञ्च - आत्मन् | जानीहि पूर्व चरणकरणयोराश्रये यन्महत्त्वं, मोहं दूरीकरोति प्रकटयति परं निश्चयात्मस्वरूपम् । 61 चार पिण्डविशुद्धि, पाच समितियां, बारह भावना, बारह् पडिमा, पांच इन्द्रियनिरोध, पचीस प्रतिलेखना, तीन गुप्तियां, चार अभिग्रह, यह सत्तर ७० प्रकारका करण कहलाता है । इस तरह चरण और करण के अनुयोग को, अर्थात् भगवान् की वाणी के अनुकूल व्याख्यान को चरणकरणानुयोग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि -- जिस शास्त्र में चारित्र सम्बन्धी निरूपण है, वह चरणकरणानुयोग समझना चाहिए । धर्मकथानुयोग आदि शेष तीन अनुयोग भव्यजीवों को चरण और" करण में प्रवृत्त करते है, अतः वे इसी अनुयोग के अङ्ग है । इस प्रकार चारों अनुयोगो में चरणकरणानुयोग ही प्रधान है । प्रधान होने के कारण ही इस की गणना सर्वप्रथम की गई है। कहा भी है हे आत्मन् ! चरण और करण में जो महत्त्व है, उसे पहले समझ ले । वह मोह को निवारण करता है, आत्मा के निश्रय अर्थात् वास्तविक स्वरूप को प्रकट करता है, वह सब יי “यार पिंडविशुद्धि, पांथ समितियो, मार भावना, भार पडिभा, पांच इन्द्रिय નિધ, પચીશ પ્રતિલેખના, ત્રણ ગુપ્તિએ, ચાર અભિગ્રહ, આ સર્વ કરણ્ वाय छे.” ॥ १॥ આ પ્રમાણે ચરણુ અને કરણના અનુચેાગને અર્થાત્ ભગવાનની વાણીને અનુકૂલ હું વ્યાખ્યાનને ચરણકરણાનુયાગ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે શાસ્ત્રમાં ચારિત્રસમ્બન્ધી નિરૂપણુ છે તે ચરણકરણાનુયાગ સમજવું જોઇએ. ધર્મકથાનુંયેાગ આદિ બાકીના ત્રણ અનુયાગ ભવ્ય જીવને ચરણ અને કરણમાં પ્રવૃત્ત કરે છે; તેટલા માટે તે પણ એ અનુચેાગનુ અંગ છે. આ પ્રકારે ચારેય અનુયા ગોમાં ચરણકરણાનુયોગ પ્રધાન–મુખ્ય છે. · मुख्य देवाना अरले तेनी गथुना सोथी प्रथम श्री छे, “हे आत्मन्! य२त्रु भने भने भई छे, तेने प्रथम समल से, पशु छे: તે E Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ' आधारोऽयं गुणानामपनयति सदाऽनादिमिथ्यात्वदोषं, ___हेतुर्योऽयं विशुद्धेर्दमयति नितरामिन्द्रियाणि द्रुतं यः ॥ १॥ .. - - सम्यग्ज्ञानस्य दाता शिवसुखजनकः कर्मधूलेश्च हर्ता, कर्ता विद्योतनस्याऽऽत्मनि सकलगुणस्याऽद्वितीयः प्रकाशः। आत्मन्नेवात्मनीनश्चरणकरणयोराश्रयः काऽत्र शङ्का ?, शङ्कारो नैष लोकः परिणतिविरसः किं सुखाशां करोषि ? ॥ २ ॥ (२) अथ धर्मकथानुयोगःभवजलनिधौ निपतन्तं भव्यजातं धारयति-तरिरिव तारयति शुभस्थानं प्रापयतीति धर्मः, तस्य कथा भगवद्देशनालक्षणो वाक्यमबन्धः धर्मकथा । -अहिंसादिप्ररूपणा वा धर्मकथां । अथवा श्रुतचारित्रलक्षणधर्मप्रधानकथा-धर्मकथा । - यद्वा गुणों का आधार है, और अनादिकालीन मिथ्यात्व दोष को दूर करता है, विशुद्धि का कारण है, और इन्द्रियों को शीघ्र ही दमन करने वाला है ॥ १॥ . सम्यग्ज्ञान का दाता है, मोक्षसुख उत्पन्न करने वाला हैं, कर्मरूपी धूलको दूर करने वाला है, आत्मामें उद्योत-प्रकाश करने वाला है और समस्त गुणों का अद्वितीय प्रकाशक है, हे आत्मन् ! चरण और करण का आश्रय लाभकारी है, इस विषयमें शंका, को स्थान ही कहां है ? अर्थात् निश्चितरूपसे ही वह कल्याण करने वाला है, यह लोक (संसार) तो परिणाम में एकदम नीरस है, तू इस से सुख की अभिलाषा क्यों करता है ॥ २॥ , (२) धर्मकथानुयोग . . संसाररूपी सागरमें डूबते हुए भव्य जीवो को धारण करनेवाला-नौका के समान મેહનું નિવારણ કરે છે, આત્માના નિશ્ચય અર્થાત્ વાસ્તવિક સ્વરૂપને પ્રગટ કરે છે, તે સર્વ ગુણને આધાર અને અનાદિ કાલના મિથ્યાત્વ દેષને દૂર કરે છે, વિશુદ્ધિનું કારણ અને ઇન્દ્રિયના શીધ્ર દમન માટે તે સહાયક છે ૧ | : । सभ्यज्ञान हेना२ छ भने भाक्षसुप पन्न. ४२वाणु छ. भ३पी . धूजन દૂર કરવાવાળું છે. આત્મામાં ઉદ્યોત–પ્રકાશ કરવા વાળું છે. અને સમસ્ત ગુણોને અદ્વિતીય પ્રકાશક છે. હે આત્મન ! ચરણ અને કરણને આશ્રય કલ્યાણકારી છે, આ વિષયમાં શંકાને સ્થાન જ કયાં છે ? અર્થાત્ નિશ્ચિત રૂપથી જ તે કલ્યાણ કરવાવાળું છે, આ લેક (સંસાર) તે પરિણામે એકદમ નીરસ–રસરહિત છે, તે તેમાં सुमनी मलिदाषा श॥ भाट ४२ छ ? ॥ २ ॥ . (२) धर्म थानुयोग ... : સંસારરૂપી સાગરમાં ડુબતા ભવ્ય જીવોને ધારણ કરવાવાળી, વહાણ પ્રમાણે Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ आचारामुत्रे शुभाशुभकर्मविपाकोपदर्शनं धर्मकथा । किञ्च तिर्थङ्करचक्रवर्त्त्यादिचारित्रवर्णनं धर्मकथा । तस्या अनुयोगः धर्मकथानुयोगः । धर्मकथा (४) - निर्वेदनी भेदात् । चतुर्विधा – (१) - आक्षेपणी - (२) - विक्षेपणी- (३) - संवेदनी आक्षेपण्यादिधर्मकथाभिराक्षिप्ताः विक्षिप्ताः संवेदिता निर्वेदिताः सन्तो भव्यप्राणिनश्चारित्रं प्राप्नुवन्ति । किनारे लगाने वाला, अर्थात् शुभस्थान में पहुंचा देनेवाला धर्म कहलाता है । उस धर्म की कथा अर्थात् भगवान की देशना जिसमें पाई जाय उसे धर्मकथा कहते हैं । अथवा अहिंसा आदि की प्ररूपणा धर्मकथा कहलाती है । अथवा श्रुत और चारित्र की प्रधानता वाली कथा को धर्मकथा कहते हैं । अथवा शुभ और अशुभ कर्मफल को प्रकाश करना धर्मकथा है । या तीर्थकर चक्रवर्ती आदि महापुरुषों का चरित्र वर्णन करना धर्मकथा है । उसके अनुयोग–व्याख्यान को धर्मकथानुयोग कहते हैं । धर्मकथा चार प्रकार की हैः- (१) आक्षेपणी (२) विक्षेपणी (३) संवेदनी और (४) निर्वेदनी । आक्षेपणी आदि धर्मकथाओं से आक्षिप्त संवेदित और निर्वेदित (विरक्त) हुए भव्य जीव चारित्र प्राप्त करते हैं । કિનારે લઈ જનારી, અર્થાત્ શુભ સ્થાનમાં પહોંચાડી દેવા વાળી વસ્તુને ધર્મ કહેવામાં આવે છે. તે ધર્માંની કથા અર્થાત્ ભગવાનના ઉપદેશ જેમાં તેવામાં આવે છે. તેને ધર્મકથા કહે છે. અથવા અહિંસા આદિની પ્રરૂપણા તે ધર્મકથા કહેવાય છે. અથવા તે શ્રુત અને ચારિત્રની પ્રધાનતાવાળી કથાને ધર્મકથા કહે છે, અથવા શુભ અને અશુભ કર્મ-ફૂલને પ્રગટ કરવું તે ધર્માંકથા છે. અથવા તીર્થંકર, ચક્રવર્તી દિ મહાપુરૂષોના ચરિત્રનું વર્ણન કરવુ તે ધર્મકથા છે. તેનાં અનુચેાગ-વ્યાખ્યાનને ધમ કથાનુયેાગ કહે છે. धर्म था यार अारनी छे. (१) आक्षेपणी (२) विक्षेयाणी (3) सवेहनी भने (४) निवेहन . આક્ષેપણી આદિ ધ કથાએથી આક્ષિપ્ત, વિક્ષિપ્ત, સંવેદિત અને નિવેદિત (वित्त) धयेसा भव्य लव यात्रि प्राप्त उरे छे. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा (१) आक्षेपणीआक्षिप्यते मोहं निराकृत्य चारित्रं प्रति समाकृष्यते श्रोताऽनयेति-आक्षेपणी, उक्तश्च "स्थाप्यते सत्पथे श्रोता, यया साऽऽक्षेपणी कथा। यथेषुकारं कमला,-वती धर्मे व्यतिष्ठिपत् ॥१॥" वाल्यावस्थतनयद्वयसमन्वितः सपत्नीको भृगुपुरोहितः सर्वस्वं परिहाय दीक्षार्थ सदनान्निर्ययौ । तदीयं सकलं वसु परिगृहीतं पत्येति विदित्वा कमलावती राज्ञी वैराग्यमुपगता स्वपतिमिषुकारं नृपति प्रत्यवोधयत् । 'राजन् ! किं वान्ताशिवद् (१) आक्षेपणी जिस कथा के द्वारा श्रोता मोह से हटकर चारित्र के प्रति आकर्षित होते है, वह आक्षपणी धर्मकथा कहलाती है, कहा भी हैं - " जिस के द्वारा श्रोता सन्मार्ग में स्थापित किये जाते हैं, उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं। जैसे कमलावतीने इषुकार को धर्म में स्थिर किया ॥१॥" छोटी उम्र वाले अपने दो बालकों के साथ पत्नीसहित भृगु पुरोहित सर्वस्व त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने के लिये अपने घर से निकला । उस पुरोहित का समस्त धन मेरे पति (राजा) ने ले लिया है, ऐसा जान करके रानी कमलावती को वैराग्य हो गया और उसने अपने पति राजा इषुकार को समझाया-" महाराज ! जिस धनका भृगु पुरोहित ने (१) माक्षेपी'. જે કથા દ્વારા શ્રોતા મેહથી હઠી જઈને ચારિત્ર તરફ આકર્ષિત થાય છે તે આક્ષેપણી ધર્મકથા કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે – - જેનાથી શ્રોતાને સન્માર્ગમાં સ્થાપિત કરી શકાય છે તેને આક્ષેપણું કથા કહે છે, જેવી રીતે કમલાવતીએ ઈષકારને ઘમમાં સ્થિર કર્યો. ૧ . નાની ઉમરવાળા પિતાના બે બાળકની સાથે તથા પત્ની સહિત ભૂગુ પુરોહિત સર્વસ્વ ત્યાગ કરીને દિક્ષા ગ્રહણ કરવા માટે પિતાના ઘેરથી નીકળ્યા, તે પુરહિતનું તમામ ધન મારા પતિ (રાજા) એ લઈ લીધું છે. એવું જાણુને રાણી કમલાવતીને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થઈ ગયા અને તેણે પોતાના પતિ રાજા ઈષકારને સમજાવ્યાप्र. मा.-४ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ आचारागसूत्रे भोगमाशंससे ?' इत्यादि । अथ कमलावतीवचनश्रवणक्षणसंजातप्रतिवोध इपुकारः कमलावती च दीक्षार्थं सहैव निष्क्रान्तौ । (२) विक्षेपणीविक्षिप्यते सम्यगवादगुणोत्कर्षप्रदर्शनेन मिथ्यावादादपसार्यते श्रोताऽनयेति विक्षेपणी । उक्तञ्च "सम्यगवादप्रकर्षण, मिथ्यावादस्य खण्डनम् । यया विक्षेपणी सैव, यथा केशी प्रदेशिनम् " ॥२॥ मिथ्यावादादपसारयामासेति शेषः । वमन कर दिया, वह धन भोगोगे ? आप वमन का सेवन करने वालों की तरह भोग की लालसा क्यों करते है ?" इत्यादि । इषुकार को कमलावती के वचन सुनते ही वैराग्य हो आया और राजा तथा रानी दोनों साथ-साथ दीक्षा ग्रहण कर ली ॥१॥ (२) विक्षेपणी सम्यग्वाद अर्थात् अनेकान्तवाद या सिद्धान्त के गुणों का दिग्दर्शन कराकर श्रोताओं को मिथ्यावाद अर्थात् एकान्तवाद स हटाने वाली कथा विक्षेपणी कहलाती है। कहा भी है - મહારાજ જે ધનને ભૃગુ પુરોહિતે વમન કરી નાખ્યું છે તે ધનને આપ ભેગવશે? આપ વમનનું સેવન કરવાવાળાની પેઠે ભેગની લાલસા શા માટે કરો છે?” ઈત્યાદિ રાજા ઈષકાર પિતે કમલાવતીના વચન સાંભળતાં જ વૈરાગ્ય પામ્યા અને રાજા તથા રાણી અને સાથે-સાથે દીક્ષા ગ્રહણ કરી. | ૧ | (२) विक्षेपणी સમ્યગ્વાદ અર્થાત્ અનેકાન્તવાદ, અથવા સત્યસિદ્ધાંતના ગુણોનું દિગદર્શન કરાવીને શ્રોતાઓને મિથ્યાવાદ અર્થાત્ એકાન્તવાદથી દૂર કરાવનારી કથા તે વિક્ષેપણ ४ा ४३वाय छे. घुय छ: Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा केशिश्रमणतः करुणारसपरिपूर्णमास्तिकतावादमाकर्ण्य प्रदेशी नाम भूपालो नास्तिकतावादं परित्यज्य द्वादशव्रतधारी श्रावको भूत्वा मृत्वा च प्रथमकल्पे सूर्याभनामा देवो बभूव । (३) संवेदनीसंवेद्यते = संसारासारताप्रदर्शनेन मोक्षाभिलाष उत्पाद्यतेऽनयेति संवेदनी । उक्तश्च “ यस्याः श्रवणमात्रेण, मुक्तिवान्छा प्रजायते । संवेदनी यथा मल्ली, षड् नृपान् प्रत्यवोधयत् ॥३॥" " सम्यग्वाद का उत्कर्ष दिखला कर मिथ्यावाद अर्थात् मिथ्यामान्यता का खण्डन करने वाली विक्षेपणी कथा है। जैसे-केशी श्रमणने प्रदेशी राजा को मिथ्यावाद से हटाया था" ॥२॥ श्री केशी श्रमण के श्रीमुखसे करुणा-रस से परिपूर्ण आस्तिकवाद सुन कर प्रदेशी नामक राजा नास्तिकवाद त्याग कर बारह व्रतधारी श्रावक हो कर मरकर प्रथम सौधर्म कल्पमें सूर्याभ नामक देव हुआ । (३) संवेदनी जो धर्मकथा संसार की असारता प्रदर्शित करके भव्य जीवों में मोक्षकी अभिलाषा जागृत , करती है, वह संवेदनी धर्मकथा है । कहा भी है સમ્યવાદને ઉત્કર્ષ બતાવીને મિથ્યાવાદ અર્થાત્ મિથ્યા માન્યતાનું ખંડન કરવાવાળી વિક્ષેપણ કથા છે. જેવી રીતે કેશી શ્રમણે પ્રદેશ રાજાને મિથ્યાવાદથી भुत या u. ॥२॥" શ્રી કેશી શ્રમણના શ્રીમુખથી કરૂણારસથી પરિપૂર્ણ આસ્તિકવાદ સાંભળીને પ્રદેશી નામના રાજાએ નાસ્તિકવાદ ત્યાગ કર્યો, બાર વ્રતધારી શ્રાવક થઈને મરીને - પ્રથમ સૌધર્મક૫માં સૂર્યાભ નામના દેવ થયા. (3) संवहनी જે કથા સંસારની અસારતા બતાવીને ભવ્યજીમાં મોક્ષની અભિલાષા જાગ્રત अरे छे, ते सवनी धर्मा छे. सह्यु ५५४ छ: Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ आचारागसूत्रे मल्लीकुमारी षड् भूमिपालान् स्वस्मिन्ननुरक्तान् विज्ञाय, तेभ्यः संसारासारतां प्रदर्श्य मोक्षाभिलाषं जनयामास । (४) निर्वेदनीनिर्वेद्यते-विषयभोगेम्यो विरज्यते श्रोताऽनयेति निर्वेदनी, उक्तश्च" यदाऽऽकर्णनमात्रेण, वैराग्यमुपजायते । निर्वेदनी यथा शालि,-भद्रो वीरेण वोधितः" ॥ ४ ॥ " जिस कथा को श्रवण करने मात्र से ही मोक्ष की आकाङ्क्षा उत्पन्न होती है, वह संवेदनी धर्मकथा है । जैसे-मल्ली नामक राजकन्याने छह राजाओं को बोध दिया" ॥३॥ छह राजा मेरे उपर अनुरक्त है, यह जानकर मल्लीकुमारीने उन्हें संसारकी निःसारता समझाई और उन में मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न कर दी । मल्ली कुमारी का वह उपदेश संवेदनी धर्मकथा है ॥ ३ ॥ (४) निर्वेदनी जो कथा श्रोताओं को विषयभोगसे विरक्त बनाती है, वह निर्वेदनी धर्मकथा कहलाती है । कहा भी है : " जिसका श्रवण करते ही वैराग्य उत्पन्न होता है, वह निर्वेदनी धर्मकथा है। जैसे भगवान् महावीरने शालिभद्र को प्रतिबोध दिया" ॥ ४ ॥ જે કથા સાંભળવામાત્રથી જ મેક્ષની ઈચ્છા ઉત્પન્ન થાય છે તે સંવેદની ધર્મકથા છે. જેવી રીતે મલ્લી નામની રાજકન્યાએ છ રાજાઓને બોધ આપે. ” છ રાજા મારા ઉપર આસક્ત-પ્રેમવાળા છે. એવું જાણીને મલ્લી કુમારીએ તેઓને સંસારની નિસારતા સમજાવી અને તેમાં મુક્તિની અભિલાષા ઉત્પન્ન કરી, મલ્લકુમારીને તે ઉપદેશ સંવેદની ધર્મકથા છે. (४) निवेनी. જે કથા શ્રોતાઓને વિષય ભેગથી વિરક્ત બનાવે છે તે નિર્વેદની કહેવાય છે. सुं पर छ: “જેનું શ્રવણ કરતાં જ વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થાય છે, તે નિવેદની ધર્મકથા છે જેવી રીતે ભગવાન મહાવીરે શાલિભદ્રને પ્રતિબંધ આપે. ને ૪ ” Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचारचिन्तामणि-टीका अवतरणों २९ कमलकोमलकान्ताकारः शालिभद्रकुमारः श्रीमहावीरतीर्थङ्करकथितधर्मदेशनाश्रवणसमनन्तरं त्वरया वैराग्यमुपगतश्चारित्रं प्राप। उक्तञ्च"भवस्य सर्व क्षणभङ्गरं सुख, विदन्ति ये धर्मकथानुरागिणः। विहाय ते भोगमनन्तदुःखदं, ___ चरन्ति चारित्रवने विरागिणः" ॥४॥ उत्तराध्ययनमूत्रस्यैकोनत्रिंशेऽध्ययने धर्मकथाफलमाह "धम्मकहाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? । धम्मकहाए णं जीवे निज्जरं जणयइ । धम्मकहाए णं पवयणं पभावेइ । पक्यणपभावणेणं जीवे आगमेसस्स भद्दत्ताए कम्मं निबंधइ ।" कमल के समान कोमल और कान्तिमान आकृति वाला शालिभद्र कुमार श्री महावीर भगवान् को धर्मदेशना सुनते ही वैराग्य को प्राप्त हुआ, और उसने चारित्र धारण कर लिया। कहा भी है : “धर्मकथा में अनुराग रखने वाले जो पुरुष संसार के सुख क्षणभङ्गर समझ लेते हैं, वे अनन्त दुःख देने वाले भोगका त्याग करके, विरागी हो कर चारित्ररूपी बगीचे में विहार करते है" ॥१॥ उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में धर्मका का फल बतलाया गया है। वह इस भांति है કમલના જેવા કોમલ અને કાન્તિમાન આકૃતિવાળા શાલિભદ્રકુમાર શ્રી મહાવીર ભગવાનની ધર્મદેશના સાંભળતાં જ વૈરાગ્યને પ્રાપ્ત થયા અને ચારિત્ર ધારણ કર્યું. કહ્યું પણ છે – ધર્મકથામાં પ્રીતિ રાખવાવાળા જે પુરૂષ સંસારના સુખને ક્ષણભંગુર સમજી લે છે તે અનન્ત દુઃખ આપવાવાળા ભેગને ત્યાગ કરીને વૈરાગ્ય ધારણ કરી धारित्र३पी मायामा विडार 3रे छे. ॥१॥" ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રના ઓગણત્રીસમાં અધ્યયનમાં ધર્મકથાનું ફલ બતાવ્યું છે, તે मा प्रमाणे छ: Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे आक्षेपण्यादिचतुर्विधधर्मकथासंचारोद्भावितानन्दधारातरङ्गसमुल्लसितस्वान्तप्रभूतभव्यभावितात्मा धर्मकथी जन्मजरामरणादिभीपणपीनपाठीनमीनमकरगणसंक्रमणप्रियवियोगाप्रियसंयोगवडवानलाकुलितापारसंसारसागरात् स्वयं तरति, परानपि तारयति । स च प्रभूतभव्यान् प्रवाजयन् भवकूपपतत्प्राणवाणसमाश्वासनजिनशासनमहिमानमुपवृहयन् समस्तमेव जगत् जिनशासनरसिकं कुर्वन् , मिथ्यात्वमुत्थापयन् । " भगवन् ! धर्मकथा से जीव को क्या लाभ होता है ? उत्तर-धर्मकथा से जीव को निर्वाण की प्राप्ति होती है । धर्मकथा से जीव प्रवचन की प्रभावना करता है। प्रवचन, की प्रभावना से आगे के लिये भद्र (शुभ) कर्मों का बन्ध करता है" ॥ ४ ॥ आक्षेपणी आदि चार प्रकार की धर्मकथा से उत्पन्न होने वाली आनन्द की धाराओं की तरङ्गों से जिन का अन्तःकरण उल्लास को प्राप्त हुआ है, ऐसे अनेक भावितात्मा भव्य धर्मकथा करने वाले पुरुष जन्म जरा और. मरण रूपी भयानक और विशाल मगरमच्छोंसे व्याप्त, एवं इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोग रूपी वडवानल से आकुल-व्याप्त अपार संसार सागर से स्वयं भी पार होते है और दूसरों को भी पार करते है । वह धर्मकथाकार अनेकानेक भव्य जीवों को दीक्षित करता हुआ, संसाररूपी कूप में पडनेवाले प्राणियों को त्राण करने का आश्वासन देने वाले जिनशासन की महिमा बढाता हुआ समस्त जगत् को जिनशासन का रसिक अनुरागी बनाता हुआ मिथ्यात्व की उत्थापना "मगवन् ! धर्मथाथी ने शु दाम थाय छ ? ' ઉત્તર—ધર્મકથાથી જીવને નિરાની પ્રાપ્તિ થાય છે, ધર્મકથાથી જીવ પ્રવચનની પ્રભાવના કરે છે, પ્રવચનની પ્રભાવનાથી આગળ શુભ કર્મોને બંધ કરે છે” આક્ષેપણી આદિ ચાર પ્રકારની ધર્મકથાથી ઉત્પન્ન થનારા આનન્દની ધારાઓના તરંગથી જેનું અંતઃકરણ ઉલ્લાસને પ્રાપ્ત થયું છે, એવા અનેક ભાવિતાત્મા ભવ્ય ધર્મકથા કરવાવાળા પુરૂષ જન્મ. જરા અને મરણપી ભયાનક અને વિશાલ મગમોથી વ્યાપ્ત એ પ્રમાણે ઈષ્ટ–વિગ અને અનિષ્ટ સંગરૂપી વડવાનલથી સહિત અપાર સંસારસાગરથી પિતે પણ પાર ઉતરે છે, અને બીજાને પણ પાક तारे छ, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा सम्यक्त्वमुपस्थापयन्, कर्मकोटि क्षपयति । उत्कृष्टरसायनपरिणाममसौ लभेत चेत् , त्रैलोक्यपवित्र तीर्थङ्करनामगोत्रं समुपार्जयति । . _अपि चासौ स्वतःप्रकाशस्वभावस्यापि जिनशासनस्य मिथ्यात्वादितिमिरातदेशकालादिषु यथोचितप्रचारलक्षणाराधनतः प्रभावकपदं विभर्ति । उक्तञ्च "पावयणी धम्मकही, वाई लद्धीसरो तवस्सी य। विज्जासिद्धो य कवी, अद्वेव पभावगा भणिया ।। १" और सम्यक्त्व की उपस्थापना करता हुआ कर्मकोटि को खपाता है । कदाचित् परिणाम में उत्कृष्ट रसायन आ जाय तो वह त्रिलोक में पवित्र तीर्थङ्कर गोत्र का भी उपार्जन करता है । जिन भगवान का शासन स्वतः उज्ज्वल है, तथापि जिस देशविशेष और काल विशेष में मिथ्यात्व का अन्धकार फैल जाता है, वहां भगवान के शासन का प्रचाररूप आराधन करके धर्मकथाकार प्रभावक पद प्राप्त करता है। कहा भी है : _ "प्रभावक आठ प्रकार के हैं :- (१) प्रावचनिक, (२) धर्मकथी, (३) वादी, (४) लब्धियों का स्वामी, (५) तपस्वी, (६) विद्यावान्-रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्या के धारक, (७) सिद्ध-वचनसिद्धि आदि सिद्धियों वाला, (८) कवि"। . તે ધર્મકથા કહેનાર અનેક-અનેક ભવ્ય જીવોને દીક્ષિત કરે છે અને સંસાર રૂપી કુવામાં પડવાવાળા પ્રાણીઓને રક્ષણ કરવાનું આશ્વાસન દેવાવાળા જિનશાસનને મહિમા વધારતા થકા સમસ્ત જગતને જિનશાસનમાં પ્રીતિવાળા બનાવી મિથ્યાત્વ નિવારણ અને સમ્યકત્વની સ્થાપના કરી કમેકેટીને ખપાવે છે. કદાચિત પરિણામમાં ઉત્કૃષ્ટ રસાયન આવી જાય તે ત્રિલોકમાં પવિત્ર તીર્થકર ગોત્રની પણ પ્રાપ્તિ જિન ભગવાનનું શાસન પિતે ઉજજવલ છે તે પણ જે દેશવિશેષ અને કાલવિશેષમાં મિથ્યાત્વને અંધકાર ફેલાઈ જાય છે, ત્યાં ભગવાનના શાસનપ્રચારરૂપ આરાધન કરીને ધર્મકથાકાર “પ્રભાવક”નું પદ પ્રાપ્ત કરે છે. કહ્યું પણ છે – - "प्रभाव: 2418 २॥ छ. (१) प्रापयनि:, (२) धर्मथा।२ (3) पाही, - (४) जियाना धपी, (५) त५२वी, (6) विधावान्-डि-अज्ञप्ति माह विधान धा२४, (७) सिद्ध-पयनसिद्धिमालिसिद्विभावाणा, (८) ४वि" ॥१॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराचे अथ धर्ममहिमोच्यते"जम्मतरेवि मुलहा, पिउभाउसुयाइया । परंतु मुयचारित्त, - धम्मो णो सुलहो भुवि ॥१॥ वारसंगावणे धम्मं, णिच्छयव्यवहारिणो। लहंते संजया भव्वा, भत्तिपण्णेण ननहा ॥ २ ॥ संस्कृतच्छायाजन्मान्तरेऽपि सुलभा, -पित-भ्रात-सुतादयः । परन्तु श्रुतचारित्र, - धर्मों न सुलभो भुवि ॥१॥ द्वादशाङ्गापणे धम्म, निश्चयव्यवहारिणः । लभन्ते संयता भव्या,-भक्तिपण्येन नान्यथा ॥२॥ तथा-विना सिद्धाञ्जनं भूमि,-निधानं नैव लभ्यते धर्म-महिमा"पिता, भ्राता और पुत्र आदि तो जन्मान्तर में-आगामी भव में भी सुलभ हैं किन्तु संसार में श्रुत-चारित्र धर्म सुलभ नहीं है" ॥१॥ . "द्वादशाङ्गीरूपी दुकान में निश्चयनय और 6 यवहारनय को जानने वाले संयमी पुरुष भक्तिरूपी मूल्य चुकाकर धर्म प्राप्त कर सकते हैं, ऐसे किये विना धर्म की प्राप्ति नही हो सकती" ॥ २ ॥ महिमा- “પિતા ભાઈ અને પુત્ર વગેરે તે આગલા ભવમાં–હવે પછીના ભાવમાં પણ -सुखस छ, परन्तु संसारमा श्रत-यारित्र धर्म सुखम नथा॥१॥ દશાંગીરૂપી દુકાનમાં નિશ્ચયનય અને વ્યવહારનયને જાણવાવાળા સંચમી પુરુષ ભક્તિરૂપી મૂલ્ય આપીને ધર્મ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. એમ કર્યા વિના ધમની प्राप्ति यती नथी.” ॥२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा विणा सिद्धजणं भूमि,-णिहाणं णेव लब्भइ । मुयचारित्तधम्मेण, विणा णो णाणमप्पणो ॥३॥ अप्पणाणं विणा णेच, तत्तातत्तविणिच्छओ। । तं विणा व भयाणं, जायएऽमियभावणा ॥४॥ विसुद्धज्झाणसंपत्ती, गंतराऽमियभावणं । विणा विसुद्धझाणं णो, खवगस्सेणिरप्पई ॥ ५ ॥ अन्नोवाएण केणावि,-खवगस्सेणिणा विणा । बितीयपाओ मुकस्स, झाणस्स नहि लन्भई ॥६॥ छायाश्रुतचारित्रधर्मेण, विना नो ज्ञानमात्मन ॥ ३ ॥ आत्मज्ञानं विना नैव, तस्वाऽतत्त्वविनिश्चयः । तं विना नैव भव्यानां, जायतेऽमृतभावना ॥ ४ ॥ विशुद्धध्यानसमाप्ति, - नन्तिराऽमृतभावनाम् । विना विशुद्धध्यान नों, क्षपकश्रेणिराप्यते ॥५॥" - अन्योपायेन केनापि, क्षपकणिना विना । ... .. . . द्वितीयपादः शुक्लस्य, ध्यानस्य नहि लभ्यते ॥६॥ . सिद्धअञ्जन के अभाव में पृथ्वी के भीतर का खजाना नहीं प्राप्त किया जा सकता, इसी प्रकार श्रुत चारित्र के विना आत्मा को सम्यज्ञान नहीं होता ॥ ३ ॥ , आत्मज्ञान के अभाव में तत्त्व-अतत्व का निश्चय नहीं हो सकता, और तत्त्व अतत्त्व का निश्चय हुए विना भव्य जीवो को अमृतभावना नहीं हो सकती ॥ ४ ॥ अमृतभावना के अभाव में विशुद्ध ध्यान की प्राप्ति नहीं होती, और विशुद्ध ध्यान के विना क्षपकश्रेणी पर आरोहण नहीं हो सकता ॥ ५ ॥ .. क्षपक श्रेणी के सिवाय किसी अन्य उपाय से शुक्ल-ध्यान का एकत्ववितर्क अविचार नामक दूसरा पाया नहीं प्राप्त किया जा सकता ॥ ६ ॥ સિદ્ધાંજન વિના પૃથ્વીની અંદર પ્રજાને પ્રાપ્ત કરી શકાતું નથી. એવી જ शत श्रुत-यारित्र विना मात्मज्ञान थतु नथी. ॥ ३ ॥ આત્મજ્ઞાનના અભાવથી તત્ત્વ-અતત્ત્વને નિશ્ચય થઈ શકતો નથી, અને તવઅતત્ત્વને નિશ્ચય કર્યા વિના ભવ્ય અને અમૃતભાવના થતી નથી | ૪ | અમૃતભાવનાના અભાવથી વિશુદ્ધ ધ્યાનની પ્રાપ્તિ થતી નથી; અને વિશ4 म. मा-५ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराने सुक्कझाणस्स पायं च, वितीयं पप्प संजमी। केवलण्णाणलाहेण, केवलित्ति णिगज्जई ॥ ७॥ अवस्था णहि सेलेसी, केवलण्णाणमंतरा। भवई समणिदस्स, सबकम्मक्खओ तओ ॥८॥ सव्वकम्मक्खए सिद्धी,-तओ सिद्धो हि सासओ। मोक्वट्ठी सुयचारित्त, - धम्म तम्हा समायरे ॥ ९ ॥ छायाशुक्लध्यानस्य पादं च, द्वितीय माप्य संयमी । केवलज्ञानलाभेन, केवलीति निगद्यते ॥७॥ अवस्था नहि शैलेशी, केवलज्ञानमन्तरा। भवति श्रमणेन्द्रस्य, सर्वकर्मक्षयस्ततः ॥ ८॥ सर्वकर्मक्षये सिद्धि, - धर्म तस्मात्समाचरेत् । मोक्षार्थी श्रुतचारित्र,-धर्म तस्मात्समाचरेत् ॥९॥ संयमी पुरुष शुक्ल ध्यान का दूसरा पाया प्राप्त करके, केवल ज्ञान प्राप्त करता है भौर केवली कहलाता है। ॥ ७ ॥ केवल ज्ञान के विना शैलेशी अवस्था प्राप्त नहीं होती । शैलेशी अवस्था जब प्राप्ति हो जाती है तो मुनिराज समस्त कर्मों का क्षय कर डालता है ॥ ८ ॥ ___ समस्त कमों का क्षय होने पर सिद्धि प्राप्त होती है । सिद्धि लाभ होने पर शाश्वत सिद्ध होजाता है, अत मोक्षार्थी पुरुष को श्रुत-चारित्ररूप धर्म का आचरण करना चाहिये ॥९॥ ધ્યાન વિના ક્ષપકશ્રેણી ઉપર આરહણ થઈ શકતું નથી. મેપ || ક્ષપકશ્રેણી વિના બીજી કોઈ ઉપાયથી શુકલ ધ્યાનને એકવ-વિતર્ક અવિચાર नाम भीन्न पायो त ४N Axो नथी. ॥६॥ સંયમી પુરુષ શુકલ ધ્યાન બીજે પા પ્રાપ્ત કરીને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરે छ, भने पक्षी ४३वाय छे. ॥ ७ ॥ કેવલજ્ઞાન વિના રિલેશી અવસ્થા પ્રાપ્ત થતી નથી, શલેશી અવસ્થા જ્યારે પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, ત્યારે મુનિરાજ સકલ કર્મોને ક્ષય કરી નાખે છે. તે ૮ ! સકલ કર્મોને ક્ષય થયા પછી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, સિદ્ધિ લાભ થયા પછી માવત સિદ્ધ થાય છે, એ માટે મુક્ષાર્થી પુરુષોએ કૃત–ચારિત્રજપ ધર્મનું આચરણ ४२ . ॥८॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा . अथ गणितानुयोगःगणितं = संख्यानं तस्यानुयोगो-गणितानुयोगः जीवाऽजीवादिषड्द्रव्यतत्पर्यायपरिगणनं गणितानुयोगसाध्यम् । । तेन जिनोक्तपदार्थानां यथावस्थितं परिगणनात् सम्यक्त्वशुद्धिस्ततश्चारित्रशुदि । पूर्वानुपूर्व्यादीनां भङ्गजालादीनां च परिगणनया चित्तस्थैर्यम् , ततश्च कषायानलप्रशमनम् , तेन चारित्रनैमल्यम् । अपि च गणितानुयोगेन भगवतः केवलज्ञानादिगुणपर्यायाणामानन्त्यमावेदयति । संख्यानमतिक्रान्तानां तेषां संख्यातुमशक्यता संख्याज्ञान विना नैव (३) गणितानुयोगगणित अर्थात् संख्याका अनुयोग गणितानुयोग कहलाता है। जीव, पुद्गल आदि छह द्रव्यों की गणना करने के लिए, तथा द्रव्यों की पर्यायों की गिन्ती करने के लिए गणितानुयोग की आवश्यकता होती है । गणितानुयोगसे जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट पदार्थों की ठीक-ठीक गणना होने से सम्यक्त्व की शुद्धि होती है, और सम्यक्त्व की शुद्धि से चारित्र की शुद्धि होती है । पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी तथा अनानुपूर्वी आदि से, तथा भङ्ग-जालों की गणना करनेसे चित्तमें स्थिरता आती है, और चित्तकी स्थिरता से कषायरूपी अग्नि शान्त होती है और उससे चारित्र निर्मल होता है। गणितानुयोग ही भगवान के केवलज्ञान आदि गुण एवं पर्यायोंकी अनन्तता को प्रगट करता है, ' संख्यातीत गुणों एवं पर्यायों की संख्या का ज्ञान मुश्किल है' यह बात (3) गलितानुयाગણિત અર્થાત્ સંખ્યાને અનુગ તે ગણિતાનુગ કહેવાય છે. જીવ પુદગલ આદિ છ દ્રવ્યની ગણના કરવા માટે, તથા દ્રવ્યના પર્યાની ગણતરી કરવા માટે ગણિતાનગની આવશ્યકતા હોય છે, ગણિતાનુયોગથી જિન ભગવાન દ્વારા કહેલા પદાર્થોની ઠીક ઠીક ગણને થઈ શકતી હેવાથી સમ્યકત્વની શુદ્ધિ થાય છે, અને સમ્યકત્વની શુદ્ધિથી ચારિત્રની શુદ્ધિ થાય છે. પૂર્વાનુપૂર્વ પશ્ચાનુપૂર્વી તથા અનાનુપૂર્વી આદિથી, અને ભંગાળની ગણના કરવાથી ચિત્તમાં સ્થિરતા આવે છે, અને ચિત્તની સ્થિરતાથી કષાયપી અગ્નિ શાંત થાય છે. અને તેથી ચારિત્ર નિર્મલ થાય છે. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ आचारा विज्ञातुं शक्यते, तद्धि गणितानुयोगगम्यम् । भगवद्गुणानुस्मरणेन भगवतः स्तुतिः संपद्यते, तया च दर्शनशुद्धिस्ततश्चारित्रशुद्धिः । प्रव्रज्याप्रदानादयोऽपि शोभनतिथिनक्षत्रादियुक्तसमय एव विधेया इवि तादृशसमयावबोधकतया गणितानुयोगस्यापि चरणमाप्तिं प्रति साधनता सिद्धयति । तथा चास्यापि फलं चारित्ररक्षणमेव । अथ प्रसङ्गाज्ज्योतिष्कविषयः किञ्चित्प्रदर्श्यते— तत्र पूर्व भव्रज्याप्रदानसमयो निर्णीयते— भी संख्या का ज्ञान किये विना जानी नहीं जा सकती है । भगवान के गुणों का वारंवार स्मरण करने से भगवान की स्तुति होती है, उससे दर्शन-शुद्धि होती है, दर्शन-शुद्धि के होने से चारित्र की शुद्धि होती है ॥ शुभ तिथि तथा शुभ नक्षत्र से युक्त समय में ही दीक्षा आदि देना चाहिए, इस प्रकार के समय का बोध कराने वाला होने से गणितानुयोग भी चारित्र की प्राप्ति का कारण है, ऐसा सिद्ध होता है, उससे गणितानुयोग का फल भी चारित्र की रक्षा करना ही है । . यहां प्रसङ्ग होनेसे कुछ ज्योतिष का विषय दिखलाया जाता है दीक्षादानसमयका निर्णय ――― ગણિતાનુયાગ જ ભગવાનના કેવલજ્ઞાન આદિ એ ગુણા એ પ્રમાણે પર્યાયાની અનંતતા પ્રગટ કરે છે. ‘સંખ્યાતીત ગુણ્ણા અને પર્યાયાની સંખ્યા જાણવી અશક્ય છે તે વાત પણ સંખ્યાનુ જ્ઞાન કર્યા વિના જાણી શકાતી નથી, તે ગણિતાનુચાગ દ્વારા જાણી શકાય છે. ભગવાનના ગુણાનું વારંવાર સ્મરણ કરવાથી ભગવાનની સ્તુતિ થાય છે, અને તેથી દર્શન-શુદ્ધિ થઈ શકે છે, અને દન વિશુદ્ધ થવાથી ચારિત્રની શુદ્ધિ થાય છે. શુભ તિથિ તથા શુભ નક્ષત્રથી યુક્ત સમયમાં જ દીક્ષા આદિ આપવી જોઈએ, આ પ્રકારના સમયનું જ્ઞાન કરાવવાવાળા હેાવાથી ગણિતાનુયાગ પણ ચારિત્રની પ્રાપ્તિનુ કારણ છે એમ સિદ્ધ થાય છે. તેથી ગણતાયેાગનુ ફૂલ પણ ચારિત્રની રક્ષા કરવી એજ છે. અહી' પ્રસંગથી થાડા જ્યાતિષના વિષય બતાવવામાં આવે છે— દીક્ષા આપવાના સમયના નિર્ણય Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा (१) तत्र मासविचारः पौष-चैत्र-ज्येष्ठा-षाढ-मासान् विहाय शेषा मासाः प्रशस्ताः । विशेषतो मासफलमाह(१) श्रावणे-शुभम् । (७) माघे-ज्ञानदृद्धिः। (२) भाद्रपदे-शिष्याल्पता। (८) फाल्गुने-सुख-सौभाग्य-यशोवृद्धिः । (३) आश्विने-सुखम् । (९) चैत्रे-अल्पसुखम् । (४) कार्तिके-विद्यावृद्धिः। (१०) वैशाखे-रत्नत्रयलामः । (५) मागशीर्ष-शुभम् । (११) ज्येष्ठे-सामान्यम् , तत्रान्यवलसत्वे शुभम् । (६) पौषे-विद्याद्ययभावः। (१२) आषाढे-गुरुबन्धुना सह प्रेमाल्पता । (१) मास-विचार पौष, चैत्र, ज्येष्ठ और आषाढ मास को छोडकर शेष महीनों मे दीक्षा देना प्रशस्त है। विशेष मास-विचार (१) श्रावण - शुभ। (७) माध - ज्ञान की वृद्धि (२) भाद्रपद - शिष्यों कमी। (८) फाल्गुन-सुख-सौभाग्य और यश की वृद्धि (३) आश्विन – सुख । (९) चैत्र - अल्प सुख (४) कार्तिक - विद्यावृद्धि । (१०) वैशाख - रत्नत्रय का लाभ (५) मार्गशीर्ष - शुभ। (११) ज्येष्ठ – साधारण, यह मास दूसरे नक्षत्र आदि का बल हो तो शुभ है। (६) पौष-विद्यावृद्धि का अभाव। (१२) आषाढ-गुरुभाइयों के साथ प्रेम की कमी । (१) मास-पियारપિષ, ચિત્ર, જેઠ અને આષાઢ માસને ત્યજીને બાકીના બીજા મહિનાઓ દીક્ષા આપવા માટે ઉત્તમ છે. विशेष भास-विचार(१) श्रावधु-शुभ. (७) भाष-ज्ञाननी वृद्धि. (२) माप-शिव्यानी ४भी. (८) शुन-सुम सौभाग्य भने यशनी वृद्धि (3) मासी-सुम. __(6) थैत्र-म६५ सुम. (४) आति-विधावृद्धि. (१०) वैश॥५--रत्नत्रया साल, (५) भार्गशीर्ष-शुम. (૧૧) જેઠ-સાધારણ, આમાસમાં બીજા નક્ષત્ર વગેરેનું બલ હેય તે શુભ છે. (6) पोष-विधानि ममाप, (१२) अषाढ-शु३माध्मानी साथे प्रेमनी भी. , Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसत्रे (२) पक्ष-विचार:कृष्णपक्षे-प्रतिपद आरभ्य पञ्चमी यावत्तिथयः शुभाः । षष्ठीतः समारभ्य दशमी यावत्तिथयो मध्यमाः । एकादशीतः प्रारभ्यामावास्यां यावदशुभाः। ___ शुक्लपक्षे तुमतिपत्तिथितः पञ्चमी पर्यन्तमशुभाः । षष्ठीतो दशमी यावन्मध्यमाः। एकादशीतः समारभ्य पूर्णिमान्तास्तिथयः शुभाः। (४) तिथि-विचार:दीक्षायां प्रतिपत् (१), तृतीया (३), पञ्चमी (५), सप्तमी (७), एकादशी (११), त्रयोदशी (१३) च प्रशस्ता। (२) पक्ष-विचारकृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से लेकर पञ्चमी पर्यन्त तिथिया शुभ है। षष्ठी से लेकर दशमी तक की तिथियां मध्यम है, और एकादशीसे लेकर अमावास्या तक अशुभ तिथियां है। शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से लगाकर पश्चमी तक अशुभ हैं, षष्ठी से दशमी तक मध्यम है और एकादशी से पूर्णिमा तक की तिथियां शुभ है । (३) तिथि-विचार दीक्षा के विषयमें प्रतिपदा, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, एकादशी और त्रयोदशी प्रशस्त है। (२) पक्ष-वियारકૃષ્ણ પક્ષમાં પડવેથી પાંચમ સુધીની તિથિઓ અશુભ છે. છઠ્ઠથી લઈને દશમ સુધીની તિથિઓ મધ્યમ છે, અને એકાદશી–અગીયારસથી લઈને અમાવાસ્યા સુધીની તિથિએ અશુભ છે. શુકલ પક્ષમાં–પડવેથી લઈને પાંચમ સુધીની તિથિઓ અશુભ છે. છઠ્ઠથી દશમી સુધી મધ્યમ છે, અને એકાદશીથી પુનમ સુધીની તિથિએ શુભ છે. (3) तिथि-विचारદીક્ષાના વિષયમાં પડવે, ત્રીજ, પાંચમ, સાતમ, એકાદશી અને તેરસ, આ तिथिय। त्तम छ. . . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा नव तिथयश्च वर्जनीयाः(१) शुक्ला चतुर्दशी (२) अमावास्या (३) यस्यां तिथौ रविसंक्रमणं, सा। (४) द्वितीया, (५) चतुर्थी, (६) षष्ठी, (७) अष्टमी, (८) नवमी, (९) द्वादशी। - (४) वार-विचार:रवि - चन्द्र - बुध - गुरु - वाराः प्रशस्ताः (५) नक्षत्र-विचार:दीक्षायां त्रयोदश नक्षत्राणि प्रशस्तानि- (१) अश्विनी, (२) रोहिणी, (३) मृगशिरः, (४) पुष्यम् , (५) उत्तरफाल्गुनी, (६) हस्तः (७) अनुराधा, (८) ज्येष्ठा, (९) उत्तराषाढा , (१०) अभिजित् , (११) श्रवणम् , (१२) उत्तरभाद्रपदा, (१३) रेवती। नौ तिथियां त्याज्य हैं- । (१)-शुक्ला चतुर्दशी, (२)-अमावास्या, (३)-जिस तिथि में सूर्य-संक्रमण हो वह, (४)-द्वितीया (५)-चतुर्थी (६)-षष्ठी (७)-अष्टमी (८)-नवमी (९)-द्वादशी । (४) कार-विचाररवि, सोम, बुध, गुरु, और शनिवार प्रशस्त है। . (५) नक्षत्र-विचार- . दीक्षा के विषय में तेरह १३ नक्षत्र प्रशस्त हैं। (१)-अश्विनी, (२)-रोहिणी, (३)मृगशीर्ष, (४)-पुष्य. (५)-उत्तराफाल्गुनी (६)-हस्त, (७)-अनुराधा, (८)-ज्येष्ठा, (९)उत्तराषाढा, (१०)-अभिजित् , (११)-श्रवण, (१२)-उत्तराभाद्रपद, (१६)-रेवती । નવ તિથિએ ત્યાજ્ય છે– (१) शुस यतुहशी, (२) अभावास्या (3)२ तिथिमा सूर्य-समय थाय ते, (४) द्वितीया, (५) यतुथी', (6) पही, (७) मष्टमी (८) नqभी () बाशी (४) पार विद्यार२वि, सोम, मुध, शु३ मने शनिवार उत्तम छ, (५) नक्षत्र-वियारदीक्षाना विषयमा तर नक्षत्र 'उत्तम छ- (१) मश्विनी, (२) शहिए, (3) भृगशीष, (४) पुण्य, (५) उत्तराशुनी, (६) ७२त, (७) मनुराधा (८) न्याहा (6) उत्तराषाढा, (१०) ममिनित (११) श्रवार (१२) उत्तरभाद्रपद, (१३) रेवती. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - आचारागसूत्रे नक्षत्रेषु सप्त दोषाः सन्ति, यथा(१) संध्यागतम्-यत्र नक्षत्रे सूर्योऽनन्तरं स्थास्यति तादृशं नक्षत्रम् । यथा इस्ते रविवर्त्तते चेत् तदा दैनिकं चित्रानक्षत्रं संध्यागतं बोध्यम् । (२) रविगतम्- यत्र रविस्तिष्ठति तादृशं दैनिकं नक्षत्रं रविंगतं बोध्यम् । (३) दुर्गतम्-यत्रोन्मार्गगामी-वक्री ग्रहो भवति, तादृशं नक्षत्रम् । (४) सग्रहम्-यत्र क्रूरो ग्रहस्तिष्ठति, तादृशं नक्षत्रम् । (५) विलम्बितम्-मूर्येण परिभुज्य मुक्तं नक्षत्रम् । (६) राहुगतम्-यत्र चन्द्र-सूर्योपरागः संजातस्तादृशं नक्षत्रम् । ईदृशे नक्षत्रे षण्मासान् यावत् प्रव्रज्या न देया। नक्षत्रों में सात दोष (१) सन्ध्यागत-जिस नक्षत्र में सूर्य आगे जाने वाला है वह नक्षत्र । जैसे-अगर हस्त नक्षत्र में सूर्य हो तो दैनिक चित्रा नक्षत्र सन्ध्यागत कहलाता है। (२) रविगत-जिस नक्षत्र में रवि हो, वह दैनिक नक्षत्र रविगत जानना चाहिए। (३) दुर्गत-जिस में उन्मार्गगामी-चक्र ग्रह हो वह नक्षत्र दुर्गत कहलाता है। (४) सग्रह-जिस नक्षत्र में क्रूर ग्रह हो। (५) विलम्बित-सूर्य-द्वारा भोग कर छोडा हुआ नक्षत्र । (६) राहुगत-जिस नक्षत्र मे चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण हुआ हो। ऐसे नक्षत्र में । छह मास तक दीक्षा देना वर्जनीय है । नक्षत्रमा सात १५(૧) સંધ્યાગત–જે નક્ષત્રમાં સૂર્ય આગળ આવવાવાળો છે તે નક્ષત્ર, જેવી રીતે કે હસ્ત નક્ષત્રમાં સૂર્ય હોય તે દૈનિક ચિત્રા નક્ષત્ર સંધ્યાગત કહેવાય છે. (૨) રવિગત-જે નક્ષત્રમાં રવિ હોય તે દૈનિક નક્ષત્ર રવિગત જાણવું જોઈએ. (3) हुगत-२मा भागभी -१४-ड डाय ते नक्षत्र gra उपाय छे. (४) सय- नक्षत्रमा २ सय. (५) विसस्मित-सूर्य द्वारा लीन छुटु ४२॥ये नक्षत्र. (૬) હુગતજે નક્ષત્રમાં ચંદ્રગ્રહણ અથવા સૂર્યગ્રહણ થયું હોય. એવા નક્ષત્રમાં છ માસ સુધી દીક્ષા આપવી વજનીય છે. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा (७) ग्रहभिन्नम्-यत्र त्रयो ग्रहास्तिष्ठन्ति तादृशं नक्षत्रम् । (६) योग-विचार:योगास्तु नाम्नैव शुभाशुभफलाः, यथा-विष्कम्भादिषु दैनिकयोगेषु प्रीत्यादयः शुभफलाः, विष्कम्भादयोऽशुभफलाः। आनन्दादिषु सांयोगिकेषुवारनक्षत्रसंयोगजनितेषु योगेषु आनन्दादयः शुभाः, कालदण्डादयोऽशुभाः। (७) अथ करण-विचार:करणानि एकादश सन्ति; यथा-(१) बवम् , (२) बालवम् , (३) कौलवम् , • (७) ग्रह-भिन्नजिस में तीन ग्रह हो ऐसा नक्षत्र । (६) योग-विचारयोगों के नामसे ही शुभ अशुभ फल प्रतीत हो जाता है। जैसे-विष्कम्भ, आदि दैनिक योगो में से प्रीति आदि योग शुभफल वाले, और विष्कम्भ आदि योग अशुभ. फल वाले हैं। आनन्द आदि सायोगिक (वार नक्षत्र के संयोग से बनने वाले) योगो में से आनन्द आदि । योग शुभफलदाता है, और कालदण्ड आदि अशुभफलदायक हैं। (७) करण-विचार करण ११ ग्यारह होते है, जैसे---(१) बव, - (२) बालव, (३) कौलव, (७) अभिन्न-भ ऋय अड हाय, येवु नक्षत्र () यार-विचारચોગના નામથી જ શુભ-અશુભ ફળની પ્રતીતિ થઈ જાય છે. જેમકે –વિષ્કભ આદિ દૈનિક રોગોમાંથી પ્રીતિ આદિ શુભ ફળવાળાં છે, અને વિષ્કભ આદિ રોગ તે અશુભ ફળ આપનારા છે. આનન્દ આદિક સાંગિક (વાર-નક્ષત્રના સંચોગથી બનવાવાળા) ગેમાં આનન્દ આદિ ચેોગ શુભ ફળ દેનારા છે, અને કાળદંડ આદિ અશુભ ફળ આપનારા છે. (७) ४२११-वियार-- . . _.. ४२७ मनिमार साय छे. (१) म५ (२) मास (3) डोस (४). वायन प्र. आ.-६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ आचारागसूत्रे (४) स्त्रीविलोचनम् , इदं तैतिलमिति, केचिदाहुः, (५) गरादि, इदं गरमित्याहुरन्ये, (६) वणिजम् , '(७) विष्टिः, (८) शकुनिः, (९) चतुष्पदं, (१०) नागम् , (११) किंस्तुघ्नम् , इति । अत्र ववादिविष्टयन्तानि सप्त करणानि चराणि, शकुन्यादीनि चत्वारि स्थिराणि वेदितव्यानि।" ववादिविष्टयन्तानां सप्तानां कस्यांश्चिदेकस्यां तिथौ नियमतः स्थित्यभावात्तानि सप्त चराणि, शकुन्यादीनां कृष्णपक्षीयचतुर्दश्यमावस्याशुक्लप्रतिपत्तिथिषु नियत-- स्थित्या तानि चत्वारि स्थिराणि प्रोच्यन्ते । स्पष्टं चेदं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ सप्तमवक्षस्कारे । उक्तञ्च तत्र-"एएसिणं भंते ! एकारसण्डं करणाणं कइ करणा- चरा ? (४) स्त्रीविलोचन (कोई कोई इसे 'तैतिल' भी नहते हैं), (५) गरादि ('गर' नाम भी है), (६) वणिज, (७) विष्टि, (८) शकुनि, (९) चतुष्पद, (१०) नाग, (११) किंस्तुघ्न । इन ग्यारह करणो में बव से लेकर विष्टि तक सात करण चर हैं, और अन्त के शकुनि आदि चार स्थिर हैं। .. वव से लेकर विष्टि तक सात करण किसी एक तिथि में नियम से नहीं रहते इस कारण ये चर कहलाते हैं, शकुनि आदि अन्तिम चार करण कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी, अमावास्या तथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि में नियम से होते है, अत एव ये स्थिर कहलाते है। इस विषय का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सातवें वक्षस्कार में स्पष्ट रूप से विवेचन किया ( मेने तति' ety ४१ छ ) (4) १ (तनु २' नाम ५ छ) । (६) पशु० (७) विष्ट (८) शकुनि (6) यतुभ्यः (१०) नारा (११)स्तुध्न. આ અગિયાર કરણોમાં બવથી લઈને વિષ્ટિ સુધી સાત કરણ ચર છે; અને છેલ્લા શકુનિ આદિ ચાર સ્થિર છે. - બવથી લઈને વિષ્ટિ સુધીના સાત કરણ કોઈ એક તિથિમા નિયમિત રહેતા નથી તે કારણથી તેને ચર કહે છે, શકુનિ આદિ છેલ્લાં ચાર, કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદસ, અમાવાસ્યા તથા શુકલ પક્ષની પ્રતિયદા-પડવે તિથિમાં નિયમિત રહે છે એટલે તે સ્થિર કહેવાય છે. આ વિષયનું વિવેચન જંબુઢીપપ્રાપ્તિના સાતમા વક્ષસ્કારમાં સ્પષ્ટ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा कइ करणा स्थिरा पण्णत्ता?, गोयमा सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता।" इत्यादि। तत्र दिवाशब्देन तिथेः पूर्वाद्धभागः, रात्रिशब्देन तिथेत्तरार्द्धभागो गम्यते। .. एकादशम करणेसु बवम् , बालवम् , कौलवम् , वणिजम् , एतानि चत्वारि शुभफलानि । विप्टिकरणस्य नामान्तरं भद्रा । इयं दीक्षादौ वर्जनीया । उक्तञ्च "यदि भद्राकृतं कार्य, प्रमादेनापि सिद्धयति । गया है । वहां कहा है - "हे भदन्त ! इन ग्यारह करणों में कितने करण चर और कितने करण स्थिर · कहे गये है ?, हे गौतम ! सात करण चर और चार करण स्थिर कहे गये है ।" इत्यादि ।, : .. यहां दिन शब्द का अर्थ है-तिथिका पूर्वार्ध भाग और रात्रि शब्द का अर्थ है-- तिथि का उत्तरार्ध भाग। इन ग्यारह करणों में से बव, बालव, कौलव, और वणिज, ये चार करण शुभ फल दायक है। विष्टि करण का दूसरा नाम भद्रा, है । दीक्षा आदि कार्यों में यह वर्जनीय है। कहा भी है --~- पथी रे छ, त्यो यु छ: હે ભદત. આ અગ્યાર કરણામાં કેટલા કરણ ચર અને કેટલા કરણ સ્થર કહેવામાં આવ્યા છે ?, હે ગૌતમ! સાત કરણ ચર અને ચાર કરણ સ્થિર 'पामा माया छ” त्याहि. આ સ્થળે દિન શબ્દનો અર્થ છે કે તિથિને પૂર્વાર્ધ ભાગ, અને રાત્રી બ્દને અર્થ છે કે-તિથિને ઉત્તરાર્ધ ભાગ. કે એ અગિયાર કરણામાંથી આવ, બાલવ, કૌલવ અને વાણિજ, આ ચાર કરણ ભફલદાયક છે. : વિષ્ટિકરણનું બીજું નામ ભદ્રા છે. દીક્ષા આદિ કાર્યોમાં તે ભદ્રા ત્યજવા श्य छे. यु ५५ छ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्ग सूत्रे माते तु षोडशे मासे, समूलं तद्विनश्यति ॥ १ ॥” इति । शुक्लपक्षे भद्रा चतुर्थ्यामेकादश्यां च तिथिपरार्द्धभागस्थायिनी, अष्टम्यां पूर्णिमायां च तिथिपूर्वार्द्धभागस्थायिनी भवति, कृष्णपक्षे तु सा तृतीयायां दशम्यां च तिथिपरार्द्धभागस्थायिनी, सप्तम्यां चतुर्दश्यां च तिथिपूर्वार्द्धभागस्थायिनी भवति । × I तत्र तिथिपश्चार्द्धभागस्थायिनी भद्रा दिवस व्याप्नोति, तथा तिथिपूवार्द्धभागस्थायिनी रात्रि व्याप्नोति चेत्तदा न दोषावहा । भद्रायात्रिंशर्द्धटिकामानेन पश्चिमं घटिकात्रयं पुच्छमित्यभिधीयते । तद् भद्रापुच्छं शुभम् । “भद्रा करण में किया हुआ कार्य प्रथम तो सिद्ध ही नहीं होता, कदाचित् सिद्ध भी होनाय तो सोलहवा महीना आने पर उसका समूल विनाश हो जाता है" ॥१॥ भद्रा शुक्लपक्ष में चौथ तथा एकादशी तिथि के उत्तरार्ध में रहती है, और अष्टमी तथा पूर्णिमा के दिन तिथि के पूर्वार्ध में रहती है । कृष्णपक्ष में तृतीया और दशमी के दिन तिथि के उत्तरार्ध में और सप्तमी एवं चतुर्दशी को तिथि के पूर्वार्ध में रहती है । तिथि के उत्तरार्ध में रहने वाली मद्रा दिनको व्याप्त करती हो और पूवार्धभाग में रहने वाली रात्रिको व्याप्त करती हो तो कोई दोष नहीं है । तीस घडीकी भद्रा की अन्तिम तीन घडियाँ पूंछ कहलाती है । भद्रा की यह पूंछ शुभ है । ८८ ભદ્રા કરણમા કરેલુ' કામ પ્રથમ તા સિદ્ધ થતુ' નથી, કદાચિત્ સિદ્ધ પણ થાય તે સોળમે મહિના આવતાં તેને સમૂળ વિનાશ થાય છે.’” ॥ ૧ ॥ ભદ્રા શુકલ પક્ષમાં ચેાથ તથા એકાદશી તિથિના ઉત્તરાર્ધમાં રહે છે, અને આઠમ તથા પૂનમના દિવસે તિથિના પૂર્જામાં રહે છે. કૃષ્ણપક્ષમાં ત્રીજ અને દશમીના દિન તિથિના ઉત્તરાર્ધમાં અને સાતમ તથા ચૌદશના ટ્વિન તિથિના પૂર્વાર્ધમાં રહે છે. તિથિના ઉત્તરાર્ધમાં રહેવાવાળી ભદ્રા દિવસને વ્યાપ્ત કરતી હાય, અને પૂર્વાર્ધ ભાગમાં રહેવાવાળી રાત્રીને વ્યાપ્ત કરતી હાય તેા કાઈ દોષ નથી. ત્રીશ ઘડીની ભદ્રાની છેલ્લી ત્રણ ઘડીએ પૂછ કહેવાય છે; અને ભદ્રાની તે પૂંછ શુભ છે. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा ४५ शकुनि - चतुष्पद - नाग - किंस्तुघ्ननामानि करणानि तु कृष्णचतुर्दश्यमावास्या - शुक्लप्रतिपद्योगभावित्वात्याज्यानि । अवशिष्टे द्वे करणे स्त्रीविलोचनगरादिसव्ज्ञके सामान्ये, इति साम्प्रदायिकाः । यत्तु गणिविद्याप्रकीर्णककृतश्चतुष्पदं नागं चेति द्वे करणे निष्क्रमणे प्रशंसन्ति, यथा - " नागे चउप्पर यावि, सेहनिक्खमणं करे " इति । तन समीचीनम् निष्क्रमणेऽमावास्यायाः प्रतिषिद्धत्वेन नियमतस्तद्योगभाविनोस्तयोः प्राशस्त्याऽसंभवात् । 1 शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न नामक करण कृष्ण पक्षको चतुर्दशी, अमावास्या, शुक्लपक्षकी प्रतिपदा के योगसे भावित होने के कारण त्याज्य हो जाते है । शेष दो करण स्त्रीविलोचन और गरादि नामक साधारण है । परम्परा को जानने वालों का यह मत है । T गणिविद्याप्रकीर्णककारने दीक्षा के विषय में चतुष्पद और नाग नामक दो करण प्रशस्त माने हैं, उन्हों ने कहा है कि- "नागे चउप्पए यावि सेहनिकखमणं करे" अर्थात् नाग और चतुष्पद नक्षत्र में निष्क्रमण करना चाहिये, अर्थात् शिष्यको दीक्षा देना चाहिए, उनका यह कथन समीचीन नहीं है, कारण यह है कि निष्क्रमण में अमावास्या निषिद्ध मानी गई है, इसीलिये अमावास्या के योग से भावित उक्त दोनों करणों का प्रशस्त होना है । असम्भव શકુનિ, ચતુષ્પદ, નાગ અને કિંતુઘ્ન નામના કરશુ કૃષ્ણ પક્ષની ચૌદશ, અમાવાસ્યા, શુકલ પક્ષના પડવાના યાગથી ભાવિત હાવાથી ત્યાજ્ય બની જાય છે. બાકી એ કરણ સ્ત્રીવિલાચન અને ગર્દિ નામના સાધારણ છે. પરમ્પરા જાણવાવાળાના આ પ્રમાણે મત છે. ગણિવિદ્યાપ્રકીર્ણ કકારે દીક્ષાના વિષયમાં ચતુષ્પદ અને નાગ નામના એ ४२खाने उत्तम मान्या छे. ते उछे है:- “ नागे चउप्पर यावि सेहनिक्खमणं करे " નાગ અને ચતુષ્પદ નક્ષત્રમાં નિષ્કમણુ કરવુ જોઈએ, અર્થાત્ શિષ્યને દીક્ષા આપવી लेडो, तेसनु या उथन मरामर नथी, अय मे छे है-निष्कुभाशुभां दीक्षाभांઅમાવાસ્યા નિષિદ્ધ માની છે, એટલા માટે અમાવાસ્યાના ચેગથી ભાવિત ઉપર કહેલા અને કરણા ઉત્તમ હાય તે વાત અસંભવ છે. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ - आचाराङ्गसूत्रे अथ लग्नविचार: निष्क्रमणे मिथुन - सिंह - कन्या - वृश्चिक - धनु-मकर - कुम्भ - मीनानि लगानि शुभानि | अन्यानि चत्वारि वर्जनीयानि । (९) ग्रहविचार: दीक्षालग्नेशनचरं मध्यमबलं, गुरु बलीयांस, शुक्रं बलहीनं विधाय दीक्षा देया । द्वितीये, पञ्चमे षष्ठे, सप्तमे, एकादशे स्थाने शनिर्मध्यमवली भवति । त्रिकोणे केन्द्रे एकादशे च स्थानेऽवस्थितो गुरुर्बलीयान् भवति । तृतीये, षष्ठे, नवमे, द्वादशे च स्थाने स्थितः शुक्रो बलहीनो भवति, अत एवं शुक्रास्तेऽपि दीक्षा ग्राह्येति संप्रदायविदः | (८) लग्न- विचार - दीक्षा अङ्गीकार करने में - मिथुन, सिंह, कन्या, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन, लग्न शुभ है। शेष चार वर्जनीय है । (९) ग्रह - विचार -- दीक्षालग्न में शनैश्चर मध्यम बल वाला, गुरु बलशाली और शुक्र बलहीन हो तो दीक्षा देनी चाहिए । दूसरे पांचवे, छठे, सातवे और ग्यारहवें स्थान में शनि मध्यम बल वाला होता है । त्रिकोण में केन्द्र में और ग्यारवे स्थान में रहा हुआ गुरु ( बृहस्पति ) बलशाली समझा जाता है । तीसरे, छठे, नौवें और ग्यारहवें स्थान में स्थित शुक्र निर्बल होता है । अत एव शुक्र का अस्त होने पर भी दीक्षा ग्रहण करना प्रशस्त माना गया है, ऐसा कई आचायों का कथन है T (८) लग्न-विचार दीक्षा अंगी४२ ४२वामां मिथुन, सिंह, उन्या, वृश्चि४, धनु, भ४२, लमने भीन-सग्न शुल छे. जाडीना यार त्यान्य छे. (९) श्रह-विचार દીક્ષાલગ્નમાં શનેશ્ર્વર મધ્યમ ખળવાળો ગુરૂ ખલશાળી અને શુક્ર ખલહીન હાય તેા દીક્ષા આપવી જોઇએ, ખીજા, પાંચમા, છઠ્ઠા, સાતમા અને અગિરમા સ્થાનમાં શનિ મધ્યમ અળવાળો હોય છે, ત્રિાણુમાં કેન્દ્રમાં અને અગિરમા સ્થાનમાં રહેલા ગુરુ (બૃહસ્પતિ) ખળશાલી સમજવામાં આવે છે, Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा ४७ चन्द्रतो लग्नतश्च सप्तमे स्थाने रविकुजभार्गवास्त्याज्याः, तत्र त्रयाणां संगमे दीक्षणीयः प्रतिपाती भवति । एषु त्रिषु द्वावन्यतमो वा तत्र तिष्ठति चेत्तदा कुशील: क्रोधादिवशगश्च भवति । यदि सप्तमं स्थानं रिक्तं, चन्द्रश्च ग्रहान्तरवर्जितस्तदा दीक्षा शुभा । यदि चन्द्रस्य गुरु-बुधयोरन्यतरेण संगमस्तर्हि शुभम् । (१०) अथ त्वरितकर्तव्यदीक्षासमयनिरूपणम् । (क) सिद्धच्छायालनम् । चन्द्रमासे तथा लग्न से सातवें स्थान पर सूर्य, कुज (मङ्गल) भार्गव, (शुक्र) हों तोत्याज्य है। अगर इन तीनों का सङ्गम हो तो दीक्षा लेने वाला प्रतिपाती (-पडिवाई ) हो जाता है। अगर इन तीनों में से दो अथवा कोई भी एक वहां हो तो दीक्षा लेने वाला कुशील और क्रोध आदि दुर्गुणों का धारक होता है । अगर चन्द्र दूसरे ग्रहो से वर्जित हो तो दीक्षा शुभ समझनी चाहिए । अगर गुरु और बुध में से किसी एक के साथ चन्द्रमाका सङ्गम हो तो शुभ है। (१०) तुरन्त दीक्षा देनेका समय (क) सिद्धच्छाया-लग्नત્રીજા, છઠા, નવમા અને અગિઆરમા સ્થાનમાં સ્થિત શુક નિર્બલ હોય છે, તેથી કરી શુક્ર અસ્ત હોય તે પણ દીક્ષા ગ્રહણ કરવી તે ઉત્તમ માનવામાં આવ્યું છે. એ કોઈ આચાર્યને મત છે. ચંદ્રમાથી તથા લગ્નથી સાતમા સ્થાનમાં સૂર્ય, મંગલ શુક્ર હોય તે ત્યાજ્ય છે. અથવા એ ત્રણેયને સંગમ હોય તે દીક્ષા લેનાર પ્રતિપાતી (પડિવાઈ) થઈ જાય છે, અથવા એ ત્રણમાંથી બે અથવા કઈ પણ એક ત્યાં હોય તે દીક્ષા લેવાવાળો કુશીલ અને ક્રોધ આદિ દુર્ગને ધારણ કરનાર બને છે, અથવા ચન્દ્ર તથા લગ્નથી સાતમું સ્થાન ખાલી હોય અથવા ચંદ્રમાં બીજા ગ્રહથી વર્જિત હોય તો દીક્ષા શુભ સમજવી જોઈએ, અથવા ગુરૂ અને બુધમાંથી કઈ પણ એકની સાથે ચંદ્રને સંગમ હોય તો શુભ છે. (१०) तुरतीक्षा ५ समय (क) सिद्धछायासन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ आचारागसूत्रे शुभतिथिवारनक्षत्रलग्नादीनामभावे त्वरितकर्त्तव्येषु कार्येषु सिद्धच्छायालग्नमुपादेयम् ।यदि समतलभूमौ स्वशरीरच्छाया चन्द्र-शुक्र-शनि-वासरेषु सार्दाऽष्टपदप्रमाणा, भौमे नवपदप्रमाणा, बुधेऽष्टपदप्रमाणा, खावेकादशपदप्रमाणा, गुरौ सप्तपदप्रमाणा भवेत्तदा सा सिद्धच्छायाख्यं लग्नं प्रोच्यते । तत्र दीक्षादिशुभकार्य विधेयम् । अस्मिन् सिद्धच्छायालग्ने संपाप्ते तिथिवारनक्षत्रभद्रालग्नादिचिन्तनमनावश्यकम् । उक्तश्च शुभ तिथि, वार; नक्षत्र और लग्न आदि के अभाव में तुरन्त करने योग्य कार्यों में सिद्धच्छायालग्न ही उपादेय है । समतल भूमि पर अपने शरीर की छाया सोमवार, शुक्रवार, और शनिवार, के दिन साढे आठ पैर बराबर हो, मङ्गलवार को नौ पैर बराबर हो, वुधवार को आठ पद प्रमाण हो, रविवार को ग्यारह पढ प्रमाण हो, और गुरुवार को सात पैर छाया हो तो उसे सिद्धच्छाया लग्न कहते है, उस में दीक्षा आदि शुभ कार्य किये जा सकते है। यह सिद्धच्छायालग्न प्राप्त हो तो तिथि, वार, नक्षत्र, भद्रा और लग्न आदि का विचार करने की आवश्यकता नहीं है। कहा भी हे -- શુભ તિથિ, વાર, નક્ષત્ર અને લગ્ન આદિના અભાવમાં તુરત કરવા યોગ્ય કાર્યોમાં સિદ્ધ છાયાલગ્ન જ ગ્રહણ કરવા ચગ્ય છે. સમતલ ભૂમિ ઉપર પિતાના શરીરની છાયા, સેમવાર શુકવાર અને શનિવારના દિવસે સાડા આઠ પગ પ્રમાણ હય, મંગળવારના દિવસે નવ પગ પ્રમાણ હોય, બુધવારે આઠ પગ પ્રમાણુ, રવિવારે અગિઆર પગ, ગુરૂવારે સાત પગલાં છાયા હોય તે તેને સિદ્ધ છાયાલન કહે છે. આ લગ્નમાં દીક્ષા આદિ શુભ કાર્ય કરી શકાય છે. આ સિદ્વછાયા લગ્ન પ્રાપ્ત હોય તે તિથિ, વાર, નક્ષત્ર, ભદ્રા અને લગ્ન આદિને વિચાર કરવાની આવશ્યકતા નથી. કહ્યું પણ છે– Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा नक्षत्राणि तियिारा-स्ताराचन्द्रबलं ग्रहाः । दुष्टान्यपि शुभं भावं, भजन्ते सिद्धछायया ॥१॥ न तिथिर्न च नक्षत्रं, न वारा न च चन्द्रमाः। ग्रहा नोपग्रहाश्चैव, छायालग्नं प्रशस्यते ॥२॥ न योगिनी न विष्टिश्च, न शुलं न च चन्द्रमाः । एषा वज्रमयी सिद्धि,-रभेद्या त्रिदशैरपि ॥३॥ "सिद्धच्छाया लग्न हो तो दूषित तिथि नक्षत्र, वार, तारा, चन्द्र तथा दूषित ग्रह भी शुभफलदायक हो जाते है, अर्थात् सिद्वच्छायालग्न की विद्यमानता में नक्षत्र आदि का दोश नहीं माना जाता हैं ॥ १॥ एक मात्र छाया लग्न ही उत्तम है, उसकी समानता न तिथि कर सकती है, न नक्षत्र कर सकता है, न वार कर सकता है, न चन्द्रमा, न ग्रह कर सकने हैं और न उपग्नह ही कर सकते हैं ।। २॥ योगिनी उसके सामने कुछ नहीं है, विष्टि (भद्रा) कोई चीज नहीं है, शूल और चन्द्रमा भी उस की विद्यमानता में कुछ भी नहीं बिगाड सकता । सिद्धच्छाया लग्न एक ऐसी बज्रमयी सिद्धि है, जिसे देवता भी नहीं भेद सकते ॥३॥ સિદ્ધ છાયા લગ્ન હોય તે દૂષિત નક્ષત્ર, તિથિ, વાર, તારા, ચંદ્ર તથા દૂષિત ગ્રહ પણ શુભ થઈ જાય છે, અર્થાત્ સિદ્ધછાયાલનની હાજરીમાં નક્ષત્ર माहिना हैष मानवाम मावत नथी. ॥१॥" એક માત્ર છાયા લગ્ન જ ઉત્તમ છે. તેને મુકાબલે તિથિ, નક્ષત્ર, વાર, ચંદ્રમ ગ્રહ અને ઉપગ્રહ કઈ પણ કરી શકતા નથી. તે ૨ | ચોગિનીનું તેના સામે બળ નથી. વિષ્ટિનું પણ બળ નથી, શૂળ અને ચન્દ્ર પણ છાયાલગ્નની હાજરીમાં કોઈ પ્રકારે કાંઈ પણ બગાડી શકતા નથી. સિદ્ધછાયાલન એક એવી વામચી સિદ્ધિ છે જેને દેવતા પણ ભેદી શકતા નથી. કા?” प्र. आ-७ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ' आचागङ्गसूत्रे (ख) शङ्कच्छायालग्नम्द्वादशाङ्गलपरिमितशङ्को छाया रवि-सोम-भौम-बुध-गुरु-शुक्र-शनि-वासरेषु क्रमेण विंशति-पोडश-पञ्चदश-चतुर्दश-त्रयोदश-द्वादश-द्वादशाङ्गलपरिमिता, तथा शनिवासरे द्वादशाङ्गलप्रमाणा चेत्तर्हि सा शङ्कच्छायाख्यं लग्नं प्रोच्यते । तत्र दीक्षादि कार्य शुभम् । (ग) अत्युत्कण्ठितयोग्यशिष्याथै दीक्षासमयःविषयाटवीदावदहनज्वालामालाकलितस्वान्तोऽनन्तजन्मजरामरणादिभयोद्विग्निः समन्ततः प्रज्वलिते समनि सुप्तमिवादीप्तप्रदीप्तसंसारान्तः सरन्तमात्मनं रक्षितुमुपायान्तरमनवलोक्य प्रव्रज्यामात्रशरणदर्शी तीवैराग्यप्रभाभासमानः प्रतिरोमोज्ज्वलिता ___(ख) शङ्कुच्छायालग्नबारह अङ्गल लम्बी कीली की परछाई अगर रविवार को बीस अंगुल, सोमवार को सोलह अंगुल, मंगलवार को पन्द्रह अंगुल, बुधवार को चौदह अंगुल, गुरुवार को तेरह अंगुल, शुक्रवार को बारह अंगुल, तथा शनिवार को भी बारह अंगुल हो उसे शङ्कच्छाया लग्न कहते हैं । इस लग्न में दीक्षा आदि कार्य शुभ हैं। - (ग) तीव्र उत्कण्ठा वाले दीक्षार्थी का दीक्षासमय विषयवासना की विषय अटवी में व्याप्त दावानल की विकट ज्वालाओं से जिसका अन्तःकरण झुलस गया है, और जो अनन्त जन्म जरा मरण आदि के भय से उद्विग्न है, चारों ओर से मकान में आग लग जाने पर जिस का सर्वस्व भस्म हो गया है ऐसे पुरुष की भांति (ख) शछायासनબાર આગળ લાંબી ખીલીને પડછાયો રવિવારે વિશ આંગળ, સેમવારે સળ આંગળ, મંગળવારે પંદર આંગળ, બુધવારે ચૌદ આંગળ, ગુરૂવારે તેર આંગળ, શુક્રવારે બાર આંગળ, તથા શનિવારે પણ બાર આંગળ હોય તો તેને શંકુછાયાલગ્ન કહે છે. તે લગ્નમાં દીક્ષા આદિ કાર્ય શુભ છે. (ग) तीसराहीक्षाथीना समयવિષયવાસનાની વિષમ અટવી (વન)માં વ્યાપ્ત દાવાનલની વિકટ જવાલાએથી જેનું અંતઃકરણ બળી ગયું છે, અને જે અનન્ત જન્મ, જરા, મરણ વગેરેના ભયથી ચિંતાતુર છે, ચારે બાજુથી મકાનમાં આગ લાગવાથી જેનું સર્વસ્વ ભસ્મ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा नलवनितान्तमातुरः सन् निस्तरङ्गमहोदधिकल्पं शान्तरसार्णवं द्रव्यक्षेत्रकालभावविदं निग्रन्थप्रवचनमर्मज्ञं गुरुं दीक्षादानार्थं प्रार्थयते तदा तस्मै तदानीमेव प्रव्रज्याप्रदानं शुभम् , नहि तत्र तिथिवारनक्षत्रादीनां विचारापेक्षा। (११) अथ केशलुञ्चनम्दीक्षाग्रहणानन्तरं यदा कदापि केशलुश्चनं कर्तुमिच्छेत्तदा शनिमङ्गल दिवसौ त्याज्यौ, कृत्तिका, विशाखा, मघा, भरणी, एतानि चत्वारि नक्षत्राणि च वर्जनीयानि । आत्मरक्षा का अन्य उपाय न देखकर एकमात्र दीक्षा को ही शरण समझने वाला तीव्र वैराग्य की प्रभा से चमकता हुआ मोक्षाभिलाषी शिष्य, रोम-रोम में जिस के आग लगी हो ऐसे पुरष की भांति अत्यन्त आतुर होकर तरङ्गरहित समुद्र के समान, शान्त रस के सागर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञाता और निर्ग्रन्थ प्रवचन के मर्मज्ञ गुरुसे दीक्षा देने के लिये प्रार्थना करे तो उसको उसी समय दीक्षा दे देना शुभ है, ऐसे प्रसंग पर तिथि, वार, नक्षत्र आदि के विचार की आवश्यकता नहीं है। (११) केशलोचदीक्षा धारण करने के पश्चात् केशलोच करने में शनिवार और मंगल वार त्यज्य है. तथा कृत्तिका, विशाखा. मघा, और भरणी, ये चार नक्षत्र वर्जनीय है। થઈ ગયું છે એવા પુરૂષની જેમ, આત્મરક્ષાને અન્ય કેઈ ઉપાય નહિ દેખવાથી એક માત્ર દીક્ષાને જ શરણ–આશ્રય સમજવાવાળા, તીવ્ર વૈરાગ્યની પ્રભા–તેજથી ચમકતે મેક્ષાભિલાષી શિષ્ય રેમ-રોમમાં જેને અગ્નિ લાગી છે એવા પુરુષની જેમ અત્યન્ત આતુર બનીને તરંગરહિત સમુદ્ર પ્રમાણે શાન્ત રસના સાગર, દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવના જાણનાર અને નિગ્રંથ પ્રવચનના મર્મજ્ઞ ગુરથી દીક્ષા દેવા માટે પ્રાર્થના કરે, તો તેને તેજ વખતે દીક્ષા આપવી શુભ છે એવા प्रसगे तिथि, वार, नक्षत्र, माहिना विया२ ४२वानी ४३२ नथी. ... (११) शसाय - દીક્ષા ધારણ કર્યા પછી કેશલેચ કરવામાં શનિવાર અને મંગળવાર ત્યાજ્ય છે तथा त्तिा, विमा, मघा, मने सरणी, मा २ नक्षत्र त्या योग्य छ । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आचाराङ्गसूत्रे (१२) अथ नवदीक्षितस्य प्रथमगोचरीविचारःप्रथमगोचरीविषये तीक्ष्णोग्रमिश्रनक्षत्राणि शनिमङ्गलदिवसौ च वर्जयेत् । आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा, मूलम्, एतानि चत्वारि तीक्ष्णनक्षत्राणि । भरणी, पूर्वात्रयं, मघा, एतानि पञ्चग्रनक्षाणि । कृत्तिका, विशाखा, इमे द्वे मिश्रनक्षत्रे | रिक्ताऽमावास्याक्षयतिथयस्त्याज्याः । शनिमङ्गलवारयोगे रिक्ताऽपि प्रशस्ता विज्ञेया । (१२) नव दीक्षित की प्रथम गोचरी पहली बार गोचरी के विषय में तीक्ष्ण उम्र और मिश्र नक्षत्र एवं शनि तथा मङ्गल बार व्याज्य है । आर्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा और मूल, ये चार नक्षत्र तीक्ष्ण हैं । भरणी, पूर्वात्रय - (पूर्वाषाढा पूर्वभाद्रपदा और पूर्वाफाल्गुनी ) और मघा, ये पाँच उम्र नक्षत्र है । कृत्तिका और विशाखा, ये दो नक्षत्र मिश्र कहलाते है । रिक्ता तिथि, अमावास्या और क्षय तिथि त्याज्य है, हा यदि शनि और मंगल वार का योग हो तो रिक्ता तिथि भी प्रशस्त है । (१२) नवदीक्षितनी प्रथम गोयरी પહેલીવાર ગાચરીના વિષયમાં તીક્ષ્ણ, ઉગ્ર અને મિશ્ર નક્ષત્ર તથા શનિ અને મગળવાર ત્યાજ્ય છે. मार्द्रा, अश्लेषा, ज्येष्ठा, अने भूस, आ यार नक्षत्र तीक्ष्णु छे, लरखी, ऋ પૂર્વા (પૂર્વાષાઢા, પૂર્વાભદ્રાપદ, અને પૂર્વાફાલ્ગુની ) અને મઘા એ પાંચ નક્ષત્ર ગ્ર નક્ષત્ર છે. કૃત્તિકા અને વિશાખા, આ બે નક્ષત્ર મિશ્ર કહેવાય છે. રિક્તા તિથિ, અમાવાસ્યા અને ક્ષય તિથિ ત્યાજ્ય છે, પરન્તુ જે શનિ અને મંગલવારના ચૈાગ હાય તા રિક્તા તિથિ પણ ઉત્તમ છે. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ___(१३) अथ नूतनपात्रव्यापृतिःगोचर्यादिनिमित्तं नूतनपात्रव्यापृतिश्च, मृगशिरःपुष्याश्विनीहस्वानुराधाचित्रारेवतीषु, सोमगुरुवासरयोश्च शुभदा। (१४) आचार्यादिपदप्रदानसमयःआचार्यादिपदप्रदाने-श्रवणं, ज्येष्ठा, पुष्यम् , अभिजित् , हस्तः, अश्विनी, रोहिणी, उत्तरात्रयं, मृगशिरः, अनुराधा, रेवती, एतानि नक्षत्राणि शुभानि शोमनतिथिवारादयोऽपि द्रष्टव्याः। अथ (४) द्रव्यानुयोगःद्रवति-गच्छति प्राप्नोति मुञ्चति वा तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम् । अथवा (१३) नूतन पात्र का प्रयोग गोचरी आदि के लिए नवीन पात्र का उपयोग मृगशिर, पुण्य, अश्विनी, हस्त, अनुराधा, चित्रा और रेवती नक्षत्रों में, तथा सोमवार और गुरुवार के दिन करना शुभ है। (१४) आचार्य आदि पदवीदान का समय आचार्य आदि पदवी देने में श्रवग, ज्येष्ठा, पुण्य, अभिजित्, अश्विनी, रोहिणी, उत्तरात्रय, ( उत्तराषाढा उत्तराभाद्रपदा, उत्तराफाल्गुनी) मृगशिर, अनुराधा और रेवती, ये नक्षत्र शुभ हैं । इस प्रसङ्ग पर शुभ तिथि और शुभ वार आदि भी देखना चाहिए । (४) द्रव्यानुयोगआगे की पर्याय प्राप्त करने वाला और पूर्व पर्याों का त्याग करने वाला द्रव्य (23) नवस पात्र उपयोग ગોચરી આદિ માટે નવા પાત્રને ઉપયોગ મૃગશીર્ષ, પુષ્ય, અશ્વિની, હસ્ત, અનુરાધા, ચિત્રા, અને રેવતી નક્ષત્રોમાં, તથા સોમવાર અને ગુરૂવારના દિવસે કરવા ते शुम छे. (१४) माया माह पहनना समय__मायार्य ह ५४वी मायाम श्रqg, न्ये, पुण्य, ममिलत, स्त, अश्विनी शडिली, उत्तरात्रय (उत्त।-पाढा, उत्तरा-माद्रपद, उत्तरा-शशुनी ) મૃગશિર, અનુરાધા અને રેવતી, આ નક્ષત્રો શુભ છે. આ પ્રસંગ ઉપર શુભ તિથિ અને શુભ વાર વગેરે પણ જેવું જોઈએ. (४) व्यानुयोगઆગળની પર્યાય પ્રાપ્ત કરનારા અને પ્રથમની પર્યાયને ત્યાગ કરવાવાળાને Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे यते = पाप्यते मुच्यते वा तैस्तैः पर्यायैरिति द्रव्यम्। द्रव्यस्य - अनुयोगः द्रव्यानुयोगः। द्रव्यानुयोगो हि द्रव्याणां यथावस्थितस्वरूपावबोधने समीचीनयुक्ति प्रदर्शयति । तया दर्शनस्य नैमल्यम् । ततश्च सम्यक् चारित्रं संपद्यते । तथा चायमपि चरणकरणानुयोगं पोषयतीति वोध्यम् । द्रव्यलक्षणम्अथ किं तावद् द्रव्यम् ? उच्यते- "गुणाश्रयो द्रव्यम् ” । यथा जीवे ज्ञानदर्शनचारित्रसुखोपयोगादयो विशेषगुणाः, अस्तित्व-द्रव्यत्व-ज्ञेयन्वा कहलाता है । अथवा जो पर्यायों के द्वारा प्राप्त हो, अथवा पर्यायों से मुक्त हो उसे द्रव्य कहते है । ऐसे द्रव्य के अनुयोग को द्रव्यानुयोग कहते है । ___ द्रव्यानुयोग द्रव्यो का यथार्थ स्वरूप समझाने के लिए समीचीन मार्ग प्रदर्शित करता है । उस से सम्यग्दर्शन निर्मल होता है, और सम्यग्दर्शन की निर्मलता से सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है । इस प्रकार यह अनुयोग भी चरणकरणानुयोग का पोषक है । द्रव्य का लक्षणद्रव्य किसे कहते है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-जो गुणों का आधार हो वह द्रव्य है, जैसे जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख और उपयोग आदि विशेष गुण है। દ્રવ્ય કહે છે, અથવા જે પર્યાય દ્વારા પ્રાપ્ત હોય અથવા પર્યાયોથી યુક્ત હોય તેને દ્રવ્ય કહે છે. એવા દ્રવ્યના અનુયોગને દ્રવ્યાનુગ કહે છે. દ્રવ્યાનુયોગ દ્રવ્યના યથાર્થ સ્વરૂપને સમજાવવા માટે બરાબર સાચો માર્ગ પ્રદર્શિત કરે છે, તેથી સમ્યગ્દર્શન નિર્મલ થાય છે, અને સમ્યગ્દર્શનની નિર્મલતાથી સમ્યફ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થાય છે. એ પ્રમાણે આ અનુગ પણ ચરણ કરણનુયેગન પિષક છે. न्यनु सक्षદ્રવ્ય કેને કહે છે? એ પ્રશ્નનો ઉત્તર આ પ્રમાણે છે-જે ગુને આધાર હોય તે દ્રવ્ય છે, જે પ્રમાણે જીવમાં જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર સુખ અને ઉપયોગ આદિ વિશેષ ગુણ છે. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ५५ दयः सामान्यगुणाः सन्ति । एवं गतिहेतुत्वं धर्मे, स्थितिहेतुत्वमधर्मे, अवकाशदानहेतुत्वमाकाशे, वर्तनहेतुत्वं काले, रूपादिमत्त्वं पुद्गले विशेषगुणाः सन्तीति द्रव्यलक्षणसमन्वयः। कश्चित्तु 'सद् द्रव्यलक्षणम्' इति सूत्रयित्वा 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति सूत्रेण सच्छब्दविवरणं कुर्वन् द्रव्यसामान्यलक्षणमुक्त्वा विशेषविज्ञानजननाय विशेषलक्षणमवोचत्-'गुणपर्यायवद्र्व्यम्' इति । तदपि प्रकृत अस्ति व ( जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य का कभी विनाश न हो) वस्तुत्व-द्रव्यत्व (जिस शक्ति के निमित्त से पर्याय सदैव बदलती रहे) और प्रमेयत्व-ज्ञेयत्व (जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य किसी न किसी के ज्ञान का विषय हो) आदि सामान्य गुण है। इसीप्रकार धर्मास्तिकाय में गतिहेतुत्व (गतिकारणता) अधर्मास्तिकाय में स्थितिहेतुत्व (स्थितिकारणता) आकाश में अवकाशदानहेतुत्व (अवकाशदायिता) काल में वर्तनाहेतुत्व, (नवपुराणकारणता) आदि, और पुद्गल में रूपादिमत्व विशेष गुण है ? अतः इन सब में द्रव्य के लक्षण, की संगति होजाती है। किसी आचार्यने 'सद् द्रव्यलक्षणम्' ऐसा सूत्र रचकर 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' अर्थात् जिस में उत्पाद विनाश और ध्रौव्य युगपत् पाये जायें, वह सत् है, इस सूत्र के द्वारा सत् की व्याख्या करते हुए सामान्य दव्य का स्वरूप बतला कर विशेष बोध. અસ્તિત્વ (જે શક્તિના નિમિત્તથી દ્રવ્યને કયારેય પણ નાશ ન હેય.) વસ્તુત્વદ્રવ્યત્વ (જે શક્તિના નિમિત્તથી પર્યાય હંમેશાં બદલતી રહે) અને પ્રમેયત્વયત્વ (જે શક્તિના નિમિત્તથી દ્રવ્ય કેઈન કેઈ જ્ઞાન વિષય હોય) આદિ સામાન્ય ગુણ છે. એ પ્રમાણે ધર્માસ્તિકાયમાં ગતિeતુત્વ (ગતિકારણતા) અધર્માસ્તિકાયમાં સ્થિતિહેતુત્વ (સ્થિતિકારણુતા) આકાશમાં અવકાશદાનહેતુત્વ (અવકાશદાયિત્વ) કાલમાં વતના હેતુત્વ (નવપુરાણકારણતા) આદિ, અને પુદ્ગલમાં રૂપાદિમત્વ વિશેષ. ગુણ છે. તેથી એ સર્વમાં દ્રવ્યના લક્ષણની સંગતિ થઈ જાય છે. मायाये “सद् द्रव्यलक्षणम्" मे सूत्र स्थान 'उत्पाद व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् मा अत्या, विनाश मने प्रौव्य मे आणेवामां भाव ते "सत्" છે. આ સૂત્ર દ્વારા સત્ની વ્યાખ્યા કરતા થકા સામાન્ય દ્રવ્યનું સ્વરૂપ બતાવીને Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे लक्षणे समाविष्टमेवेति गुरुतरलक्षणं नावश्यकमिति ज्ञेयम् । परमार्थतस्तु पर्याया न गुणतो भिन्नाः कार्यकारणयोरभेदात् । यथा कटककुण्डलादीनि कनकतो न भिन्नानि, घटशरावादीनि मृदो नातिरिक्तानि, तथा गुणजन्मनां पर्यायाणां न भेदो गुणेभ्य इति द्रव्यलक्षणे पर्यायशब्दमवेशो नावश्यक इत्यवसेयम् । गुणलक्षणम्द्रव्यस्याऽऽश्रयायिभावेन नित्यसहवर्तिनो धर्मा गुणाः, ते द्रव्यस्य शक्तिविशेषाः। द्रव्यमात्राश्रितं गुणस्य लक्षणम् । यथा जीवस्य ज्ञानदर्शनकराने के लिये विशेष लक्षण यह बतलाया है-'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' यह लक्षण भी प्रकृत लक्षण 'गुणाश्रयो द्रव्यम् ' में समाविष्ट है, इस लिये उनका बडा लक्षण करने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में तो पर्याय, गुण से मिन्न नहीं है, क्योंकि कार्य और कारण में भेद नहीं होता । जैसे-कटक, कुण्डल आदि पर्याय सुवर्ण से भिन्न नहीं है, अतः गुणों से उत्पन्न होने वाले गुणों से भिन्न नहीं हैं। ऐसी अवस्था में द्रव्य के लक्षण में पर्याय शब्द डालना आवश्यक नहीं है। गुण का लक्षणद्रव्य के आश्रय आश्रयी रूपसे, अथवा कथञ्चित् तादात्म्यरूपसे निन्य सहवर्ती धर्म, 'गुण' कहलाते है । 'गुण' द्रव्य की शक्तिविशेष है। सिर्फ द्रव्याश्रित होना गुण का विशेष माघ ४२११! माटे विशेष सक्ष को मताव्यु छ:-"गुणपर्यायवद् द्रव्यम् " मा सक्ष पy प्रत (यातू) सक्ष (गुणाश्रयो द्रव्यम् ) मा समाविष्ट छे तेथी વિશેષ લક્ષણ કરવાની આવશ્યકતા નથી. વાસ્તવમાં તે પર્યાય, ગુણથી ભિન્ન નથી, કારણ કે કાર્ય અને કારણમાં જોઇ નથી, જેવી રીતે કડાં અને કુંડલ આદિ પર્યાય સુવર્ણથી ભિન્ન નથી ઘટ અને શોર આદિ પર્યાય મૃત્તિકા-માટીથી ભિન્ન નથી, કારણ કે ગુણથી ઉત્પન્ન થવા વાળા પર્યાય, ગુણેથી ભિન્ન નથી, એવી અવસ્થામાં દ્રવ્યના લક્ષણમાં પર્યાય શબ્દ નાખવા તે જરૂરી નથી. ગુણના લક્ષણ– દ્રવ્યના આશ્રય-આશ્રયી–રૂપથી અથવા કંચિત્ તાદાભ્યરૂપથી નિત્ય સહવત ધર્મ ગુણ કહેવાય છે. ગુણ એ દ્રવ્યની શક્તિવિશેષ છે. માત્ર દ્રવ્યાશ્રિત Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ५७ सुखवीर्यादयः, पुद्गलस्य वर्णगन्धरसस्पर्शादयो गुणाः। 'मात्र'-शब्दोपादनं पर्यायेऽतिप्रसङ्गवारणाय । द्रव्यस्वरूपविचारेण 'गुणसमुदायो द्रव्य' -मिति प्रतीयते, यथा मूलस्कन्धशाखापशाखादीनां समुदायो वृक्षः, तथैवास्तित्व-परिणामित्ववस्तुत्व - ज्ञेयत्व - प्रमेयत्व - प्रदेशवत्वादिसामान्यगुणानां चैतनत्व-गतिहेतुत्वस्थितिहेतुत्वा - ऽवकाशदानहेतुत्व - वर्तनाहेतुत्व - वर्ण - गन्ध - रस - स्पर्श लक्षण है, जैसे-जीव के गुण-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य आदि है, तधा पुद्गल के गुण वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि हैं । उपर जो ‘मात्र' (सिर्फ) शब्द का प्रयोग किया गया है; वह पर्याय में अतिप्रसङ्ग निवारण करते के लिए है । अर्थात् गुण केवल द्रव्य में होते हैं, पर्याय में नहीं होते। द्रव्य के स्वरूप पर विचार करने से प्रतीत होता है कि गुणोंका समुदाय ही द्रव्य है । जसे मूल, स्कन्ध, शाखा और प्रशाखा आदि का समूह ही वृक्ष है, उसी प्रकार अस्तित्व, परिणामित्व, वस्तुत्व, ज्ञेयत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशवत्त्व आदि सामान्य गुणों का, तथा चेतना, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवकाशदानहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्शवत्त्व आदि विशेष गुणों का समूह ही द्रव्य है । यहा यह स्मरण रखना चाहिए कि विभिन्न द्रव्यों के રહેવું તે ગુણનું લક્ષણ છે. જેવી રીતે જીવના ગુણ-જ્ઞાન, દર્શન, સુખ અને વીર્ય આદિ છે. તથા પુદ્ગલના ગુણ-વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ આદિ છે. ઉપર જે “માત્ર શબ્દને પ્રવેશ કર્યો છે તે પર્યાયમાં અતિપ્રસંગ નિવારણ કરવા માટે છે, અર્થાત્ ગુણ કેવલ દ્રવ્યમાં હોય છે, પર્યાયમાં હેય નહિ. દ્રવ્યના સ્વરૂપ પર વિચાર કરવાથી જણાય છે કે ગુણોને સમુદાય જ દ્રવ્ય છે. જે રીતે-મૂલ, સ્કંધ, શાખા અને પ્રશાખા આદિને સમૂહ તે વૃક્ષ છે. એ પ્રમાણે અસ્તિત્વ, પરિણામિત્વ વસ્તૃત્વ, યત્વ, પ્રમેયત્વ, પ્રદેશવત્વ આદિ સામાન્ય ગુણને, તથા ચેતના ગતિ હેતુત્વ, સ્થિતિ હેતુત્વ, અવકાશદાનહેતુત્વ, વનાહિતત્વ, વર્ણ, રસ, ગંધ, સ્પર્શવત્વ આદિ વિશેષ ગુણને સમૂહ તે દ્રવ્ય છે. અહિં એ યાદ प्र. मा. ८ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारामु वत्त्वादिविशेषगुणानां च समुदायो द्रव्यम् । एवं 'द्रव्यपर्याय स्वरूपमपी' - स्यनुपदमेव वक्ष्यते । ५८ पर्यायलक्षणम् परियन्ति = उत्पादविनाशौ प्राप्नुवन्ति न सर्वदा तिष्ठन्तीति पर्यायाः । यद्वापरि= सर्वथा अयन्ते= गच्छन्ति द्रव्यगुणौ समाश्रयन्तीति पर्यायाः । 1 1 द्रव्यस्योत्पादविनाशशालिनो धर्माः पर्यायाः । पर्यांया हि द्रव्यं गुणं चाश्रित्य वर्त्तन्ते । कालभेदादेकमेव ज्ञानं जीवस्यान्यदन्यद्रूपं दधत् पर्यायशब्दवाच्यं भवति, यथा कश्चिदष्टवर्षीयो विनयी प्रमादविकथावर्जितो बालमुनि - गुरुचरणसरोजं सेवमानः पूर्वमावश्यकमात्रमधीत्य समितिगुप्तिज्ञानं संपादयति, विशेष गुणों का समूह नहीं बन सकता है । ऐसे द्रव्य और पर्याय के विषय में भी समझना चाहिए, वह अभी आगे बतायेंगे । पर्याय का लक्षण - जिनके निरन्तर उत्पाद और व्यय होता है, जो सदैव स्थिर नहीं रहते उन्हें पर्याय कहते हैं । अथवा द्रव्य और गुण का आश्रय लेने वाले पर्याय कहलाते है । 1 द्रव्य के उत्पाद और विनाश-शील धर्म पर्याय कहलाते हैं । पर्याय, द्रव्य में भी रहते हैं और गुण में भी रहते हैं । जीवका एक ही ज्ञानगुण काल के भेदसे भिन्न-भिन्न रूप धारण करता हुआ पर्याय कहलाता है । जैसे एक आठ वर्ष का विनयी प्रमाद और विकथा से दूर रहने वाला बाल मुनि अपने गुरु के चरण कमलों की सेवा करता हुआ રાખવું જોઇએ કે વિભિન્ન દ્રબ્યાના વિશેષ ગ્રુહ્યેાના સમૂહ બની શકતા નથી. એવી રીતે દ્રવ્ય અને પર્યાયના વિષયમાં પણ સમજવું જોઇએ. વિશેષ આગળ ખતાવીશુ. પર્યાયનું લક્ષણ— જેની અંદર હમેશાં ઉત્પાદ અને વ્યય થયા કરે છે. અને જે હંમેશાં–સદાકાળ સ્થિર રહેતું નથી તેને પર્યાય કહે છે, અથવા દ્રવ્ય અને ગુણને આશ્રય લેનાર તેને પર્યાય કહેવામાં આવે છે. દ્રવ્યને ઉત્પાદ અને વિનાશ-શીલ ધર્મ તે પર્યાય કહેવાય છે. પર્યાય, દ્રવ્યમાં પણ રહે છે અને ગુણમાં પણ રહે છે. જીવને એકજ જ્ઞાનગુણ કાલના ભેદથી ભિન્ન ભિન્ન રૂપ ધારણ કરીને પર્યાય કહેવાય છે. જેવી રીતે કે એક આઠ વર્ષના વિનયવ ત, પ્રમાદ અને વિકથાથી દૂર રહેવાવાળા માલમુનિ પેાતાના ગુરૂના ચરણુ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणां क्रमेण द्वादशाङ्गतत्त्वं विज्ञाय ज्ञानधारां प्रवर्द्धयति । तत्र तस्य बालसंयमिनो ज्ञानं प्रतिक्षणं विलक्षणतामापद्यमानमपूर्वमपूर्वं जायमानं ज्ञानं पर्यायशब्दवाच्यतां भजति । एवं दर्शनचारित्रादीनामपि पर्याया ज्ञातव्या । जीवस्य मानुषत्ववाल्यादयोऽपि पर्यायाः। पुद्गलस्य तु एकगुणकालत्वादयो पर्याया ज्ञेयाः। एवं च द्रव्यगुणाश्रितत्वं पर्यायस्य लक्षणमिति निश्चीयते । तथा चोक्तमुत्तराध्ययने-(अ. २८) पहले-पहल आवश्यक मात्र का अध्ययन करता है, फिर समिति और गुप्ति का ज्ञान सम्पादन करता है । तदनन्तर क्रम से द्वादशाङ्ग का तत्त्व जान कर ज्ञान की धारा में वृद्धि करता है, उस बाल मुनि का ज्ञान क्षण-क्षण में विलक्षण होकर नवीन-नवीन रूपों में उत्पन्न होता हुआ 'पर्याय' शब्द द्वारा कहा जाता है। इसी प्रकार दर्शन और चारित्र आदि गुणों के पर्याय भी समझ लेना चाहिए । मनुष्यता, बालकपन आदि जीव के पर्याय हैं और एक-गुणकालापन आदि पुद्गल के, वर्ण-गुण के पर्याय है । इस प्रकार यह निश्चित होता है कि पर्याय द्रव्य और गुण दोनों में ही रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-.. “गुणों का जो आश्रय हो उसे द्रव्य कहते है, गुण एक मात्र द्रव्य में ही रहते हैं । पर्यायों का लक्षण उभयाश्रित होना है, अर्थात् पर्याय, द्रव्य और गुण दोनों में ही पाये जाते हैं । કમળાની સેવા કરતા થકા પ્રથમ આવશ્યક માત્રનું અધ્યયન કરે છે, પછી સમિતિ અને ગુપ્તિનું જ્ઞાન સંપાદન કરે છે, ત્યાર પછી ક્રમથી દ્વાદશાંગનું તત્વ જાણી જ્ઞાનની ધારામાં વૃદ્ધિ કરે છે તે બાલમુનિનું જ્ઞાન ક્ષણ-ક્ષણમાં વિલક્ષણ-તરેહવાર બની નવીન રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે તેને પર્યાય શબ્દથી ઓળખવામાં આવે છે, એ પ્રમાણે દર્શન અને ચારિત્ર આદિ ગુણના પર્યાય પણ સમજી લેવા જોઈએ. મનુષ્યતા, બાલકપણું આદિ જીવના પર્યાય છે, અને એક ગુણકાળાપણું આદિ પુદ્ગલના વગુણને પર્યાય છે. આ પ્રમાણે આ નિશ્ચિત થાય છે કે-પર્યાય, દ્રવ્ય અને ગુણ એ બન્નેમાં રહે છે. ઉત્તરાધ્યયનસૂત્રમાં કહ્યું છે ગુણેને જે આશ્રય હેય, તેને દ્રવ્ય કહે છે; ગુણ એક માત્ર દ્રવ્યમાં જ રહે છે, અને પર્યાનું લક્ષણ ઉભયાશ્રિત હોય છે, અર્થાત્ પર્યાય, દ્રવ્ય અને ગુણ બનેમાં જોવામાં આવે છે. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिया गुणा । लक्खणं पज्जवाणं तु, दुहओ अस्सिया भवे ॥ ६ ॥” इति । छाया आचाराङ्गसूत्रे “गुणानामाश्रयो द्रव्यम्, एकद्रव्याश्रिता गुणा: लक्षणं पर्यवाणां तु, उभयोराश्रिता भवेयुः " ॥ ६ ॥ इति । द्रव्यलक्षणे पर्यायानुक्त्या कार्यकारणयोरभेदविवक्षया पर्यायाणां गुणेषु समावेश इति भगवदभिमायो गम्यते । “एकद्रव्याश्रिता गुणाः" इति, एकं केवलं द्रव्यमाश्रित्य गुणा वर्त्तन्त इत्यर्थः । अनेन गुणलक्षणमुक्तम् । 'पर्यवाणां लक्षणं तु उभयोराश्रिता भवेयुः' इत्यन्वयः । पर्यवः, पर्ययः पर्यायः, इति समानार्थकाः । उभयोः=द्रव्यगुणयोराश्रिताः पर्यायाः, इति पर्यायलक्षणं वोध्यमित्यर्थः । पर्यायास्तु द्रव्यं गुणं चोभयमाश्रित्य वर्त्तन्त इति भावः । द्रव्य के लक्षण में 'पर्याय' पद का समावेश न करने के कारण भगवान् का अभिप्राय यह है कि-कार्य कारण के अभेदसे गुण में ही पर्याय का समावेश हो जाता है । 'एगदव्त्रस्सिया गुणा' इस वाक्य का अर्थ यह है कि - गुण केवल द्रव्य में ही होते हैं । इस कथनद्वारा गुण का लक्षण भी कह दिया गया है । पर्याय का लक्षण उभयाश्रित होना है, दोनो में अर्थात् द्रव्य में भी और गुण में भी पर्याय रहते है । पर्यव, पर्यय और पर्याय ये सभी समानार्थक हैं । દ્રવ્યના લક્ષણમાં પર્યાય? પદ્મના સમાવેશ નહિ કરવાથી ભગવાનના અભિપ્રાય એ છે કે—કા કારણના અભેદ્યથી ગુણમાં જ પર્યાયના સમાવેશ થઈ જાય છે. " एगदव्वस्सिया गुणा ” આ વાકયના અર્થ એ છે કેઃ—ગુણુ કેવલ દ્રવ્યમાં જ હાય છે. આ કથનદ્વારા ગુણનું લક્ષણ પણ કહી આપ્યુ છે. પર્યાયનું લક્ષણ ઉભયાશ્રિત હાય છે, બન્નેમાં અર્થાત્ દ્રમાં અને ગુણમાં પણ પર્યાય રહે છે. પર્યંત્ર, પાઁય અને પર્યાય શબ્દ સમાન અવાળા છે. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणां द्रव्यविभागः द्रव्यं षड्विधम्-धर्माधर्माकाशकाल पुद्गलजीवभेदात् । उक्तञ्च श्रीभगवतीसूत्रे - 44 'कणं भंते ! दव्वा पण्णत्ता 2, गोयमा ! छ दव्वा पण्णत्ता, तं जहा - धम्मत्थिकार, अधम्मत्थिकाए, आगासस्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमये" || उत्तराध्ययन सूत्रे ऽपि - ( अ. २८) " धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्तिपन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ॥ ७ ॥ द्रव्य के भेद ६१ द्रव्य छह प्रकार का है– (१) धर्म (२) अधर्म (३) आकाश (४) काल (५) पुद्गल और (६) जीव । श्री भगवतीसूत्र में कहा है - “भगवान् ! द्रव्य कितने कहे गये हैं ?, गौतम ! छह द्रव्य कहे गये हैं, वे इस प्रकार - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धा - समय" । उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है “धर्म, अधर्मं, आकाश, काल, पुद्गल, और जीव को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जिन भगवान् ने लोकसंज्ञा दी है ॥ ७ ॥ 66 દ્રવ્યના ભેદ— द्रव्यना छ अार छे- (१) धर्म (२) अधर्म (3) भाडाश (४) छावा (4) પુદ્ગુગલ અને (૬) જીવ. શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે— ભગવાન ! દ્રવ્ય કેટલાં કહ્યાં છે? ગૌતમ ! છ દ્રવ્ય કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે-ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય આકાશાસ્તિકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય अने युद्धा-सभय,” ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે ધર્મ અધર્મ, આકાશ, કાલ, પુગલ અને જીવને સજ્ઞ સદેશી જિન भगवाने बेोऽसंज्ञा साथी छे " ॥ ७ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसत्रे धम्मो अहम्मो आगासं, दव्वं इक्विकमाहियं । अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल जंतवो ।। ८॥" अत्र कालमात्रं विहाय धर्मादयोऽस्तिकाया उच्यन्ते । 'अस्ती' ति तिङन्तप्रतिरूपकमव्ययं प्रदेशवाचकम् । प्रदेशः स्वस्थानादनपायि निर्विभाग खण्डम् । इदं निर्विभाग खण्डं यदा पुद्गलस्य गलनस्वभावात्तदीयस्कन्धदेशाभ्यामवयुत्यपृथग्भूत्वा वर्तते तदा परमाणुनाम्ना व्यवहियते । यावदपृथग्भूत्वा वत्तते तावत्तदेव निर्विभागं खण्डं प्रदेश इत्युच्यते । अनेनैवाशयेन पुद्गलास्तिकायस्य चत्वारो भेदा भगवता कथिता:-स्कन्धः, देशः, प्रदेशः, परमाणुश्चेति । काया धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीन द्रव्य एक एक है, काल, पुद्गल, जीव, अनन्त अनन्त द्रव्य हैं" ॥ ८॥ काल को छोड कर शेष पांच द्रव्य अस्तिकाय कहलाते है । 'अस्ति' यह तिङन्तरूप प्रतीत होने वाला एक अव्यय है और प्रदेश का वाचक है। जो अपने स्थान से च्युत न होने वाला, अर्थात् जो द्रव्य के साथ ही जुडा हुआ निर्विभाग-जिस का फिर विभाग न हो सके वह खण्ड, प्रदेश कहलाता है। पुद्गल गलनस्वभाव वाला है अत एव जब यह निर्विभाग खण्ड पुद्गल के स्कन्ध या देश से विछुड कर अलग हो जाता है तब वही खण्ड परमाणु कहलाता है । जब वही परमाणु पुद्गल के स्कन्ध या देश में फिर मिल जाता है तब ધર્મ અધર્મ અને આકાશ આ ત્રણ દ્રવ્ય એક-એક છે, કાલ, પુદગલ અને ७१ मनन्त-मनन्त द्रव्य छे." ॥ ८ ॥ કાલ સિવાયના બાકીના પાંચ દ્રવ્ય અસ્તિકાય કહેવાય છે. “અસ્તિ” એ તિત ૨૫ જણાતું એક અવ્યય છે, અને પ્રદેશનું વાચક છે. જે પોતાના સ્થાનથી ચુત નહિ થવા વાળા, અર્થાત્ દ્રવ્યની સાથે જ જોડાઈ રહેલા નિર્વિભાગ–જેને ફરી ભાગ ન થઈ શકે તે ખંડ, પ્રદેશ કહેવાય છે. પુદ્ગલ ગલનસ્વભાવ વાળા છે, તે કારણે જ્યારે તે નિર્વિબાગ ખંડ પુદ્ગલના સ્કંધ અથવા દેશથી છુટા થઈ જાય છે ત્યારે તે ખંડ પરમાણુ કહેવાય છે. ત્યારે તે પરમાણુ યુગલના સ્કંધ અથવા દેશમાં ફરીને મળી જાય છે ત્યારે તે પરમાણુના બદલે ફરી પ્રદેશ કહેવાય છે, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा समूहः। अस्ति पदेशानां काय समूहो यत्र यस्य या स अस्तिकायः, प्रदेशसमूहवान, धर्मश्चासावस्तिकायश्चेति धर्मास्तिकायः । एवं च धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, इति नामानि सन्ति तेषाम् । कालस्तु प्रदेशाभावादस्तिकायो न भवतीत्यतः कालः कालास्तिकायशब्देन न व्यवहियते । धर्मास्तिकायलक्षणम्स्वभावतो गतिपरिणामिनां जीवपुद्गलानां गतिं प्रति सहकारि कारणं धर्मास्तिकायः । जीवाः पुद्गलाश्च स्वभावतो गच्छन्ति, तत्रोपादानकारणस्वरूपास्ते वह परमाणु के बदले फिर प्रदेश कहलाने लगता है, इसी अभिप्राय से भगवान् ने पुद्गलास्तिकाय के चार भेद बतलाये हैं (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश और (४) परमाणु । काय का अर्थ है समूह । जिसमें या जिसके प्रदेशों का समूह है वह अस्तिकाय कहलाता है । अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूहवाला । धर्मरूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय समझना चाहिए । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय, ये अस्तिकायों के नाम हैं। कालद्रव्य प्रदेशों का समूहरूप न होने के कारण अस्तिकाय नहीं है अतः काल 'कालास्तिकाय' नहीं कहलाता है। धर्मास्तिकायका लक्षणस्वाभाव से या प्रयोग से गतिक्रिया परिणत हुए जीव और पुद्गलों की गति में जो सहकारी कारण हो उसे धर्मास्तिकाय कहते हैं। जीवों और पुद्गलों का गमन करना स्वभाव ही है। આ અભિપ્રાયે ભગવાને પુદ્ગલાસ્તિકાલયના ચાર ભેદ બતાવ્યા છે. (૧) સ્કંધ, (૨) हेश, (3) प्रदेश मने. (४) ५२मा. કાયને અર્થ છે–સમૂહ, જેમાં અથવા જેનાં પ્રદેશના સમૂહ હોય તે અસ્તિકાય કહેવાય છે, અસ્તિકાય અર્થાત્ પ્રદેશના સમૂહ વાળા, ધર્મરૂપ અસ્તિકાય ધમાંસ્તિકાય સમજવું જોઈએ. એજ પ્રમાણે અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાય, એ અસ્તિકાનાં નામ છે. કાલદ્રવ્ય-પ્રદેશના સમૂહપ નહિ હેવાથી અસ્તિકાય નથી તેથી કાલ એ 'Haiस्तय' ४वाय नडि. स्तियतुं सक्षસ્વભાવથી અથવા પ્રયોગથી ગતિક્રિયામાં પરિણત થયેલા છે અને પુદ્ગલોની ગતિમાં જે સહકારી કારણ હોય, તેને ધર્માસ્તિકાય કહે છે. જી અને Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ आचारागसूत्रे गति प्रति, पुनस्तस्यामेव गति-क्रियायां धर्मास्तिकायः सहायरूपं निमित्तकारणं भवति । . (१) यथा सरित्समुद्राघवगाहनशीलानां मत्स्यानां स्वत एव जिगमिपा गतिश्च जायते, तत्र तेषां गमनं प्रति सहायरूपं निमित्तकारणं वारि। स्वयं तिष्ठता तु मत्स्यानां न तत् प्रेरकं गमनाय । (२) यथा वा मृत्परिणामभूतस्य घटस्य दण्डो निमित्तकारणम् । (३) यथा वा स्वत एवावगाहमानस्य द्रव्यस्यावगाहनं प्रति गमनम् , न पुनरवगाहमानं द्रव्यं वलादवगाहयति तत् । इस गमनक्रिया में उपादान कारण वह स्वयं ही होते हैं, धर्मास्तिकाय सहायकमात्र होने से निमित्त कारण है। (१) जैसे—नदी अथवा समुद्रमें अवगाहन करनेवाले मच्छो में गमन करने की इच्छा स्वयं ही उत्पन्न होती है और स्वयं ही वे गति करते हैं, जल उन की गति में सहायक रूप निमित्त कारण होता है। हाँ, मच्छ अगर ठहरे तो जल उन्हें गमन करने के लिये प्रेरित नहीं करता। (२) अथवा जैसे-मृत्तिका से बनने वाले घडे में डंडा निमित्त कारण होता है । (३) अथवा जैसे-स्वयं ही अवगाहन करने वाले द्रव्य की अवगाहना में आकाश निमित्त कारण होता है। પુદ્ગલોને ગમન કરવું તે સ્વભાવ જ છે, એ ગમન-કિયામાં ઉપાદાને કારણે તે પતે જ હોય છે, ધર્માસ્તિકાય સહાયકમાત્ર હેવાથી તે નિમિત્ત કારણ છે. (૧) જેવી રીતે નદી અથવા સમુદ્રમાં અવગાહન કરવાવાળા મચ્છમાં ગમન કરવાની પિતાની જ ઈચ્છા ઉત્પન થાય છે, અને પોતે જ તે ગતિ કરે છે, પરંતુ જલ તેની ગતિમાં સહાયરૂપ નિમિત્ત કારણ થાય છે પરંતુ મચ્છ જે સ્થિર રહેવાની ઈચ્છા કરે તે જલ તેને ગમન કરવા માટે પ્રેરણા કરતું નથી. (૨) અથવા જેવી રીતે-માટીથી તૈયાર થતા ઘડામાં છે અને ચાક નિમિત્ત કારણ હોય છે. (૩) અથવા જેવી રીતે–પિતે જ અવગાહન કરનારા દ્રવ્યના અવગાહનમાં આકાશ નિમિત્ત કારણ હોય છે. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा (४) यथा वा-जलवृष्टौ सत्यां स्वयमेव कृषिकर्मारम्भं कुर्वतां कृषीवलानां कृषिकर्मारम्भं प्रति वृष्टिः सहकारि कारणं भवति । (५) अपरोऽपि शास्त्रीयो दृष्टान्तो दृष्टिपथमवतरति, यथा-'सिद्धस्वरूपोऽहम् , अनन्तसुखभाजनोऽहम्' इत्यादिभावनया व्यवहारनयेन शुद्धसिद्वस्वरूपध्यानकणां, निश्चयनयेन निर्विकल्पध्यानपरिणामिनां स्वयं तदुपादानकारणस्वरूपाणां भव्यानां स्वयमेव जायमानां सिद्धगति प्रति प्रेरणारहितो निष्क्रियो मूर्तिरहितोऽपि सिद्धभगवान् सहायकः सन् सहकारि कारणं भवति, तद्वदमूर्ती निष्क्रिया प्रेरणारहितश्च धर्मास्तिकायो जीवानां पुद्गलानां च गतिरूपे परिणामे सहायकः सन्निमित्तकारणं भवति । (४) अथवा जैसे--जल की वर्षा होने पर स्वयं ही कृषिकार्य आरम्भ करने वाले किसानों के कृषिकार्य के आरम्भमें वृष्टि सहकारी कारण होती है। (५) एक शास्त्रीय दृष्टान्त और भी दृष्टिगोचर होता है--'मै सिद्धस्वरूप हूँ, मै अनन्त सुख का भाजन हूँ' । इस प्रकार की भावनापूर्वक व्यवहार नय से शुद्ध सिद्ध परमात्मा का ध्यान करने वालों को, और निश्चय नय से निर्विकल्प ध्यान में परिणत होने वालों को जो सिद्धगति की प्राप्ति होती है उस में उपादान कारण स्वयं ध्यान करने वाला भव्यात्मा है, और प्रेरणारहित, निष्क्रिय, तथा अमूर्तिक होते हुए भी सिद्ध भगवान् उसमें सहायक होने से निमित्त कारण हो जाते हैं । इसी प्रकार अमूर्तिक, निष्क्रिय और प्रेरणारहित धर्मास्तिकाय भी जीव और पुद्गलों के गतिरूप परिणाम में सहायक होता हुआ निमित्त कारण होता है । (૪) અથવા જેવી રીતે પાણી વરસવાથી ખેડુત પિતે જ ખેતીના કામને આરંભ કરે છે, ખેતીને આરંભ કરવાવાળા ખેડુતના ખેતી કાર્યના આરમ્ભમાં વૃષ્ટિ (વરસાદ) સહકારી કારણ હોય છે (૫) એક શાસ્ત્રીય દષ્ટાંત બીજું પણ દષ્ટિગોચર થાય છે – "सिद्ध स्व३५ छु मनन्त सुभनु मान-पात्र छु.” २ प्रनी ભાવનાપૂર્વક, વ્યવહાર નયથી શુદ્ધ સિદ્ધ ભગવાન–પરમાત્માનું ધ્યાન કરવાવાળા અને નિશ્ચયનયથી નિવિર્ક૫ ધ્યાનમાં પરિણત થવા વાળાને જે સિદ્ધ-ગતિ પ્રાપ્ત થાય છે તેમાં ઉપાદાન કારણ ધ્યાન કરવાવાળા પોતે ભવ્યાત્મા છે; અને પ્રેરણારહિત નિષ્ક્રિય તથા અમૂર્તિક હોવા છતાં પણ સિદ્ધ ભગવાન તેમાં સહાયક હોવાથી નિમિત્ત કારણ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે અમૂર્તિક, નિષ્ક્રિય અને પ્રેરણારહિત ધર્માસ્તિકાય પણ જીવ અને પુદ્ગલેનાં ગતિરૂપ પરિણામમાં સહાયક હોવાથી નિમિત્ત કારણ છે. प्र. मा-९ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे ननु धर्मास्तिकायस्य दण्डादिवन्निमित्तकारणता नोपपद्यते, सव्यापारं हि कारणं भवति, निर्व्यापारस्य कारणत्वे युक्त्यभावादिति चेन्न, ___ धर्मास्तिकायस्य हि स्वाभाविकव्यापारसत्वात् कारणत्वं भूपपादम् । उक्तं च धर्मास्तिकायलक्षणं भगवता " गइलक्षणो उ धम्मो" इति, 'गतिलक्षणस्तु धर्मः' इति च्छाया। (उत्तराध्ययनमत्रे २८ अ.) गतिकार्यानुमेयो धर्मास्तिकाय इति भावः । शङ्का-धर्मास्तिकाय डडा आदि के समान निमित्त कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह व्यापार नहीं करता, कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करने वाला ही कारण होता है । कार्य की उत्पत्ति मे व्यापार न करने पर भी अगर किसी को कारण मान लिया जाय तो चाहे जो वस्तु चाहे जिस कार्य में कारण हो जायगी। ऐसी दशा में नियत कार्य-कारण भाव का अभाव हो जायगा। समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ हेतु असिद्ध है । गतिरूप कार्य में धर्मास्तिकाय व्यापाररहित नहीं है, किन्तु धर्मास्तिकायका स्वाभाविक व्यापार विद्यमान होने के कारण उसे कारण मानना युक्तिसङ्गत है । भगवान् ने धर्मास्तिकायका लक्षण इस प्रकार बतलाया है-- __ "गइलक्खणो उ धम्मो” धर्मास्तिकाय गति लक्षण वाला है। (उत्तराथ्ययनसूत्र अ० २८) अर्थात् गतिरूप कार्य से धर्मास्तिकायका अनुमान होता है । - શંકા-ધર્માસ્તિકાય દંડ આદિ પ્રમાણે નિમિત્ત કારણ થઈ શકતું નથી, કેમકે તે વ્યાપાર કરતું નથી, કાર્યની ઉત્પત્તિમાં વ્યાપાર કરનાર જ કારણ હોય છે. કાર્યની ઉત્પત્તિમાં વ્યાપાર નહિ કરવા છતાં ય જે કંઈને કારણ માનવામાં આવશે તે ગમે તે વસ્તુ ગમે તે કાર્યમાં કારણ થઈ જશે. એવી દશામાં નિયત કાર્ય કારણ ભાવને અભાવ થઈ જશે. સમાધાન–આ શંકા ઠીક નથી, કારણ કે અહિ હેતુ અસિદ્ધ છે. ગતિરૂપ કાર્યમાં ધમાંસ્તિકાય વ્યાપારરહિત નથી, ધર્માસ્તિકાયને સ્વાભાવિક વ્યાપાર વિદ્યમાન હોવાથી તેને કારણે માનવું તે યુક્તિસંગત છે. ભગવાને ધર્માસ્તિકાયનું લક્ષણ આ પ્રમાણે બતાવ્યું છે– " गइलक्वणो उ धम्मो” मास्तिय गतिसक्षपाणु छ (उत्तराध्ययन સૂત્ર અ. ૨૮) અર્થાત્ ગતિરૂપ કાર્યથી ધર્માસ્તિકાયનું અનુમાન થાય છે. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ६७ ___ अस्य-(१) अरूपित्वम् , (२) अचेतनत्वम् , (३) अक्रियत्वम् , (४) गतिसहायकत्वं चेति गुणाः । (१) स्कन्धः, (२) देशः, (३) प्रदेशः, (४) अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः । अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा ज्ञायते, यथा-द्रव्यत एको धर्मास्तिकायः, क्षेत्रतो लोकप्रमाणः, कालत आद्यन्तरहितः, भावतो रूपरहितःवर्णगन्धरसस्पर्शवर्जित इति । गुणतश्चलनगुणः । अधर्मास्तिकायस्वरूपम्- स्वभावतः स्थितिपरिणतानां जीवपुद्गलानां स्थितिं प्रति सहकारि कारणत्वमधर्मास्तिकायस्य लक्षणम् । (१) अरूपिन्व, (२) अचेतनत्व (३) अक्रियत्व (४) गतिसहायकन्च, ये धर्मास्तिकाय के गुण है । (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश और (४) अगुरुलधुत्व, ये उसके पर्याय है । धर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण, इस तरह पांच भेदों से जाना जाता है । जैसे-द्रव्य से धर्मास्तिकाय एक है, क्षेत्रसे लोकप्रमाण है, कालसे आदि-अन्तरहित है, भावसे रूपादिरहित है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श उस मे नहीं है, और गुण से चलन-गुण वाला है । अधर्मास्तिकायका स्वरूपस्वभाव से स्थितिरूप परिणत हुए जीव और पुद्गलोकी स्थिति में सहकारी होना अधर्मास्तिकायका लक्षण है। (१) ३पित्त (२) मयेतनत्व (3) पश्यित्व (४) गतिसहायत. ये सर्व घास्तियना शुणे। छ, (१) २४५ (२) देश (3) प्रदेश मने (४) पशु३वधवा से તેના પર્યાય છે. ધર્માસ્તિકાયદ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણ, એ પાંચ ભેદથી જાણી શકાય છે જેવી રીતે–દ્રવ્યથી ધર્માસ્તિકાય એક છે, ક્ષેત્રથી લેકપ્રમાણ છે, इसथी माहि-मन्त .२डित छ, साथी ३ाहिडित छ-३५-२स-मच-२५ તેમાં નથી, અને ગુણથી ચલન-ગુણવાળા છે. અધર્માસ્તિકાયનું સ્વરૂપ– સ્વભાવથી સ્થિતિરૂપ પરિણત થયેલા છે અને પુદ્ગલની સ્થિતિમાં સહકારી થવું તે અધર્માસ્તિકાયનું લક્ષણ છે. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे जीवाः पुद्गलाश्च स्वभावतः स्वयं तिष्ठन्ति तत्रोपादानकारणस्वरूपास्ते स्थिति प्रति, पुनस्तस्यामेव स्थितिक्रियायामधर्मास्तिकायः सहायरूपं निमित्तकारणं भवति । ६८ (१) यथा - स्वयं तिष्ठतां पथिकानां स्थितौ छाया सहकारि कारणं भवति । अतिष्ठतस्तु स्थातुं न पुनः सा प्रेरयति । (२) यथा वा स्वयं तिष्ठतो देवदत्तस्य स्थिति प्रति पृथिवी सहकारि कारणं भवति । अतिष्ठन्तं तु देवदत्तं न पृथिवी स्थापयति । (३) यथा-समितिगुप्तिधारिणो रत्नत्रयाराधिनः समरसकन्दाः समाहितमतयो महात्मानो निश्चयनयेन निजात्मस्वरूपं चिन्तयन्तः क्षपकश्रणिं समारुह्य समुत्पन्न - जीव और पुद्गल जब स्वभाव से ही स्थित होते है, अपनी स्थिति में उपादान कारण तो स्वयं वही है, पर अधर्मास्तिकाय उस में सहायक होता है, अतः वह निमित्त कारण है । (१) जैसे—स्वयं ठरने वाले पथिको की स्थिति मे छाया सहकारी कारण होती है । अगर कोई न ठहरे तो वह ठहरने की प्रेरणा नहीं करती । (२) अथवा जैसे - स्वय ठहरने वाले देवदत्त की स्थिति मे पृथिवी सहकारी कारण है । मगर देवदत्त को न ठहरना हो तो पृथ्वी जबर्दस्ती नहीं ठहराती | (३) अथवा जैसे -समिति गुप्तिके धारक, रत्नत्रय की आराधना करने वाले, समभाव के रस में निमग्न समाधियुक्त मति वाले महात्मा निश्चय नय से आत्मस्वरूपका चिन्तन करते જીવ અને પુદ્ગલ જ્યારે સ્વભાવથી જ સ્થિત થાય છે તેા પેાતાની સ્થિતિમાં ઉપાદાન કારણ તે પોતે જ છે, પરન્તુ અધર્માસ્તિકાય તેમાં સહાયક થાય છે, તેથી તે નિમિત્ત કારણુ છે (૧) જેવી રીતે-પાતે ઉભા રહેવા વાળા મુસાફરોની સ્થિતિમાં છાયા સહકારી કારણુ ય છે. અગર કાઇ ઉભા ન રહે તે તે ઉભા રહેવાની પ્રેરણા નથી કરતી. (૨) અથવા–જેવી રીતે પેાતે જ ઉભા ન રહેવા વાળા દેવદત્તની સ્થિતિમાં પૃથ્વી સહકારી કારણ છે, પરન્તુ જો દેવદત્તને ઉભા ન રહેવું હોય તે પૃથ્વી દેવદત્તને ખળજખરીથી ઉભા રાખી શકતી નથી. (3) अथवा देवी शेते समिति गुप्तिना धार, रत्नत्रयनी गाराधना ४२वाવાળા, સમભાવના રસમા નિમગ્ન, સમાધિયુક્ત મતિવાળા મહાત્મા નિશ્ચયનયથી Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा केवलज्ञान-केवलदर्शनभृतः सन्तः सकलकर्मक्षयं कृत्वा, शरीरमौदारिकमिह परित्यज्य, सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं गतास्तिष्ठन्ति, तेषां निश्चयनयेन स्वतः स्थितिपरिणतानां तत्र साद्यपर्यवसितां स्थिति प्रति तत्स्थानं सहकारि कारणं भवति । न तु तत् स्थानं तानवस्थातुं प्रेरयति । (४) यथा व्यवहारनयेन सिद्धभक्त्या स्वयं समुत्पन्नसविकल्पध्यानावस्थितानां महात्मनां सविकल्पध्याने स्थिति प्रति, निष्क्रियो मूतिरहितः प्रेरणारहितोऽपि सिद्धभगवान् सहायः सन् सहकारि कारणं भवति। नत्वसौ तान् तद्धयाने स्थातुं प्रेरयति। हुए क्षपकश्रेणी पर आरूढ हो कर उत्पन्न केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले हो कर समस्त कर्मों का क्षय करके औदारिक शरीर को यहीं त्याग कर सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो कर स्थिर हो जाते हैं। निश्चयनय से स्वयं स्थिति में परिणत हुए उन सिद्ध जीवो की सादि-अनन्त स्थिति मे वह स्थान सहकारी कारण होता है, किन्तु वह स्थान उन्हें ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता। (४) अथवा जैसे-व्यवहारनय से सिद्ध भगवान् की भक्तिसे स्वयं उत्पन्न हुए सविकल्प ध्यान में अवस्थित महात्मा पुरुषों की सविकल्प में जो स्थिति है, उस में अक्रिय अमूर्तिक और प्रेरणारहित भी सिद्ध भगवान् सहायक होने से निमित्त कारण होते है, किन्तु वे उन्हे ध्यान में स्थित होने की प्रेरणा नहीं करते । આત્મસ્વરૂપનું ચિંતન કરતા થકા ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ થઈને ઉત્પન્ન કેવલજ્ઞાન અને કેવલદર્શનને ધારણ કરવા વાળા થઈને સમસ્ત કર્મોને ક્ષય કરીને ઔદારિક શરીરને અહિં જ ત્યાગ કરીને સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત થઈ સ્થિર થઈ જાય છે. નિશ્ચયનયથી સ્વયં સ્થિતિમાં પરિણત થયેલા તે સિદ્ધ જીની સાદિ અનંત સ્થિતિમાં તે સ્થાન સહકારી કારણ હોય છે, પરંતુ તે સ્થાન તેને ભવા માટે પ્રેરણા નથી કરતું. (૪) અથવા-જેવી રીતે વ્યવહારનયથી સિદ્ધ ભગવાનની ભક્તિથી સ્વયં ઉત્પન્ન થયેલા સવિકલ્પ ધ્યાનમાં અવસ્થિત મહાત્મા પુરૂષની સવિકલ્પ ધ્યાનમા જે સ્થિતિ છે, તેમાં નિકિય, અમૂર્તિક અને પ્રેરણારહિત સિદ્ધ ભગવાન સહાયક હોવાથી નિમિત્ત કારણ હોય છે, પણ સિદ્ધ ભગવાને તેને ધ્યાનમાં સ્થિત થવાની પ્રેરણા કરતા નથી. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ၆ဝ इदमेवाभिप्रेत्य भगवताऽभिहितम् - " अहम्सो ठाणलक्खणो " इति ( उत्तरा . अ. २८ ) ' अधर्मः स्थानलक्षणः ' इति च्छाया । लक्ष्यते = दृश्यते परिचीयते अनेनेति लक्षण= परिचायकं ज्ञापकम् । स्थानं= स्थितिरेव लक्षण = ज्ञापकं यस्याऽसाविति स्थानलक्षणः । स्थितिकार्यानुमेयोऽधर्मास्तिकाय इत्याशयः । आचाराङ्गसूत्रे अधर्मास्तिकायस्य-(१) अरूपित्वम्, (२) अचेतनत्वम्, (३) अक्रियत्वम्, (४) स्थितिसहायकत्वमिति गुणाः । (१) स्कन्धः, (२) देश:, (३) प्रदेशः, (४) अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः । इसी अभिप्राय से भगवान ने कहा - " अहम्मो ठाणलक्खणो" अधर्मास्तिकाय स्थिति लक्षण वाला है | ( उत्तरा० अ० २८ ) जिस के द्वारा कोई वस्तु लखी जाय (देखी जाय) या जो, वस्तु का परिचायक (परिचय कराने वाला) हो वह लक्षण कहलाता है । स्थान अर्थात् स्थिति ही जिस का लक्षण है, अर्थात् स्थितिरूप कार्य से जिस का अनुमान होता है उसे अधर्मास्तिकाय कहते हैं । अवर्मास्तिकाय के गुण–( १ ) स्थितिसहायकत्व है । (१) स्कन्ध, अधर्मास्तिकाय के पर्याय हैं अरू पिच ( २ ) अचेतनत्व (३) अक्रियत्व और (२) देश (३) प्रदेश, और ( ४ ) अगुरुलघुत्व, मे अभिप्रायथी लगवाने स्थिति सक्षायु वाणा छे. ( उत्तराध्ययन. अ. २८ ) छे – “अहम्मो ठाणलक्खणो " अधर्मास्तिप्रय જેના દ્વારા કઈ વસ્તુ લખી શકાય ( દેખી શકાય) અથવા જે વસ્તુના પરિચય કરાવનાર હોય તે લક્ષણ કહેવાય છે. સ્થાન અર્થાત્ સ્થિતિ જ જેનુ લક્ષણ છે અર્થાત્ સ્થિતિરૂપ કાર્યથી જેનું અનુમાન થાય છે, તેને અધર્માસ્તિકાય કહે છે. अधर्भाायना गुणु-(१) अरुचित्व (२) अयेतनत्व ( 3 ) अयित्व भने (४) स्थितिसहायत्व छे. (१) धुंध, (२) हेश, (3) अहेश, मने (४) अगुड्सधुत्व, मे अधर्मास्ति ફાયના પર્યાય છે. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा ज्ञायते, यथा-अधर्मास्तिकायो द्रव्यत एकः, क्षेत्रतो लोकपमाणः, कालत ओद्यन्तरहितः, भावतो रूपरहितः-वर्णगन्ध-रस-स्पर्शवर्जित इति, गुणतः स्थितिगुणः । ननु धर्माधर्मशब्दाभ्यां पुण्यपापरूपो शुभाशुभफलदौ धर्माधी कथ नात्र गृह्यते ? इति चेत् , उच्यते-तयोगुणत्वेन द्रव्यप्रकरणे समावेशासंभवात् । किञ्च तौ धर्माधौं पुण्यपापरूपौ पुद्गलत्वेनाभिमतौ पुद्गलद्रव्यान्तर्भूतौ, ततस्तयोर्न धर्माधर्मास्तिकायमध्ये समावेशः। __अधर्मास्तिकाय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के भेदसे पांच प्रकार से जाना जाता है । जैसे-अधर्मास्तिकाय द्रव्य से एक है, क्षेत्र से लोकप्रमाण है, काल से आदि अन्त रहित है, भावसे अरूपी अर्थात् रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श से रहित है, और गुण से स्थितिगुण वाला है। शङ्का-धर्म शब्द से शुभ फल देने वाले पुण्य का और अधर्म शब्द से अशुभ फल देने वाले पाप का ग्रहण क्यों नहीं किया गया ? समाधान-पुण्य और पाप, द्रव्य नहीं, गुण है, इसी लिये इनका द्रव्यके प्रकरण में समावेश नहीं हो सकता । अथवा पुण्य-पाप रूप धर्म और अधर्म पुद्गल है, अतः उनका समावेश पुद्गल मे ही हो जाता है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय में उन्हे गर्भित नहीं किया जा सकता। અધર્માસ્તિકાય દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ ભાવ અને ગુણના ભેદથી પ્રાંચ પ્રકારે જાણી શકાય છે જેમકે–અધર્માસ્તિકાય દ્રવ્યથી એક છે, ક્ષેત્રથી લોકપ્રમાણ છે, કાલથી આદિ-અન્ત રહિત છે, ભાવથી અરૂપી અર્થાત્ ૧૫, રસ ગંધ અને સ્પર્શથી રહિત છે, અને ગુણથી સ્થિતિગુણવાળા છે. શકા–ધર્મ શબ્દથી શુભ ફલ આપવા વાળા પુણ્ય અને અધર્મ શબ્દથી અશુભ ફલ આપવા વાળા પાપનું ગ્રહણ શા માટે કરવામાં આવતું નથી ? સમાધાન-પુણ્ય અને પાપ, દ્રવ્ય નથી, ગુણ છે એટલા માટે દ્રવ્યનાં પ્રકરણમાં તેનો સમાવેશ થઈ શકતો નથી અથવા પુણ્ય–પાપરૂપ ધમ અને અધમ પુદગલરૂપ છે, તેથી તેને સમાવેશ પુદ્ગલમાં જ થઈ જાય છે ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાયમાં તેને ગર્ભિત નથી કરી શકતા. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ आचारागसूत्रे अथाकाशस्वरूपम्आ-समन्तात् काशते अवगाहदानेन प्रतिभासते इत्याकाशम् , यद्वा-आकाशन्ते-दीप्यन्ते धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाः स्वस्वरूपेण यत्र तत् । धर्माधर्मादिसर्वद्रव्याणामाधारतयाऽवकाशं ददातीत्यवकाशदायित्वं लक्षणमाकाशास्तिकायस्य । अत्रावकाशदायित्वं व्यवहारनयेनौपचारिकम् । अस्तिकायशब्दः प्राग् व्याख्यातः। उक्तं चोत्तराध्ययनमूत्रे (२८ अध्ययने)"भायणं सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्षणम् ।" इति । आकाशका स्वरूप'आकाश' शब्द में 'आ' और 'काश' दो हिस्से हैं । 'आ' का अर्थ है-सभी ओर से-सर्वत्र, और 'काश' का अर्थ है-प्रकाशित होने वाला । तात्पर्य यह है कि अपने अवगाहदाननामक गुणसे सर्वत्र प्रभासित होता है, वह आकाश है। अथवा जहाँ धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव अपने-अपने स्वरूप से प्रकाशित होते है, उसे आकाश कहते है। धर्म, अधर्म, आदि समस्त द्रव्यों का आधार होकर जो उन्हे आश्रय देता है, वही आकाश है । अवकाश देने वाला ही आकाश कहलाता है । यहाँ 'अवकाश देना' आकाश का जो लक्षण बतलाया गया है, वह व्यवहारनयसे उपचरित कथन है। ‘अस्तिकाय' शब्द की व्याख्या पहले ही की जा चुकी है । उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २८) में कहा है :"भायणं सम्बदव्वाणं नहं ओगाहलक्वणं" इति । આકાશનુ સ્વરૂપ– 'मा ' शभा २' भने, '४३ मे मा छ. 'मा', न म छ-यारेय કોરથી–સર્વત્ર, અને “કાશને અર્થ છે પ્રકાશિત થવા વાળા, તાત્પર્ય એ છે કેપિતાના અવગાહદાન (અવકાશ આપ) નામના ગુણથી જે સર્વત્ર પ્રતિભાસિત હેય છે તે આકાશ છે, અથવા જ્યાં ધર્મ, અધમ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવ પિતા પોતાના સ્વરપથી પ્રકાશિત હોય છે–પ્રતીત થાય છે તેને આકાશ કહે છે. ધર્મ, અધમ આદિ તમામ ને આધાર બની છે તેને આશ્રય આપે છે તે આકાશ છે. અવકાશ આપનાર જ આકાશ કહેવાય છે. અવકાશ આપવું તે આકાશનું લક્ષણ બતાવવામાં આવ્યું છે, તે વ્યવહારનયથી ઉપચારરૂપ કથન છે. અસ્તિકાયં શબ્દની વ્યાખ્યા પ્રથમ જ કહી દીધી છે. ઉત્તરાધ્યયન મુત્ર (અ૨૮)માં ४वूछे ४- “भायणं सव्यव्वाणं नहं ओगाहलक्सणं" त. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा 'भाजनं सर्वद्रव्याणां, नभोऽवगाहलक्षणम् । इति च्छाया । सर्वद्रव्याणां भाजनम् = आधार:, इति हेतुगर्भविशेषणम् । यतः सर्वद्रव्याणां भाजनम्, अतः अवगाहलक्षणं नम इति भावः । ७३ धर्माधर्मकालानामन्तः समावेशेन जीवपुद्गलानामौपचारिकसंयोगविभागाभ्यां चावगाहः । अवगाह्य तत्तदेशरूपोपाधिभेदादवगाहस्य नानात्वेन संयोगविभागा उपपद्यन्ते । " raipisaकाशः, स एव लक्षणं ज्ञापकं यस्य तद् अवगाहलक्षणं नभः = आकाशं कथ्यते, इत्यर्थः । अवगाहदानकार्यानुमेयमाकाशमित्याशयः । धर्माधर्मादिद्रव्याणामाधारान्यथाऽनुपपत्तेराकाशमस्तीति निःशङ्कं विश्व 'आकाश' सब द्रव्यों का आधार है । सारांश यह है कि आकाश सब द्रव्यों का आधार होनेसे अवगाह-लक्षण वाला है 1 'धर्मास्तिकाय' 'आधर्मास्तिकाय' और काल का आकाश में ही समावेश होने से जीव और पुद्गलों के औपचारिक संयोग और विभाग के द्वारा अवगाह होता है । अवगाह होने पर देश के भेद से अवगाह भी भिन्न हो जाता है और संयोग तथा विभाग उत्पन्न होते है । तात्पर्य यह है कि - अवगाह या अवकाश ही जिस का लक्षण है, अर्थात् अवगाह से जिस का अनुमान होता है वह द्रव्य आकाश है । आकाश न होता तो धर्म, अधर्म आदि द्रव्यो की स्थिति कहां होती' अर्थात् उनका कोई आधार ही नहीं रहता, अत एव आकाश का अस्तित्व, किसी प्रकार को शङ्का किये આકાશ સદ્રવ્યાના આધાર છે. સારાંશ એ છે કે આકાશ સર્વ દ્રબ્યાના આધાર હૈાવાથી અવગાહન લક્ષણવાળુ છે. ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય અને કાલના આકાશમાં સમાવેશ હોવાથી જીવ અને પુદ્ગલાના ઔપચારિક સંચાગ અને વિભાગ દ્વારા અવગાહ થાય છે, અવગાહ થવાથી દેશના ભેદથી અવગાહ પણ ભિન્ન થઇ જાય છે. અને સ ંચાગ તથા વિભાગ ઉત્પન્ન થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-અવગાહ અથવા અવકાશ જ જેનું અવગાહથી જેનુ અનુમાન થાય છે તે દ્રવ્ય આકાશ છે. અથવા તે ધ, અધમ આદ્ઘિ દ્રવ્યેાની સ્થિતિ કયાં હાય ? અર્થાત્ તેને प्र. आ.-१० લક્ષણ છે, અર્થાત્ આકાશ ન હોય કઈ આધાર જ R Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ आचाराङ्गमुत्रे सनीयम्, इत्यपि भगवता वोधितम् । आकाशसिद्धयर्थं 'भायणं सव्वदव्वाणं'इति, ' ओगाहलक्खणं ' इति च विशेषणद्वयमुपात्तम् । आकाशं द्विविधम्-लोकालोकभेदात् उक्तं च स्थानाङ्गसूत्रे - 1 " दुविरे आगासे पन्नत्ते, तंजहा- लोगागासे चेव अलोगागासे चेव " इति । द्विविध आकाशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - लोकाकाशश्चैव अलोकाकाशचैव, इति च्छाया । धर्मादिसर्वद्रव्याणामाधारभूतमसंख्यातप्रदेशात्मकमाकाशखण्डं लोकाकाशम् । तद्भिन्नमनन्तप्रदेशात्मकमलोकाकाशम् । नतु धर्माधर्मद्रव्यस्वीकारे प्रयोजनं न किमपि पश्यामः, जीव- पुद्गलानां गतिस्थितिकार्ययोः सहायरूपं कारणं त्वाकाशमेव स्यात् ? । विना विश्वास करने योग्य है, यह भी भगवान् ने उक्त कथन से ध्वनित कर दिया है । आकाश की सिद्धि के लिये ' भायणं सव्वदव्वाणं' और 'ओगाहलक्खणं' ये दो विशेषण लगाये गये है । आकाश दो प्रकार का है-लोकाकाश, और अलोकाकाश । स्थानामसूत्र में "दुविहे आगा से पन्नत्ते तं जहा- लोगागासे चेव अलोगागासे चेव" धर्म आदि सब द्रव्यों का आधार और असंख्यातप्रदेशरूप आकाशखण्ड, लोकाकाश कहलाता है । लोकाकाश से भिन्न अनन्तप्रदेशी अलोकाका है कहा है शङ्का - जब कि आकाश ही जीव और पुद्रलो की गति एव स्थिति में सहायक कारण हो सकता है तो फिर बर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यो को स्वीकार करने का कोई ન રહેત, એટલા માટે આકાશના અસ્તિત્વ, કેાઈ જાતની પણ શકા કર્યા વગર વિશ્વાસ કરવા ચેાગ્ય છે; એ પણ ભગવાને ઉક્ત કથનથી ધ્વનિત કર્યું" છે. भाडारानी सिद्धि भाटे 'भायणं सव्वाणं' ने 'ओगाइलक्खणं' या मे विशेष! લગાવેલા છે. माटाश को अारना छे. (१) बोअउ सूत्रभां युद्धे -" दुविहे आगासे पन्नत्ते, भने (२) मसोप्राश स्थानांग तंजहा- लोगागासे चेव अलोगागासे चेव' અને અસખ્યાતપ્રદેશપ આકાશખડ ધર્મ આદિ તમામ દ્રબ્યાના આધાર તે લેાકાકાળ કહેવાય છે. લેકાકાશથી ભિન્ન અનન્તપ્રદેશી અલેાકાકાશ છે. શંકા-જો કે આકાશ જ જીવ અને પુદ્ગલેાની ગતિ અને સ્થિતિમાં સહાયક કારણ થઈ શકે છે તે પછી ધર્માસ્તિકાય અને અધર્માસ્તિકાય દ્રવ્ચેાને સ્વીકાર Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा अत्रोच्यते-धर्मश्चाधर्मश्चेति द्रव्यद्वयमवश्यमङ्गीकरणीयम् , अन्यथा दोषबाहुल्यप्रसङ्गात् । (१) आकाशस्य गतिहेतुत्वस्वीकारे जीवपुद्गलानामलोकाकाशगमनापत्तिः । (२) अलोकाकाशस्यापि जीवपुद्गलपूर्णत्वे लोकत्वमसंगः, तथा चालोकाकाशस्य नामाऽपि बन्ध्यापुत्रवदेव स्यात् ।। (३) भगवत्प्ररूपिताऽऽकाशद्वैविध्यव्यवस्थाऽपि न सिद्धयेत् । प्रयोजन दिखाई नहीं देता। समाधान-धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य अवश्य स्वीकार करना चाहिये। उन्हें स्वीकार न करने से बहुतसे दोष आते है । वे इस प्रकार (१) आकाश को ही गति का कारण मान लिया जाय तो जीवों और पुद्गलों का अलोकाकाश में भी गमन मानना पडेगा, क्योंकि अलोकाकाश भी तो आखिर आकाश ही है। (२) अलोकाकाश अगर जीवो और पुद्गलो से व्याप्त मान लिया जाय तो वह अलोकाकाश न रहकर लोकाकाश ही हो जायगा । ऐसी स्थिति में अलोकाकाश तो बन्ध्यापुत्र के समान हो जायगा, अर्थात् अलोकाकाश का अस्तित्व नहीं रहेगा। (३) भगवान् ने दो प्रकार का आकाश बतलाया है, वह व्यवस्था भङ्ग हो जायगी। કરવાનું કેઈ પણ પ્રજન જેવામાં આવતુ નથી. સમાધાન-ધર્મદ્રવ્ય અને અધર્મદ્રવ્યને અવશ્ય સ્વીકાર કરવું જોઈએ, તેને સ્વીકાર નહિ કરવાથી બહુ જ દેષ આવે છે, તે આ પ્રમાણે– (૧) આકાશને જ ગતિનું કારણ માની લેવામાં આવે તે છે અને પુગલનું અલકાકાશમાં પણ ગમન માનવું પડશે, કેમકે અલકાકાશ પણ છેવટે તે આકાશ જ છે. (૨) અથવા અલકાકાશ છે અને પુગલેથી વ્યાપ્ત માની લેશે તે તે અલેકાકાશ નહિ રહેતાં લેકાકાશજ થઈ જશે, એવી સ્થિતિમાં અલોકાકાશ તો વયા પુત્રના સમાન થઈ જશે, અર્થાત્ અલકાકાશનું અસ્તિત્વ જ રહેશે નહિ. (૩) ભગવાને બે પ્રકારના આકાશ બતાવ્યાં છે, તે વ્યવસ્થા ભંગ થઈ જશે. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे (४) अपिच-सिद्धभगवान् ऊर्च गत्वा लोकाग्रेऽवस्थित इति मर्यादाऽपि खपुष्पायमानैव स्यात् । (५) भवन्मते गतिकारणीभूतस्याकाशस्योर्ध्वदेशे विद्यमानत्वात्तस्य (सिद्धस्य) गतेवरोधाभावो भवेत् । धर्माधर्मद्रव्ययोराकाशतः पृथक् स्वीकारे तु लोकाकाशत उर्वमलोकाकाशस्य सत्वेन तत्र गतिहेतोधर्मस्याभावान्न गतिर्भवति । स्थितिहेतोरधर्मद्रव्यस्य लोकान्तर्वतित्वन लोकमध्य एवोपरिभागे गतिहेतोधर्मद्रव्यस्य साहाय्येन गत्वा तत्रैवाधर्मद्रव्यसाहाय्येन तिष्ठति । एवं च लोकाग्रे भगवानवस्थितो जले (४) सिद्ध भगवान् उपर जाकर लोक के अग्र भाग में स्थित हो जाते है, यह आगम की मर्यादा भी आकाशपुष्प के समान हो जायगी। (५) आप के मत के अनुसार गतिका कारण आकाश है और वह उर्व देश में । लोकाकाग के अग्रभाग से भी आगे विद्यामान है, अत: सिद्धों की गति में रुकावट नहीं होगी। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को आकाश से भिन्न मान लेने से लोकाकाश से उपर अलोकाकाश में गति का कारण धर्मद्रव्य नहीं है, अत. लोकाकाश से आगे गति भी नहीं होती, तथा स्थिति का कारण अधर्मद्रव्य लोक के अन्तर्गत ही है, अतः धर्मद्रव्य की सहायतासे सिद्ध जीव, लोक के अन्त तक पहुँच कर अधर्म की सहायता से वहीं अर्थात् लोकाकाशके (૪) સિદ્ધ ભગવાન ઉપર જઈને લેકના અગ્રભાગમાં સ્થિત થાય છે, તે આગમની મર્યાદા પણ આકાશ-પુષ્પના સમાન થઈ જશે. (૫) આપના મત પ્રમાણે ગતિનું કારણ આકાશ છે અને તે ઉર્ધ્વ—ઉપરના દેશમાં કાકાશના અગ્રભાગથી પણ આગળ વિદ્યમાન-હેયાત છે, તેથી સિદ્ધોની ગતિમાં રૂકાવટ–કાણ નહિ થાય. ધમ દ્રવ્ય અને અધર્મદ્રવ્યને આકાશથી ભિન્ન માની લેવાથી કાકાશથી ઉપર અલકાકાશમાં ગતિનું કારણ ધર્મદ્રવ્ય નથી, તેથી કાકાશથી આગળ ગતિ પણ થતી નથી, તથા સ્થિતિનું કારણ અધર્મદિવ્ય લેકના અન્તર્ગતજ (અંદર) છે, તેથી ધર્મવ્યની સહાયતાથી સિદ્ધ લેકના અંત સુધી પહોંચીને અધર્મદ્રવ્યની Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा तुम्बीवदिति मर्यादा सुतरामुपपद्यते । उक्तं चौपपातिकसूत्रे "कहिं पडिहया सिद्धा, कहि सिद्धा पइट्ठिया । कहिं बोदिं चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ॥१॥ अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइठिया । इह बौदि चइत्ता णं, तत्य गंतूण सिज्झइ ॥२॥” इति । छाया"कुत्र प्रतिहताः सिद्धाः, कुत्र सिद्धाः प्रतिष्ठिताः। कुत्र बोन्दि (शरीरं) त्यक्त्वा, कुत्र गत्वा सिद्धयति ॥१॥ अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिताः। इह बौदि (शरीर) त्यवत्वा, तत्र गत्वा सिद्धयति ॥ २॥ इति अन्तर्गत ही ठहर जाता है। इस प्रकार जलके अग्रभाग पर ठहरे हुए तुंबे के समान सिद्ध भगवान् लोकाकाश के अग्रभाग पर स्थित है, यह मर्यादो स्वतः सिद्ध हो जाती है। औपपातिकसूत्र में कहा है "सिद्ध भगवान् कहाँ रुकजाते है । कहाँ स्थित होते है । कहाँ शरीर का त्याग करके कहाँ जाकर सिद्ध होते हैं । ॥१॥ सिद्ध भगवान् अलोक में रुक जाते हैं, लोकके अग्रभाग में स्थित होते है। यहाँ शरीर का त्याग करके वहाँ जाकर सिद्ध हो जाते है ॥२॥" સહાયતાથી ત્યાં જ અર્થાત્ કાકાશના અંદરજ થોભી જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે જલના અગ્રભાગ ઉપર સ્થિત રહેલા તુંબડાની પેઠે સિદ્ધ ભગવાન કાકાશના અગ્રભાગ ઉપર સ્થિત છે. આ મર્યાદા સ્વતઃ સિદ્ધ થઈ જાય છે. ઔપપાતિક સૂત્રમાં પણ કહ્યું છે– “સિદ્ધ ભગવાન કયાં રોકાઈ જાય છે ? કયાં સ્થિત થાય છે? કયાં શરીરને त्याग ४शन, ४यां ने सिद्ध थाय छ ? ॥ १ ॥ સિદ્ધ ભગવાન અલોકમાં રોકાઈ જાય છે, લોકના અગ્રભાગમાં સ્થિત થાય छ, महि शरीरन त्यास ४रीन त्यां धने सिद्ध तय . ॥२॥" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे ; नन्वेवं धर्माधर्मद्रव्ये एव समाद्रियेताम् किमाकाशद्रव्यावलम्बनेन, आकाशकार्यावगाहसाहाय्यं धर्माधर्मद्रव्याभ्यामेव संपद्येत ?, इति चेत्, उच्यते - सिद्धान्ते तयोर्जीवादिगतिस्थितिसाधकत्वेन सिद्धान्तितत्वादवकाशं दातुं तौ न प्रभवतः । अन्यसाध्यं कार्यमन्यो न साधयति, अन्यथाऽतिप्रसंगात् । लोकेऽपि चक्षुस्साध्यं दर्शनकार्य न श्रोत्रं साधयति । ७८ ननु केवलज्ञानस्य योऽनन्ततमो भागस्तत्प्रमाणमेव नभोद्रव्यम्, तस्य चानन्ततमभागपरिमितं लोकाकाशम् एतादृशेऽल्पतमरूपे लोकाकाशे लोकाकाश 1 शङ्का - यदि ऐसा हो तो धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ही स्वीकार करलेने चाहिये, फिर आकाश की क्या आवश्यकता है ' आकाश का कार्य अवगाह देना है सो वह कार्य धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य से ही सम्पन्न हो जायगा । समाधान - आगम में धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य को गति और स्थिति में ही सहायक बतलाया है, इस लिए वह अवकाश देने में समर्थ नहीं है, और का कार्य कोई और नहीं कर सकता । अगर ऐसा होने लगे तो सर्वत्र गडबड हो जायगा । लोक में चक्षुका देखना कार्य कान नहीं कर सकता । शङ्का – केवल ज्ञान का जो अनन्तवा भाग हैं उसी के बगवर आकाशक्रव्य है, और आकाश द्रव्य का भी अनन्तवा भाग लोकाकाश है तो इतने छोटे से लोकाकाश में समस्त लोकव्यापी और असंख्यात प्रदेशवाले धर्मद्रव्य का, अधर्मद्रव्य का, अनन्तानन्त जीवा का શંકાજો એ પ્રમાણે છે તે ધદ્રવ્ય અને અધદ્રવ્યના સ્વીકાર કરી લેવા જોઇએ, ફ્રીને આકાશની છુ આવશ્યકતા છે ? આકાશનું કાર્ય અવગાહઅવકાશ આપને તે છે, તે કાર્ય ધર્માંદ્રન્ય અને અધમ દ્રવ્યથી જ સ પન્ન થઈ જશે, સમાધાન--આગમમાં ધર્મદ્રવ્ય અને અધદ્રવ્યને ગતિ અને સ્થિતિમાં સહાયક પતાવ્યા છૅ, એટલા માટે તે અવકાશ આપવામાં સમ નથી ખીજાનુ કાર્ય કાઈ ખીજે નહિ કરી શકે, જે એમ થવા લાગશે તેા સત્ર ગડબડ થઈ જશે. જગતમાં નેત્રથી લેવાનુ કા કાન કરી શકતા નથી. શકા--કેવલજ્ઞાનના જે અન ંતમા ભાગ છે તેના બરાબર આકાશદ્રવ્ય છે, અને આકાશદ્રવ્યને પણ અનંતમા ભાગ લેાકાકાશ છે, તે એવડા નાના સરખા લાકાશમાં સમસ્ત લેકવ્યાપી અને એસખ્યાત પ્રદેશવાળા ધદ્રવ્યના, અધર્મ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यापिनोः प्रत्येकमसंख्यातप्रदेशात्मकयोधर्माधर्मास्तिकाययोरनन्तजीवानां तेभ्योऽ. प्यनन्तगुणपुद्गलानां च कथं समावेशः, एकस्य लोकाकाशस्य सर्वव्यावकाशदानासंभवात् ?, इति चेदुच्यते लोकाकाशस्यावकाशशक्तिर्हि महीयसी विलक्षणा चिन्तयितुमशक्या च, अत एव भगवता-"भायणं सव्वदवाणं नहं ओगाहलक्खणं " इत्युक्तम् । नभसोऽवकाशशक्ति केवलालोकेनावलोक्य सर्वद्रव्याणामाधारत्वं भगवता प्रतिबोधितम् । महीयसी नभसोऽवकाशशक्तिः, सुकरोऽत्र सर्वद्रव्याणां समावेश इति तदाशयः । यथा-वतासानामधेयं मधुरद्रव्यं दुग्धपरिपूरितेऽपि भाजने निहितं सत् और उन से भी अनन्तगुने पुद्गलोंका समावेश किस प्रकार हो सकता है ? एक लोकाकाश समस्त द्रव्यों को अवगाह दे सके, यह असम्भव है । समाधान-लोकाकाग को अवकाश देने की शक्ति महान् है, विलक्षण है, और अचिन्त्य है, इसीलिये तो भगवान् ने कहा है-" भायणं सव्यदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं" अवगाहलक्षण वाला आकाश सब द्रव्यों का आधार है। भगवान् ने अपने केवलज्ञान में आकाश की अवगाहदानशक्ति को देखकर उसे सब द्रव्यों का आधार निरूपण किया है । भगवान् के कथन का अभिप्राय यही है कि आकाश की अवगाहनाशक्ति बहुत बड़ी है, उस में सब द्रव्यों का समावेश सरलता से हो जाता है। ___जैसे-दूध से परिपूर्ण पात्र में बतासे डाल दिये जायँ तो वे उसी में समाविष्ट हो દ્રવ્યને, અન્તાનઃ જીને અને તેનાથી પણ અનન્તગણુ પુદ્ગલેને સમાવેશ કેવી રીતે થઈ શકે ? એક લોકાકાશ સમસ્ત કાને અવગાહ–અવકાશ આપી श, ये मसल छे. સમાધાન–કાકાશની અવકાશ આપવાની શક્તિ મહાન છે, વિલક્ષણ છે भने मयिन्त्य छे थेट भाटे मावाने यु छ-" भायणं सव्वव्वाण नहं ओगाहलक्खणं" अ सक्षगुवा न्याश सर्व द्रव्याने। २॥धार छ. मगवान પિતાના કેવલ જ્ઞાનમાં આકાશની અવગાહદાન–અવકાશ આપનારી–રાતિ જોઈને તેને “સર્વ દ્રવ્યને આધાર છે' એમ નિરૂપણ કર્યું છે. ભગવાનના વચનને અભિપ્રાય એ છે કે-આકાશની અવગાહનશકિત બહુ જ મોટી છે, અને તેમાં સર્વ દ્રવ્યોને સમાવેશ સરલતાથી થઈ જાય છે જેવી રીતે દૂધના પરિપૂર્ણ પાત્રમાં પતાસા નાખવામાં આવે છે તે તેમાં Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे तस्मिन् समाविशति । यथा वा भित्तौ शङ्कोः समावेशस्तथैवानन्तद्रव्याणां लोकाकाशे समावेश इति बोध्यम् । नन्वलोकाकाशस्य कथं सिद्धिः, नासौ हि द्रव्याणामाधारः, नाप्यवकाशदायित्वं तस्य ?, इति चेत् , उच्यते-गतिस्थितिकारणयोधर्माधर्मयोरभावादेव तत्र विद्यमानापि द्रव्याधारताशक्तिरवकाशदानशक्तिश्च नाभिव्यक्ता भवति । तदस्वीकारे तु जीवद्गलानां कर्मनिगडविमुक्तसिद्धानां चोर्ध्वगतिविरामो न स्यात् , भगवत्पतिबोधितलोकालोकव्यवस्थाऽपि न तिष्ठेत् , एवं चागमयुक्तिप्रमाणाभ्यामलोकाकाशं सिद्धम् । जाते है, अथवा जैसे दीवाल में कील का समावेश हो जाता है उसी प्रकार लोकाकाश में अनन्त द्रव्यों का समावेश हो जाता है । शा- अलोकाकाश की सिद्धि कैसे होती है ? न तो वह द्रव्यो का आधार है, न अवकाशदानरूप लक्षण ही उस में घटित होता है ? समाधान--गति और स्थिति के कारण धर्म और अधर्मद्रव्य का अभाव होने के कारण ही अलोकाकाशकी द्रव्याधारता की शक्ति और अवकाशदानशक्ति प्रकट नहीं होती है । अगर अलोकाकाश न माना जाय तो जीवों और पुद्गलों की, तथा धर्मरूपी बेडी से मुक्त हुए सिद्ध जीवों की गति का अन्त हो न होगा, और भगवान् की कही हुई लोक अलोक की व्यवस्था भी कायम नहीं रहेगी । इस प्रकार आगम और युक्ति प्रमाणों से अलोकाकाश की सिद्धि होती है। (દુધમાં) સમાવિષ્ટ–ઓતપ્રોત થઈ જાય છે, અથવા જેવી રીતે દીવાલમાં કીલ-ખીલીને સમાવેશ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે લોકાકાશમાં અનન્ત દ્રવ્યોનો સમાવેશ થઈ જાય છે. શંકા–અલકાકાશની સિદ્ધિ કેવી રીતે હોઈ શકે ? તે દ્રવ્યોનો આધાર નથી અને અવકાશદાનરૂપ લક્ષણ તેનામાં ઘટી શકતું નથી. સમાધાનગતિ અને સ્થિતિના કારણ ધર્મ અને અધર્મ દ્રવ્યને અભાવ હોવાના કારણે જ અલોકાકાશની વ્યાધારતાની શકિત અને અવકાશદાન-શક્તિ પ્રગટ થતી નથી. અથવા અલકાકાશ માનવામાં નહિ આવે તે જીવે અને પગલોની, તથા કર્મરૂપી બેડીથી મુકત થયેલા સિદ્ધ જીવની ગતિને કયાંય અન્ત-છેડે જ નહિ આવે. અને ભગવાને કહેલી લોક–અલોકની વ્યવસ્થા પણ કાયમ નહિ રહે, એ પ્રમાણે આગમ અને યુકિત પ્રમાણે થી અલોકાકાશની સિદ્ધિ થાય છે, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा ___ अन्यसकलद्रव्यापेक्षया महत्परिमाणमाकाशस्य, अनन्तप्रदेशित्वात् । तेनाकाशं महास्कन्धरूपम् । __ आकाशास्तिकायस्य (१)-अरूपित्वम् , (२)-अचेतनत्वम् , (३)-अक्रियत्वम् , (४)-अवगाहदायित्वं चेति गुणाः। (१)-स्कन्धः, (२)-देशः, (३)-प्रदेशः, (४)-अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः । अयं द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-गुण-भेदेन पञ्चधा ज्ञायते, यथा-द्रव्यत एक आकाशास्तिकायः, क्षेत्रतो लोकालोकप्रमाणः, कालत आद्यन्तरहितः, भावतो रूपरहितः-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शवर्जित इति । गुणतोऽवकाशदायी । आकाश का प्रमाण अन्य सब द्रव्यों को अपेक्षा बड़ा है, क्योकि वह अनन्तप्रदेशी है, अतः आकाश महास्कन्धरूप है। (१) अरूपित्व, (२) अचेतनत्व, (३) अक्रियत्व, (४) अवगाहदायित्व, ये आकाशास्तिकाय के गुण हैं । (१) स्कन्ध (२) देश (३) प्रदेश तथा (४) अगुरुलघुत्व, उसके पर्याय है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुणके भेदसे आकाश द्रव्य पाँच प्रकार से जाना जाता है । जैसे द्रव्य से आकाशास्तिकाय एक है, क्षेत्र से लोकालोकप्रमाण है, काल से आदिअन्त रहित है-भावसे अरूपी है, उस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं पाये जाते । गुणसे अवकाश देने वाला है। આકાશનું પરિમાણ બીજાં સર્વ દ્રવ્યોની અપેક્ષાએ મોટ છે, કેમકે તે અનનતપ્રદેશી છે. એટલે કે આકાશ મહાત્કંધરૂપ છે. (१) भइपित्त (२) मयेतनत्य (3) मठिया (४) माायित्व, मे मास्तियना गुए छ, मन. (१) २४ध, (२) हेश, (3) प्रदेश, तथा २१३. सधुत्प, तेना पर्याय छे. દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી આકાશ દ્રવ્ય પાંચ પ્રકારથી જાણી શકાય છે. જેમકે—દ્રવ્યથી આકાશાસ્તિકાય એક છે, ક્ષેત્રથી લોકાલેકપ્રમાણ છે, કાલથી આદિ-અન્તરહિત છે, ભાવથી અરૂપી છે તેમાં વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ નથી, ગુણથી અવકાશ આપવાવાળું છે. प्र. मा.-११ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कालनिरूपणम्तत्र कालशब्दस्य व्युत्पत्तिः कल्यते=परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कालः । करणे घञ् । 'मासिकोऽयं वालः, वार्षिकोऽयं वालः, वासन्तिकमिदं पुष्पम् ' इत्यादिरूपेण वरतूनां परिच्छेदो निर्णयः कालमाश्रित्य भवति । आचाराङ्गसूत्रे अथवा स्वभावतः परिणमद्भिः पदार्थजातैः कल्यते = गम्यते = प्राप्यते निमित्तत्वेनाsसौ, इति कालः । सकलवस्तुपरिणतिहेतुः काल इत्यग्रे वक्ष्यते । कालनिरूपण— काल शब्द की व्युत्पत्ति जिस के द्वारा वस्तु कली जाय अर्थात् जानी जाय वह काल है । यहाँ करणमें 'घञ्' प्रत्यय हुआ है । यह बालक मासिक ( एक मासका ) है, यह बालक वार्षिक (वर्ष भरका) है, यह फूल वासतिक (वसन्तऋतुसम्बन्धी है, इस रूपमें वस्तुओं का ज्ञान काल द्वारा ही होता है । अथवा स्वभावसे परिणत होने वाले पदार्थ समूहों द्वारा निमित्त रूपमें जो प्राप्त किया जाय वह काल कहलाता है । 'काल, समस्त वस्तुओं के परिणमन का हेतु है यह बात आगे बतलाई जायगी । કાલનિરૂપણ— કાલ શબ્દની વ્યુત્પત્તિ— ८८ જેના દ્વારા વસ્તુ જાણી શકાય તે કાલ છે. અહિ` કરણમાં ‘વ' પ્રત્યય થયા આ પાલક માસિક-એક માસનેા છે, આ ખાલક વાર્ષિક-એક વર્ષના છે, આ ફૂલ વાસંતિક–વસંતઋતુસ ખંધી છે” એ રૂપમાં વસ્તુઓનુ જ્ઞાન કાલ દ્વારા જ થાય છે. અથવા સ્વભાવથી પરિણત થવાવાળા પદાર્થ સમૂહેા દ્વારા નિમિત્તરૂપમાં જે પ્રાપ્ત કરી શકાય તે કાલ કહેવાય છે. કાલ સમસ્ત વસ્તુના પરિણમનનું કારણ છે' એ આગળ અતાવવામાં આવશે. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणां ૮૩ - कालस्य सिद्धि: 'पदार्थाः सन्ति, अथवा पदार्था वर्तन्ते' इति व्यवहारो वर्तनामूलः । “अनुदात्तेतश्च हलादे " - रिति पाणिनिसूत्रेण वृतधातोर्युच्प्रत्ययः । वर्तनशीला वर्तना । उत्पत्तिः, अप्रच्युतिः, विद्यमानताख्या वृत्तिः - क्रिया वर्तना । इयं वर्तना सर्वेषु भावेषु विद्यते । वर्तना-पदार्थानां परिणामविशेषः । पदार्थानां वर्तनारूपं कार्यं नोपपद्यते विना केनचिन्निमित्तकारणेन, तस्माद् वर्तनारूपकार्योत्पत्तौ यन्निमित्तं धर्मद्रव्यसिव गतौ, स एव काल इत्युच्यते । काल की सिद्धि ' पदार्थ है, या पदार्थ वर्त रहे हैं' इस प्रकार के व्यवहार का कारण वर्तना है । 'अनुदात्तेतश्च हलादेः' पाणिनि के इस सूत्र से 'वृतु' धातु से 'युच्' प्रत्यय हुआ है । वर्तनशील हो उसे वर्तना कहते है। उत्पत्ति, अप्रच्युति और विद्यमानतारूप वृत्ति अर्थात् क्रिया वर्तना कहलाती है । यह वर्तना सभी पदार्थों में विद्यमान है । वह पदार्थों का विशेष परिणाम है । पदार्थों का वर्तनारूप कार्य किसी निमित्त कारण विना नही हो सकता अतः वर्तनारूप कार्यकी उत्पत्ति में जो निमित्त कारण है, वही काल-क्रय है, जैसे गति का निमित्त कारण धर्म द्रव्य है । *ાલની સિદ્ધિ— પદાર્થ છે અથવા પદાર્થ વત્ત રહેલ છે” એ પ્રકારના વ્યવહારનું કારણુ वर्त्तना छे 'अनुदात्तेतश्च हलादेः' पाणिनिना या सूत्रयी 'वृतु' धातुथी 'युच्' प्रत्यय થયા છે. જે વનશીલ હાય તેને વર્ત્તના કહે છે. ઉત્પત્તિ, અપ્રચ્યુતિ, અને વિદ્યમાનતારૂપ વૃત્તિ, અર્થાત્ ક્રિયા વના કહેવાય છે. વના સ પદાર્થાંમાં વિદ્યમાન છે. તે, પદ્યાર્થીનુ વિશેષ પિરણામ છે. પદાર્થોનું વર્તનારૂપ કાર્ય કોઈ નિમિત્ત કારણુ વિના થઈ શકતું નથી. તેથી વનારૂપ કાર્યની ઉત્પત્તિમાં જે નિમિત્ત કારણ છે તે કાલ દ્રવ્ય છે. જેવી રીતે ગતિનું નિમિત્ત કારણ ધર્મ-દ્રવ્ય છે. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसूत्रे कालस्य लक्षणम्स्वभावतो विद्यमानानां पदार्थानां या विद्यमानताख्या वर्तना, तां प्रति सहकारिकारणत्वं कालस्य लक्षणम् । अनेनैवाशयेन भगवताऽप्युक्तम्- "वट्टणालक्षणो कालो" इति, वर्तनालक्षणः कालः, इति च्छाया । वर्तना, लक्षण कार्यत्वेन प्रत्यायकं, यस्य स वर्तनालक्षणः, वर्तनाकार्यानुमेयः काल इत्यर्थः । अत्र वर्तनेत्युपलक्षणं परिणामक्रियापरत्वापरत्वादीनाम् । परिणामो हि वस्तूनां नोपपद्यते कारणं नियामकमन्तरेण, अन्यथा नियामकहेत्वभावे सर्वे भावा युगपदुत्पद्येरन् । किञ्च-कारणमन्तरेणापि कार्योत्पत्तिः काल का लक्षणस्वभाव से विद्यमान पदार्थों की विद्यमानतारूप जो वर्तना है उस मे सहकारी कारण होना काल का लक्षण है, इसी अभिप्राय से भगवान्ने भी कहा है-"वट्टणालक्खणो कालो" "काल वर्तनालक्षण वाला है।” वर्तना है लक्षण अर्थात् ज्ञापक जिस का, अर्थात् वर्तनारूप कार्य से जिसका अनुमान होता है उसे काल कहते है । वहाँ वर्तना उपलक्षण है उससे परिणाम, क्रिया, परत्व, (पहलापन), और अपरत्व (पीछापन) का भी ग्रहण हो जाता है। नियामक कारणके अभाव में पदार्थों का परिणमन नहीं हो सकता, अगर ऐसा न माना जाय तो सभी पदार्थों को एक साथ ही उत्पत्ति होने लगेगी। तथा कारण के विना भी सनु लक्षाસ્વભાવથી વિદ્યમાન પદાર્થોની વિદ્યમાનતાપ જે વર્ણના છે, તેમાં સહકારી કારણ થવું તે કાલનું લક્ષણ છે. આ અભિપ્રાયથી ભગવાને પણ કહ્યું છે ___ "चट्टणालखणो कालो” ४८ पत्तनातक्षा] पाजो 2 वर्तना छे सक्षY અર્થાત્ સાપક જેનું, અથાત્ વત્તના કાર્યથી જેનું અનુમાન થાય છે. તેને કાલ से . पसना BCA छे तेथी परिणाम, छिया, ५२त्व ( पडसापा) अन અપરત્વ (પાછા)નું ગ્રહણ થઈ જાય છે. નિયામક કારના અભાવમાં પદાર્થનું પરિણમન થતું નથી. જે એવું માનવામાં ન આવે તે સર્વ પદાર્થોની એક સાથે જ ઉત્પત્તિ થઈ જશે, તથા કાર વિના પણ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणां प्रसज्येत, अपराधीनत्वात् परिणामानाम्, अतः परिणामाः प्रतिनियतकालभाविनः, तेषामनेकशक्तियुक्तमेकं कारणं कालाख्यमित्यवश्यमङ्गीकरणीयम् । दद तास्ताश्च शक्तयः स्वस्वकार्यकरणाय कालविशेष एव प्रवर्तन्ते, न सर्वदा, तादृशस्वभाववत्त्वात् । यथा—अङ्कुररूपेण परिणतस्य वनस्पतेर्मूल- काण्ड -- पत्र-स्कन्ध-शाखा-विटप-पुष्प-फलरूपाः परिणामा न युगपद् भवन्ति । आसीदङ्कुरः, संप्रति स्कन्धवान्, ऐषमः पुष्पिष्यति' इति व्यवहारात् । यथा वा पुरुषस्य बालकुमार-युव-मध्यमाद्यवस्थारूपाः, नव-पुराण प्रनष्टरूपाश्च परिणामा न युगपद् भवन्ति, कार्य की उत्पत्ति का प्रसङ्ग उपस्थित होगा, क्योकि परिणाम किसी कारण पर निर्भर तो होंगे नहीं, विना कारण ही होगे, लेकिन ऐसा नहीं होता, परिणाम नियत समय पर ही होते है, अतः अनेक शक्तियों से युक्त एक काल नामक कारण अङ्गीकार करना चाहिए । वह अनेक शक्तियाँ अपना अपना कार्य करने के लिये किसी विशेष काल में ही उद्यत होती है, सर्वदा नहीं, क्योंकि उन का स्वभाव ही ऐसा है, जैसे कि - अङ्कुररूप से परिणत वनस्पति का मूल, काण्ड, त्वचा, पत्र, स्कन्ध, शाखा, विटप, पुष्प और फल रूप परिणमन एक साथ नहीं होते है । पहले अंकुर था, अब स्कन्धवाला हो गया, कुछ दिनों के बाद वह फूलेगा, इस प्रकार का लोकव्यवहार प्रसिद्ध ही है । अथवा - जैसे पुरुष के बाल, कुमार, युवा, मध्यम आदि अवस्था, तथा કાની ઉત્પત્તિના પ્રસ`ગ ઉપસ્થિત થશે. કેમકે પરિણામ કાઇ પર નિર્ભર રહેશે નહિ, વિના કારણે જ થશે, પરન્તુ એવી રીતે હાય નહિ પરિણામ નિયત સમય પર જ હાય છે, એટલા માટે અનેક શક્તિએથી યુક્ત એક કાલ નામનુ કારણુ અંગીકાર કરવુ જોઇએ. તે અનેક શક્તિએ પેાત-પાતાનું કાર્ય કરવા માટે કોઈ વિશેષ કાલમાં જ ઉદ્યત–પ્રકાશિત થાય છે. સદા થતી નથી, કેમકે તેના સ્વભાવ જ એવા છે, नेम—अङ्कु२३५थी परिणत वनस्पतिनुं भूण, अंड-अतणी, छात्र, यंत्र, २४६, शाखा, विटय-डाणी, पुण्य, इज-रूप परिणमन थे साथै थतां नथी. प्रथम अंकुर હતુ, પછી સ્ક ંધવાળું થયું, અને કેટલાક દિવસા પછી તે ફૂલશે, એ પ્રમાણે લેાકવ્યવહાર પણ પ્રસિદ્ધ જ છે. અથવા જેવી રીતે પુરુષને માહ્ય, કુમાર, યુવા, મધ્યમ આદિ અવસ્થા, તથા નવાપણું અને જુનાપણું અને પ્રનષ્ટનાશરૂપ પરિણમન એક સાથે થતુ' નથી, એટલા માટે સમસ્ત પરિણામેાનુ` નિયામક નિમિત્ત Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे ૮૬ तस्मात्सर्वेषां परिणामानां नियामकं निमित्तकारणं काल इति सिद्धम् । यथा कर्त्तरी वस्त्रकृन्तने निमित्तकारणं तथा द्रव्याणां पर्याये निमित्तकारणं कालः । क्रिया = द्रव्यपरिणामः । तस्या अपि नियामकं निमित्तकारणं कालः । यथा - 'आकाशदेशे - अङ्गलिरस्ति, आसीत्, भविष्यति च' इत्ययं व्यवहारः कालमवलम्ब्य संपद्यते, कालस्यासत्वे त्वतीत एव वर्तमानोऽनागतश्च स्यात् क्रियानियामकाभावात् एवमतीतादिविभागाभावे व्यवहारोच्छेदापत्तिः, तस्मात् "अस्ति कालः यमाश्रिस्यातीतादिव्यवहाराः सुस्पष्टं प्रसिध्यन्ति " इति मन्तव्यम् । , नयापन, पुरानापन, और प्रनष्टरूप परिणमन एक साथ नहीं होते हैं, अत एव समस्त परिणामो का नियामक निमित्त कारण काल ही सिद्ध होता है । जैसे कैंची वस्त्र काटने में निमित्त कारण होती है, उसी प्रकार द्रव्यों के परिणमन में काल निमित्त कारण होता है । क्रिया द्रव्य का परिणामविशेष है । उसका निमित्त कारण भी काल ही है । जैसे 'आकाश में अंगुली है, थी और होगी' इस प्रकार का व्यवहार काल के आश्रित है । काल की सत्ता न मानी जाय तो अतीत ही वर्तमान और अनागत ( भविष्य ) हो जायगा, क्योंकि क्रिया का कोई नियामक नहीं है । इस प्रकार अतीत आदि कालों का विभाग न रहने से व्यवहार का लोप हो जायगा, अतः "काल अवश्य है, जिस के सहारे अतीत आदि के व्यवहार स्पष्ट रूप से सिद्ध होते है" ऐसा मानना ही समुचित है । કારણુ કાલ જ સિદ્ધ થાય છે જેમકે કાતર, વસ્ત્રને કાપવામાં નિમિત્ત કારણુ થાય છે, તે પ્રમાણે દ્રવ્યેાના પરિણમનમાં કાલ નિમિત્ત કારણ થાય છે. ક્રિયા એ દ્રવ્યનું પરિણામ વિશેષ છે. તેનું નિમિત્ત કારણ પણુ કાલ જ છે. જેમ આકાશમાં આગળી છે, હતી અને હશે' આ પ્રકારના વ્યવહાર કાલને આશ્રિત છે. કાલની સત્તા ન માનવામાં આવે તે અતીત–ભૂતકાળ જ વર્તમાન અને ભવિષ્ય કાળ થઈ જશે, કેમકે ક્રિયાના નિયામક કોઈ નથી, આ પ્રમાણે અતીત ભૂતકાળ આદિ કાળેાના વિભાગ નહિ રહેવાથી વ્યવહારને લેપ થઈ જશે. એટલા માટે “કાલ અવશ્ય છે, જેની સહાયતાથી ભૂતકાળ આદિને વ્યવહાર સ્પષ્ટરૂપથી સિદ્ધ થાય છે” એમ માનવું તે જ ચેાગ્ય છે. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ ___ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा प्रतिदिवसमुभयकालिकसकलवस्त्रपात्रादिप्रतिलेखन, प्रत्यहोरात्रमुभयकालिकमावश्यकं, चतुष्कालिकं स्वाध्यायकरण मुनीनां कर्तव्यतया भगवतोपदिष्टं, तच्च कालस्यासत्त्वे तद्विभागज्ञानाभावेन यथाकालमनुष्ठातुमशक्यं मुनिभिरिति शास्त्रानर्थक्यमापद्येत । भिक्षार्थमकालवर्जनपूर्वककालानुरोधेन निष्क्रमप्रतिक्रमकर्तव्यता भगवत्प्ररूपिता गृहीतप्रव्रज्यानां भिक्षूणां नष्टमाया स्यात् । प्रतिदिन दोनों वक्त समस्त वस्त्र पात्र आदि का प्रतिलेखन करना, प्रत्येक दिन और रात्रि के अन्त में आवश्यक करना, चौकालीन स्वाध्याय करना भगवान्ने मुनियों का कर्तव्य बतलाया है। अगर कालद्रव्य की सत्ता न मानी जाय तो दिन रात आदि के भेद का पता ही नहीं चलेगा और समय पर उक्त सब कार्य नहीं किये जा सकेगे। एसी अवस्था में शास्त्रों का यह उपदेश निरर्थक हो जायगा । " अकाल का त्याग कर के समुचित समय पर मुनियों को भिक्षा के लिए जाना और आना चाहिए " भगवान् ने मुनियों का यह कर्तव्य बतलाया है, कालद्रव्य न मानने पर यह सब कर्तव्य, और उनका उपदेश भी नष्टप्राय हो जायगा । પ્રતિદિન અને વખત સમસ્ત—તમામ વસ્ત્ર, પાત્ર આદિનું પ્રતિલેખન કરવું, પ્રત્યેક દિવસ અને રાત્રિના અન્તમાં આવશ્યક કરવું, ચીકાલીન–ચારેય કાલ સ્વાધ્યાય કરે. તે ભગવાને મુનિઓનું કર્તવ્ય બતાવ્યું છે. અગર કાલદ્રવ્યની સત્તા નહિ માને તે દિવસ રાત વગેરે ભેદને પત્તો મળશે નહિ, અને સમય પર આગળ કહેલાં સર્વ કાર્યો કરી શકાશે નહિ, એવી અવસ્થામાં શાસ્ત્રોને એ ઉપદેશ નિરર્થક थशे. અકાલને ત્યાગ કરીને એગ્ય સમય પર મુનિઓએ ભિક્ષાને માટે જવું–આવવું જઈએ” ભગવાને મુનિએનું એ કર્તવ્ય કહ્યું છે. કાલદ્રવ્યને નહિ માનવામાં આવે તે આ સર્વ કર્તવ્ય અને તેમને ઉપદેશ પણ નષ્ટપ્રાય થઈ જશે. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे किञ्च-ग्रीष्मादिषु संयतानामतापनादयो धर्माः भगवदुक्ताः कालसत्त्व एवोपपद्यन्ते । अन्यथा ग्रीप्मादिऋतुज्ञानाभावाद् भगवदुपदिष्टक्रियाहानिः प्रसज्येत । एवं च वर्तना, परिणामः, क्रियाश्च द्रव्यस्वभावाः कालमाश्रित्य भवन्तीति निरूपितम् । __परापरव्यतिकरज्ञानमपि कालेनैव संपद्यते । विप्रकृष्टः कनिष्ठपर्यायो मुनिः क्षेत्रेण परोऽपि कालेनापरः, संनिकृष्टो ज्येष्ठपर्यायो मुनिः क्षेत्रेणापरोऽपि इसके अतिरिक्त ग्रीष्म आदि ऋतुओं में साधुओं के लिये भगवान्ने आतापना आदि धर्मोंका उपदेश दिया है, काल के होने पर ही यह उपदेश बन सकता है । काल के अभाव में ग्रीष्म ऋतु का ही ज्ञान नहीं होगा और भगवान् द्वारा उपदिष्ट क्रिया की हानि हो जायगी। यहां तक यह बतलाया जा चुका कि वर्तना, परिणाम और क्रिया, जो कि द्रव्य के स्वभाव हैं, काल के सहारे ही होते हैं। परत्व और अपरत्व का मिला-जुला सा ज्ञान भी काल द्वारा ही होता है। दूरवर्ती छोटीदीक्षापर्यायवाला मुनि दूर होने के कारण क्षेत्र से पर होने पर भी ( दीक्षा में छोटा होने के कारण ) काल से अपर कहलाता है। समीपवर्ती है, मगर ज्येष्ठदीक्षापर्यायवाला मुनि क्षेत्र से अपर होने पर भी काल से पर कहलाता है। यहाँ 'पर' भी 'अपर' हो गया है और 'अपर' भी 'पर' बना गया है । તે સિવાય ગ્રીષ્મ આદિ ઋતુઓમાં સાધુઓ માટે ભગવાને આતાપના આદિ ધર્મોને ઉપદેશ આપે છે, કાલ દ્રવ્યને માનવામાં આવે તે જ, અથવા કાલ દ્રવ્ય હોય તે જ એ ઉપદેશ ઘટી શકે છે. કાલના અભાવમાં ગ્રીષ્મ ઋતુનું જ્ઞાન થશે નહિ, અને ભગવાને કહેલી ક્રિયાની હાનિ થઈ જશે. અહિં સુધી બતાવી ચૂક્યા કે વર્તન, પરિણામ અને કિયા, જે કે દ્રવ્યને સ્વભાવ છે, કાલની સહાયતાથી જ થાય છે. પરત્વ અને અપરત્વનું મિલા-જુલા જેવું જ્ઞાન પણ કાલદ્વારા જ થાય છે. દૂરવર્તી, નાની દીક્ષા-પર્યાયવાળા મુનિ દૂર હોવાના કારણે ક્ષેત્રથી પર હેવા છતાંય પણ (દીક્ષામાં નાના હોવાના કારણે) કાલથી અપર કહેવાય છે, સમીપવતી છે. પણ જયેષ્ઠ-મોટી દીક્ષા પર્યાયવાળા મુનિ ક્ષેત્રથી અપર હોવા છતાંય કાળથી પર કહેવાય छ. मडि '५२ ५४४ अ५२' थ/ गयो छे. सन '२०५२' ५ '५२' मनी गये। छ. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा कालेन पर इत्युच्यते। अत्र परस्यापरत्वम् ; अपरस्य परत्वमिति परापरव्यतिकरः कारणं विना न संभवति, यदत्र कारणं स एव कालः । योगपद्यायोगपद्यप्रत्ययेनापि कालद्रव्यस्यास्तित्वं सिध्यति । 'आभ्यां युगपदधीतो दृष्टिवादः ' 'एभिस्तु मुनिभिरयुगपत् पठिता द्वादशाङ्गी' इति वाक्यतोऽध्ययनगतयोगपद्यायोगपद्यप्रतीतो कालमन्तरेणान्यनिमित्तं नोपलभ्यते, यच्च निमित्तं स कालः। x ‘परस्परविषयगमनं व्यतिकरः' । पर और अपरका यह व्यतिकर+ कारण के विना संभव नहीं है, अत एव इस व्यतिकर में जो कारण है, बस वही काल है । योगपद्य (एक साथ) और अयोगपद्य (आगे-पीछे ) का जो ज्ञान होता है उस से भी कालद्रव्य का अस्तित्व सिद्ध होता है । " इन दोनों मुनियोंने एक साथ दृष्टिवाद का अध्ययन किया" और "इन मुनियोंने बारह अङ्ग एक साथ नहीं पढे-आगे पीछे पढे हैं,"-इस वाक्य से योगपद्य और अयोगपद्य का-एक साथ का और आगे पीछे का जो ज्ञान होता है उसमें काल के अस्तित्व के सिवाय और कोई कारण नहीं पाया जाता । जो कारण है वही काल है । + 'परस्परविषयगमनं व्यतिकर.', अर्थात् एक का विषय दूसरे में चला जाना व्यतिकर कहलाता है, जैसे-पर का अपर हो जाना और अपर का पर हो जाना । પર અને અપરનાં એ વ્યતિકર કારણ વિના સંભવ નથી, તેથી એ વ્યતિકરમાં જે કારણ છે, બસ તેજ કાળ છે. ચૌગપદ્ય-એક સાથે અને અયૌગપદ્ય-આગળ-પાછળનુ જે જ્ઞાન થાય છે, તેમાં પણ કાલદ્રવ્યનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. “એ બને મુનિઓએ એક સાથે દૃષ્ટિવાદનું અધ્યયન કર્યું” અને “એ મુનિઓએ બાર અંગેનું એક સાથે અધ્યયન કર્યું નથી–આગળ-પાછળ અધ્યયન કર્યું છે” આ વાક્યથી યૌગપદ્ય અને અયોગપદ્યનું–એક સાથેનું અને આગળ-પાછળનુ જે જ્ઞાન થાય છે. તેમાં કાલ વિના બીજું કોઈ કારણ દેખાતું નથી. જે કારણ છે તે જ કાળ છે. +परस्परविषयगगनं व्यतिकरः" अर्थात्-मेनो विषय भीमा यात्या लय તે વ્યતિકર કહેવાય છે. જેવી રીતે-પરનુ અપર થંઈ જવું અને અપરનુ પર થઈ જવું. प्र. आ.-१२ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० - • - आचारागसूत्रे चिरक्षिपप्रत्ययोऽपि कालमासाद्यैव जागति । यथा-'अनेन महात्मना चिरं तपश्चरितम् , गजसुकुमालेन क्षिप्रमात्मकल्याणं कृतम्' इत्यादिवाक्यैस्तपश्वरणकल्याणसाधनादीनां विलम्बाविलम्बप्रतीतिः कालाभावे सति नोपपधेत । ‘ह्यः श्वोऽद्य परश्व'-इत्यादयः कालाभिधायिनः शब्दाः कालाख्यमर्थ गमयन्ति । सर्वजेन भगवतोच्चारितत्वादिमे शब्दा यथार्थवस्तुबोधकाः रूपशब्दवद् असमस्तपदत्वात् , शुद्धैकपदत्वाच प्रसिद्धं सद्भूतमर्थमावेदयन्ति कालशब्दादयः । वर्तनाहेतुत्वा-ऽस्तित्व ज्ञेयत्वादिगुणाश्रयतया, अतीतानागतवर्तमानादिपर्या जल्दी और देर का ज्ञान भी काल के कारण ही होता है, जैसे-" इस महात्मा ने चिरकाल तक तप किया, गजसुकुमाल मुनिने शीघ्र ही आत्मकल्याण कर लिया । " इत्यादि वाक्यों से तपश्चरण और कल्याण-साधन आदि में विलम्ब और अविलम्ब का ज्ञान काल के अभाव में नहीं हो सकता । 'कल, आज, परसों' इत्यादि कालवाचक शब्द भी कालनामक द्रव्य को प्रकट करते है। सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा उच्चारण किये हुए ये काल आदि शब्द वास्तविक वस्तु के बोधक है, क्योंकि यह समासरहित पद है और शुद्ध एक पद है । जो पद समासरहित और शुद्ध एक पद होते है वे वास्तविक पदार्थ के ही बोधक होते है, जैसे रूप आदि । ___ वर्तनाहेतुत्व, अस्तित्व, ज्ञेयत्व, आदि गुणों का आधार होने से, तथा अतीत, अनागत ( भविष्यत् ) और वर्तमान आदि पर्यायो का आश्रय होने से काल का 2જલ્દી-તુરત અને ઢીલનું જ્ઞાન પણ કાલના કારણથી જ થાય છે. જેમ-“આ મહાત્માએ લાંબા સમય સુધી તપ કર્યું, ગજસુકુમાલ મુનિએ તુરતમાં આત્મકલ્યાણ કરી લીધું.” ઈત્યાદિ વાક્યોથી તપશ્ચરણ અને કલ્યાણસાધન વગેરેમાં વિલમ્બ અને અવિલમ્બનું જ્ઞાન કાલના અભાવમાં થઈ શકશે નહિ. ગઈ કાલ, આવતી કાલ, આજ, પરમ દિવસે, ઈત્યાદિ કાલવાચક શબ્દ પણ કાલ નામના દ્રવ્યને પ્રગટ કરે છે, સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા કહેવામાં આવેલા એ કાલ આદિ શબ્દ વાસ્તવિક વસ્તુના બેધક છે, કેમકે એ સમાસરહિત પદ છે અને શુદ્ધ એક પદ . જે પદ સમાસરહિત અને શુદ્ધ એક પદ હોય છે, તે વાસ્તવિક પદાર્થના જ બેધક હોય છે. જેમ ૫ આદિ વર્તનાહતત્વ, અસ્તિત્વ, યત્વ આદિ ગુણેને આધાર હોવાથી, તથા ભૂતકાલ, ભવિષ્યકાલ અને વર્તમાનકાલ આદિ પર્યાને આશ્રય હોવાથી કાલનું દ્રવ્યપણું Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा ९१ याश्रयतया च तस्य द्रव्यत्वं सिद्धयति, तस्मात् षष्टं द्रव्यं कालः' इति युक्त्योपपत्त्या च सिद्धम् । आगमोऽप्यत्र प्रमाणमिति चक्षुरुद्धाट्य पश्य 44 कणं ! पण्णत्ता ?, गोयमा छ दव्वा पण्णत्ता, तं जहाधम्मत्थिकाए, अधम्मस्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवस्थिकाए, अद्धासमए, " इति । कति खलु भदन्त ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि १, गौतम ! षड् द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, तानि यथा-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशास्तिकायः, पुनलास्तिकायः, जीवास्तिकायः, अद्धासमयः । इति च्छाया । कइविहाणं भंते! सव्वदव्या पण्णत्ता ?, गोयमा ! छव्विहा सव्वदव्वा पण्णत्ता, तंजा - धम्मत्थिकाए, जाव अद्धासमए' इति । (भगवती श० २५, उ०४) द्रव्यपन सिद्ध होता है, अतएव युक्ति तथा उपपत्ति से कालनामक छठा सिद्ध हुआ । द्रव्य 4 आंख खोल कर देखो, इस विषय में आगम-प्रमाण भी विद्यमान है 46 कइ णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ! गोयमा ! छ दव्त्रा पण्णत्ता, तंजहाधम्मत्किाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए । " સિદ્ધ થાય છે. એટલા કારણથી યુક્તિ તથા ઉપપત્તિ (પુરાવા–પ્રમાણ )થી કાલ નામનું છઠુ' દ્રશ્ય સિદ્ધ થાય છે આખ ઉઘાડીને જુએ, આ વિષયમાં આગમ-પ્રમાણુ પણ વિદ્યમાન છે 44 कइ णं भंते ! दुव्वा पण्णत्ता १, गोयमा । छ दव्वा पण्णत्ता, तजहाधम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए " અર્થાત્—‘ ભગવન્ ’દ્રવ્ય કેટલાં છે? ગૌતમ! દ્રવ્ય છ છે ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, પુદ્ગલાસ્તિકાય, જીવાસ્તિકાય અને અદ્ધાસમય અર્થાત્ કાલ. तथा - -" कइविहा णं भंते । सव्वदव्वा पण्णत्ता १, गोयमा ! छव्विहा सव्वदव्वा पत्तणा, तंजा - धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, जाव अद्धासमए । " Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ - आचाराङ्गसूत्रे कतिविधानि खलु भदन्त ! सर्वद्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! पडविधानि सर्वद्रव्याणि प्रज्ञप्तानि, तानि यथा-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, यावत्-अद्धासमयः, इति च्छाया। " धम्मो अधम्मो आगासं, दव्वं इक्विकमाहियं । अणंताणि य दव्याणि, कालो पुग्गल जंतवो" ॥८॥ (उत्त० अ० २८) धर्मोऽधर्मः आकाशः, द्रव्यमेकैकमाख्यातम् अनन्तानि च द्रव्याणि, कालः पुद्गला जन्तवः । इति च्छाया । कालस्य स्वरूपम्अर्धतृतीयद्वीपव्यापी, निर्विभागोऽनाद्यपर्यवसितः, एकोवर्तमानः समयः कालपदार्थः । एकत्वादेवास्तिकायो नायम् । अर्थात्- भगवन् ! सब द्रव्य कितने है?' 'गौतम ! सब द्रव्य छह हैधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यावत् अद्धा-समय' (भगवतीसूत्र श. २५ उ. ४) उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २८) में भी कहा है- 'धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक एक कहे गये है । काल, पुद्गल और जीव अनन्त-अनन्त है " इति । काल का स्वरूपसमयक्षेत्रव्यापी, निर्विभाग, आद्यन्तरहित, एकप्रदेशरूप वर्तमान समय को 'काल' कहते है। यह एक होने के कारण अस्तिकाय नहीं है। અર્થા–“ભગવ ! સર્વ દ્રવ્ય કેટલાં છે? ગૌતમ ! સર્વ દ્રવ્ય છ છે—ધર્માસ્તિકાયા मधास्ताय यावत् मद्धासमय' (भगवती. श. .२५. 6. ४). उत्तराध्ययनसूत्र (म. २८) भां ५५ यु छ-धर्म, अधम, मने मा० द्रव्य मे से यु छ, કાલ, પુદ્ગલ અને જીવ અને અનંત છે. કાલનું સ્વરૂપ – समयक्षेत्र (मढीही५) व्याधी, निHिIL (मा न ५ ते), माध-तરહિત, એકપ્રદેશરૂપ વર્તમાન સમયને કાલ કહે છે, આ એક હોવાના કારણથી 'मस्तिय' नथी. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा ९३ सूर्यचन्द्रादिज्योतिष्काणां गतिमाश्रित्य कालविभागो भवति, गतिश्च मनुष्यलोकाभ्यन्तर एव तेषाम् । दिवसरात्रिमुहूर्तपक्षमास ऋत्वयन वर्ष युगादीनां विभागः सूर्यादिगत्यैव लोके भवति । एवमतीत वर्तमानादयो विभागाः । यस्तु संख्यातुमशक्य उपमानमात्रावगम्यः कालः सोऽसंख्येयः, यथा - पल्योपमः, सागरोपम इत्यादि । असंख्येयादिकाळज्ञानमपि भगवता मनुष्यलोकम सिद्धोपमानप्रदर्शनेन प्ररूपितम् । सूर्य चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति का आश्रयण कर काल का विभाग होता है । सूर्य चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति मनुष्यलोक के अन्दर में ही होती है । दिन, रात, मुहूर्त, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग आदि का विभाग सूर्य आदि की गति से ही लोक में होता है । इसी प्रकार अतीत, वर्तमान आदिका विभाग भी समझना चाहिये । जिसकी संख्या नहीं हो सकती, जो उपमान मात्र से गम्य है, वह काल असंख्येय है, जैसे— पल्योपम, सागरोपम, इत्यादि । असंख्येय आदि काल का ज्ञान भी मनुष्यलोकप्रसिद्ध उपमान का प्रदर्शन करके भगवान ने प्ररूपित किया है, समय आवलिका आदि सूक्ष्म काल तो सूर्यादिज्योतिष्कों की गति से नहीं जाना जाता है, क्यों कि वह अति सूक्ष्म है । इस लिये कालका व्यवहार समयक्षेत्र के भीतर ही होता है । समयक्षेत्र के बाहर जीवो के आयुष्य आदि की गणना मनुष्यक्षेत्र प्रसिद्ध प्रमाण से ही होती है । સૂર્ય ચન્દ્ર આદિ જ્યાતિષ્કાની ગતિના આશ્રયથી કાલના વિભાગ થાય છે, સૂર્ય ચન્દ્ર આદિ જ્યાતિષ્કાની ગતિ મનુષ્ય લેાકમાં જ હાય છે. દિન, રાત, भुङ्खत, यक्ष, भास, ऋतु, गायन, वर्ष, युग माहिना विलाज सूर्य माद्दिनी गतिथी ४ લેાકમાં થાય છે. આ પ્રકારે અતીત (ભૂતકાળ) વર્તમાન આદિના વિભાગ પણ સમજવા જોઇએ. જેની ગણતરી ન થઈ શકે, જે ઉપમાન માત્રથી ગમ્ય (સમજી शाय तेवु ) छे, ते अस असंख्येय छे, नेम – यहयोयम, सागरोपम, त्यिाहि. અસ ધ્યેય આદિ કાળનુ જ્ઞાન પણ ભગવાને મનુષ્યલેાકપ્રસિદ્ધ ઉપમાનનું પ્રદર્શીન કરી પ્રરૂપિત કયુ` છે. સમય, આવલિકા આદિ સૂક્ષ્મ કાલ તા સૂર્યાદિ જ્ગ્યાતિષ્કની ગતિથી પણ જાણી શકાતુ નથી, કેમકે તે અતિ સૂક્ષ્મ છે. આથી કાલના વ્યવહાર સમયક્ષેત્ર-અઢી દ્વીપની અંદર જ થાય છે, સમયક્ષેત્રથી બહાર જીવાની આયુષ્ય આદિની ગણના થાય છે તે મનુષ્યક્ષેત્રપ્રસિદ્ધ પ્રમાણથી જ થાય છે, એમ સમજી લેવું. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे समयावलिकादिसूक्ष्मकालस्तु मूर्यादिज्योतिष्काणां गत्या नावगम्यः, अतिसूक्ष्मत्वात् । तस्मात् कालव्यवहारोऽर्धतृतीयद्वीप एव । अर्द्धतृतीयद्वीपादहिजीवानामायुप्कादिगणना तु मनुष्यक्षेत्रप्रसिद्धप्रमाणेनैव भवतीति ज्ञेयम् । एकोऽपि कालोऽतीतानागतपर्यायभेदैरनन्तः, अत एव भगवता-"अणताणि य दचाणि कालो पुग्गल जंतवो" इत्युपदिष्टम् । वर्तमानसमयस्य तु पर्यायत्वेऽपि नानन्त्यम् , एकरूपत्वात् । निश्चयनयेन तु " लोकव्यापी काल:' इत्यवसीयते, अत एव भगवता"धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं"। इत्यभिहितम् । धर्मोऽधर्म आकाशः कालः पुद्गला जन्तवः । एष लोक इति प्रज्ञप्तः, जिनवरदर्शिभिः । इति च्छाया । काल यद्यपि एक ही है, तो भी वह भूत-भविष्यत्पर्याय मेद से अनन्त है, इसीलिये भगवानने कहा है-'अणंताणि य द्रव्याणि कालो पुग्गल जंतवो' इति ।काल, पुद्गल और जीव, ये सभी अनन्त है । वर्तमान समय पर्यायसहित होते हुए भी अनन्त नहीं है, क्योंकि वह एक ही है । निश्चयनय से तो काल लोकव्यापी माना जाता है, अतएव भगवानने कहा है "धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगोत्ति पनत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं " ॥ १ ॥ જો કે કાલ એક જ છે તે પણ ભૂત ભવિષ્યના ભેદથી અનન્ત છે, તેથી लगाने घुछ- अणताणि य व्वाणि कालो पुग्गल जंतवो' इति, ne पुस અને જીવ એ દ્રવ્યો અનન્ત છે. વર્તમાન સમય પર્યાયસહિત હોવા છતાં પણ અનન્ત નથી કેમકે તે એક જ છે. નિશ્ચયનયથી તે કાલ લેકવ્યાપી માનવામાં આવે છે આથી ભગવાને કહ્યું છે કે" धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं" ।। વરદશ –લોકાલેકને જેવાવાળા જિન ભગવાને ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય, આકાશાસ્તિકાય, કાલ, પુદ્ગલાસ્તિકાય અને જીવાસ્તિકાય, એજ લેક છે એમ કહ્યું છે. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा एष सामान्यरूपेण प्रसिद्धो लोकः-अनन्तरोक्तद्रव्यषट्कसमुदायरूप इति भाव । कालस्य-(१)-अरूपित्वम् , (२)-अचेतनत्वम् , (३)-अक्रियत्वम् , (४)-वर्तनाहेतुत्वं चेति गुणाः । (१)-अतीतत्वम् , अनागतत्वम् , (२)-वर्तमानत्वं, (३)-अगुरुलघुत्वं चेति पर्यायाः। ___ अयं द्रव्यक्षेत्रकालभावगुणभेदेन पञ्चधा ज्ञायते । यथा-द्रव्यत एकः कालः क्षेत्रतः-अर्द्धतृतीयद्वीपप्रमाणः, कालतः-आद्यन्तरहितः, भावतः-अरूपीवर्णगन्धरसस्पर्शवर्जित इति, गुणतः-वर्तनालक्षणः, इति ।। वरदर्शी-लोकालोक को देखनेवाले जिन भगवानने धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गलास्लिकाय और जीवास्तिकाय, इन सबको अर्थात् इनके समुदाय को लोक कहा है। उपरिनिर्दिष्ट छ द्रव्यों के समुदाय को भगवानने सामान्यतया लोक कहा है। काल के--अरूपित्व, अचेतनत्व, अक्रियत्व, वर्तनाहेतुल्व, ये चार गुण है। अतीतत्व, अनागतत्व, वर्तमानत्व, अगुरुलघुत्व, ये चार पर्याय है । ___ यह काल-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के भेद से पांच प्रकार से जाना जाता है। जैसे-द्रव्य से काल एक है, क्षेत्र से समयक्षेत्रप्रमाणवाला, काल से आद्यन्तरहित, भाव से अरूपी, अर्थात् वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित, और गण से वर्तनालक्षणवाला है। ઉપર દર્શાવેલા છ દ્રવ્યોના સમુદાયને ભગવાને સામાન્ય રીતે લોક કહેલ છે. કાળના–અરૂપિત્વ, અચેતનત્વ, અકિયત્વ અને વર્તનાહેતુત્વ, એ ચાર ગુણ છે. અને અતીતત્વ, અનાગતતત્વ, વર્તમાનત્વ, તથા અગુરુલઘુત્વ એ ચાર પર્યાય છે. આ કાળ-દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી પાંચ પ્રકારે જણાય છે. જેમકે-દ્રવ્યથી કાળ એક, ક્ષેત્રથી અઢીદ્વીપ પ્રમાણ, કાલથી આદ્યન્તરહિત, ભાવથી २५३४ी-वर्ण-1-1-२४-२५श-२हित छ, भने गुथी पर्तनातक्षापामा छ. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ - आचारागसूत्रे अथ पुद्गलास्तिकायः। तत्र-पुद्गलशब्दार्थः। पूर्यते-संहन्यते-परस्परं संयुज्य संघीभूय नूतनधनघटावदेकीभवति, गलति च-विच्छिन्नमुक्तावलीमणिवद् विकीर्णो भवति-इति पुद्गलः । पूरण-गलनधर्म इत्यर्थः । पुद्गलश्वासावस्तिकायश्चेति पुद्गलास्तिकाया। पुद्गलास्तिकायस्य घटादिकार्यान्यथानुपपत्तेः प्रत्यक्षदर्शनाच्च सत्ता सिद्धैव । पुद्गलास्तिकाय 'पुद्गल' शब्द का अर्थआपस में मिलकर इकट्रे होकर नवीन घटघटादि के रूप में जो एकमेक हो जाते है, और जो गल जाते है अर्थात् टूटी हुई मोतियों की माला की भांति बिखर जाते है, वे पुद्गल कहलाते है । तात्पर्य यह है कि—जिसमें पूरण और गलन धर्म हो वह पुद्गल है, पुद्गलरूप अस्तिकाय 'पुद्गलास्तिकाय' कहलाता है। अगर 'पुद्गलास्तिकाय ' न होता तो घट आदि कार्य नही बन सकते थे। इस कारण, तथा प्रत्यक्ष दिखाई देने के कारण भी पुद्गलास्तिकाय की सत्ता भलीभांति सिद्ध है। પુદ્ગલાસ્તિકાયપુદ્ગલ શબ્દને અથે– પરસ્પર મળીને એકત્ર થઈને નવીન ઘનઘટાદિના રૂપમાં જે એક-મેક થઈ જાય છે, અને જે ગળી જાય છે અર્થાત્ તુટી ગએલી મોતીઓની માળા પ્રમાણે વિંખાઈ જાય છે, તે પુગલ કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–જેમાં પૂરણ અને ગાલન ધમ હોય તે પુદ્ગલ છે, પુદગલરૂપ અસ્તિકાય તે પુદગલાસ્તિકાય કહેવાય છે. અગર પુદ્ગલાસ્તિકાય ન હોત તે ઘટ આદિ કાર્ય બની શકત નહિ. આ કારણથી, તથા પ્રત્યક્ષ દેખી શકાય છે તે કારણથી પણ મુગલાસ્તિકાયની સત્તા રૂડી રીતે સિદ્ધ છે. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय पुद्गललक्षणम्— रूपवत्त्वं पुद्गलानां लक्षणम् , अत्र रूपं मूर्तत्ववर्णादिकम् । यद्यपि परमाणुप्रभृतयः सुक्ष्माः पुद्गलास्तेषां गुणाश्चातीन्द्रियतया नेन्द्रियैगृह्यन्ते तथापि बादरस्कंधरूपे परिणामविशेषे तेषामेवेन्द्रियग्राह्यतया रूपवत्त्वं प्रतीयते । अतीन्द्रिये परमाणुप्रभृतिपुद्गलेऽतीन्द्रिये धर्मास्तिकायादौ चैतावान् विशेष:- धर्मास्तिकायादीनामिन्द्रियविषयत्वाभावादतीन्द्रियत्वमरूपित्वं च, परमाणुप्रभृतिपुद्गलानां त्वतीन्द्रियत्वेऽपि रूपित्वमिति । पुद्गल का लक्षणपुद्गलोंका लक्षण ' रूपवत्त्व ' है । जिस में रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाया जाय अर्थात् जो मूर्तिक हो, वह पुद्गल है। यद्यपि परमाणु आदि पुद्गल बहुत सूक्ष्म है, और अतीन्द्रिय होने के कारण उनके गुण इन्द्रियों द्वारा नहीं ग्रहण किये जाते, तथापि जब उन पुद्गलों का बादर स्कन्ध के रूपमें परिणमन होता है तब वे इन्द्रियोंद्वारा ग्राह्य हो जाते है और उनका रूपवत्त्व प्रतीत होने लगता है। परमाणु आदि अतीन्द्रिय पुद्गलों में और धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय द्रव्यों में इतना अन्तर है कि-धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्य कभी इन्द्रियों के विषय नहीं होते, अतः वे अतीन्द्रिय और अरूपी हैं, किन्तु परमाणु आदि पुद्गल अतीन्द्रिय होने पर भी रूपी है। युगसनु सक्षणપુદ્ગલેનું લક્ષણ રૂપવત્વ છેજેમાં રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શી જોવામાં આવે અર્થાત્ જે મૂતિમાન હોય તે પુદ્ગલ છે. જો કે પરમાણુ આદિ પુદ્ગલ બહુ જ સૂક્ષ્મ છે અને અતીન્દ્રિય હેવાના કારણે તેના ગુણ ઇન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાતા નથી, તે પણ જ્યારે તે પુદ્ગલનુ બાદર કંધના રૂપમાં પરિણમન થાય છે, ત્યારે તે ઇન્દ્રિ દ્વારા ગ્રહણ થઈ જાય છે, અને તેનું રૂપવત્વ પ્રતીત થવા લાગે છે. પરમાણુ આદિ અતીન્દ્રિય પુગમાં અને ધર્માસ્તિકાય વગેરે અતીન્દ્રિય દ્રવ્યોમાં એટલું અંતર-ફેરફાર છે કે-ધર્માસ્તિકાય આદિ અરૂપી દ્રવ્ય કયારેય પણ ઇન્દ્રિયેનો વિષય થતા નથી, તેથી તે અતીન્દ્રિય અને અપી છે, પરંતુ પરમાણુ આદિ પુદ્ગલ અતીન્દ્રિય હોવા છતાંય રૂપી છે. प्र. मा.-१३ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे पुद्गलानां प्रदेशसंख्यापरमाणुमारभ्याचित्तमहास्कन्धपर्यन्ताः पुद्गला विविधपरिणामा भवन्ति । तेषां प्रदेशाः संख्याता असंख्याता अनन्ताश्च यथासंभवं भवन्ति । तत्र-संख्यातपरमाणुसंयोगसंजातः स्कन्धः संख्यातप्रदेशी, असंख्यातपरमाणुघटितः स्कन्धोऽसंख्यातप्रदेशी, अनन्तपरमाणुसंहतिसमुद्भूतश्च स्कन्धोऽनन्तप्रदेशी भवति । परमाणोस्तु निरंशत्वान्नास्ति प्रदेश इति । पुद्गलानां क्षेत्रस्थितिःपरमाणौ विभागाभावादेकस्मिन्नेव प्रदेशे लोकाकाशस्य परमाणुरव पुद्गलों की प्रदेशसंख्यापरमाणुसे लेकर अचित्त महास्कन्ध तक सब पुद्गल विविध परिणमन वाले होते है। उनके प्रदेश यथासम्भव संख्यात असख्यात अथवा अनन्त होते है । संख्यात परमाणुओं के संयोग से बना हुआ स्कन्ध संख्यातप्रदेशी कहलाता है । असंख्यात परमाणुओंसे बना हुआ स्कन्ध असंख्यातप्रदेशी और अनन्त परमाणुओं से निष्पन्न स्कन्ध अनन्त प्रदेशी कहलाता है। परमाणु निरंश होता है-उसके अनेक भाग नहीं हो सकते, अत एव वह अप्रदेशी है। पुद्गलों को क्षेत्रस्थितिपरमाणु के विभाग न होने के कारण लोकाकाश के एक ही प्रदेश में उसकी युगलानी प्रशसच्याપરમાણુથી લઈને અચિત્ત મહાત્કંધ સુધી સર્વ પુદ્ગલ વિવિધ પરિણમનવાળા હોય છે. તેના પ્રદેશ યથાસંભવ સંખ્યાત, અસંખ્યાત અથવા અનન્ત હોય છે. સંખ્યાત પરમાણુઓના સંગથી બનેલા સ્કંધ સંખ્યાતપ્રદેશી કહેવાય છે, અસંખ્યાત પરમાણુઓથી બનેલા સ્કંધ અસંખ્યાતપ્રદેશી અને અનન્ત પરમાણુઓથી નિષ્પન્ન સ્કંધ અનન્ત–પ્રદેશી કહેવાય છે. પરમાણુ નિરંશ હોય છે, તેના અનેક ભાગ થઈ શકતા નથી તેથી તે અપ્રદેશી છે. પુદ્ગલેની ક્ષેત્રસ્થિતિ પરમાણુમાં વિભાગ નહિ હોવાના કારણે કાકાશના એક જ પ્રદેશમાં તેની Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय गाहते । द्वयणुकस्कन्धश्च तस्यैकस्मिन् प्रदेशे, द्वयोश्च प्रदेशयोरवगाहते । तथा त्र्यणुकस्कन्धो लोकाकाशस्यैकस्मिन् प्रदेशे, द्वयोः प्रदेशयोस्त्रिषु प्रदेशेषु चावगाहते। एचं चतुरणुकादीनां संख्यातप्रदेशाऽसंख्यातप्रदेशानन्तप्रदेशानां स्कन्धानामवगाहनं लोकाकाशस्यैकप्रदेशमारभ्य संख्याताऽसंख्यातपदेशपर्यन्तेषु भवति। नन्वे मस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽल्पीयसि कथमनन्तप्रदेशिनः स्कन्धाः स्थान लभन्ते, न हि कलशे सिन्धोः समावेशं पश्यामः ? अवगाहना होती है । द्वयणुक अर्थात् दो परमाणु वाला स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में या दो प्रदेशों में अवगाहन करता है । इसी प्रकार तीन परमाणुओं वाला स्कन्ध लोकाकाश के एक प्रदेश में, दो प्रदेशो में अथवा तीन प्रदेशों में अवगाहन करता है। इसी भांति चतुरणुक ( चार अणुओं वाले ) आदि स्कन्धों की अवगाहना, तथा संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी तक के स्कन्धों की अवगाहना लोकाकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात तथा असंख्यात प्रदेशों में होती है । शंका-आकाश के एक छोटे से प्रदेश में अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार हो सकता है, गागर में सागर का समावेश होना तो कहीं दिखाई नहीं देता। અવગાહના હોય છે ત્યણુક અર્થાત્ બે પરમાણુવાળા સ્કંધ લેકાકાશના એક પ્રદેશમાં અથવા બે પ્રદેશોમાં અવગાહન કરે છે. એ પ્રમાણે ત્રણ અણુઓવાળા કંધ લેકાકાશના એક પ્રદેશમાં, બે પ્રદેશમાં અથવા ત્રણ પ્રદેશોમાં અવગાહન કરે છે. એ પ્રમાણે જ ચાર અણુઓવાળા આદિ ધોની અવગાહના, તથા સંખ્યાતપ્રદેશી, અસંખ્યાતપ્રદેશી અને અનન્તપ્રદેશ સુધીના સ્કંધની અવગાહના કાકાશના એક પ્રદેશથી લઈને સંખ્યાત તથા અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં હેય છે. શંકા–આકાશના એક નાના પ્રદેશમાં અનન્ત પ્રદેશી કંધને સમાવેશ કેવી રીતે થઈ શકે, ગાગરમાં સાગરને સમાવેશ થયેલે કઈ ઠેકાણે દેખાતું નથી ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० 'आचाराङ्गसूत्रे अत्र ब्रूमः - पुद्गलस्य परिणमनशक्तिरेव तादृशी यतः परमसूक्ष्मस्तादृशः परिणामो जायते येनानन्तप्रदेशिनः स्कन्धाः प्रदेशमेकं नभसः प्रविशन्ति । अथवा गगनस्य तादृशी विचित्राऽवगाहदानशक्तिर्यतोऽनन्तमदेशिनां स्कंधानां तस्यैकस्मिन् प्रदेशे समावेशः सिध्यति । यथा अतिघनीभूतलोहगोलका वगाहनान्निरवकाशे कलाकारादेशे भखानिलसमुद्धताः पावकावयवाः समाविशन्ति । यदि रन्ध्ररहिताऽयोगोलकं शीतलीकर्तुं वारि निक्षिप्पते, तदा तदयोगोलकपरिपूरितनिरन्तराकाश देशे तस्मिन्नेव वारिकणा अव्याहतं प्रविशन्ति । a समाधान —— पुद्गल में परिणमनशक्ति ही ऐसी है, जिससे उसका अत्यन्त सूक्ष्म परिणमन होता है । इसी कारण अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी आकाश के एक प्रदेश में समा जाते है । अथवा आकाश में ऐसी कुछ विचित्र अवकाशदान करने की शक्ति है कि उसके कारण अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का भी आकाश के एक ही प्रदेश में समावेश हो जाता है । जैसे – अत्यन्त सघन लोहे के गोले के अवगाहन से निरवकाश आकाशके अवयव प्रवेश कर जाते है । तात्पर्य 1 प्रदेश में धौकनी की वायु से वृद्धि पाये हुए अग्नि यह है कि — लोहे का गोला बहुत ठोस होता है, वह आकाश के जिन प्रदेशों में मौजूद है, वहां जगह दिखाई नहीं देती, फिर भी धौंकनी की वायु की प्रेरणा से उन्हीं आकाश प्रदेशों में अग्नि का प्रवेश हो जाता है, तत्पश्चात् छिद्ररहित उस लोहे के गोले को ठंडा करने के लिये उस पर पानी डाला जाय तो जिन आकाश प्रदेशों में लोहे का गोला और पावक - अग्नि है, उन्ही में जल के कण भी बेरोकटोक प्रवेश कर जाते है । · સમાધાન—પુદ્ગલામાં પરિણમનશક્તિ જ એવી છે જેથી તેનુ અત્યન્ત સૂક્ષમ પરિણમન હેાય છે. એ કારણે અનન્તપ્રદેશી સ્કંધ પણ આકાશના એક પ્રદેશમાં સમાઈ જાય છે. અથવા આકાશમાં એવી કેાઈ વિચિત્ર અવકાશદાન કરવાની શક્તિ છે કે—તે કારણથી અનન્તપ્રદેશી સ્કાના પણુ આકાશના એક જ પ્રદેશમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. જેમકે—અત્યન્ત સઘન લેાઢાના ગાળાના અવગાહનથી નિરવકાશ આકાશ પ્રદેશમાં ધમણના વાયુથી વૃદ્ધિ પામેલા અગ્નિના અવયવેા પ્રવેશ કરી જાય छे, तात्पर्य मे छे है-बोढानो गोजो बहु ४ ठोस (पोसाणु विनाना ) होय छे, તે આકાશના જે પ્રદેશોમાં મેાજીદ છે, ત્યાં જગ્યા દેખાતી નથી. તે પણ ધમણના વાયુની પ્રેરણાથી તે આકાશ પ્રદેશામાં અગ્નિના પ્રવેશ કરી જાય છે. તે પછી છિદ્રરહિત તે લેાઢાના ગાળાને ઠંડા કરવા માટે તેના ઉપર પાણી નાખવામાં આવે તા જે આકાશ-પ્રદેશોમાં લેાઢાના ગેળા અને અગ્નિ છે, તેમાં પાણીનાં ટીપાં પણુ उ-टो! (अटाव्या) विना प्रवेश री लय छे. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय __ यथा वा एकप्रदीपप्रभायामनेकपदीपप्रभासमावेशः । यथा वा एककर्षपरिमितपारदे शतकर्षपरिमितसुवर्णसमावेशो भवति । - अनन्तप्रदेशिरूपोऽचित्तमहास्कन्धः केवलिसमुद्धातवत् सकललोकव्यापी भवति । स च विस्रसागत्या प्रथमसमयेऽसंख्यातयोजनविस्तरेण दण्डाकारेण परिणमति । द्वितीयसमये कपाटरूपेण, तृतीयसमये मन्थानरूपेण, चतुर्थसमये प्रतरमापूर्य सकललोकं व्याप्नोति, पञ्चमसमये प्रतरं संहरति, षष्ठसमये मन्थानं भनक्ति, सप्तमसमये कपाटं च, अष्टमसमये दण्डाकारं संहत्य खंडशः प्रविकीर्णो भवति । अथवा-एक दीपक के प्रकाश में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है। अथवा एक कर्ष–मासा ( मापविशेष ) परिमित पारे में सौ कर्ष परिमित सोने का समावेश हो जाता है। अनन्तप्रदेशी अचित महास्कन्ध केवलिसमुद्धात के समान समस्तलोकव्यापी होता है । वह स्वाभाविक गति से, प्रथम समय में असंख्यातयोजनविस्तृत दण्ड के आकार में परिणत होता है । दूसरे समय में वह कपाट के रूप में परिणत होता है, और तीसरे समय में मंथान के रूप में हो जाता है, चौथे समय में प्रतर पूर्ण करके सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। फिर पांचवे समय में प्रतर को सिकोडता है, छठे समय में मंथान को, सातवें समय में कपाट को, और आठवें समय में दण्डाकार को यह सिकोडता है । उसके अनन्तर वह खण्ड खण्ड होकर बिखर जाता है । અથવા–એક દીપકના પ્રકાશમાં અનેક દીપકેના પ્રકાશ સમાઈ જાય છે. અથવા એક કર્ષ (માપવિશેષ) પરિમિત પારામાં એકસે કર્ષ પરિમિત સેનાને સમાવેશ થઈ જાય છે. અનન્તપ્રદેશી અચિત્ત મહાત્કંધ, કેવલિસમુદુઘાતની સમાન સમસ્તક વ્યાપી હોય છે, તે સ્વાભાવિક ગતિથી, પ્રથમ સમયમાં અસંખ્યાતજનવિસ્તૃત દંડના આકારમાં પરિણત થાય છે. બીજા સમયમાં તે કપાટના રૂપમાં પરિણત થાય છે, અને ત્રીજા સમયમાં મંથાન (દહીં વલોવવાને ર)ના રૂપમાં થાય છે, ચેથા સમયમાં પ્રતર પૂર્ણ કરીને લોકમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. ફરી પાંચમાં સમયમાં પ્રતરને સકેચે છે, છઠ્ઠા સમયમાં મંથાનને, સાતમા સમયમાં કપાટને અને આઠમા સમયમાં દંડાકારને એ સિકેડે છે, ત્યાર પછી તે ખંડ–ખંડ થઈને વિખેરાઈ જાય છે. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे - - - पुद्गलानामुपकार: शरीरवाङ्मनःप्राणादयः पुद्गलपरिणामा गमनाऽऽदान-वचन-चिन्तनप्राणनादिभावेन जीवानुपकुर्वन्ति, अतः शरीराधाकारेण पुद्गला जीवानामुपकार कुर्वन्ति । तत्र शरीरं पञ्चविधम् , औदारिक, वैक्रियम् , आहारकं, तैजसं, कार्मणं चेति । अथ जीवानां ये सुखदुःखजीवितमरणरूपाः परिणामा भवन्ति तत्र सुखादिरूपेण जीवपरिणामे निमित्तं पुद्गला इति सिद्धं जीवोपकारित्वं पुद्गलानाम् । पुद्गलों का उपकार शरीर, वचन, मन और प्राण आदि पुद्गलों के परिणामविशेष-गमन, आदान, वचन, चिन्तन और प्राणन ( सांस लेना) आदिरूप से जीवों का उपकार करते है अतः शरीर आदि के रूप में पुद्गल ही जीवों का उपकार करते है । इनमें शरीर पांच प्रकार का है(१) औदारिक (२) वैक्रिय (३) आहारक (४) तैजस और (५) कार्मण । प्राणियों में सुख दुःख जीवन और मरण रूप जो परिणाम होते है, उन सब परिणामों में पुद्गल कारण है, अतः यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल जीवों का उपकार करते है। પુદગલેને ઉપકાર શરીર, વચન, મન અને પ્રાણ આદિ પુગલેના પરિણામવિશેષ-ગમન, આદાન, વચન, ચિંતન અને પ્રાણન (શ્વાસ લે) આદિ રૂપથી જેને ઉપકાર કરે છે, એટલે શરીર આદિના રૂપમાં પુદ્ગલ જ છેને ઉપકાર કરે છે, તેમાં શરીર પાંચ १२॥ छ-(१) मोहारि, (२) वैष्ठिय, (3) मा २४, (४) तेस माने (५) ४ . પ્રાણીઓમાં સુખ, દુઃખ, જીવન અને મરણરૂપ જે પરિણમન થાય છે, તે સર્વ પરિણામમાં પુગલ કારણરૂપ છે. તેથી એ સિદ્ધ થાય છે કે પુદ્ગલ ને ઉપકાર કરે છે. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय पुद्गलानां विशेषगुणाःवर्णगन्धरसस्पर्शाः पुद्गलानां विशेषगुणाः सहभाविनः परिणामाः । शब्द -बन्ध- सौक्ष्म्य - स्थौल्य - संस्थान - भेद-तम-श्छाया-ऽऽतपो-धोतादिभिः पर्यायैः पुद्गला लक्ष्यन्ते-ज्ञायन्ते, इत्याशयेन भगवता पुद्गलानां लक्षणतया शब्दादयः प्रोक्ताः । तथाहि "सइंधयार उज्जोओ, पभा छायाऽऽतवृत्ति वा वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१॥" (उत्त० अ० २८) पुद्गलों के विशेष गुण-- वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गलों के विशेष ( असाधारण ) गुण हैं-सहभावी परिणाम हैं । शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान ( आकार ), भेद, तम, छाया, आतप, उद्योत आदि पर्यायों के द्वारा पुद्गल लखा जाता है--जाना जाता है । इस आशय से भगवान् ने शब्द आदि को पुद्गलों का लक्षण कहा है, वह इस प्रकार"सबंधयार उज्जोओ, पभा-छाया-ऽऽतवुत्ति वा, वण्णरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं" शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्श, ये सब पुद्गलों के लक्षण है। गाथा में 'छायाऽऽतवुत्ति' यहाँ 'इति' शब्द आदि के अर्थ में है। इस आदि शब्द से वर्ण आदि का ग्रहण हो सकता था फिर भी उन्हें अलग कहने का कारण यह है कि वे नित्य सहभावी गुण है । પુદગલના વિશેષ ગુણ– वर्ष, अध, २स भने २५श सोना विशेष (मसाधारण ) गुण छसहनावी परिणाम छे श६, मध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान (४२) लेह, तम, છાયા, આતપ, ઉદ્યોત આદિ પર્યાથી લખી શકાય છે—જાણી શકાય છે. તે આશયથી ભગવાને શબ્દ આદિ પુદ્ગલેનુ લક્ષણ કર્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે – “ सबंधयार उज्जोओ, पभा छाया-ऽऽतवुत्ति वा, वण्णरसगंधफासा; पुग्गलाणं तु लक्खणं" श७४, मध४२, धोत प्रमा, छाया, मात५, १, २२, ५ मने स्पर्श, से पुगतानु सक्षय छे. यामi-'छायाऽऽतवुत्ति' मा 'इति' श६ माहिना अर्थ मा छे, मे प्रमाणे 'आदि' ५४थी वर्ग वगेरेनु यह थ श छ तो पy तेने मला કહેવાનું કારણ એ છે કે તે નિત્ય સહભાવી ગુણ છે. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ आचारागसूत्रे शब्दोऽन्धकार उद्योतः प्रभा छाया आतप इति वा । वर्णरसगन्धस्पर्शाः पुद्गलानां तु लक्षणम् । इति च्छाया । "छायाऽऽतवुत्ति" इत्यत्र 'इति' शब्द आद्यर्थकः । तेनैव वर्णादीनां ग्रहणेऽपि पुनरुपादानं नित्यसहभावित्वबोधनार्थम् । तत्र वर्णः पञ्चधा, कृष्ण-नील-लोहित-पीत-शुक्ल-भेदात् ।। गन्धो द्विविधः-सुरभिरसुरभिश्च । रसः पञ्चविधः-तिक्त-कटु-कषाया-अम्ल-मधुर-भेदात् । स्पर्शोऽष्टधा-कठिन-मृदु-गुरु-लघु-शीतोष्ण स्निग्ध-रूक्ष-भेदात् । संस्थानं पञ्चविधम्-वृत्त-व्यस्र-चतुरस्र-ऽऽयत-परिमण्डल-भेदात् । पुद्गलविभाग:पुद्गलः संक्षेपतो द्विविधः-परमाणु-स्कंधभेदात् । वर्ण पांच प्रकार का है-काला, नीला, लाल, पीला, और सफेद । 'सुगन्ध दुर्गन्ध के भेद से गन्ध दो प्रकार का है । रस के पांच भेद हैं--तीखा, कडुआ, कषैला, खट्टा, और मीठा । स्पर्श के आठ भेद हैं--कठिन, कोमल, भारी, हल्का, शीत, उष्ण, चिकना, और रूखा । संस्थान पांच प्रकार का है—वृत्त ( गोल ), त्र्यस्त्र ( तिकोना), चतुरस्र (चौकोर ), आयत ( लम्बा ) और परिमण्डल-( गोल-मटोल ). पुद्गल के भेदसंक्षेप से पुद्गल के दो भेद है-परमाणु और स्कन्ध । વણ પાંચ પ્રકારના છે-કાળ, લીલો, લાલ, પીળા અને ધો. સુગંધ અને દુધના ભેદથી ગંધ બે પ્રકારના છે. રસના પાંચ ભેદ છે-તીખો, કડ, કષાયેલો, माटो मने भीडा, २५र्शन! २४ छे-४४४, आमदा, मारी, सी, शीत, Suty, ચિકણ અને રૂક્ષ. સંસ્થાન પાંચ પ્રકારનાં છે–વૃત્ત-ગળ, ત્રિકોણ, ચતુષ્કોણ, લાંબું અને ગોળમટેળ. પુદ્ગલોના ભેદ सपथी घुसना मे लेह-(१) ५२मा भने (२) ४५. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय परमाणुस्वरूपम्तत्र परमाणुश्च सकलविभागान्तवर्ती निरंशः परस्परासंयुक्तः, सूक्ष्मत्वादिन्द्रियव्यापारातीतः, एकैकवर्ण-गन्ध-रस-द्विस्पर्शयुक्तः, द्वघणुकस्कन्धाधचित्तमहास्कन्धपर्यन्तानां स्थूल-सूक्ष्म-स्कन्धकार्याणां कारणरूपो नित्यश्चेति । ' उक्तञ्च भगवता भगवतीसूत्रे-(श. २० उ० ५) परमाणु का स्वरूपपरमाणु, पुद्गल का अन्तिम विभाग है। वह निरंश है। परस्पर असंयुक्त है। सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियों की उसमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती। एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पशैसे युक्त है। द्वयणुक स्कन्धसे लेकर अन्तिम महास्कन्ध पर्यन्त स्थूल एवं सूक्ष्म स्कंधरूप कार्य का कारण है और नित्य है। भगवानने भगवतीसूत्र (श, २०, उ० ५) में कहा है प्रश्न-भगवन् ! परमाणु पुद्गल कितने वर्णवाला, कितने गंध वाला, कितने रसवाला, और कितने स्पर्शवाला कहा गया है । उत्तर-गौतम ! एक वर्णवाला, एक गंध वाला, एक रसवाला और दो स्पर्शवाला कहा गया है। - एक वर्णवाला होता है तो कदाचित् काला, कदाचित् नीला, कदाचित् लाल, ५२मा २१०५પરમાણુ, એ પુદ્ગલને અંતિમ વિભાગ છે. તે નિરંશ (અંશરહિત) છે. પરસ્પર અસંયુક્ત છે. સૂક્ષ્મ હવાના કારણે ઇન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ તેમાં થઈ શકતી નથી. એક વર્ણ, એક ગંધ, એક રસ અને બે સ્પર્શથી યુક્ત છે. દ્વયણુક સ્કંધથી લઈને અચિત્ત મહાત્કંધ પર્યન્ત સ્થૂલ અને સમસ્કંધરૂપ કાર્યનું કારણ છે, અને नित्य छे. मापाने भक्ती सूत्र (२. २० 6. ५.)मा ४यु छ: પ્રશ્ન-“ભગવદ્ ! પરમાણુ પુદ્ગલ કેટલા વર્ણવાળું, કેટલા ગંધવાળું, કેટલા રસવાળું, અને કેટલા સ્પર્શવાળું કહ્યું છે ? ઉત્તર-ગૌતમ! એક વર્ણવાળું, એક ગંધવાળું, એક રસવાળું, અને બે शाणु ह्युछे." એક વણવાળું હોય છે તે કદાચિત્ કાળું, કદાચિત લીલું, કદાચિત્ લાલ, કદાચિત્ પીળું અને કદાચિત્ શ્વેત હોય છે. એક ગંધવાળું હોય છે તે કદાચિત प्र. भा.-१४ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १०६ आचारागसूत्रे "परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिवन्ने, कतिगंधे, कतिरसे, कतिफासे पन्नत्ते ?, गोयमा! एगवन्ने, एगगंधे, एगरसे, दुप्फासे पन्नत्ते, तंजहा-जइ एगवन्ने-सिय कालए, सिय नीलए, सिय लोहिए, सिय हालिद्दे, सिय सुकिल्ले । जइ एगगंधे-सिय सुब्भिगंधे, सिय 'दुभिगंधे । जइ एगरसे-सिय तित्ते सिय कड्डए सिय कसाए, सिय अंबिले, सिय महुरे । जइ दुप्फासे-सिय सीए य निद्धे य १, सिय सीए य लुक्खे य २, सिय उसिणे य निद्वे य ३, सिय उसिणे य लुक्खे य ४" इति । परमाणुपुद्गलः भदन्त ! कतिवर्णः, कतिगन्धः, कतिरसः, कतिस्पर्शः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! एकवर्णः, एकगन्धः, एकरसः, द्विस्पर्शः प्रज्ञप्तः। तद्यथा-यदि एकवर्णः -स्यात् कालका, स्यात् नीलकः, स्यात् लोहितः, स्यात् हारिद्रः, स्यात् शुक्लः । यदि एकगन्धः-स्यात् सुरभिगन्धः, स्यात् दुरभिगन्धः, यदि एकरसः स्यात्तिक्तः स्यात् कटुकः, स्यात् कषायः, स्यात् अम्लः, स्यात् मधुरः। यदि द्विस्पर्शः-स्यात् शीतश्च स्निग्धश्च १, स्यात् शीतश्च रूक्षश्च २, स्यात् उष्णश्च स्निग्धश्च ३, स्यात् उष्णश्च रूक्षश्च ४, । इति च्छाया, कदाचित् पीला, और कदाचित् शुक्ल होता है । एक गन्धवाला होता है तो कदाचित् सुरभिगंधवाला, कदाचित् दुरभिगंधवाला होता है। यदि एक रसवाला होता है तो कदाचित् तिक्त, कदाचित् कटुक, कदाचित् कषायला, कदाचित् खट्टा, और कदाचित् मीठा होता है। यदि दो स्पर्शवाला होता है तो कदाचित् शीत और स्निग्ध (चिकना) १, कदाचित् गीत और रूक्ष २, कदाचित् उष्ण और स्निग्ध ३, तथा कदाचित् उष्ण और रूक्ष होता है ४ । સુરભિગંધ (સારી ગંધ) વાળું અને કદાચિત દુરભિગંધવાળું હોય છે. જે એક રસવાળું હોય છે તે કદાચિત્ તીખું, કદાચિત્ કડવું, કદાચિત્ કષાયલું, કદાચિત ખાટું અને કદાચિત્ મધુર-મીઠું–હેય છે. જે બે સ્પર્શવાળું હોય છે તે કદાચિત શીત અને સ્નિગ્ધ-(ચિકણા) ૧, કદાચિત્ શીત અને રૂક્ષ ૨, કદાચિત ઉષ્ણ અને રિનષ્પ ૩, તથા કદાચિત્ ઉષ્ણ અને રૂક્ષ હોય છે. ” Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय १०७ असौ शस्त्रादिना लतादिवदच्छेद्यः, मूच्यादिना चर्मवदभेद्यः, अग्निना काष्ठवददाह्यः, हस्तादिना वस्त्रपात्रवदग्राह्यश्च । उक्तञ्च भगवता भगवतीसूत्रे (श०-२० उ० ५) “दवपरमाणू णं भंते । कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-अच्छेज्जे, अभेज्जे, अडझे, अगेज्झे।" इति । द्रव्यपरमाणुः खलु भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः?, गौतम ! चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अच्छेद्यः, अभेद्यः, अदाह्यः, अग्राह्यः । इति च्छाया। यद्यपि परमाणुः पुद्गलत्वान्मूर्तस्तथाऽप्यसौ खण्डशः कत्तुमशक्यः, आकाशप्रदेशवत्परमाणोः पुद्गलपरमजघन्यांशरूपत्वात् , सर्वपरिमाणेभ्योऽपकृष्टं परिमाणं परमाणोरेव तस्मात्सोऽखण्ड एव । परमाणु, शस्त्र के द्वारा लता आदि की भाति छेदा नहीं जा सकता, चमडे की तरह सुई आदि से भेदा नहीं जा सकता, काष्ठ के समान अग्नि आदि से जल नहीं सकता और वस्त्र पात्र आदि पदार्थों की तरह हाथ आदिसे पकडा नहीं जा सकता। भगवान्ने भगवतीसूत्र ( श. २०, उ०५) में कहा है प्रश्न-भगवन् ! द्रव्य परमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर-गौतम ! चार प्रकारका कहा गया है-अच्छेद्य, अभेद्य, अदाह्य और अग्राह्य । परमाणु, पुदगल होने के कारण मूर्तिक है, फिर भी उस के खण्ड नहीं किये जा सकते । जैसे आकाश का एक प्रदेश जघन्य अंशरूप है और उसका परिमाण सभी પરમાણુ, શસ્ત્ર દ્વારા લતા આદિના પ્રમાણે છેદી શકાતું નથી, ચામડાની જેમ સેય વગેરેથી વીંધી શકાતું નથી, કાષ્ઠની જેમ અગ્નિ આદિથી બાળી શકાતું નથી, અને વસ્ત્ર પાત્ર આદિ પદાર્થોની જેમ હાથ વગેરેથી પકડી શકાતું નથી. भगवाने मगपतीसूत्र-(२. २०-8. ५) भां युं छ:प्रश्न-" मन् ! द्रव्य ५२भY & प्रार्नु छ? उत्तर-गौतम! या२ ४२ प्रयु,छ-"-मछेध, मलेध, महा मन माझ." (છેદી શકાય નહિ, ભેદી શકાય નહિ, બળી શકે નહિ, અને ગ્રહણ થઈ શકે નહિ). પરમાણુ, પુગલ હેવાના કારણે મૂતિક છે તે પણ તેના ખંડભાગ થઈ શકતા નથી જેમકે:-આકાશને એક પ્રદેશ જઘન્ય અંશરૂપ છે, અને તેનું પરિમાણ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ आचारागसूत्रे स च प्रत्यक्षदृश्यैरनेकविधैर्वादरपरिणामरूपैः स्कन्फरनुमीयते । उक्तञ्च"कारणमेव तदंत, सुहुमो णिच्चो य होइ परमाणु । एगरसगंधवण्णो, दुप्फासो कज्जलिंगो य ॥१॥ इति छाया-कारणमेव तदन्त्य, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसगंधवों, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥” इति । स्कन्धस्वरूपं तद्भेदाचपरस्परसंमिलितबद्धपरमाणुसमुदायः स्कन्धः । स्कन्धान्तवर्ती निरंशोऽवयवः प्रदेश इत्युच्यते । परिमाणोंसे हीनतम है, इसी प्रकार परमाणु भी जघन्य अंशरूप है-उसके अंश नहीं हो सकते, वह अखण्ड है। प्रत्यक्ष से दिखाई देनेवाले अनेक प्रकार के बादररूप परिणत स्कन्धों से परमाणु का अनुमान होता है । कहा भी है " परमाणु कारणरूप है, अन्तिम अंशरूप है, सूक्ष्म है और नित्य है । एक रसवाला, एक गंधवाला, एक वर्णवाला और दो स्पर्शवाला होता है। स्कंधरूप कार्य देखने से उसका अनुमान होता है।" स्कन्ध का स्वरूप और भेदपरस्पर मिले हुए-आपसमें बद्ध-परमाणु का समूह स्कंध कहलाता है। स्कंधमें रहा हुआ निरंश अवयव प्रदेश कहलाता है । સર્વ પરિમાણોથી હીનતમ છે, એ પ્રમાણે પરમાણુ પણ જઘન્ય અંશરૂપ છે, તેનાં અંશ-વિભાગ થઈ શકતા નથી, તે અખંડ છે. પ્રત્યક્ષથી જોવામાં આવતા અનેક પ્રકારના બાદરરૂપ પરિણત સ્કથી પરમાણુનું અનુમાન થાય છે. કહ્યું પણ છે– “પરમાણુ કારણરૂપ છે, અતિમ અંશરૂપ છે, સૂક્ષ્મ છે અને નિત્ય છે, એક રસવાળું છે, એક ગધવાળું, એક વર્ણવાળું અને બે સ્પર્શ વાળું હોય છે. સ્કંધરૂપ કાર્યના દેખાવથી તેનું અનુમાન થાય છે. धनुं स्वरू५ मने - પરસ્પર મળેલા–અંદર અંદર બદ્ધ-પરમાણુઓને સમૂહ તે સ્કંધ કહેવાય છે. સ્કંધમાં રહેલે નિરંશ અવયવ તે પ્રદેશ કહેવાય છે. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अंवतरणा पुद्गलास्तिकायं १०९ यद्यपि धर्माधर्माकाशजीवा अपि पुद्गलवत्स्कन्धरूपास्तथापि स्कन्धरूपपुद्गलादयं विशेषः - तेषाम् - धर्मादीनां चतुर्णी प्रदेशाः स्वस्वस्कन्धान्न खण्डशः पृथग् भवितुमर्हन्ति, तेषाममूर्त्तत्वात् । पुद्गलम देशास्तु खण्डशः पृथग् भवन्ति, तेषां मूर्त्तत्वात्, आश्लेषविश्लेषाभ्यां मूर्त्तवस्तुनि संमिलन-पृथग्भाव- शक्तेः सर्वानुभवगोचरत्वात्, अतः स्कन्धपुद्गलानां स्थूलः सूक्ष्मो वा भागोऽवयवउच्यते । अवयौति=पृथग्भवतीत्यवयवशब्दव्युत्पत्त्या विभाज्य एवांशोऽवयवशब्दार्थस्तस्मात्पुद्गलप्रदेश एवावयव इत्युच्यते । यद्यपि धर्म-द्रव्य अधर्म-द्रव्य आकाश और जीव भी पुद्गल के समान स्कन्धरूप है, फिर भी स्कन्धरूप पुद्गल से उनमें यह भिन्नता है-धर्म आदि चार द्रव्योंके प्रदेश अपने २ स्कन्धसे कभी अलग नहीं हो सकते, क्योंकि धर्म आदि चार द्रव्य अमूर्त है । पुद्गल द्रव्य के प्रदेश खण्डर होकर अलग हो जाते है, क्योंकि पुद्गल मूर्त है । आश्लेष और विश्लेष के द्वारा मूर्त वस्तु में मिलने और बिछुडने की शक्ति है, यह बात सभी के अनुभव से सिद्ध है, अतः स्कन्ध - पुद्गलों का स्थूल या सूक्ष्म भाग अवयव कहलाता है, 'अवयति' इति - अवयवः अर्थात् जो पृथक् हो सके उसे अवयव कहते है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार विभक्त हो सकने योग्य अंश को ही अवयव कहा जा सकता है, अतः पुद्गल का प्रदेश ही अवयव कहलाता है । જો કે ધર્મ-દ્રવ્ય, અધર્મ-દ્રવ્ય, આકાશ અને જીવ પણ પુદ્ગલના સમાન સ્કંધરૂપ છે, તા પણ ધરૂપ પુદ્ગલથી તેમાં એ ભિન્નતા છે-ધર્મ આદિ ચાર દ્રબ્યાના પ્રદેશ પાત-પાતાના સ્કંધથી કયારેય પણ અલગ થઈ શકતા નથી. કેમકે ધર્મ આદિ ચાર દ્રવ્ય અમૃત છે. પુદ્ગલ દ્રવ્યના પ્રદેશ ખેડ ખડ થઈને અલગ થઈ જાય છે, કેમકે પુદ્ગલ મૂર્ત છે. આશ્લેષ ( મળવું ) અને વિશ્લેષ ( જુદા થવું) દ્વારા મૂર્ત વસ્તુમાં મળવું અને છૂટા થવું તે શક્તિ છે, આ વાત સતે અનુભવથી સિદ્ધ છે. એટલા કારણથી ધ પુદ્ગલેાનું સ્થૂલ અથવા सूक्ष्म अवयव उडेवाय छे 'अवयौति' इति - अवयवः अर्थात् पृथ थर्ध शडे तेने અવયવ કહે છે, એ વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે વિભક્ત થવા ચાગ્ય અંશને જ અવયવ કહે છે. આ કારણથી પુદ્ગલ દ્રવ્યના પ્રદેશ જ અવયવ કહેવાય છે. Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० - आचांराङ्गसूत्रे संघाताद्, भेदात् , संघातभेदाभ्यां च द्विपदेशिप्रभृतयः स्कन्धाः समुत्पद्यन्ते । उक्तश्च भगवता स्थानाङ्गसूत्रे "दोहिं ठाणेहिं पोग्गला साहणंति, तंजहा-सयं वा पोग्गला साहन्नति, परेण वा पोग्गला साहन्नंति । सयं वा पोग्गला भिज्जति परेण वा पोग्गला भिज्जति" इति । छाया-" द्वाभ्यां स्थानाभ्यां पुद्गलाः संहन्यन्ते। तद्यथा-स्वयं वा पुद्गलाः संहन्यन्ते, परेण वा पुद्गलाः संहन्यन्ते । स्वयं वा पुद्गला भिद्यन्ते, परेण वा पुद्गला भिद्यन्ते । इति। 'स्वयंवे'-ति स्वभावतो वा अभ्रादिष्विव संहन्यन्ते सम्बध्यन्ते । (कमणः कत्तृत्वविवक्षायां प्रयोगोऽयम् ) परेण वा अन्येन वा पुरुषादिना संहन्यन्तेसंहताः क्रियन्ते । ( कर्मणि वाच्ये प्रयोगोऽयम् ) । एवं भिद्यन्ते-विकीर्यन्ते । द्वयोः परमाण्वोः संघाताद् द्विपदेशी स्कन्धः समुद्भवति । द्विप्रदेशिनः संघात (मिलने) से, भेद (बिछुडने ) से तथा संघातभेदसे द्विप्रदेशी आदि स्कन्ध उत्पन्न होते है। भगवानने स्थानाङ्गसूत्रमें कहा है"दो स्थानों से पुद्गल आपस में मिलते है, वह इस प्रकार-या तो पुद्गल स्वयं बादल आदि की तरह मिल जाते हैं, या दूसरे पुरुष आदि के द्वारा मिलाये जाते है, इसी प्रकार पुद्गल रवयं अलग हो जाते है, या दूसरे के द्वारा अलग किये जाते है । दो परमाणुओं के संघात से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है, द्विप्रदेशी स्कन्ध સંઘાત (મેલાપ)થી ભેદ (જુદા પડવા)થી તથા સંઘાત–ભેદથી દ્વિપ્રદેશી विगैरे २४ Surन थाय छे. लगवाने स्थानाङ्गसूत्रमा घुछ “બે સ્થાનેથી પુગલ પરસ્પર મળે છે. તે આ પ્રમાણે–પુદ્ગલ પોતે જ વાદળ આદિ પ્રમાણે મળી જાય છે, અથવા બીજા પુરુષ આદિના દ્વારા મેળવાય છે. એ પ્રમાણે પુગલ પિતે જ અગલ થઈ જાય છે, અથવા તો બીજાના દ્વારા અલગ કરી શકાય છે. બે પરમાણુઓના સંઘાતથી (મળવાથી) ક્રિપ્રદેશ સ્કંધ બને છે. ઢિપ્રદેશ સ્કંધ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय १११ स्कन्धस्य परमाणोश्च संयागे सति त्रिपदेशी स्कन्धो भवति । संख्यातपरमाणूनां संघातात् संख्यातप्रदेशी स्कन्धः, असंख्यातपरमाणूनां संयोगाद् असंख्यातपदेशी स्कन्धः, अनन्तपरमाणूनां संघाताज्जातोऽनन्तप्रदेशी स्कन्धः, अनन्तप्रदेशिनां स्कन्धानां योगे त्वनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धो जायते । संख्यातप्रदेश्यादिषु स्कंधेषु संयोगपरिणामः पूर्वोक्तरीत्या भावनीयः। द्वयणुकादिक्रमेणानन्तानन्तप्रदेशिपर्यन्ता ये स्कन्धाः संयोगपरिणामजास्तेभ्यः परमाणुः पृथग् भवति चेत्तदैकपरमाणुन्यूनः स्कन्धो जायते । एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिपरमाणुपृथग्भावक्रमेण न्यूनान्न्यूनो द्विपदेशी स्कन्धः समुत्पद्यते । और एक परमाणु का संयोग होने पर त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है, संख्यात परमाणुओ के संधात से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध बनता है और असंख्यात परमाणुओं के संयोग से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध बनता है । अनन्त परमाणुओं के मिलने से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध बनता है, अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का संयोग होने पर अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है। संख्यातप्रदेशी आदि स्कन्धों में संयोगरूप परिणमन पूर्वोक्तप्रकार से समझ लेना चाहिए। द्वयणुक आदि के क्रम से अनन्तानन्तप्रदेशी पर्यन्त जो स्कन्ध संयोगपरिणाम से बने है, उन में से अगर एक परमाणु अलग हो जाता है तो वह एक परमाणुहीन स्कंध रह जाता है । इसी प्रकार दो तीन चार पांच आदि परमाणुओं के अलग होने पर अन्त में द्विप्रदेशी स्कंध ही बचता है। અને એક પરમાણુને સંયોગ થવાથી ત્રિપ્રદેશી કંધ બને છે, સંખ્યા પરમાણુઓના સંઘાતથી (મળવાથી) સંખ્યાતપ્રદેશી સ્ક ધ બને છે. અને અસંખ્યાત પરમાણુઓના સંગથી અસંખ્યાતપ્રદેશી સ્કંધ બને છે. અનન્ત પરમાણુઓના સંગથી અનન્ત પ્રદેશી ઢંધ ઉત્પન્ન થાય છે. અનન્તપ્રદેશી સ્કંધને સંગ થાય તે અનન્તાનન્તપ્રદેશી સ્કંધ ઉત્પન્ન થાય છે. સંખ્યાતપ્રદેશી આદિ સ્કંધમાં સંગરૂપ પરિણુમન પૂર્વના પ્રકારથી સમજી લેવું જોઈએ. ચણુક આદિના ક્રમથી અનન્તાનન્તપ્રદેશી પર્યન્ત જે સ્કંધ છે, તે સંગ પરિણમનથી બન્યા છે. તેમાંથી જે એક પરમાણુ અલગ થઈ જાય તે તે એક પરમાણુહીન સ્કંધ રહી જાય છે. એ પ્રમાણે બે, ત્રણ, ચાર, પાંચ આદિ પરમાણુઓ અલગ થઈ જાય તે અન્તમાં દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ જ બચે છે. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ आचाराङ्गमत्रे स्कन्धाद् वहिर्गतस्य परमाणोरन्येन परमाणुना संयोगे द्वयणुकस्कन्ध उत्पद्यते । एवं संयोग-विभागाभ्यामपि विविधाः स्कन्धा भवन्ति । परमाणनां वन्धस्य कारणम्परमाणुद्वयस्य परमाणूनां वा परस्परानुप्रवेशो न भवति, छिद्राभावात्, किन्तु तयोस्तेषां वा विस्रसागत्या परस्परं संयोगे सति स्निग्धरूक्षत्वगुणसद्भावे परस्परं वन्धो भवति । ऐक्यपरिमाणो बन्धः। तत्रायं विशेष: स्कंध से अलग हुआ परमाणु जब दूसरे परमाणु के साथ मिलता है तो दोनों के मेलसे नवीन द्वयणुक उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार संयोग और विभाग के द्वारा भांति-भांति के स्कन्ध उत्पन्न होते ही रहते है। परमाणुओं के बन्ध का कारण दो या अधिक परमाणु एक दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि परमाणुओं में छिद्र नहीं होता, अलबत्त स्वाभाविक गति से दो या दो से अधिक परमाणुओं का परस्पर में संयोग होने पर उन में विद्यमान स्निग्धता और रूक्षता गुण के कारण उन का आपस में बन्ध हो जाता है | एकतारूप परिणमन को वन्ध कहते है । बन्ध के सम्बन्ध में इतना विशेष समझना चाहिए સ્કંધથી અલગ થયેલા પરમાણુ જ્યારે બીજા પરમાણુની સાથે મળે છે, તે બંનેના મળવાથી નવીન પ્રયણુક ઉત્પન્ન થાય છે. એ પ્રમાણે સંગ અને વિભાગ દ્વારા તરેહ-તરેહના સ્કંધ ઉત્પન્ન થયા કરે છે. परमाणुमान धनु १२९-- બે અથવા અધિક પરમાણુ એક બીજામાં પ્રવેશ કરી શકતા નથી, કેમકે પરમાણુઓમાં છિદ્ર નથી. અલબત સ્વાભાવિક ગતિથી બે અથવા બેથી અધિક પર માણુઓને પરસ્પર સોગ થવાથી તેમાં વિદ્યમાન સ્નિગ્ધતા અને રૂક્ષતાના ગુણના કારણે તેને આપસમાં બંધ થઈ જાય છે. એક્તાપ પરિણમનને બંધ કહે છે. બંધના સંબંધમાં એટલું વિશેષ સમજવું જોઈએ કે – Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय __ जघन्यगुणस्निग्धयोद्वयोः, जघन्यगुणस्निग्धानां वा बहूनां परमाणुनां परस्परं बन्धो न भवति । तथा जघन्यगुणरूक्षयोः, जघन्यगुणरूक्षाणां वा परस्परं बन्धो न भवति । जघन्योऽपकृष्टतमः, गुणशब्दोऽत्र संख्यार्थकः। यथा एकगुणं, द्विगुणमित्यादिपदम्-एकसंख्यकद्विसंख्यकाद्यर्थबोधकम् । स्नेहादिगुणानां प्रकर्षापकर्षों लोकप्रसिद्धौ । यथा-पानीयादजादुग्धं स्निग्धम् , अजादुग्धाद् गव्यं दुग्धम् , ततश्च महिषोदुग्धमित्युत्तरोत्तरं स्नेहप्रकर्षः। एषामेव पूर्व पूर्व स्नेहापकर्षः। तथा चैकगुणस्निग्धस्यैकगुणस्निग्धेन, द्वयोबहूनां परमाणूनां परस्परं बन्धो न भवति । एकगुणरूक्षस्यैकगुणरूक्षेण च जघन्यगुण स्निग्ध दो परमाणुओं का, अथवा बहुत परमाणुओ का परस्परमें बन्ध नहीं होता । इसी प्रकार जघन्यगुण रूक्ष दो या बहुत परमाणुओं का भी परस्पर में बन्ध नहीं होता । जघन्य का अर्थ यहाँ हीनतम समझना चाहिए। गुणशब्द यहां संख्या (डिगरी) का वाचक है, जैसे-एकगुना, दोगुना आदि पद एकसंख्यक द्विसंख्यक आदि अर्थ के वाचक है। स्निग्धता (चिकनाई ) आदि गुणों की अधिकता आर न्यूनता लोक में प्रसिद्ध है । जैसे पानी की अपेक्षा बकरी का दूध चिकना होता है। बकरी के दूधसे गा का दूध अधिक चिकना होता है, और गौ के दूध की अपेक्षा भैंस का दूध अधिक चिकना होता है। इस प्रकार पानी आदिमें उत्तरोत्तर चिकनेपन की अधिकता है । इन्ही पानी आदि में पहले२ वालो में चिकनेपनकी न्यूनता है। इस प्रकार एक गुण स्निग्ध का, एक गुण स्निग्ध के साथ, दो या अधिक परमाणुओं का જઘન્ય ગુણ સ્નિગ્ધ બે પરમાણુઓને અથવા બહુ પરમાણુઓને પરસ્પર બંધ થતું નથી, જઘન્યને અર્થ અહિં હીનતમ સમજવું જોઈએ. ગુણ શબ્દ અહિં સંખ્યા (ડિગ્રી) ને વાચક છે. જેવી રીતે એક ગણા બે ગણુ આદિ પદ એક સંખ્યક, દ્વિસંખ્યક આદિ અર્થનું વાચક છે સ્નિગ્ધતા (ચિકણાપણું) આદિ ગુણની અધિકતા અને ન્યૂનતા લેકમાં પ્રસિદ્ધ છે. જેમ પાણીની અપેક્ષાએ બકરીનું દૂધ ચિકણું હોય છે. બકરીના દૂધથી ગાયનું દૂધ અને ગાયના દૂધની અપેક્ષાએ ભેંસનું દૂધ વધારે સ્નિગ્ધ (ચિકણું) હોય છે. એ પ્રમાણે પાણી આદિમાં ઉત્તરોત્તર ચિકણાપણાની અધિકતા છે. એ પાણી આદિમાં પહેલા–પહેલાનામાં ચિકણાપણાની ન્યૂનતા છે એ પ્રમાણે એક ગુણ સ્નિગ્ધને, એક ગુણ સ્નિગ્ધની સાથે, તથા બે અથવા અધિક પરમાણુઓને प्र. आ. १५ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आचारागसूत्रे द्वयोबहूनां वा परमाणूनां परस्परं वन्धो न भवतीति फलितम् । ननु परमाणूनां सत्यपि संयोगे चन्धकारणीभूतस्निग्धत्वरूक्षत्वयोश्च सद्भावे कथं न जायते परस्परमेकत्वपरिणतिलक्षणो वन्धः ? इति । ___परमाणोस्तादृशपरिणमनशक्तेरभावात् । परिणामशक्तयश्च द्रव्याणां विचित्ररूपाः क्षेत्रकालाधनुरोधेन प्रयोगविलसापेक्षाः प्रभवन्ति। जघन्यगुणत्वेन दौर्बल्यादेव स्नेहो रूक्षो वा कश्चिद् पुद्गलं परिणामयितुं न समर्थः । यथातुल्यदुर्वलगुणमल्लयोरुभयोमध्ये परस्परं कोऽपि कञ्चिदभिहन्तुं न प्रभवति, तस्माज्जघन्यगुणानां परस्परं बन्धो न भवतीति सिद्धम् । परस्पर बन्ध नहीं होता, और एक गुण रूक्षका एक गुण रूक्ष के साथ दो या अधिक परमाणुओं का परस्पर बन्ध नहीं होता, यह सिद्ध हुआ । शंका-परमाणुओं का संयोग मौजूद होने पर भी, और बन्ध के कारणभूत स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व के विद्यमान होने पर भी बन्ध-एकतारूप परिणमन क्यों नहीं होता ? समाधान-परमाणु में इस प्रकार के परिणमन की शक्ति का अभाव है। द्रव्यो की परिणमन शक्तिया क्षेत्र और काल के अनुरोध से प्रयत्न तथा स्वभाव की अपेक्षा रखती हुई नाना प्रकार की होती है। जघन्य गुणवाला होने के कारण निर्बल होने से स्निग्ध या रूक्ष परमाणु किसी पुद्गल को परिणत करने में समर्थ नहीं होता; जैसे समान दुर्बलतावाले दो मल्लों में से कोई किसी को पराजित नहीं कर सकता। अत एव यह सिद्ध हुआ कि जघन्य गुणवालों का परस्पर में वन्ध नहीं होता। પરસ્પર બંધ થતું નથી, અને એકગુણ રૂક્ષને એક ગુણ રૂક્ષની સાથે બે અથવા અધિક પરમાણુઓને પરસ્પર બંધ થતો નથી. શંકા-પરમાણુઓને સંગ મજૂદ હોવા છતાંય પણ, અને બંધના કારણભૂત स्तित्व ( सिपा) तथा ३क्षत्व (सूमापा) विद्यमान डावा छतांय मधએકતારૂપ પરિણમન કેમ થતું નથી ? સમાધાન-પરમાણુમાં એ પ્રકારની પરિણમનની શક્તિનો અભાવ છે, દ્રવ્યની પરિણમન શક્તિઓ ક્ષેત્ર અને કાલના અનુરોધથી, પ્રયત્ન તથા સ્વભાવની અપેક્ષા રાખતી થકી નાના પ્રકારની થાય છે. જઘન્ય ગુણવાળા હોવાના કારણે, નિર્બલ હોવાથી સ્નેહ અથવા રૂક્ષ પરમાણુ કેઈ યુગલને પરિણત કરવામાં સમર્થ થતું નથી. જેવી રીતે સમાન દુર્બળતાવાળા બે મલેમાંથી કઈ કઈને પરાજિત કરી શકતા નથી. એટલા કારણથી સિદ્ધ થયું કે-જઘન્ય ગુણવાળાઓને પરસ્પર બંધ થતું નથી. Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टोका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय ११५ एवं द्विगुणतः समारभ्य यावत् संख्यातासंख्यातानन्तगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य द्विगुणतः समारभ्य यावत् संख्यातासंख्यातानन्तगुणम्निग्धेन सर्वेण समगुणेन पुद्गलेन परस्परं बन्धो न भवति । नथा द्विगुणादिरूक्षस्य द्विगुणादिरूक्षेण सर्वेण समगुणेन यावदनन्तगुणरूक्षेण 'पुद्गलेन सह परस्परं बन्धो न भवति । यथा तुल्यबलगुणमल्लयोरुभयोर्मध्ये परस्परं कोऽपि कञ्चिदभिहन्तुं न प्रभवति । इत्थं च तुल्यसंख्यके स्निग्धत्वे सति स्निग्धस्य स्निग्धेन सह बन्धो न भवति, तुल्यसंख्यके रूक्षत्वे सति रूक्षस्य रूक्षेण सह बन्धो न भवतीति सारांशः। अथ जघन्यसिग्धस्य कीद्शेन स्निग्धेन सह परस्परं बन्धो भवति ? इसी प्रकार द्विगुण से लेकर संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्ध पुद्गलका द्विगुण से लेकर संख्यात असंख्यात और अनन्तगुण स्निग्धतावाले समगुण पुद्गल के साथ आपस में बन्ध नहीं होता । तथा द्विगुण आदि रूक्ष समगुणवाले किसी भी पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है । जैसे---समान बलवाले दो मल्लों में से कोई किसी को पराजित नहीं कर सकता। इस प्रकार समान स्निग्धता होने पर स्निग्ध पुद्गलका स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता है, और समान रूक्षता होने पर रूक्षका रूक्षके साथ भी बन्ध नहीं होता है। शंका-जघन्य स्निग्ध का किस प्रकार के स्निग्ध पुद्गल के साथ परस्पर बन्ध होता है । એ પ્રમાણે દ્વિગુણથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત અને અનંતગુણ સ્નિગ્ધ યુગલને દ્વિગુણથી લઈને સંખ્યાત, અસંખ્યાત, અને અનંતગુણ સ્નિગ્ધતાવાળા સમગુણ પુદ્ગલની સાથે આપસમાં બંધ થતું નથી. તથા દ્વિગુણ આદિ રૂક્ષ યુગલનો દ્વિગુણ આદિ રૂક્ષ સમગુણવાળા કેઈ પણ પુગલની સાથે બંધ થત નથી. જેમ સમાન બળવાળા બે મલેમાંથી કઈ કઈને પરાજિત કરી શકતા નથી. એ પ્રમાણે સમાન સ્નિગ્ધતા હોવા છતાંય, સ્નિગ્ધ પુદગલને સ્નિગ્ધ પુદ્ગલની સાથે બંધ થતું નથી, અને સમાન રૂક્ષ હોવા છતાંય રૂક્ષને રૂક્ષની સાથે પણ બંધ થતું નથી. શંકા-જઘન્ય સ્નિગ્ધ પુગલને ક્યા પ્રકારના સ્નિગ્ધ પુદ્ગલની સાથે પરસ્પર બંધ થાય છે? Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ आंचाराङ्गसूत्रे अत्रोच्यते-जघन्यस्निग्धस्य द्वयधिकत्र्यधिकादिना स्निग्धेन बन्धो भवति, यथा एकगुणस्निग्धम्। परमाणुपुद्गलस्य त्रिगुणस्निग्धेन परमाणुपुद्गलेन सह संयोगे सति बन्धो भवति । एवं एकगुणस्निग्धस्य चतुर्गुणपञ्चगुणयावत्संख्यातासंख्यातानन्तगुण, स्निग्धेन सह बन्धः । एकगुणस्निग्धस्यकाधिकगुणस्निग्धेन (द्विगुणस्निग्धेन) तु न वन्धः, द्वयधिकादिगुणस्निग्धेन च स्निग्धपुद्गलस्य बन्धविधानात् । एकाधिकगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य प्रतिविशिष्टपरिणमनशक्तेरभावात् । एकगुणस्निग्धस्यैकाधिको द्विगुणस्निग्धः। समाधान-जघन्य स्निग्ध पुद्गल का दो गुण ( डिगरी ) या तीन गुण अधिक स्निग्धतावाले पुद्गल के साथ बन्ध होता है। जैसे एक गुण स्निग्वतावाले परमाणु का तीन गुण स्निग्धता वाले परमाणु के साथ संयोग होने पर बन्ध हो जाता है। इसी प्रकार एक गुण ( एक अंश ) स्निग्धका चार, पांच, यहाँ तक कि संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त गुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है । ___ एक गुण स्निग्धका एक अधिक गुण स्निग्ध अर्थात् द्विगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, क्योंकि दो गुण अधिक स्निग्धका स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध बतलाया गया है । एक गुण अधिक स्निग्ध पुद्गल में विशेष प्रकार के परिणमन की शक्ति नहीं है। एक । गुण स्निग्धतावाले की अपेक्षा एक गुण अधिक स्निग्ध जहाँ कहा जाय वहाँ दो गुण स्निग्धतावाला पुद्गल समझ लेना चाहिये । સમાધાન-જઘન્ય સ્નિગ્ધ પુદ્ગલના બે ગુણ (ડિગ્રી) અથવા ત્રણ ગુણ અધિક સ્નિગ્ધતાવાળા પુદ્ગલની સાથે બધ થાય છે જેમકે –એક ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળા પરમાણુને ત્રણ ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળા પરમાણુની સાથે સંગ થઈ જાય તે मध 25 लय छे. तेवी शते थे गुष्प (प्री) (A) स्निग्यताना या२, पांय, ત્યાં સુધી કે સંખ્યાત અસંખ્યાત એ પ્રમાણે અનંત ગુણ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ थाय छे. એક ગુણ સ્નિગ્ધતાને એક અધિક ગુણ સ્નિગ્ધ અર્થાત્ દ્વિગુણ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થતું નથી, કેમકે બે ગુણ અધિક સ્નિગ્ધના સ્નિગ્ધ પુદ્ગલની સાથે બંધ બતાવ્યો છે, એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ પુદ્ગલમા વિશેષ પ્રકારનાં પરિણમનની શક્તિ નથી. એક ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળાની અપેક્ષા એક ગુણ (ડિગ્રી) અધિક સ્નિગ્ધ જ્યાં કહેવાય ત્યાં બે ગુણ (ડિગ્રી) સ્નિગ્ધતાવાળા પુગલ સમજી લેવા જોઈએ. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय ११७ एवमुक्तयुक्त्या द्विगुणादिस्निग्धस्य स्वस्वापेक्षयैकाधिकगुणस्निग्धेन सह बन्धो न भवति । द्विगुणस्निग्धस्यैकाधिकत्रिगुणस्निग्धः त्रिगुणस्निग्धस्य चतुर्गुणस्निग्ध एकाधिकः, इति हेतोर्द्विगुणस्निग्धस्य त्रिगुणस्निग्धेन सह बन्धो न भवति । इत्थं च स्निग्धपुद्गलस्यैकाधिकगुण स्निग्धपुद्गलेन सह बन्धो न भवतीति सारः । भवति । द्विगुणादिस्निग्धस्य यधिकादिगुण स्निग्धेन बन्धो द्विगुणस्निग्धस्य द्वधिकञ्चतुर्गुणस्निग्धः । त्र्यधिकः पञ्चगुणस्निग्धः, यथा चतुरधिकः पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार द्विगुण आदि स्निग्ध का अपनी अपनी अपेक्षा से एक गुण अधिक स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता । द्विगुण स्निग्ध से एक अधिक का अर्थ है — त्रिगुण स्निग्ध, त्रिगुण स्निग्ध से एक अधिक चतुर्गुण स्निग्ध सनझना चाहिये । इस रीति से अनन्त गुण स्निग्ध भी अपने से एक गुण हीन स्निग्ध की अपेक्षा एक गुण अधिक स्निग्ध है | अतः द्विगुण स्निग्ध का त्रिगुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता । सारांश यह है कि — स्निग्ध पुद्गल का एक गुण अधिक पुद्गल के साथ बन्ध नहीं होता । द्विगुण स्निग्ध आदि का दो गुण अधिक अर्थात् चार गुण स्निग्ध के साथ बन्ध हो जाता है, जैसे दो गुण स्निग्ध से दो गुण अधिक स्निग्धा પૂર્ણાંકત યુક્તિ પ્રમાણે દ્વિગુણુ આદિ સ્નિગ્ધને પોત-પોતાની અપેક્ષાથી એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ સાથે અધ થતા નથી. દ્વિગુણ સ્નિગ્ધથી એક અધિકના અથ છે... ત્રિગુણ સ્નિગ્ધ, અને ત્રિગુણ સ્નિગ્ધથી એક અધિક ચગુણુ સ્નિગ્ધ સમજવે જોઇએ. એ પ્રમાણે અનન્ત ગુણુ સ્નિગ્ધ પશુ, પેાતાનાથી એક ગુણુ હીન સ્નિગ્ધની અપેક્ષાથી એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ છે. તેથી દ્વિગુણ સ્નિગ્ધને ત્રિગુણ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થતા નથી, સારાંશ એ છે કે:-સ્નિગ્ધ પુદ્ગલને એક ગુણ અધિક સ્નિગ્ધ પુદ્ગલની સાથે ખંધ થતા નથી. દ્વિગુણુ સ્નિગ્ધ આદિના એ ગુણ અધિક અર્થાત્ ચાર ગુણુ સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થઈ જાય છે. જેમ-એ ગુણ સ્નિગ્ધથી બે ગુણુ અધિક સ્નિગ્ધનો અથ ચાર Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ आचाराङ्गसूत्रे षड्गुणस्निग्धः, इत्यादि। त्रिगुणस्निग्धस्य द्वयधिकः पञ्चगुणस्निग्धः, त्र्यधिकः षड्गुणस्निग्धः, चतुरधिकः सप्तगुणस्निग्धः, इत्यादि । चतुर्गुणस्निग्धस्य द्वयधिकः षड्गुणस्निग्धः, व्यधिकः सप्तगुणस्निग्धः चतुरधिकः- अष्टगुणस्निग्धः । एवं पञ्चगुणस्निग्धादिसंख्यातासंख्यातानन्तगुणस्निग्धपर्यन्तस्य यधिकादिगुणस्निग्धेन सह बन्धो भावनीयः। एवं जघन्यगुणरूक्षस्य, अजघन्यगुणरूक्षस्य च बन्धव्यवस्था वोध्या । विसदृशपुद्गलवन्धःअथ विसदशपुद्गलयोबन्धे कीदृशी व्यवस्था ? उच्यते-जघन्यगुणस्निग्धस्य, जघन्यगुणरूक्षेण सह वन्धो न भवति। अर्थ चार गुण स्निग्ध, तीन गुण अधिक का अर्थ पांच गुण स्निग्ध, चार गुण अधिक का अर्थ छह गुण स्निग्ध, इत्यादि समझना चाहिए। चतुर्गुण स्निग्ध से द्वयधिकषड्गुण स्निग्ध, त्र्यधिक-सप्तगुण स्निग्ध, चतुरधिक-अष्टगुण स्निग्ध समझना चाहिए । Mental इस प्रकार पञ्चगुण स्निग्ध आदि से संख्यात, असंख्यात अनन्त गुण स्निग्ध को दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ बन्ध होता है । इस प्रकार जघन्य गुण रूक्ष का अजघन्य गुण रूक्ष के साथ बन्ध की व्यवस्था जाननी चाहिए । विसदृश पुद्गलों का बन्धप्रश्न—विसदृश अर्थात् परस्पर विरोधी पुद्गलों के बन्ध की क्या व्यवस्था है ? उत्तर- जघन्य गुण स्निग्ध का जघन्य गुण वाले रूक्ष पुद्गलके साथ बन्ध ગુણ સ્નિગ્ધ, ત્રણ ગુણ અધિકાને અર્થે પાંચ ગુણ સ્નિગ્ધ, ચાર ગુણ અધિકને અર્થ છ ગુણ સ્નિગ્ધ, એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. ચતુર્ગુણ સ્નિગ્ધથી ધિક ષડ્રગુણ સ્નિગ્ધ, વ્યધિક સપ્તગુણ સ્નિગ્ધ ચતુરધિક અષ્ટગુણ સ્નિગ્ધ સમજવું જોઈએ, એ પ્રમાણે પાંચ ગુણ સ્નિગ્ધ આદિથી સંખ્યાત, અસંખ્યાત અનન્તગુણ સ્નિગ્ધના બે ગુણ અધિક સ્નિગ્ધની સાથે બંધ થાય છે એ પ્રમાણે જઘન્ય ગુણ રૂક્ષની અજઘન્ય ગુણ રૂક્ષની સાથે બંધની વ્યવસ્થા જાણવી જોઈએ વિસરશ પુદ્ગલેને બંધ– પ્રશ્ન-વિસદશ અર્થાત્ પરસ્પરવિરોધી પુદ્ગલેના બંધની શું વ્યવસ્થા છે? ઉત્તર-જઘન્ય ગુણ સ્નિગ્ધને જઘન્ય ગુણવાળા પુદ્ગલની સાથે બંધ થતી Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय ११९ जघन्यगुण (एकगुण) स्निग्धस्य अजघन्यगुण ( द्विगुणाद्यनन्त गुणपर्यन्त ) - स्निग्धस्य वा स्वस्वापेक्षयैकाधिकगुणरूक्षेण, पुनः स्वस्वापेक्षया द्वयधिक त्र्यधिक चतुरधिकादिगुणरूक्षेणापि बन्धो भवति । उक्तञ्च भगवता प्रज्ञापनासूत्रे - (१३) - त्रयोदशे परिणामपदे - " बंधणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- गिद्धबंधणपरिणामे य लुक्खबंधणपरिणामे य । " समणिद्धयाए बन्धो, न होइ समलुक्खयाएवि ण होइ । माणिक्ख-तणेण बंधो उधाणं ॥१॥ छाया - बन्धन परिणामो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-स्निग्धबन्धनपरिणामश्च, रूक्षवन्धन परिणामश्च । समस्निग्धतायां बन्धो न भवति, समरूक्षतायामपि न भवति । विमात्रस्निग्धरूक्षत्वेन, बन्धस्तु स्कन्धानाम् ॥ १ ॥ नहीं होता । जघन्य गुण ( एकगुण ) स्निग्ध का अथवा अजघन्य गुण ( दो से लगाकर अनन्त गुण तक ) स्निग्ध का, अपने से एक गुण अधिक रूक्ष के साथ बन्ध होता है । और अपने अपने से दो अधिक, तीन अधिक, चार अधिक आदि रूक्ष पुद्गल के साथ भी बन्ध होता है । भगवान् ने प्रज्ञापना सूत्र के १३ वें परिणाम पदमें कहा है 66 प्रश्न- 'भगवान् ! बन्ध परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है— (१) स्निग्धबन्धन परिणाम और (२) रूक्षबंधनपरिणाम । समान स्निग्धता या समान रूक्षता होने पर बन्ध नहीं होता है, किन्तु विभात्रअर्थात् अधिक का हीनके साथ, और हीनका अधिक के साथ, चाहे वे स्निग्ध हो या रूक्ष हो बन्ध हो जाता है ॥ १ ॥ નથી. જઘન્ય ગુણ (એક ગુણ) સ્નિગ્ધના અથવા અજઘન્ય, ( મેથી લઈ ને અનન્ત ગુણ સુધી) સ્નિગ્ધના પાતાનાથી એક ગુણુ અધિક રૂક્ષની સાથે બંધ થાય છે. અને પોતપોતાથી એ અધિક, ત્રણ અધિક, ચાર અધિક આદિ રૂક્ષ પુદ્ગલની સાથે પણ બંધ થાય છે, ભગવાને પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૧૩મા પરિણામ પદમાં કહેલ છે अश्न—“ भगवन्! अन्धन - परिणाम डेटा प्रहारना उद्यां छे ? उत्तर—गोतम ! मे अशरनां उडेसां छे - (१) स्निग्धमं धनपरिणाम अने (१) ३क्षम धनपरिणाम. " વિમાત્ર મર્થાત્ અધિકના ઢીનની સાથે અને હાનના આધકની સાથે જરૂરત થતા स्निग्ध होय हे रुक्ष होय, अंध यह लय छे ॥ १ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० मिस्स णिद्वेण दुयाहिण, लक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएण । गिद्धस्स लुक्खेण उवेइ बन्धो, जहण्णवज्जो विसमो समो वा ॥२॥ (प्रज्ञा० पद - १३ ) छाया - स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन, रूक्षस्य रूक्षेण द्विकाधिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेण उपैति बन्धो, जघन्यवर्जो विषमः समो वा ||२||" इति, विसदृशस्य बन्धमाह - " णिद्धस्स लुक्खेण" इत्यादि । आचारसूत्रे स्निग्धस्य रूक्षेण सह बंध उपैति = उपगतो भवति जायत इत्यर्थः । " यदि परमाणुर्जघन्यवर्जो विषमो समो वा भवेत् । ॥२॥ परमाणूनां बन्धव्यवस्थाकोष्ठकमग्रेऽवलोकनीयम् । दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ स्निग्ध का बन्ध होता है । और दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्षका बन्ध होता है । अब विसदृश बन्धको कहते है - " णिद्धस्स लक्खेण " इत्यादि । जघन्य गुणवाले परमाणु को छोडकर फिर चाहे वह विषम हो या सम हो स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है । परमाणुओं की बन्धव्यवस्था का कोष्ठक पृष्ट १२१ देख लेवें । એ ગુણુ અધિક સ્નિગ્ધ સાથે સ્નિગ્ધના બંધ થાય છે. અને એ ગુણુ અધિક ३क्षनी साथै इक्षनो अन्ध थाय छे. हवे विसदृश अन्ध उहे छे- “णिद्धस्स लुक्खेण” ઈત્યાદિ. જઘન્ય ગુણવાળા પરમાણુને છેડીને ખીજા ગમે તે વિષમ હાય અથવા સમ હાય તે સ્નિગ્ધને રૂક્ષની સાથે બંધ થાય છે. પરમાણુઓની ખંધવ્યવસ્થાનું કાષ્ઠક પેજ ૧૨૧માં જોઈ લેવું. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा पुद्गलास्तिकाय ॥ परमाणुबन्धव्यवस्थाकोष्ठकम् ॥ जघन्यगुण-(एकगुण )-स्निग्धरूक्षयोबन्धव्यवस्था। सदृशानाम् विसदृशानाम् स्निग्धरूक्षसंख्या स्निग्धस्य+ रुक्षस्य+ | स्निग्धस्य+ स्निग्धेन सह रूक्षेण सह रूक्षेण सह जघन्यस्य (एकगुणस्य) बन्धाभावः बन्धाभावः बधाभावः जघन्येन (एकगुणेन) सह जंघन्यस्य (एकगुणेन)+ बन्धाभावः । बन्धो भवति | बन्धो भवति एकाधिकेन (द्विगुणेन) सह जघन्यस्य (एकगुणस्य)+ द्वथधिकादिगुणेन-(त्रिगुण- | बन्धो भवति बन्धो भवति । बन्धो भवति चतुर्गुणतः समारभ्य यावद् अनन्तगुणेन) सह अजघन्यगुण-(द्विगुणादि )-स्निग्धरूक्षयोवन्धव्यवस्था सदृशानाम् विसदृशानाम् स्निग्धरूक्ष : संख्या स्निग्धस्य+ रूक्षस्य+ स्निग्धस्य+ स्निग्धेन सह रूक्षेण सह | रूक्षेण सह द्विगुणस्य+द्विगुणेन सह बन्धाभावः बन्धाभावः। वन्धो भवति द्विगुणस्य+एकाधिकेन वन्धाभाव: बन्धाभावः बन्धो भवति (त्रिगुणेन) सह द्विगुणस्य+द्वधधिकादिगुणेन (चतुर्गुणपञ्चगुणतः समारभ्य बन्धो भवति वन्धो भवति । बन्धो भवति यावद् अनन्तगुणेन) सह एवम् अजघन्यगुण-(त्रिगुणचतुर्गुणतः समारभ्यानन्तगुणपर्यन्त)-स्निग्धरूक्षयोः समगुणेन, एकाधिकगुणेन, द्रयधिकादिगुणेन च सह बन्धव्यवस्था भावनीया ॥ प्र. आ-१६. - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अथ जीवास्तिकायः -- जीवशब्दार्थ: आचाराङ्गसूत्रे माणसम्बन्धा जीवति प्राणान् धारयतीति जीवः । न च सिद्धानां भावादजीवत्वापत्तिरिति वाच्यम्, 'प्राणान् धारयती ' - त्यत्र प्राणसामान्यविवक्षया पञ्चेन्द्रियप्रभृतिदशविधद्रव्यमाणानामसत्त्वेऽपि सिद्धानां भावप्राणसद्भावेन जीवत्व - सिद्धेरव्याहतत्वात् । प्रतिविशिष्टमाणसम्बन्धे सति जीवनाज्जीवशब्दः प्रवर्तते । माणा द्विविधा :- द्रव्यप्राणाः, भावप्राणाश्च । तत्र द्रव्यमाणा दशविधाः जीवास्तिकायजीवशब्दका अर्थ ? जो जीता है अर्थात् प्राणों को धारण करता है, वह जीव कहलाता है । में प्राणों का अभाव होने से वे अजीव हो जायेगे' यह कहना ठीक नही है । 'जो प्राणों को धारण करता है' इस कथन में प्राण- सामान्य की विवक्षा की गई हैं । सिद्धों में यद्यपि पांच - इन्द्रिय आदि दस प्रकार के द्रव्यप्राण नहीं है, तथापि भाव-प्राण पाये जाते है, और इन भाव-प्राणो के कारण सिद्ध भगवान् का जीवपन सिद्ध हो जाता है । विशिष्ट प्रकार के प्राणो का सम्बन्ध होने पर जीने वाले को नीव कहते है । प्राण दो प्रकार के है - (१) द्रव्यप्राण और ( २ ) - भावप्राण । द्रव्यप्राणों જીવાસ્તિકાય— જીવ શબ્દના અર્થ— सिद्धो જે જીવે છે અર્થાત્ પ્રાણાને ધારણ કરે છે, તે જીવ કહેવાય છે. · સિદ્ધોમાં પ્રાણાના અભાવ હાવાથી તે અજીવ થઇ જશે,’ એમ કહેવું તે ઠીક નથી. જે પ્રાણેને ધારણ કરે છે’ એમ કહેવામાં પ્રાણ-સામાન્યની વિવંક્ષા કહી છે. સિદ્ધોમાં જો કે પાંચ ઇન્દ્રિયે આફ્રિ દસ પ્રકારના દ્રવ્ય-પ્રાણ નથી, તે પણ ભાવ—પ્રાણ હાય છે, અને તે ભાવ–પ્રાણાના કારણે સિદ્ધ ભગવાનનુ જીવપણું સિદ્ધ થાય છે. વિશિષ્ટ પ્રકારના પ્રાણાના સબંધ હાવાના કારણે જીવવા વાળાને જીવ કહે છે. आणु मे अहारना छे–(१) द्रव्य-प्रणु भने (२) लाव-आयु, द्रव्य आशोना Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचारचिन्तामणि टीका अवतरणां जीवास्तिकाय १२३ इन्द्रियपंचकम्५, मनोवाक्कायबलत्रयम्३, श्वासोच्छासरूपः१, आयुश्चेति१ । एते दश प्राणाः संसारिणां यथासंभवं भवन्ति । नारकतिर्यगादयः संसारिणो द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः। व्यपगतसमस्तकर्मसम्बन्धाः सिद्धास्तु केवलभावप्राणैरेव प्राणिनः सन्ति । भावप्राणाश्चतुर्विधाः-अनन्तज्ञानम् १, अनन्तवीर्यम् २, अनन्तसुखम् ३, अनाद्यनन्तस्थितिश्च । तत्रानन्तज्ञानात् बायोपशमिकपञ्चेन्द्रियाणि, अनन्तवीयरूपभावप्राणस्यानन्तांशेन मनोवाक्कायवलत्रयम् , अनन्तसुखाच्चश्वासोच्छासरूपः प्राणः समुद्भवति, तथा अनाधनन्तस्थितिरूप-भावप्राणतः सादिसान्तरूप आयुःप्राणो जायते । एवं द्रव्यप्राणानां कारणं भावप्राणा इत्यवधेयम् । दशभेद है-पांच इन्द्रिया५, तीन बल-मनोबल, वचनबल और कायबल३, श्वासोच्छवास १ तथा आयु १, ये दश द्रव्यप्राण यथासम्भव संसारी जीवों के होते है । नारकी, तिथंच आदि संसारी जीवों में भी द्रव्यप्राण पाये जाते है, किन्तु सब प्रकार के कर्म-संबंध से रहित सिद्धो में सिर्फ भावप्राण ही होते है । सिद्ध जीव भावप्राणो के कारण ही प्राणी कहलाते है । ___ भाव प्राणके चार भेद है-अनन्तज्ञान १, अनन्तवीर्य२, अनन्तसुख३, और अनादिअनन्तस्थिति४ । क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली पांच इन्द्रियाँ अनन्त ज्ञान का विकार (वैभाविक परिणमन ) है, मन, वचन और काय-बल, अनन्तवीर्यरूप भावप्राणका विकार है, श्वासोच्छास अनंतसुखरूप भावप्राणका विकार है, और सादिसान्त आयुरूप द्रव्यप्राण अनादि-अनंतस्थितिरूप भावप्राणका विकार है । इस प्रकार भावप्राण द्रव्यप्राणों के कारण है। દસ ભેદ છે—પાંચ ઈન્દ્રિપ, ત્રણ બળ અર્થાત્ મનેબલ, વચનબલ અને કાયલબ૩, શ્વાસોચ્છાસ, તથા આયુ, આ દસ દ્રવ્યપ્રાણ સાધારણ રીતે સંસારી જીને હોય છે. નારકી તિર્થં ચ આદિ સંસારી જીવનમાં પણ દ્રવ્યપ્રાણ દેખાય છે, પરંતુ સર્વ પ્રકારના કર્મ–સ બંધથી રહિત સિદ્ધોમાં માત્ર ભાવપ્રાણુ જ હોય છે. સિદ્ધ જીવ ભાવપ્રાણોના કારણથી જ પ્રાણી કહેવાય છે. ભાવપ્રાણુના ચાર ભેદ છે–અનતજ્ઞાન, અનન્તવીર્ય, અનન્ત સુખ અને અનાદિઅનન્ત સ્થિતિ, ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થવા વાળી પાંચ ઇન્દ્રિયે અનન્ત જ્ઞાનને વિકાર (ભાવિક પરિણમન) છે, મન, વચન અને કાયબલ, અનંત વીર્યરૂપ ભાવ પ્રાણનો વિકાર છે, શ્વાસોચ્છાસ તે અનંતસુખરૂપ ભાવપ્રાણને વિકાર છે અને સાદિ-સાન્ત આયુરૂપ દ્રવ્યપ્રાણ, અનાદિ અનંત સ્થિતિરૂપ ભાવપ્રાણને વિકાર છે. એ પ્રમાણે लावा, द्रव्यप्राणाना- २९५ छे. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे अथ जीवस्य स्वरूपम् औपशमिकादिभाववान्, असंख्यातप्रदेशी, परिणामी, लोकाकाशव्यापी मंदीपवत् संकोचविकासशीलः, व्यक्तिरूपेणानन्तोऽखण्डः, क्रियाशीलः, प्रदेशसमुदायरूपों, नित्यो, रूपरहितोऽवस्थितोऽमूर्तः सन्नपि संसारावस्थायां मूर्त इव प्रतीयमानः, ऊर्ध्वगतिशील आत्मा जीवः । अथ भावस्तद्भेदाथ १२४ and " अपशमिकादिभाववान् जीवः' इत्युक्तम्, तंत्र कस्तावद्भावः ? श्रूयताम् - आत्मपर्यायाणामवस्थैव भावाः | आत्मपर्यायाश्वावस्थामेदेन विविधरूपा जीव का स्वरूप औपशमिक आदि भावोंवाला, असंख्यात प्रदेशी, परिणामी, प्रदीपप्रभाके समान संकोच - विकास स्वभाव वाला, व्यक्तिरूप से अनंतसंख्यक, क्रियाशील, प्रदेशसमुदायरूप, नित्य, अरूपी, अवस्थित, अमूर्त होने पर भी संसारी अवस्था में मूर्त जैसा प्रतीत होने वाला, ऊर्ध्वगमनस्वभाववाला आत्मा जीव कहलाता है । भाव और भाव के भेद प्रश्न- जीव का स्वरूप बतलाते हुए उसे औपशमिक आदि भावो वाला कहा है सो भाव क्या वस्तु है ? उत्तर - सुनिये, आत्मा के पर्यायों की अवस्था ही भाव कहलाती है । आत्मा के पर्याय, अवस्थाओं के भेद से नाना प्रकार के होते है, अत: आत्मपर्यायवर्ती भाव જીવનું સ્વરૂપ ઔપમિક આદિ ભાવા વાળા, અસંખ્યાતપ્રદેશી, પરિણામી. પ્રદ્દીપપ્રભાના સમાન સંકાચ–વિકાસ સ્વભાવવાળા, વ્યક્તિરૂપથી અન`તસંખ્યક, ક્રિયાશીલ, પ્રદેશ સમુદૃાયરૂપ, નિત્ય, અરૂપી, અવસ્થિત, અમૂર્ત હેાવા છતાંય સંસારી અવસ્થામાં મૂર્ત જેવા દેખાવાવાળા, ઉર્ધ્વગમન સ્વભાવવાળા આત્મા જીવ કહેવાય છે. ભાવ અને ભાવના ભેદ પ્રશ્ન-જીવનું સ્વરૂપ ખતાવતા થકા તેને ઔપશમિક આઢિ ભાવેશવાળા કહેલ छे; ते लाव शुं वस्तु छे ? ઉત્તર–સાંભળેા, આત્માના પર્યાયાની અવસ્થા જ ભાવ કહેવાય છે. આત્માની પર્યાય, અવસ્થાએના ભેદથી નાના પ્રકારના હાય છે, તેથી આત્મપર્યાયવત્તી ભાવ પાંચ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय १२५ भवन्ति, अत एवात्मपर्यायवर्ती भावः पञ्चविधो भवति-(१) औपशमिकः, (२) क्षायिकः, (३) क्षायोपशमिकः, (४) औदयिकः, (५) पारिणामिकश्चेति । (१) औपशमिकभावः(१) मोहनीयकर्मणो भस्मावच्छन्नवह्निवदनुद्रेकावस्था, प्रदेशतोऽप्युदयाभावश्च उपशमः। उद्रेकरूपेण प्रदेशरूपेण च द्विविधस्याप्युदयस्य यथाशक्ति निरोधः। इत्थम्भूतश्चोपशमः सर्वोपशम उच्यते । उपशमेन नियंत औपशमिकःक्रोधादिकषायोदयाभावरूपोपशमस्य फलरूपो जीवस्य परमशान्तावस्थालक्षणपरिणामविशेषः । स चात्मनः शुद्धिविशेषः । यथा-कतकचूर्णप्रक्षेपेण पङ्कादिपांच प्रकारका है-(१)-औपशमिक, (२)-क्षायिक, (३)-क्षयोपशमिक, (४)-औदयिक और (५)-पारिणामिक । (१) औपशमिक भावराख से ढंको हुई अग्नि के समान मोहनीय कर्म की अनुद्रेक अवस्था, एवं प्रदेश की अपेक्षा भी उदय न होना उपशम कहलाता है । अर्थात् उद्रेकरूप से, तथा प्रदेशरूप से-दोनों प्रकार के उदय का यथाशक्ति रुकना उपशम है। इस प्रकार का उपशम सर्वोपशम कहलाता है। जो उपशम से हो उसे औपशमिक कहते है। अर्थात् क्रोध आदि कषायों के उदयाभावरूप उपशम का फलरूप जीव, उसका परमशान्त अवस्थारूप परिणाम औपशमिक कहलाता है । यह आत्मा की एक प्रकार की शुद्धि है। जैसे कि-कतकचूर्ण (निर्मलीफल का चूरा ) तथा फिटकडी आदि का चूरा डालने से जलका ४१२॥ छ (१) भोपशभिः (२) क्षायि3 (3) क्षाये॥५॥भि3 (४) मोहाय भने (4) परिणभि. (१) मोशभि साરાખથી ઢાંકેલા અગ્નિ સમાન મેહનીય કર્મની અનુદ્રક અવસ્થા, એવું પ્રદેશની અપેક્ષા પણ ઉદય ન હોય તે ઉપશમ કહેવાય છે. અર્થાત ઉદ્રક પથી તથા પ્રદેશપથી–બંને પ્રકારના ઉદયનું યથાશક્તિ રોકાવું તે ઉપશમ છે. આ પ્રકારનો ઉપશમ સર્વોપશમ કહેવાય છે. જે ઉપશમથી હોય તેને પથમિક કહે છે. અર્થાત્ કોધ આદિ કષાયોના ઉદયાભાવરૂપ ઉપશમના ફલરૂપ જીવ, તેને પરમ શાન્ત અવસ્થારૂપ પરિણામ ઔપશમિક કહેવાય છે. એ આત્માની એક પ્રકારની શુદ્ધિ છે; જેમકે કતકચૂર્ણ (નિર્મલીફલનું ચૂર્ણ તથા Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ आचारागसूत्रे मलनिचयस्याधोदेशे निपाते सति जलस्य स्वच्छता । मोहनीयकर्मण उपशमाद् यद् दर्शनं श्रद्धानरूपं, चरण वा विरतिरूपं जायते तदप्यौपशमिकशब्देनोच्यते । (२) क्षायिकभावः(२) सकलकर्मणामत्यन्तोच्छेदः क्षयः, आयेण निवृत्तः क्षायिकःअप्रतिपाति-ज्ञानदर्शनचास्त्रिलक्षणो जीवस्य परिणतिविशेषः । स चात्मनः परमविशुद्धिः। यथा-सर्वथा निःशेपपङ्कादिमलव्यपगमे जलस्य परमस्वच्छता । कीचड आदि मैल नीचे बंट जाता है, और जल स्वच्छ हो जाता है। मोहनीय कर्म के उपशम से श्रद्धानरूप जो दर्शन उत्पन्न होता है. या विरतिरूप जो चारित्र उत्पन्न होता है, वह औपशमिक सम्यग्दर्शन और औपशमिक चारित्र कहलाता है । ___ (२) क्षायिक भावकर्म का अन्यन्त उच्छेद हो जाना क्षय कहलाता है । क्षय से होने वाला भाव भायिक भाव है । अर्थात् एक वार उत्पन्न हो कर फिर नष्ट न होने वाले ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप जीव के परिणाम को क्षायिक भाव कहते है। क्षायिक अवस्था जीव की परम विशुद्धि है, जैसे -पूर्ण रूप से समस्त कीचड आदि मैल के हट जाने पर जल की परम स्वच्छता होती है। ટકડી આદિનું ચૂર્ણ નાખવાથી કચરે અને મેલ નીચે બેસી જાય છે, અને જલ સ્વચ્છ થાય છે. મેહનીય કર્મના ઉપશમથી શ્રદ્ધારૂપ જે દર્શન ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા વિરતિરકપ જે ચારિત્ર ઉત્પન્ન થાય છે, તે ઔપશમિક સમ્યગ્દર્શન અને ઔપશમિક ચારિત્ર કહેવાય છે. __(२) क्षायि मापકર્મને અત્યન્ત ઉછેટ થઈ જ તે ક્ષય કહેવાય છે. ક્ષયથી થવાવાળે ભાવ ક્ષાયિક ભાવ છે. અર્થાત્ એકવાર ઉત્પન્ન થઈને ફરી નાશ નહિ થવાવાળા જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રરૂપ જીવના પરિણામને ક્ષાયિક ભાવ કહે છે. ક્ષારિક અવસ્થા જીવની પરમ વિશુદ્ધિ છે. જેમ-પૂર્ણરૂપથી સમસ્ત કીચડ-કાદવ આદિ મેલના દૂર થવાથી જલની પરમ સ્વચ્છતા થાય છે. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा जीवास्तिकाय (३) क्षायोपशमिक - भावः - १२७ (३) मिथ्यात्वमोहनीयादिकर्मणामुदीर्णस्यांशस्य नाशः -क्षयः, अनुदीर्णस्यांशस्य विपाकोन्मुखत्वाभावः - उपशमः, यत्र एतद्वयं स क्षयोपशमः, स एव क्षायोपशमिकः । अस्य भावस्य ' मिश्रः' इति नामान्तरम् । ईषद्विध्यातावच्छन्नवह्निवद् । यद् उदद्यावलिकाप्रविष्टं कर्म, तत् क्षीणम्, ततोऽवशिष्टं कर्म, उद्रेकक्षयोभयरहितावस्थम्, इमामुभयीमवस्थामवलम्ब्य क्षायोपशमिको भावः प्रजायते । (४) औदयिकभावः -- (४) कर्मविपाकाविर्भाव उदयः । तेन निर्वृत्तो भाव औदयिकः । स (३) क्षायोपशमिक भाव 1 I मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्मों के उदीर्ण ( उदय में आये हुए ) अंश का नाश होना क्षय है | और अनुदीर्ण अंश का फल देने में उन्मुख न होना उपशम है । इन्हीं दोनो अवस्थाओं को क्षायोपशमिक भाव कहते है । इस भाव का दूसरा नाम 'मिश्रभाव' भी है । थोडी२ वुझी हुई और ढंकी हुई अग्नि के समान जो कर्म उदयावलिका में आचुके है उनका क्षय होना, तथा शेष कर्मों का उद्रेक और क्षय- -दोनों अवस्थाओं से रहित होना, इन दोनो के आधार पर क्षायोपशमिक भाव उत्पन्न होता है । (४) औदयिक भाव - I उदय से होनेवाला कर्म का विपाक (फल) देना उदय कहलाता (3) क्षायोपशभि भाव મિથ્યાત્વ માહનીય આદિ કર્મીના ઉદ્દીણું ( ઉદયમાં આવેલા ) અંશને નાશ થવા તે ક્ષય છે, અને અનુદીણુ અશનુ ફલ દેવામાં ઉન્મુખ–તે તરફ નહિ થવું તે ઉપશમ છે, એ અને અવસ્થાઓને ક્ષાયે પામિક ભાવ કહે છે. આ ભાવતુ ખીજું નામ । મિશ્રભાવ' પણ છે. ઘેાડી ઘેાડી ઠંડી થયેલી અને ઢાંકેલી અગ્નિ પ્રમાણે જે કમ ઉદયાવલિમાં આવી ચૂકયાં છે તેનેા ક્ષય થવા, તથા શેષ કાને ઉદ્રેક અને ક્ષય, ખને અવસ્થાએથી રહિત થવું, આ બન્નેનાં આધાર ઉપર ક્ષચેાપશમિક ભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. (४) मोहयिक भाव - કર્મીના વિપાક (ફૂલ) મળવું તે ઉદ્દય કહેવાય છે. ઉયથી ઉત્પન્ન થવાવાળા ભાવ તે ઔયિક છે. ઔયિક ભાવ આત્માની મલિનતા રૂપ છે. જેમકે કીચડ– Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ आचारागसूत्रे चात्मनो मालिन्यम् , यथा पङ्कसंगाज्जलस्य मालिन्यं । तथा-नरकगत्यादिनामकर्मणो विपाकाविर्भावान्नरकगत्याद्याख्य औदयिको भावः । कपायमोहनीयकर्मणो विपाकाविर्भावाच्च 'क्रोधी,-मानी'-त्यादिरौदयिको भावः । एवं सर्वत्रौदयिको भावः समालोचनीयः । (५) परिणामिक-भावः(५) परिणमनं सर्वथा-अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य रूपान्तरेण भवन-परिणामः, स एव पारिमाणिकः । अत्र स्वार्थे ठक् प्रत्ययः, न तु निवृत्त्यर्थे, जीवस्यादिमत्वापत्तेः। यदि परिणामेन निवृत्तः' इत्यर्थे पारिणामिको जीव इति मन्यते, तदा प्रागवस्थाभाव औदयिक है । भाव आत्मा का मालिन्यरूप है, जैसे कि कीचड के संसर्ग से जल में मलिनता आ जाती है । नरकगतिनामकर्म आदि के उदय से नरक गति आदि औदयिक भाव कहलाते है । कषायमोहनीय कर्म के उदय से कोध, मान आदि औदयिक भाव होते हैं । इसी प्रकार सभी जगह औदयिक भाव का विचार कर लेना चाहिये । (५) पारिणामिक भाव___ पूर्व अवस्था का सर्वथा त्याग न कर के रूपांतर में होना परिणाम है, और वही पारिणामिक कहलाता है। यहां स्वार्थमें ठक् प्रत्यय हुआ है, न कि निर्वृत्ति अर्थ में, निर्वृत्ति अर्थ में प्रत्यय होनेसे जीवका आदिमान् होनेका प्रसङ्ग आजाता है । यदि-“परिणामेन निवृत्तिः पारिणामिकः-जीवः” अर्थात् परिणामसे होनेवाला पारिणामिक-जीव कहलाता है, ऐसी व्युत्पत्ति मानली जाय तो 'किसी पूर्व कालमें जीव नहीं था वह अब हुआ है' इस કાદવના સંસર્ગથી જલમાં મલિનતા આવી જાય છે. નરકગતિ નામ-કર્મ આદિના ઉદયથી નરકગતિ આદિ ઔદયિક ભાવ કહેવાય છે. કષાયમેહનીય કર્મના ઉદયથી ક્રોધ, માન આદિ તે ઔદયિક ભાવ છે. આ પ્રમાણે તમામ સ્થળે ઔદયિક ભાવને વિચાર કરી લે. (५) पारिभिः भा५પૂર્ણ અવસ્થાને સર્વથા ત્યાગ નહિ કરતાં રૂપાંતર થવું તે પરિણામ છે, અને પરિણામ તેજ પરિણામિક કહેવાય છે. અહીં સ્વાર્થમાં ઠફ પ્રત્યય થાય છે પરન્તુ નિર્ધ્વત્તિ અર્થમાં નથી થયું. નિર્વત્તિ અર્થમાં પ્રત્યય થવાથી જીવને આદિમાન (माहवाणी) थवानी प्रस। मावी तय . -"परिणामेन निर्वत्तः परिणामिकःजीवः ” पर्थात् परिणामथी थापाको पारिवामि ०१ पाय छ' मावी व्युत्पत्ति Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय १२९ यामनिवृत्तो जीवो निर्वृतः स्यात् । एवं चादिमत्त्वप्रसंगः। कथमसन् आकाशकुसुमकल्प आत्माऽऽयत्यां संभवे ?-दिति युक्तिविरोधश्च ।। न हि परिणामेन विना कश्चिद्भावो भवतीति भावानां मध्ये परिणामस्यैव प्राधान्यम् । आत्मनः स्वाभाविकं स्वरूपपरिणमनमेव पारिणामिको भाव उच्यते । यश्चात्मनः सत्तया स्वयमेव परिणामो भवति, स एव पारिणामिको भावः । उक्तश्च__ "यः कर्त्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च ।। संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥१॥" अष्टविधकर्मणां कर्ता, कर्मफलभोक्ता, चतुर्गतिभ्रमणकर्ता, कर्मक्षयकरणेन मोक्षगन्ता यः, स एवात्मा, अन्यरूपो नेत्यर्थः । प्रकार जीवको सादि (आदिवाला) मानना पडेगा, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकिजो आत्मा भूतकालमें नहीं था तो आकाशपुष्पके समान भविष्यत् कालमें उसका होना कैसे संभव हो सकता है ? । इस प्रकार युक्तिसे भी विरोध आता है । विना परिणाम के कोई भाव नहीं हो सकता अतः भावोंमें परिणामकी प्रधानता है । आत्मा का स्वाभाविक परिणमन ही 'पारिणामिक' भाव कहलाता है, अर्थात् आत्मा का जो अनादिपरिणमनसत्ता का कारण है उसे पारिणामिक भाव समझना चाहिए । कहा भी है : "जो कर्म के भेदों का कर्ता है, जो कर्मफल का भोक्ता है। संसारभ्रमण करने वाला है, निवृति (मोक्ष) प्राप्त करने वाला है वही आत्मा है, आत्मा का अन्य लक्षण नहीं है ॥१॥ માનવામાં આવે તે “પૂર્વકાળમાં જીવ નહિ હતો તે હવે થ છે. આ પ્રકારે જીવને સાદિ (આદિવાળો) માનવે પડશે, પરંતુ એમ થઈ શકે નહિ, કારણ કે-જે જીવ ભૂતકાળમાં નહીં હતો ત્યારે તેનું આકાશપુની સમાન ભવિષ્યત્ કાળમાં થવું કેમ સંભવે ? એમ યુક્તિથી પણ વિરોધ આવે છે. વગર પરિણામે કઈ પણ ભાવ નથી થઈ શકતે, એટલા માટે ભામાં પરિણામની પ્રધાનતા છે. આત્માનું સ્વાભાવિક પરિણમન જ પારિણામિક ભાવ કહેવાય છે. અર્થાત આત્માની અનાદિપરિણમનસત્તાનું જ કારણ છે, તેને પરિણામિક ભાન સમજવું જોઇએ કહ્યું પણ છે – જે કર્મના ભેદને કર્તા છે, જે કર્મના ફળને ભકતા છે; સંસારભ્રમણ કરવાવાળે છે, નિવૃતિ (મોક્ષ) પ્રાપ્ત કરવા વાળો છે તે આત્મા છે. આત્માનું मीनु सक्षY नथी." ॥१॥ प्र. मा.-१७ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १३० * आचारागसूत्रे जीवस्य स्थितिक्षेत्रम्लोकाकाशस्याऽसंख्यातभागतः समारभ्य, समस्तलोकाकाशे जीवोऽवगाहते। जीवप्रदेशानां प्रदीपवत् संकोचविस्तारस्वभावत्वात् । आत्मनः परिमाणं न गगनवन्महत् , नापि परमाणुवदणु, किन्तु मध्यमम् । यद्यपि प्रदेशसंख्यापेक्षया समानमेव सर्वेषामात्मनां स्वस्वपरिमाणम् , तथापि दैय-विस्तारादि सर्वेषां विसदृशमेव । अतः प्रत्येकजीवस्याऽऽधारक्षेत्रं जघन्यतो लोकाकाशस्याऽसंख्यातभागतः समारभ्य समग्रभागपर्यन्तं भवितुम जीव का स्थितिक्षेत्र- लोकाकाश के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकाकाश में जीव का अवगाहन हो सकता है । कारण यह है कि-जीव के प्रदेश दीपक की प्रभा के समान संकोच-विस्तार स्वभाव वाले है, अर्थात् कभी सिकुड जाते है और कभी फैल जाते हैं,। 'आत्मा का परिमाण,न तो आकाश के समान महान् (सर्वव्यापी) है और न परमाणु के बराबर ही है किन्तु आत्मा मध्यम परिमाण वाला है। प्रदेशो की संख्या की अपेक्षा समस्त आत्माओ का परिमाण बराबर है, अर्थात्, सब आत्मा लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेश वाले है किन्तु प्राप्त शरीर के अनुसार उनके विस्तार में (परिमाण में) अन्तर पडजाता है, अतः प्रत्येक ०१ स्थितिक्षेत्रલોકાકાશના અસંખ્યાતમા ભાગથી લઈને સંપૂર્ણ લોકાકાશમાં જીવનું એવગાહન થઈ શકે છે. કારણ એ છે કે–જીવના પ્રદેશ દીપકની પ્રજાની સમાન સંકેચ-વિસ્તાર સ્વભાવવાળા છે, અર્થાત્ કોઈ વખત સંકુચાઈ જાય છે અને કઈ વખત ફેલાઈ જાય છે. આત્માનું પરિમાણ આકાશપ્રમાણે મહાન નથી. અને પરમાણુના બરાબર પણ નથી પરંતુ આત્મા મધ્યમ પરિમાણ વાળે છે. * પ્રદેશની સંખ્યાની અપેક્ષાએ સમસ્ત આત્માનું પરિમાણ બરાબર છે. અર્થાત સર્વ આત્મા કાકાશના બરાબર અસંખ્યાત પ્રદેશવાળા છે, પરંતુ પ્રાપ્ત શરીરના અનુસાર તેના વિસ્તારમાં (પરિમાણમા) અંતર પડી જાય છે. તેટલા કારણથી પ્રત્યેક જીવને આધાર-ક્ષેત્ર કાફાશના અસંખ્યાતમા ભાગથી લઈને સંપૂર્ણ લેક સુધી થઈ શકે છે. AAS. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकायं हति । यदा जीवः केवलिसमुद्धातावस्था प्रामोति, तदा समस्तलोकाकाशमेकजीवस्याधारक्षेत्रं भवति । सकलजीवराश्यपेक्षया तु जीवानामाधारक्षेत्रं संपूर्णमेव लोकाकाशम् । लोकाकाशस्याऽसंख्यातभागे जीवस्य स्थतिरित्यत्राऽऽगमवचनं यथा "सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे" स्वस्थानेन लोकस्यासंख्येयभागे । (प्रज्ञा० २ पदे जीवस्थानाधिकारे ) ननु परिमाणस्य न्यूनाधिकत्वे किं कारणम् ? उच्यते-जीवस्यानादिकालतोऽनन्तानन्ताणुप्रचयरूपेण कार्मण-शरीरेण सम्बन्धादेकस्यैव जीवस्य परिमाण जीव का आधारक्षेत्र लोकाकाश के असंख्यातवे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोकतक हो सकता है । जब जीव केवलिसमुद्घात करता है उस समय वही एक जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हो जाता है। समस्त जीवराशि की अपेक्षासे सम्पूर्ण लोकाकाश जीवों का आधारक्षेत्र है। ____ जीव का अवगाह - लोकाकाश के असंख्यातवे भाग में होता है; इस विषय में आगम का प्रमाण इस प्रकार है "सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे" (प्रज्ञापना २ पद जीवस्थानाधिकार) स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असख्यातवे भाग में (जीव की स्थिति है)। शङ्का-जीवो के परिमाण की न्यूनाधिकता का क्या कारण है ? समाधान-अनन्तानन्त परमाणुओ के प्रचयरूप कार्मण शरीर के साथ જ્યારે જીવ કેવલિસમુદઘાત કરે છે, તે સમયે તે એક જીવ સંપૂર્ણ કાકાશમાં વ્યાપ્ત થઈ જાય છે. સમસ્ત જીવરાશિની અપેક્ષાથી સંપૂર્ણ કાકાશ જીવોનું આધારક્ષેત્ર છે. જીવને અવગાહ લેકાકાશના અસંખ્યાતમાં ભાગમાં હોય છે. આ વિષયમાં આગમનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે– "सदाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे" स्वस्थाननी अपेक्षा ४न! असण्यातमा मामा ( नी स्थिति छे) प्रज्ञापना, २ पद जीवस्थानाधिकार. . - Jhat श -वाना परियामनी न्यूनाxिdidiशु.४।२५ छे.१.६ - - ..., સમાધાન–અનંતાનંત પરમાણુઓના પ્રચય -(સમૂહ) પ, કામણ શરીર Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे बहूनां वा जीवानां परिमाणं विविधं जायते । कार्मण-शरीरं हि सर्वदाऽनेकरूपेणावतिष्ठते । तत्सम्बन्धादौदारिकाद्यपि शरीरं तदनुसारि न्यूनाधिकपरिमाणभाग् भवति । जीवम्य मूर्तवद् हासवृद्धिःवस्तुतो रूपरहितोऽपि जीवः शरीरसम्बन्धान्न्यूनाधिकपरिमाणं दधन्मूत इवापचयोपचयो प्राप्नोति । स हि स्वभावतः प्रदीपवनिमित्तमासाद्य संकोचविकाशशीलः स्वाश्रयमात्रेऽवभासते। यथा-कलशे प्रासादपदेशे निराअनादि काल से जीव का सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के कारण एक ही जीव का अनेक कालों में, और अनेक जीवों का एक ही काल में भिन्न२ प्रकार का परिमाण होता है । कार्मण शरीर सदा विभिन्न रूपों में परिणमन करता रहता है। उसके संयोग से मौदारिक आदि शरीर भी कार्मण शरीर के अनुसार न्यूनाधिकपरिमाणवाले' होते हैं। जोव की हास-वृद्धिजीव वास्तव में अरूपी है, फिर भी शरीर के साथ सम्बन्ध होने के कारण वह छोटे-मोटे परिमाग को धारण करता है, अतः उस में मूर्त पदार्थ की भाँति अपचय (हास ) और उपचय ( वृद्धि ) होता है । स्वभाव से संकोच विकासवाला जीव निमित्त पाकर दीपक की तरह अपने आश्रय (शरीर) में प्रतिभासित होता है। जैसे घट में, સાથે અનાદિ કાલથી જીવને સંબંધ છે; એ સંબંધના કારણે એકજ જીવને અનેક કાલેમાં, અને અનેક ના એકજ કાલમાં ભિન્ન ભિન્ન પ્રકારનું પરિમાણ થાય છે. કાર્મણ શરીર સદાય વિભિન્ન રૂપમાં પરિણમન કરી રહે છે, તેના સંગથી ઔદારિક આદિ શરીર પણ કાશ્મણ શરીર પ્રમાણે જૂનાધિક પરિમાણવાળા હોય છે. पनी दास वृद्धिજીવ વાસ્તવમાં અરૂપી છે, તે પણ શરીરની સાથે સંબંધ હોવાના કારણે તે નાના–મેટા પરિમાણને ધારણ કરે છે, તે કારણથી તેમાં મૂર્તિ પદાર્થની જેમ અપચય (હાસ) અને ઉપચય (વૃદ્ધિ) થાય છે. સ્વભાવથી સંકેચ-વિકાસવાળ જીવ નિમિત્ત પ્રાપ્ત કરી દીપકની પ્રમાણે પિતાના આશ્રય (શરીર)માં પ્રતિભાસિત થાય છે–દેખાય છે). Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकार्य वृताकाशे चावस्थितः प्रकाशपुञ्जरूपः प्रदीपः स्वाश्रयमात्रावभासी क्वचित् संकुचितः क्वचित् विततश्च भवति । अतः शरीरपरिमाणानुसारं परिमाणं दधान आत्मा मूर्त इव विज्ञायते । उक्तञ्च राजप्रश्नीयसूत्रे "पएसी ! जहाणामए-कूड़ागारसाला सिया जाव गंभीरा, अहणं केई पुरिसे जोइं व दीवं व" इत्यारभ्य “एवामेव पएसी ! जीवेवि जं जारिसयं पुवकम्मनिबद्धं बौदि णिवत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपएसेहिं सचित्तं करेइ-खुड्डियं वा महालियं वा" इति पर्यन्तम् । मू० ८४ ॥ इति ॥ प्रदेशिन् तद् यथानामकम्-कूटागारशाला स्यात् यावद् गम्भीरा. अथ खलु कोऽपि पुरुषः ज्योतिर्वा दीपं वा (इत्यारभ्य) एवमेव प्रदेशिन् ! जीवोऽपि यां यादृशिकां पूर्वकर्मनिबद्धां बोदि निवर्त्तयति तामसंख्येयैर्जीवप्रदेशैः सचित्तां करोति शुद्रिकां वा महालयां वा ।" इति च्छाया । महल में और खुले आकाश मे रक्खा हुआ प्रकाश का पुञ्जरूप दीपक अपनी जगह पर मालूम होता हुआ कहीं सकुचित होता है और कहीं विस्तृत होता है। इसी प्रकार शरीर के परिमाण के अनुसार परिमाणवाला आत्मा मूर्त जैसा मालूम होता है । राजप्रश्नीय सूत्र में कहा है :-- "हे प्रदेशी राजा । जैसे कोई कूटागार शाला हो और वह ( यावत् ) गंभीर हो और कोई पुरुष जोत या दीपक उस मे रक्खे तो वह उसे पूर्णरूप से प्रकाशित करता है, इसी प्रकार हे प्रदेशी | आत्मा अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार जैसा शरीर पाता है; उसे असख्यात आत्मप्रदेशों से सजीव बना देता है, चाहे वह शरीर बडा हो चाहे क्षुल्ल (छोटा) हो"। જેવી રીતે ઘરમાં, મહેલમાં અને ખુલ્લા આકાશમાં રાખેલે પ્રકાશ-પુંજપ દીપક, પિતાની જગ્યાએ દેખાતે થકો કઈ જગ્યાએ સંકુચિત હોય છે અને કઈ જગ્યાએ વિસ્તૃત હોય છે. એ પ્રમાણે શરીરના પરિમાણ અનુસાર પરિમાણ વાળો આત્મા भूत व पाय छे. राजप्रश्नीय सूत्रभा छ - હે પરદેશી રાજા! જેમ કોઈ કૂટાગાર શાળા હોય તે (યાવત) ગંભીર હોય અને કઈ પુરુષ ત અથવા દીપક તેમાં રાખે છે તે એને પૂર્ણ રૂપથી પ્રકાશિત કરે છે, એ પ્રમાણે હે પરદેશી ! આત્મા પોતાના પૂર્વોપાર્જિત કર્મો પ્રમાણે જેવું શરીર પ્રાપ્ત કરે છે, તેને અસંખ્યાત આત્મપ્રદેશથી સજીવ બનાવી દે છે, તે શરીર ગમે તે મેટું હોય અથવા નાનું હાય.” Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ आचाराङ्गसूत्रे जीवस्य - ऊर्ध्वगतिः सकलकर्मणां क्षये सति सपदि जीवो मुक्तः सन्नूर्ध्वं गच्छति, न च ' जीवस्यामूर्तत्वाद् गतेरसंभवः' इति वाच्यम्, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यवद् जीवस्य गतिशीलत्वात् । ― इयान् विशेषः पुद्गलेभ्यः - पुद्गलाः स्वभावादधोगतिशीलाः, जीवास्तु स्वभावादूर्ध्वगतिशीलाः । प्रतिबंधकद्रव्यसङ्गाद् ऊर्ध्वगमनस्वभावा जीवा अधस्तिर्यग् वा गच्छन्ति, गन्तुमक्षमा वा भवन्ति । तच्च तद्गतिप्रतिबन्धः कर्मैव । यदा सकलजीव की ऊर्ध्वगति— सकल कर्मों का क्षय होने पर तत्काल मुक्त हुआ जीव ऊपर की ओर गमन करता है । 'जीव अमूर्त है और इस कारण वह गति नहीं कर सकता' ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्यों कि पुद्गल - द्रव्य के समान जीव स्वभाव से ही गतिशील है । गति के विषय में और जीव का जीव और पुल में इतना भेद है - पुद्गल अधोगतिशील हैं और जीव ऊर्ध्वगतिशील है, अर्थात् पुद्गलो का स्वभाव नीचे जाने का है स्वभाव उपर की ओर जाने का है मगर रुकावट डालने वाले द्रव्यों के निमित्त से ऊर्ध्वगतिशील जीव भी नीचे की ओर अथवा तिरछा गमन करता है । या कभी गमन करने में असमर्थ हो जाता है । जीव की स्वाभाविक गति का प्रतिबन्धक (रुकावट डालने वाला) कर्म ही है । जब समस्त कर्मों का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है और જીવની ઉર્ધ્વ ગતિ— સલ કર્મના ક્ષય થયા પછી તત્કાલ મુક્ત થયેલા જીવ ઉપર તરફ ગમન કરે છે. ‘જીવ અભૂત્ત છે, અને એ કારણથી તે ગતિ કરી શકતા નથી’—એમ કહેવું તે ઠીક નથી; કેમકે પુદ્દગલની પ્રમાણે જીવ સ્વભાવથી જ ગતિશીલ છે. ગતિના વિષયમાં જીવ અને પુદ્ગલમાં એટલા ભેદ છેઃ-પુદ્ગલ અધોગતિશીલ છે, અને જીવ ઉર્ધ્વગતિશીલ છે. અર્થાત્ પુદ્ગલેાના સ્વભાવ નીચે જવાના છે, અને જીવના સ્વભાવ ઉપર તરફ જવાના છે, પરંતુ તેમાં અંતરાય નાંખવાવાળા દ્રબ્યાના નિમિત્તથી ઉર્ધ્વગતિશીલ જીવ પણ નીચે તરફ અથવા તિર્થ્ય ગમન કરે છે અથવા કોઈ વખત ગમન કરવામાં અસમર્થ થઈ જાય છે. જીવની સ્વાભાવિક ગતિના પ્રતિબંધ (અટકાયત) કરનાર કર્મ જ છે. જ્યારે સકલ કર્મોના અત્યન્ત ક્ષય થઈ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय कर्मणामत्यन्तोच्छेदे सति कर्मसङ्गाभावात् कर्मबन्धनोच्छेदाच नास्त्येवोर्ध्वगतिप्रतिवन्धकं तदा स्वस्वभावानुसारेणोर्ध्वगमनावसरः सिद्धानामुपतिष्ठते । जीवस्य लक्षणम्___ उपयोगवत्वं जीवस्य लक्षणम् । उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः करणे घञ् । बोधरूपो व्यापार उपयोगः । ज्ञानं, संवेदनं, प्रत्ययः, इति नामान्तराणि । ___सामान्यविशेषरूपबोधद्वयदर्शनान्निश्चयो भवति-विद्यते खलु जीवः, यस्येमौ सामान्यविशेषावबोधौ, न च तादृशः कश्चिदस्ति जीवो, यस्य साकाकर्मों का संसर्ग नहीं रहता, कर्मबन्धन का उच्छेद होने से ऊर्ध्वगति का कोई प्रतिबन्धक नहीं रहता, तब सिद्ध जीवों को ऊर्ध्व गमन का अवसर प्राप्त होता है । जीव का लक्षणजीव का लक्षण उपयोग है। जो जीव को वस्तु के बोध में व्याप्त करता है उपयुक्त बनाता है उसे उपयोग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि-बोधरूप व्यापार उपयोग कहलाता है । ज्ञान संवेदन, प्रत्यय, ये उपयोग के पयायवाची शब्द हैं । ___ सामान्य बोध (दर्शन) और विशेष बोध (ज्ञान) अनुभवसिद्ध है । इन दोनों बोधों से यह निश्चय होता है कि जीव अवश्य है, जिस मे यह सामान्य और विशेष बोध पाया जाता है। ऐसा कोई जीव नहीं है जिस में सामान्य-बोध (निराकार જાય છે, અને કર્મોને સંસર્ગ રહેતું નથી, ત્યારે કર્મબંધનને ક્ષય થવાથી ઉર્ધ્વગતિ થવામાં કઈ પ્રતિબંધક (અંતરાય કરનાર) રહેતું નથી, ત્યારે સિદ્ધ જીવોને ઉર્વ ગમન કરવાને અવસર પ્રાપ્ત થાય છે. नु सक्षणજીવનું લક્ષણ ઉપગ છે, તે જીવને વસ્તુના બેધમાં વ્યાકૃત–વ્યાપારયુક્ત કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-બેધરૂપ વ્યાપાર ઉપગ કહેવાય છે. જ્ઞાન, સંવેદન, પ્રત્યય. આ સર્વ ઉપગના પર્યાયવાચી શબ્દ છે, सामान्य माध (शन) मने विशेष माध (ज्ञान) मनुल सिद्ध छ. ये मन બોધોથી એમ નિશ્ચય થાય છે કે જીવ અવશ્ય છે, જેમાં આ સામાન્ય તથા વિશેષ બોધ જોવામાં આવે છે એ કઈ જીવ નથી કે જેમાં સામાન્ય બોધ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३६ आचारागसूत्रे रानाकारोपयोगौ न स्तः । अत एवोक्तं भगवता-"जीवो उवओगलक्खणो" इति। लक्ष्यते-ज्ञायतेऽनेनेति लक्षणम् । उपयोगी लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणः । ज्ञानावगम्यो जीव इत्यर्थः । पृथिवीकायादिसर्वसंसारिजीवानां वोधस्यानन्ततमो भागः सर्वदा प्रकाशमानोऽनावृतस्तिष्ठत्येव । नहि सकललोकान्तवर्तिनः पुद्गलाः कर्मरूपतया परिणता अपि कस्यापि जीवस्य सर्वतोभावेन ज्ञानमावरीतुं प्रभवन्ति । यथाअतिनिविडघनघटाऽऽच्छादितस्यापि सूर्यस्य प्रकाशलेशः प्रकाशत एव, नच सर्वथा उपयोग) और विशेष बोध ( साकार उपयोग ) विद्यमान न हो, इसी कारण भगवान्ने कहा है-"जीवो उवओगलक्खणो" जीव उपयोग लक्षण वाला है। जिस के द्वारा वस्तु लखी जाय-जानी जाय वह लक्षण कहलाता है। उपयोग जिस का लक्षण हो उसे उपयोगलक्षण कहते है। तात्पर्य यह है कि-ज्ञान लक्षण के द्वारा जीव मालूम होता है । पृथिवीकाय आदि समस्त संसारी जीवों के ज्ञान का अनन्तवा भाग सदैव प्रकाशमान और आवरणरहित बना रहता है। सम्पूर्ण लोकाकाश के पुद्गल कदाचित् कर्मरूप में परिणत हो जाएँ तो भी वह किसी एक जीव के ज्ञान को पूर्णरूप से आवृत नहीं कर सकते । सूर्य चाहे कितनी ही सघन घनगटा से आच्छादित क्यों न हो जाए, उसका थोडा बहुत प्रकाश बना ही रहता है, प्रकाश कभी पूरी तरह (નિરાકાર ઉપગ) અને વિશેષ બોધ (સાકાર ઉપગ) વિદ્યમાન ન હોય, એ ४१२४थी. सावाने ४ छे .-" जीवो उवओगलक्षणो" q6पयोग सक्षवाको छे. જેના દ્વારા વસ્તુ લખી શકાય-જાણી શકાય-તે લક્ષણ કહેવાય છે. ઉપયોગ જેનું લક્ષણ હોય, તેને “ઉપગલક્ષણ” કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-જ્ઞાનલક્ષણ દ્વારા જીવ માલુમ પડે છે પૃથિવીકાય આદિ તમામ સંસારી જીના જ્ઞાનને અનંતમે ભાગ હમેશાં પ્રકાશમાન અને આવરણરહિત બની રહે છે. સંપૂર્ણ કાકાશના પુદ્ગલે કદાચ કર્મપમાં પરિણત થઈ જાય તે પણ તે કઈ એક જીવના જ્ઞાનને પૂર્ણ રૂપથી આવૃત કરી ( ઢાકી) શકે નહિ સૂર્ય ગમે તેટલી ઘનઘટા-(મેઘાડંબર)માં આચ્છાદિત થઈ જાય તે પણ સૂર્યને ડે-ઝઝે પ્રકાશ તે બની જ રહે છે, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय तिरोहितो भवति। तथा पृथिवीकायादिजीवानामुपयोगांशः स्फुरत्येव सर्वदा । यदि लोकव्यापिनः पुद्गलाः संघीभूयापि कर्मवर्गणारूपेण सर्वतोभावेन ज्ञानं तिरोदध्युस्तर्हि निर्जीवतापत्तिरात्मनो दुर्वारा स्यात् । तस्मात् पृथिव्यादिजीवेषु बोधांशः स्वभावतोऽनातस्तिष्ठत्येवेति सिद्धम् । उक्तं चागमे “सधजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्याडिओ। जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा तो णं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा" " मुवि मेहसमुदए, होइ पभा चंद-भूराणं " इति । ___ छाया-सर्वजीवानामपि च खलु अक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्घाटितः। यदि पुनः सोऽपि आत्रियेत तर्हि खलु जीवः अजीवत्वं प्राग्रुयात् । “ मुष्टपि मेघसमुदये, भवति प्रभा चन्द्रसूरयोः" इति । तिरोहित नहीं हो सकता, इसी प्रकार पृथिवीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों के उपयोग का अंश सदा स्फुरायमान रहता ही है। अगर लोकव्यापी पुद्गल इकट्ठे हो कर्मवर्गणारूप परिणत हो कर ज्ञान को पूरी तरह आच्छादित कर डाले तो जीव अजीव बन जाय, मगर ऐसा होना असम्भव है, अत एव यह सिद्ध है कि-पृथिवीकाय आदि एक इन्द्रिय वाले जीवों में भी ज्ञान का किंचित् अंश स्वभाव से अनावृत (आवरण रहित) रहता है। आगम में भी कहा है-"सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्धाडिओ, जइ पुण सोवि आवरिज्जा तो णं जीवो अजीवत्त पाविज्जा" "मुवि मेहसमुदए होइ पभा चंदमूराणं" પ્રકાશ કયારેય પૂર્ણપણે તિરહિત-આચ્છાદિત થતું નથી. એ પ્રમાણે પૃથિવીકાય આદિ એકેન્દ્રિય જીના “ઉપયોગ” અંશ પણ સદા સ્કુરાયમાન રહે છે. અગર લેકવ્યાપી પુદ્ગલ એકઠા થઈને કર્મવર્ગણારૂપ પરિણત થઈને જ્ઞાનને પૂરી તરેહથી આચ્છાદિત કરી નાંખે (ઢાંકી દે) તે જીવ અજીવ બની જાય, પણ એમ બનવું અસંભવિત છે. એટલા કારણથી એ સિદ્ધ છે કે–પૃથિવીકાય આદિ એક ઈન્દ્રિયવાળા જીમાં પણ જ્ઞાનને કિંચિત્ અંશ સ્વભાવથી અનાવૃત-આવરણરહિત રહે છે. याममा ५ ४यु छ--" सव्यजीवाण पि यणं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिभो । जइ पुण सोवि आवरिज्जा तो ण जीवो अजीवत्तं पाविज्जा ” “ सुठुवि मेहसमुदए होइ पभा चदसूराणं" प्र. आ.-१८ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसत्र तस्माद् यश्च यावानुपयोगांनः सर्वगंयाग्जिीवेषु यथासंभव स्वभावनाऽनाहतो वर्तत, तत्र सर्वतो जघन्य उपयोगांगः प्रमथममय ग्रन्त्रपयामानां मृत्मनिगोदानामेव भवति। ननः परं स एवोपयोगांगः अवगिप्टेंकेन्द्रिय द्वि-त्रि-चतुः-पञ्चन्द्रियभंदाद् मिद्यमानः गंभिन्नम्रोतस्त्वादिलब्धिसमृहेन च लब्धिनिमित्तकणगरीरेन्द्रियवाङ्मनांसि ममाश्रित्य प्रवर्षमानो विविधक्षायोपशमकृतचिच्यवतामवग्रहादीनां भेदन ततोऽप्यधिकतरं वर्धमानः सकलयातिकर्मक्षयं कृत्रा, सकलनेयग्रादिकां परां विद्धि "सर्व जीवों के अक्षर का अनन्नवां भाग ज्ञान व उचाटा (निगवरग) बना रहता है, अगर बद्र भी दृक नाय तो जीव अनीव दो नाय । " खत्र समुदाय होने पर भी चन्द्रमा और सूय को प्रभा तो बनी "मेघो का ही रहती है।" ___ उपयोग का जो सर्व जयन्य अंश समस्त मंमार्ग जीवाम सर्वदा अनावृत बना रहता है, वह जघन्य अंग उपत्ति के प्रथम समय में वर्तमान अश्यांन नुक्ष्म निगोदिया जीवों में भी होता है। तत्पश्चात् वही उपयोग का अंग एकेन्द्रिय टीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुर्गिन्द्रिय और पजेन्द्रिय के मंद से मिन्न होता हुआ संभिन्त्रोतन्त्र आदि लब्धियों के समूह से लब्धि. निमित्त, का, बार्गर, इन्द्रिय वचन और मन का आश्रय लेकर बढ़ना जाता है। यहां तक कि विविध प्रकार के अयोपशम की विचित्रता वाले वी के अवग्रह आदि के मंद में और उस में भी अधिक बढकर समन्न बानी क्रमों का क्षय होने पर समन्न नेय पदार्थों “સર્વ જેને અક્ષરનો અનમો ભાગ જ્ઞાન પ્રદૈવ ઉઘાડું (નિરાવરણ) રહે છે. અગર ત પશુ જે ઢંકાઈ જાય તે જીવ અજીવ થઈ જાય મેઘને ખુબ સમુદાય હોય તે પણ ચંદ્ર અને સૂર્યની પ્રભા બની રહે છે.” ઉપયોગને જે સર્વ જઘન્ય અંશ તમામ સંસારી જેમાં સર્વદા અનાવૃત (ઉઘાડે) બની રહે છે તે સર્વ જઘન્ય અંશ ઉત્પત્તિના પ્રથમ સમયમાં વર્તમાન, અપર્યાપ્ત સૂક્ષ્મ નિગેદના ઓમાં પણ હોય છે. તે પછી તે ઉપગનો અંશ એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિયના ભેદથી ભિન્ન થઈને, સંભિન્નોતસ્વ આદિ લબ્ધિઓના સમૂહથી, લબ્ધિ, નિમિત્ત, કરણ, શરીર, ઈન્દ્રિય, વચન અને મનનો આશ્રય લઈને વધતું જાય છે, અહીં સુધી કે વિવિધ પ્રકારના પશમની વિચિત્રતાવાળા જેને અવગ્રહ આદિ લેવી અને તેનાથી પણ અધિક વર્ષને સમસ્ત ઘાતી કર્મોને Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा जीवास्तिकाय प्राप्य, केवलज्ञानसंज्ञां प्राप्नोति । जीवा द्विविधाः-सिद्धा -असिद्धाश्च । तत्र निर्द्धताशेषकर्माणः सिद्धाः, असिद्धाः संसारिणः । द्रव्यभावबन्धः संसारः। कर्माष्टकसम्बन्धी द्रव्यबन्धः, रागद्वेषादिपरिणामसंवन्धो भाववन्धः। द्विविधबन्धरूपः संसारोऽस्ति येषां ते संसारिणः । संसारिणो द्विविधाः बसस्थावरभेदात् । तत्र पृथिव्यवनस्पतयः स्थावराः । तेजोवायूदारास्त्रसाः । तेजोवायू गत्यैव त्रसौ, न तु लब्ध्या । तत्रोदाराश्चतुर्विधाः-द्वि-त्रि-चतुः-प्रश्चन्द्रियभेदात् । तत्र पञ्चेन्द्रियाः पुनर्द्विविधाः समनस्का अमनस्काश्च । को जानने योग्य विशुद्धता प्राप्त करके केवल ज्ञान संज्ञा को पाता है । जीव दो प्रकार के है --सिद्ध जीव और असिद्ध जीव । सकल कर्मों से रहित जीव सिद्ध कहलाते है, और संसारी जीव असिद्ध कहलाते है। द्रव्यबन्ध और भावबन्ध को ससार कहते है । आठ कर्मोका सम्बन्ध द्रव्यबन्ध है, और राग द्वेष आदि परिणामो का सम्बन्ध होना भावबन्ध है। यह दो प्रकार का बन्धरूप ससार जिन के हो वे संसारी जीव कहलाते है। ससारी जीव त्रस और स्थावर के भेदसे दो प्रकार के है । पृथ्वी जल और वनस्पति, ये स्थावर है, तेज वायु और उदार जीव त्रस है । इन में तेज और वायु गतित्रस है, लब्धि से स्थावर है। . उदार के चार भेट है-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रिय जीवो के संज्ञी और असंज्ञी, ये दो भेद है। ક્ષય થવાથી સમસ્ત ય પદાર્થોને જાણવા ગ્ય વિશુદ્ધતા પ્રાપ્ત કરીને કેવલજ્ઞાન સંજ્ઞા પામે છે. જીવ બે પ્રકારના છે–સિદ્ધ જીવ અને અસિદ્ધ જીવ, સકલ કર્મોથી રહિત જીવ સિદ્ધ કહેવાય છે, અને સંસારી જીવ અસિદ્ધ કહેવાય છે. દ્રવ્યબંધ અને ભાવબંધને સંસાર કહે છે. આઠ કર્મોને સંબંધ તે દ્રવ્યબંધ છે, અને રાગ-દ્વેષ આદિ પરિણમેને સંબંધ થાય તે ભાવબંધ છે. એ બે પ્રકારના બંધપ સંસાર જેને હોય છે તે સંસારી જીવ કહેવાય છે. સંસારી જીવ ત્રસ અને સ્થાવરના ભેદથી से प्रा२ना छे. पृथ्वी, पाणी, मने वनस्पति मा ३ स्था१२ छ, तेस, वायु, ઉદાર જીવ ત્રસ છે. તેમાં તેજ અને વાયુ ગતિત્રસ છે, લબ્ધિથી સ્થાવર છે. ઉદારના ચાર ભેદ છે. દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય. પંચેન્દ્રિય જીના સંસી અસંજ્ઞી, એ બે ભેદ છે. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे जीवास्तिकायस्य (१) - अनन्तज्ञानम्, ( २ ) - अनन्तदर्शनम् (३) - अनन्त सुखम्, (४) - अनन्तवीर्यं चेति गुणाः । ( १ ) - अव्यावाधवत्त्वम्, ( २ ) - अनवगाहवत्त्वम्, (३) - अमूर्तिकत्वम् (४) - अगुरुलघुवच्चं चेति पर्यायाः । १४० अयं द्रव्य-क्षेत्र -काल- भाव-गुण-भेदेन पञ्चधा ज्ञायते - ( १ ) - द्रव्यतःअनन्ता जीवाः, (२) - क्षेत्रतो लोकप्रमाणा:, (३) - कालत आद्यन्तरहिताः, (४) - भावतः अरूपिणः- वर्णगन्धरसस्पर्शवर्जिता इति, (५) - गुणत चेतनालक्षणा इति । । इति जीवास्तिकायः सम्पूर्ण: अनन्त ज्ञान (२) अनन्त दर्शन जीवास्तिकाय के गुण ये है - - (१) (३) अनन्त सुख और (४) अनन्त वीर्य । (१) अन्यावाधवत्त्व (२) अनवगाहनावत्त्व (३) अमूर्तिकत्व और (४) अगुरुलघु व, ये जीव की पर्याय है । द्रव्य क्षेत्र काल भाव और गुण के मेढ़ से पांच प्रकार से जीवास्तिकाय का ज्ञान होता है । (१) द्रव्य से - जीव अनन्त है, (२) क्षेत्र से लोकप्रमाण है (३) काल से- आदि - अन्त रहित हैं (४) भाव से - अरूपी है - रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श से रहित है (५) गुण से - चेतनालक्षण है । । इति जीवास्तिकाय । लवास्तिडायना गुणु आा हे - (1) अनंतज्ञान, (२) अनंत दर्शन (3) अनंत सुभमने (४) अनंत वीर्य . (૧) અવ્યાબાધવત્ત્વ (ર) અનવગાહનાવત્ત્વ (3) असूर्तित्व भने (४) અનુલઘુત્વ, એ જીવની પર્યાય છે. દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ, ભાવ અને ગુણના ભેદથી પાંચ પ્રકારે જીવાસ્તિકાયનું જ્ઞાન धाय छे. (१) द्रव्यथी - लव अनंत छे. (२) क्षेत्रथी - सोप्रभाणु. (3) असथी - माहि अन्त रडित छे. (४) लावधी- अरुपी छे-३-२-गंध भने स्पर्शथी रहित छे ( 4 ) गुणुथी - चेतनासक्षलु छे. ઇતિ વાસ્તિકાય Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा षड़द्रव्यविचार अथ पडूद्रव्यविचारः १४१ षट्सु द्रव्येषु वियद् द्रव्यं क्षेत्रम्, इतरे धर्मादयः पञ्च क्षेत्रवर्तित्वात् क्षेत्रिणः । देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रवर्तियौगलिकैक केशस्य खण्डशः करणे पर्यन्ततो यस्य खण्डस्य पुनः खण्डो न भवितुमर्हति तादृशखण्डपरिमाणं यावदाकाशक्षेत्रं व्याप्नोति तावति भागे वियतोऽसंख्यातप्रदेशाः, धर्मास्तिकायस्यासंख्यातमदेशाः, अधर्मास्तिकायस्य चा संख्यातप्रदेशाः, असंख्याता निगोदानां गोलकाच तिष्ठन्ति । सूच्यग्रभागपरिमिते निगोदखण्डेऽप्यसंख्याताः श्रेणयः सन्ति । तत्र प्रत्येक श्रेण्यामसंख्याताः प्रतराः प्रतरे च प्रत्येकमसंख्याताः गोलकाः, गोलके " षड्द्रव्यविचार छह द्रव्यों में से आकाश द्रव्य, क्षेत्र है, और शेष धर्म आदि पांच द्रव्य क्षेत्रवर्ती होने के कारण क्षेत्री है । देव कुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रो के जुगलिया के एक केश के ऐसे टुकडे किये जाएँ कि फिर उनका दूसरा टुकडा न हो सके । इन में से एक टुकडा जितने आकाश क्षेत्र को व्याप्त करता है उतने भाग में आकाश के असंख्यात प्रदेश होते है । उसी में धर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश है, अधर्मास्तिकाय के असंख्यात प्रदेश है, और निगोद के असंख्यात गोलक विद्यमान है । सुई की नोंक बराबर निगोद के खण्ड में भी असख्यात श्रेणियां विद्यमान है । एक २ श्रेणी में असंख्यात - असंख्यात प्रतर है, एक २ प्रतर में असंख्यात २ गोलक हैं, ષદ્ભવ્ય વિચાર— છ દ્રવ્યામાં આકાશ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર છે, અને ખાકીના ધર્મ આદિ પાંચદ્રવ્યે ક્ષેત્રવતી હાવાથી ક્ષેત્ર છે; દેવકુરૂ અને ઉત્તરકુરૂ ક્ષેત્રોના જીગલિઆના એક કેશવાળના એવા ટુકડા કરવામાં આવે કે ફરીને તેને ખીજે ટુકડા થઈ શકે નહિ, તેમાંથી એક ટુકડા જેટલા આકાશક્ષેત્રને વ્યાપ્ત કરે છે તેટલા ભાગમાં આકાશના અસંખ્યાત પ્રદેશ કહેવાય છે. તેમાં ધર્માસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશ છે, અધર્મોસ્તિકાયના અસંખ્યાત પ્રદેશ છે, અને નિગેાદના અસંખ્યાત ગેાલક વિદ્યમાન છે. સેયની અણી ખરેખર નિગેદના ખંડમા પણ અસંખ્યાત શ્રેણીએ વિદ્યમાન છે. એક એક શ્રેણીમાં અસંખ્યાત—અસંખ્યાત-પ્રતર છે. એક એક પ્રતરમાં Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे १४२ प्रत्येकम संख्यातानि निगोदशरीराणि सन्ति । तत्र च प्रत्येकगरी रेऽनन्ता निगोदजीवाः सन्ति । अथ कियन्तोऽनन्ता जोवास्तत्र सन्ती ? - त्युच्यते - अतीतकालोऽनन्तः, तथा भविष्यत्कालोऽप्यनन्तः, वर्तमानकाल कसमयमात्रः, कालत्रयस्यापि यावन्तः समयाः सन्ति, ते पुनरनन्तेन गुणिता यावन्तो भवेयुस्ततोऽप्यनन्तगुणाधिका एकस्मिन् निगोदे निगोदिका जीवाः सन्ति । तत्रैकजीवस्यासंख्याताः प्रदेशाः सन्ति । एकैकमदेशेऽनन्ताः कर्म वर्गणाः संलग्नाः । तत्रैकस्यां वर्गणायामनन्ताः परमाणुपुद्गलाः सन्ति । एक २ गोलक में असंख्यात २ निगोदशरीर है, और एक २ निगोदगरीर में अनन्त २ निगोदजीव है । शङ्का - अनन्त के अनन्त भेद होते है, ऐसी स्थिति में एक निगोडारीर में कितने अनन्त जीव होते हैं 2 समाधान - अतीत काल के अनन्त समय है, भविष्य कालके भी अनन्त समय हैं, और वर्तमान काल एक समय मात्र है । इन तीनों कालो के जितने समय है उनका अनन्त से गुणाकार कर देने पर जितने समय हों उन से भी अनन्त गुणा अधिक निगोदजीव एक निगोदशरीर में होते हैं । एक जीव के असंख्यात प्रदेश होते हैं । एक २ प्रदेश में अनन्त २ कर्मवर्गणाएँ लगी हुई है, और एक २ वर्गणा में अनन्तर पुद्गलपरमाणु है અસંખ્યાત ગેાલક છે. એક એક ગેાલકમાં અસંખ્યાત નિગેાઢ શરીર છે, અને એક એક નિગેાદ શરીરમાં અનત અનત નિંગાઢ જીવ છે. શકા—અમતના અનંત ભેદ હાય છે, એવી સ્થિતિમાં એક નિગાઢ શરીરમાં કેટલા અનંત જીવ હાય છે? સમાધાન—અતીતકાલ (ભૂતકાલ)ના અનન્ત સમય છે, ભવિષ્યકાલના પણુ અનંત સમય છે, અને વમાન કાલ એકસમયમાત્ર છે, સમય છે, તેને અનંતથી ગુણાકાર કરવાથી જે ગુણાકાર સમયથી પણ અન ત ગુણા અધિક નિગેાદ જીવ એક નિગેાદ એ ત્રણે કાલેામાં જે (રાશિ) થાય તેટલા શરીરમા હાય છે. એક જીવના અસંખ્યાત પ્રદેશ થાય છે. એક-એક પ્રદેશમા અને ત–અનંત કવણાઓ લાગી છે, અને એક-એક વણામાં અનંત અનત પુદ્ગલપરમ ણુ છે. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा षड्द्रव्यविचार १४३ परमाणनां द्वौ भेदौ स्तः-बद्धा अबद्धाश्च । तत्र वद्धाः स्कन्धरूपाः। अबद्धाः परस्परासंयुक्ताः। स्कन्धानां पुनौं भेदौ-जीवसहिताः, जीवरहिताश्च । तत्र घट-पटादिरूपा अजीवस्कन्धाः । अथ जीवस्कन्ध-विचारः प्रस्तूयते द्वयोः परमाण्वोः संयोगे द्विप्रदेशी स्कन्धः । त्रयाणां परमाणूनां संयोगे त्रिपदेशी स्कन्धः । एवमसंख्यातानां परमाणूनां संयोगादसंख्यातप्रदेशी स्कन्धो जायते । एतावत्पर्यन्ताः स्कन्धा जीवानां ग्राह्या न भवन्ति । परमाणु दो प्रकार के है- वद्ध और अबद्ध । स्कन्धरूप परमाणु बद्ध कहलाते है, और आपस में असंयुक्त परमाणु अबद्ध कहलाते है । स्कन्ध के भी दो भेद हैं-जीवसहित और जीवरहित, इन में घट पट आदि स्कन्ध अजीवस्कन्ध कहलाते है । अब जीवस्कन्ध का विचार करते हैं दो परमाणुओ का संयोग होने पर द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है, और तीन परमाणुओ के संयोगसे त्रिप्रदेशी स्कन्ध । इसी प्रकार असंख्यात परमाणुओं के संयोग से असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध उत्पन्न होता है। यहाँ तक के स्कन्ध जीवों द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते । પરમાણુ બે પ્રકારના છે–(૧) બદ્ધ અને (૨) અબદ્ધ. સ્કંધપ પરમાણુ બદ્ધ કહેવાય છે, અને આપસમાં અસંયુક્ત પરમાણુ અબદ્ધ કહેવાય છે. સ્કંધના પણ બે ભેદ છે–જીવસહિત અને જીવરહિત. તેમાં ઘટ પટ આદિ સ્કંધ અછવર્કંધ કહેવાય છે. હવે જીવન્કંધને વિચાર કરવામાં આવે છે બે પરમાણુઓને સંગ થવાથી દ્વિપ્રદેશી સ્કંધ બને છે, અને ત્રણ પરમાણુએના સંગથી ત્રિપ્રદેશી ઢંધ બને છે, એ પ્રમાણે અસંખ્યાત પરમાણુઓના સંગથી અસ ખ્યાતપ્રદેશી ઢંધ ઉત્પન્ન થાય છે. અહિં સુધીના સ્કંધ, જીવે દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાતા નથી. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ आचाराङ्गसूत्र अथ कीदृशाः स्कन्धा जीवानां ग्राह्या भवन्ती ?-त्युच्यते-अभव्यराशिश्चतुःसप्ततितमः, तद्गतजीवापेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाः परमाणवो यदि संधीभवन्ति तदौदारिकशरीरग्राह्यवर्गणा भवति । औदारिकवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका वैक्रियशरीरग्राह्यवर्गणा। ततोऽनन्तगुणाधिकाऽऽहारकवर्गणा । आहारकवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका तैजसशरारग्राह्यवर्गणा। ततोऽनन्तगुणाधिका एकभापाग्राह्यवर्गणा। एकभाषाग्राह्यवर्गणापेक्षयाऽनन्तगुणाधिका एकश्वासोच्छासवर्गणा । ततोऽनन्तगुणाधिका एकमनसो वगंणा । तदपेक्षयाऽनन्तगुणाधिका कार्मणवर्गणा भवति । ततोऽनन्तगुणाधिकाः पुद्गलपरमाणुस्कन्धा ज्ञेयाः। कार्मण किस प्रकार के स्कन्ध जीवों द्वारा ग्राह्य होते है ? यह बतलाते हैं :-अभव्य राशि चोहतरी है। इस अभव्य राशि के जीवो की अपेक्षा अनन्त गुणा अधिक परमाणु यदि इकट्ठे हो तो औदारिकशरीरग्राह्य वर्गणा होती है। औदारिकवर्गणाकी अपेक्षा अनन्तगुणी अधिक वैक्रियगरीरग्राह्य वर्गणा होती है, और इस से भी अनन्त गुणी अधिक आहारकवर्गणा होती है। आहारकवर्गणा से अनन्तगुणी अधिक तैजसशरीरग्राह्य वर्गणा होती है, और उस से भी अनन्तगुणी अधिक एकभाषाग्राह्य वर्गणा होती है। एकभाषावर्गण से भी अनन्तगुणी अधिक एक श्वासोच्छासवर्गणा होती है, और उस से अनन्तगुणी अधिक एकमनोवर्गणा होती है, मनोवर्गणा से भी अनन्तगुणी अधिक कार्मणवर्गणा होती है । उस से भी अनन्त गुणा अधिक पुद्गल परमाणु के स्कन्ध समझने चाहिए । इस प्रकार कार्मणवर्गणा के अनन्त पुद्गल કયા પ્રકારના સ્કંધ દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાય છે ? તે બતાવે છે--અભવ્ય રાશિ ચુમોતેર (૭૪) વીં છે. એ અભવ્ય રાશિના જીની અપેક્ષા અનંત ગુણ અધિક પરમાણુ જો એકઠા થાય તે ઔદારિક શરીર ગ્રહણ કરી શકે તેવી વગેરણા હોય છે, ઔદારિક વગણની અપેક્ષા અનંત ગુણ અધિક વૈકિયશરીરગ્રાહ્ય વગણ હોય છે, અને તેનાથી પણ અનંત ગુણી અધિક એક આહારકવર્ગણું હોય છે આહારકવણથી અનન્ત ગુણ અધિક તેજસશરીરગ્રાહ્ય વગણ હોય, તેનાથી પણ અનન્ત ગુણી અધિક એક ભાષાગ્રાહ્ય વગણા હોય છે, અને તેનાથી અનંતગુણી અધિક એક શ્વાસોચ્છાસવર્ગણ હોય છે, અને તેનાથી અનન્તગુણી અધિક એકમવર્ગણા હોય છે. મનેવગણથી પણ અનન્તગુણ અધિક કાર્મણવર્ગણ હોય છે. તેનાથી પણ અનન્ત ગુણી અધિક પુદ્ગલપરમાણુના સ્કંધ સમજવી જોઈએ. એ પ્રમાણે કાશ્મણવગણના Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा षड्द्रव्यविचारः वर्गणागतानन्तपुद्गलपरमाणुघटितस्कन्धा जीवानो ग्राह्या भवन्ति । रागद्वेषरूपाशुद्धप्रवृत्त्याऽऽत्मनः प्रतिप्रदेशमनन्तानन्तकर्मवर्गणा - अयोगोलकवह्निवल्लोलीभूताः सन्ति, अत एवानन्तज्ञानादयो गुणा जीवस्य तिरोहिता भवन्ति । एवं च जीवोपेक्षयाऽनन्तगुणाधिकाः पुद्गला ज्ञातव्याः। ते च पुद्गला रूपिणोऽचेतनाः सक्रियाः पूरणगलनस्वभावा वेदितव्याः । षड्द्रव्येषु सक्रिय-निष्क्रियविचारःपडद्रव्येषु निश्चयनयेन सर्वाणि द्रव्याणि सक्रियाणि । व्यवहारनयतो धर्माधर्माकाशकालाख्यानि चत्वारि द्रव्याणि क्रियारहितानि । जीवपुद्गलौं सक्रियौ परमाणुओं से बने हुए स्कन्ध जीवो द्वारा ग्रहण करने योग्य होते है । ___ राग और द्वेषरूप अशुद्ध प्रवृत्ति के कारण आत्मा के एक एक प्रदेश में अनन्तानन्त कर्मवर्गणाएँ इस प्रकार एकमेक हो रही है, जैसे लोहे का गोला और अग्नि एकमेक हो जाते हैं, इसी कारण जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण ढंक जाते है। इस प्रकार जीवों की अपेक्षा पुद्ल अनन्त गुणा अधिक जानने चाहिए। ये पुद्गल-रूपी, अचेतन, सक्रिय, और पूरणगलनस्वभाववाले है । छह द्रव्यों में सक्रिय-निष्क्रियका विचारनिश्चय नय से छहों द्रव्य सक्रिय है, किन्तु व्यवहारनयसे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाश और काल नामक चार द्रव्य क्रिया रहित है, जीव और पुद्ल द्रव्य सक्रिय અનન્ત પુગલ પરમાણુઓથી બનેલા કંધ જીવે દ્વારા ગ્રહણ કરવા યોગ્ય હોય છે. રાગ અને દ્વેષ રૂપ અશુદ્ધ પ્રવૃત્તિના કારણે આત્માના એક–એક પ્રદેશમાં અનંતાનંત કર્મવર્ગણાઓ એ પ્રમાણે એકમેક થઈ રહી છે કે-જેમ લેઢાને ગળે અને અગ્નિ એકમેક થઈ જાય છે, એ કારણથી જીવના અનંત જ્ઞાન આદિ ગુણ ઢંકાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જીવોની અપેક્ષા પુદ્ગલ અનંતગુણ અધિક જાણવા જોઈએ. તે પુગલ, વાપી, અચેતન સક્રિય અને પૂરણગલનસ્વભાવવાળા છે. છ દ્રવ્યમાં સક્રિય નિષ્ક્રિય વિચાર– નિશ્ચયનય પ્રમાણે છ દ્રવ્ય સક્રિય છે, પરંતુ વ્યવહારનયથી ધર્માસ્તિકાય અધર્માસ્તિકાય આકાશ અને કાલ નામના ચાર ટૂ કિયારહિત છે, જીવ અને प्र. भा.-१९ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ आचाराङ्गसूत्रे स्तः । निश्चयनयाद् धर्मास्तिकायो गतिपरितानां जीवपुद्गलानां गतिं प्रति सहायदानरूपां क्रियाम्, अधर्मास्तिकायः स्थितिपरिणतजीवपुद्गलानां स्थिति प्रति सहायदानरूपां क्रियां करोति । तथैवाकाशोऽवकाशदानरूपां क्रियां, कालव वर्तनारूपक्रियां जीवाजीवे विधत्ते । तथैव निश्चयेन जीवः स्वस्वरूपरमणरूपां क्रियां करोति । यदि निश्चयनयेन शुभाशुभरूपविभावदशारमणात्मिकां क्रियां कुर्यात्तदाऽऽत्मा कदाप्यविचलपदं नाप्नुयात्, अतः स्वस्वरूपपरिणतिरूपामेव क्रियां करोति । निश्चयनयेन पुद्गलोऽप्यनादिकालतः स्वपूरणगलनरूपां क्रियां समाचरति । तस्माद् निश्चयनयेन सर्वाणि द्रव्याणि सक्रियाणीति ज्ञातव्यम् । 1 है । निश्चयनय से धर्मास्तिकाय, गतिपरिणत जीवो और पुदलो की गति में सहायकता देने की क्रिया करता है, और अधर्मास्तिकाय स्थितिपरिणत जीवों एवं पुद्गगलों की स्थिति में सहायता देनेकी क्रिया करता है । इसी प्रकार आकाश - अवगाहदानरूप किया करता है, और काल वर्तना आदि में सहायता पहुँचाता हैं । जीव निश्चयनय से निजस्वरूप - रमणरूप क्रिया करता है । अगर निश्चय नय से जीव शुभ और अशुभ रूप विभावदशा में रमण करने की क्रिया करे तो उसे अविचल पद की कदापि प्राप्ति नहीं हो सकती, अत एव जीव अपने स्वभाव में परिणतिरूप क्रिया ही करता है । निश्चय नय की अपेक्षा पुद्गल भी अनादि काल से पूरण गलन रूप क्रिया कर रहा है । इस प्रकार निश्रय नय से सभी द्रव्य सक्रिय है । પુદ્દગલ દ્રવ્ય સક્રિય છે. નિશ્ચયનયથી ધર્માસ્તિકાય, ગતિમાં પરિણત જીવા અને પુદ્ગલાની ગતિમાં સહાયતા કરવાની ક્રિયા કરે છે, અને અધર્માસ્તિકાય, સ્થિતિમાં પરિણત જીવા અને પુદ્ગલાની સ્થિતિમાં સહાયતા દેવાની ક્રિયા કરે છે, એ પ્રમાણે આકાશ, અવગાહદાનરૂપ ક્રિયા કરે છે, અને કાલ વત્તના આશ્ર્વિમાં સહાયતા પાંચાડે છે, જીવ નિશ્ચયનયથી નિજસ્વરૂપ–રમણરૂપ ક્રિયા કરે છે. અગર નિશ્ચયનયથી જીવ શુભ અને અશુભરૂપ વિભાવદશામાં રમણ કરવાની ક્રિયા કરે તે તેને અવિચલ પદની પ્રાપ્તિ કદાપિ પણ થઈ શકે નહિ, એટલા કારણથી જીવ પેાતાના સ્વભાવમાં પશ્થિતિરૂપ ક્રિયા જ કરે છે, નિશ્ચયનયની અપેક્ષા એ પુદ્દગલ પણ અનાદિ કાલથી પૂરણુ–ગલનરૂપ ક્રિયા કરે છે, એ પ્રમાણે નિશ્ચયનયથી સર્વ દ્રવ્ચેા સક્રિય છે, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा षड्द्रव्यविचारः २४७ अधुना व्यवहारनयमाश्रित्योच्यतेव्यवहारतो धर्माधर्माकाशकाला निष्क्रियाः, जीव-पुद्गलाश्च सक्रियाः। व्यवहारनयतो जीवो रागद्वेषरूपाशुद्धपरिणत्या प्रतिसमयमनन्तपुद्गलपरमाणुस्कन्धाऽऽदानक्रियां करोति । परमाणुपुद्गला अपि कर्मवर्गणारूपेण जीवस्य सर्वस्मिन् प्रदेशे संलग्ना भवन्ति, अतस्ते संश्लेषक्रियां पूरणगलनादिक्रियां च कुर्वन्ति, तस्माद् व्यवहारनयतो जीव-पुद्गलावेव सक्रियौ । षड्द्रव्यविषये कर्तृत्वाकर्तृत्वनिरूपणम्निश्चयनयेन पड् द्रव्याणि स्वस्वरूपकर्तृणि, तस्मात्तेषां कर्तृत्वमुपपद्यते । अब व्यवहार नय की अपेक्षा से कपन किया जाता है--व्यवहारनय से धर्म अधर्म आकाश और काल क्रियारहित है, तथा जीव और पुद्गल सक्रिय है । व्यवहार नय से जीव राग-द्वेषरूप अशुभ परिणति के द्वारा प्रति समय अनन्त पुद्गल परमाणुओं के स्कन्धों को ग्रहण करने की क्रिया करता है। परमाणु पुद्गल भी कर्मवर्गणारूप में परिणत हो कर जीव के समस्त प्रदेशों में बद्ध होते है, अतः वह बन्धनरूप क्रिया करते है, और पूरण गलन आदि क्रिया भी करते है, इस प्रकार व्यवहार नय से जीव और पुद्गल ही सक्रिय है। छह द्रव्यों का कर्तापन और अकर्तापन निश्चय नय से छहों द्रव्य अपने २ स्वरूप के कर्ता है, अतः सभी द्रव्यां में હવે વ્યવહારનયની અપેક્ષાઓ કહેવાય છે–વ્યવહારનયથી ધર્મ અધમ આકાશ અને કાલ ક્રિયારહિત છે, તથા જીવ અને પુદ્ગલ સક્રિય છે. વ્યવહારનયથી જીવા રાગ-દ્વેષરૂપ અશુભ પરિણતિ દ્વારા પ્રતિસમય અનન્ત પુદ્ગલ પરમાણુઓના ધાને ગ્રહણ કરવાની ક્રિયા કરે છે. પરમાણુ યુદ્દલ પણ કર્મવર્ગણારૂપમાં પરિણત થઈને જીવના સમસ્ત પ્રદેશમાં બદ્ધ થઈ જાય છે (સર્વ પ્રદેશને ચોંટી જાય છે) તેટલા કારણથી તે બધનરૂપ કિયા કરે છે, અને પૂરણ–ગલન આદિ ક્રિયા પણ કરે છે. એ પ્રમાણે વ્યવહારનયથી જીવ અને પુગલ જ સક્રિય છે. દ્રવ્યોનુ કર્તાપણું અને અકર્તાપણુ– નિશ્ચયનયથી છ દ્રવ્ય, પિતપોતાના સ્વરૂપમાં કર્તા છે. તેથી સર્વ દ્રવ્યમાં Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे व्यवहारनयेन जीवस्य कर्तृत्व, धर्मादिद्रव्यपञ्चकस्याकर्तृत्वमिति । व्यवहारनयःव्यवहारनयः पड्विधः-शुद्धाशुद्धशुभाशुभोपचरितानुपचरितभेदात् । तत्र (१) शुद्धव्यवहारनयः। यदि जीवः कर्ममलरूपाशुद्धता व्यपनीयाजन्तज्ञानादिगुण पशुद्धता मुपाजयति तर्हि प्रथमशुद्धव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तत्वं भवति । तथाहिशुद्धव्यवहारनयेन जीवो यदा शुद्धस्वरूपार्जनाय प्रयतते, तदा प्रथमगुणस्थाने कर्तापन सिद्ध होता है । व्यवहारनयसे जीव कर्ता है और शेष धर्म आदि पांच द्रव्य अकर्ता है। व्यवहारनय व्यवहार नय छह प्रकार का है—(१) शुद्ध व्यवहारनय, (२) अशुद्ध व्यवहारनय, (३) शुभ व्यवहारनय, (४) अशुभ व्यवहारनय, (५) · उपचरित व्यवहारनय और (६) अनुपचरित व्यवहारनय । (१) शुद्ध व्यवहारनयअगर जीव कममलरूप अशुद्धता को हटाकर अनन्तज्ञानादिगुणरूप शुद्धता का उपार्जन करता है तो शुद्र व्यवहारनय से जीव में कर्तृत्व होता है। वह इस प्रकार शुद्ध व्यवहार नय से जीव जब अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के लिए કર્તાપણું સિદ્ધ થાય છે. વ્યવહારનયથી જીવ કર્તા છે અને બાકીના ધર્માદિ પાંચ કળે અકર્તા છે. व्यवहानવ્યવહારનય છે પ્રકાર છે. (૧) શુદ્ધ વ્યવહારનય (૨) અશુદ્ધ વ્યવહારનય, शुल व्यपा२नय, (४) पशुव्यपा२नय, (५) पथरित व्यवहा२नय, (६) अनुपयरित વ્યવહારનય, (१) शुष व्यवहार-यજીવ કર્મમલય અશુદ્ધતાને હઠાવીને અનંતજ્ઞાનાદિગુણરાય શુદ્ધતાને ઉપાર્જન કરે છે તે શુદ્ધ વ્યવહારનય પ્રમાણે જીવમાં કત્વ-કર્તાપણું હોય છે. તે આ પ્રમાણે શદ્ધ વ્યવહારનયથી જીવ પિતાને શુદ્ધ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરવા માટે પ્રયત્ન Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः १४९ ऽनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयं क्षपयित्वा चतुर्थ गुणस्थानं समासाद्य सम्यक्त्वगुणं लभते । अप्रत्याख्येयकषायचतुष्टयक्षयेण देशविरतिरूपं पश्चमं गुणस्थानं प्राप्नोति । प्रत्याख्येयकषायचतुष्टयक्षयेण जीवस्य षष्ठसप्तमगुणस्थानयोः सर्वविरतिरूपयोरुपलब्धिर्भवति । यद्यष्टमगुणस्थानं लभ्यते तदा तत्र श्रेणिद्वयं समारुह्यते, उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिश्च । तत्रोपशमश्रेण्याऽष्टमगुणस्थानादेकादशगुणस्थानं यावदध्यारोहति । क्षपकश्रेण्या त्वष्टमादारभ्य दशमं यावत् समारुबैकादशं विहाय द्वादशं गुणस्थानं समारोहति । जीवस्तत्र रागद्वेषरूपमोहनीय प्रयत्न करता है तब प्रथम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कषायोंका क्षय करके चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त करता है और सम्यक्त्व गुण पा लेता है। चार अप्रत्याख्यानावरण कषायों का क्षय करके देशविरतिरूप पांचवा गुणस्थान प्राप्त करता है, और प्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्टय के क्षय से जीव को सर्वविरतिरूप छठे और सातवे गुणस्थान की प्राप्ति होती है। जीव को यदि आठवां गुणस्थान प्राप्त होता है तो वहाँ से दो श्रेणियाँ आरम्भ होती है और जीव उन में से किसी एक श्रेणी पर आरूढ होता है। दो श्रेणिया है-उपशमश्रेणी, और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणीवाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान तक चढ सकता है। क्षपकश्रेणीवाला जीव आठवें से दशवें गुणस्थान तक पहुंचकर ग्यारहवे को छोड कर सीधा बारहवे गुणस्थान पर आरूढ हो जाता है । जीव दशवे गुणस्थान के अन्त में रागद्वेषरूप मोहनीय कर्म का समूल नाश करके, કરે છે, ત્યારે પ્રથમ ગુણસ્થાનમાં અનન્તાનુબંધી ચાર કષાયે ક્ષય કરીને ચતુર્થ (ચેથ ) ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અને સમ્યકત્વ ગુણ પામી જાય છે. ચાર અપ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાયને ક્ષય કરીને દેશવિરતિરૂપ પાંચમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત કરે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનાવરણ કષાય-ચતુષ્ટયના ક્ષયથી જીવને સર્વવિરતિરૂપ છઠ્ઠા અને સાતમા ગુણસ્થાનની પ્રાપ્તિ થાય છે. જીવને જે આઠમું ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત થાય છે તે ત્યાંથી બે શ્રેણીઓને આરંભ થાય છે, અને જીવ એ બેમાંથી કેઇ એક શ્રેણી પર આરૂઢ थाय छ. मे. श्रेणी २॥ प्रमाणे छ-(१) उपशमश्रेणी (२) १५४श्रेणी. रामश्रेणी વાળો જીવ અગિઆરમાં ગુણસ્થાન સુધી ચઢી શકે છે, ક્ષપકશ્રેણીવાળો જીવ આઠમાથી દસમાં ગુણસ્થાન સુધી પહોંચીને અગિઆરમા ગુણસ્થાકને છોડીને સીધો બારમાં ગુણસ્થાન પર આરૂઢ થઈ જાય છે. જીવ દસમા ગુણસ્થાનના અંતમાં Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आचाराङ्गमुत्रे कर्म समूलमुन्मूल्य घातिकर्माणि क्षपयित्वा त्रयोदश गुणस्थानमारोहति । त्रयोदशे गुणस्थाने निर्मलकेवलज्ञानं प्राप्नोति । तदनन्तरं पञ्चलध्वक्षरोच्चारणकालस्थितिकं चतुर्दशगुणस्थानं संप्राप्य निःशेषकर्मनिचयं क्षपयित्वाऽसौ शिवपदं संप्राप्नोति । | इति जीवस्य शुद्धस्वरूपनिरूपकः शुद्धव्यवहारनयः । (२) अशुद्धव्यवहारनयः अशुद्धव्यवहारनयेन रागद्वेषमिथ्यात्वादयोऽनादिकालतः शत्रुरूपेण जीवे संलग्नाः सन्ति, तस्माज्जीवस्याशुद्धत्वं ज्ञेयम् । अशुद्धत्वेन च प्रतिसमयऔर बारहवे गणस्थान में शेष तीन घाति कर्मों का क्षय करके तेरहवे गुणस्थान में पहुंचता है । इस गुणस्थान में ( बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ) जीव को निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होता है | तेरहवें गुणस्थान के बाद पांच ह्रस्व स्वर (अ, इ, उ, ऋ, ऌ) उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय तक चौदहवें गुणस्थान में ठहरकर समस्त कर्मों का क्षयकर के मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जोवके शुद्ध स्वरूप को ग्रहण करने वाला यह शुद्ध व्यवहारनय है । (२) अशुद्ध व्यवहारनय- अशुद्ध व्यवहारनय से राग-द्वेप और मिथ्यात्व आदि अनादि काल से शत्रुकी तरह जीव के साथ लगे हुए हैं, इसी कारण जीव में अशुद्धता है । इस अशुद्धता के રાગ-દ્વેષરૂપ માહનીય કના સમૂળગા નાશ કરીને અને ખારમા ગુણસ્થાનમાં શેષ ત્રણ ઘાતીકોનો ક્ષય કરીને તેરમા ગુણસ્થાનમાં પહોંચે છે એ ગુણસ્થાનમાં ( ખારમા ગુણુસ્થાનના અંતિમ સમયમાં) જીવને નિલ કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે. તેરમા ગુણસ્થાન પછી પાચ હસ્વ સ્વર—(અ-ઈ-ઉ--લૂ ) ઉચ્ચારણ કરતાં જેટલે સમય લાગે છે, તેટલા સમય ચૌદમા ગુણસ્થાનમાં થેાલીને સમસ્ત કર્મોના ક્ષય કરીને મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જીવના શુદ્ધ સ્વરૂપને ગ્રહણ કરવા વાળો આ શુદ્ધ વ્યવહાર નય છે. (२) अशुद्ध व्यवहारनय અશુદ્ધ વ્યવહારનયથી રાગ-દ્વેષ અને મિથ્યાત્વ આદિ અનાદિકાલથી શત્રુની માર્ક જીવની સાથે લાગ્યાં છે, એ કારણથી જીવમાં અશુદ્ધતા છે. એ અશુદ્ધતાના Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः मनन्तानन्तकर्मवर्गणाः सत्तारूपेणावगुण्ठिता भवन्ति । एवं चाशुद्धव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तृत्वं सिध्यति । (३) शुभव्यवहारनयःशुभव्यवहारनयेनात्मा शुभपरिणामतो दानशीलतपोभावविनयभक्तिवैयावृत्त्यं, श्रमणनिग्रन्थानां प्रासुकमेषणीयमशनपानखाद्यस्वाद्यवस्त्रकम्बलप्रतिग्रहपादप्रोन्छनप्रातिहार्यपीठफलकशय्यासंस्तारकौषधभैषज्यपतिलाभरूपं सुपात्रदानं, म्रियमाणजीवरक्षणरूपमभयदानं, हीनदीननिःसत्त्वजीवानां साहाय्यं, साधर्मिकवात्सल्यं, परहितचिन्तारूपां मैत्री, परदुःख निवारणेच्छारूपां करुणां, निःस्वार्थपरोपकारादिकां छ कारण प्रतिसमय अनन्तानन्त कर्मवर्गणएँ सत्तारूप से बद्ध होती रहती है। इस प्रकार अशुद्ध व्यवहारनय से जीव को कर्ता समझना जाहिए । (३) शुभ व्यवहारनय-- शुभ व्यवहारनय से आत्मा शुभपरिणामद्वारा दान, गील, तप, भाव, विनय, भक्ति, वैयावृत्य रूप शुभक्रिया करता है, श्रमण निग्रन्थो को प्रासुक एषणीय-अशन पान खाद्य, स्वाय, वस्त्र, कम्बल, पात्र, पादप्रोंच्छन, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध, भेषज का सुपात्रदान देता है। मरते हुए जीव की रक्षारूप अभयदान देता है, हीन दीन और निर्बल जीवों की सहायता करता है। साधर्मों के प्रति वात्सल्य प्रकट करता है, परहितचिन्तनरूप मैत्री भावना, दूसरो का दुःखनिवारणरूप करुणा કારણે પ્રતિસમય અનન્તાનઃ કર્મ વગણાઓ સત્તાપથી બદ્ધ થતી રહી છે. આ પ્રમાણે અશુદ્ધ વ્યવહારનયથી જીવને કર્તા સમજવું જોઈએ. (3) शुभ व्यवहा२नय- शुभ व्यवहारनयथा मामा हान, शीद, त५, माप, विनय, ति यावृत्य રૂપ શુભ ક્રિયા કરે છે. શ્રમણનિર્ચને પ્રાસુક એષણીય-અશન, પાન, ખાદ્ય, स्वाध, १२, स, पात्र, पाहाछन, पउिडारी-पी, ३४४, शय्या, सस्ता२४, ઔષધ, ભેષજનુ સુપાત્ર દાન આપે છે, મરતા જીવની રક્ષારૂપ અભયદાન આપે છે, હીન દીન અને નિર્બલ જીવોની સહાયતા કરે છે; સાધમના ઉપર વાત્સલ્ય પ્રગટ કરે છે, પરહિતચિન્તનરૂપ મિત્રીભાવના, બીજાના દુઃખનિવારણરૂપ કરૂણા તથા નિઃસ્વાર્થ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ आचारागसूत्रे शुभक्रियां करोति, तेन शुभव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तुत्वं जायते । (४) अशुभव्यवहारनयःअशुभव्यबहारनयेन जीवो हास्य-भय-शोक-रत्य-रति-निद्रा-प्राणातिपातमृपावादा-ऽदत्तादान-मैथुन - परिग्रह - क्रोध - मान-माया-लोभ-राग-द्वेषादिषु प्रवर्तते । विषयसुखारम्भादिरूपामशुभक्रियां च करोति तेनाऽशुभव्यवहारनयतो जीवस्य कर्तृत्वं सिध्यति । (५) उपचरितव्यवहारनयःउपचरितव्यवहारनयेन जोवो निजमजरामरत्वमनन्तज्ञानदर्शनमव्यावाधतथा निःस्वार्थ परोपकार आदिरूप शुभक्रिया करता है, अतः शुभ व्यवहारनय से जीव का कर्तापन सिद्ध होता है। ___ (४) अशुभ व्यवहारनय-- अशुभ व्यवहारनय से जीव हास्य, भय, शोक, रति, अरति, निद्रा, प्राणाति पात, मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, आदि अशुभ कार्यों एवं भावों में प्रवृत्त होता है, तथा विषयसुख एवं आरम्भ आदि रूप अशुभ क्रिया करता है, अतः अशुभव्यवहारनय से जीव कर्ता सिद्ध होता है । (५) उपचरित व्यवहारनयउपचरित व्यवहार नय से जीव अपने अजरता अमरता तथा अनन्त ज्ञान પપકાર આદિપ શુભ કિયા કરે છે, તે કારણથી શુભ વ્યવહારનયથી જીવનું કર્તાપણું સિદ્ધ થાય છે. (४) अशुभ व्यवहारलयमशुल व्यपहारनयथी 4 हास्य, लय, ४, २ति, २२ति, निद्रा, प्रातिपात, भृपावाह, महत्ताहान, भैथुन, परियड, ओध, मान, माया, साल, द्वेष मा અશુભ કાર્યો એવં ભાવમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, વિષયસુખ એવં આરંભ આદિરૂપ અશુભ ક્રિયા કરે છે, તેથી અશુભ વ્યવહારનયથી જીવ કર્તા સિદ્ધ થાય છે. (५) S५यरित व्यवहार-यઉપચરિત વ્યવહારનયથી જીવ પિતાના અજર અમર તથા અનંતજ્ઞાન, દર્શન Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः सुखादिरूपं शुद्धस्वरूपं विस्मृत्य पौगलिकविभावपरिणामेऽनन्तदुःखजनकेऽनन्तानन्दमनुभवति, मोहवशेन बाद्यवस्तुषु ममत्वभावं कुरुते। यथा-"इदं मम गृहम् , इमे मम पुत्राः, इमा मम दाराः, इमे मम परिवागः, इदं मम सर्वं धनजनादिकम् ।। इत्थं विषरूपं विषयं पीयूषं मन्यमानो विषयकतानो क्षणमात्रसुखजनकान् बहुकालदुःखदान् कामभोगान् भुञ्जानो विषयमृगतृष्णां पुनः पुन(वमानो दीर्घावसंसारे क्षणमपि विश्रान्ति न लभते । ममेति कुर्वन्नय जीवः पुत्रदारादीनां सुखेन सुखं, दुःखेन दुःखं मन्यमानस्तदर्थ व्यर्थमेव शोकमनुभवति, तदर्थ प्राणनाशमपि कर्तु समुद्यतो भवति । अनात्मीयमपि स्वीयं मन्यमानो नानाविधपापकार्यकरणेन दर्शक तथा अव्यावाधसुखरूप शुद्ध स्वरूप को भूल कर पौगलिक विभाव परिणाम में जो अनन्त दुःखों का जनक है अनन्त आनन्द मानता है। मोह के वशीभूत हो कर बाह्य वस्तुओ में ममत्व धारण करता है, जैसे- "यह मेरा घर है, ये मेरे पुत्र है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे कुटुम्बी है, ये सब धन-जन आदि मेरे है"। इस प्रकार के विषरूप विषयों को अमृत मानता हुआ, विषयों में तन्मय हो कर, क्षण भर सुख देने वाले और दीर्घकाल तक दुःख देने वाले काम-भोगों को भोगता हआ, विषयों की मृगतृष्णा की तरफ वारंवार दौडता हुआ. इस दीर्घमार्गवाले संसार में क्षण भर भी विश्राम नहीं पाता है । मेरे मेरे करता हुआ यह जीव, पुत्र और पत्नी वगैरह के सुख में सुख और दुःख में दुःख मानता हुआ व्यर्थ ही उन के लिये शोक करता है, यहाँ तक की उन के लिए प्राणो का नाश तक करने को उद्यत हो जाता है। यह તથા અવ્યાબાધ સુખરૂપ શુદ્ધ સ્વરૂપને ભૂલી જઈને પૌગલિક વિભાવ પરિણામમાં 2 मन मोना न४ (अत्यन्न ४२नार) छे. तेमा मनात मान माने छ, મોહને વશ થઈને બહારની વસ્તુઓમાં મમત્વ ધારણ કરે છે, જેમકે–“આ ઘર મારૂ છે; આ મારા પુત્ર છે, આ મારી સ્ત્રી છે, આ મારૂં કુટુંબ છે, આ સર્વ ધન-જન વગેરે મારૂં છે? એ પ્રમાણે વિષરૂપ–વિષને અમૃતરૂપ માનીને, વિષયમાં તન્મય થઈને ક્ષણમાત્ર સુખ આપવાવાળા અને લાંબા કાલ સુધી દુઃખ આપવાવાળા ભેગેને ભગવતે થક, વિષયેની મૃગતૃષ્ણ તરફ વારંવાર દેડ થકે આ લાંબા માર્ગવાળા સંસારમાં ક્ષણ માત્ર પણ વિશ્રામ પામતો નથી. મારા-મારા કરતો આ જીવ, પુત્ર અને પત્ની વગેરેના સુખમાં સુખ અને દુઃખમાંદુઃખ માનતે થકે તેના માટે નકામે શેક કરે છે–ત્યાં સુધી કે તેના માટે પ્રાણનો નાશ કરવા તૈયાર થઈ જાય છે. આ જીવ પરને પિતાનું સમજીને નાના પ્રકારનાં प्र. आ-२०. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५४ आचारागसूत्रे स्वात्मानं मलिनीकरोति । एवमुक्तरीत्या कर्मवशेन ममत्वपाशबद्धस्य जीवस्योपचरितव्यवहारनयेन कर्तृत्वमिति । __(६) अनुपचरितव्यवहारनयःअनुपचरितव्यवहारनयेन स्वात्मनः प्रत्यक्षरूपेणा-त्यन्तभिन्नं शरीरमज्ञानवशात् पारिणामिकभावेनात्मप्रदेशैरैक्यभावमापद्यमानमिव स्वात्मनः स्वरूपं मन्यमानस्तत्पुष्टिरक्षणादिहेतोरेकेन्द्रियादिसकलपाण्युपमर्दनजनकमहारम्भमृषावादादत्तादान-मैथुन-परिग्रहादिकानि नानाविधपापकर्माणि जीवः समाचरति । आत्मनः स्वरूपे शरीरे च नितान्तं भिन्नता वर्तते । तथाहि-आत्मा जीव पर को स्वकीय समझ कर नाना प्रकार के पाप कार्य कर के अपने को मलीन बनाता है। इस प्रकार कर्मवश हो कर ममता के पाशमें जकडा हुआ यह जीव उपचरित व्यवहारनय से कर्ता सिद्ध होता है । (६) अनुपचरित व्यवहारनयअनुपचरित व्यवहारनय से जीव अपनी आत्मा से प्रत्यक्षतः भिन्न शरीर को अज्ञान के वश हो कर पारिणामिक भाव से आत्मप्रदेशोंकी एकता समझ कर, और आत्मा का ऐसा ही स्वरूप मान कर गरीर की पुष्टता और रक्षा आदि के लिए एकेन्द्रिय आदि समस्त प्राणियों की हिंसा करने वाले महारम्भ, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह आदि नाना प्रकार के पाप कर्मों का आचरण करता है। वस्तुतः आत्मा के स्वरूप में और गरीर में अत्यन्त भिन्नता है, वह इस प्रकार-आत्मा चैतन्य પાપકાર્ય કરીને પિતાને મલીન બનાવે છે આ પ્રમાણે કર્મને વશ થઈ મમતાના પાશમાં જકડાએલે આ જીવ ઉપચરિત વ્યવહારનયથી કર્તા સિદ્ધ થાય છે. (१) अनुपयरित व्यवहा२नयઅનુપચરિત વ્યવહારનયથી જીવ પિતાના આત્માથી પ્રત્યક્ષ ભિન્ન શરીરને અજ્ઞાનવશ થઈ પારિણામિક ભાવથી આત્મપ્રદેશની એકતા સમજીને, અને આત્માનું એવું જ સ્વરૂપ માનીને શરીરની પુષ્ટતા અને રક્ષા આદિ માટે એકેન્દ્રિય આદિ તમામ પ્રાણીઓની હિંસા થવાવાળા, મહારંભ, મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન, અને પરિગ્રહ આદિ નાના–અનેક પ્રકારનાં પાપ કર્મોનું આચરણ કરે છે. વસ્તુતઃ આત્માના સ્વરૂપમાં અને શરીરમાં અત્યન્ત ભિન્નતા છે, તે આ પ્રમાણે કે–આત્મા તન્ય Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अवतरणा व्यवहारनयः 1 १५५ चैतन्यरूपः, शरीरमिदं जडरूपम् । आत्मा-अरूपी, शरीरमिदं रूपि । आत्मा ज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिरूपः, शरीरं तु निःसत्त्वं विविधव्याधियुक्तम् । आत्मा-नित्यः शाश्वतो ध्रुवरूपश्च शरीरमिदमनित्यमशाश्वतमध्रुवम् । आत्मा - नितान्तनिर्मलः, शरीरं तु गर्भाशयस्थानतः शुक्रशोणिताख्यकारणतः, नवद्वारतो मलनिःसरणेन च नितान्ताशुचि, मलमाण्डं च | यदर्थमेतादृशानि कर्माणि कुर्वन्ति, तदनन्तवारं लब्धं त्यक्तं च वपुः । ईदृशे नश्वरे शरीरेऽनुरज्य पुनः पुनस्तान्येव पापकर्माणि समाचरन् स्वीयमात्मानं कर्मभाराक्रान्तं करोति । तेन पुनः पुनरनादिदुरन्तसंसारमहागर्ते पतितः स्वास्वरूप है, शरीर जड है । आत्मा अरूपी है, शरीर रूपी है । आत्मा ज्ञान दर्शन सुख और वीर्यादिरूप है, शरीर निःसत्व और विविध व्याधियों से युक्त है । आत्मा नित्य है, शाश्वत है, ध्रुव है, शरीर अनित्य, अशाश्वत, और अध्रुव है | आत्मा नितान्त निर्मल है, शरीर गर्भाशय में स्थित होने से शुक्र और गोणित से बना हुआ होने के कारण, तथा नौ द्वारों से मल निकलने के कारण अत्यन्त अशुचि है, और मल का पात्र है । जिस शरीर के लिए ऐसे २ उपर्युक्त कर्म किये जाते है वह शरीर अनन्त वार पाया है और अनन्त वार छोडा है, लेकिन संसारी जीव इस नश्वर शरीर में अनुराग करके पुनः पुनः वही पापकर्म करता हुआ अपने को कर्म के भार से भारी बनाता है । इस कारण अनादि और दुरन्त सखाररूपी महागर्त मे पुनः पुनः पडकर अपना उद्धार करने स्व३५ छे, शरीर ४३ छे. आत्मा अ३यी छे, शरीर रूपी छे, आत्मा ज्ञान, दर्शन, સુખ, અને વીરૂપ છે, શરીર નિઃસત્વ અને વિવિધ વ્યાધિઓથી યુક્ત છે. આત્મા નિત્ય છે, શાશ્વત છે, ધ્રુવ છે, શરીર અનિત્ય અશાશ્વત અને અધ્રુવ છે. આત્મા અત્યન્ત નિમાઁલ છે, શરીર ગર્ભાશયમાં સ્થિત હાવાથી શુક્ર અને શેણિતથી ( વીય અને લેાહીથી) ખનેલુ હાવાના કારણે, તથા નવ દ્વારાથી મલ નીકળવાના કારણે અત્યંત અશુચિ-અપવિત્ર છે અને મલનું પાત્ર છે. જે શરીરના માટે એવાં એવાં ઉપર કહેલાં તેવાં કમ કરવામાં આવે છે, તે શરીર અનંતવાર પ્રાપ્ત થયું છે અને અન`તવાર છેાડી દીધું છે, પરંતુ સંસારી જીવ આ નાશવંત શરીરમાં અનુરાગ–પ્રીતિ કરીને ફ્રી-ફરીને તે પાપકમ કરીને પેાતાને કર્મના ભારથી ભારે મનાવે છે. એ કારણથી અનાદિ અને દુરત–મુશ્કેલીથી પાર પડે તેવા-સંસારરૂપી મહગત –માટે ખાડા તેમાં વારંવાર પડીને પેાતાના ઉદ્ધાર કરવામાં અસમર્થ બની જાય છે, પરંતુ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ आचांरागसूत्रे स्मानमुद्धत्तुं न शक्रोति । अविज्ञाय च स्वकृतकर्मभारं दुरन्तसंसारमहागतेपतनं च मुहुर्मुहुस्तादृशान्येव कर्माणि कुर्वन्ति संसारिणः। एवमात्मनोऽत्यन्तभिन्नं शरीरमेव स्वस्वरूपं मत्वा तत्पुष्टिरक्षणाद्यर्थं क्रियमाणया क्रियया जीवस्यानुपचरितव्यवहारनयेन कर्तृत्व सिध्यति । उक्तरीत्या षडविधव्यवहारनयेन जीवस्य कर्तत्वं विज्ञेयम् । जीवस्वरूपे सदशाऽसदशविचार:___ ननु-सर्वेषां जीवानां स्वरूपं लक्षणं च सदृशमेव, तर्हि संसारिणो दुःखिनः, सिद्धास्तु सुखिन इति कथम् ? उच्यते-निश्चयनयेन तु सर्वे जीवाः में असमर्थ बन जाता है, मगर संसारी जीव अपने किये कर्मों के भार को न समझ कर, तथा संसाररूपी महागर्त के पतन को न जानकर फिर-फिर वैसे ही कर्म करने लगते है। इस प्रकार आत्मा से भिन्न गरीर को ही अपना स्वरूप समझ कर उसके पोषण और रक्षणके लिए की जानेवाली क्रियासे जीव अनुपचरित व्यवहारनयकी अपेक्षा कर्ता सिद्ध होता है। इस तरह पूर्वोक्त प्रकार से छह तरह के व्वहारनय से जीवको फर्ता समझना चाहिए। ___ जीवके स्वरूप में सहश-विसदृश विचारप्रश्न-अगर सब जीवोका स्वरूप और लक्षण समान ही है तो संसारी जीव दुःखी और सिद्ध सुखी क्यों है। उत्तर--निश्चय नयसे सभी जीव सिद्धोके समान ही है। उन में से जो जीव સંસારી જીવ પિતાનાં કરેલા કર્મોના ભારને સમજાતું નથી, તથા સંસારરૂપી મહાગર્તમાં પડ્યો છે તે તેને જાણતા નથી. તેથી ફરી-ફરી તેવા કર્મો કરવા લાગે છે. એ પ્રમાણે આત્માથી ભિન્ન શરીરને જ પિતાનું સ્વરૂપ સમજીને તેનાં પિષણ તથા રક્ષણ માટે કરવામાં આવતી ક્રિયાથી જીવ અનુપચરિત વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ કર્તા સિદ્ધ થાય છે. એ પ્રમાણે પૂર્વે કહેલા પ્રકારથી છ પ્રકારના વ્યવહારનયથી જીવને કર્તા સમજવું જોઈએ. જીવના સ્વરૂપમાં સદશ-વિદેશ વિચાર– પ્રશ્ન–અગર સર્વ જીનું સ્વરૂપ અને લક્ષણ સમાનજ છે તે પછી સંસારી જીવ દુઃખી અને સિદ્ધ જીવ સુખી કેમ છે? ઉત્તર–નિશ્ચયનયથી સર્વ જી સિદ્ધોની સમાન છે. તેમાંથી જે જીવ તમામ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः सिद्धसदृशा एत्र, तत्र ये सकलं कर्म क्षपयन्ति ते सर्वे जीवाः सिद्धा भवंति, तस्मात् सर्वेषामेकैब सत्ता विद्यते । यदि सर्वे सिद्धसदृशास्तहि कथमभव्यजीवैः सिद्धगतिभाग्भिर्न भूयते ? इति श्रूयताम् अभव्यजीवानामनाद्यनन्तचिक्कणकर्मसंवन्धात्, परावर्तस्वभावाभावाच कर्मक्षपणशक्तिर्नास्ति, भव्यानां तु तादृशचिक्कणकर्माभावात् , परावर्तस्वभावसद्भावाच्च देवगुरुधर्मसामग्रीसत्त्वे ज्ञानादिरत्नत्रयसमाराधनेन, गुणश्रेणिसमारोहणेन च सिद्धपदं लब्धुं शक्यम् । समस्त कोका क्षय कर डालते हैं वे सब सिद्ध कहलाते है। उनका असली स्वरूप प्रकट हो जाता है। संसारी जीव कर्म के अधीन होने के कारण दुःखी होते है । इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक जीव की सत्ता पृथक्-पृथक् है, तथापि उन में स्वरूप की समानता है। प्रश्न-यदि समस्त जीव सिद्धो के समान है तो अभव्य जीव सिद्भिगति क्यों प्राप्त नहीं करते ? उत्तर-सुनिये, अभव्य जीवों में अनादि अनन्त चिकने कर्मों के सम्बन्ध से और अपरिवर्तनशील स्वभाव के कारण कर्मों का क्षय करने की शक्ति नहीं है। भव्य जीवों के वैसे चिकने कर्मों के न होने से, और परावर्त स्वभाव से, देव गुरु और धर्मरूप सामग्री के मिलने पर ज्ञानादिरत्नत्रय की आराधना करने से, तथा गुणश्रेणी पर आरोहण करने से उनको सिद्धपद प्राप्त करना शक्य है । કર્મોને ક્ષય કરી નાંખે છે, તે સવે સિદ્ધ કહેવાય છે. તેનું અસલી સ્વરૂપે પ્રગટ થઈ જાય છે. સંસારી જીવ કર્મને આધીન હોવાના કારણે દુખી હોય છે. એ પ્રમાણે જે કે પ્રત્યેક જીવની સત્તા પૃથફ-પૃથફ-જૂદી જૂદી છે, તે પણ તેનામાં સ્વરૂપની समानता छे. પ્રશ્ન—જે સર્વ જીવ સિદ્ધોની સમાન છે તે અભવ્ય જીવ સિદ્ધગતિને કેમ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી ? ઉત્તર-સાંભળો, અભવ્ય જીવોમાં અનાદિ-અનંત ચિકણ કર્મોને સંબધ હોવાથી અને અપરિવર્તનશીલ સ્વભાવના કારણે કર્મોને ક્ષય કરવાની શક્તિ નથીઃ ભવ્ય જીવોને તેવાં ચીકણાં કમ ન હોવાથી અને પરાવર્ત–સ્વભાવથી દેવ, ગુરુ અને ધર્મરૂપ સામગ્રીના મળવા પર, જ્ઞાનાદિ રત્નત્રયની આરાધના કરવાથી, તથા ગુણ શ્રેણી પર આરોહણ કરવાથી તેઓને સિદ્ધપદ પ્રાપ્ત કરવું શક્ય છે. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ आचाराङ्गसूत्रे मनुष्यभवं प्राप्य कर्माणि क्षपयित्वा जीवा मोक्षं यान्ति तदानीमेवाव्यवहारराशिसुक्ष्मनिगोदादकामनिर्जरया निःसृत्याऽन्ये जीवाः विकाशदशां प्राप्नुवन्ति । यदि दश जीवा मुक्तिं गच्छन्ति तदा दश सूक्ष्मनिगोदान्निष्क्रान्ता भवन्ति । कदाचित्ततोऽप्यल्पसंख्यकाः सूक्ष्मनिगोदा वहिरायान्ति तदा तैः सार्धमेको द्वावभव्यजीवौ निःसरतः, किन्तु व्यवहारागौ जीवानां हासवृद्धी न भवतः । ईदृशा निगोदगोलका असंख्याता लोके सन्ति, इति ग्रन्थान्तरे । । इत्यवतरणा संपूर्णा । इत्थं भगवत्प्ररूपितमनुयोगचतुष्टयं प्रदर्शितम् । तत्र चरणकरणानुयोगस्य प्राधान्यात्प्राथम्यमिति च निगदितम् । मनुष्य भव पाकर कर्मों का क्षय करके जीव मोक्ष जाते है, उसी समय अव्यवहाररागि सूक्ष्म निगोद से अकामनिर्जराद्वारा दूसरे जीव निकलकर विकासदशा को प्राप्त करते है | अगर दश जीव मोक्ष में जाते है तो दश जीव सूक्ष्मनिगोद से बाहर निकल आते है । कदाचित् अल्पसंख्यक सूक्ष्म निगोद जीव बाहर निकलते है तो उनके साथ एक - दो अभव्य जीव बाहर आ जाते हैं मगर व्यवहार राशि में जीवों की घटती बढती नहीं होती । ऐसे निगोदगोलक लोक में असंख्यात होते है, ऐसा ग्रन्थान्तर में कहा है । इति अवतरणा संपूर्ण इस प्रकार भगवान् के द्वारा प्ररूपित चार अनुयोगों का स्वरूप बतलाया गया है । यह कहा जा चुका है कि - चरणकरणानुयोग प्रधान होने के कारण उसका ग्रहण सर्वप्रथम किया गया है । મનુષ્ય ભવ પામીને, કર્મોના ક્ષય કરીને જીવ મેહ્યે જાય છે, તે સમયે અવ્યવહાર રાશિ સૂક્ષ્મ નિંગાદથી, અકામ નિરાદ્વારા ખીજા જીવેા નીકળીને વિકાસદશાને પ્રાપ્ત કરે છે. અગર દસ જીવ મેક્ષમાં જાય છે તે દસ જીવ સૂક્ષ્મ નિગેાદથી બહાર નીકળી આવે છે. કાચિત્ અલ્પસંખ્યક સૂક્ષ્મ નિગેાદ—–જીવ મહાર નીકળે છે તેા, તેની સાથે એક-એ અભવ્ય જીવ મહાર આવી જાય છે. પણ વ્યવહાર શિશમાં છવાતું ઘટવું-વધવું થતું નથી. એ પ્રમાણે નિગોદગાલક લેાકમાં અસંખ્યાત હાય છે. આ પ્રમાણે ગ્રંથાન્તરમાં કહ્યું છે. ઇતિ અવતરણૢ સંપૂર્ણ — આ પ્રમાણે ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત ચાર અનુયાગાનુ સ્વરૂપ અતાવવામાં આવ્યુ છે. એ કહી આપ્યું છે કે ચરણ-કરણાનુયાગ પ્રધાન હાવાના કારણે તેનું ગ્રહણ સૌથી પ્રથમ કરવામાં આવ્યું છે. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अवतरणा व्यवहारनयः १५९ तत्राचाराङ्गस्य द्वादशाङ्गेषु प्राथम्यम् , चरणकरणयोर्मोक्षोपायतयाऽस्याङ्गस्य मोक्षकारणावबोधकतयैतद्बोधितार्थावस्थितस्येतरागाध्ययनयोग्यतालाभाच्च प्राधान्यात् । किञ्च-एतत्सूत्राध्ययनेन क्षान्त्यादिश्चरणकरणरूपो वाश्रमणानां धर्मः सुविदितो भवति, आचार्यादिपदप्राप्तिकारणभूतानां स्वसमयादिपरिज्ञानादीनां सर्वेषां धर्माणामाचारधारित्वमेव प्रधानमस्ति, तेन तत्पतिपादकस्यास्यागमस्य प्रथमाङ्गत्वं सिद्धम् । आचारशब्देन चात्र पञ्चविधो ज्ञानाचारादिगृह्यते । तत्प्रतिपादकमङ्गमाचाराङ्गम् , अस्येदमादिसूत्रम् 'सुयं मे' इत्यादि । बारह अंगों में आचाराङ्ग पहला अंग है, क्यों कि चरण और करण मोक्ष के उपाय हैं, अतः यह अङ्ग भी मोक्ष का कारण है, आचाराङ्ग सूत्र में निरूपित अर्थका अनुष्ठान करने वाला दूसरे अङ्गोंके अध्ययन की योग्यता प्राप्त करता है । इस कारण यह अङ्ग प्रधान है। ___दूसरी बात यह है कि इस अङ्गके अध्ययन से क्षमा आदि, अथवा चरण-करणरूप श्रमणधर्मका सम्यक् प्रकार से ज्ञान होता है । आचार्य आदि पदों की प्राप्ति के कारणभूत स्वसमय का परिज्ञान आदि समस्त धर्मों में आचारधारित्व ( संयम पालन ) ही प्रधान है, अत एव आचार का प्रतिपादक आगम ही पहला अङ्ग होना चाहिए, यह सिद्ध है । यहाँ 'आचार' शब्द से ज्ञानचार आदि पांच प्रकार का आचार समझना चाहिए । उसका प्रतिपादन करने वाला अङ्ग 'आचाराङ्ग' कहलाता है । इस आचारात सूत्र का पहला सूत्र यह है 'सुयं मे' इत्यादि । બાર અંગોમાં આચારાંગ પહેલું અંગ છે, કેમકે ચરણ અને કરણ મોક્ષને ઉપાય છે, તેથી આ અંગે પણ મોક્ષનું કારણ છે. આચારાંગ સૂત્રમાં નિરૂપિત અર્થનું અનુષ્ઠાન કરનારા બીજા અંગેનાં અધ્યયનની યોગ્યતા પ્રાપ્ત કરે છે, તે કારણથી આ અંગે પ્રધાન છે. બીજી વાત એ છે કે આ અંગના અધ્યયનથી ક્ષમા આદિ, અથવા ચરણકરણરૂપ શ્રમણ—ધર્મનું સમ્યફ પ્રકારે જ્ઞાન થાય છે આચાર્ય આદિ પદની પ્રાપ્તિને કારણભૂત સ્વસમયનું પરિજ્ઞાન આદિ સમસ્ત ધર્મોમાં આચારધારિત્વ (સંચમપાલન)જ પ્રધાન છે. એ માટે આચારનું પ્રતિપાદન કરનાર આગમ જ પહેલું અંગ હોવું नये, के. सिद्ध छे. मा 'आचार' थी ज्ञानाच्या माहि पांय प्रश्न! माया सभरवा नेय. तेनु प्रतिपाहन ४२वावाणु मा 'आचाराग' वाय छे. २मा 'आचाराग' सूत्रनु पडे सूत्र २ छ 'सुयं मे' त्या Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० आचारागसत्रे - सुयं ये आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं, (सू. १) (छाया) श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम् (सू. १) टीका'सुयं मे' इत्यादि । आयुष्मन् ! हे चिरजीविन् ! जम्बूः ! ' आयुष्म 'नितिपदं शिष्यस्य जम्बूस्वामिनः कोमलवचनामन्त्रणं विनीतताख्यापनार्थम् । किञ्च-तस्याशेपश्रुतज्ञानोपदेश-श्रवण-ग्रहण - धारण – रत्नत्रयाराधन - मोक्षसाधनयोग्यताप्राप्त्यर्थमेतद्वचनम् । विनाऽऽयुषा श्रुतश्रवणादिमोक्षपर्यन्तसिद्धिन कस्यचित्संभवतीति भावः। एतद्वचनप्रभावादेव जम्बूस्वामी मोक्षपदं तस्मिन्नेव जन्मनि प्राप। ___ मूलार्थ-'सुयं में इत्यादि, हे आयुष्मन् ! मैने सुना है। उन भगवान्ने ऐसा कहा है ( सू० १) टीकार्थ हे आयुष्मन् ! अर्थात् हे चिरंजीवी जम्बू !, 'आयुष्मन्' पद अपने शिष्य जम्बू स्वामीका कोमल वचनरूप सम्बोधन है, और विनीतता प्रकट करने के लिए है । अथवा-उनके समस्त श्रतज्ञान, उपदेश का श्रवण, ग्रहण धारण, रत्नत्रयका आराधन, तथा मोक्षसाधन की योग्यता की प्राप्ति के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है। आयुके अभाव में श्रुतश्रवण से लेकर मोक्ष तक किसीकी भी सिद्धि नहीं हो सकती। इसी वचन के प्रभाव से जम्बू स्वामीने उसो भव में मोक्ष प्राप्त किया था । 'सुयं मे' त्या . મૂલાઈ–હે આયુષ્યન! મેં સાંભળ્યું છે, તે ભગવાને આવું કહ્યું છે (સ-૧) ટીકાથ–હે આયુષ્યન અર્થાત્ હે ચિરંજીવી જબૂ!, “આયુષ્યન” પદ પિતાના શિષ્ય જખ્ખ સ્વામીનું કમલ-વચનરૂપ સંબધન છે, અને વિનતપણું પ્રગટ કરવા માટે છે. અથવા તેમના સમસ્ત શ્રુતજ્ઞાન, ઉપદેશનું શ્રવણ, ગ્રહણ, ધારણ, રત્નત્રયનું આરાધન તથા મસાધનની એગ્યતાની પ્રાપ્તિ માટે આ પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યું છે, આયુના અભાવમાં કૃતના શ્રવણથી લઈને મેક્ષ સુધી કઈ પણ સિદ્ધિ થઈ શકતી નથી આ વચનના પ્રભાવથી કબૂ સ્વામીએ એ ભવમાં મોક્ષ પ્રાપ્ત કર્યો હતે. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षाद् भगवन्धमन गुरुकुले निवसताभिवादनं आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.१ भगवच्छब्दार्थः १६१ श्रुतं श्रवणविषयीकृतं, मया-साक्षाद् भगवन्मुखात् , न तु परम्परया, यतो गणधराणामनन्तरागमो भवति । 'मया श्रुत'-मित्यनेन गुरुकुले निवसता मयेत्यर्थः सुतरां लभ्यते । गुरुकुलनिवासं विना हि गुरुचरणसरोजस्पर्शपूर्वकाभिवादनं, तन्मुखारविन्दविनिःमृतवचनश्रवणं च नोपपद्यते । भगवया -भगः=(१) - ज्ञानं सर्वार्थविषयकम् , (२) - माहात्म्यम्=अनुपममहनीयमहिमसंपन्नत्वम् , (३)-यशा विविधानुकूलप्रतिकूल परीषहोपसर्गसहनसमुद्भूता कीर्तिः, यद्वा-जगद्रक्षणप्रज्ञासमुत्था कीर्तिः, (४)-वैराग्यम्-सर्वथा काम मैने भगवान् के मुखसे साक्षात् सुना है—परम्परा से नहीं, क्या कि गणधरों का आगम अनन्तरागम होता है । — मैने सुना ' इस वाक्य का ' मैंने गुरुकुल में निवास करते हुए सुना ' यह अर्थ स्वतः सिद्ध है । गुरुकुल में निवास किये विना गुरु के चरणकमलेोका स्पर्श करके अभिवादन तथा उनके मुखारविन्द से निकलने वाले वचनों का श्रवण नहीं हो सकता। 'भगवान् । शब्द में जो ‘भग' शब्द है उसके अनेक अर्थ होते है। वे इस प्रकार है-(१) सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला ज्ञान (२) महात्म्य अर्थात् अनुपम और महान् महिमा, (३) यश अर्थात् नाना प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों और उपसर्गों को सहन करने से फैली हुई कीर्ति, अथवा जगत् की रक्षा (उद्धार ) करने की भावना से उत्पन्न हुई कीर्ति, (४) वैराग्य अर्थात् कामभोग की । મેં ભગવાનના મુખથી સાક્ષાત્ સાંભળ્યું છે–પરમ્પરાથી નહિ, કેમકે ગણઘરનાં આગમ અનન્તરાગમ-હેય છે. “મેં સાંભળ્યું” મેં ગુરૂકુલમાં નિવાસ કરતા થકા સાંભળ્યું' આ અર્થ સ્વતઃ સિદ્ધ છે. ગુરૂકુલમાં નિવાસ કર્યા વિના ગુરુના ચરણકમલને સ્પર્શ કરીને અભિવાદન નમસ્કાર તથા તેના મુખારવિદથી નિકલવાવાળાં વચને શ્રવણ થઈ શકતાં નથી. सगवान हमारे 'भग' ५४ छ, तेन। मन४ अर्थ थाय छ त मा प्रमाणे (१) सम्पूर्ण पहात नावाज्ञान, (२) माहात्म्य अर्थात् मनुपम અને મહાન મહિમાથી યુક્ત હેવું, (૩) યશ-અર્થાત્ નાના પ્રકારના અનુકૂલ અને પ્રતિકૂલ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી ફેલાતી કીર્તિ, અથવા જગતની રક્ષા (ઉદ્ધાર) કરવાની ભાવનાથી ઉત્પન્ન થયેલી કીર્તિ, (૪) વૈરાગ્યप्र. आ.-२१ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ आचाराङ्गसूत्रे भोगाभिलाषराहित्यम् , यद्वा-क्रोधादिकषायनिग्रहलक्षणम् , (५)-मुक्तिः सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षः, (६)-रूपम् सकलहृदयहारिसौन्दर्यम् , (७)-वीयम् अन्तरायान्तजन्यमनन्तसामर्थ्यम् , (८)-श्री: धातिककर्मपटलविघटनजनितज्ञानदर्शन सुखवीर्यरूपानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः । (९)- धर्मः-अपवर्गद्वारकपाटोद्घाटनसाधनश्रुतचारित्रलक्षणः (१०)-ऐश्वर्यम् लोकत्रयाधिपत्यम् , चास्यास्तीति भगवान् , तेन भगवता-ज्ञानादियुक्तेन, तेन तीर्थङ्करेण, वक्ष्यमाणार्थस्य तीर्थङ्करभाषितत्वात्तच्छेब्देनात्र तीर्थङ्करपरामशः । उक्तश्च तनिक भी अभिलाषा न होना, अथवा क्रोध आदि कषायोंका निग्रह करना, (५) मुक्ति समस्त कर्मीका भय रूप मोक्ष, (३) रूप-सब का हृदय हरलेनेवाला अनुपम सौन्दर्य (७) वीर्य-अन्तराय कर्मके क्षय से उत्पन्न अनन्तशक्ति, (८) श्री-घाति कर्मों के क्षय से उत्पन्न अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप अनन्तचतुष्टय लक्ष्मी (९) धर्म-मोक्षरूपी द्वार के किवाड उघाडने का साधन श्रुत चारित्ररूप धर्म, (१०) ऐश्वर्य-तीन लोक का आधिपत्य । ये दश गुण जिस में विद्यमान हों उसे 'भगवान्' कहते है। ऐसे भगवान्ने कहा है। आगे कहा जाने वाला तत्त्व तीर्थकरभाषित है, अत एव 'तत्' शब्द से यहाँ भगवान् तीर्थकर समझना चाहिए । कहाभी है અર્થાત કામગની જરા પણ અભિલાષા નથવી, અ થવી ક્રોધ કષાયને નિગ્રહ ४२३।, (५) मुजित-समस्त ना क्षय२५ भाक्ष () ३५-सर्वना यने । લેવાવાળું અનુપમ સૌન્દર્ય, (૭) વીર્ય-અન્તરાય કર્મના ક્ષયથી ઉત્પન્ન અનન્ત शति (८) श्री-धाति ना क्षयथी उत्पन्न गनत ज्ञान, शन, सुम भने વીર્યપ અનંત ચતુષ્ટયલક્ષ્મી (૯) ધમ-મોક્ષરૂપી દ્વારનાં કમાડ ઉઘાડવાનું સાધન શ્રત–ચારિત્રરુપ ધર્મ (૧૦) અિધર્ય–ત્રણ લેકનું અધિપતિપણું આ દસ ગુણ જેમાં હોય તેને ભગવાન કહે છે એવા ભગવાને કહ્યું છે. मा ४२वारी ते तत्प तीथ ४२मापित छे, मेटला भाटे 'तत्' २७४थी તીર્થકર ભગવાનને અર્થ અહિં સમજવું જોઈએ. કહ્યું પણ છે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१.१ भगवच्छब्दार्थः १६३ " अत्थं भासइ अरिहा, सुत्तं गंथंति गणहरा णिउगा" इत्यादि । अर्थ भाषतेऽर्हन् मूत्रं ग्रथ्नन्ति गणधरा निपुणाः, इति च्छाया। भगवत्तीर्थङ्करोपदिप्टमर्थरूपमागममुपादाय मेधाविनो गणधरा मूलरूपमागमं निवदन्तीत्यर्थः । __ एवं वक्ष्यमणरीत्यो आख्यातं कथितं द्वादशविधपरिपत्सु । भगवतीर्थङ्करकथितार्थजातमेव वानुमृत्य वक्ष्यमाणं वाक्यमनुवदिष्यामीति वाक्यार्थः। आगमोक्तार्थस्य काल्पनिकत्वाभावाद् द्रव्यार्थिकनयेनार्थरूपोऽयमागमोऽनादिरिति भावः । ___एषा परंपरा-परिपाटी वरीवर्ति सर्वेषां गणधराणां, यद् विनीतैः स्वस्वान्तेवासिभिर्मोक्षमार्ग सविनयं पृष्टा गणधराः "सुर्य मे" इतिवाक्यं प्रथमं वदन्ति । उक्तञ्च "अर्हन्त भगवन्त अर्थका निरूपण करते है। और गणधर उसे भली-भांति सूत्र रूप में गूंथते है। अर्थात् भगवान् तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट अर्थरूप आगम के आधार पर कुशल गणधर मूलरूप आगमकी रचना करते है ।" उन भगवानने बारह प्रकारको परिषद् में इस प्रकार कहा है जो आगे इस सूत्र में निरूपण किया जायगा। आगमोक्त अर्थ काल्पनिक नहीं होता, अतः द्रव्यार्थिकनय से अर्थरूप यह आगम अनादि है। सभी गणधरों की यह परम्परा-परिपाटी है कि-अपने २ विनीत शिष्यों द्वारा विनयपूर्वक मोक्षमार्ग पूछे जाने पर गणधर महाराज पहले-पहल 'सुयं में यह वाक्य बोलते है । कहा भी है “અહંત ભગવંત અર્થનું નિરૂપણ કરે છે, અને ગણધર તેને રુડી રીતે સૂત્ર રૂપમાં ગુંથે છે, અર્થાત્ ભગવાન તીર્થકર દ્વારા ઉપદિષ્ટ–ઉપદેશેલાં અર્થરૂપ આગમના આધાર પર કુશળ ગણધર મૂલપ આગમની રચના કરે છે.” તે ભગવાને બાર પ્રકારની પરિષસભામાં આ પ્રમાણે કહ્યું છે કે, આગળ આ સૂત્રમાં નિરૂપણ કરવામાં આવશે. આગમકત-આગમમાં કહેલો અર્થ કાલ્પનિક નથી, તેથી દ્રવ્યાર્થિક નયથી અર્થરૂપ આ આગમ અનાદિ છે. | સર્વ ગણધરની એ પરંપરા-પરિપાટી છે કે --પત–પિતાના વિનીત શિષ્ય द्वारा विनयपू भाक्षमाग पूछपाथी गणधर भडारा प्रथम 'सुयं मे' मा पाध्य माले छे. यु ५ छ: Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ आचाराङ्गमत्र (द्रतविलम्बित छन्दः) "निपुणशिष्यगणैर्विनयान्वितै, विमलभावयुतैः परिसेवितैः । गणधररखिलैः प्रथमं वचः, खलु 'सुयं म' इति प्रतिभापितम्" ॥१॥ इति । भगवता यदाख्यातं तदाह-'इहमेगेसिं' इत्यादि । मूलम् इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ, तंजहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, दाहिणाओ वा दिशाओ आगओ अहमंसि, पञ्चत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उडाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि । अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि ।। म. २॥ “विनय से युक्त निपुण शिष्यों द्वारा सेवित, तथा निर्मल भावों वाले सव गगघरों द्वारा अपने२ शिष्यों के प्रति सर्व प्रथम मुयं मे यह वाक्य कहा गया है ॥१॥ भगवानन्ने जो कहा वह कहते है-'इहमेगेसिं' इत्यादि । मूलार्थ-~-किन्हीं २ (जीवा) को संज्ञा नहीं होती कि मै पूर्व दिशा से आया हूँ. या मैं दक्षिण दिशा से आया हूँ, या मैं पश्चिम दिशा से आया हू, अथवा मै उत्तर दिशा से आया हूँ। अथवा मैं उर्व दिशा से आया हूँ, या अघोदिशासे मै आया हूँ. अथवा मै दूसरी किसी दिशा या अनुदिशा (विदिशा) से आया हूँ। ॥२॥ વિનયથી યુક્ત નિપુણ શિષ્યએ સેવિત તથા નિર્મલ ભાવવાળા સર્વ गएराध। द्वारा पातपाताना शिष्यो प्रति सर्व प्रथम 'सुयं में ये पाध्य वामां माव्यु छे" ॥१॥ भूमाथ-'इहमेगेसिं' इत्यादि. 5-35 ()ने सा नथी डाती हु પૂર્વ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું દક્ષિણ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું પશ્ચિમ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું ઉત્તર દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું ઉર્વ દિશામાથી આવ્યો છું, અથવા હું એ દિશામાંથી આવ્યો છું, અથવા હું અન્ય બીજી કેઈ દિશામાંથી અથવા અનુદશા (વિદિશા)માંથી આવ્યો છું. પરા Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.१ संज्ञावर्णनम् छायाइह एकेषां नो संज्ञा भवति, तद्यथा-पूर्वस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, दक्षिणस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, पश्चिमाया वा दिशाया आगतोऽहमस्मि । उत्तरस्या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि । ऊ या वा दिशाया आगतोऽहमस्मि, अधोदिशाया वा आगतोऽहमस्मि, अन्यतरस्या वा दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । ___ 'इहमेगेसिं' इति इह-चतुर्गतिसंसरणरूपे संसारे एकेषां ज्ञानावरणीयकर्मोंदयवतां संज्ञिनां जीवानां संज्ञा-स्मृतिरूपो मतिविशेषः नो भवति-न जायते । अन्यं प्रतिषेधवाचकं शब्दं विहाय 'नो' शब्दोपादानं विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधबोधनार्थम् । 'नो' शब्दः सर्वनिषेधवाची, देशनिषेधवाची च । उक्तञ्च___“प्रतिषेधयति समस्तं, प्रसक्तमर्थं जगति नो-शब्दः । स पुनस्तदवयवो वा, तस्मादर्थान्तरं वा स्यात् ॥ १॥" 'नो' शब्दः-प्रसंगादागतमर्थ संपूर्ण प्रतिषेधयति, स चार्थः प्रसक्तावयवो वा स्यात् तस्मादन्यो वाऽर्थः स्यात् तमपि प्रतिषेधयतीत्यर्थः । टोकार्थ-चार गति में भ्रमण करनेरूप संसार में ज्ञानावरण कर्म के उदय वाले कितनेक सज्ञी जीवों को संज्ञा अर्थात् स्मृति नहीं होती। निषेधवाचक दूसरे शब्द को छोड कर यहाँ 'नो' शब्द का प्रयोग किया गया है सो विशिष्ट संज्ञा का अभाव सूचित करने के लिए समझना चाहिए । 'नो' शब्द सर्वनिपेधवाचक भी है और देशनिषेधवाचक भी है । कहा भी है "नो' शब्द प्रसङ्ग में आये हुए सम्पूर्ण अर्थ का निषेध करता है। यह अर्थ चाहे उन का एक अवयव हो या उस से भिन्न अर्थान्तर हो-उस का भी निषेध करता है" ॥१॥ ટીકાથ–ચાર ગતિમાં ભ્રમણ કરવા રરપ સંસારમાં જ્ઞાનાવરણ કર્મના ઉદયવાળા કેટલાક સંજ્ઞી જીને સત્તા અર્થાત્ સ્મૃતિ નથી રહેતી. નિષેધક-વાચક અન્ય શબ્દ ત્યજીને અહિ અને શબ્દનો પ્રયોગ કર્યો છે, તે વિશિષ્ટ સંજ્ઞાને અભાવ સૂચવવા માટે સમજવું જોઈએ ને શબ્દ સર્વનિષેધવાચક પણ છે અને દેશનિષેધવાચક પણ છે કહ્યું પણ છે– “ “” શબ્દ પ્રસંગમાં આવેલા સંપૂર્ણ અર્થને નિષેધ કરે છે, તે અર્થ ગમે તે તેનું એક અવયવ હેય અથવા તેનાથી ભિન્ન અર્થાતર હોય તેનો પણ निषेध ४री छे" ॥ १ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ आचारागसूत्रे यया संज्ञयाऽऽत्मनो गत्यागत्यादिकं जीवो जानाति तस्या एव प्रतिषेधो विवक्षितः। अथ संज्ञाभेदाःसंज्ञा च जीवानां बहुविधा । तत्र-दशविधा भगवतीसूत्रे ( शतक-७, उद्देश ८ ) प्रोक्ता ___“ कइ णं भंते ! सन्नाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! दस सन्नाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-(१) आहारसन्ना, (२) भयसन्ना, (३) मेहुणसन्ना, (४) परिग्गहसन्ना, (५) कोहसन्ना, (६) माणसन्ना, (७) मायासन्ना, (८) लोभसन्ना, (९) लोगसन्ना, (१०) ओहसन्ना" इति। जिस संज्ञा के द्वारा आत्मा की गति और आगति जीव जानता है, यहाँ उसीका निषेध समझना चाहिए। संज्ञा के भेदजीवों की संज्ञा अनेक प्रकार की होती है । भगवतीसूत्र ( श० ६, उ० ८, में दश प्रकार की सज्ञा कही गई है, वह इस प्रकार है प्रश्न-भगवान् ! संज्ञाएँ कितनी कही गई है। उत्तर-गौतम ! दश संज्ञाएँ कही गई है । वे इस प्रकार है-- (१) आहार-सज्ञा, (२) भय-संज्ञा, (३) मैथुन-संज्ञा, (४) परिग्रह-संज्ञा, (५) क्रोध-संज्ञा (६) मान-संज्ञा, (७) माया-संज्ञा, (८) लोभ-संज्ञा, (९) लोक-संज्ञा और (१०) ओघ-संज्ञा। - જે સંજ્ઞા દ્વારા આત્માની ગતિ અને આગતિ જીવ જાણે છે. અહિં એને નિષેધ સમજ જોઈએ સંજ્ઞાના ભેદ– જીની સંજ્ઞા અનેક પ્રકારની હોય છે. ભગવતી સૂત્ર (શ. ૬. ઉં. ૮)માં દસ પ્રકારની સંજ્ઞાઓ કહેવામાં આવી છે. તે આ પ્રમાણે છે -लगवान ! संज्ञामा टसी ही छ ? ઉત્તર-ગૌતમ! દસ સંજ્ઞાઓ કહી છે તે આ પ્રમાણે છે (१) PAIR-सना (२) मय-संज्ञा (3) भैथुन-सना, (४) परिश्र-सज्ञा. (५) आध-ना (6) भान-सज्ञा (७) भाया-संज्ञा (4) हाम-संज्ञा (6) alसंज्ञा मने (१०) साध-संज्ञा. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.२ संज्ञावर्णनम् १६७ अथवा-संज्ञानं संज्ञा-चेतना, सा चाशातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयजन्यविकारयुक्ता आहारादिसंज्ञादित्वेन व्यपदिश्यते । सा द्विधा-अनुभवनसंज्ञा, ज्ञानसंज्ञा च । तत्रानुभवनसंज्ञा षोडशविधा । तत्र भगवतीसूत्रोक्तदशविधसंज्ञा उपादायाधिकाः षट् संज्ञाः समिलिताः षोडश भवन्ति । तत्र (१) सुखसंज्ञा, (२) दुःखसंज्ञा, (३) मोइसंज्ञा, (४) विचिकित्सासंज्ञा, (५) शोकसंज्ञा, (६) धर्मसंज्ञा चेति षड् अधिका विज्ञेयाः। (१) आहारसंज्ञा(१) क्षुद्वेदनीयोदयात् कवलाद्याहारार्थ तथाविधपुद्गलोपादानक्रिया सम्यग् ज्ञायतेऽनयेत्याहारसंज्ञा। यद्वा-शुद्वेदनीयोदयसमुद्भवः आहाराभि अथवा-संज्ञान-संज्ञा-चेतना, अर्थात् संज्ञा चेतना को कहते है । यह जब अशातावेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से जनित विकारों से युक्त होती है तब वह आहार आदि संज्ञा कहलाने लगती है । वह दो प्रकार की है-(९) अनुभवनसंज्ञा और (२) ज्ञानसंज्ञा । इन में से अनुभवनसंज्ञा सोलह प्रकार की है । भगवतीसूत्रोक्त दश सज्ञाओ में छह संज्ञाएँ मिला देने से सोलह हो जाती है। छह संज्ञाएँ ये है--(१) सुखसंज्ञा, (२) दुःखसंज्ञा, (३) मोहसंज्ञा, (४) विचिकित्सासंज्ञा, (५) शोकसंज्ञा, और (६) धर्मसंज्ञा । (१) आहारसंज्ञा क्षुधावेदनीय के उदय से कवलाहार आदि के लिए योग्य पुद्गलो को ग्रहण करने की क्रिया जिस द्वारा सम्यक् प्रकार से जानी जाय वह आहारसंज्ञा कहलाती है । અથવા–સંજ્ઞાન એટલે સંજ્ઞા, તે ચેતના, અર્થાત્ ચેતનાને સંજ્ઞા કહે છે તે જ્યારે અસતાવેદનીય અને મેહનીય કર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન વિકાર યુક્ત હોય છે, ત્યારે તે આહાર આદિ સંજ્ઞા કહેવાય છે. તે બે પ્રકારની છે–(૧) અનુભવનસંજ્ઞા અને (૨) જ્ઞાનસંજ્ઞા. તેમાં અનુભવનસંજ્ઞા સોળ પ્રકારની છે, ભગવતીસૂત્રોક્ત દસ સંજ્ઞાઓમાં છ મેળવી દેવાથી સોળ થાય છે, છ સજ્ઞાઓ આ છે –(૧) સુખસંજ્ઞા, (२) मशा, (3) भासज्ञा, (४) वियित्सिास ज्ञा, (५) ४सा मने (६) धर्मज्ञा . (१) माहारसाસુધા (ભૂખ) વેદનીયના ઉદયથી કવલાહાર આદિ માટે યોગ્ય પગલેને ગ્રહણ કરવાની ક્રિયા જેના વડે સમ્યફ પ્રકારથી જાણી શકાય, તે આહારસંજ્ઞા કહેવાય છે. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आचाराङ्गमुत्रे I लापरूप आत्मनः परिणामविशेषः । अभिलापश्चात्र - ' मदर्थमीदृशं वस्तु पुष्टिकरं, यदीदं लभ्यते तदा मम हितं भविष्यती' - त्येवं विचारानुवद्धः स्वपुष्टितुष्टिकारणीभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यर्थमात्मनः परिणामः । रिक्तोदरत्वाद् भोजनीयवस्तुश्रवण-दर्शन- संचिन्तनैश्चाहारसंज्ञा जायते । आहारादयः संज्ञाः एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां सर्वजीवानामासंसारं भवन्ति । जलाद्याहारोपजीवनाद् वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा विज्ञायते । अथवा क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाली आहार की अभिलाषारूप आत्मा की परिणति आहारसंज्ञा कहलाती है । यहां अभिलाषा शब्द से ' इस प्रकार की वस्तु मेरे लिए पुष्टिकर है, यह वस्तु मिले तो मेरा हित होगा' ऐसे विचार से युक्त अपनी पुष्टि और सन्तोष के कारणभूत पदार्थ की प्राप्ति के लिए होने वाला अम्मा का परिणाम ग्रहण करना चाहिए । खाली पेट होने पर भोज्य वस्तु के श्रवण दर्शन और चिन्तन से आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है । आहार आदि संज्ञाएं एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रियपर्यन्त सभी जीवों को होती हैं, जब तक संसार का अन्त नहीं होता तब तक बनी रहती है । जल आदि आहार पर जीवित रहने के कारण बनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारसंज्ञा का अस्तित्व प्रतीत होता है । ८ અથવા ક્ષુધાવેદનીય કર્મીના ઉદ્દયથી ઉત્પન્ન થવા વાળી આહારની અભિલાષા– રૂચિ-ઈચ્છા રૂપ આત્માની પરિણતિ તે આહારસના કહેવાય છે, અહિં અભિલાષા શબ્દથી · આ પ્રકારની વસ્તુ મારા માટે પુષ્ટિ કરનારી છે, આ વસ્તુ મળે તે મારૂં હિત થશે' એવા વિચારથી યુક્ત પેાતાની પુષ્ટિ અને સતાષના કારણભૂત પદાર્થની પ્રાપ્તિ માટે વિચાર કરનાર આત્માનુ પરિણામ, ગ્રહણ કરવું જોઈએ, ખાલી પેટ હેાવાના કારણે ભેાજ્ય ( લેાજન કરવા ચેાગ્ય) વસ્તુના શ્રવણુ, દર્શન અને ચિન્તનથી આહારસજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. આાર આદિ સ`જ્ઞાએ એકેન્દ્રિયથી આરંભીને પંચેન્દ્રિય સુધીના સર્વ જીવેાને હેાય છે; અને જ્યાં સુધી સંસારના અંત થતા નથી ત્યાં સુધી તે સંજ્ઞાઓ રહે છે. જલ વગેરેના આહાર પર જીવિત રહેવાના કારણે વનસ્પતિ આદિ એકેન્દ્રિય જીવેામાં પણ આહારસ'જ્ઞાનું અસ્તિત્વ हेयाय है. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ २.२. संज्ञावर्णनम् १६९ (२) भयसंज्ञा(२) सनिमित्तमनिमित्तं वा भयमोहनीयोदयाद् भयोभ्रान्तस्य मोहनीयान्तर्गतनोकपायरूपा नयनवदनविकृतरोमाञ्चाविर्भावादिक्रियालक्षणा स्वास्मनः परिणतिर्भयसंज्ञा। हीनवलत्वेन, भयवार्ताश्रवणभीषणदर्शनादिजनितबुद्धया, इहलोकादिभयजनकार्थपर्यालोचतेन वा भयसंज्ञा जायते । हस्तस्पर्शादिभीत्या स्वावयवसंकोचनादिना लज्जालुवल्ल्यादीनां भयसंज्ञा विज्ञायते । (३) मैथुनसंज्ञा(३) पुरुषवेदोदयान्मैथुनाथ वनितालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितगात्र (२) अयसंज्ञाकिसी कारण से या विना ही कारण भयमोहनीय कर्म के उदय से भयमीत पुरुषकी मोहके अन्तर्गत नोकषायरूप, नेत्रों में और मुख में विकार होना, रोमाञ्च होना आदि क्रियाए जिसका लक्षण है, ऐसी आत्मा की परिणति भयसंज्ञा कहलाती है, दुर्बलता से, भय उत्पन्न करने वाली बात सुनने से, भयङ्कर वस्तु के देखने से, तथा इहलोक आदि में भयजनक वस्तुका विचार करने से भयसंज्ञा उत्पन्न होती है। लजवन्ती आदि वनस्पतिया हाथ के स्पर्श के भय से अपने अवयवों ,को सिकोड लेती है, अतः उन में भयसंज्ञा की विद्यमानता प्रतीत होती है। __ (३) मैथुनसंज्ञापुरुषवेद-मोहनीय कर्म के उदय से मैथुन के लिए स्त्री को देखना, प्रसन्नवदन , (२) मय स!કેઈ કારણથી અથવા વિના કારણે ભય થ, મોહનીય કર્મના ઉદયથી ભયભીત પુરુષની મેહને અંતર્ગત નેકષાયરૂપ, નેત્રમાં અને ચહેરામાં વિકાર થે, રોમાંચ થવું (રૂંવાડાં ઉભાં થવાં) વગેરે કિયાઓ જેનું લક્ષણ છે, એવી આત્માની પરિણતિ તે ભયસંજ્ઞા કહેવાય છે દુબલતાથી, ભય ઉત્પન્ન કરાવનારી વાત સાંભળવાથી, ભયંકર વસ્તુ દેખવાથી, તથા આ લોક વગેરેમાં ભયજનક વસ્તુને વિચાર કરવાથી ભયસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. લજજાવંતી (લજજાળ) આદિ વનસ્પતિઓ હાથને સ્પર્શ થવાથી ભય લાગ્યો હોય તેમ પિતાના અવયને સકેચે છે તેથી તેમાં ભયસંજ્ઞાની વિદ્યમાનતા દેખાય છે. (3) मैथुन संसाપુરુષવેદ-મેહનીકમના ઉદયથી મૈથુન માટે સ્ત્રી તરફ જોયું. હસતું મુખ प्र. आ.-२२ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० आचारागसत्रे शैथिल्योरुकम्पनादिक्रियारूपा आत्मनः परिणतिमैथुनसंज्ञा । रुधिरमांसोपचयेन, स्त्रीकथाश्रवणादिजनितमत्या, मैथुनचिन्तनेन च मैथुनसंज्ञा जायते। कुरुवकादिवनस्पतीनां कमनीयकामिनीभुजलतावगृहन-चरणाघात-कटाक्षविक्षेपादिभ्यः प्रमनपल्लवादिप्रसवदर्शनान्मैथुनसंज्ञा विज्ञायते । (४) परिग्रहसंज्ञा(४) लोभमोहनीयोदयाद धर्मसाधनव्यतिरिक्त सचित्ताऽचित्तमिश्रवस्तूपादानादिमूर्छारूपा आत्मनः परिणतिः परिग्रहसंज्ञा। सचित्तादिवस्तुहोना, शरीर का स्तम्भित हो जाना, तथा उस में शिथिलता पैदा होना उरु (घुटनोंक नीचेका भाग) आदि का कापना आदि क्रियारूप आत्मा की परिणति को मैथुनसंज्ञा कहते है। रक्त और मांस की अधिकता से, स्त्रीकथा आदि के श्रवण से उत्पन्न हुई बुद्धि से, और मथुन का विचार करने से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है । कुरुबक आदि वनस्पतियों में सुन्दरी कामिनी की भुजाओं के आलिङ्गन से, चरणाघात से, तथा कटाक्षपात आदि से फूल, पत्ता आदि उत्पन्न होते है, अतः वनस्पति में मैथुनसंज्ञा का अस्तित्व सिद्ध होता है। (४) परिग्रहसंज्ञालोभमोहनीय के उदय से धर्म के उपकरणों के अतिरिक्त दूसरे सचित्त अचित्त और मिश्र पदार्थों के ग्रहण आदि मूर्छारूप आत्मा की परिणति परिग्रहसंज्ञा कहलाती है। થવું, શરીરનું તંભિત થઈ જવું, તથા તેમાં શિથિલતા ઉત્પન્ન થવી, જાંગ વગેરેનું કંપવું આદિ ક્રિયારૂપ આત્માની પરિણતિને મિથુનસંજ્ઞા કહે છે. રકત (લોહી) અને માંસની અધિકતાથી, સ્ત્રીકથા વગેરે સાંભળવાથી ઉત્પન્ન થયેલી બુદ્ધિથી, અને મિથુનને વિચાર કરવાથી મિથુનસંજ્ઞા ઉત્પન્ન થાય છે. કુરબક (એક જતનું વૃક્ષ) આદિ વનસ્પતિમાં સુંદરી કામિનીના હાથના આલિંગન થતાં, ચરણાઘાતથી તથા કટાક્ષપાત આદિથી કુલ, પત્તાં આદિ ઉત્પન્ન થાય છે, આ કારણથી વનસ્પતિમાં મિથુનસંજ્ઞાનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. (४) परिग्रह संशाલેભમેહનીયના ઉદયચી ધર્મના ઉપકરણે સિવાય બીજા સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર પદાર્થોનું ગ્રહણ કરવું વગેરે મૂર્છારૂપ આત્માની પરિણતિ તે પરિગ્રહસના Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. २. संज्ञावर्णनम् १७१ परिग्रहदर्शनेन परिग्रह चिन्तनेन, परिग्रहसंग्रहेण च परिग्रहसंज्ञा जायते । बिल्वादिवनस्पतीनां स्वपत्रैः पुष्पफलाच्छादनदर्शनात् परिग्रहसंज्ञा विज्ञायते । (५) क्रोधसंज्ञा (५) क्रोधमोहनीयोदयाद जीवस्य जात्यादिमदजनिता कर्तव्याकर्तव्यविवेकापहारिका स्वपराप्रीतिरूपप्रज्वलनात्मिका विभावपरिणतिः क्रोधसंज्ञा । (६) मानसंज्ञा (६) मानमोहनीयोदयाद अंहकाररूपा आत्मनो विभावपरिणतिर्मानसंज्ञा । देवगुरुधर्मादीनां महतामनादरणादिना मानसंज्ञा विज्ञायते । सचित्त आदि बस्तुओं का परिग्रह देखने से, परिग्रह का विचार करने से, और परिग्रहका संग्रह करने से परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है । बिल्व (बेल) आदि वनस्पतियाँ अपने पत्तों से फूल फल वगेरह को ढँक लेती है, इस से उनमें परिग्रहसंज्ञा का होना प्रतीत होता है । (५) क्रोधसंज्ञा - क्रोधमोहनीय के उदय से जीव में जातिमद आदि से उत्पन्न, तथा कर्तव्य अकर्तव्य का विवेक नष्ट कर देने वाली स्वपर की अप्रीतिरूप, तथा जलनरूप आत्मा की विभाव परिणति क्रोधसंज्ञा कहलाती है । (६) मानसंज्ञा मानमोहनीय के उदय से अहङ्काररूप आत्मा की विभावपरिणति मानसंज्ञा कहलाती है । देव गुरु धर्म आदि बडोंका अनादर आदि करने से मानसंज्ञा मालूम होती है । કહેવાય છે. સચિત્ત આદિ વસ્તુઓને પરિગ્રહ દેખાવાથી, કરવાથી અને પરિગ્રહુના સંગ્રહ કરવાથી પરિગ્રહસ ́જ્ઞા ઉત્પન્ન પરિગ્રહના વિચાર થાય છે. બિલ્વ (जीसी) आदि वनस्पतियो पोतानां यांदृडाथी हुस- इस वगेरेने ढांडी हे छे, તેથી વનસ્પતિમાં પરિગ્રહસના દેખાય છે. (4) श्रेधसंज्ञा ક્રોધમાહનીય કર્મના ઉદયથી, જીવને જાતિમદ વગેરેથી ઉત્પન્ન, તથા કન્ય અકર્તવ્યના વિવેક નાશ કરવાવાળી સ્વ-પરની અપ્રીતિરૂપ તથા જલનરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ તે ક્રોધસંજ્ઞા કહેવાય છે. (१) भानसंज्ञा માનમેાહનીય કના ઉડ્ડયથી અહંકારરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ માનસ'જ્ઞા કહેવાય છે. દેવ, ગુરૂ, ધમ આદિ મેાટાઓના અનાદર વગેરે કરવાથી માનસ જ્ઞા માલુમ પડે છે. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ आचारागसूत्रे (७) मायासंज्ञा(७) मायामोहनीयोदयात् कपटलक्षणा प्रवृत्तिर्जीवस्य विभावपरिणतिर्मायासंज्ञा। परवञ्चनेच्छया व्यामोहोत्पादकमनोवाकायव्यापारेण सा विज्ञायते। (८) लोभसंज्ञा(८) लोभमोहनीयोदयेन सचित्तादिवस्तुगृद्धिरूपा जीवस्य विभावपरिणतिर्लोभसंज्ञा । आरम्भपरिग्रहादिप्रवृत्त्या लोभसंज्ञा विज्ञायते । (९) लोकसंज्ञा(९) ज्ञानावरणीयक्षयोपशमेन मोहनीयकर्मोदयेन च कुबुद्धिजनिततर्क (७) मायासंज्ञामायामीहनीय के उदय से जीव को कपटरूप विभावपरिणति मायासज्ञा कहलाती है । दूसरे को ठगने की इच्छा से मोहजनक मन, वचन और काय के व्यापार से उस की प्रतीति होती है। (८) लोभसंज्ञालोभमोहनीय के उदय से सचित्त आदि वस्तुओं में आसक्तिरूप जीवकी विभावपरिणति लोभसंज्ञा कहलाती है । . आरम्भ परिग्रह आदि की प्रवृत्ति से लोभसंज्ञा का पता चलता है। (९) लोकसंज्ञाज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और मोहनीय कर्म के उदय से कुवुद्धिजनित (७) मायासाમાયામહનીય કર્મના ઉદયથી જીવની કપટપ વિભાવપરિણતિ માયા-સંજ્ઞા કહેવાય છે. બીજાને ઠગવાની ઈચ્છાથી, મેહજનક મન, વચન અને કાયાના વ્યાપારથી તેની પ્રતીતિ થાય છે. (८) सामसલોભમેહનીય કર્મના ઉદયથી સચિત્ત આદિ વસ્તુઓમાં આસકિતરૂપ જીવની વિભાવપરિણતિ તે લેભસંજ્ઞા કહેવાય છે. આરંભ-પરિગ્રહ આદિની પ્રવૃત્તિથી લોભ સંજ્ઞાને પતે લાગે છે. (e) - જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉપશમથી અને મોહનીસકર્મના ઉદયથી કુબુદ્ધિજનિત Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. २ संज्ञावर्णनम् १७३ रूपा आत्मनो विभावपरिणतिर्लोकसंज्ञा । यथा-"अपुत्रस्य गतिर्नास्ती"-त्यादि । (१०) ओघसंज्ञा(१०) ज्ञानावरणीयाल्पक्षयोपशमसमुद्भूता, अव्यक्तोपयोगरूपा जीवस्य परिणतिः ओघसंज्ञा । सा लतादीनां प्रतानारोहणादिना ज्ञायते । (११) सुखसंज्ञा(११) संसारिणां सातवेदनीयोदयात् सकलेन्द्रियाणामनुकूलतया ज्ञायमाना आत्मनः परिणतिः मुखसंज्ञा । तर्करूप आत्मा की विभावपरिणति लोकसंज्ञा कहलाती है; यथा--"निपूते को सद्गति नहीं मिलती' आदि। (१०) ओघसंज्ञाज्ञानावरणीय कर्म के अल्प क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली तथा अव्यक्त (अप्रकट) उपयोगरूप जीव का विभावपरिणमन ओघसंज्ञा कहलाती है। लता वगैरह का मंडप पर चढने आदि से उसका ज्ञान होता है (११) सुखसंज्ञासंसारी जीवोंको सातावेदनीय के उदय से सब इन्द्रियों के अनुकूल प्रतीत होने वाली आत्मा की एक विशिष्ट परिणतिको सुखसंज्ञा कहते है । તકરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ લોકસંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમ-“અપત્રિયાને સગતિ મળતી નથી.” (१०) माघसाજ્ઞાનાવરણીય કર્મને અ૫ ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થનારી અને અપ્રગટ ઉપયોગ રૂપ જીવનું વિભાવપરિણમન તે ઘસંજ્ઞા કહેવાય છે, વેલે વગેરેનું મંડપ ઉપર यह वगेरेथी ते ज्ञान थाय छे. (११) सुमसસંસારી જીને સાતવેદનીયના ઉદયથી સર્વ ઇન્દ્રિયામાં અનુકૂળતાનું ભાન કરાવનારી આત્માની એક વિશિષ્ટ પરિણતિને સુખસંજ્ઞા કહે છે. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ आचारागसूत्रे (१२) दुःखसंज्ञा(१२) संसारिणामसातवेदनीयोदयात् सकलेन्द्रियाणां प्रतिकूलतया ज्ञायमाना विविधतापानुभवरूपा जीवस्य परिणतिर्दुःखसंज्ञा । (१३) मोहसंज्ञा(१३) मोहनीयकर्मोदयाद् मिथ्यादर्शनरूपा ज्ञानादिगुणरोधकसकलपापस्थानहेतुरात्मनो विभावपरिणतिर्मोहसंज्ञा । कुदेवकुगुरुकुधर्मादौ प्रवृत्त्या मोहसंज्ञा विज्ञायते । (१४) विचिकित्सासंज्ञा(१४) मोहनीयोदयाद् ज्ञानावरणीयोदयाच संशयरूपा जीवस्य परिणति (१२) दुःखसंज्ञासंसारी जीवों को असातावेदनीय के उदय से सब इन्द्रियों के प्रतिकूल प्रतीत होने वाली, विविध प्रकार के संतापो का अनुभवरूप जीव की परिणति दुःखसंज्ञा कहलाती है। (१३) मोहसंज्ञामोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यादर्शनरूप, तथा ज्ञानादि गुणों का निषेध करने वाली, समस्त पापस्थानकों का कारणरूप आत्मा की विभावपरिणति मोहसंज्ञा है। कुदेव कुगुरु और कुधर्म आदि में प्रवृत्ति होने से मोहसंज्ञा का ज्ञान होता है । (१४) विचिकित्सासंज्ञामोहनीय और ज्ञानावरण कर्म के उदय से संशयरूप आत्मा का परिणमन विचिकित्सा (१२) मसाસંસારી જીને અસતાવેદનીયના ઉદયથી સર્વ ઈન્દ્રિમાં પ્રતિકૂળતાનું ભાન કરાવવા વાળી, વિવિધ પ્રકારના સંતાના અનુભવરૂપ જીવની પરિણતિ તે દુખસંજ્ઞા वाय छे. (१3) मालुसज्ञाમોહનીય કર્મના ઉદયથી મિથ્યાદર્શન, તથા જ્ઞાનાદિ ગુણને નિરોધ કરવાવાળી, સમસ્ત પાપસ્થાનના કારણરૂપ આત્માની વિભાવપરિણતિ તે મેહસંજ્ઞા છે. કુદેવ, કુગુરુ અને કુધર્મ આદિમાં પ્રવૃત્તિ હેવાના કારણે મેહસંજ્ઞાનું જ્ઞાન याय छे. (१४) वियित्सिाशाહનીય અને જ્ઞાનાવરણીય કર્મના ઉદયથી સંશયર ૫ આત્માનું પરિણમન તે Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.२ संज्ञावर्णनम् १७५ विचिकित्सासंज्ञा । यथा दानादिधर्मस्य फलं प्रति संशयः । सा द्विधा-देशतः, सर्वतश्च । ' द्वाविंशतिपरिषहसहनब्रह्मचर्यकेशोल्लुश्चनादिक्लेशसहनस्य फलं भविष्यति न वे'-तिरूपा देशतः । 'परलोकादि सत्यं न वे'-तिरूपा, सर्वज्ञप्ररूपितजीवादितत्त्वं यथार्थं न वे'-त्यादिरूपा वा सर्वतः। (१५) शोकसंज्ञा(१५) मोहनीयकर्मोदयादिष्टवियोगजनिता विप्रलाप-वैमनस्यरूपा आत्मनः परिणतिः शोकसंज्ञा । सा चाक्रन्दनादिना ज्ञायते । (१६) धर्मसंज्ञा(१६) मोहनीयक्षयोपशमेन सर्वविरति-देशविरतिलक्षणा कर्मक्षयजनकसंज्ञा कहलाती है। जैसे-दान धर्म आदि के फल में संदेह होना । यह संज्ञा दो प्रकार की है-देश से और सर्व से । 'बाईस परीषहों के सहने का, ब्रह्मचर्य पालने का, केशलोच आदि क्लेश सहने का फल मिलेगा या नहीं ?' इस प्रकार का संशय होना देशतः विचिकित्सासंज्ञा है । 'वास्तव में परलोक है या नहीं, सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित जीव आदि तत्त्व यथार्थ है या नहीं ? ' इस प्रकार का संशय सर्वतः विचिकित्सासंज्ञा है। (१५) शोकसंज्ञामोहनीय कर्म के उदय से इष्टवियोग से उत्पन्न होनेवाली विलाप और विमनस्कतारूप आत्मा की परिणति शोकसंज्ञा कहलाती है । (१६) धर्मसंज्ञामोहनीय कर्म के क्षयोपशम से कर्मक्षयजनक सर्वविरति, तथा देशविरति વિચિકિત્સા સંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમકે -દાન ધર્મ આદિના ફલમાં સંદેહ થવે. આ संज्ञा से प्रारनी डाय छ-(१) देशथी, (२) सर्वथी, मावीश परिवहन सहन કરવું તે, બ્રહ્મચર્ય પાલન કરવું તે, કેશનું લોચન કરવું વગેરે કલેશ સહન કરવાનું ફલ મળશે કે નહિ?” આ પ્રકારને સંશય તે દેશથકી વિચિકિત્સાસંજ્ઞા છે. “વાસ્તવમાં પરલેક છે કે નહિ, સર્વજ્ઞદ્વારા પ્રરૂપિત જીવ આદિ તત્વે યથાર્થ છે કે નહિ” આ પ્રકારને સંશય તે સર્વથકી વિચિકિત્સાસંજ્ઞા છે. (१५) शासज्ञाમેહનીય કર્મના ઉદયને લંધ, ઈષ્ટવિયેગથી ઉત્પન્ન થવા વાલી, વિલાપ અને વિમનસ્કતા (વ્યાકુલ ચિત્ત) રૂ૫ આત્માની પરિણતિ શેકસંજ્ઞા કહેવાય છે. (१६) घासમોહનીયમના ક્ષપશમથી કર્મક્ષયજનક સર્વવિરતિ તથા દેશવિરતિરૂપ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ आचारागसूत्रे सर्वविरतिदेशविरतिरूपाऽऽत्मनः स्वभावपरिणतिः धर्मसंजा । सा जीवरक्षणादिव्यापारेण ज्ञायते । ज्ञानसंज्ञाभेदाःज्ञानसंज्ञा तु मतिश्रुतादिभेदात् पञ्चधा-(१) मतिज्ञानं, (२) श्रुतज्ञानं, (३) अवधिज्ञानं, (४) मनःपर्ययज्ञानं, केवलज्ञानं, चेति । (१) मतिज्ञानम्-- मननं मतिरववोधः। मतिश्चासौ ज्ञानं च मतिज्ञानम् । अत्र ज्ञानशब्दः सामान्यज्ञानवाचकः । इन्द्रिय-नोइन्द्रिजयन्यं ज्ञानं मतिर्ज्ञानविशेषः, अतः सामान्यविशेपयोनियोः सामानाधिकरण्यम् । रूप आत्मा की स्वभावपरिणति को धर्मसंज्ञा कहते है। जीवरक्षा आदि व्यापारों से उसका ज्ञान होता है। ज्ञानसंज्ञा के भेद मति, श्रुत आदिके भेद से ज्ञानसंज्ञा पांच प्रकार की है। वह इस प्रकार(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मन पर्ययज्ञान, और (५) केवलज्ञान । (१) मतिज्ञान मनन करना मति है, अर्थात् बोध । मतिरूप ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है । यहाँ ज्ञान शब्द सामान्य ज्ञान का वाचक है । 'इन्द्रिय और मनसे होनेवाला ज्ञान मति है । ऐसा अर्थ करने से सामान्य और विशेष ज्ञानों में समानाधिकरणता हो जाती है । આત્માની સ્વભાવપરિણતિને ધર્મસંજ્ઞા કહે છે. જીવરક્ષા આદિ વ્યાપારથી તેનું ज्ञान याय छे. જ્ઞાનસંજ્ઞાના ભેદ– મતિ, શ્રત આદિ ભેદ વડે-કરી જ્ઞાનસંજ્ઞા પાંચ પ્રકારની કહી છે તે આ अभाव छ-(१) भतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (3) मवधिज्ञान, (४) मन पयज्ञान, मने (५) वसज्ञान. (१) भतिज्ञानમનન કરવું તે મતિ છે. અર્થાત્ બેધ છે, મતિરૂપ જ્ઞાન તે મતિજ્ઞાન કહેવાય છે. અહિં જ્ઞાન શબ્દ સામાન્ય જ્ઞાનને વાચક છે. ઈન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન નાન તે મતિ છે એ અર્થ કરવાથી સામાન્ય અને વિશેષ જ્ઞાનમાં સમાનાધિકરણતા (સમાનપાનું) થઈ જાય છે. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.२ ज्ञान (५) १७७ (२) श्रुतज्ञानम्श्रुतं श्रुतिः श्रवणं ज्ञानविशेषः । तच्च कीदृशम् ? उच्यते-शब्दस्य श्रवणेन, भाषणादिना वा यज्ज्ञानमुत्पद्यते तदेव श्रुतम् । अत्र श्रुतशब्देन ज्ञानं गृह्यते, ज्ञानप्रभेदप्रकरणान्तःपातित्वात् । न तु श्रूयते इति व्युत्पत्त्या शब्दार्थकः श्रुतशब्दः । लब्धिरूपे मतिज्ञाने सति पश्चात्-श्रुतज्ञानमुत्पद्यते, न तु मतिज्ञानाभावे, अतो मतिज्ञानं कारणं श्रुतज्ञानस्य । ननु मतिज्ञानमेव श्रुतज्ञानं संपद्यते, यथा-मृत्तिकैव घटः, तन्तुरेव पटः, ___ (२) श्रुतज्ञान- श्रुति या श्रवण (सुनना), यह एक प्रकार का ज्ञान कहलाता है। शब्द के श्रवण से-या भाषण आदि से वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध के अनुसार जो पदार्थ का ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यहाँ 'श्रुत' शब्द से ज्ञान का ग्रहण किया जाता है, क्यों कि वह ज्ञान के प्रभेदों के अन्तर्गत है, किन्तु 'श्रूयते' इस व्युत्पत्ति से शब्दार्थक श्रुत-शब्द नहीं है । लब्धिरूप मतिज्ञान के होने पर बादमें श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, मतिज्ञान के अभाव में नहीं होता, अत एव मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है। शङ्का-मतिज्ञान ही श्रुतज्ञानरूप में परिणत हो जाता है, जैसे मिट्टी घटरूप में पलट जाती है, और तन्तु पट (वस्त्र) रूप में बदल जाते है, ऐसी स्थिति में भगवान्ने श्रुतज्ञान का पृथक् ग्रहण किस प्रयोजन से किया है ? (२) श्रुतज्ञानકૃતિ અથવા શ્રવણુ–સાંભળવારૂપ એક પ્રકારનું જ્ઞાન તે શ્રત-જ્ઞાન કહેવાય છે. શ્રુત-જ્ઞાન કેવું હોય છે? શબ્દના સાંભળવાથી અથવા ભાષણ આદિથી, વાચ–વાચક ભાવ સંબધ પ્રમાણે જે પદાર્થનું જ્ઞાન થાય છે, તેને શ્રુતજ્ઞાન કહે છે. અહિં કૃત–શબ્દથી જ્ઞાન ગ્રહણ કરી શકાય છે. કેમકે તે જ્ઞાનના પ્રત્યેની અંદર છે, પરંતુ “શ્રય” આ વ્યુત્પત્તિથી શબ્દાર્થક કૃત–શબ્દ નથી. લબ્ધિરૂપ મતિજ્ઞાન થયા પછી શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, મતિજ્ઞાનના અભાવમાં થતું નથી તે કારણથી મતિજ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાનનું કારણ છે. શંકા–મતિજ્ઞાન જ શ્રતજ્ઞાનરૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે, જેમકે માટી ઘટ રૂપમાં ફરી જાય છે. અને તેનું વસ્ત્રરૂપમાં બદલાઈ જાય છે. એવી સ્થિતિમાં ભગવાને શ્રુતજ્ઞાનનું જુદુ ગ્રહણ શું પ્રજનથી કર્યું? प्र' मा -२३ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ आचाराङ्गसूत्रे तर्हि श्रुतज्ञानस्य पृथगुपादानं भगवता किमर्थं कृतम् ? उच्यते दृष्टान्तद्वयमिदं विपमम्, यथा घटप्रादुर्भावे पिण्डाकारा मृत्तिका प्रणश्यति, पटोत्पत्तौ सत्यां तन्तुञ्जश्च तथा श्रुतज्ञाने समुपन्ने मतिज्ञानं न प्रणश्यति, उक्तञ्च भगवता - ' जत्थ मई तत्थ सुयं, जत्थ सुयं तत्थ मई' ( नन्दी . ) छाया- -यत्र मतिस्तत्र श्रुतं यत्र श्रुतं तत्र मतिः । श्रुतस्य सद्भावे मतेर्विद्यमानता भगवताऽभिहिता, तस्मादपेक्षाकारणमेव मतिज्ञानं श्रुतज्ञानस्येति मन्तव्यम्, तथा च - मतिज्ञानपूर्वकमिन्द्रियमनोजन्यमाप्तवचनानुसारि ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति निष्कर्ष: । इति । " श्रूयते यत् तच्छ्रुत' - मितिव्युत्पत्त्या श्रुतशब्देनाप्तवचनमपि गृह्यते समाधान- ये दोनों दृष्टान्त विषम हैं, जैसे-घट प्रकट होने पर पिण्डाकार मिट्टी मिट जाती है, और जैसे पटकी उत्पत्ति होने पर तन्तुओं का पुञ्ज नष्ट हो जाता है, उस प्रकार श्रुतज्ञान उत्पन्न होने पर मतिज्ञान नष्ट नहीं होता । भगवानने कहा है , “जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुनज्ञान है, जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान है । " श्रुतज्ञान के सद्भाव में मतिज्ञान का अस्तित्व भगवानने वतलाया है, अत एव मतिज्ञान श्रुतज्ञान का अपेक्षाकारण ही है, ऐसा मानना चाहिए । तात्पर्य यह निकलता है किमतिज्ञानपूर्वक इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होने वाला, तथा आप्तवाक्यका अनुसरण करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । 'जो सुनाजाय वह श्रुत है' इस व्युत्पत्ति के अनुसार 'श्रुत' शब्द से आप्त સમાધાન-એ અને દૃષ્ટાંત વિષમ છે, જેમકે ઘટ પ્રગટ થતાં પિંડાકાર માટી મટી જાય છે, જેમ વસ્ત્રની ઉત્પત્તિ થતાં તંતુના જથ્થા નાશ પામે છે, તે પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાન ઉત્પન્ન થતાં મતિજ્ઞાન નાશ પામતુ નથી. ભગવાને કહ્યું છે કેઃ— “જ્યાં મતિજ્ઞાન છે ત્યાં શ્રુતજ્ઞાન છે, જ્યાં શ્રુતજ્ઞાન છે ત્યાં મતિજ્ઞાન છે” શ્રુતજ્ઞાનના સદ્દભાવમાં મતિજ્ઞાનનુ અસ્તિત્વ ભગવાને બતાવ્યું છે. એ કારણથી મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાનનુ અપેક્ષાકારણ જ છે. એમ માનવુ જોઇએ, તેા તાત્પર્ય એ નીકળ્યું કે મતિજ્ઞાનપૂર્વક, ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉત્પન્ન થવાવાળું, તથા આપ્તવાકયનું અનુસરણ કરવાવાળું જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન છે. । જે સાંભળવામાં આવી શકે તે શ્રુત છે” આ વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે ‘શ્રુત' શબ્દથી Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. २ ज्ञान ( ५ ) १७९ 1 तस्मिन् पक्षे - श्रुतस्य आप्तवचनस्य ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति षष्ठीतत्पुरुषः । आप्तो- रागादिरहितः सर्वज्ञस्तस्य वचनम् - आप्तवचनम् । तदर्थाध्यवसायरूपं ज्ञानं श्रुतज्ञानमिति । अध्यवसायो निर्णयः । श्रुतज्ञानं प्रति शब्दस्य निमित्तकारणतया शब्देऽपि श्रुतव्यपदेशो भवति । ज्ञानभेदव्यवस्थायां तु श्रुतशब्दः श्रवणार्थवाचीत्यवधेयम् । (३) अवधिज्ञानम् - अवशब्दोऽधः शब्दार्थः, अव= अधः विस्तृतं वस्तु धीयते - ज्ञायतेऽनेनेत्यधिः । अवधिश्वासौ तज्ज्ञानं चेति विग्रहः । विस्तृतविषयकं ज्ञानमवधि वचन का भी ग्रहण होता है । उस पक्ष में श्रुत का अर्थात् आप्तवचन का ज्ञान श्रुतज्ञान है, ऐसा षष्ठीतत्पुरुष समास होगा । आप्त अर्थात् रागादिसे रहित सर्वज्ञ, उनका वचन आप्तवचन कहलाता है । अध्ययसाय अर्थात् निश्वय । ऐसा अध्यवसायरूप अर्थात् पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान श्रुतज्ञान होता है । शब्द, श्रुतज्ञान में निमित्त कारण है, इस लिथे शब्द भी त कहलाता है, किन्तु ज्ञान - भेदकी व्यवस्था में श्रुत-शब्द श्रवण अर्थ का वाचक है । (३) अवधिज्ञान 'अव का अर्थ है 'अघः' अर्थात् नीचे । तात्पर्य यह है कि जो ज्ञान अधोदिशा की वस्तु को विस्तार से जानता है वह अवधिज्ञान कहलाता है । अवधिरूप ज्ञान अवधिज्ञान है, अर्थात् विस्तृतविषयक ज्ञान । जैसे- अनुत्तरोपपातिक देव अवधिज्ञान આપ્તવચનનું ગ્રહણ થઇ શકે છે. તે પક્ષમાં શ્રુતનું અર્થાત્ આસવચનનું જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન છે. એ પ્રમાણે ષષ્ઠીતત્પુરૂષ સમાસ થશે. આપ્ત અર્થાત્ રાગાદિથી રહિત, સજ્ઞ, તેનું વચન તે આપ્તવચન કહેવાય છે અધ્યવસાય અર્થાત્ નિશ્ચય, એવા અધ્યવસાયરૂપ અર્થાત્ પદાર્થનું નિશ્ચયાત્મક જ્ઞાન તે શ્રુતજ્ઞાન કહેવાય છે. શબ્દ, શ્રુતજ્ઞાનમાં કારણ છે, એટલા માટે શબ્દ પણ શ્રુત કહેવાય છે, પરંતુ જ્ઞાન—ભેદની વ્યવસ્થામાં શ્રુત–શબ્દ સાંભળવું એ અને વાચક છે. (3) अवधिज्ञान 'भाव'नो अर्थ छे 'अध:' अर्थात् नीथे, तात्पर्य मे छे - ज्ञान अघो દિશાની વસ્તુઓને વિસ્તારથી જાણે છે, તે અવધજ્ઞાન કહેવાય છે. અવિધરૂપ જ્ઞાન અવધિજ્ઞાન છે, અર્થાત્ વિસ્તૃતવિષયક જ્ઞાન, જેમકે:-અનુત્તરોષપાતિક દેવ વિધ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० आचारागसूत्रे ज्ञानम् । यथा-अनुत्तरोपपातिका देवा अवधिज्ञानवलेन भगवन्तमापृच्छय जीवादितत्त्वस्वरूपं निर्धारयन्ति । यद्वा-'अवधिना ज्ञानम् ' इति तृतीयासमासः । अवधिर्मर्यादा-'रूपिद्रव्याण्येव विषयीकरोति नेतराणी'-तिव्यवस्थारूपा, तथा चायमर्थः-अरूपिद्रव्यपरिहारेण रूपिद्रव्यमात्रविषयकं ज्ञानमवधिज्ञानमिति । यद्वा-अधोऽधोऽधिकं पश्यति येन तदवधिज्ञानम् । तच्च चतुर्गतिवर्तिनां जीवानामिन्द्रियमनोनिरपेक्षं प्रतिविशिष्टक्षयोपशमनिमित्तकं रूपिद्रव्यसाक्षात्कारजनकं भवति । एतस्य ज्ञानस्य देव-मनुष्य-तिर्यङ्-नारका अधिकारिणः । के बल से भगवान् से प्रश्न पूछ कर जीवादितत्त्वो का स्वरूप निश्चित कर लेते है । अथवा अवधि के साथ जो ज्ञान हो वह अवधिज्ञान कहलाता है। अवधिका अर्थ है मर्यादा । अवविज्ञान, रूपी द्रव्यों को ही जानता है, अरूपी को नहीं, वह व्यवस्था ही यहाँ मर्यादा समझनी चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि-अरूपी द्रव्यों को छोडकर केवल रूपी द्रव्यों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। अथवा-जिस ज्ञान के द्वारा नीचे नीचे अधिक जाना जाय वह अवधिज्ञान है। यह ज्ञान चारों गतियों के जीवों को हो सकता है । यह, सिर्फ रूपी पदार्थों को साक्षात् जानता है, और विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होता है। देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारकी, सभी इस ज्ञान के अविकारी है, अर्थात् यह चारों को हो सकता है । જ્ઞાનના બળથી ભગવાનને પ્રશ્ન પૂછીને જીવાદિ તને નિશ્ચય કરી લે છે. અથવાઅવધિની સાથે જે જ્ઞાન થાય છે તે અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે. અવધિનો અર્થ છે મર્યાદા. અવધિજ્ઞાન, રૂપી દ્રવ્યને જ જાણે છે, અરૂપી દ્રવ્યોને જાણતું નથી, આ વ્યવસ્થા જ અહિં મર્યાદા સમજવી જોઈએ. તાત્પર્ય એ થયું કે અરૂપી-દ્રવ્યોને છેડીને કેવળ રૂપી દ્રવ્યોને જાણવાવાળું જ્ઞાન તે અવધિજ્ઞાન કહેવાય છે. અથવા જે જ્ઞાન દ્વારા નીચે-નીચે વિશેષ જાણવામાં આવે, તે અવધિજ્ઞાન છે. તે જ્ઞાન ચાર ગતિઓના જીવોને થઈ શકે છે, માત્ર રૂપી પદાર્થોને સાક્ષાત્ જાણે છે, અને વિશિષ્ટ પશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, દેવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ અને નારકી, આ સર્વ તે જ્ઞાનના અધિકારી છે, અર્થાત્ એ ચારેયને અવધિજ્ઞાન થઈ શકે છે. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. २ ज्ञान (५) (४) मन:पर्ययज्ञानम् - पर्ययनं - सर्वतः परिच्छेदनम् - अवबोधनं पर्ययः । मनसः पर्ययो मनःपर्ययः, मनोविषयकः, स चासौ ज्ञानं च मन:पर्ययज्ञानम् । यद्वा मनःपर्ययस्य ज्ञानं मन:पर्ययज्ञानम् । मनो द्विविधं द्रव्यभावभेदात् । तत्र द्रव्यमनो मनोवर्गणाः । संज्ञिना मनोवर्गणा गृहीताः सत्यो मन्यमानाश्चिन्त्यमाना भावमनोऽभिधीयते । १८१ तह भावमनः परिगृह्यते । भावमनसः पर्ययाश्च परेषां सार्धतृतीयद्वीपा - भ्यन्तरवर्ति संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां चिन्त्यमानविषयाध्यवसायरूपाः । यथा-अन्यः (४) मन:पर्ययज्ञान - पर्यय अर्थात् जानना, मन को सर्वथा जानना मन:पर्ययज्ञान है, अर्थात् मनोविषयक, सम्पूर्ण ज्ञान मनःपर्ययज्ञान कहलाता है । अथवा - मन:पर्यय (मनके पर्यवों) का ज्ञान मन:पर्ययज्ञान कहलाता है । मन दो प्रकार का है— द्रव्य - मन और भाव - मन । मनोवर्गणाओं को द्रव्यमन कहते हैं । संज्ञो जीव द्वारा ग्रहण की हुई मनोवर्गणाएँ जब चिन्तन की जाती है वे भावमन कहलाती है । 1 मन:पर्यय ज्ञान के प्रकरण में भावमन ही लिया जाता है । अढाई द्वीप के अन्तर्गत संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के द्वारा चिन्तन किये जाने वाले, विषयाध्यवसायरूप पर्ययों को मन:पर्यय ज्ञान जानता है । जैसे - कोई दूसरा जीव ऐसा विचार करे-आत्मा कैसा (४) भनःपर्यय ज्ञान પય અર્થાત્ જાણવું, મનને જાણવું તે મન:પર્યય જ્ઞાન છે. અર્થાત્–મન વિષયકનું સંપૂર્ણ જ્ઞાન મન:પર્યંચ કહેવાય છે. અથવા મન:પર્યાંયનું જ્ઞાન તે મનઃપચજ્ઞાન કહેવાય છે. भन मे अारनां छे-(१) द्रव्यभन भने (२) भावभन, भनोवर्ग लाभोने द्रव्य“મન કહે છે, અને સત્તી જીવ દ્વારા ગ્ર ુણુ કરાએલી મનેાવાઓનુ જ્યારે ચિંતન કરવામાં આવે છે તેને ભાવમન કહે છે. મન:પર્યંચ જ્ઞાનના પ્રકરણમાં ભાવમન જ લેવામાં આવે છે. અઢી દ્વીપના સ'ની પંચેન્દ્રિય જીવેા દ્વારા ચિન્તન કરવામાં આવતા વિષયાધ્યવસાયરૂપ પચાને મન:પર્યંય જ્ઞાન જાણે છે. જેમ કે--કાઈ ખીજો જીવ એવા વિચાર કરે-આત્મા કેવા Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૨૮૨ आचारागसूत्रे कश्चिदेवं चिन्तयेत्-'आत्मा कीदृशः ? अरूपी, चेतनास्वभावः, कर्मणां कर्ता, तत्फलभोक्ता चेत्यादयो ये ज्ञानविशेषरूपास्तस्यात्मनः परिणामास्तेषां यद् ज्ञानं तन्मनःपर्ययज्ञानम् । मनःपर्ययज्ञानी च मनःपर्ययानेव प्रत्यक्षीकरोति न तु वाह्य वस्तु । न च'मनःपर्ययज्ञानिना बाह्य वस्तु न ज्ञायते' इति वाच्यम् , अनुमानतस्तस्य वाह्यवस्तुज्ञानसद्भावात् । यथा-विशिष्टक्षायोपशमिकमतिभाशाली प्रेक्षावान् प्रशान्तः कस्यचिदाकारेभित्तादिकं विलोक्य तदीयमनोगतं भावं सामर्थ्य चानुमानतो विजानाति। है ? अरूपी, चेतनास्वरूप, कर्मों का कर्ता, कर्मफलभोक्ता, इत्यादि आत्मा के जो ज्ञानविशेषरूप परिणाम है, उन्हें जानना मनःपर्य यज्ञान है । मनःपर्ययज्ञानी जीव, मन के पर्यायों को ही प्रत्यक्ष करता है, वाह्य वस्तु को नहीं । परन्तु यह कहना ठीक नहीं है कि-मनःपर्ययज्ञानी बाह्य वस्तुओं को जानता ही नहीं है। मनःपर्ययज्ञानी को अनुमान से बाह्य पदार्थों का ज्ञान होता है। जैसे-विशिष्टक्षयोपशमजन्य प्रतिभा वाला वुद्धिमान् पुरुष किसी के इशारे या चेष्टा को देखकर उसके मनका भाव और उसका सामर्थ्य अनुमान से जान लेता है, इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी दूसरे के भावरूप मन को पूर्णतया प्रत्यक्ष करके अनुमान से बाह्य वस्तु को जान लेता है कि-'इसने अमुक वस्तु का विचार किया है। बाह्य पदार्थों का विचार करते समय उसी पदार्थ के आकार का मन हो जाता है। છે? અપી, ચેતના–સ્વરૂપ, કર્મોને કર્તા, કર્મફલકતા, ઈત્યાદિ આત્માના જ્ઞાન વિશેષરૂપ જે પરિણામ છે, તેને જાણવા તે મનપય જ્ઞાન છે. મન પર્યય જ્ઞાની જવ મનના પર્યાને જ પ્રત્યક્ષ કરે છે બહારની વસ્તુઓને નહિ, પરંતુ એમ કહેવું ઠીક નથી કેમપર્યયજ્ઞાની બહારની વસ્તુઓને જાણતા જ નથી, મન પર્યયજ્ઞાનીઓને અનુમાનથી બહારની વસ્તુઓનું જ્ઞાન હોય છે. જેમકે – વિશિષ્ટપશમ જન્ય પ્રતિભાવાળા બુદ્ધિમાન પુરૂષ કેઈના ઈશારાથી અથવા ચેષ્ટાને જોઈને તેના મનના ભાવ અને તેનું સામર્થ્ય અનુમાનથી જાણી લે છે, એ પ્રમાણે મન:પર્યયજ્ઞાની બીજાના ભાવ૫ મનને પૂર્ણ રૂપમાં પ્રત્યક્ષ કરીને અનુમાનથી બારની વસ્તુઓને જાણી લે છે કે –“તેણે અમુક વસ્તુને વિચાર કર્યો છે” બહારના પદાર્થોને વિચાર કરવાના સમયે તેજ પદાર્થના આકારરૂપ મન થઈ જાય છે. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.२. ज्ञान (५) तथा मनःपर्ययज्ञानी कस्यचिद् भावरूपं मनः सर्वतोभावेन प्रत्यक्षीकृत्यानुमानेन बाह्य विषयमवबुध्यते-' इदं वस्त्वनेन चिन्त्यते' इति । बाह्यपदार्थचिन्तनसमये हि वाह्यपदार्थाकारसदृशाकारं मनो भवति । इदं मनःपर्ययज्ञानं रूपिविषयत्व-क्षायोपशमिकत्व-प्रत्यक्षत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानाद् भिन्नं, स्वाम्यादिभेदात् । तथाहि-अवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि भवति, तद् द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषय, क्षेत्रतो लोकविषयम् , कालतोऽतीतानागतासंख्यातोत्सपिण्यवसर्पिणीविषयम् , भावतः सकलरूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसंख्यातपर्यायविषयम् । ___ मनःपर्ययज्ञानं तु प्रमादरहितस्याऽऽमर्षांद्यन्यतमलब्धिधारिणः संयतस्य भवति । द्रव्यतः-संज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यविषय, क्षेत्रतः-समयक्षेत्रमात्रविषयम् ___मनःपर्ययज्ञान अवधिज्ञान की तरह रूपी पदार्थों को विषय करता है; क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, किन्तु अवधिज्ञान से भिन्न है, क्यों कि स्वामी आदिके भेद से दोनों में भेद है, वह इस प्रकार-अवधिज्ञान अविरतसम्यग्दृष्टि को भी होता है, वह द्रव्यतः समस्त रूपी द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र से समस्त लोक को जानता है, काल से असंख्यात भूत और भावी उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी को विषय करता है, भाव से समस्त रूपी द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य की असख्यात पर्यायों को जानता है। मनःपर्ययज्ञान अप्रमत्त संयत को तथा आमर्ष आदि किसी लब्धि के धारक को ही होता है । वह द्रव्य से संज्ञो पञ्चेन्द्रिय के मनोद्रव्य को, क्षेत्र से समयक्षेत्रमात्र को મન:પર્યયજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન પ્રમાણે રૂપી પદાર્થોને વિષય કરે છે-જાણે છે મન:પર્યયજ્ઞાન ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ અવધિજ્ઞાનથી તે ભિન્ન છે, કેમકે સ્વામી આદિના ભેદથી તે બંનેમાં ભેદ છે. તે આ પ્રમાણે-અવધિજ્ઞાન અવિરત સમ્યગદષ્ટિને પણ થાય છે. તે દ્રવ્યથકી સર્વ રૂપી જીવેને જાણે છે, ક્ષેત્રથકી સમસ્ત લેકને જાણે છે, કાલથકી અસંખ્યાત ભૂત અને ભાવી ઉત્સપિણી અવસર્પિણીને જાણી શકે છે, ભાવથી સમસ્ત રૂપી દ્રામાંથી પ્રત્યેક દ્રવ્યની અસંખ્યાત પર્યાને જાણે છે. મનપર્યયજ્ઞાન અપ્રમત્ત સંયતને (મુનિને) તથા આમષ આદિ કેઈ લબ્ધિના ધારકને જ થાય છે. તે દ્રવ્યથી સંજ્ઞી પંચેકિન્યનાં મન દ્રવ્યને, ક્ષેત્રથકી સમયક્ષેત્ર Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ आचाराङ्गसूत्रे कालतोऽतीतानागतपल्योपमासंख्यातभागविषयम् , भावतो मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायविषयकम् । (५) केवलज्ञानम् - केवलम्-एकमसहायं ज्ञानावरणीयकर्मात्यन्तक्षयसमुद्भूतम्-अतीताना गतवर्तमानयथावस्थितसकलद्रव्यगुणपर्ययविषयकमप्रतिपाति ज्ञानं केवलज्ञानम् । अत्र ग्रन्थविस्तरभिया विरमामः। ज्ञानप्रसङ्गेन मत्यादिभेदपञ्चकं प्रदर्शितं, प्रकृते तु मतिज्ञानस्यैवाधिकारः । ( अढाई द्वीप को), काल से पल्योपम के असंख्यातवें भाग-भूत-भविष्यत् कालको और भाव से मनोद्रव्य की अनन्त पर्यायों को विषय करता है। (५) केवलज्ञानकेवलज्ञान, केवल अर्थात् एक ही है। उस के साथ दूसरी ज्ञान नहीं होता। वह असहाय है अर्थात् इन्द्रिय मन आदि किसी की सहायता की उसे अपेक्षा नहीं है । वह ज्ञानावरण कर्म के आत्यन्तिक क्षय से उत्पन्न होता है । अतीत, अनागत, वर्तमान काल के समस्त द्रव्यों गुणों और पर्यायों को यथार्थरूप में जानता है, अप्रतिपाती है, अर्थात् एकवार उत्पन्न हो कर कभी नष्ट नहीं होता। ऐसा ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। ग्रन्थविस्तार के भय से अधिक विस्तार नहीं करते । ज्ञान का प्रकरण होने से मतिज्ञान आदि पांच भेद बतलाये जा चुके हैं । માત્રને (અઢી દ્વિીપને) કાલથી પોપમના અસંખ્યાતમા ભાગે ભૂત-ભવિષ્ય કાલને અને ભાવથી મનદ્રવ્યની અનંત પર્યાને જાણે છે. (५) उसज्ञानકેવલજ્ઞાન, કેવલ અર્થાત એકજ છે. તેની સાથે બીજું જ્ઞાન થતું નથી, તે અસહાય છે, અર્થાત્ ઇન્દ્રિય, મન આદિ કોઈની પણ સહાયતાની તેને અપેક્ષા નથી. અને તે કેવલજ્ઞાન જ્ઞાનાવરણીય કર્મના આત્યંતિક ક્ષયથી ઉત્પન્ન થાય છે. કેવલજ્ઞાન ભૂતકાલ, ભવિષ્યકાલ અને વર્તમાન કાલના સમસ્ત દ્રવ્ય, ગુણો અને પર્યાને યથાર્થરૂપથી જાણે છે. તે અપ્રતિપાતી છે, અર્થાત્ એક વાર ઉત્પન્ન થઈને ફરી કઈ પણ વખત નાશ પામતું નથી, એવું જે જ્ઞાન તે કેવલજ્ઞાન કહેવાય છે. ગ્રંથવિસ્તારના ભયથી અધિક વિસ્તાર અહિં કરતા નથી. જ્ઞાનનું પ્રકરણ હોવાથી મતિજ્ઞાન આદિ પાંચ ભેદ બતાવ્યા છે. અહિં Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.२. मतिज्ञानम् (९) १८५ मविज्ञानं चानेकविधम् , ईहादिभेदात् । उक्तञ्च भगवता"ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा। सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणिबोहियं " ॥ (नन्दी मति ज्ञानगाथा २७) छाया-ईहा, अपोहः विमर्शः मार्गणा च गवेषणा। संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्वम् आभिनिबोधिकम् ॥ 'आभिणियोहियं' इत्यनेन त्रिकालविषयकं मतिज्ञानमुच्यते तथा-चोक्तं भगवता-"पंचविहं णाणं पण्णत्तं। तंजहा-(१) आभिणिवोहियणाणं, (२) सुयणाणं, (३) ओहिणाण (४) मणपज्जवणाणं (५) केवलणाणं । इति ( नन्दी, १) (१) ईहाईहाऽपोहादयो मतिज्ञानप्रभेदाः। तत्र-ईहनम्-ईहा। नामजात्यादियहाँ मतिज्ञान का ही प्रसङ्ग है। मतिज्ञान, ईहा आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। . भगवान्ने कहा है : " ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा, यह सब आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान) है" (नन्दीसूत्र मतिज्ञान गाथा २७) आमिनिबोधिक ज्ञान का अर्थ है-त्रिकालविषयक मतिज्ञान । भगवान्ने कहा है:- "ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-(१) आभिनिबोधिकज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान और (५) केवलज्ञान" (नन्दी-सू०१) (१) ईहाइहा अपोह आदि मतिज्ञान के भेद हैं। नाम और जाति आदि की विशेष મતિજ્ઞાનને જ પ્રસંગ છે, મતિજ્ઞાન ઈહા આદિ ભેદથી અનેક પ્રકારનું છે. ભગવાને युछे :-डा, मपाड, विभश, भार्ग, गवेषा, संज्ञा, स्मृति, भति, मने પ્રજ્ઞા, એ સર્વ આભિનિબંધક જ્ઞાન–મતિજ્ઞાન છે (નંદીસૂત્ર મતિજ્ઞાનગાથા ૨૭) આભિનિધિક જ્ઞાનનો અર્થ છે-ત્રિકાલવિષયક મતિજ્ઞાન, ભગવાને કહ્યું છે કે – "ज्ञान पाय प्रा२नु छ, त मा प्रमाणे (१) मानिनिमाधिज्ञान (२) श्रुतज्ञान, (3) अवधिज्ञान (४) भन:पयज्ञान मने पसज्ञान (नन्ही सू०१) (१) हाઈહિ તથા અપહ વગેરે મતિજ્ઞાનના ભેદ છે. નામ અને જાતિ આદિની વિશેષ प्र. आ.-२४ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे १८६ यथा विशेषकल्पना रहित सामान्यज्ञानोत्तरं विशेषनिश्श्रयार्थं विचारणा- ईहा । स्पर्शनेद्रियेण स्पर्शसामान्ये ज्ञांते सति, तदनु कीदृशोऽयं स्पर्शः १, कस्यायं स्पर्शः ?, किमयं कमलनालस्पर्शः उताहो भुजङ्गमस्पर्श: ? इति गाढान्धकारे चक्षुष्मaise विचारणा वर्तते । (२) अपोह: अपोहनम् -अपोहः निश्चयः । कोऽयमपोहः ? उच्यते - मतिज्ञानस्यावग्रहादि - भेदचतुष्टये तृतीयभेदो योऽपायः स एवापोहशब्देनोच्यते । अवग्रहादिभेदचतुष्टयं च नन्दीमुत्रे भगवतैव प्रदर्शितमस्ति । कल्पना से रहित सामान्यज्ञान के पश्चात् होने वाली विचारणा ईहा कहलाती है । जैसे- स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा स्पर्शका सामान्य ज्ञान होने के पश्चात् गाढ अन्धकार होने पर चक्षुवाले को भी यह विचारणा होती है कि यह स्पर्श कैसा है ? किसका यह ' स्पर्श है ? यह कमल के नाल का स्पर्श है या सर्प स्पर्श है ?, इस प्रकार की विचारणा को ईहा कहते हैं |१| का (२) अपोह- । अपोह का अर्थ है - निश्चय । अपोह क्या है ? कहते हैं मतिज्ञान के अवग्रह आदि चार भेदों में तीसरा भेद जो अपाय है उसी को यहाँ 'अपोह' शब्द द्वारा कहा है | अवग्रह आदि चार भेद नन्दीसूत्र में भगवान् ने कहे हैं । કલ્પનાથી રહિત, સામાન્ય જ્ઞાનની પછી થવા વાળી વિચારણાને ઇહા કહે છે, જેમકેસ્પર્શનેંદ્રિયના દ્વારા સ્પર્શનું સામાન્ય જ્ઞાન' થયા પછી ગાઢ અંધકાર થાય ત્યારે નેત્રવાળાને પણ એ વિચાર થાય છે કે આ સ્પર્શ કેવા છે ? આ કોણે સ્પર્શ કર્યાં છે. શેના સ્પર્શે છે ?, આ કમલના નાળના સ્પર્શ છે કે સપના સ્પર્શે છે?, આ પ્રકારની વિચારણા તેને ઈહા કહે છે. (2) 24916 અપેાહુના અર્થ છે નિશ્ચય, અપેાહ એ શું છે ? કહે છે કે મતિજ્ઞાનના અવમત આદિ ચાર ભેદો પૈકીના ત્રીજે ભેદ જે અપાય છે, તેને અહિ કહેલ છે. અવગ્રહ આદિ ચાર ભેદ નદીસૂત્રમાં ભગવાને કહેલા અપેાહ ' શબ્દથી છે. ८ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ५.२. मतिज्ञानम् (९) सामान्यज्ञानोत्तरं कालं विशेषनिश्चयार्थ विचारणायां प्रवृत्तायां बदनु गुणदोषविचारणाजनितो निश्चयः, यथा-'किमयं कमलनालस्पर्शः, आहोस्विद् भुजङ्गमस्पर्शः ?' इति विचारणायां 'मृणालस्यैवायं स्पर्शः; अत्यन्तशीतादिगुणवत्त्वादित्यस्यैवाय'-मिति निश्चयोऽन्यं भुजङ्गमस्पर्शमपनुदति, तस्मादयं निश्चयोऽपोहोऽपनोदश्चेति निगद्यते । (३) मीमांसामीमांसा-मातुमिच्छा, मातुं-जीवादिस्वरूपं ज्ञातुमिच्छा। (४) मार्गणाजीवादिपदार्थस्य यथावस्थितस्वरूपान्वेषणं मार्गणा।। सामान्य ज्ञान के पश्चात् विशेष का निश्चय करने के लिए विचारणा प्रवृत्त होने पर पश्चात् गुण-दोष की विचारणा से उत्पन्न निश्चय अपोह कहलाता है। यथा'यह कमलनालका स्पर्श है या सर्प का स्पर्श है ?' इस प्रकार की विचारणा होने पर “यह कमलनाल का ही स्पर्श है, क्यों कि इस में अत्यन्त शीतलता है। इस प्रकार का निश्चय होना, और यह निश्चय अन्य का अर्थात् सर्प के स्पर्श का निराकरण करदेता है, अत एव यह निश्चय अपोह, अपाय और अपनोद भी कहलाता है । (३) विमर्शजीव आदि के स्वरूप को जानने की इच्छा विमर्श है। (४) मार्गणाजीव आदि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का अन्वेषण करना मार्गगा है । સામાન્ય જ્ઞાન થયા પછી વિશેષને નિશ્ચય કરવા માટે વિચારણા થતાં પછી તેને ગુણ–દેષની વિચારણાથી ઉત્પન્ન નિશ્ચય તેને અપહ કહે છે, જેમ-“આ કમલને નાળને સ્પર્શ છે કે સપને સ્પર્શ છે ? ” આ પ્રકારની વિચારણા થયા પછી નક્કી કરવામાં આવે કે “આ સ્પર્શ કમલના નાળને જ છે, કેમકે તેમાં અત્યંત શીતલતા છે” એ પ્રકારને નિશ્ચય થાય છે અને એ નિશ્ચય બીજાને અર્થાત્ સપના સ્પર્શને નિરાકરણ કરી દે છે. તેથી કરી આ નિશ્ચય તે અપહ, અપાય અને અપનેદ પણ કહેવાય છે. (3) विभशજીવ આદિના સ્વરૂપને જાણવાની ઈચ્છા તે વિમર્શ છે. (४) भागજીવ આદિ પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનું અનવેષણ કરવું તે માર્ગણુ છે. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे (५) गवेपणा मार्गणानन्तरमनुपलभ्यस्य जीवादिपदार्थस्य सर्वतः परिभावनं - निर्णयाभिमुखविचारपरायणता गवेषणा । १८८ (६) संज्ञा - इन्द्रियजन्यज्ञानविषयीभूतस्यार्थस्य पुनर्दर्शनेन " स एवाय " - मिति जायमानं ज्ञानं संज्ञा । यथा - " स एवायमाहारकलब्धिमान् महात्मा, यो मया कानने दृष्टः " । (७) स्मृतिः अनुभूतार्थविषयकं ज्ञानं स्मृतिः । अत्रोदाहारणं यथा - इदं ज्ञानमतीतविषयकं भवति । (५) गवेषणा - मार्गणा के पश्चात् उपलब्ध न होने वाला जीवादि पदार्थों का पूरी तरह विचार करना अर्थात् निर्णय के अभिमुख विचारपरायणता गपेपणा है । (६) संज्ञा 4 इन्द्रियजन्य ज्ञानके विषयभूत पदार्थ का पुन दर्शन होने पर 'यह वही है' इस प्रकार से उत्पन्न होने वाला ज्ञान संज्ञा कहलाता है । जैसे- "यह वही आहारकलब्धि वाले महात्मा है जिन्हें मैने वनमें देखा था" । (७) स्मृति - पहले अनुभव किये हुए पदार्थ लो विषय करनेवाला ज्ञान स्मृति कहलाता है । स्मृतिज्ञान अतीतविषयक ही होता है। यहां एक उदाहरण है, जैसे (५) गवेषणा માણાની પછી ઉપલબ્ધ નહિ થવા વાળા જીવાદિ પદાર્થીને પૂરી રીતે વિચાર કરવા અર્થાત્ નિર્ણાયને અભિમુખ–વિચાર પરાયણતાને ગવેષણા કહે છે. (१) संज्ञा ઈન્દ્રિયજન્ય જ્ઞાનના વિષયભૂત પદાર્થાનુ ફરી દર્શન થતાં “ આ તેજ છે.” એ પ્રકારે ઉત્પન્ન થવા વાળું જ્ઞાન તે સંજ્ઞા કહેવાય છે. જેમ આ તેજ આહારકલબ્ધિવાળા મહાત્મા છે જેને મે વનમાં જોયા હતા,” (0) 272 (12 પ્રથમ અનુભવ કરેલા પદાર્થના વિષય કરનારૂ જ્ઞાન સ્મૃતિ કહેવાય છે. સ્મૃતિ-જ્ઞાન અતીત વિષયનું જ. (વીતી ગયેલા પ્રસ ંગનુ જ) હાય છે અહીં એક ઉદહરણ છે, જેમકે Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.२. मतिज्ञानम् (९) चेल्लणा देवी हेमन्ते भगवत्समवसरणतः प्रत्यागच्छन्ती मार्गे महारण्ये स्वप्रतिज्ञाऽविनं जिनकल्पिनं कमपि मुनि ध्यानावस्थमालोक्य भक्त्या तदर्शनवन्दनादिकं विधाय स्वप्रासादमागता रात्रौ लुप्ता । निद्रावस्थायां तस्याः पाणिरावरणवस्त्राद् वहिभूतः शीतेन शिथिलीवभूव । अथाऽसौ जागरिता जडीभूतं स्वहस्तं विलोक्य शीतादिपरिषहपरिंगतं महारण्यस्थं मुनि स्मृतवती " कथमहो असौ मुनिरिदानी बहिर्महावने शीतपरिभूतो भविष्यति"। इति कर्मणां महानिर्जरां महापर्यवसानं चकार । चेलना देवी हेमन्त ऋतु में भगवान् के समवसरणसे लौटती हुई, मार्ग में महा-अरण्य में, अपनी प्रतिज्ञा पालने वाले किन्ही जिनकल्पी मुनि को ध्यान में स्थित देखकर, भक्तिपूर्वक उन का दर्शन वन्दन आदि कर के अपने महल में आई और रात्रि में सो गई। निद्रावस्था में उस का हाथ ओढने के वस्त्र से बाहर निकल गया और ठंड के कारण ठर गया। रानी की नींद खुल गई । उसने अपने हाथ को जडीभूत देख कर शीत परिषहों से आक्रान्त, महा-अरण्यवासी मुनिका स्मरण किया। कहने लगी-अहो! महावन में, नगर के बाहर वह मुनि इस समय शीत से कैसा कष्ट पा रहे होंगे , ऐसा सोच कर उसने कर्म की महानिर्जरा की । ચેલના દેવી હેમન્ત ઋતુમાં ભગવાનના સમવસરણમાંથી પાછી ફરે ત્યારે માર્ગમાં મહાવનમાં, પોતાની પ્રતિજ્ઞા પાલનારા, કેઈ એક જિનકલ્પી મુનિને ધ્યાનમાં સ્થિત જોઈને, ભક્તિપૂર્વક તેના દર્શન, વંદન વગેરે કરીને પિતાના મહેલમાં આવી અને રાત્રીએ સુઈ ગઈ. નિદ્રાવસ્થામાં તેને એક હાથ એઢવાના વસ્ત્રમાંથી બહાર રહી ગયે, અને ઠંડી હોવાના કારણે તે હાથ કરી ગયે, રાણની નિદ્રા ઉડી ગઈ, ત્યારે તેણે પિતાના હાથને ઠરી જવાથી જડ જે જોઈને શીત આદિ પરીષહાથી मान्त, महा-पनवासी मुनि सासरी माव्या; मने ४९ सा -भाडे ! મહાવનમાં નગર બહાર તે મુનિ આ સમયમાં શીતથી કેવું કષ્ટ પામતા હશે , એવો વિચાર કરીને કમની મહાનિર્જરા કરી. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९6 आचारागसूत्रे (८) मतिःवर्तमानविषयकं ज्ञानं मतिः । यथा-'मुनिः संयमार्थ भिक्षामटति' । (९) प्रज्ञाविशिष्टक्षयोपशमजन्यं प्रभूतपदार्थवति यथावस्थितस्वरूपनिर्णयात्मकं ज्ञानं प्रज्ञा। ____ आभिनिवोधिकस्वरूपस्य मतिज्ञानस्य प्रभेदा उक्ताः । " इहैकेषां नो संज्ञा भवती"-त्यत्र संज्ञाशब्देन मविज्ञानान्तर्गतं स्मृतिरूपं विशिष्टं ज्ञानं भगवता नोशब्दनिर्देशेन प्रतिषेधितम् , न तु सर्वविधसंज्ञारूपं सामान्य ज्ञानम् । (८) मतिवर्तमानविषयक ज्ञान मति कहलाता है। जैसे- मुनि संयम पालने के अर्थ भिक्षाके लिए भ्रमण करता है।' (९) प्रज्ञाविशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला और प्रभूत पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का निर्णयात्मक ज्ञान प्रज्ञा है। आभिनिवोधिकरूप मतिज्ञान के प्रभेद कहे गये। 'कितनेक जीवोंको सज्ञा नहीं होती' यही संज्ञा शब्द से मतिज्ञान के अन्तर्गत स्मृतिरूप विशिष्ट ज्ञान का भगवान्ने 'नो' शब्द का निर्देश करके निषेध किया है, किन्तु सब प्रकार की संज्ञारूप सामान्य ज्ञानका निपेव नहीं किया है। (८) भतिવર્તમાન વિષયનું જ્ઞાન તે મતિ કહેવાય છે, જેમ “મુનિ સંયમ પાલન માટે ભિક્ષા લેવા ભ્રમણ કરે છે.” (e) प्रज्ञाવિશિષ્ટ પશમથી ઉત્પન્ન થનારૂં પ્રભૂત પદાર્થોના યથાર્થ સ્વરૂપનુ નિર્ણયાત્મક જ્ઞાન તે પ્રજ્ઞા છે. આભિનિધિકપ મતિજ્ઞાનના પ્રભેદ કહેવાયા. કેટલાક છોને સંજ્ઞા નથી થતીઅહિં સંજ્ઞા શબ્દથી મતિજ્ઞાનના અંતગર્ત સ્મૃતિરૂ૫ વિશિષ્ટ જ્ઞાનને ભગવાન ને શબ્દનો નિર્દેશ કરીને નિષેધ કર્યો છે પરંતુ સર્વ પ્રકારની સંજ્ઞાપ સામાન્ય જ્ઞાનને નિષેધ કર્યો નથી. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.२. मतिज्ञानम् (९) ___ १९१ सा संज्ञा किस्वरूपा, या न भवत्येकेषाम् ? इत्याकाङ्क्षायामाह-" तंजहा" इति । सा यथा ___ " पुरथिमाओ वा दिसासो" इत्यारभ्य-"अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि" इत्यन्तेनेदमुक्तं भवति-वर्तमानजन्मनः प्राक् कम्यां दिशि ममावस्थानमासीदिति स्वगत्यागत्यवधिविशिष्टपूर्वादिषड्दिशाज्ञानं नास्ति । संज्ञिनामपि कियतांचित् । यथा-मदिरामदपूर्णितनयनो मूर्छितः पथि पतितः स्वजनादिना समुत्थाप्य गृहमानीयते । अथ मूर्छापगमेऽप्यसौ न जानाति-काहं पतितः ?, कथमुत्थापितः ?, केन कया रीत्याऽत्र समानीतोऽस्मी ?-ति । तद्वद् विशिष्टसंज्ञाया वह संज्ञा किस प्रकारकी है जो किन्हीं २ जीवों को नहीं होती है। इस प्रकार की जिज्ञासा होने पर कहा गया है-तंजहा-अर्थात् वह इस प्रकार . 'पुरस्थिमाओवा वा दिशाओ' से लेकर 'अहोदिशाओवा आगो अहमंसि' तक का आशय यह है कि इस वर्तमान जन्म से पहले मैं कहाँ रहता था , इस प्रकारका अपनी गति-आगति से युक्त छह दिशाओं का ज्ञान कितनेक संज्ञी जीवोंको भी नहीं होता । जैसे-मदिरा के मद से छका हुआ, मूर्छित और रास्ते में पडा हुआ पुरुष स्वजन आदि के द्वारा उठाकर घर लाया जाता है, किन्तु मूर्छा हट जाने पर भी उसे ज्ञान नहीं होता कि-मै कहाँ गिरा था ?, किस प्रकार उठाया गया ?, कौन किस प्रकार मुझे यहाँ लाया , इसी प्रकार विशिष्ट संज्ञा के अभाव के कारण जीव તે સંજ્ઞા કેવા પ્રકારની છે, જે કઈ–કેઈ ને નથી હોતી , આ પ્રમાણે ज्ञासा थवाथी ४ छ -'तंजहा' अर्थात् ते २मा प्ररे "पुरथिमाओवा दिसाओ" थी साधने " अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि," સુધીને આશય એ છે કે –આ વર્તમાન જન્મથી પહેલાં હું ક્યાં રહેતું હતું, આ પ્રકારનું પિતાની ગતિ–આગતિથી યુક્ત છ દિશાઓનું જ્ઞાન કેટલાક સંસી જીને પણ નથી થતુ. જેમ મદિરાના કેફથી છકેલા મૂછિત–બેભાન રસ્તામાં પડેલા પુરૂષને સ્વજનદ્વારા ઉઠાવીને પોતાના ઘેર લાવવામાં આવે છે; પરંતુ મૂછ ઉતરી ગયા પછી પણ તેને જ્ઞાન થતું નથી કે હું ક્યાં પડી ગયું હતું ? કેવી રીતે મને ઉઠા ? કેણ કેવી રીતે મને અહિં લાવ્યા?, આ પ્રકારની વિશિષ્ટ સંજ્ઞાના Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९२ आचारागसूत्रे अभावाज्जीवः पूर्वभवं न जानाति । "अण्णयरीओ वा दिसाओ" इति। यावत्यो -दिशः सन्ति तत्र कस्याश्चिदेकस्या दिशः समागतोऽस्मीति स्वागमनावधिदिशं सामान्यरूपेणापि न जानन्ति कतिचन संजिनः, सर्वग्ज्ञिानाभावेनान्यतरदिगज्ञानासंभवादिति भावः । "अणुदिसाओ वा" इति । ईशानादयः कोणरूपा विदिशोऽनुदिशः। तासां मध्ये कस्याश्चिदेकस्या अनुदिशः समागतोऽस्मीति सामान्यरूपेण, तथैशान्या आग्नेय्या इत्यादि विशेषरूपेण च स्वागत्यवधिभूताया अनुदिशो ज्ञानं न भवतीत्यभिप्रायः। __ अथ दिशः कति सन्ति ? उच्यते-संक्षेपतो द्रव्य-भाव-भेदेन दिशा द्विविधा। अपना पूर्व भव नहीं जानता। 'अण्णयरीओ वा दिसाओ' अर्थात् जितनी दिशाएं है, उनमें किसी भी एक दिशा से मै आया हूँ, इस प्रकार अपने आगमन की दिशा को सामान्यरूप से भी कितनेक संज्ञी नहीं जानते है । क्यों कि सभी दिशओं के ज्ञानके अभाव में किसी एक दिशा का ज्ञान होना असम्भव ही है । 'अणुदिशाओवा' ईशान वगैरह कोणरूप विदिशाओं को अनुदिशा कहते है । उनमें से सामान्यरूप से किसी भी एक दिशा से मैं आया हूँ, या विशेषरूप से ईशान, आग्नेय आदि विदिशा से मै आया हूँ, ऐसा ज्ञान नहीं होता। प्रश्न-दिशाएँ कितनी है ? उत्तर-संक्षेप से दिशा के दो भेद है-द्रव्य-दिशा, और भाव-दिशा । पूर्व, અભાવથી જીવ પિતાના પૂર્વભવને જાણતા નથી. 'अण्णयरीओ वा दिसाओ' अर्थात् रेसी हिशामा छ, तमाथी ५y એક દિશાથી હું આવ્યું છું. આ પ્રમાણે પિતાના આગમનની દિશાને સામાન્ય રૂપથી પણ કેટલાંક સંજ્ઞી જાણતા નથી. કેમકે સર્વ દિશાઓના જ્ઞાનના અભાવથી * शिानुज्ञान य. ते मसल छ 'अणुदिसाओ वा' शान वगैरे आy સપ વિદિશાઓને અનદિશા કહે છે. તેમાંથી સામાન્યરૂપે કોઈ પણ એક દિશાથી હું આવ્યું છું, અથવા વિશેષરૂપથી ઈશાન આગ્નેય આદિ વિદિશાઓથી હું माये छु. मेधुं ज्ञान यतु नथी. પ્રશ્ન—દિશાઓ કેટલી છે ? ઉત્તર–સંક્ષેપથી દિશાના બે ભેદ છે – વ્યદિશા અને ભાવદિશા. પૂર્વ, પશ્ચિમ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.२ मतिज्ञानम् पूर्वा, दक्षिणा, पश्चिमा, उत्तरा चेति चतस्रोः दिशः, एशानी आग्नेयी, नैती, वायवी चेति चतस्रो विदिशः, आसामष्टानामन्तराला अष्टावन्तरदिशः, मिलित्वा षोडश । अथोर्ध्वम् , अधश्चेति द्वे इति, तयोर्योगेऽष्टादश। द्रव्यदिगेव प्रज्ञापकदिक्शब्देनाप्युच्यते । तथा-समूछिममनुष्याः, गर्भजकर्मभूमिमनुष्याः, गर्भजाकर्मभूमिमनुष्याः, पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपमनुष्याः, इति चतुर्विधा मनुष्याः, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदेन चतुर्विधास्तिर्यञ्चः, पृथिव्यप्तेजोवायुकायभेदाच्चतुर्विधाः स्थावराः। अग्रबीज-मूलबीजपर्वबीज-स्कन्धवीज-भेदाच्चतुर्विधा वनस्पतयः । इति मिलित्वा षोडश । नरकगति पश्चिम, दक्षिण और उत्तर चार दिशाएँ है। ईशान, अग्नेय नैर्ऋत्य, वायव्य, ये चार विदिशाएँ हैं। इन आठो के बीच में आठ अवान्तर दिशाएँ हैं। ये सब मिलकर सोलह होती है । इन में ऊर्ध्वदिशा और अधोदिशा शामिल कर देने से अठारह द्रव्य-दिशाएँ होती है । द्रव्यदिशाको ही प्रज्ञापकदिशा भी कहते हैं। तथा—संमूर्छिम मनुष्य, गर्मज-कर्मभूमिज मनुष्य, गर्मज-अकर्मनभूमिज मनुष्य, छप्पन अन्तरद्वीपो के मनुष्य, ये चार प्रकार के मनुष्य । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय के भेद से चार प्रकार के तिर्यश्च । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के भेद से चार प्रकार के स्थावर, और अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज, तथा દક્ષિણ અને ઉત્તર. આ ચાર દિશાઓ છે. અગ્નિ, ઈશાન, નિત્ય, અને વાયવ્ય, આ ચાર વિદિશાઓ છે, આ આઠની વચ્ચમાં આઠ અવાન્તર દિશાઓ છે. આ સર્વ મળીને સોળ દિશાઓ થાય છે. તેમ ઉર્ધ્વદિશા અને અદિશા શામિલ કરવાથી અઢાર દ્રવ્ય દિશાએ થાય છે, દ્રવ્યદિશાને પ્રજ્ઞાપકદિશા પણ કહે છે. તથા–સંભૂમિ મનુષ્ય, ગર્ભ જ કર્મભૂમિ જ મનુષ્ય, ગર્ભ જ-અકર્મભૂમિ જ મનુષ્ય, છપન અન્તરદ્વીપના મનુષ્ય, આ ચાર પ્રકારના મનુષ્ય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, અતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિયના ભેદથી ચાર પ્રકારના તિર્યંચ, પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસ્કાય અને વાયુકાયના ભેદથી ચાર પ્રકારના. સ્થાવર, અને અઝબીજ, મૂલબીજ, પર્વબીજ प्र. आ. २५ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे देवगतिश्चेति द्वे । सर्वयोगेऽष्टादश भावदिशः सन्ति । अथ दिशां विदिशां च प्रवृत्तिः कुतः स्थानाद्भवति ? उच्यते तिर्यगलोकस्य मध्यभागे रत्नप्रभा भूमिः, तदुपरि मध्यभागे मेरुपर्वताभ्यन्तरे द्वौं लघुतरौ प्रतरौ स्तः। तदुपरि गोस्तनाकाराश्चत्वारश्चत्वारः प्रदेशाः सन्ति । ईदृशाष्टमदेशी चतुष्कोणो रुचकनामा भागोऽस्ति । तत एव दिशां विदिशां च प्रवृत्तिभर्वति । उक्तश्च "तिर्यगलोकस्य मध्ये यो, रुचकोऽष्टप्रदेशकः । दिशामनुदिशां चैव, प्रवृत्तिर्जायते ततः" ॥१॥ स्कन्धवीन के भेद से चार प्रकार की वनस्पति, ये सब मिलकर सोलह होते हैं। तथा नरकगति और देवगंति मिलकर अठारह प्रकार की भाव-दिशाएँ है । प्रश्न-दिशाओ और विदिशाओंकी प्रवृत्ति किस स्थान से होती है ? उत्तर-तिर्यग्लोक के मध्यभाग में रत्नप्रभा भूमि है। उसके उपर मध्यभाग में मेरु पर्वत के अन्दर दो छोटे प्रतर है । उनके उपर गाय के स्तन के आकारवाले चार चार प्रदेश है । ऐसा अष्टप्रदेशी चौकोना रुचक नामक भाग है। वहां से दिशाओ और विदिशाओं की प्रवृत्नि होती है । कहा भी है “ति लोक के मध्य में आठ प्रदेशवाला रुचक भाग है । उसी से सब दिशाओं और अनुदिशाओं की प्रवृत्ति होती है ॥ १॥" તથા સ્કંધળાજના ભેદથી ચાર પ્રકારની વનસ્પતિ, આ સર્વે મળીને સેળ થાય છે, તથા નરકગતિ અને દેવગતિ મળીને અઢાર પ્રકારની ભાવ-દિશાઓ છે. પ્રશ્ન–દિશાઓ અને વિદિશાઓની પ્રવૃત્તિ કયા સ્થાનથી હાય છે? ઉત્તર-તિર્યગાકના મધ્ય ભાગમાં રત્નપ્રભા ભૂમિ છે, તેના ઉપર મધ્ય ભાગમાં મેરૂ પર્વતની અંદર નાના બે પ્રતર છે, તેના ઉપર ગાયના સ્તનના આકાર વાળા ચાર–ચાર પ્રદેશ છે. એ આઠપ્રદેશી ચાર ખુણાવાળો રૂચક નામને ભાગ છે, તેનાથી દિશાઓ અને વિદિશાઓની પ્રવૃત્તિ થાય છે. કહ્યું પણ છે - નિછ લોકના મધ્યમાં આઠ પ્રદેશવાળ રૂક ભાગ છે, ત્યાથી સર્વ દિશામાં અને અનુદિશાઓની પ્રવૃત્તિ થાય છે. | ૧ | Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ यू.३ मतिज्ञानम् द्रव्यदिविषयकं ज्ञानं न भवत्येकेषामिति विवक्षया-"इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ" इत्युक्तं भगवता । भावदिशाविषयकं च ज्ञानं न भवत्येकेषामिति वक्ष्यतेऽनन्तरसूत्र एव-" एवमेगेसिं णो णायं भवइ " इत्यादिनी । ॥ मू. २ ॥ भावदिशाविपयकं च ज्ञानं भवति संज्ञिनां कियतांचिदित्याह-'एवमेगेसिं' इत्यादि। मूलम् । एवमेगेसिं णो णायं भवइ-अत्थि मे आया ओक्वाइए, नत्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी, के वा इओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि ।। मू. ३ ॥ (छाया) एवमेकेषां नो ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, नास्ति मे आत्मा औपपातिकः, कोऽहमासम् , को वा इतश्च्युत इह मेत्य भविष्यामि ?॥ मू० ३॥ कितनेक जीवों को द्रव्यदिशासम्बन्धी ज्ञान नहीं होता, इस अपेक्षा से भगवानने कहा है कि-' इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ । भावदिशाविषयक ज्ञान कितनेको नहीं होता है, यह बात ‘एवमेगेसि णो णायं भवइ' इत्यादि अगले सूत्र में कही जायगी ॥ सू० २॥ कितनेक सजी जीवोको भावदिशाविषयक ज्ञान नहीं होता यह कहते है'एवमेगेसि' इत्यादि । मलार्थ-किन्ही जीवोंको यह ज्ञान नहीं होता कि मेरा आत्मा उत्पत्तिशील है या मेरा आत्मा उत्पत्तिशील नहीं है । मै पहले कौन था और यहाँ से मरकर परलोक में कौन होऊँगा ? ॥ सू०३ ॥ કેટલાક જીને દ્રવ્ય દિશાસંબંધી જ્ઞાન નથી થતું. એ અપેક્ષાથી ભગવાને ह्यु छ -'इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ' माहिशा विषय ज्ञान सेटमा वान नथी. मे पत 'एवमेगेसिं णो णायं भवइ' त्याहि माता सूत्रमा ४ीशु ॥सू० २॥ या सज्ञी वोन लावाविषयन शान नयी त छ-'एवमेगेसि त्याहि. મૂલાઈ—કઈ કઈ ઇવેને એ જ્ઞાન નથી કે મારે આત્મા ઉત્પત્તિશીલ છે, મારે આત્મા ઉત્પત્તિશીલ નથી, હું પ્રથમ કોણ હતું અને અહિંથી મૃત્યુબાદ ५२समां यश ? (हु या ४७श ?) (सू. 3) Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १९६ ___ आचाराङ्गसूत्रे टीका। 'एवमेगेसिं' इति, एवं वक्ष्यमाणमकारेण एकेषां संज्ञिनां कियतांचित् ज्ञातं-ज्ञानम् आत्मनि विषये वर्तमानातीतानागतजन्मविषयकं नो भवति-नो समुत्पद्यते । किस्वरूपं ज्ञानं नोत्पद्यते तेषाम् ? इति दर्शयति-अस्ति मे आत्मा औपपातिक इत्यादि। औपपातिक इति । उपपतनम्-उपपातः, प्रादुर्भायः= चतुर्गतिषु जन्मतो जन्मान्तरे संक्रमणम् । उपपाते भवः-औपपातिकः । मे मम आत्मा-औपपातिको जन्मान्तरसंक्रान्तोऽस्तीति । तथा-नास्ति मे आत्मा औप. पातिक इति, ममात्मा वर्तमानजन्मनि कर्मक्षयसंभवाद् भाविजन्मान्तरसम्बन्धरहितोऽस्तीति । इदं ज्ञानद्वयं वर्तमानजन्मविषयकम् । यद्वा - उपपातः - गर्भसंमूर्छनलक्षणजन्मद्वयविलक्षणो जन्मविशेषः। स च देवनारकाणां भवति । उक्तञ्च टीकार्थ--आगे कहे अनुसार कितनेक संज्ञी जीवोको अपने विषय में वर्तमान अतीत और अनागत जन्म सम्बन्धी ज्ञान नहीं होता। उन्हें किस प्रकार का ज्ञान नहीं होता ? इस विषय में कहा गया कि मेरा आत्मा औपपातिक है या नहीं ? अर्थात् चार गतियां में, एक जन्म से दूसरे जन्म में गमन करता है या वर्तमान जन्म में कर्मों का क्षय होने से भावी जन्म के सम्बन्ध से रहित है ?, ये दोनों ज्ञान वर्तमान जन्मसम्बन्धी है। अथवा-उपपातका अर्थ है-गर्भजन्म और संमूर्छनजन्म से विलक्षण एक तीसरे प्रकार का जन्म । वह देवों और नारको का होता है । कहा भी है ટીકાર્ય આગળ કહેવા પ્રમાણે કેટલાક સંજ્ઞી જેને પિતાના વિષયમાં વર્તમાન, ભૂતકાલ, અને ભવિષ્યકાલના જન્મ સંબંધી જ્ઞાન હોતું નથી. તેને ક્યા પ્રકારનું જ્ઞાન નથી હોતું તે વિષયમાં કહે છે કે મારે આત્મા પપાતિક છે કે નહિ? અર્થાત્ ચાર ગતિઓમાં એક જન્મથી બીજા જન્મમાં ગમન કરે છે, અથવા વર્તમાન જન્મમાં કર્મોને ક્ષય થવાથી ભાવી જન્મના સંબંધથી રહિત છે ? તે બંને જ્ઞાન વર્તમાનજન્મસંબંધી છે. અથવા ઉપપાતને અર્થ છે-ગર્ભજન્મ અને સંપૂઈન જન્મથી વિલક્ષણ એક ત્રીજા પ્રકારને જન્મ છે, તે દેવે અને નારકીજીને થાય છે. કહ્યું છે કે – Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू०.३ मतिज्ञानम् १९७ " दोन्हं उचवाए पण्णत्ते तंजहा- देवाणां चेव णेरइयाणं चैव " इति । ( स्थानाङ्ग ० २ स्था० ३ उ० ) द्वयोरुपपातः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - देवानां चैव नैरयिकाणां चैव । इति च्छाया । उपपातादागतः औपपातिकः । देवभवाद् नरकभवाद्वा ममायमात्मा समागतोऽस्तीत्यर्थः । नास्ति मे आत्मा औपपातिक इति, अत्र - नार्थस्योपपातिकेऽन्वयः । ममात्मा - अनौपपातिकोऽस्तीत्यर्थः । संमूर्च्छनभवाद् गर्भभवाद् वा ममात्मा समागतोऽस्तीति भावः । इममर्थं स्पष्टीकर्तुमाह- कोऽहमासम् ? इति । अत्र प्रसङ्गवशेन जन्मतत्मभेदाश्च निरूप्यन्ते " दो प्रकार के जीवो के उपपातजन्म कहा गया है । वह इस प्रकार - देवोंके और नारको के । ( स्था० २, उ. ३ ) "3 उपपात से उत्पन्न होनेवाला औपपातिक कहलाता है । तात्पर्य यह हुआ कि - मेरा आत्मा देवभव या नरकभव से आया है ? इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता । 2 णात्थ मे आया उववाइए' यहां निषेध का औपपातिक के साथ अन्वय अर्थात् मेरा आत्मा औपपातिक नहीं है, ऐसा अर्थ समझना चाहिए । तात्पर्य यह है किमेरा आत्मा गर्भभव से या समूर्च्छनभव से आया है । इस अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कहा गया है - मै कौन था ? प्रसङ्ग पाकर यहाँ जन्म और जन्मों के भेदों का निरूपण करते हैं- C એ પ્રકારના જીવાને ઉપપાત જન્મ કહેલા છે. તે આ પ્રમાણે-(૧) દેવાને अने (२) नारीगोने. ( स्था. २ . 3 ) ઉષપાતથી ઉત્પન્ન થવા વાળા તે ઔપપાતિક કહેવાય છે, તાત્પ એ થયું કે :–માશ આત્મા દેવભવ અથવા નરકભવથી આવ્યા છે ? આ પ્રકારનુ જ્ઞાન થતું નથી. 66 'णत्थि मे आया उवत्राइए " अहि निषेधना भोपपातिनी साथै अन्वय छे. અર્થાત્ મારા આત્મા ઔપપાતિક નથી. એવા અર્થ સમજવા જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે-મારા આત્મા ગભવથી અથવા સમૂનભવથી આવ્યા છે ? આ અર્થ ની સ્પષ્ટતા કરવાને માટે કહેલ છે, કે- હું કેાણ હતા ?” પ્રસગ પ્રાપ્ત થવાથી અહિં જન્મ અને જન્મના ભેદોનું નિરુપણ કરે છે Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ आचारागसूत्रे पूर्वभवसम्बन्धि - स्थूलशरीरपरित्यागानन्तरमन्तरालगत्या तैजसकार्मणशरीरमात्रेण सहागतस्य जीवस्य नवीनभवयोग्यस्थूलशरीरार्थं प्रथम योग्यपुद्गलानां ग्रहणं जन्म । तच त्रिविधं-संमूर्छन-गर्मो-पपातभेदात् । (१) संमूर्छनजन्ममातापित्रोः सम्बन्धं विनोत्पत्तिस्थानावस्थितानामौदारिकपुद्गलानां वाद्यानामाध्यात्मिकानां वा स्वशरीररूपेण जीवकर्तृकं परिणतिकरणं संमूर्छनम् । वाह्यपुद्गलनिमित्तकं जन्म, यथा-काष्ठत्वपक्कफलादिपूत्पद्यमानाः कीटादयो जन्तवः काष्ठफलवर्तिनो बाह्यपुद्गलान् स्वशरीररूपेण परिणमयन्त उत्पद्यन्ते । पूर्वभवसम्बन्धी स्थूल शरीर का त्याग करने के अनन्तर विग्रहगतिसे तैजस और कार्मण शरीर के साथ आया हुआ जीव नवीन भव के योग्य स्थूल शरीर के लिए सर्व प्रथम योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है, वही जन्म कहलाता है । जन्म तीन प्रकारका है-संमूर्छन, गर्भ, और उपपात । (१) समर्छनजन्ममाता-पिता के सम्बन्ध विना ही, उत्पत्तिस्थान में रहे हुए बाह्य या आण्यात्मिक औदारिक पुदगलोका अपने शरीररूप से जीव द्वारा परिणत कर लेना संमूर्छन जन्म कहलाता है । काट, त्वचा और पके फल आदि में उत्पन्न होने वाले कीडे वगरह जन्तु काठ या फल आदि के बाह्य पुद्गलों को अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते है। यह बाह्य पुद्गलनिमित्तक जन्म है, પૂર્વભવસંબંધી સ્થૂલ શરીરને ત્યાગ કરીને પછી વિગ્રહગતિથી તૈજસ અને કામણ શરીરની સાથે આવેલે જીવ નવા ભવને એગ્ય સ્થૂલ શરીર માટે સર્વપ્રથમ યોગ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરે છે, તે જન્મ કહેવાય છે. જન્મ ત્રણ પ્રકારના છે(१) स भूछन (२) गम, गने (3) ५५ात. (१) समर्थनमમાતા-પિતાના સંબંધ વિના જ, ઉત્પત્તિસ્થાનમાં રહેલા બહારના અથવા આધ્યાત્મિક દારિક પુદ્ગલેને, પિતાના શરીરરૂપથી જીવ દ્વારા પરિણત કરી લેવું તે સંમૂઈન જન્મ કહેવાય છે. કાષ્ઠ ત્વચા (છાલ) અને ફળ આદિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા કીડા વગેરે જતુ કાષ્ઠ અથવા ફળ આદિમાં બહારના પુદ્ગલેને પિતાના શરીરના કપમાં પરિત કરી લે છે. તે બધા પુદ્ગલ નિમિત્તક જન્મ છે. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.३ मतिज्ञानम् १९९ आध्यात्मिकपुद्गलनिमित्तकं जन्म, यथा - जीवितश्वशगालादीनां शरीरेषु जायमानाः कीटादयस्तदीयशरीरान्तर्गतपुद्गलान् स्वशरीरतया परिणमयन्तो जायन्ते । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति-द्वित्रिचतुरिन्द्रिय-गर्भजव्यतिरिक्तपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्-मनुष्याणां संमूर्छनजन्म भवति । (२) गर्भजन्मउत्पत्तिस्थानावस्थितानामागन्तुकशुक्रशोणितपुद्गलानां स्वशरीररूपेण परिणतिकरणं मातृभुक्ताहाररसपरिपुष्टिसापेक्षं च गर्भजन्म । जरायुजानामण्डजानां पोतजानां च गर्भजन्म भवति, जरायुगर्भवेष्टनचर्म, तत्र जाताः जरायुजाः । जीवित कुत्ते और शृगाल आदि के गरीरो में उत्पन्न होने वाले कीडे आदि उनके शरीरके अन्तर्गत पुद्गलो को अपने शरीररूप में परिणत करते है, वह आध्यात्मिक पुद्गलनिमित्तक जन्म कहलाता है, पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और गर्भज के सिवाय पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्चो और मनुष्यो का जन्म संमूर्छन होता है। (२) गर्भजन्मउत्पत्तिस्थान में स्थित आगन्तुक रज-चीर्य के पुद्गलों को अपने शरीररूप में परिणत करना, और माता द्वारा भोगे हुए आहार के रस से पोषण की अपेक्षा रखनेवाला गर्भजन्म होता है । जरायुज, अण्डज और पोतज जीवो का जन्म गर्भज होता है, गर्भ को लपेट रखनेवाली चमडे की थैली जरायु कहलाती है, उसमें उत्पन्न होने वाले જીવતા કુતરા અને શિયાળ આદિનાં શરીરમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા કીડા આદિ તેનાં શરીરની અંદરનાં યુગલને પિતાનાં શરીરપમાં પરિણત કરે છે તે આધ્યાત્મિક પગલનિમિત્તક જન્મે છે. પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને ગર્ભ જ સિવાય, પંચેન્દ્રિય. તિય અને મનુષ્યોને જન્મ સંમૂછન હોય છે. (२) Irriઉત્પત્તિસ્થાનમાં સ્થિત, આગન્તુક રજ–વીર્યનાં પુદ્ગલોને પોતાનાં શરીર રૂપમાં પરિણત કરવું, અને માતાએ કરેલા આહારના રસથી પોષણની અપેક્ષા રાખવા વાળા તે ગર્ભજન્મ કહેવાય છે. જરાયુજ, અડજ અને પિતજ જીવન જાન્સ ગર્લજ હોય છે. ગર્ભને લપેટી રાખનારી ચામડાની થેલી જરાય કહેવાય છે. તેમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા જીવ જરાયુજ કહેવાય છે. મનુષ્ય, ગાય, ભેંસ, બકરી. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० आचाराङ्गसूत्रे तत्र - मनुष्य - गो - महिष्य - जा - ऽविकाऽश्व - खरोष्ट्र - मृग - चमर - वराहगवय-सिंह- व्याघ्र - र्क्ष - द्वीपि-श्व-शृगाल - मार्जारादयो जरायुजाः । सर्प - गोधा - कृकलास- गृहगोधिका - ( पल्ली ) - मत्स्य - कूर्म - नक्र - शिशुमारादयः, पक्षिषु यथालोमपक्षाः, इंस- चाप - शुक- गृध्र - श्येन - पारावत- काक - मयूर - मण्डू - बकादयश्चाण्डजाः । पोता -ज्जाता इति पोतजाः शुद्धप्रसवाः, न तु जरायुजवच्चर्मादिवेष्टिता इति यावत् यथा - शल्लक - हस्ति - श्वाविल्लापक-शश - शारिका - नकुलमूषिकादयः, पक्षिषु च चर्मपक्षाः, जलूका - वल्गुलि-भारण्डपक्षि-विरालादयश्चपोतजाः । , जीव नरायुन कहलाते है | मनुष्य. गौ, भैंस, बकरी, मेष, घोडा, गधा, ऊंट, मृग, चमर शूकर, रोझ, सिंह, वाघ, रोछ, द्वीपि, कुत्ता, सियार, बिलाव आदि जरायुज है । सर्प, गोहेरा, कृकलास, छिपकली, मच्छ, कछुवा, नक्र, शिशुमार आदि, तथा पक्षियो में लोमपक्षी, हंस, चाप, शुक, गृध्र, बाज, कबूतर, कौवा, मोर, मण्डू ( एक जातका पक्षी ), बगुला आदि अण्डज है । जो जरायुज की भाँति चमडे से लिपटे हुए उत्पन्न न हो, वे पोतज कहलाते है, जैसे—सेही, हाथी. श्राविल्लापक. शशक, गारिका, नकुल, मूषिक आदि । पक्षियों में चर्मपक्षी, जका (जौंक ), वल्गुली, भारण्डपक्षी विराल आदि पोतन है । बेटा, घोडा, अधेडा, अंट, भृगसा, यभर (हिमालयमां थती भेट गाय विशेष ) लूङ, ञ, सिंह, वाघ, रींछ, छीपसा, मुतरा, शियाण, मिसा, वगेरे नरायुन छे, सर्प घोयरां, अनुभवां, डेढगरोडी, भय्छ, अयणा, नई (भगर) शिशुमार (शेड પ્રકારનું જલચર પ્રાણી ) આદિ તથા પશ્ચિએમાં લેામપક્ષી, હુંસ, ચાપ ( એક अननु बीडी पांगोचा अणरना देवु पंजी ) शु४ - (पोपट), गीध, मान, अध्यूतर, अगडे, भार, भंडू ( मेड पक्षी ) मगसा वगेरे. मंडन हे ने नयुत प्रभा नामरीबी विटामेव उत्पन्न न धाय ते पोत : डेवाय हे प्रेम-सेही - (साहुडी) दाशी, श्रविद्वापर, शश, शारिश, नटुस -नोजीओ, भूषि-हर वगेरे पक्षीगोमां ચળ પદ્મ-( રૂવાડાં વગનાં ચામડાની પાંખેાવાળા ) જલુકા ( જળેા ) વશુલી ( गण ) वारंडे - पक्षी विरास याहि पोत है. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.३. संज्ञा २०१ उपपातजन्मउपपातक्षेत्रप्राप्तिमात्रनिमित्तस्थानस्थितवैक्रियपुद्गलानां प्रथमं स्वशरीररूपेण परिणतिकरणम् उपपातजन्म । यथा - देवानां नारकाणां च । तत्र देवसमुद्भावो यथा-प्रच्छदपटस्योपरिष्टाद् देवदूष्यस्याधस्ताद् उभयोरन्तरालवर्तमानपुद्गलान् वैक्रियशरीरतया गृह्णन् देव उत्पद्यते । नारकोत्पत्तिर्यथा-नरकस्थितातिसंकुटमुखकुम्भीषु स्थितान् वैक्रियशरीरपुद्गलान् वैक्रियशरीरतया गृह्णन् नारक उत्पद्यते । ___ तथा-" अहं कः-चतुर्गतिषु पागजन्मनि नारको वा तिर्यग् वा नरो उपपोतजन्मउपपातक्षेत्र में प्राप्तिमात्र निमित्त जिस में है ऐसे उत्पत्तिस्थान में स्थित वैक्रिय पुद्गलों का पहले-पहल अपने शरीररूप में परिणत करना उपपात-जन्म कहलाता है, देव और नारकों को यह जन्म होता है । देव की उत्पत्ति इस प्रकार होती है-प्रच्छद पटके ऊपर और देवदूष्य वस्त्रके नीचे अर्थात् दोनों के बीचमें वर्तमान पुद्गलों को वैक्रियशरीररूप ग्रहण करता हुआ देव उत्पन्न होता है। नारकों की उत्पत्ति इस प्रकार होती है-नरकवर्ती अत्यन्त संकुट ( सकडे ) मुखवाली कुंभियो में स्थित वैक्रिय शरीरके पुद्गलों को वैक्रियशरीर के रूप में ग्रहण करता हुआ नारकी नीव उत्पन्न होता है। तथा-" मैं कौन था ! चार गतियों में से पूर्वभव में मैं नारक था, तिर्यञ्च था, (3) S५५तमઉપપત ક્ષેત્રમાં પ્રાપ્તિમાત્ર જેમાં નિમિત્ત છે. એવા ઉત્પત્તિસ્થાનમાં સ્થિત વૈકિય પુદ્ગલેને પહેલાં–પહેલાં પિતાના શરીરરૂપમાં પરિણત કરવું તે ઉપપાતજન્મ કહેવાય છે. દેવ અને નારકીજીને આ જન્મ હોય છે. દેવની ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે થાય છે –પ્રછટપટ-ઉત્તરીય વસ્ત્રના ઉપર અને દેવદૂષ્ય વસ્ત્રની નીચે, એટલે કે બંનેની વચમાં વર્તમાન યુગલેને વૈક્રિયશરીરના રૂપમાં ગ્રહણ કરતા થકા દેવ ઉત્પન્ન થાય છે. નારકીઓની ઉત્પત્તિ આ પ્રમાણે છે કે –નરકવતી અત્યન્ત સાંકડા મુખવાળી કુંભિઓમાં સ્થિત વિફિય શરીરનાં યુગલોને વિકિય શરીરના રૂપમાં ગ્રહણ કરતા થકા નારકી જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા–“હું કેણ હતો? ચાર ગતિઓમાંથી પૂર્વભવમાં હું નારકી હતું, તિર્યંચ प्र. आ.-२६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ आचारागसूत्रे वा देवो वा आसम् ?," इति पूर्वजन्मस्मृतिरूपं ज्ञानं, तथा-"इतः अस्माल्लोकात् च्युतः वियुक्तः प्रेत्य-जन्मान्तरे इह चतुर्गतिरूपे संसारे को भविष्यामि ? चतु गतिषु कीदृशीं गतिं प्राप्स्यामि” इत्यागामिजन्मविषयकं निश्चयात्मकं ज्ञानं च न भवतीत्यर्थः । भावदिशाविषयकमपि ज्ञानं नास्ति कियतांचित् संज्ञिनाम् , असंजिनां तु जीवानां नास्त्येव दिशाज्ञानमिति का वार्ता तेषामिति भावः । मृ. ३॥ ___संसारिणां स्वगत्यागतिज्ञानं न भवतीत्युक्तम् , संपति तज्ज्ञानं यथा भवति तत् प्रदर्शयितुमाह-' से जं पुण' इत्यादि । सूलम् । से जं पुण जाणेज्जा, सहसम्मइयाए, परवागरणेणं अण्णेसिं अंतिए वा मनुष्य था या देव था ," इस प्रकार की पूर्व जन्म की स्मृति, और "इस भव से च्युत होकर अगले जन्म में चार गतियों में से कौन गति पाऊँगा ?,” इस प्रकार का आगामी जन्म मन्बन्धी निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता । कितने ही संजियो को भी भावदिशा-विषयक ज्ञान नहीं होता । असंज्ञी जीवो को तो दिशा का ज्ञान होता ही नहीं । सू० ३ ।। संसारी जीवों को अपनी गति और आगति का ज्ञान नहीं होता, यह बतलाया लाचुका, अब यह कथन किया जाता है कि वह ज्ञान किस प्रकार हो सकता है ? -से जं पुण' इत्यादि । मूलार्थ-सहसम्मति से (परोपदेश के बिना ही सहज ज्ञानसे) पर की वागग्गा (स्पष्टीकरण ) से, दूसरों के समीप से सुनकर जाने कि मैं पूर्व दिशा હને, મનુષ્ય હતે અથવા દેવ હતે ?” આ પ્રમાણે આગલા જન્મની સ્મૃતિ અને “આ ભવથી નીકળીને આગલા હવેના જન્મમાં ચાર ગતિમાંથી હું કઈ ગતિમાં જઈશ. અથવા હુ કઈ ગતિ પામીશ ?” આ પ્રમાણે આગામી-હવે પછી થવાવાળા જન્મ સંબંધી નિશ્રયાત્મક જ્ઞાન થતું નથી; કેટલાક સંગીઓને (સંજ્ઞીજીને) પણ ભાવદિશા-વિષયનું ગાન થતું નથી. અસંસી જીવોને દિશાઓ સંબંધીનું જ્ઞાન धनु नथी. 13॥ સંસારી જેને પિતાની ગતિ અને આગતિ વિષેનું જ્ઞાન નથી થતું, તે બતાવી ગયા છીએ હવે તે કહેવામાં આવે છે કે તે જ્ઞાન કેવી રીતે થઈ શકે છે?'मे पुण न्या. - સામતિથી, (બીલના ઉપદેશ વિના પણ સહજ જ્ઞાનથી), બીજાની નારાજ (ાઈકથી), બીજની પાસેથી ગાંભળને જાણે કે હું Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ सू.४ संज्ञा सोचा, तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसिं णायं भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा संचरइ, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोऽहं ॥ सू० ४ ॥ (छाया) अथ यत् पुनर्जानीयात्-सहसंमत्या, परव्याकरणेन, अन्येषामन्तिके वा श्रुत्वा, तद्यथा-पूर्वस्या दिशाया आगतोऽहमस्मि यावत् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । एवमेकेषां ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, योऽस्या दिशाया अनुदिशाया वा अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया य आगतः अनुसंचरति सोऽहम् ॥ सू० ४ ॥ से जं पुण' इति । 'से' इत्यव्ययं मागधभाषायामथशब्दार्थकम् । 'अथ' इति, अनेन ‘नो सन्ना भवः' इति द्रव्यदिग्ज्ञानाभावं 'नो णाय भवइ' इति भावदिगज्ञानाभावं च प्रदश्य तज्ज्ञानप्रारम्भ इति द्योत्यते । से आया हूँ ( यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा विदिशा से मै आया हूँ। इस प्रकार कितनेक जीवों को ज्ञान होता है कि-मेरा आत्मा औपपातिक (जन्म लेने वाला) है; जो इस दिशा से अथवा अनुदिशा से संचार करता है, सभी दिशाओ से, सभी अनुदिशाओं से आया हुआ जो आत्मा भ्रमण करता है, वह मै हूँ । (सू० ४) टीकार्थ-मागधी भाषा में 'से' अव्यय 'अ' शब्द के अर्थ में है। यहाँ 'अर्थ' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि पहले के सूत्रोंमें 'नो सन्ना भवइ' इ.यादि कहकर द्रव्यदिशा के ज्ञानका निषेध करके, और 'नो णाय भवई' इत्यादि कह कर भावदिशासम्बन्धी ज्ञान का निषेध करके अब इस ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार प्रदर्शित करते हैપૂર્વ દિશાથી આવ્ય છું, યાવત્ બીજી દિશાઓથી અથવા વિદિશાઓથી હું આવ્યો છું, આ પ્રમાણે કેટલાક જીને જ્ઞાન થાય છે કે-મારો આત્મા ઔપપાતિક ( જન્મ લેવાવાળો) છે; જે આ દિશાથી અથવા અનુદિશાથી સંચાર કરે છે સર્વ દિશાઓથી, સર્વ અનુદિશાઓથી, આવેલે જે આત્મા ભ્રમણ કરે છે તે હું છું (સૂ. ૪) ટીકાથ–માગધી ભાષામાં “એ” અવ્યય “અ” શબ્દના અર્થમાં છે. અહિં 'म' २७४थी में प्रगट युछ-प्रथमना सूत्रोमा 'नो सन्ना भवई' त्याहीन द्रव्य हिशान ज्ञानने निषध ४शन मने 'नो णायं भवइ-त्यादि ४ान माहिशामधी જ્ઞાનને નિષેધ કરીને હવે તે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિને પ્રકાર પ્રદર્શિત કરે છે Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ आचाराङ्गसूत्रे टीका यत् = यदि पुनर्जानीयात् स्वस्वगत्यागत्यादिकं कश्चित् तत् त्रिविधेन कारणेन, तदाह - सहसंमत्येत्यादि । आत्मना सह वर्तते या सम्यगमतिः, सा सहसंमतिः, परोदेशमन्तरेण समुत्पन्ना जातिस्मरणावधिमनः पर्यय केवलज्ञानरूपा, तया सहसंमत्या । तत्र जातिस्मरणवान्नियमतः संख्यातभवान् जानाति, अवधिज्ञानी संख्यातभवान संख्यातभवान् वेत्ति, तथैव मन:पर्ययज्ञानी च । केवलज्ञानी तु नियमतोऽनन्तान् भवान् विजानाति । जातिस्मरणज्ञानवानवान्तरे यद्यसंज्ञिभव न कुर्यात्, तर्हि स्वकीयसंज्ञिपञ्चेन्द्रियभवस्योत्कृष्टतो नवशतभवान् विज्ञातुं शक्नुयात् । जातिस्मरणेन स्वकीयपूर्वभवं विज्ञातुर्दृष्टान्तः प्रदर्श्यते अगर कोई अपनी-अपनी गति और आगति को जाने तो तीन प्रकार के कारण से जान सकता है, उसी को कहते है -- सहसम्मति आदि से, आत्मा के साथ रहने वाली सम्यग्मति कहलाती है, अर्थात् परोपदेश के विना ही उत्पन्न होनेवाली जातिस्मरण, अवधि, मनःपर्यय और केललज्ञान रूप मति सहहम्मति कहलाती है, उनमें जाति स्मरणवाला नियम से संख्यात भवोको जानता है, अवधिज्ञानी संख्यात या असंख्यात भवों को जानता है, इसी प्रकार मन पर्ययज्ञानी भी जानता है, किन्तु केवलज्ञानी नियम से अनन्त भवों को जानता है । जातिस्मरण-ज्ञानवाला बीच में यदि असज्ञी का भव न करे तो अपने संज्ञी - पञ्चेन्द्रिय के उत्कृष्ट नौ सौ भवों को जान सकता है । जातिस्मरण से अपना पूर्वभव जानने वाले का दृष्टान्त प्रदर्शित किया जाता है— અધવા કેાઈ પાતાતાની ગતિ અને આગતિને જાણે તે ત્રણ પ્રકારના કારણથી તણી શકે છે, તેને કહે છે–સહસંમતિ આદિથી, આત્માની સાથે રહેવા વાળી સમ્યગ્ મતિ--શુદ્ધિ અર્થાત્ પોપદેશ વિનાજ ઉત્પન્ન થવા વાળી જાતિસ્મરણુ, अवधि, शपथ भने ठेवस-ज्ञानय भति ते सहमति उपाय छे. लति સ્મરણુ વાળા નિયમથી સખ્યાત ભવાને જાણે છે. અવધિજ્ઞાની સંખ્યાત અથવા અસંખ્યાત ભાવેને જાણે છે. એ પ્રમાણે મન:પર્યાયજ્ઞાની પણ જાણે છે. પરંતુ કૈવલજ્ઞાની નિયમથી અનન્ત ભવાને જાણે છે, ઋતિસ્મરણ જ્ઞાનવાળા તે સન્નીના ભાવ ન કરે તે પોતાના સગ્ગી પંચેન્દ્રિયના ઉત્કૃષ્ટ નવસે (૯૦૦) બવેને ઋણી શકે છે. નિસ્મરણથી પોતાના પૂર્વભવને જાણનારાનુ દ્રષ્ટાત ખતાવે છે જીવ વચમાં Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.४ संज्ञा सुग्रीवनगरे बलभद्रनामा नृप आसोत् । तस्याग्रमहिषी मृगानाम्नी बभूव । बलभद्रनृपस्य तस्यां पुत्रो जातः । स च मातापितृभ्यां वलश्री-नाम लब्ध्वाऽपि लोके मृगापुत्र इति नाम्ना प्रसिद्धो बभूव । अथ मातापित्रोः परमप्रियः कृतयौवराज्याभिषेको मुदितचित्तो मृगापुत्रः प्रासादे दोगुन्दुगदेववत् प्रमदाभिः सह क्रीडतिस्म । ___ स चैवं विलसन् मणिरत्नराजितकुट्टिमतले सर्वोपरिवर्तिनि प्रासाददेशे समुपविष्टः सकुतूहलं चतुष्क-त्रिक-चत्वर-मार्गान् विलोकमानः पथि शीलाढ्यं गुणसागरं तपोनियमसंयमघरं संयतमनिमिषदृशाऽद्राक्षीत् । तमवलोक्य शुभाध्य सुग्रीव नगर में बलभद्र नामक राजा था । उसकी पटरानी का नाम मृगा था इस मृगारानी से बलभद्र को पुत्र की प्राप्ति हुई । माता-पिताने उसका नाम बलश्री रक्खा, किन्तु वह लोक में मृगापुत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ, वह माता-पिता का परम प्रिय था । उसका युवराज पद पर अभिषेक किया गया । वह प्रसन्न-चित्त होकर दोगुन्दुग (विलासी एक देवकी जाति ) देव के समान अपने महलमें क्रीडा करता था । __एक वार मृगापुत्र मणियों और रत्नों से सुशोभित फर्शवाले महल के सब से ऊपर के मंजिल पर बैठा था । वह कौतूहल के साथ नगर के चौपड त्रिक तथा चत्वर मार्गों का अवलोकन कर रहा था। तब उसे मार्ग में शील से विभूषित गुणों के सागर तप, नियम और संयम धारण करने वाले एक मुनि दृष्टिगोचर हुए। उसने टकटकी लगाकर સુગ્રીવ નગરમાં બલભદ્ર નામનો રાજા હતો. તેની પટરાણીનું નામ-મૃગ હતું, તે મૃગ રાણી થકી બલભદ્રને પુત્રની પ્રાપ્તિ થઈ માતા-પિતાએ તેનું નામ બલશ્રી રાખ્યું, પરંતુ તે લોકને વિષે મૃગાપુત્ર નામથી પ્રસિદ્ધ થશે. તે માતા-પિતાને પરમપ્રિય હતો, તેને યુવરાજ પદ પર અભિષેક કર્યો. પછી તે પ્રસન્નચિત્ત થઈને દેગુન્હગ (વિલાસી એક દેવની જાતિ) દેવ સમાન પોતાના મહેલમાં કીડા કરતે હતે એક વાર મૃગાપુત્ર મણિઓ અને રત્નોથી–સુશોભિત ફર્શ–સુંદર તળિયાવાળો મહેલને સૌથી ઉપરને ખડ હતો, તેના ઉપર બેઠે હતો તે કુતુહલપૂર્વક નગરના ચૌપડ ત્રિક તથા ચસ્વર માર્ગોનું અવલોકન કરી રહ્યો હતો. તે વખતે એ માર્ગમાં શીલથી વિભૂષિત, ગુણેના સાગર, તપ, નિયમ, સંયમ ધારણ કરવાવાળા એક મુનિ દષ્ટિગોચર Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ आचारागसूत्रे वसायेन मृगापुत्रो मूर्छामवाप्य जातिस्मरणं प्राप । 'पूर्वजन्मनि प्रव्रज्यां गृहीत्वा पञ्चमहात्रतपालनेन स्वर्गसुखं लब्ध्वाऽहमिह राजकुले संजातः' इति । अनेन जातिस्मरणेन पुनरात्मकल्याणाय प्रयतते स्म । अवधिज्ञानिना मल्लीनाथेन भगवता संसारावस्थायां पूर्वजन्मवृत्तान्तोऽवलोकितः । मनःपर्यय-केवलज्ञानयोस्तु दृष्टान्तौ सुप्रतीतौ । तथा-परव्याकरणेन-परस्तीर्थङ्करस्तस्य व्याकरणं यथावस्थितार्थस्यउनकी ओर देखा । उन्हें देख कर मृगापुत्र को मूर्छा आ गई और जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो गया । उससे मालम हुआ कि-'पूर्व जन्म में दीक्षा धारण करके, पांचमहावतों का पालन करके, पश्चात् स्वर्ग के सुख भोगकर मै इस राजकुल में उत्पन्न हुआ हूँ।' इस जातिस्मरण से वह फिर आ मकन्याण में प्रवृत्त हो गया । अवधिज्ञानी भगवान् मल्लीनाथने ससार-अवस्थामें अपना पूर्व जन्म का वृत्तान्त देख लिया था । मन.पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान के दृष्टान्त तो प्रसिद्ध ही है । तथा-परके व्याकरण से भी गति-आगति का ज्ञान होता है। पर का अर्थ है.जोधकर। उनका व्याकाग अर्थात् पदार्थ का स्वरूप यथार्थरूप से जानकर समझाका कहना. अथवा परूयाकरण का अर्थ तीर्थकर का प्रवचनरूप आगम समझना चाहिए। થયા, તે વખતે મૃગાપુત્ર એક નજરથી તેમની સામે જોયું, અને તેને જોઈને મૃગાપુત્રને મૂર્છા આવી ગઈ અને જાતિસ્મરણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું, તેનાથી માલૂમ પડયું કે-“ડું પર્વ જન્મમાં દીક્ષા ધારણ કરીને, પાચ મહાવ્રતનું પાલન કરી, પછી સ્વર્ગન સુખ ભોગવીને આ રાજકુલમાં ઉત્પન્ન થયો છુ ” આ પ્રમાણે જાતિસ્મરણ ઘવાથી તે કરીને આત્મકલ્યાણમાં પ્રવૃત્ત થઈ ગયે. અવધિજ્ઞાની મલ્લીનાથ ભગવાને સંસાર-અવસ્થામાં પોતાના પૂર્વ જન્મને વૃત્તાન જોઈ લીધું હતું. મન:પર્યયજ્ઞાન અને કેવલજ્ઞાનના દ્રષ્ટાંત ત પ્રસિદ્ધ જ છે. ધા-પરના વ્યાકરથી પણ ગતિ-આગતિનું જ્ઞાન થાય છે. પરનો અર્થ છેની કર, તેનું વ્યાકરા-અર્થાત્ પદાર્થનું સ્વરૂપ યથાર્થરૂપથી જાણી-સમજીને કહેવું, અવના પરવ્યાકરને અર્ધ-તીર્થકરના પ્રવચન આગમ સમજવું જોઈએ. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ४. संज्ञा साक्षात्कारेण सम्बोध्य कथनम्, तीर्थङ्करप्रवचनरूप आगमो वा, तेन । परव्याकरणोदाहरणं यथा - साक्षात् भगवतो देशनया मेघकुमारादयो जातिस्मरणं प्राप्तवन्तः । २०७ तथा - अन्येषामन्तिके वा श्रुत्वेति, अन्येषां समीपे श्रुत्वा स्वगत्या - गत्यादिबोधकतद्वचनश्रवणेन । तृतीयोदाहरणं यथा - षड् मित्रभूपाश्छद्म स्थावस्थस्य मल्लीनाथभगवतः समीपे तद्वचनेन जातिस्मरणमत्रापुः । अथात्मनि विषये यादृशं गत्यागत्यादिज्ञानं भवति, तदेव दर्शयतितद्यथा - इत्यादि ' पूर्वस्यादिशाया आगतोऽहमस्मि यावद् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मीत्यनेन स्वगमनावधि - द्रव्यदिशाज्ञानं, तथापरव्याकरणका उदाहरण जैसे - साक्षात् भगवान् की देशना से मेघकुमार आदि ने जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया था । तथा — दूसरों से सुनकर भी गति अगति का ज्ञान होता है । तात्पर्य यह है कि - अपनी गति एवं आगति समझाने वाले दूसरे के बचनों से भी जातिस्मरण हो जाता है । जैसे—छह मित्र - राजाओं ने छमस्थ - अवस्था वाले भगवान् मल्लिनाथ के वचनों से जातिस्मरण प्राप्त किया था । 1 आत्मा के विषय में गति - आगति आदि का ज्ञान जिस प्रकार होता है, उसे दिखलाते है- 'मै पूर्व दिशा से आया हूँ ( यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा अनुदिशा से मै आया हूँ' इस कथन से अपने गमन तक की द्रव्य - दिशा का ज्ञान सूचित किया है । तथा ' मेरा आत्मा औपपातिक ' है यहाँ से लेकर ' भ्रमण करता है, પરવ્યાકરણનુ ઉદાહરણ, જેમકે-સાક્ષાત્ ભગવાનની દેશનાથી મેઘકુમાર આદિએ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યુ” હતું. તથા-ખીજા પાસેથી સાંભળીને પણ ગતિ-આગતિનું જ્ઞાન થાય છે કે:પેાતાની ગતિ અને આગતિ સમજાવવાવાળા ખીજાના વચનાથી પણુ જાતિસ્મરણ જ્ઞાન થઈ જાય છે. જેમ-છ મિત્ર-રાજાએ એ છદ્મસ્થ-અવસ્થા વાળા ભગવાન મલ્લિનાથના વચનેથી જાતિ સ્મરણુ પ્રાપ્ત કર્યું હતું. આત્માના વિષયમાં ગતિ-આગતિનું જ્ઞાન જે પ્રમાણે હોય છે તેને દેખાડે છે હુ પૂર્વ દિશાથી આવ્યે છું, (યાવત્) અન્યતર દિશાથી અથતા અદિશાથી હું આવ્યો છુ આ કથનથી પોતાના ગમન સુધીની દ્રવ્યદિશાનુ જ્ઞાન સૂચિત કર્યુ છે, > Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ आचाराङ्गसूत्रे 'अस्ति मे आत्मा औपपातिकः' इत्यारभ्य 'अनुसंचरित सोऽहम् ' इत्यन्तेन द्रव्य - भावोभयदिशाज्ञानं भगवता प्रदर्शितम् । सोऽहमस्मीत्येनेनेदमावेदितं भवति । त्रिविधान्यतमेन कारणेन ज्ञानं प्राप्तो जीवः स्वात्मस्वरूपमेवं विशानाति यदयमात्मा सकलकर्मक्षयावधि चतुर्गतिभ्रमणकर्ता पुनरपि कस्याञ्चिदेकस्यां दिशायामनुदिशायां वा गमिष्यति नास्त्यस्य गतिविरामस्तावदिति । एवमयमात्मा सर्वस्या दिशाया अनुदिशाया आगतः पुनरपि स्वकर्मवशगः सन् सर्वस्यां दिशायामनुदिशाटां वा परिभ्रमिष्यति । न कदाचिदस्य विश्रान्तिलेशोऽपि तादृशोऽहमस्मीति ॥ म्र० ४ ॥ वह मैं हूँ' यहाँ तक द्रव्यदिगा और भावदिशा, दोनों का ज्ञान भगवान् ने प्रदर्शित किया है । " 'वही मैं हूँ' इस कथन से यह प्रकट होता है कि-तीन में से किसी एक कारण के द्वारा ज्ञान को प्राप्त जीव इस रूप में अपना आत्मस्वरूप जानता है, कि - यह आत्मा जब तक समस्त कर्मों का क्षय नहीं कर देता तब तक चारों गतियों में भ्रमण करता है और फिर किसी एक दिशा में या अनुदिशामें गमन करेगा परन्तु कम का अय जब तक न हो तब तक उसकी गति का अन्त नहीं आता है । इस प्रकार यह आत्मा सत्र दिशाओं से और अनुदिशाओं से आया है और कर्मों के अधीन हो कर फिर सब दिशाओं अथवा विदिशाओं में परिभ्रमण करेगा, इसे लेशमात्र भी कभी विश्राम नहीं मिल सकता, ऐसा मैं हूँ ॥ सू० ४ ॥ તથા-મારે આત્મા ઔપપાતિક છે' ત્યાંથી લઈને ભ્રમણ કરે છે' તે હું છું, ત્યાં સુધી દ્રદિશા અને ભાવદિશા, એ બન્નેનું જ્ઞાન ભગવાને પ્રદર્શિત કર્યું છે. “તે હું છું આ કથનથી એમ પ્રગટ થાય છે કે એ ત્રણમાંથી કેાઈ કારણુ દ્વારા જ્ઞાનને પામેલે જીવ આ રુપમાં પેાતાના આત્મસ્વરૂપને જાણે છે કે આ આત્મા જ્યાં સુધી સમસ્ત કર્મોના ક્ષય કરતા નથી, ત્યાં સુધી ચારેય ગતિએમાં ભ્રમણ કના રહે છે. અને ફરી કઈ દિશામાં અથવા તેા અનુદિશામાં ગમન કરશે પરંતુ ત્યાં સુધી કર્મોને ક્ષય નહિ હોય ત્યાં સુધી તેની ગતિને અંત આવતા નથી. એ પ્રત્યે. આ આત્મા નવ દિશાએથી અને અનુદિશાએથી આવ્યે છે અને કર્મોને આધીન ધઇને ફરીથી મવ દિશાઓ અધવા વિદિશાઓમાં પરિભ્રભમણુ કરશે, તેને લેશમાત્ર ૯ વિશ્રામ ન્લી રાકના નથી એવા હું છું, (સ્૦ ૪) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५ आत्मवादिप्र० आत्मवादिप्रकरणम्यस्तु द्रव्यदिक्षु भावदिशु चात्मनो गत्यागती अवगत्य स्वमात्मानमेवं विजानाति-'अयमात्मा असिद्धगतिप्राप्तिचतुर्गतिषु घूर्णमानो जन्मान्तरसंक्रान्तत्रिकालवर्ती शरीराद् भिन्नो नित्यपरिणामी ज्ञानसम्यक्त्वचारित्रसुखवीर्यादिगुणवानिति, स एवात्मवादीत्याह-' से आयावादी' इत्यादि । मूलम्से आयावादी, लोगावादी, कम्मावादी, किरियावादी ॥ सू० ५ ॥ छायास आत्मवादी, लोकवादी कर्मवादी, क्रियावादी ॥ सू० ५॥ आत्मवादिप्रकरणजो जीव द्रव्य दिशाओं में और भावदिशाओं में आत्मा का गमन-आगन जान कर अपनी आत्मा के विषय में इस प्रकार जानता है कि-यह आत्मा सिद्धगति की प्राप्तिरहित चार गतियों में भ्रमण करता हुआ एक जन्म से दूसरे जन्म को ग्रहण करता है, त्रिकालवर्ती है. शरीर से भिन्न है, नित्यपरिणामी है, और सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र, सुख, वीर्य आदि गुणों वाला है, वही आत्मवादी है । अब इसी विषय का निरूपण किया जाता है :-'से आयावादी' इत्यादि। __ मूलार्थ-'से आयावादी' इति । वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है, क्रीयावादी है ( सू० ५) - આમવાદી પ્રકરણ જે જીવ દ્રવ્ય દિશાઓમાં અને ભાવદિશાઓમાં આત્માનું જવું–આવવું જાણીને પિતાના આત્માના વિષયમાં એ પ્રમાણે જાણે છે કે આ આત્મા સિદ્ધગતિની પ્રાપ્તિ વિના બીજી ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ કરતે કરતો એક જન્મથી બીજે જન્મ ગ્રહણ કરે છે, ત્રિકાલવતી છે શરીરથી ભિન્ન છે, નિત્યપરિણામી છે અને સમ્યકત્વ, જ્ઞાન, ચારિત્ર, સુખ, વીર્ય આદિ ગુણો વાળે છે, તે આત્મવાદી છે. હવે આ વિષયનું निर१५ ४२वामां आवे छे-'से आगवादी' छत्यादि. भूमाथ-से अयावादी' ति. ते मामा छ, all छे, भी छे मन ठियावाही छे. (सू, ५) प्र. मा.-२७ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आचाराङ्गमंत्रे टीका ‘से आयावादी' इति । सः इत्थमात्मानं ज्ञाता, आत्मवादीआत्मानं वदितुं शीलमस्येति विग्रहे कर्तरि णिनि , आत्मस्वरूपकथनस्वभाववान् । अयं भावः-आत्मस्वरूपं वक्तारो जगति बहवः सन्ति, परन्तु स एवात्मवादी वेदितव्यो, यः पूर्वोक्तरीतिमनुसृत्यात्मानं विजानातीति । _आत्मस्वरूपपरिचयं विना बन्धस्वरूपं ज्ञातुमशक्यम् । तद् विना न रोचते कस्मैचिदात्मोत्कर्षकरणम् , तद्रुषिमन्तरेण च कस्यचिन्मोक्षोपायभूतनिश्चयव्यवहारलक्षणज्ञानक्रिययोः प्रवृत्तिर्न स्यात् , तस्मादत्रात्मज्ञानप्रसङ्गेन किञ्चिदुच्यते टीकार्थ-जो इस ( पूर्वोक्त ) प्रकार से आत्मा को जानता है वही आत्मवादी है, अर्थात् आत्मा के स्वरूप को कहने वाला है। तात्पर्य यह है कि-आत्मा का स्वरूप कहने वाले संसार में बहुत है किन्तु वास्तव में सच्चा आत्मवादी वही है जो पूर्वोक्त प्रकार से आत्मा का ज्ञाता है। आत्मा का स्वरूप समझे विना बन्ध का स्वरूप अशक्य है। उसके अभाव में किसीको आत्मा का उत्कर्ष करना रुचिकर नहीं होता, और इस रुचि के अभाव में किसीकी निश्चय-व्यवहाररूप ज्ञान और क्रिया में-जो मोक्ष के कारण है-प्रवृत्ति नहीं होती, अतः आत्मज्ञान का प्रसङ्ग होने से यहाँ कुछ विवेचन किया जाता है टा-२ मा (पूर्वरित) प्राथी मात्माने तो छ, ते मात्भपाही छ, અર્થા–આત્માના સ્વરૂપને કહેવા વાળા છે, તાત્પર્ય એ છે કે –આત્માનું સ્વરૂપ કહેવા વાળા સંસારમાં ઘણું છે પરંતુ વાસ્તવમાં સાચા આત્મવાદી તે છે કે જે પૂર્વોક્ત પ્રકારથી આત્માના જ્ઞાતા છે, અર્થાત પૂર્વોક્ત પ્રકારે આત્માને જાણે છે. આત્માના સ્વરૂપને સમજ્યા વિના બંધનું સ્વરૂપ સમજવું અશક્ય છે, તેના અભાવમાં કઈને આત્મા ઉત્કર્ષ કરવું રૂચિકર થતું નથી. અને તે રૂચિના અભાવમાં કોઈને નિશ્ચય-વ્યવહારરૂપ જ્ઞાન અને ક્રિયામાં જે મોક્ષનું કારણ છે તેમાં પ્રવૃત્તિ થતી નથી. તે કારણથી આત્મજ્ઞાનને પ્રસંગ હોવાથી અહિં થોડુ વિવેચન કરવામાં આવે છે– Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२११ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मवादिप्र० ___ आत्मशब्दार्थःअतति-नित्यं जानातीति आत्मा। 'अत सातत्यगमने' इत्यत्रातधातोगत्यर्थकत्वाद् , गत्यर्थानां च ज्ञानार्थकतया स्वीकारादयमर्थों लभ्यते । सिद्धसंसारिभेदेन द्विविधस्यापि जीवस्य सर्वदाऽवबोधसद्भावादात्मनः कस्यां चिदवस्थायोमुपयोगवियोगो न जायते । कदाचिदप्यवबोधाभावे च जीवत्वमेव व्याहन्येत । अत एव-'जीवो उवओगलक्षणो' इत्युक्तम् ( उत्तरा.२८ अ. १० श्लो.) यद्वा-अतति-सततं गच्छति, निरन्तरं प्राप्नोति स्वकीयान् पर्यायानिति-आत्मा। आत्मशब्द का अर्थ'अतति'-इति-आत्मा ' अर्थात् जो नित्य जानता रहता है वह आत्मा कहलाता है । ' अत' धातु सतत गमन करने के अर्थ में है और गमनार्थक सभी धातु ज्ञानार्थक होते है, अतः उपर्युक्त अर्थ किया गया है। क्या सिद्ध और क्या संसारी, दोनों ही प्रकार के जीवों में सदैव ज्ञान विद्यमान रहता है, और किसी भी अवस्था में उपयोगका वियोग नहीं होता । किसी समय ज्ञान का अभाव हो जाय तो जीव में जीवत्व ही नहीं रहे । इसी कारण उत्तराध्ययन सूत्र (अ. २८ श्लो. १०) में कहा है :-" जीवो उवओगलक्षणो" जीव उपयोग लक्षण वाला है। अथवा---अतति अर्थात् जो अपने पर्यायों को सतत प्राप्त होता रहता है वह आत्मा है। આત્મા શબ્દને અર્થ'अतति' इति आत्मा अर्थात् रे तो २९ छे, भत्मा उपाय छे. 'अत' धातु सतत गमन ४२वाना मिथ मा छे. मने गमनाथ ४ सर्व पातु ज्ञानार्थ પણ હોય છે. (ગમન કરવું એવા અર્થવાળા તમામ ધાતુ જ્ઞાન અર્થવાળા પણ હોય છે) એ કારણથી ઉપર કહેલે અર્થ કર્યો છે. તે શું સિદ્ધ અને સંસારી બંને પ્રકારના જીમાં હમેશાં જ્ઞાન વિદ્યમાન રહે છે અને કેઈપણ અવસ્થામાં ઉપયોગને વિગ થતું નથી કોઈ સમય જ્ઞાનને અભાવ થઈ જાય તે જીવમાં જીવત્વ જ ન રહે. એ કારણથી ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર (અ. ૨૮ શ્લે ૧૦) માં કહ્યું છે કે – "जीवो उवओगलक्खणो" “७१ Gun aayा छे." અથવા–અતતિ અર્થાત્ જે પિતાના પર્યાને સતત પ્રાપ્ત થતું રહે છે, તે આત્મા છે. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ आचारागसूत्रे नन्वेवं गगनादीनामपि सततं स्वपर्यायप्राप्त्या तत्रात्मशब्दप्रयोगो दुर्वारः, कदापि पर्यायाभावे त्वपरिणामित्वेन तेषां वस्तुत्वमेव न स्यादिति चेन्मैवम् , सततस्वपर्यायप्राप्तिकर्तृत्वमिति व्युत्पत्तिनिमित्तमात्रमात्मशब्दस्य, न तु तत् प्रवृत्तिनिमित्तम् । प्रवृत्तिनिमित्तं चास्योपयोग एवेति गगनादिषु नात्मशब्दः प्रवर्तते। यद्वा-सततं गच्छतीत्ययमर्थोऽपि न विरुध्यते संसारदशायां कर्मवशेन नानागतिषु सततगमनात् , मुक्तावस्थायामपि भूतकालिकसततगमनसद्भावात् । शङ्का-आकाश आदि भी अपने अपने पर्यायों को निरन्तर प्राप्त होते रहते है तो उनके लिये भी आत्मा शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य होगा। किसी समय उन में पर्याय का अभाव हो तो वे अपरिणामी ठहरेंगे और तब उन में वस्तुत्व ही नहीं रहेगा। समाधान-ऐसा मत कहिए । निरन्तर अपने पर्यायों को प्राप्त करना तो आत्मा शब्द का व्युत्पत्तिनिमित्त मात्र है, वह प्रवृत्तिनिमित्त नहीं है, प्रवृतिनिमित्त तो उपयोग ही है, अतः आकाश, आदि में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हो सकता। ___अथवा 'निरन्तर गमन करता है' इस अर्थ का भी विरोध नहीं है; क्यों कि संसार-अवस्था में कर्म के अधीन होकर आत्मा नाना गतियों में सदैव गमन करता रहता है, मुक्त अवस्था में भी भूतकालीन सतत गमन विद्यमान है । શકા–આકાશ આદિ પણ પિતા પોતાના પર્યાને નિરતર પ્રાપ્ત થતા રહે છે, તે તેને માટે પણ આત્મા શબ્દ પ્રયોગ કરે અનિવાર્ય થશે. કેઈ સમય તેનામાં પર્યાયને અભાવ હોય તે તે અપરિણામી ઠરશે ત્યારે તેનામાં વસ્તુત્વ પણ નહિ રહે. સમાધાન–એ પ્રમાણે ન કહે. નિરન્તર પિતાના પર્યાયને પ્રાપ્ત કરવું તે તે આત્મ શબ્દની વ્યુત્પત્તિનિમિત્ત માત્ર છે, પરંતુ તે પ્રવૃત્તિનિમિત્ત નથી; પ્રવૃત્તિનિમિત્ત તે ઉપગ જ છે, તેથી આકાશ આદિમા આત્મ શબ્દને પ્રગ થઈ શકતું નથી. અથવા–નિરન્તર ગમન કરે છે, આ અર્થને પણ વિરોધ નથી. કેમકે–સંસાર અવસ્થામાં કર્મને આધીન બનીને આત્મા અનેક ગતિઓમાં હમેશાં ગમન કરતે રહે છે. મુક્ત-અવસ્થામાં પણ ભૂતકાલીન સતત ગમન વિદ્યમાન છે. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ ३.१ सू.५. आत्मसिद्धिः ___ आत्मनोऽस्तित्वसिद्धिःतावत् प्रत्यक्षप्रमाणत एवात्मनः सिद्धिरुच्यते-(१) किमयमात्मा-अस्ति नास्ति वेति संशयादिविज्ञानं स्वस्वात्मनि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेण सिद्धम् , स एवात्मा, संशयादिज्ञानस्यैव तदनन्यत्वेनात्मरूपत्वात् । (२) तथा-आत्मानमाश्रित्यैव सुखदुःखादयः स्वस्वशरीर एव प्रत्यक्षेण संवेद्यन्ते । (३) यद्वा-कृतवानह, करोम्यहं, करिष्याम्यहम् , इत्यादिप्रकारेण योऽयम्-अहम्प्रत्ययः, एतस्मादपि प्रत्यक्ष एवायमात्मा। कथमसत्यात्मनि ___ आत्माके अस्तित्वको सिद्धिसर्व प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण से ही आत्मा की सिद्धि कहते है: (१) आत्मा है या नही है, इस प्रकार का संशय आदि ज्ञान अपनी अपनी आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्ध है । वही ज्ञान आत्मा है, अर्थात् संशय आदि ज्ञान आत्मासे अभिन्न होने के कारण आत्मस्वरूप हो है । (२) आत्मा को आश्रित करके ही दुःख-सुख आदि अपने२ शरीर में प्रत्यक्ष से जाने जाते है। (३) अथवा-मै कर चुका, मै करता हूँ, मैं करूँगा, इत्यादि रूप से जो अहम्प्रत्यय होता है उससे भी आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। आत्मा न होता तो आत्मा के विषय में अहम्प्रत्यय (मै का ज्ञान ) किस प्रकार हो सकता था ? आत्मरूप विषय के सामान मस्तित्वनी सिद्धिસૌથી પ્રથમ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી જ આત્માની સિદ્ધિ કહે છે–(૧) આત્મા છે કે નહિ, આ પ્રકારનું સંશય આદિ જ્ઞાન પિત પોતાના આત્મામાં સ્વસંવેદન પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે, તે જ્ઞાન આત્મા છે. અર્થાત્ સંશય આદિ જ્ઞાન આત્માથી અભિન્ન હોવાના કારણે આત્મસ્વરૂપ જ છે. (૨) આત્માના આશ્રિતપણાથી જ દુઃખ-સુખ આદિ પોત-પોતાના શરીરમાં પ્રત્યક્ષ જાણવામાં આવે છે. (3) Aथवा-हुँ ४३यूयो, ४३ छु. ४२१, त्या३५थी रे અહંપ્રત્યય થાય છે, તેથી પણ આત્માનું પ્રત્યક્ષપણું થાય છે. આત્મા ન હોય તે આત્માના વિષયમાં અહઋત્યય (હું પણાનું જ્ઞાન) કેવી રીતે થઈ શકે ? આત્મરૂપ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ आचारागसूत्रे अहमिति ज्ञानम् आत्मविषयकं जायते । आत्मरूपविषयाभावे विषयिणोऽनुत्थानप्रसंगात् । न च देह एवास्य ज्ञानस्य विषय इति वाच्यम् । जीवरहितेऽपि देहे तदुत्पत्तिप्रसंगात् । अस्मिन्नहम्प्रत्यय आत्मविषयके सति तु किमहस्मि नास्मीति संशयो नोपपद्यते, अहम्प्रत्ययविषयस्यात्मनः सद्भावादहमस्मीति निश्चय एव संभवति । आत्मास्तित्वसंशये तु कस्यायमहम्पत्ययः स्यात् ?, निर्मूलत्वेन तदनुत्थानप्रसङ्गात् । यदि संशयी जीव एव नास्ति, तर्हि अस्ति नास्तीति संशयः कस्य भवतु । संशयो हि विज्ञानाख्यो गुण एव, न च गुणिनमन्तरेण गुणः सिध्यति । अभाव में विषयी अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शरीर ही इस ज्ञान का विषय है-अर्थात् 'अहम् ' (मैं) का अर्थ आत्मा नहीं वरन् शरीर है, ऐसा कहना उचित नहीं, क्यों कि-ऐसा होता तो मृत शरीर में भी अहम्प्रत्यय होने लगता । आत्मा को विषय करनेवाले इस अम्हप्रत्यय की विद्यमानता में ' मैं हूँ या नहीं हूँ', इस प्रकार का संशय ही नहीं होता है, अहम्प्रत्यय के विषयभूत आत्मा का सद्भाव होने से ' मै हूँ ' इस प्रकार का निश्चय ही हो सकता है। आत्मा के अस्तित्व के विषय में संशय किया जाय तो प्रश्न उपस्थित होता है कि यह अहम्प्रत्यय किसे होता है । विना कारण के ही तो उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि सशय करने वाला जीव ही नहीं है तो 'है या नहीं ?' इस प्रकार का संशय करता कौन है ? संशय एक प्रकार का ज्ञान-गुण है और गुण, गुणी के अभाव में नहीं हो सकता । વિષયના અભાવમાં વિષયી અર્થાત્ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ નથી થઈ શકતી. શરીર જ આ शानन विषय छ, अर्थात् 'मम् ,' (ई) न। म मात्मा नथी म शरीर छ, એમ કહેવું તે ઉચિત નથી, કેમકે જે એમ હોય તો મૃત શરીરમાં અહમ્મત્યય થઈ શકશે આત્માને વિષય કરવા વાળો આ–અહઋત્યયની વિદ્યમાનતામાં “હું છું કે નથી ? આ પ્રકારનો સંશય જ થતું નથી અહઋત્યયના વિષયભૂત આત્માને સદ્દભાવ હોવાથી હું છું ” આ પ્રકારને નિશ્ચય જ થઈ શકે છે. આત્માના અસ્તિત્વના વિષયમાં સંશય કરવામાં આવે તે પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે કે આ અહમ્મત્યય કેને થાય છે? કારણ વિના તે તેની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી જે સંશય કરવા વાળે જીવ નથી તો “હું છું કે નહિ” એ પ્રકારને સંશય કરનાર કોણ છે? સંશય એક પ્રકારને જ્ઞાન–ગુણ છે, અને ગુણ ગુણીના અભાવમાં થઈ શકતો નથી. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१सू.५ आत्मसिद्धिः २१५ न च देहोऽत्र गुणीति चोच्यम् , देहस्य मूर्तत्वाद् जडत्वाच ज्ञानस्य चामूर्तत्वाद् बोधरूपत्वाच्च । अहं नाहं वेतिगदतो 'माता मे बन्ध्या' इत्यादिवत् स्ववचनव्याघातः। (४) यद्वा-आत्मा गुणी प्रत्यक्ष एव, स्मृति-जिज्ञासा-चिकीर्षाजिगमिषा-संशयादिज्ञानविशेषाणां तद्गुणानां स्वात्मनि स्वसंवेदनपत्यक्षसिद्धत्वात् , इह यस्य गुणाः प्रत्यक्षाः स प्रत्यक्षो दृष्टः, यथा घटः, प्रत्यक्षगुणश्चात्मा, तस्मात् प्रत्यक्षः। यथा घटोऽपि गुणी रूपादिगुणप्रत्यक्षत्वादेव प्रत्यक्षः, तथा विज्ञानादिगुणप्रत्यक्षत्वादात्मापीति । यहाँ यह कहना ठीक नहीं है कि-'देह गुणी है', क्यों कि देह मूर्त है और जड है जब कि ज्ञान अमूर्त है और चेतनरूप है । मूर्त गुणी का अमूर्त गुण नहीं हो सकता और न जड का गुण चेतना हो सकता है । इस कारण ' मै हूँ या नहीं' इस प्रकार कहने वाले को ' मेरी माता वन्ध्या है' ऐसा कहने वाले के समान स्ववचनबाधा दोष आता है। (४) अथवा आत्मा गुणी प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, क्योंकि स्मृति, जिज्ञासा, करने की इच्छा, गमन की इच्छा, संशय आदि ज्ञान-जो आत्मा के गुण है-अपनी आत्मा में प्रत्यक्ष से सिद्ध है, जिस पदार्थ के गुण प्रत्यक्ष से प्रतीत होते है वह पदार्थ भी प्रत्यक्ष माना जाता है, जैसे घट, आत्माके गुण भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होते है इस कारण आत्मा प्रत्यक्ष है । घट के रूप आदि गुणों का प्रत्यक्ष होने से ही गुणी घट का प्रत्यक्ष होना देखा जाता है, इसी प्रकार विज्ञान आदि गुणो का प्रत्यक्ष होने से आत्मा भी प्रत्यक्ष है। અહીં દેહ ગુણી છે એમ કહેવું તે ઠીક નથી, કારણ કે દેહ મૂર્ત છે અને જડ છે. જ્યારે જ્ઞાન અમૂર્ત છે અને ચેતનરૂપ છે. મૂર્ત ગુણીને અમૂર્ત ગુણ હોઈ શકે નહિ. અને જડને ગુણ ચેતન થઈ શકે નહિ. આ કારણથી. “હું છું કે નહિ” એ પ્રમાણે કહેવાવાળાને “મારી માતા વંધ્યા છે” એ પ્રમાણે કહેનારના જે સ્વવચનબાધા નામને દેષ આવે છે. (४) Aथा-मात्मा गुणी प्रत्यक्षी सिद्ध छ, भडे-भृति, सास, ४२वानी ઇચ્છા, ગમનની ઈચ્છા, સંશય આદિજ્ઞાન વગેરે જે આત્માના ગુણ છે તે પોતાના આત્મામાં પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે જે પદાર્થને ગુણ પ્રત્યક્ષથી પ્રતીત થાય છે તે પદાર્થ પણ પ્રત્યક્ષ માનવામાં આવે છે. જેમ-ઘટ, આત્માને ગુણ પ્રત્યક્ષથી પ્રતીત થાય છે. તે કારણથી આત્મા પ્રત્યક્ષ છે. ઘટના રૂપ આદિ ગુણો પ્રત્યક્ષ હેવાથી જ ગુણી ઘટનું પ્રત્યક્ષ દેવું જોવામાં આવે છે. તે પ્રમાણે વિજ્ઞાન આદિ ગુણો પ્રત્યક્ષ હેવાથી આત્મા પણ પ્રત્યક્ષ છે. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ - आचारागसूत्रे न चाऽनैकान्तिकोऽयं हेतुः, यस्मादाकाशगुणः शब्दः प्रत्यक्षोऽस्ति, न पुनराकाशमिति वाच्यम् , शब्दस्याकाशगुणत्वाभावात् । शब्दो हि पुद्गलगुणः ऐन्द्रियकत्वाद् रूपादिवदिति । ___ अस्तु, गुणाः प्रत्यक्षाः, गुणिनस्तु प्रत्यक्षत्वे किं मानम् ? उच्यते-गुणेभ्योऽनन्यो गुणीति ज्ञानादिगुणानां प्रत्यक्षत्वादेवात्माऽपि गुणी प्रत्यक्षेण ज्ञायते । यदि गुणेभ्योऽन्यो गुणी स्यात् , तदा घटादयोपि गुणिनः प्रत्यक्षा न भवेयुः, शङ्का-आप का दिया हुआ हेतु अनैकान्तिक है, क्यों कि आकाश के गुण शब्द का तो प्रत्यक्ष होता है किन्तु आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता। __ समाधान-ऐसा न कहिए, क्यों कि शब्द आकाश का गुण नहीं है। शब्द पुद्गल का गुण है, क्यों कि वह इन्द्रिय ( श्रोत्रेन्द्रिय ) का विषय है, जो इन्द्रिय का विषय होता है वह पौद्गलिक ही होता है, जैसे-रूप आदि शङ्का-गुणों को प्रत्यक्ष मान लें किन्तु गुणी के प्रत्यक्ष होने में क्या प्रमाण है ? समाधान-गुण और गुणी का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है-गुणी, गुणों से अभिन्न होता है, अत एव गुणों का प्रत्यक्ष होने से आत्मा गुणी भी प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है । अगर गुणी, गुणों से भिन्न होता तो गुणी घट आदिका भी प्रत्यक्ष न होता, क्योंकि सिर्फ रूपादि गुणों से भिन्न घट का कभी प्रत्यक्ष नहीं होता। શકા–આપે જે હેતુ અહિં આપે છે તે અનેકાન્તિક છે; કેમકે આકાશને ગુણ શબ્દ તે તે પ્રત્યક્ષ થાય છે, પરંતુ આકાશ પ્રત્યક્ષ થતું નથી. સમાધાન–એ પ્રમાણે ન કહે, કેમકે શબ્દ તે આકાશને ગુણ નથી પણ શબ્દ તે પુદગલનો ગુણ છે. કેમકે તે ઈન્દ્રિય (શ્રોત્રેન્દ્રિય)ને વિષય છે. જે ઈન્દ્રિયને વિષય હોય છે તે પગલિક જ હોય છે, જેમ-રૂપ આદિ. શંકા–ગુણોને પ્રત્યક્ષ માની લઈએ. પરંતુ ગુણીના પ્રત્યક્ષપણામાં શું प्रमाण छ ? સમાધાન–ગુણ અને ગુણીને કંચિત તાદાભ્ય સંબંધ છે–ગુણ, ગુણોથી અભિન હોય છે, એટલે ગુણેના પ્રત્યક્ષપણાથી આત્મા ગુણ પણ પ્રત્યક્ષ પ્રતીત થાય છે. અગર જે ગુણ, ગુણાથી ભિન્ન હોત તે ગુણી ઘટ આદિ પણ પ્રત્યક્ષ થઈ શક્ત નહિ. કેમકે માત્ર પાદિ ગુણાજ પ્રત્યક્ષ હોય છે, રૂપાદિ ગુણેથી ભિન્ન Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. आत्मसिद्धिः २१७ रूपादिगुणमात्रस्यैव प्रत्यक्षत्वात् । अन्यस्मिन् ज्ञातेऽन्यज्ज्ञातं न भवति, यथा घटे ज्ञाते पटो न ज्ञायते । गुणाः कदापि द्रव्याद् भिन्नतया सत्तां न लभन्ते, एवं द्रव्यमपि गुणेभ्यो भिन्नतया न सत्तां लभते । अयं गुणः, अयं गुणीति नाममात्रतो भेदसत्त्वेऽपि न तत्त्वतो भेदः । यथा-अग्निर्गुणी स्वकीयादुष्णत्वगुणादत्यन्तभिन्नःस्यात्तर्हि दाहकार्य कर्तुमसौ न शक्नुयात् । तथा-यद्यात्मा ज्ञानगुणादत्यन्तभिन्नो भवेत् तदा तस्य जडत्वापत्तिः स्यात् । तस्माद् द्रव्यगुणयोर्भदो न कदाचिदासीत् , नाप्यस्ति, न च भविष्यतीति सिद्धम् । तुष्यतु दुर्जनन्यायेन तव मते गुणेभ्यः भिन्नत्वाङ्गीकारेऽप्यात्मा प्रत्यक्षो मा अन्य का ज्ञान होने से अन्य का बोध नहीं हो जाता । जैसे-घट के जाननेसे पट मालम नहीं होता । गुण द्रव्य से भिन्न कदापि नहीं रह सकते, और द्रव्य भी गुणो से भिन्न कदापि नहीं रह सकता । — यह गुण है, यह गुणी है' इस प्रकारका भेद नाममात्रका है, वास्तव में गुण-गुणी में भेद नही है। अगर अग्नि गुणी अपने उष्णतागुण से अत्यन्त भिन्न होता तो वह दाह-कार्य ( जलाने का कार्य ) करने में असमर्थ होता । दूसरी बात यह है कि--आत्मा यदि अपने ज्ञानगुण से भिन्न होता तो आत्मा में जडता आ जाती। अत एव द्रव्य और गुण का भेद न कभी था, न है, और न होगा। दर्जनसन्तोषन्याय से, तुम्हारे मत के अनुसार कदाचित् यह मान लिया जाय कि आत्मा गुणों से भिन्न है और इस कारण आत्मा का प्रत्यक्ष भले ही न हो ઘટ ક્યારેય પ્રત્યક્ષ નથી થતું. અન્યનું જ્ઞાન થવાથી અન્યને બોધ થતો નથી. જેમકે ઘટના જ્ઞાનથી પટ માલુમ થતું નથી (પટનું જ્ઞાન થતું નથી;). ગુણ, દ્રવ્યથી ભિનન કદાપિ રહી શકતો નથી. “આ ગુણ છે અને આ ગુણી છે” એ પ્રકારને ભેદ નામમાત્રને છે વાસ્તવિક રીતે ગુણ-ગુણીમાં ભેદ નથી. અગર અગ્નિ ગુણી પિતાના ઉsણતાગુણથી અત્યન્ત ભિન્ન થઈ જાય તે તે દાહકાર્ય (બાળવાનું કાર્ય) કરવામાં અસમર્થ થઈ જાય છે. બીજી વાત એ છે કે-આત્મા જે પોતાના જ્ઞાનગુણથી ભિન્ન હોય તો આત્મામાં જડતા આવી જાય. એટલા માટે દ્રવ્ય અને ગુણને ભેદ કેઈ પણ વખતે હતે નહિ, છે નહિ અને થશે પણ નહિ. દુર્જનસંતોષ ન્યાયથી તમારા મત પ્રમાણે કદાચિત એમ માની લઈએ કે આત્મા ગુણથી ભિન્ન છે, અને તે કારણે આત્મા પ્રત્યક્ષ ભલે ન થાય તો પણ प्र. आ-२८. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ आचाराङ्गमुत्रे भवतु, अस्तित्वं च तस्य निर्वाधमेव । ज्ञानादिगुणाः सन्ति यस्य स गुणिरूप आत्मा कथमपलप्येत । ननु देह एवं ज्ञानादिगुणाः उपलभ्यन्ते तदाश्रयतया देह एव रूपादीनां घट गुण सिध्यति, न त्वात्मा । प्रयोगश्चैवम् - देहगुणा एव ज्ञानादयः, तत्रैवोपलभ्यमानत्वाद्, गौरकुशस्थूलतादिवदिति चेन्न, ज्ञानादयो गुणा न देहसम्वन्धिनः, अमृर्तत्वाद्, अचाक्षुपत्वाद् वा, गगनवत् । द्रव्यविरहितो गुणो न भवति । तथापि उसके अस्तित्व में कोई बाधा नही आती । जिस के ज्ञानादि गुण मौजुद हैं उस गुणीरूप आत्मा का अपलाप किस प्रकार किया जा सकता है ? | शङ्का – देह में ही ज्ञानादि गुण पाये जाते हैं, अतः इन गुणों का आधार गुणी देह ही है, जैसे-रूपादि गुणों का आघार घट है । आत्मा ज्ञानादि गुणों का आश्रयभूत गुणी नहीं है । अनुमान इस प्रकार है— ज्ञान आदि देह के गुण है, क्यों कि वे देह में ही उपलब्ध होते, जैसे- गौरपन, दुबलापन और स्थूलता आदि । समाधान —- यह कहना ठीक नहीं, ज्ञान आदि गुण देह के नहीं हैं, क्यों कि वे अमूर्त हैं और अचाक्षुष ( जो आंखसे नहीं दीखता ) हैं, जो अमूर्त और अचाक्षुष होते हैं वे देहके गुण नहीं होते. जैसे आकाश | गुण, द्रव्य के बिना रह नहीं सकते अतः ज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिए । ज्ञानादि गुणोके अनुरूप जो अरूपी एवं अचाक्षुष गुण है वह देह से भिन्न आत्मा ही है । આત્માના અસ્તિત્વમાં કાઈ પ્રકારની હરકત આવતી નથી. જેના છે, તે ગુણીરૂપ આત્માના અપલાપ–(છતી વસ્તુને નથી એમ કરવામા આવે . જ્ઞાનાદિ ગુણુ હૈયાત કહેવુ તે) કેમ શકા—દેહમાં જ જ્ઞાનાદિ ગુણ દેખાય છે, તે કારણથી એ શેાના આધાર ગુણી દેહ જ છે, જેમ રૂપાદિ ગુણેના આધાર ઘટ છે. આત્મા જ્ઞાનાદિ ણાને આશ્રયભૂત ગુણી નથી. અનુમાન આ પ્રમાણે છે—જ્ઞાન આદિ દેહના ગુણ છે, કેમકે તે દેહમાં જ ઉપલબ્ધ જણાય છે, જેમકે ગેારાપણુ, દુખલાપણુ અને સ્થૂળતા - अयायुं वगेरे. સમાધાન—એ પ્રમાણે કહેવું તે ચેગ્ય નથી; જ્ઞાન આદિ ગુણ તે દેહના ગુણુ નથી, કેમકે તે અમૂત્ત છે, અને અચાક્ષુષ છે. ( જે નેત્રથી દેખાતા નથી ). જે અમૂર્ત અને અચાક્ષુષ હાય છે તે દેહના ગુણ થઈ શકતા નથી, જેમ આકાશ. ગુણુ, દ્રવ્ય વિના રહી શકતા નથી, તે કારણથી જ્ઞાન આદિ ગુણ્ણાના આધારભૂત કોઈ દ્રવ્ય હાવું જોઇએ. એટલા માટે જ્ઞાનાદિ ગુણાને અનુરૂપ જે અરૂપી અને અચાક્ષુષ ગુણી છે, તે દેહથી ભિન્ન આત્મા જ છે. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ८.५ आत्मसिद्धिः २१९ तस्माद् ज्ञानादिगुणानामनुरूपो यो रूपरहितोऽचाक्षुषश्च गुणी स देहाद् भिन्न आत्माऽस्तीति विज्ञेयः। न च ज्ञानादयो गुणा न देहसम्बन्धिन इत्यनुमानं प्रत्यक्षबाधितम् , ज्ञानादिगुणानां देह एव प्रत्यक्षेण ज्ञानसद्भावादिति वाच्यम् , अस्य प्रत्यक्षस्यानुमानबाधितत्वात् । शरीरेन्द्रियभिन्नं ज्ञानादिगुणवत्वमनुमानेन सिध्यति । तथाहि-शरीरेन्द्रियभिन्नो ज्ञानादिगुणवान् , तदुपरमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । यो हि यदुपरमेऽपि यदुपलब्धमर्थमनुस्मरति, स तस्मादन्यो दृष्टः, यथा-पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मा देवदत्तः, इत्यादि । केनचित् कारणेन दृष्टिशक्तिविघातेऽपि पूर्वदृष्टपदार्थानुस्मरणं भवतीत्यतो देहेन्द्रियादिभिन्न आत्मा गुणी सिध्यति । ____ ज्ञानादि गुण देहसम्बन्धी नहीं है, यह अनुमान, प्रत्यक्ष से बाधित है, क्यो कि-प्रत्यक्षप्रमाण से वे देह में ही प्रतीत होते है, यह कथन ठीक नहीं है, क्यों कि यह प्रत्यक्ष ही अनुमान से बाधित है । अनुमान से यह सिद्ध है कि-ज्ञान आदि गुणो का आधार शरीर और इन्द्रियो से कोई भिन्न पदार्थ (आत्मा) ही है । अनुमान इस प्रकार है-ज्ञानादि गुणों का आधार शरीर और इन्द्रियों से भिन्न है, क्यों कि उनके नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है। जिसके नष्ट हो जाने पर भी, जिसके द्वारा जाने हुए पदार्थ का जो स्मरण करता है वह उस से भिन्न होता है । जैसे-पोच खिडकियो द्वारा जाने हुए पदार्थो को स्मरण करने वाला देवदत्त है, उसको किसी कारण से देखने की शक्ति नष्ट हो जाने पर भी पहले देखे हुए पदार्थ का स्मरण होता है। इस से भलीभाँति सिद्ध है कि-देह और इन्द्रिय आदि से भिन्न आत्मा ही गुणी है । જ્ઞાનાદિ ગુણ દેહસંબંધી નથી, કારણ કે તે અનુમાન પ્રત્યક્ષથી બાધિત છે, કેમકે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણથી તે દેહમાં જ પ્રતીત થાય છે, તે કથન ઠીક નથી. કેમકે તે પ્રત્યક્ષ અનુમાનથી બાધિત છે. અનુમાનથી એ સિદ્ધ છે કે જ્ઞાન આદિ ગુણેને આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયોથી કઈ ભિન્ન પદાર્થ (આત્મા) જ છે. અનુમાન આ પ્રમાણે છે-જ્ઞાનાદિ ગુણોને આધાર શરીર અને ઇન્દ્રિયથી ભિન્ન છે, કેમકે તેના નષ્ટ થવા છતાંય તેના દ્વારા જાણેલા પદાર્થનું સ્મરણ હોય છે. જેના નષ્ટ થયા પછી પણું, જેના દ્વારા જાણેલે પદાર્થ તેનું જે સ્મરણ કરે છે તે તેનાથી ભિન્ન હોય છે. જેમ પાંચ ખડકીઓ દ્વારા જેવા વાળા પદાર્થોનું સ્મરણ કરવા વાળો દેવદત્ત છે. તેને કોઈ કારણથી દેખવાની શક્તિ નષ્ટ થઈ જવા છતાંય પ્રથમ દેખેલા પદાર્થોનું Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० आचारागसूत्रे एवं च प्रत्यक्षप्रमाणेनात्मनोऽस्तित्वं निरूपितम् । अथ ज्ञानादिगुणानां स्वात्मनि प्रत्यक्षतया तदनन्यभूतः स्वात्माऽपि प्रत्यक्षो भवतु, परशरीरे तु कथमात्मनोऽस्तित्वं विजानीयात् ? इति, उच्यते-यथा स्वदेहे प्रत्यक्षेणात्मा विज्ञायते, तथा परदेहेऽप्यनुमानतो विज्ञेयः । (१) परशरीरं सात्मकम् इष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् , यत्रेष्टानिष्टयोः प्रवृत्तिनिवृत्ती दृश्येते, तत् सात्मकं दृष्टं यथा-स्वशरीरम् , तथा यत् इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा का अस्तित्व निरूपण किया गया। अनुमान से आत्मा की सिद्धिशङ्का-ज्ञान आदि गुणों का अपनी आत्मा में प्रत्यक्ष होने से उन गुणों से अभिन्न अपनी आत्मा को प्रत्यक्ष मान लिया जाय किन्तु दूसरे के शरीर में आत्मा का अस्तित्व कैसे जान सकते है । समाधान-जैसे-अपने शरीर में प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा प्रतीत होता है, उसी प्रकार दूसरे के शरीर में अनुमानप्रमाण से आत्मा समझना चाहिए । अनुमान प्रमाण इस प्रकार है(१) दूसरे का शरीर सात्मक (आत्मा से युक्त ) है, क्यों कि उस की इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट में निवृत्ति देखी जाती है। जहाँ इष्ट-अनिष्ट में प्रवृत्ति और निवृत्ति देखी जाती है, वह सात्मक होता है, जैसे-अपना शरीर । तथा जो सात्मक સ્મરણ રહે છે તેથી બરાબર સિદ્ધ છે કે દેહ અને ઈન્દ્રિય આદિથી ભિન્ન આત્મા જ ગુણી છે. આ પ્રમાણે પ્રત્યક્ષપ્રમાણથી આત્માના અસ્તિત્વનું નિરૂપણ કર્યું છે. અનુમાનથી આત્માની સિદ્ધિ– શંકા–જ્ઞાન આદિ ગુણે પિતાના આત્મામાં હેવાથી, તે ગુણથી અભિન્ન પિતાના આત્માને તે પ્રત્યક્ષ માની લેવામાં આવે, પરંતુ બીજાના શરીરમાં આત્માનું અસ્તિત્વ કેવી રીતે જાણી શકાય ? સમાધાન–જેવી રીતે પોતાના શરીરમાં પ્રત્યક્ષપ્રમાણુથી આત્મા પ્રતીત થાય છે તે પ્રમાણે બીજાના શરીરમાં અનુમાન પ્રમાણથી આત્મા સમજ જોઈએ. અનુમાન પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે – (१) मीनू शरी२ सात्म (मात्माथीयुटत ) छ, भो तेनी छटमा प्रवृत्ति અને અનિષ્ટમાં નિવૃત્તિ જોવામાં આવે છે. જ્યા ઈષ્ટ–અનિષ્ટમાં પ્રવૃત્તિ-નિવૃત્તિ જોવામાં આવે છે તે સાત્મક હોય છે. જેમ પિતાનું શરીર, તથા જે સાત્મક Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य. १ उ. १ मुं. ५ आत्मसिद्धिः २२१ सात्मकं न भवति तत्रेष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्ती न भवतः, यथा घट इति । तथा च परशरीरे प्रवृत्तिनिवृत्ती दृश्येते तस्मात् तत् सात्मकम् इति । 1 यद्वा-शरीरं सकर्तृकं, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् यत् पुनरकर्तृकं तद् आदिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथा-अभ्रविकारः । यश्च कर्ता शरीरस्य, आत्मा । मेदावनैकान्तिकत्ववारणायादिमत्त्व विशेषणम् । यद्वा-अस्तीन्द्रियाणामधिष्ठाता - आत्मा, तत्रानुमानप्रयोगश्चेत्थम् नहीं होता उसमें इष्ट-अनिष्ट की प्रवृत्ति - निवृत्ति भी नहीं होती, जैसे घट । दूसरे के शरीर में भी प्रवृत्ति - निवृत्ति देखी जाती है अतः वह सात्मक है । (२) शरीर सकर्तृक ( कर्ता से युक्त ) है, क्यों कि वह आदिवाला और नियत आकार वाला है, जैसे घट । जो सकर्तृक नहीं होता वह आदि वाला और नियत आकार वाला नहीं होता, जैसे मेघो का विकार ( बनावट ) । शरीर का जो कर्ता है वही आत्मा है । यहॉ नियत आकार वाले सुमेरु आदि से व्यभिचार ( हेतु हो और साध्य न हो ) निवारण करने के लिए ' आदि वाला ' विशेषण लगाया गया है । अथवा इन्द्रियोंका अभिष्ठाता आत्मा है, इस विषय में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए : ( आत्माथीयुक्त ) नथी, तेमां दृष्टि-अनिष्टनी प्रवृत्ति-निवृत्ति पशु थती नथी, भेस - ઘટ, ખીજાના શરીરમાં પણ પ્રવૃત્તિ-નિવૃત્તિ જોવામાં આવે છે, તેથી તે સાત્મક છે. (२) शरीर सर्तृ! ( उतथी युक्त ) छे. भड़े ते माहिवाणु मने नियत આકાર વાળું છે; જેમ ઘટ. જે સતૃક નથી હાતાં તે આદિવાળાં અને નિયમ આકાર વાળાં નથી હાતાં જેમ મેઘાના વિકાર ( અનાવટ ). શરીરને જે કર્તા છે તે આત્મા છે. અહિં નિયત આકારવાળા સુમેરુ આદિથી વ્યભિચાર (હેતુ હાય અને સાધ્ય ન हाय ) निवारण ४२वा भाटे 'आद्दिवाजा' विशेषण लगायु छे. અથવા-ઈન્દ્રિયાનેા અધિષ્ઠાતા આત્મા છે. આ વિષયમાં અનુમાનના પ્રયાગ આ પ્રમાણે કરવા જોઈએ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ आचारागसूत्रे (३) इन्द्रियं साधिष्ठातृकं, करणत्वात् , यथा चक्रचीवरमृत्सूत्रदण्डादयः, अस्ति हि चक्रचीवरादीनामधिष्ठाता कुलालः। यच्च निरधिष्ठातृकं तत् करणमपि न भवति, यथा-आकाशम् , यश्चेन्द्रियाणामधिष्ठाता स आत्मेति । ( ४ ) यद्वा-इन्द्रियविषयाणामादाता संभवति, इन्द्रियविषया शब्दादय आदातृसहिताः आदानादेयभावसद्भावात् , संदंशकलोहवत् । यथा लोके संदशकलोहानामयस्कार आदाताऽस्ति । इन्द्रियविषयाणां चादानादेयभावो विद्यते, अतस्तेपामप्यादाताऽस्तीत्यनुमीयते । यत्र तु आदाता नास्ति, तत्रादानादेयभावोऽपि न विद्यते, यथा-आकाशे । ___ (३) इन्द्रिया किसी सधिष्ठाता से युक्त है, क्या कि-वे करण है, जैसे चक्र, चीवर, मृत्तिका, सूत और दण्ड आदि । चक्र, चीवर आदि का अधिष्ठाता कुंभार है, जिस का कोई अधिष्ठाता नहीं होता वह करण भी नहीं होता, जैसे-आकाश । इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है, वही आत्मा है। (४) अथवा इन्द्रियों के विषय शब्द आदि आदातायुक्त (ग्रहण करने वाले से युक्त ) है, क्यों कि उन में आदान आदेयभाव मौजूद है, जैसे संडासी और लोहे में, तात्पर्य यह है कि लोक में संडासी और लोहे में आदान (लेना) आदेयभाव (जो लिया जाय) प्रसिद्ध है और उन का आदाता लहार है, इसी प्रकार इन्द्रियों तथा विषयों का भी आदानआदेयभाव है, अतः उनका भी कोई आदाता होना चाहिए । जहाँ आदाता नहीं होता वहाँ आदान-आदेयभाव भी नहीं होता, जैसे-आकाश में । (૩) ઈન્દ્રિયે કઈ પણ અધિષ્ઠાતાથી યુક્ત છે, કેમકે તે કરણ છે, જેમકે ચક, ચીવર, મૃત્તિકા, સૂત અને દંડ આદિ. ચક્ર, ચીવર વગેરેને અધિષ્ઠાતા કુંભાર છે, જેને કેઈ અધિષ્ઠાતા હોય નહિ, તે કરણ પણ હોય નહિ; જેમકે–આકાશ. ઇન્દ્રિયને જે અધિષ્ઠાતા છે, તે આત્મા છે. (૮) અથવા-ઈન્દ્રિયના વિષય શબ્દ આદિ આદાનયુક્ત(ગ્રહણ કરવાવાળાयुत) छ, म तेमा माहान-माहेय मा भानु छ. रेभ सासी मन सोडभा. તાત્પર્ય એ છે કે લોકમાં સાણસી અને લોહમાં આદાન-આદેય ભાવ પ્રસિદ્ધ છે. અને તેના આદાતા લુહાર છે; આ પ્રમાણે ઇન્દ્રિો તથા વિષને પણ આદાનઆદેય ભાવ છે તેથી તેને પણ કેઈ આદાતા હવે જોઈએ જ્યાં આદાતા નથી, ત્યાં આદાન-આદેય ભાવ પણ હેય નહિ, જેમ આકાશમાં. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५ आत्मसिद्धिः २२३ ( ५ ) यद्वा - देहादिकं विद्यमानभोक्तकम्, भोग्यत्वात्, यथा - अन्नवस्त्रादिकम् । अन्नवस्त्रादीनां भोक्ता मनुष्योऽस्ति । यस्य च भोक्ता नास्ति तद् भोग्यमपि न भवति, यथा खरविषाणम्, भोग्यं च शरीरादिकं, तस्माद् विद्यमानभोक्तृकम् । ( ६ ) यद्वा - अस्ति देहादिकं सस्वामिकं, संघातरूपत्वात्, मूर्तिमत्त्वात्, ऐन्द्रियत्वात्, चाक्षुपत्वात्, यथा - गृहादिकम् । गृहादीनां स्वामिनः देवदत्तादयः सन्ति । यत् पुनरस्वामिकं तत् संघातरूपं न भवति, मूर्तिमन्न भवति, ऐन्द्रियं न भवति, चाक्षुषं च न भवति, यथा- गगनकुसुमम् । देहादिकं, चास्ति संघातादिरूपम्, तस्माद् विद्यमानस्वाभिकम् । यश्च देहादीनां स्वामी स चात्मेति । (५) अथवा - देह आदि का भोक्ता कोई अवश्य है, क्यों कि वे भोग्य है, जो भोग्य होते हैं उन का भोक्ता भी होता है, जैसे – अन्न, वस्त्र आदि का । अन्न-वस्त्र आदिका भोक्ता मनुष्य है । जिसका भोक्ता नहीं होता वह भोग्य भी नहीं होता, जैसे गधे का सींग । शरीर आदि भोग्य है अतः उनका भोक्ता अवश्य है । (६) अथवा - देह आदि का कोई स्वामी है, क्यो कि वे संघातरूप है, मूर्तिमान् है, इन्द्रियो के विषय हैं और चाक्षुष है, घर आदि के समान । घर आदि के स्वामी देवदत्त आदि है | जिसका कोई स्वामी नहीं होता वह संघातरूप नहीं होता, मूर्तिमान् नहीं होता, इन्द्रिय का विषय नहीं होता, और चाक्षुष ( आंख से दीखने वाला ) भी नहीं होता, जैसे—आकाशपुष्प | देह आदि संघातरूप है, अतः उन का स्वामी अवश्य है । देह आदि का जो स्वामी है वही आत्मा है । (4) अथवा हेड माहिनो लोउता अर्थ अवश्य छे, उमड़े ते लोग्य छे, ने लोग्य होय छे, तेनेो लोउता पशु होय छे. नेम डे मान्न, वस्त्र माहिनो, अन्न-वस्त्र આદિના ભાકતા મનુષ્ય છે. જેના ભાકતા નથી તે ભેગ્ય પણ નથી, જેમ ગધેડાના શીંગ. શરીર આદિ ભાગ્ય છે, તેથી તેને ભેાકતા અવશ્ય છે. (६) अथवा हेड माहिना है। स्वाभी थे, भडे-ते सौंधात३य छे, भूर्तिभान छे, ઈન્દ્રિયોના વિષય છે. અને ચાક્ષુષ છે, ઘર આદિ પ્રમાણે. ઘર ફ્રિના સ્વામી દેવદત્ત આદિ છે. જેના કાઈ સ્વામી નથી તે સ ઘાતરૂપ પણ નથી, અને તે મૂર્તિમાન પણ હાય નહિ, ઇન્દ્રિયેાના વિષય પણ હોય નહિ અને ચાક્ષુષ ( નેત્રથી જોઈ શકાય તેવા) પણ હોય નહિ, જેમકે આકાશપુષ્પ. દેહ આદિ સ ંઘાતરૂપ છે, તેથી તેને સ્વામી અવશ્ય છે, દેહ આદિના સ્વામી છે, તે આત્મા છે. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ आचाराङ्गसूत्रे न च - आदिमत्प्रतिनियताकारत्वादिहेतुभिः शरीरादीनां कर्त्रादय एव सिध्यन्ति, न तु प्रस्तुत आत्मेति वाच्यम् । अन्यस्येश्वरादेर्युक्त्यसहत्वेन कर्तुत्वाद्यसंभवाद् देहादीनां कर्ता, अधिष्ठाता, आदाता, भोक्ता, स्वामी चायमात्मैवेति निश्चयात् । ननु — घटादीनां कर्त्रादिरूपाः कुलालादयो मूर्तिमन्तः संघातरूपा अनित्यादिस्वभावाथ दृष्टाः इत्यतो जीवोऽप्येतादृश एव सिध्यति, एतद्विपरीतश्चास्माकं साधनीयः, इत्येवं साध्यविरूद्धसाधकतया हेतूनां विरुद्धत्वापत्तिरिति चेन्मैवम्, संसारिणमात्मानं साधयितुं प्रवृत्तानामस्माकमेतद्दोषासंभवात् । संसारी चात्माऽष्टविधकर्म पूर्वोक्त-' आदिमान होते हुए नियत आकार वाले होने से ' इत्यादि हेतुओं से शरीर आदि के कर्ता आदि ही सिद्ध होते है, प्रस्तुत आत्मा सिद्ध नहीं होता, ऐसा नहीं कहना चाहिये क्यों कि - आत्मा से भिन्न ईश्वर आदिका कर्तापन युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता, अतः देह आदिका कर्ता, अधिष्ठाता, आदाता, भोक्ता और स्वामी आत्मा ही है, ऐसा निश्रय हो जाता है 1 शङ्का- -घट आदि के कर्ता कुंभार वगैरह मूर्तिक, संघातरूप और अनित्य आदि स्वभाव वाले देखे जाते है, अतः जीव भी ऐसा ही सिद्ध होता है, मगर आपको इस से विपरीत धर्मावाला आत्मा सिद्ध करने के कारण पूर्वोक्त हेतुओं में विरुद्ध दोष आता है । समाधान - ऐसा मत कहो। हम संसारी आत्मा सिद्ध करने के लिए उद्यत પૂર્વોકત-આદિમાન હોવા છતાંય નિયત આકારવાળા હાવાથી’ ઈત્યાદિ હેતુઓથી શરીર આદિના કર્તા આદિ જ સિદ્ધ હોય છે. પ્રસ્તુત આત્મા સિદ્ધ થતા નથી. એમ નહિ કહેવું જોઈ એ, કેમકે આત્માથી ભિન્ન શ્વિર આદિનું કર્તાપણું યુકિત સંગત થતુ નથી, તેથી દેહ આર્દિને કર્તા, અધિષ્ઠાતા, આદાતા, ભેાકતા અને સ્વામી ગાત્મા જ છે. એમ નિશ્ચય થઈ જાય છે. શંકા-ઘટ આદિના કર્તા કુભાર વગેરે મૂર્તિક, સંઘાતરૂપ અને અનિત્ય આદિ સ્વભાવવાળા જોવામાં આવે છે, તેથી જીવ પણ એવેા જ સિદ્ધ થાય છેપર'તુ તમનેતેનાથી વિપરીત ધર્મોવાળા આત્મા સિદ્ધ કરવા છે, એવી સ્થિતિમાં સાધ્યથી વિરૂદ્ધ સિદ્ધ કરવાના કારણે પૂર્વાકત હેતુઓમાં વિરૂદ્ધતા દેષ આવે છે. સમાધાન–એ પ્રમાણે ન કહા, અમે સંસારી આત્મા સિદ્ધ કરવા માટે તૈયાર થયા Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू.५ आत्मसिद्धिः २२५ पुद्गलसंघातोपगूढत्वात् , सशरीरत्वाच्च कथंचिन्मूर्तत्वादिधर्मयुक्त एवास्तीति । (७) यद्वा-'जीव' इति पदं सार्थकं, व्युत्पत्तिमत्त्वे सति असमासपदत्वाद् एकपदत्वाद् घटादिपदवत् । घटादिपदं व्युत्पत्तिमत् असमासपदमेकपदं लोके दृष्टम् , तथा च जीवपदं, तस्मात् सार्थकम् । यत्तु सार्थकं नास्ति तद् व्युत्पत्तिमत् असमासपदमेकपदं च नास्ति, यथा-खरविषाणादिकं, डिस्थादिकं च पदम् । जीवपदं च न तथा, तस्मात् सार्थकम् । ___यद् व्युत्पत्तिमन्न भवति तदेकपदमपि सद् न सार्थकम् , यथा डित्यादिपदम् , इति हेतोरनैकान्तिकत्वापत्तिस्तद्वारणाय व्युत्पत्तिमात्वविशेषणमुपात्तम् । हुए है, इस लिए कोई दोष नही आता । संसारी आत्मा आठ कर्मों के समूह से युक्त होने के कारण तथा सशरीर होने के कारण मूर्तत्व आदि धर्मों से युक्त ही है। (७) अथवा-'जीव' पद का वाच्य अवश्य है, क्यो कि यह पद व्युत्पत्ति वाला होते हुए समासरहित है, एक पद है, घट आदि पदों के समान । घट वगैरह पद व्युत्पक्तिवाले, असमासपद, एक पद लोक में देखे जाते है अतः उनके वाच्य भी अवश्य है । 'जीव' पद भी ऐसा ही है, अतः वह भी सार्थक है । जो पद सार्थक नहीं होता वह व्युत्पत्तिवाला असमासपद, एक पद भी नहीं होता, जैसे-'खरविषाण' पद, अथवा 'डित्थ' पद, जीव पद ऐसा नहीं है, अतः वह सार्थक है। जो व्युत्पत्ति वाला नहीं होता वह एक पद होते हुए भी सार्थक नहीं होता, जैसे - 'डित्थ ' आदि पद । इस हेतु में अनैकान्तिकता निवारण करने के लिए व्युत्पत्ति છીએ, એટલા માટે કઈ દેષ આવતું નથી, સંસારી આત્મા આઠ કર્મોના સમૂહથી યુક્ત હોવાના કારણે તથા સશરીર હોવાના કારણે મૂર્ણત્વ આદિ ધર્મોથી યુક્ત જ છે. (७) अथवा '' पहन पाय मवश्य छ, ४।२६ मा ५४ व्युत्पत्तिवाणु હેવા છતાંય સમાસરહિત છે, એક પદ છે, ઘટ આદિ પદના સમાન. “ઘટ એ વ્યુત્પત્તિવાળું અસમાસ પદ એક પદ લેકમાં જોવામાં આવે છે, તે કારણથી તેનું વાચ્ચ પણ અવશ્ય છે. “જીવ પદ, પણ એવું જ છે, તેથી તે પણ સાર્થક છે. જે પદ સાર્થક નથી થતું તે વ્યુત્પતિવાળા અસમાસ પદ એક પદ પણ થતું નથી. सभ प२विषाय (अधेडाना 1) ५४, मथवा उत्थ' ५४. ०१-५६ मे नथी. તેથી તે સાર્થક છે. - જે વ્યુત્પતિવાળું થતું નથી તે એક પદ હોવા છતાંય પણ સાર્થક નથી થતું, જેમ “ ડિસ્થ આદિ પદ. આ હેતુમાં અનૈકાન્તિતા નિવારણ કરવા માટે, “વ્યુત્પત્તિવાળું” વિશેષણ प्र' आ-२९ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ आचाराङ्गसूत्रे यच्चैकपदं नास्ति किन्तु सामासिकम्, तदपि व्युत्पत्तिमत्वे सत्यपि सार्थकं नास्ति, यथा खरविषाणादिकमिति । तत्रानैकान्तिकत्त्वापत्तिदोषस्तत्परिहारार्थमेकपदत्वमिति । " ननु देह एव जीवपदस्यार्थोऽस्तु कथं पुनरात्मा विज्ञायेत । देहरूपेऽर्थे जीवशब्दप्रयोगोऽपि दृष्टः, यथा - ' अयं जीवः, तस्मान्न हन्तव्यः' इति । अतो देह एव जीवशब्दार्थतया ग्रहीतव्यः इति चेन्न, पर्यायशब्दभेदाद देहजीवशब्दयोरर्थो भिन्न एवेति बोधनात् यथा घटाकाशयोः, तत्र - घटकुम्भकलशादयो घटशब्दस्य पर्यायाः, आकाशनभोव्योमादयस्त्वाकाशशब्दपर्यायाः, अतस्तयोरर्थे वाला ' विशेषण लगाया है । तथा जो एक पद नहीं है किन्तु समासयुक्त पद है वह व्युत्पत्तिवाला होते हुए भी सार्थक नहीं होता । जैसे खरविषाण आदि पद । इस में अनैकान्तिकता हटाने के लिए 'एकपद' का प्रयोग किया गया है । 2 शङ्का - जीव पदका अर्थ देह ही क्यों न मान लिया जाय ? आत्मा अर्थ कैसे समझा जाय ? देह के अर्थ में जीव शब्दका प्रयोग देखा भी जाता है, जैसे ' यह जीव है, अतः हनन करने योग्य नहीं है । इस लिए जीव शब्द का अर्थ शरीर ही लेना चाहिए । समाधान - देहके और जीव के पर्यायवाची शब्द अलग अलग है, अतः दानो का अर्थ अलग-अलग ही मानना चाहिए। जैसे घटके पर्यायवाची कुम्भ, कलश आदि शब्द अलग है, और आकाश के पर्यायवाची शब्द नभ, व्योम, गगन आदि આપ્યુ છે, તથા જે એક પદ નથી. પરંતુ સમાસયુક્ત પદ્ય છે તે વ્યુત્પત્તિવાળુ હાવા છતાંય સાર્થક થતુ નથી. જેમ ખરવાણુ આદિ પદ, તેમાં અનાકાન્તિકતા હઠાવવા માટે-એક પદના પ્રયાગ કરેલા છે. શકા—જીવ’ પદના અર્થ દેહ શા માટે માનવામાં નથી આવતા ? આત્મા અર્થ કેમ સમજાય છે ? દેહના અમાં જીવ શબ્દના પ્રચાગ જોવામાં પણ આવે છે. જેમ-આ જીવ છે, તેથી હણવા ચેાગ્ય નથી એટલા માટે જીવ શબ્દના અર્થ શરીર જે લેવા જોઈ એ. સમાધાને—દેહ અને જીવના પર્યાયવાચી શબ્દ જૂદા જૂદા છે તેથી એ અનેને બેધ જૂદા જૂદા માનવા જોઈએ. જેમ ઘટના પર્યાયવાચી કુભ, કલશ આદિ શબ્દ અલગ છે, અને આકાશના પર્યાયવાચી શબ્દનભ, ચૈામ, ગગન આદિ શબ્દ અલગ છે. એ કારણથી ઘટના અર્થ અને આકાશને અથ અલગ છે. એ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ ५.५ आत्मसिद्धि २२७ भिन्नता प्रतीयते । प्रकृतेऽपि पाणी, भूतः, जीवः, सत्त्वः, इत्यादयो जीवशब्दस्य पर्यायाः, शरीरं वपुः, कायो, देहः, गात्रमित्यादयस्तु शरीरशब्दपर्याया 'अयं जीवस्तस्मान्न हन्तव्यः' इत्यनेनापि देहस्थितस्य प्राणिन एव हिंसा निषिध्यते । आप्तागमस्तु समस्त एवात्मानं बोधयति, आत्मतत्त्वस्यैव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रार्थ तस्य प्रवृत्तत्वात् । तथापि कानिचिदागमवचनानि प्रमाणतया प्रदर्शयामः ‘से आयावादी' इति प्रस्तुतमेव वचनं तावद् गृहाण । ‘से जं पुण शब्द अलग है, इस लिए घटका अर्थ और आकाश का अर्थ अलग-अलग है। इसी प्रकार जीव के पर्यायवाचक प्राणी, भूत, जीव, सत्व आदि शब्द अलग है और देह के पर्यायवाचक शरीर, वपु, काय, गात्र आदि भिन्न है, अतः इन दोनो का अर्थ भी अलग होना चाहिए । 'यह जीव है अतः हनन करने योग्य नहीं है। इस वाक्य द्वारा देह में स्थित प्राणी की ही हिंसा का निषेध किया जाता है । आगम से आत्मा की सिद्धि आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत सम्पूर्ण आगम आत्मा का बोधक है। आत्मतत्त्व के सम्यग् दर्शन, ज्ञान, और चारित्र के लिए हो आगम की प्रवृत्ति होती है फिर भी आगम के कतिपय वाक्य प्रमाणरूप में प्रदर्शित करते है: सब से पहले-‘से आयावादी', इस प्रस्तुत वाक्य को ही लीजिए પ્રમાણે જીવનાં પર્યાયવાચક–પ્રાણી, ભૂત, જીવ સત્વ આદિ શબ્દ અલગ છે. અને દેહના પર્યાયવાચક–શરીર, વપુ, કાય, ગાત્ર આદિ ભિન્ન છે. તે માટે એ બંનેનો અર્થ પણ અલગથે જોઈએ. “આ જીવ છે તેથી હનન કરવા ચોગ્ય નથી” આ વાક્ય દ્વારા દેહમાં રહેલા પ્રાણીની જ હિંસાને નિષેધ કરવામાં આવ્યું છે. આગમથી આત્માની સિાધ– આમ પુરુષ દ્વારા પ્રણીત સંપૂર્ણ આગમ આત્માનું બાધક છે. આત્મતત્વના સમ્યગદર્શન, જ્ઞાન અને ચારિત્ર માટે જ આગમની પ્રવૃત્તિ હોય છે. તે પણ આગમના કેટલાક વાકય પ્રમાણમાં પ્રદશિત કરે છે– सौथी प्रथम ‘से आयावादी' मा प्रस्तुत-बायु पश्यने र दये से जं पुण Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ आचाराङ्गसूत्रे जाणेज्जा' इत्यादि - ' सोऽहं ' इत्यन्तं प्राग्व्याख्यातं च ( आचा० १ अ०१ उ० ) । अस्थि आया ' ( अस्त्यात्मा ) इति । ' अस्थि जीवा ' ( सन्ति जीवाः ) इति । एगे आया ' (एक आत्मा ) ( स्था० १ स्था० १ उ० ) इति । 6 " "कविहाणं भंते ! दव्त्रा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता, तंजाजीवदव्वा य, अजीवदव्वा य" (अनु. सु. १४१ ) इत्यादीन्यनुसन्धेयानि । अन्येऽपि सांख्यादयः प्रायशः स्वीकुर्वन्त्येव शरीराद्भिन्नतयाऽऽत्मनोऽस्तित्वमिति । आत्मनो द्रव्यत्वनिरूपणम् - अयमात्मा द्रव्यमस्ति चेतनाद्यनन्तगुणवत्त्वात् ज्ञानदर्शनलक्षणविविधोपयोगाद्यनन्तपर्याय वच्चाच्च । चेतनाद्वारेणात्मा नानारूपोपयोगरूपेण परिणमते । 'से जं पुण जाणेज्जा' से लेकर ' सोऽहं ' तक पहले व्याख्यान किया जा चुका है । ( आचा. १ अ. १ उ. ) तथा 'अस्थि आया' 'अस्थि जीवा' 'एगे आया ' ( स्था. १ स्था. १ उ. ) तथा कइविहाणं भंते दच्चा : पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - जीवदव्वा य अजीवदव्वा य, (अनु. सू. १४१ ) इत्यादि अनेक आगमवाक्य समझ लेने चाहिए | दूसरे सांख्य वगैरह भी प्रायः शरीर से भिन्न आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते है । ( आत्माका द्रव्यत्वनिरूपण गुणों से युक्त है आत्मा व्य है, क्यो कि वह चेतना आदि अनन्त और वह ज्ञानोपयोग तथा दर्शनोपयोग आदि अनन्त पर्यायों वाला भी है | चेतना जाणेज्जा' थी सने 'सोऽहं' सुधी पहेला व्याम्यान हरी द्वीधुं छे ( माया. १-२ १-७) तथा 'अस्थि आया' 'अस्थि जीवा' 'एंगे आया' (स्था १ स्था. १ ७ . ) ' कइविहा णं भंवे ! दुव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य' (अनु. सू. १४१ ) इत्यादि अने भागम-वाय सम सेवां लेणे. खील सांख्य શાસ્ત્ર વગેરે પણ પ્રાયઃ શરીરથી ભિન્ન આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરે છે. આત્માનુ દ્રવ્યનિરૂપણ- આત્મા દ્રવ્ય છે, કેમકે તે ચેતના આદિ અનન્ત ગુણાથી યુકત છે, અને તે જ્ઞાનેયાગ તથા દનાપયેાગ આદિ અનન્ત પર્યાયે વાળા પણ છે. ચેતનાદ્વારા આત્મા નાના પ્રકારના રૂપમાં પરિણત થાય છે, પરંતુ ચેતના આત્મદ્રવ્યના રૂપમાં Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ आत्मसिद्धिः चेतना चात्मद्रव्यादात्मगतान्यसुखादिगुणतश्चानपायिनो । तामेवाश्रित्य ज्ञानदर्शनादिविविधोपयोगानां भिन्नभिन्नसमयवर्तिनां त्रैकालिका प्रवाहो भवति । तस्याश्वेतनायाः कार्यरूपः पर्यायप्रवाहः स्वरूपेणोपयोग एव ।। उपयोगात्मकपर्यायप्रवाह इव सुखदुःखवेदनात्मकपर्यायप्रवाहस्तथा प्रवृत्त्यात्मकपर्यायप्रवाहादयोऽनन्तपर्यायप्रवाहा. सह-युगपत् प्रवर्तन्ते । अतश्चेतनागुण इवात्मनि आनन्दवीर्यप्रभृत्येकैकगुणस्वीकरणीयतयाऽनन्तगुणाः सिध्यन्ति । ___ आत्मनि चेतनाऽऽनन्दवीर्यादिगुणानां भिन्नभिन्ना विविधपर्याया एकस्मिन् समये समुपलभ्यन्ते परन्त्धेकस्य चेतनागुणस्य विविधाउपयोगपर्याया के द्वारा आत्मा नाना प्रकार के उपयोगों के रूप में परिणत होता है किन्तु चेतना, आत्मद्रव्य के रूप में, तथा आत्मा में रहने वाले सुख आदि गुणों के रूप में सदा विद्यमान रहती है-कभी नष्ट नहीं होती, उस के आधार पर ज्ञान दर्शन आदि भिन्न भिन्न समयों में होने वाले अनेक उपयोगों का प्रवाह वहता है। उस चेतना का कार्यरूप पर्याय-प्रवाह स्वरूपसे उपयोग ही है। उपयोगात्मक पर्याय-प्रवाह के समान सुख-दुःखसंवेदनरूप पर्याय का प्रवाह है; तथा प्रवृत्त्यात्मक पर्यायप्रवाह आदि अनन्त पर्याय-प्रवाह एक साथ जारी रहते है, अतः चेतनागुण के समान आत्मा में आनन्द, वीर्य आदि एक एक गुण स्वीकार करने योग्य होने से अनन्त गुण सिद्ध होते है। आत्मा में चेतना सुख वीर्य आदि गुणों की भिन्न२ विविध पर्याये एक ही समय में उपलब्ध होती है, किन्तु एक ही समय में अकेले चेतनागुण की विविध તથા આત્મામાં રહેવાવાળા સુખ આદિ ગુણના રૂપમાં હમેશાં વિદ્યમાન રહે છે. કઈ વખત પણ નાશ પામતી નથી. તેના આધાર પર જ્ઞાન, દર્શન આદિ ભિન્ન બિન સમયેમાં થવાવાળા અનેક ઉપગોને પ્રવાહ વહેતો રહે છે. તે ચેતનાના કાર્યરૂપ પર્યાયપ્રવાહ સ્વરૂપથી ઉપયોગ જ છે. ઉપગાત્મક પર્યાય–પ્રવાહના સમાન સુખ–દુખસંવેદનરૂપ પર્યાયને પ્રવાહ છે. તથા પ્રવૃત્યાત્મક પર્યાય-પ્રવાહ આદિ અનંત પર્યાયપ્રવાહ એક સાથે જારી રહે છે. તેથી ચેતનાગુણ સમાન આત્મામાં આનંદ વીર્ય આદિ. એક–એક ગુણ સ્વીકાર કરવા ગ્ય હેવાથી અનંત ગુણ સિદ્ધ થાય છે. આત્મામાં ચેતના, સુખ, વીર્ય, આદિ ગુણેની ભિન્ન-ભિન્ન વિવિધ પર્યાય એકજ સમયમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, પરંતુ એકજ સમયમાં એકલા ચેતનાગુણની Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० आचारागसूत्रे एकस्मिन् समये न समुपलभ्यन्ते, तथैकस्यानन्दगुणस्य वा विविधा वेदनपर्याया एकस्मिन् समये नोपलभ्यन्ते । प्रत्येकगुणस्यैकस्मिन् समये एक एव पर्यायः प्रकटीभवति । यथाजलावस्थितस्यापि नरस्य शीतोष्णोपयोगी न युगपद् भवतः । उष्णोपयोगसमये शीतोपयोगो नोपलभ्यते, शीतोपयोगसमये चोष्णोपयोगोपि नैवेति । आत्मा नित्यः। तस्य चेतनादिगुणा अपि नित्याः। परन्तु चेतनाजन्य उपयोगपर्यायो न नित्यः, सतु सदैवोत्पादविनाशशालितया व्यक्तिरूपेणानित्यः । उपयोगपर्यायप्रवाहस्तु त्रैकालिकतया नित्य इति । उपयोगरूप पर्याय उपलब्ध नहीं होती । उसी प्रकार एक ही समयमें अकेले आनन्दगुणकी भी विविध वेदनरूप पर्याय उपलब्ध नहीं होती। प्रत्येक गुण की एक समय में एक ही प्रर्याय प्रकट होती है, परन्तु जैसे-जल में स्थित पुरुष के शीत और उष्ण, दोनो उपयोग एक साथ नहीं होते। उष्णोपयोग के समय गीतोपयोग नहीं पाया जाता, और शीतोपयोग के समय उष्णोपयोग नही पाया जाता। आत्मा नित्य है, उसके चेतना आदि गुण भी नित्य है, परन्तु चेतनाजन्य उपयोग-पर्याय नित्य नहीं है, वह सदैव उत्पन्न और विनष्ट होती रहती है, अत व्यक्तिरूपसे अनि-य है, उपयोग-पर्याय का प्रवाह त्रिकालवर्ती होनेके कारण नित्य है। વિવિધ ઉપગશ્ય પર્યાય ઉપલબ્ધ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે એક જ સમયમાં એકલા આનંદ ગુણની પણ વિવિધ વેદનપ પર્યાયે ઉપલબ્ધ થતી નથી. પ્રત્યેક ગુણની એક સમયમાં એકજ પર્યાય પ્રગટ થાય છે, જેમ જલમાં ઉભા રહેલા પુરૂષને શીત અને ઉણુ, એ બંને ઉપયોગ એક સાથે થશે નહિ, ઉપગના સમયે શીતયુગ થશે નહિ અને શીતે પગના સમયે ઉથ્થપગ જણાશે નહીં. આત્મા નિત્ય છે, તેના ચેતના આદિ ગુણ પણ નિત્ય છે, પરંતુ ચેતનાજન્ય ઉપગ-પર્યાય નિત્ય નથી, તે હમેશાં ઉત્પન્ન અને નાશ થતી રહે છે, તેથી વ્યક્તિરૂપથી અનિત્ય છે, તે પણ ઉપગ-૫ર્યાયને પ્રવાહ ત્રિકાલવતી હોવાથી नित्य छे. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ __ आचाराचन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.५. आत्मसिद्धिः अनन्तगुणानामखण्डसमुदाय एव द्रव्यम् , तथाप्यात्मनश्चेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयो गुणाः परिमिता एव साधारणधियां छद्मस्थानां ज्ञेया भवन्ति, न तु सर्वे गुणाः । इदमत्र कारणम्-विशिष्टज्ञानमन्तरेणात्मनः सर्वे पर्यायप्रवाहा विज्ञातुमशक्याः भवन्ति । यो यः पर्यायप्रवाहः साधारणबुद्धया ज्ञातुं शक्यते तत्कारणीभूतानां गुणानां व्यवहारः क्रियते, अतस्ते गुणा व्यवहार्या भवन्ति । यथा-आत्मनश्चेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयो गुणा व्यवहार्याः सन्ति । शेषास्तु सर्वे केवलिगम्या इति । त्रैकालिकानामनन्तपर्यायाणामेकैकमवाहस्य कारणीभूतकस्यैकगुणोऽस्ति, ताशानन्तगुणानां समुदायो द्रव्यम् । एतदपि कथञ्चिद् भेदविवक्षया । अभेद अनन्त गुणों का अखण्ड समुदाय ही द्रव्य है फिर भी आत्मा के चेतना सुख, चारित्र, वीर्य आदि गुण साधारणबुद्धि वाले छमस्थो के द्वारा परिमित ही जाने जाते हैं, सब गुण नहीं जाने जाते । इस का कारण यह है कि-विशिष्ट ज्ञान के विना आत्मा के समस्त पर्याय-प्रवाहों को जानना अशक्य है। जो जो प्रर्याय-प्रवाह साधारण बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है, उसके कारणभूत गुणो का व्यवहार किया जाता है, अत एव वे गुण व्यवहार्य होते हैं, जैसे-आत्मा के चेतना, सुख, चारित्र, और वीर्य आदि गुण व्यवहार्य होते है । शेष सब केवलिगम्य है । तीन काल सम्बन्धी अनन्त पर्यायो के एक-एक प्रवाह का कारण एक-एक गुण है, और ऐसे अनन्त गुणों का समुदाय द्रव्य है। यह कथन क्वचित् भेद અનત ગુણેને અખંડ સમુદાય જ દ્રવ્ય છે, તે પણ આત્માના ચેતના, સુખ ચારિત્ર, વીર્ય આદિ ગુણ સાધારણ બુદ્ધિવાળા છદ્મસ્થદ્વારા પરિમિત–મર્યાદિત જ જાણવામાં આવે છે, પરંતુ સર્વ ગુણ જાણવામાં આવતા નથી. તેનું કારણ એ છે કે–વિશિષ્ટ જ્ઞાન વિના આત્માના સમસ્ત પર્યાય–પ્રવાહને જાણવા અશક્ય છે. જે જે પર્યાય-પ્રવાહ સાધારણ બુદ્ધિવાળા દ્વારા જાણી શકાય છે, તેના કારણભૂત ગુણેને વ્યવહાર કરવામાં આવે છે, એ કારણથી તે ગુણ વ્યવહાર્ય થાય છે, જેમ આત્માને ચેતના, સુખ, ચારિત્ર અને વીર્ય આદિ ગુણ વ્યવહાર્ય થાય છે, બાકી સર્વ કેવલિગમ્ય છે. ત્રણ કાલ સંબંધી અનન્ત પર્યાના એક–એક પ્રવાહનું કારણ એક–એક ગુણ છે. અને એવા અનંત ગુણેને સમુદાય તે દ્રવ્ય છે. આ કથન કંચિત Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे दृष्टया तु पर्यायाः स्वस्वकारणीभूतस्य गुणस्य स्वरूपाः, गुणा अपि द्रव्यस्वरूपा इति गुणपर्यायात्मकमेव द्रव्यमित्युच्यते । द्रव्येषु सर्वे गुणा एकरूपा न सन्ति । तत्र कतिचन साधारणाः अनेकद्रव्यवर्तिनः सर्वद्रव्यवर्तिनश्च । यथा अस्तित्व-प्रदेशवत्व-ज्ञेयत्वादयः सर्वद्रव्यवर्तिनः, निष्क्रियत्वाऽचेतनत्वाऽरूपित्वादयोऽनेकद्रव्यवर्तिनः। कतिचिदसाधारणा गुणा एकद्रव्यमात्रवर्तिनः सन्ति । यथा-आत्मनश्चेतनाऽऽनन्दचारित्रवीर्यादयः । स्वस्वाऽसाधारणगुणानां तज्जन्यपर्यायाणां चापेक्षया प्रत्येकद्रव्यमन्यद्रव्याद् भिन्नमस्तीति बोध्यम् । विविक्षा से ही है । अभेद-विवक्षा से तो पर्यायें अपने कारणभूत गुण से अभिन्न हैं और गुण, द्रव्य से अभिन्न है, अत: गुणपर्यायरूप ही द्रव्य कहलाता है । द्रव्य में सभी गुण एकरूप नही है। कोई-कोई गुण साधारण है, अर्थात् सामान्य रूप से अनेक द्रव्यो में पाये जाते है, या समस्त द्रव्यो में पाये जाते है। जैसे-अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रदेशवत्त्व, और ज्ञेयत्व, ये गुण समस्त द्रव्यो में पाये जाते है। निष्क्रियत्व, अचेतनत्व, और अरूपित्व आदि गुण अनेक द्रव्यवर्ती है। कोई-कोई गुण असाधारण है-सिर्फ एक द्रव्य में रहते है, जैसे-आत्मा के चैतन्य, मुम्ब, चारित्र, वीर्य आदि गुण | अपने-अपने असाधारण गुणों और गुणों से उत्पन्न पयायो की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य दृसरे द्रव्य से भिन्न है, ऐसा जानना चाहिए । ભેદવિવક્ષાથી જ છે. અભેદવિવશાથી તે પર્યાયે પિતાના કારણભૂત ગુણથી અભિન્ન છે, અને ગુણ દ્રવ્યથી અભિન્ન છે તેથી ગુણપર્યાયરૂપજ દ્રવ્ય કહેવાય છે. દ્રવ્યમાં ગુણ એકરૂપ નથી, કઈ કઈ ગુણ સાઘારણ છે, અર્થાત–સામાન્ય રૂપથી અનેક દ્રવ્યમાં જોવામાં આવે છે. અથવા સમસ્ત દ્રવ્યમાં જોવામાં આવે છે. જેમ-અસ્તિત્વ, વરતુત્વ, પ્રદેશવત્વ અને શેયત્વ, એ ગુણ સમસ્ત દ્રવ્યોમાં લેવામાં આવે છે. નિષ્કિયત્વ, અચેતનત્વ, અને અપિ આદિ ગુણ અનેક દ્રવ્યવતી છે. કેઈકેઈ ગુણ અસાધારણ છે-માત્ર એક દ્રવ્યમાં રહે છે. જેવી રીતે આત્માના ચિતન્ય, સુખ, ચારિત્ર, વીર્ય આદિ ગુણ. પિત–પિતાના સાધારણ ગુણો અને ગુણથી ઉત્પન્ન પર્યાની અપેક્ષા પ્રત્યેક દ્રવ્ય બીજા દ્રવ્યથી ભિન્ન છે, એમ સમજવું જોઈએ. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मवादिम० आत्मनः स्वरूपम्आत्मनः स्वरूपं तावदुच्यते आत्मा-(१)-जीवः (२)-नित्यः (३)-चेतनावान् , (४)-उपयोगवान् , (५)-परिणामी, (६)-प्रभुः, (७)-कर्ता, (८)-साक्षाभोक्ता, (९)-स्वशरीरपरिमाणः, (१०)-अमूर्तः, (११)-प्रतिशरीरं भिन्नः, (१२)-पौगलिककर्मसंयुक्तः, (१३)-ऊर्ध्वगतिशीलश्च । तत्राऽऽत्मनो जीवत्वादिस्वरूपं निरूप्यते (१) जीवत्वनिरूपणम्अयमात्मा निश्चनयेन सत्ता-चैतन्य-ज्ञानादिरूपैः शुद्धपाणैः, तथा आत्मा का स्वरूपअब आत्मा का स्वरूप कहते है: आत्मा-(१)-जीव है, (२)-नित्य है, (३)-चेतनावान् है, (४)-उपयोगवान् है, (५)-परिणामी है, (६)-प्रभु है, (७)-कर्ता है, (८)-साक्षात् भोक्ता है, (९)-अपने शरीर के बराबर है, (१०)-अमूर्त है, (११)-प्रत्येक शरीर से भिन्न है, (१२)-पौगलिक कर्मों से युक्त है, और (१३)-ऊर्ध्वगमन स्वभाववाला है । उन में अब आत्मा के जीवत्वादि स्वरूप का निरूपण करते है- . (१) जीवत्व का निरूपणआत्मा निश्चयनय से सत्ता चतन्य और ज्ञान आदिरूप शुद्ध प्राणों से, तथा આત્માનું સ્વરૂપહવે આત્માનું સ્વરૂપ કહે છે– मात्मा-(१) १ छ, (२) नित्य छ, (3) येतनात छे, (४) उपयोगात छे, (५) परिणामी छे, (6) प्रभु छ, (७) sी छे, (८) साक्षात् लोता छ, (6) પિતાના શરીર બરાબર છે, (૧૦) અમૂર્ત છે, (૧૧) પ્રત્યેક શરીરમાં ભિન્ન ભિન્ન छे, (१२) पौदामि थी युत छ, मने (23) मन स्वभाव! छे. તેમાં આત્માના જીવત્યાદિ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે – (१) १५नु निरूपशुઆત્મા નિશ્ચયનયથી સત્તા, ચિતન્ય અને જ્ઞાન આદિપ શુદ્ધ પ્રાણથી, તથા प्र. आ. ३० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ आचारागसूत्रे व्यवहारनयतो यथासंभवं क्षायोपशमिकैरिन्द्रियादिद्रव्यप्राणैश्च जीवति, जीविष्यति, जीवितवांश्चेत्यतोऽयमात्मा 'जीवः' इत्युच्यते । "अयमात्मा न देहादन्यः, नापि जन्मान्तरसंक्रान्तः" इति नास्तिकमतं निराकर्तुमुक्तम्-'अयमात्मा जीवः' इति । पूर्वभवसंस्कारं विना कथमिह प्रमूत एव वालो मातुः स्तन्यपाने प्रवर्तते । प्रवृत्ति प्रति स्वकृतिसाध्यत्वस्येष्टसाधनताज्ञानस्य च कारणतया बालस्य तज्ज्ञानजनकपूर्वभवीयसंस्कारोऽस्तीति विज्ञायते । तस्मादात्मनः पूर्वभवसम्बन्धोऽवधार्यते । तेन च देहभिन्नत्वमपि ज्ञायते । अयमात्मा यदि पाश्चभौतिकदेहरूपः स्यात् , तर्हि मन्मयभाण्ड-सलिलव्यवहारनय से यथासंभव क्षयोपशम-जन्य इन्द्रियादि द्रव्यप्राणो से जीवित है, जीवित रहेगा और जीवित था, इस कारण आत्मा 'जीव' कहलाता है। "आत्मा शरीर से भिन्न नहीं है और न एक जन्म से दूसरे जन्म में जाता है" नास्तिकों के इस मत का निराकरण करने के लिए कहा गया है कि"आत्मा जीव है"। पूर्वभव के संस्कार के विना इस भव में तत्काल जन्मा हुआ शिशु माता के स्तन-पान में कैसे प्रवृत्त हो सकता है ?, शिशु की इस प्रवृत्ति से सिद्ध होता है कि उस में पूर्व भव का संस्कार विद्यमान है। इस से निश्चित हो जाता है कि-आत्मा पूर्व भव में भी था, और इस कारण वह शरीर से भिन्न भी मालम होता है । पांच भूतो से बना हुआ शरीर ही यदि आत्मा है तो मिट्टी का पात्र, पानी, पावक-(अग्नि), पवन और आकाश रूप पांचों भूतों का चूले के ऊपर जब संयोग વ્યવહારનયથી યથાસંભવ ક્ષયોપશમજન્ય ઇન્દ્રિયાદિ દ્રવ્યપ્રાણેથી જીવિત છે, જીવિત રહેશે અને જીવિત હતું, તેથી આત્મા જીવ કહેવાય છે. “ આત્મા શરીરથી ભિન્ન નથી, અને એક જનમથી બીજા જન્મમાં જતે નથીનાસ્તિકને એ પ્રમાણે જે મત છે, તેનું નિરાકરણ કરવા માટે કહ્યું છે કે “આમાં જીવે છે. પૂર્વ ભવના સંસ્કાર વિના આ ભવમાં તત્કાલ જન્મ પામેલું બાળક માતાના સ્તનપાનમાં (ધાવવામાં) પ્રવૃત્તિ કેવી રીતે કરી શકે છે ?, બાળકની આ પ્રવૃત્તિથી સિદ્ધ થાય છે કે તેનામાં પૂર્વ ભવના સંસ્કાર વિદ્યમાન છે. આ કારણથી નિશ્ચય થાય છે કે આત્મા પૂર્વભવમાં પણ હતું, અને તે કારણથી આત્મા શરીરથી ભિન્ન માલુમ પડે છે. પાંચ ભૂતેથી બનેલું શરીર જ જે આત્મા છે તે માટીનું પાત્ર, પાણી, અગ્નિ, આકાશ, પવન વગેરે પર ભૂતેને ચુલા ઉપર જ્યારે સંગ થાય છે, તે તે વખત' Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ आत्मवादिप्र० दहन-पवन-गगनरूपपञ्चभूतेषु चुल्ह्युपरि मिलितेषु चेतनालक्षण आत्मा कथं . नोपलभ्यते ?। यद्वा-मृतशरीरे पञ्चभूतसद्भावेऽपि चेतनालक्षण आत्मा नोपलभ्यते । अतोऽयमात्मा जडरूपपाञ्चभौतिकदेहाद् भिन्नो निश्चीयते । ___ अपरञ्च-आत्मनो देहरूपत्वस्वीकारे कृतनाशोऽकृताभ्यागमश्चापद्येत । कृतस्य कर्मणः फलप्राप्तिं विनैव नाशः स्यात् , अकृतस्य कर्मणः फलप्राप्तिश्च । अकर्तुः फलप्राप्तिः, कर्तुश्च नेति द्वयमयुक्तम् । तस्मात्-आत्मा देहाद् भिन्नो जन्मान्तरसंक्रान्तोऽपीति निश्चयम् । होता है तो चेतनारूप आत्मा क्यो नही पैदा हो जाता १, वही पांचो भूतो का संयोग विद्यमान है और उसीसे आत्मा की उत्पत्ति मानते हो? ___अथवा-मृत शरीर में पांचो भूतो का सद्भाव होने पर भी चेतनस्वरूप आत्मा क्यों उपलब्ध नहीं होता है, इस से निश्चित होता है कि आत्मा जडरूप पांच भूतों से भिन्न हैं और नित्य है । और भी आत्मा को देहरूप स्वीकार करने से कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष की प्राप्ति होगी। किए हुए कर्म, फल दिए विना ही नाश हो जायगा, और अकृत कर्म के फल को भोगना पडेगा। कर्म न करने वाला फल भोगे और करने वाला फल से बच जाय, यह दोनों बातें अनुचित है, अत अव यह निश्चय कर लेना चाहिए कि-आत्मा शरीर से भिन्न है और जन्मान्तर में गमन करता है। ચેતનારૂપ આત્મા કેમ પેદા થતો નથી ?, અહિં પાંચ ભૂતને સંયોગ વિદ્યમાન છે અને તેમાંથી તમે (નાસ્તિકે) આત્માની ઉત્પત્તિ માને છે ? અથવા–મૃત્યુ પામેલા શરીરમાં પાંચ ભૂતોને સદ્ભાવ હોવા છતાય ચેતનસ્વરૂપ આત્મા કેમ ઉપલબ્ધ થતું નથી ?, એ કારણથી નિશ્ચય થાય છે કે –આત્મા જડ સ્વરૂપ પાંચભૂતથી ભિન્ન છે અને નિત્ય છે. અને બીજું એ પણ છે કે–આત્માને દેહરૂપ સ્વીકાર કરવાથી કૃતનાશ અને અકૃતાભ્યાગમ દષની પ્રાપ્તિ થશે, કરેલા કર્મ, ફળ આપ્યા વિના જ નાશ થઈ જશે. અને અકૃત-નહિ કરેલા કર્મનું ફળ ભેગવવું પડશે. કર્મ નહિ કરવાવાળાને કર્મનું ફળ ભોગવવું પડે, અને કર્મ કરનાર ફળ ભેગવવામાંથી બચી જાય. આ બંને વાત અનુચિત છે. એ કારણે એ નિશ્ચય કરી લેવું જોઈએ કે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે, અને જન્માન્તર ગમન કરે છે. Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ आचाराङ्गसूत्रे आत्मा देहे कदाचित्तिष्ठति, कदाचिन्न तिष्ठति, अतः तस्याभावस्तत्र नियतो नास्ति । तस्माद् देहादन्य इति मन्तव्यम् । एवमनुमानप्रयोगः आत्मा-देहादन्यः, तद्भावेऽपि तव तस्यानियमेनाभावात् , उपाश्रयगतसाधुश्रावकवत् । ननु देहे जीवस्य गमनागमनं न दृश्यते, तथा च जीवस्य देहे सदा सद्भावसत्त्वेनाभावरूपो हेतुरप्रसिद्ध इति चेन्न, मृतशरीरे तस्यादर्शनात् ।। यद्वा-आत्मा देहेन्द्रियभिन्नः. तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । आत्मा शरीर में कभी रहता है, कभी नहीं रहता, अतः उसका अभाव वहाँ नियत नहीं है । अत एव मानना चाहिए कि—आत्मा देह से भिन्न है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए ---- आत्मा शरीर से भिन्न है, क्यों कि देह के होने पर भी आत्मा वहाँ नियम से नहीं रहता, उपाश्रय में स्थित साधु श्रावक के समान । शंका-शरीर में जीव का गमन और आगमन दिखाई नहीं देता अतः वह देह में सदैव विद्यमान रहता है । ऐसी अवस्था में आप का यह अभाव सिद्ध करने वाला हेतु असिद्ध है। समाधान-ऐसा कहना समीचीन नहीं है, क्यों कि मृत शरीर में आत्मा मालम नहीं होता। अथवा-आत्मा देह और इन्द्रियों से भिन्न है, क्यो कि उनके नष्ट हो जाने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ का स्मरण होता है। जैसे जातिस्मरण આત્મા શરીરમાં કઈ વખત રહે છે, કે ઈ વખત નથી રહેતું તેથી તેને અભાવ ત્યાં ચોક્કસ રૂપથી નથી. તેથી માનવું જોઈએ કે-આત્મા દેહથી ભિન્ન છે. અનુમાનને પ્રયોગ આ પ્રમાણે કર જોઈએ – આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે, કેમકે દેહ હોવા છતાંય આત્મા ત્યાં નિયમથી રહેતું નથી, ઉપાશ્રયમાં રહેલા સાધુ શ્રાવક પ્રમાણે. શકા–શારીરમાં જીવનું ગમન–જવું, અને આગમન-આવવું તે નજરે જોવામાં આવતું નથી, તેથી તે દેહમાં સંદેવ વિદ્યમાન રહે છે. એવી અવસ્થામાં આપને એ અભાવ સિદ્ધ કરવાનો હેતુ અસિદ્ધ છે. એમ કહેવું તે બરાબર નથી, કેમકે મૃત શરીરમાં આત્મા માલૂમ પડતો નથી. અથવા-આત્મા દેહ અને ઈન્દ્રિયોથી ભિન્ન છે, કારણ કે તેને નાશ થયા પછી પણ તેના દ્વારા જાણવામાં આવેલા પદાર્થનું સ્મરણ થાય છે. જેમ જાતિસ્મરણ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ आत्मवादिन. यथा-जातिस्मरणशक्त्या मृगापुत्रवत् संयमी पूर्वभवं स्मरति, व्याध्यादिकारणेन नष्टदृष्टिः पूर्वानुभूतं रक्तपीवादिवर्ण, नष्टश्रवणश्च शब्दं स्मरति । यथा गेहगवाक्षः पूर्वदृष्टस्य पूर्वश्रुतस्यान्यत्रानुस्मा देवदत्तः। (२) नित्यत्वनिरूपणम् - अयमात्मा नित्यत्वादमूर्व इति विज्ञायते । भमूर्तत्वाच्च देहादन्य इति निश्चीयते । तथाहि-आत्माऽनुत्पत्तौ सत्यामविनाशी, तथा सर्वकालावस्थायी । तथा-आत्मा क्षणापेक्षयापि न निरन्वयनाशवान् ; वस्तुत्वे सति उत्पत्तेरभावात् , ज्ञान से मृगापुत्र को पूर्व भव का स्मरण हुभा था। कोई-कोई संयमी अपने पूर्वभव का स्मरण करता है । रोग भादि किसी कारण से जिस की दृष्टि नष्ट हो गई है, वह पुरुष पहले अनुभव किए हुए लाल पीले भादि रंगों को स्मरण करता है, और जिसके कान नष्ट हो गये हैं वह शब्द का स्मरण करता है। किसी घर की खिडकियों के द्वारा पहले देखे हुए पदार्थों का या सुने हुए शन्दों का देवदत्त को अन्यत्र स्मरण होता है, अत एव देवदत्त खिडकियों से भिन्न है। उसी प्रकार भात्मा, इन्द्रियों से भिन्न है। (२) आत्माकी निस्यताआत्मा नित्य होने के कारण भमूर्त प्रतीत होता है भौर अमूर्त होने के कारण देह से भिन्न है। वह इस प्रकार-आत्मा उत्पत्तिरहित और अविनाशी हैं, तथा सर्वकाल में स्थायी है, तथा भात्मा क्षण की अपेक्षा भी निरन्वय ( समूल ) नाशवान् नहीं है, क्यो कि वस्तु होने पर भी उस की उत्पत्ति नहीं होती, जैसे भाकाश । જ્ઞાનથી મૃગાપુત્રને પૂર્વભવનું સ્મરણ થયું હતુ. કઈ કઈ સંચમીને પિતાના પૂર્વ ભવનું સ્મરણ થાય છે. રેગ આદિ કઈ કારણથી જેની દૃષ્ટિ (નેત્રથી જોવાની શક્તિ) નાશ પામી ગઈ છે તે પુરૂષ પ્રથમ અનુભવેલા લાલ, પીળા આદિ રંગનું સ્મરણ કરે છે. અને જેના કાન નષ્ટ થઈ ગયા હાય-(સાંભળવાની શકિત નાશ પામી હેય) તે શબ્દનું સ્મરણ કરે છે. કેઈ ઘરની ખડકીઓ દ્વારા પ્રથમ જોયેલા પદાર્થોનું અથવા તે સાંભળેલા શબ્દનું દેવદત્તને અન્યત્ર–બીજા સ્થળે સ્મરણ થાય છે. એ કારણથી દેવદત્ત ખડકીઓથી ભિન્ન છે. તે પ્રમાણે આત્મા ઈન્દ્રિયથી ભિન્ન છે. (२) मामानी नित्यताઆત્મા નિત્ય હોવાના કારણે અમૂર્ત જણાય છે અને અમૂર્ત હોવાના કારણે, દેહથી ભિન્ન છે. તે આ પ્રમાણે-આત્મા ઉત્પત્તિરહિત અને અવિનાશી છે, તથા સર્વ કાલમાં સ્થાયી છે, અને ક્ષણની અપેક્ષા પણ નિરન્વય (સમૂળ)નાશવાન નથી, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ आचाराङ्गसूत्रे , यथा गगनम् । अनुत्पत्तौ सत्यामविनाशित्वेन तथा सर्वकालावस्थायित्वेन, तथा क्षणापेक्षयाऽपि निरन्वयनाशाभाववश्वेन चात्मनो नित्यत्वं सिध्यति । देहात्मचादिना परिमितकालावस्थायित्वमात्मनो मन्यते, तथा क्षणिकवादिनापि निरन्वयक्षणिक परिणामप्रवाहस्य नित्यत्वं स्वीक्रियते । तौ चैवंविधनित्यत्वसाधनेन निराकृतौ । शशशृङ्गादावपि जन्माभावसत्त्वेन हेतौ साध्यव्याप्तिर्न स्यादतो वस्तुत्वे सतीत्युक्तम् । न चामूर्त्तत्वस्य परमाणौ व्यभिचार आशङ्कनीयः, आर्हतमते नित्यउत्पत्तिरहित और अविनाशी होने के कारण, तथा सर्वकाल में विद्यमान रहने के कारण और क्षण की अपेक्षा भी समूल नाशवान् न होने के कारण आत्मा की नित्यता सिद्ध होती है । देह को ही आत्मा मानने वाला कहता है कि - आत्मा परिमित काल तक ठहरता है । तथा क्षणिकवादी भी निरन्वय क्षणिक परिणाम - प्रवाह को नित्य मानता है । इस प्रकार आत्मा की नित्यता सिद्ध करके इन दोनों के मत का निराकरण किया गया है । प्रस्तुत हेतु में ' वस्तु होते हुए भी ' यह विशेषण इस लिये लगाया है कि शश-विषाण आदि से व्यभिचार ( हेतु हो और साध्य न हो ) न हो, क्यों कि उत्पत्ति का अभाव तो उन में भी है किन्तु वस्तुत्व उन में नहीं है । अमूर्तत्व, परमाणु में नहीं है और वहाँ नित्यत्व हेतु है, इस लिये परमाणु કેમકે વસ્તુ છતાંય તેની ઉત્પત્તિ નથી હોતી, જેમકે આકાશ. ઉત્પત્તિરહિત અને અવિનાશી હોવાના કારણે, તથા સર્વાંકાલમાં વિદ્યમાન રહેવાના કારણે, અને ક્ષણની અપેક્ષાએ પણ સમૂળગા નાશવાન નહિ હાવાના કારણે આત્માની નિત્યતા સિદ્ધ થાય છે. દેહને જ આત્મા માનવાવાળા કહે છે કેઃ–આત્મા પરિમિત કાલ સુધી થાભે છે, તથા ક્ષણિકવાદી પણ નિરન્વય ક્ષણિક-પરિણામપ્રવાહને નિત્ય માને છે. આ પ્રમાણે આત્માની નિત્યતા સિદ્ધ કરીને એ મને ( દેહવાદી અને ક્ષણિકવાદી )ના મતનું નિરાકરણ કર્યું છે. પ્રસ્તુત હેતુમાં વસ્તુ હોવા છતાંય પણ” એ વિશેષણ એ કારણથી આપ્યુ છે કેઃ-શશ-વિષાણુ-( સસલાનાં શિંગડાં) આદિથી વ્યભિચાર ( હેતુ હોય અને સાધ્ય ન હોય) ન થાય, કારણ કે ઉત્પત્તિના અભાવ તે તેમાં પણ છે, પરંતુ વસ્તુત્વ તેમાં નથી. અમૂર્તત્વ, પરમાણુમાં નથી, અને ત્યાં નિત્યત્વ હેતુ છે, એ કારણથી પરમાણુમાં Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मवादिप्र० __२३९ त्वामूर्तत्वयोरात्मन्येकान्ततोऽनङ्गीकारात् । यद्वा-आत्मा नित्यः संसारात् , त्रिकालविषयक क्रियापर्यालोचकत्वात् , 'स एष' इति प्रत्यभिज्ञावत्त्वात् । अनेन हेतुत्रयेण क्षणिकवादो निरस्तः । यत्तु-आत्मा-एकान्तनित्यः 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' इत्यादिवचनप्रामाण्यात् , 'स एष अक्षयोऽजः' इत्यादिश्रुतिप्रामाण्याच, इति, तन्न युक्तम् , आत्मन एकस्वभावत्वे संसरणादिव्यवहारोच्छेदापत्तिः स्यात् तस्मात् कथञ्चिन्नित्यः कथञ्चिदनित्य इति में व्यभिचार की आशङ्का नहीं करना, क्यों कि आत्मा में नित्यत्व और अमूर्तत्व एकान्त रूप से नहीं माना गया है । __ अथवा-आत्मा नित्य है, क्यो कि वह एक गति से दूसरी गति में जाता है, क्यो कि वह त्रिकालविषयक क्रियाका आलोचक है, और वह प्रत्यभिज्ञान ( यह वही है इस प्रकार का जोडरूप ज्ञान ) वाला है। इन तीन हेतुओं से क्षणिकवादका निराकरण हो गया। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' इत्यादि वचन से और ‘स एषः अक्षयोऽजः' इत्यादि श्रुति के प्रमाण से आत्मा एकान्त नित्य सिद्ध होता है। ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्यों कि आत्मा को एकान्त नित्य स्वभाव वाला मानने से संपरण ( एक जन्म से दूसरे जन्म मे जाना ) आदि व्यवहारों का नाश हो जायगा । अत एव कथश्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य आत्मा स्वीकार करना चाहिए । વ્યભિચારની આશંકા કરવી નહિ. કારણ કે આત્મામાં નિત્યત્વ અને અમૂર્તત્વ એકાન્તરૂપથી માનવામાં આવ્યું નથી. અથવા–આત્મા નિત્ય છે, કારણ કે તે એક ગતિથી બીજી ગતિમાં જાય છે, કારણ કે-તે ત્રિકાળવિષયક ક્રિયાને આલેચક (વિચાર કરનારી છે, અને તે પ્રત્યભિજ્ઞાન (“આ તેજ છે એ પ્રકારનું જેડરૂપ જ્ઞાન) વાળે છે. આ ત્રણ હેતુઓ વડે કરી ક્ષણિકવાદનું નિરાકરણ થઈ ગયું છે “ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि" त्या क्यनथी मने ' स एष अक्षयोऽजः ' त्या: કૃતિના પ્રમાણથી આત્મા અકાન્ત નિત્ય સિદ્ધ થાય છે. એમ કહેવું તે પણ યુક્ત નથી, કારણ કે આત્માને એકાન્ત નિત્ય સ્વભાવ વાળો માનવાથી સંસરણ (એક જન્મથી બીજા જન્મમાં જવું તે) આદિ વ્યવહારને નાશ થઈ જશે, એ કારણથી કથંચિત્ નિત્ય અને કંચિત અનિત્ય આત્મા છે. એ પ્રમાણે સ્વીકાર કર જોઈએ. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० आचारागसूत्रे स्वीकर्तव्यम् । द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः, पर्यायार्थिकनयेन-अनित्य इति । एवमनङ्गीकारे हि 'संसारा'-दित्यायुक्तहेतूनामसंगतिः स्यात् । आत्मन एकस्वभाववस्वीकारे स्वभावान्तरानापत्त्या वर्तमानकालिकभावातिरिक्तं भावान्तरं न लब्धुमर्हेत् । एवमनित्यत्वामूर्तत्वयोरपि स्याद्वाद आलम्बनीयः, अन्यथा व्यवहारोच्छेदप्रसंगः स्यात् , एकान्तामूर्तस्य, तथैकान्ततो देवभिन्नस्य चाविपावादिप्रसंगाभावे सति हिंसादिनिवृत्तिदेशनादिपरकचरणकरणादिबोधकसकलशास्त्रानर्थक्यं, तथाऽऽत्मनः संसारगदिनुदारश्च स्यात् । भात्मा दन्यार्थिकनय से नित्य है भौर पर्यायार्थिकनय से अनित्य है। ऐसा स्वीकार न करने पर 'संसरण करने से' इत्यादि पूर्वोक्त हेतु असङ्गत हो जायेंगे। एक स्वभाव वाला मात्मा स्वीकार किया भाग तो उस में दूसरे स्वभाव की उत्पत्ति नहीं होगी, और वर्तमानकालीन भाव के अतिरिक्त दूसरा भाव कभी प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार भनिस्यत्व और भमूर्तत्व के विषय में भी स्माददिका ही भाश्रय लेना चाहिए, अन्यथा व्यवहार के भभाव का प्रसङ्ग भाएगा । मात्मा को एकान्त अमूर्त मानने से, तथा देह से एकान्त भिन्न मानमे से उस का वात होना संभव है, और इस दिशा में हिंसा भादि से निवृत्त होने का उपदेश देने वारे वरण-करण भादि के बोधक सब शाम व्यर्थ हो जाएँगे । इस के अतिरिक्त भात्मा का संसाररूपी स्वड्डे से कभी उद्धार भी नही होगा। આત્મા દ્રવ્યાર્થિક નથી નિત્ય છે, અને પર્યાયાર્થિક નયથી અનિત્ય છે. એ પ્રમાણે સ્વીકાર નહિ કરવાથી “સંસર કરવાથી ઈત્યાદિ પૂર્વોકત હેતુ અસંગત થઈ જશે. એક સ્વભાવવાળો આત્મા સ્વીકાર કરવામાં આવશે તે તેમાં બીજા સ્વભાવની ઉત્પત્તિ નહિ થાય, અને વર્તમાનક્રાહીન ભાવ વિના બીજે ભાવ કોઈ પણ વખત પ્રાપ્ત નહિ થાય, એ પ્રમાણે અનિત્યત્વ અમૂર્તત્વના વિષયમાં પણ સ્યાદ્વાદને જ આશ્રય લેવો જોઈએ. અન્યથા વ્યવહારના અભાવને પ્રસંગ આવશે. આત્માને એકાન્ત અમૂર્ત માનવાથી તથા દેહથી એકાત ભિન્ન માનવાથી તેને ઘાત થ અસંભવ છે, અને એ દિશામાં હિંસા આદિથી નિવૃત્ત થવાને ઉપદેશ દેવાવાળા ચરણ-કરણ આદિના બોધક તમામ શાઓ અર્થ થઈ જશે. તે સિવાય આત્માને સંસારરૂપી ખાડાથી કોઈ વખત પણ ઉદ્ધાર નહિ થાય, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. १ सू. ५. आत्मवादिप्र० २४१ यद्वा-आत्मा नित्यः स्वकारणविभागाभावाद् आकाशवत् । आकाशस्य कारणाभावादेव कारणविभागो नास्ति । न नित्यः, स्वकारणविभागाभाववान्, यथा पटः । दृश्यते हि पटस्तन्तूनां विभागो भवतीति । यस्तु स न किञ्च - आत्मा नित्यः कारणविनाशाभावाद् आकाशवदेव । कारणाभावादेव हि कारणस्य विनाशाभावः, यथा गगनमेव । यो न नित्यः, स न कारणविनाशाभाववान् अर्थात् कारणविनाशवानेव यथा पटः । दृश्यते हि पटकारणीभूतस्य तन्तोर्विनाशो भवतीति । अयं चात्मा स्वकारणाभावेन कारण - विनाशाभाववान्, तस्मान्नित्य इति । नित्यत्वादयममूर्तः, अमूर्तत्वाच्च शरीराद् भिन्न इति निश्चीयते । अथवा — आत्मा नित्य है, क्यो कि उस के कारणों का विभाग नहीं है, जैसे आकाश । आकाश के कारणो का अभाव है, इसी कारण उसके कारणो का विभाग भी नहीं है । जो नित्य नहीं है, वह अपने कारणो के विभाग का अभाव वाला भी नहीं होता जैसे-पट । पट से तन्तुओं का विभाग होता दिखाई देता है । और भी - आत्मा नित्य है, क्यों कि उसके कारणों के विनाश का जैसे - आकाश । कारणों का अभाव होने से ही कारणों के विनाश का जैसे आकाश । जो नित्य नहीं होता वह कारण - विनाशभाव पट, देखा जाता है कि-पट के कारणभूत तन्तुओ का के जनक कारणो का अभाव है अतः वह कारणों के अर्थात् आत्मा के कारण ही नहीं है अभाव है, अभाव है। वाला भी नहीं होता, जैसे नाश हो जाता है । आत्मा. विनाशका अभाव वाला है, तो उसके कारणों का अभाव क्या होगा ? અથવા—આત્મા નિત્ય છે, કેમકે તેના કારણેાના વિભાગ નથી, જેમ આકાશ. આકાશને કારણેાના અભાવ છે તેથી જ તેના કારણેાના વિભાગ પણુ નથી. જે નિત્ય નથી તે પોતાના કારણેાના વિભાગના અભાવવાળા પણ નહિ થાય, જેમ પટ, પટથી તંતુઓના વિભાગ થતા જોવામાં આવે છે. ફ્રી પણુ–આત્મા નિત્ય છે. કારણ કે તેના કારણેાના વિનાશના અભાવ છે, જેમ આકાશ. કારાના અભાવ હેવાથી જ કારણેાના વિનાશના અભાવ છે. જેમ આકાશ જે નિત્ય નથી તે કારણવિનાશભાવવાળુ પણ નથી, જેમ પટ. જોવામાં આવે છે કે—પટના કારણભૂત તંતુઓને નાશ થાય છે. પણુ આત્માના જનક કારણાના અભાવ છે, તેથી તે કારણેાના વિનાશના અભાવવાળા છે, અર્થાત આત્માને प्र. आ.-३१ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ आचारागसूत्रे परन्त्वेकान्तनित्यत्वे, एकस्यात्मनो नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिपरिणामा नोपपद्येरन् । एकान्तक्षणिकत्वेऽपि स्वाध्यायाध्ययनध्यानादिपरिश्रमप्रत्यभिज्ञानं नोपपद्येत । तस्मादात्मा कथञ्चिन्नित्यः, कथञ्चिदनित्यः, इत्यवश्यं स्वीकरणीयम् । यत्तु-" द्रव्यक्षेत्रकालभावैरेकान्तेनैव नित्यः, अविचलितस्वभाव आत्मे"-ति वदन्ति तत्सर्वमयुक्तम् । तथा सति सुखदुःखसंसारमोक्षाणामनुपपत्तिरापद्येत । तत्र हि आहादानुभवरूपं क्षणं मुखं, तापाजुभवरूपं दुःखम् , तिर्यङ्मनुष्यनारकदेवभवसंसरणरूपः संसारः, अष्टविधकर्मवन्धवियोगो मोक्षः। एकान्तवादइस लिए आत्मा नित्य है । आत्मा नित्य होने के कारण अमूर्त है, और अमूर्त होने के कारण शरीर से भिन्न है। किन्तु आत्मा को एकान्त नित्य मानने पर एक ही आत्मा नरक तिर्यश्च, मनुष्य और देवगतिरूप नाना पर्यायों को प्राप्त नहीं होगा। और एकान्त क्षणिक मानने पर भी स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि का परिश्रम वृथा हो जायगा, और प्रत्यभिज्ञान का अभाव हो जायगा । अत एव आत्मा कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है, ऐसा अवश्य स्वीकार करना चाहिए। जो लोग द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से आत्मा को एकान्त नित्य अविचल स्वभाव वाला मानते है, वह सब अयुक्त है। ऐसा मानने से सुख, दुःख, संसार और मोक्ष नहीं बन सकते । आह्लाद का अनुभव करनारूप क्षण सुख कहलाता है। संताप का अनुभव करना दुःख है। तिर्यञ्च, मनुष्य, नारक और देव भव में जाना संसार है। आठ प्रकार के कर्मबन्ध का वियोग होना मोक्ष है। एकान्तवाद કારણ જ નથી તે પછી તેના કારણેને અભાવ શું થશે ? એ કારણથી આત્મા નિત્ય છે. આત્મા નિત્ય હોવાના કારણે અમૂર્ત છે. અને અમૂર્ત હોવાના કારણે શરીરથી ભિન્ન છે. પરંતુ આત્માને એકાન્ત નિત્ય માનવાથી એક જ આત્મા નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિરૂપ નાના પર્યાયે ને પ્રાપ્ત નહિ થાય, અને એકાન્ત ક્ષણિક માનવાથી પણ સ્વાધ્યાય, અધ્યયન, ધ્યાન આદિને પરિશ્રમ વૃથા થઈ જશે, અને પ્રત્યભિજ્ઞાનને અભાવ થઈ જશે, એ કારણથી આત્મા કંચિત્ નિત્ય અને કંચિત્ અનિત્ય છે. એ પ્રમાણે જરૂર સ્વીકારવું જોઈએ જે માણસે દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાલ અને ભાવથી આત્માને એકાન્ત નિત્ય, અવિચલા સ્વભાવ વાળો માને છે, તે સર્વ અયુક્ત છે. એ પ્રમાણે માનવાથી સુખ, દુખ સંસાર અને મોક્ષ બની શકશે નહિ. આલાદને અનુભવ કરવારૂપ ક્ષણ સુખ કહેવાય છે. સંતાપને અનુભવ કરવો તે દુખ છે. તિર્યંચ, મનુષ્ય, નારકી અને દેવભવમાં જવું તે સંસાર છે. આઠ પ્રકારના કર્મ બંધનો વિગ થ તે મોક્ષ છે. એકાન્તવાદ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. आत्मवादिन० २४३ समालम्बने तु सुखदुःस्वादयः सर्वे आत्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावतयाऽन्यथात्वरूपपरिणामासंभवान्नोपपद्येरन् , नारकत्वादिभावो यस्य यादृशो विद्यते, तदन्यरूपतां नासौं प्रपद्येत । भावतोऽप्रसन्नस्यात्मनः पूर्वरूपापरित्यागे सति पुनः प्रसन्नरूपताया असंभवः स्यात् । दृश्यते पुनरप्रसन्नस्य कदाचित् प्रसन्नताऽपि, सा नोपपद्येत । तस्मादेकान्तवादं परित्यज्यानेकान्तवादः समालम्बनीयः । (३) चेतनावत्त्वनिरूपणम्अयमात्मा निश्चयनयेन शुद्धचेतनासहितः, व्यवहारनयेन च कर्मादि स्वीकार करने पर आत्मा अप्रच्युत, अनुत्पन्न और स्थिर एकरूप तथा एक स्वभाव वाला होने के कारण, और उसमें रूपान्तर होना असंभव होने से सुख दुःखादि नहीं होंगे, अतः विभिन्न अवस्थाएँ भी नहीं हो सकेंगी, फिर जो आत्मा नारकत्वादि जिस रूप में है वह सर्वदा उसी रूप में रहेगी-एक भव से दूसरे भव में नहीं जा सकेगी । जो आत्मा अप्रसन्न है, मगर अप्रसन्न का भी कभी प्रसन्न होना दिखाई देता है, फिर ऐसा न हो सकेगा । अत एव एकान्तवाद का त्याग करके अनेकान्तवाद का आश्रय लेना चाहिए। (३) चेतनावत्त्वयह आत्मा निश्चयनय से शुद्ध चेतना से युक्त है और व्यवहारनय से સ્વીકાર કરવાથી આત્મા અપ્રશ્રુત, અનુત્પન્ન અને સ્થિર એકરૂપ તથા એક સ્વભાવ વાળા હોવાના કારણે તેમાં રૂપાન્તર થવું અસંભવિત હોવાથી સુખ–દુઃખાદિ નહિ હોય. તે કારણથી વિભિન્ન અવસ્થાઓ પણ થઈ શકશે નહિ. ફરી જે આત્મા નારકત્વાદિ જે રૂપમાં છે, તે સર્વદા તે રૂપમાં જ રહેશે. એટલે એક ભવમાંથી બીજ ભવમાં જઈ શકશે નહિ. વળી જે આત્મા અપ્રસન્ન છે તે પિતાના પૂર્વરૂપને પરિત્યાગ ન કરે તો તેને ફરી પ્રસન્નતામાં આવવું તે અસંભવ છે, પરંતુ અપ્રસન્ન પણ કઈ વખત પ્રસન્ન હોય એમ દેખાય છે; ફરી એમ નહિ થઈ શકશે. એ કારણથી અનેકાન્તવાદને ત્યાગ કરીને અનેકાન્તવાદને આશ્રય લે જોઈએ. (3) येतनावरઆ આત્મા નિશ્ચયનયથી શુદ્ધ ચેતનાથી યુક્ત છે અને વ્યવહારનયથી “આત્માને Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे पीडयत्यात्मानमिति ज्ञानरूपाशुद्धचेतनया सहितचेतनावानित्युच्यते । चेतनावानिति कथञ्चिदुच्यते; आत्मा वस्तुतश्चेतनास्वरूप एवास्ति । आत्मनो गुणश्चेतनेति सर्वेषां मतं, तदभिप्रायेण चेतनावानित्युक्तम् । चेतना द्विविधा - शुद्धा, अशुद्धा चेति । ज्ञानचेतनैव शुद्धचेतना | कर्मचेतना, तथा कर्मफलचेतना चाशुद्धचेतनोच्यते । २४४ (४) उपयोगवन्त्वनिरूपणम् - अयमात्मा निश्चयनयेन केवलज्ञान केवलदर्शनरूपाभ्यां शुद्धोपयोगाभ्यां सहितो व्यवहारनयेन मतिज्ञानाद्युपयोगयुक्तश्चेत्यतोऽयमुपयोगवानित्युच्यते । < आत्मा को कर्म पीडित करते है' इस प्रकार के ज्ञानरूप अशुद्ध चेतना से युक्त है, अत एव आत्मा चेतनावान् कहलाता है । आत्मा को किसी अपेक्षा से ही चेतनावान् " कहते हैं, वास्तव में तो आत्मा चेतनारूप ही है । 'चेतना आत्मा का गुण है' ऐसा सबका मत है, इसी अभिप्राय से उसे चेतनावान् कह दिया है । चेतना दो प्रकार की "है - शुद्ध चेतना और अशुद्ध चेतना । ज्ञान चेतना हो शुद्ध है । कर्मचेतना और कर्मफलचेतना अशुद्ध चेतना है । (४) उपयोगवत्त्व यह आत्मा निश्चयनय से केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप शुद्ध उपयोगों से युक्त है । व्यवहारनय से मतिज्ञान आदि उपयोगों से युक्त है, अत एव आत्मा उपयोगवान् कहलाता है । કર્મ પીડિત કરે છે એ પ્રકારના જ્ઞાનરૂપ અશુદ્ધ ચેતનાથી યુક્ત છે એટલા માટે આત્મા ચેતનવાન્ કહેવાય છે. આત્માને કેાઈ અપેક્ષાથી જ ચેતનવાન્ કહે છે, વાસ્તવમાં તે આત્મા ચેતનારૂપ જ છે, ‘ ચેતના આત્માના ગુણુ છે' એ પ્રમાણે સર્વના મત છે. એ અભિપ્રાયથી તેને ચેતનાવાન્ કહી દીધા છે. ચેતના બે પ્રકારની છે. (१) शुद्ध-चेतना गर्ने (२) अशुद्ध-येतना ज्ञानयेतना शुद्ध छे, दुर्भयेतना અને કર્મક્લચેતના તે અશુદ્ધ-ચેતના છે. (४) उपयोगवस - આ આત્મા નિશ્ચયનયથી કેવલજ્ઞાન અને કૈવલદર્શનરૂપ શુદ્ધ ઉપયાગાથી યુક્ત છે. વ્યવહારનયથી મતિજ્ઞાન આદિ ઉપચાગેથી યુક્ત છે. એ કારણે આત્મા ઉપયેગવાન કહેવાય છે. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ आचारचिन्तामणि-टोका अध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मवादिप० अयमात्मा ज्ञानदर्शनोपयोगाभ्यां न भिन्न इति बोधयितुमुपयोगवानिति, इदं च ज्ञानात्मनोरेकान्तभेद इति नैयायिकमतं निराकर्तुमुक्तम् । सर्वज्ञसिद्धान्ते तु द्रव्यं वस्तुतो गुणपर्यायेभ्यो न भिन्नम् , अतः कथञ्चिदभेदविवक्षयाऽऽश्रयिभावं परिकल्प्य-उपयोगवानिति निगदितम् । उपयोगो द्विधा-ज्ञानदर्शनभेदात् । सविकल्प उपयोग एव ज्ञानोपयोगः, । निर्विकल्प उपयोगो दर्शनोपयोगः । तत्र ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः-मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि पञ्च सम्यग्ज्ञानानि, मति-श्रुत-विभंग-भेदेन त्रीण्यज्ञानानि चेति । अज्ञानान्यपि ज्ञानरूपतया ज्ञानवर्गे निक्षिप्तानि । अत्रैकमेव केवलज्ञानं क्षायिकं सर्वा आत्मा ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग से भिन्न नहीं है' यह बतलाने के लिए उसे उपयोगवान् कहा है । ' ज्ञान और आत्मा का एकान्त भेद है' ऐसा नैयायिको का मत है। इस मत का निराकरण करने के लिए यह कथन किया गया है। सर्वज्ञ के सिद्धान्त में द्रव्य वास्तव में गुण और पर्यायों से भिन्न नहीं है, अतः कथञ्चित् भेद की विवक्षा करके आधाराधेय भाव की कल्पना से उपयोगवान् कहा है। उपयोग के दो भेद है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । सविकल्प उपयोग को ज्ञानोपयोग कहते है और निर्विकल्प उपयोग दर्शनोपयोग कहलाता है। इनमें से ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है-(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्ययज्ञान, (५) केवलज्ञान, (६) कुमतिज्ञान, (७) कुश्रुतज्ञान और (८) विभङ्गज्ञान, अन्तके तीन अज्ञान कहलाते है । ये विपरीतज्ञानरूप होने के कारण इन्हे ज्ञान की कोटि में रक्खा है । इनमें આત્મા જ્ઞાને પગ અને દર્શને પગથી ભિન્ન નથી, એ બતાવવા માટે જ તેને ઉપગવાનું કહ્યો છે. “જ્ઞાન અને આત્માને એકાન્ત ભેદ છે એનૈયાયિકેને મત છે, એ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે એ કથન કરવામાં આવ્યું છે. સર્વજ્ઞના સિદ્ધાન્તમાં દ્રવ્ય એ વાસ્તવમાં ગુણ અને પર્યાયથી ભિન્ન નથી, તેથી કંચિત ભેદની વિવક્ષા કરીને આધારાધેય ભાવની કલ્પનાથી ઉપગવાન કહ્યો છે. उपयोग ले छे-(१) ज्ञानोपयोग मने. (२) शनापयोग, सविप ઉપયોગને જ્ઞાનોપચેગ કહે છે, અને નિર્વિકલ્પ ઉપગ તે દશનો પગ उपाय छे. तमां ज्ञानोपयोग -18 प्रहारत छ. (१) भतिज्ञान, (२) श्रतज्ञान, (3) मवधिज्ञान, (४) मन:पर्य यज्ञान, (५) वज्ञान, तथा (6) भतिज्ञान, (७) सुश्रुतज्ञान अने. (८) विज्ञान. तभा छेपटना र मज्ञान हेपाय छे. પરંતુ વિપરીતજ્ઞાનરૂપ હોવાના કારણે તેને જ્ઞાનની કટિમાં રાખ્યા છે. એમાં એક Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ आचारागसूत्रे वरणरहितं सर्वतः शुद्धमस्ति । अन्यानि मतिज्ञानादिकानि चत्वारि ज्ञानानि क्षायोपशमिकानि देशत आवरणरहितानि देशतः शुद्धानि। त्रीण्यज्ञानान्यशुद्धानि । दर्शनोपयोगस्य चत्वारो भेदाः- (१) चक्षुर्दर्शनम् , (२) अचक्षुर्दशनम् , (३) अवधिदर्शनम् , (४) केवलदर्शनं च । तत्रैकं केवलदर्शनं क्षायिकं सर्वतोऽनावरण सर्वतः शुद्धं च । चक्षुर्दर्शनादीनि त्रीणि क्षायोपशमिकानि देशतोऽनावरणानि देशतः शुद्धानि च सन्ति । जानादिगुणतः सर्वथा भिन्न आत्मे' ति नैयायिकाद्यभिमतं तु न युक्तम् , ज्ञानादिगुणसम्बन्धात् प्राक् कदाचिद् ज्ञानादिगुणहीनोऽप्यासीदिति तस्य मते एक मात्र केवलज्ञान क्षायिक है, सम्पूर्ण आवरण से रहित और पूर्ण शुद्ध है। शेष मतिज्ञान आदि चार ज्ञान क्षायोपशमिक है, देशतः आवरणरहित है और देशतः शुद्ध है । तीनो कुज्ञान अशुद्ध है। ___दर्शनोपयोग के चार भेद है-(१) चक्षुर्दर्शन, (२) अचक्षुर्दर्शन, (३) अवधिदर्शन और (४) केवलदर्शन । इनमें से अकेला केवलदर्शन क्षायिक है, पूर्ण रूप से आवरणरहित है और पूर्णरूप से शुद्ध है । चक्षुर्दर्शन आदि तीन क्षायोपशमिक है, देशतः निरावरण है, और देशतः शुद्ध है। 'आत्मा ज्ञानादि गुणो से सर्वथा भिन्न है' ऐसा नैयायिक आदि का मत युक्त नहीं है, क्यो कि ज्ञानादि गुणो का सम्बन्ध होने से पहले किसी समय आत्मा को ज्ञानादि गुणो से रहित भी मानना पडेगा और इस प्रकार उन के मत में आत्मा जड માત્ર કેવલજ્ઞાન ક્ષાયિક છે, સંપૂર્ણ આવરણથી રહિત અને પૂર્ણ શુદ્ધ છે. બાકીનાં મતિજ્ઞાન આદિ ચાર જ્ઞાન લાપશમિક છે, દેશ થકી આવરણરહિત છે. અને દેશ થકી શુદ્ધ છે, ત્રણ કજ્ઞાન અશુદ્ધ છે. दर्शनोपयोगना यार से छे-(१) यक्षुशन, (२) अध्यक्षुईशन, (3) अवधिદર્શન અને (૪) કેવલદર્શન. તેમાંથી એક કેવલદર્શન ક્ષાયિક છે. પૂર્ણરૂપથી આવરણરહિત છે, અને પૂર્ણ રૂપથી શુદ્ધ છે. ચક્ષુદન આદિ ત્રણ ક્ષાપશમિક છે, દેશ થકી નિરાવરણ છે અને દેશ થકી શુદ્ધ છે. આત્મા જ્ઞાનાદિ ગુણોથી સર્વથા ભિન્ન છે.” એવો નિયાયિક આદિને મત યુકત નથી-ઉચિત નથી, કારણ કે જ્ઞાનાદિ ગુણને સંબંધ થયા પહેલાં કેઈસમય આત્માને જ્ઞાનાદિ ગુણોથી રહિત પણ માનવે પડશે, અને એ પ્રમાણે તેના મનમાં Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. अतमवादिप्र० २४७ जडरूपत्वापत्तिः। आत्मनि ज्ञानस्य नित्यानादिसम्बन्धस्वीकारेऽपि पदार्थद्वयकल्पनायां पुनस्तत्सम्बन्धरूपसमवायस्य कल्पनायां महद् गौरवम् , तस्माद् गुणगुणिनोर्वस्तुतस्तादात्म्यस्वीकार एवौचित्यमर्हति । यदि गुणगुणिनोरभेद एव समवायोऽपीत्युच्येत तर्हि नास्ति काऽपि क्षतिः । उक्तञ्च " गुणपर्ययतादात्म्य;-विशिष्टं द्रव्यमुच्यते। उत्पत्तिव्ययनैयत्व,-पर्यायास्तस्य शाश्वताः॥१॥” इति । (५) परिणामित्वनिरूपणम्अयमात्मा परिणामी। प्रतिसमयमपरापरपर्यायेषु गमनं परिणामः, हो जायगा । आत्मा में ज्ञान का नित्य-अनादि सम्बन्ध स्वीकार किया जाय तो दो पदार्थ मानने पड़ेंगे, और उन दोनों अर्थात् आत्मा और ज्ञान को सम्बद्ध करने के लिए तीसरा समवाय सम्बन्ध मानना होगा, यह बडा गौरव होगा। अत एव गुण और गुणीका वास्तव में तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करना ही उचित है । अगर गुण और गुणी के अभेद को ही समवाय सम्बन्ध कहते हो तो उसे स्वीकार करने में कोई हानि नहीं है। कहा भी है :-- "जो गुण और पर्याय के तादारभ्य से युक्त हो वह द्रव्य कहलाता है। उस द्रव्य की पर्याये सदा उत्पत्ति और विनाशवाली हैं, और वे अनादिप्रवाहरूप है" ॥ १ ॥ (५) आत्मा का परिणामीपनआत्मा परिणामी है। प्रत्येक समय एक पर्याय को छोडकर दूसरा पर्याय આત્મા જડ થઈ જશે. આત્માને વિષે જ્ઞાનને નિત્ય-અનાદિ સંબંધ સ્વીકાર કરવામાં આવે તે બે પદાર્થ માનવા પડશે, અને તે બંને અર્થાત આત્મા અને જ્ઞાન તે બને ને સમ્બદ્ધ કરવા માટે ત્રીજે કઈ સમવાય સંબંધ માનવે પડશે. એ ભારે ગૌરવ થશે. તે કારાથી ગુણ અને ગુણીને વાસ્તવમાં તાદામ્ય સંબંધ સ્વીકાર કરે એજ ઉચિત છે. અથવા ગુણ-ગુણીના અભેદને જ સમવાય સંબંધ કહો તે તેને સ્વીકાર કરવામાં કઈ પ્રકારે હાનિ નથી. કહ્યું પણ છે – જે ગુણ અને પર્યાયના તાદામ્યથી યુક્ત હોય તે દ્રવ્ય કહેવાય છે તે દ્રવ્યની પર્યાયે સદાય ઉત્પત્તિ અને વિનાશ વાળી છે, અને તે અનાદિપ્રવાહપ છે.” ૧૫ (५) मामानु परिभीपઆત્મા પરિણામી છે. પ્રત્યેક સમય એક પર્યાયને છોડી બીજે પર્યાય ધારણ ફરે તે પરિણામ કહેવાય છે. તે પરિણામ જેમાં હોય તે પરિણામી કહેવાય છે. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे २४८ 3 सोऽस्यास्तीति परिणामी । अनेन 'आत्मा कूटस्थनित्यः' इति मतं निराकृतम् । ' आत्मा कूटस्थनित्यः' इति स्वीकारे पूर्वदशायां यथाविध आत्मा, तथाविध एव ज्ञानोत्पत्तिसमयेऽपि भवेत् तदा पूर्वमविज्ञातात्मा कथं पदार्थविज्ञाता स्यात्, प्रतिनियतस्वरूपस्याप्रच्युतिरूपता कौटस्थ्यमिति स्वीकारात् । यदि तदा पदार्थविज्ञातृत्वं स्वीक्रियते तदा पूर्वमविज्ञातुर्विज्ञातृरूपत्वे परिणामापच्या तन्मते कौटस्थ्यभङ्गः । तस्मादात्मनः परिणामित्वमवश्यं स्वीकरणीयम् । (६) प्रभुत्वनिरूपणम् - अयमात्मा परिणमन निश्चयनयेन मोक्षतत्कारणरूप शुद्धपरिणामार्थं धारण करना परिणाम कहलाता है । यह परिणाम जिस में हो वह परिणामी । इस विशेषण से आत्मा की कूटस्थनित्यता का निराकरण किया गया है । आत्मा कूटस्थ नित्य है, ऐसा स्वीकार करने पर आत्मा जैसा पहले अज्ञाता था वैसा ही ज्ञान की उत्पत्ति के समय भी रहेगा । ऐसी दशा में आत्मा पहले अज्ञाता था तो बाद में पदार्थों का ज्ञाता कैसे होगा ?, क्यों कि आप के मत के अनुसार प्रतिनियत स्वरूप से च्युत न होनाजैसा का तैसा ही बना रहना - कूटस्थता है । अगर बाद में आत्मा को पदार्थों का ज्ञाता स्वीकार करते हो तो पहले जो अज्ञाता था, उस का ज्ञाता के रूप में परिणमन हो गया अत. कूटस्थ नित्यता नष्ट हो गई । अत एव आत्मा को परिणामी अवश्य मानना चाहिए | आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं वरन् परिणामी नित्य है । ( ६ ) आत्मा का प्रभुत्व निश्रयनय से आत्मा मोक्ष और मोक्ष के कारणरूप शुद्ध परिणामों के लिए આ વિશેષણથી આત્માની ફૂટસ્થંનિત્યતાનું નિરાકરણ કર્યુ છે. તું આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય છે” એવે સ્વીકાર કરવાથી આત્મા જેવા પહેલાં હતેા તેવા જ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિના સમયમાં પણ રહેશે, એવી દશામાં આત્મા પહેલાં અજ્ઞાતા હતા તે પછી પદાર્થાના ક્ષાતા કૈપી રીતે થશે?, કેમકે-આપના મત પ્રમાણે પ્રતિનિયત સ્વરૂપથી ચુત નહિ થતાં જેવા છે તેવા જ અની રહે તે ફૂટસ્થતા છે. અગર તેા પછીથી આત્માને પદાર્થોના જ્ઞાતા સ્વીકાર કરે છે! તેા પ્રથમ જે અજ્ઞાતા હતા તેનું જ્ઞાતાના રૂપમાં પરિણમન થઈ ગયું, તેથી ફૂટસ્થરૂપ નિત્યતા નાશ પામી ગઈ, આ કારણથી આત્માને પરિણામી અવશ્ય માનવા જોઈએ. આત્મા ફૂટસ્થ નિત્ય નથી પરંતુ પરિણામી નિત્ય છે. (१) आत्मानुं लुत्व નિશ્ચય નય પ્રમાણે આત્મા મેક્ષ અને મેક્ષના કારણુરૂપ શુદ્ધ પરિણામે Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५. आत्मवादिप्र० २४९ सामर्थ्यात् तथा व्यवहारनयतः संसारतत्कारणरूपाशुद्धपरिणामार्थं परिणमनशक्तिमत्त्वाच्च प्रभुरित्युच्यते । 1 अयमात्मा मोक्षमार्गोपदेशकतया, रत्नत्रयेण मोक्षसाधकतया, सर्वज्ञत्वमाप्ति - शक्तिमतया च प्रभुरित्युच्यते । " सर्वज्ञो नास्ति कथि " - दिति नास्तिकमतं निराकर्तुं सर्वज्ञतयाऽप्यात्मनः प्रभुत्वमस्तीति संवेद्यते । यथा - अभ्रपटलमलाच्छन्नं रविचन्द्र– ज्योतिः, सुवर्णं रजतं वा क्रमशो नैमल्यं प्राप्नुवत्, सर्वथाऽभ्रपटलमलादिव्यपगमे सर्वतोभावेनापि शुद्धिं प्राप्नोति, तथा रागद्वेषादिभिरशुद्ध आत्मा क्रमशः शुद्धिं लभमानः पूर्णशुद्धिमपि प्राप्नोति स एवात्मा ' सर्वज्ञः' इत्युच्यते । परिणमन-सामर्थ्यवाला है, तथा व्यवहार नय से संसार और संसार के कारणरूप अशुद्ध परिणामों के लिए परिणत होने की शक्ति से युक्त है । इस कारण आत्मा प्रभु कहलाता है । यह आत्मा मोक्षमार्ग का उपदेश देने की, रत्नत्रय के द्वारा मोक्षसाधन की और सर्वज्ञाताप्राप्ति की शक्ति से युक्त होने के कारण प्रभु है, 'कोई सर्वज्ञ नहीं है ' ऐसे नास्तिकमत का निराकरण करने के लिए सर्वज्ञरूप में भी आत्मा का प्रभुत्व सूचित किया गया है। जैसे—मेघपटल तथा मल से आच्छादित सूर्य, चन्द्रमा की ज्योति, सुवर्ण या चांदी, क्रम से निर्मल होते-होते, अभ्रपटल या मल के सर्वथा हट जाने पर पूर्णरूप से शुद्ध हो जाने है, उसी प्रकार रागद्वेष आदि से अशुद्ध आत्मा धीरे-धीरे शुद्ध होता हुआ पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मा ही सर्वज्ञ कहलाता है । માટે પરિણમન–સામ વાળા છે. તથા વ્યવહાર નયથી સંસાર અને સંસારના કારણરૂપ અશુદ્ધ પરિણામા માટે પરિણત થવાની શકિતથી યુકત છે. આ કારણથી આત્મા પ્રભુ કહેવાય છે. આ આત્મા મેક્ષમાર્ગના ઉપદેશ દેવાની, રત્નત્રયના દ્વારા મેાક્ષસાધનની અને સજ્ઞતાપ્રાપ્તિની શકિતથી યુકત હાવાના કારણે પ્રભુ છે. “કાઈ સર્વજ્ઞ નથી ’” એવા જે નાસ્તિકમત છે તેનું નિરાકરણ કરવા માટે સર્વજ્ઞરૂપમાં પણ આત્માનુ' પ્રભુત્વ સૂચિત કર્યું" છે. જેમ-મેઘસમૂહ તથા મળથી આચ્છાદિત સૂર્ય, ચંદ્રમાની જ્યેાતિ, સુવર્ણ અથવા ચાંદી વગેરે ક્રમથી નિર્માલ થતાં થતાં મેઘસમૂહ અથવા મળના ખસી જવાથી પૂર્ણ શુદ્ધ રૂપમાં આવી જાય છે—શુદ્ધ થઇ જાય છે, તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષ આદિથી અશુદ્ધ આત્મા ધીરે ધીરે શુદ્ધ થઈને પૂર્ણ શુદ્ધતા પ્રાપ્ત કરી લે છે. એ પ્રમાણે પૂર્ણ શુદ્ધ આત્મા જ સજ્ઞ કહેવાય છે. प्र. आ.-३२ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० आचारागसूत्रे किञ्च-आत्मा स्वस्य हितं कर्तुमन्यं नापेक्षते; स्वयमेव स्वहितसाधने क्षमः, अत एवात्मनः प्रभुत्वं सिध्यति, तस्मात् स्वहितमिच्छना मोक्षप्राप्तिकारणीभूते तपासंयमाराधने प्रवर्तितव्यम् । (७) कर्तृत्वनिरूपणम्अयमात्मा-अदृष्टादिकर्मकरणात् , निश्चयनयेन शुद्धभावकर्तृत्वात् , व्यवहारनयतो द्रव्यभावकर्मणां नोकर्मवाह्यशरीरादीनां कर्तृत्वाच्च, कर्तेत्युच्यते । आत्मैकान्तरूपेणाऽकर्तेति सांख्यमतमपाकर्तुमुक्तम्-'आत्मा कर्ते'ति ।। दूसरी बात यह है कि-आत्मा अपना कल्याण करने में अन्य की अपेक्षा नहीं रखता । वह स्वकीय कल्याण-साधन में स्वयं समर्थ है। इसी से आत्मा का प्रभुत्व सिद्ध होता है । अतः आत्महित के अभिलाषी पुरुष को मोक्षकारणभूत तप और संयम की आराधना में प्रवृत्त होना चाहिए। (७) आत्माका कर्तुत्र- यह आत्मा अदृष्ट आदि कर्म करने से, निश्चयनय की अपेक्षा शुद्ध भावों का कर्ता होने से; तथा व्यवहारनय से द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्म-बाह्यशरीर आदिका कर्ता होने से कर्ता कहलाता है, 'आत्मा एकान्तरूप से अकर्ता है। सांख्य के इस मत का निराकरण करने के लिए आत्मा को कर्ता विशेषण लगाया है । બીજી વાત એ છે કે –આત્મા પોતાનું કલ્યાણ કરવામાં બીજાની અપેક્ષા રાખતું નથી, તે પિતાના કલ્યાણસાધનમાં પોતે જ સમર્થ છે. તે કારણથી આત્માનું પ્રભુત્વ સિદ્ધ થાય છે. એ કારણથી આત્મહિતના અભિલાષી પુરૂષોએ મોક્ષના કારણભૂત તપ અને સંયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. (5) मात्मानु उत्तઆ આત્મા અદષ્ટ આદિ કર્મો કરવાથી, નિશ્ચયનયની અપેક્ષાએ શુદ્ધ ભાવેને કર્તા હેવાથી તથા વ્યવહારનયથી દ્રવ્યકમ, ભાવક તથા નેકર્સ–બાહ્યશરીર આદિને કર્તા હોવાથી કર્તા કહેવાય છે. આત્મા એકાન્તરૂપથી અકર્તા છે.” સાંખ્યના આ મતનું નિરાકરણ કરવા માટે આત્માને કર્તા વિશેષણ આપ્યું છે. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.५. आत्मवादिप्र० औदारिकादिशरीरस्य कर्ताऽस्ति, आदिमत्मतिनियताकारित्वात् , कुम्भस्य यथा कुलालः । यत्पुनरकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽभ्रविकारः । यश्च शरीरस्य कर्ता स आत्मा, इत्येवमात्मनः कर्तृत्वं सिध्यति । अत्रादिमत्त्वविशेषणं मेर्वादीनुपादाय हेतोरनैकान्तिकत्ववारणाय । यद्वा-आत्मा कर्ता, स्वकर्मफलभोक्तत्वात् वणिक्कृषीवलादिवत् । आत्मा स्वकृतकर्मफलभोक्ता तस्मात् कर्ता, यथा वणिक्कृषीवलादयोऽकृतकर्मणः फलं न प्राप्नुवन्ति । इस औदारिकादि शरीर का कोई कर्ता है, क्यों कि औदारिकादि शरीर आदिमान् और प्रतिनियत आकारवाला है, जैसे-घडेका कर्ता कुमार। जो वस्तु विना कर्ता की होती है वह आदिमान और नियत आकार वाली नहीं होती, जैसे-बादल का विकार । जो शरीर का कर्ता है, वह आत्मा है । इस प्रकर आत्मा का कर्तृत्व सिद्ध होता है। यहाँ 'आदिमत् ' विशेषण से मेरु आदि से होने वाले अनेकातिन्क दोषका निवारण किया गया है, क्यों कि वे आदिमान् नहीं है। अथवा आत्मा कर्ता है, क्यों कि वह अपने कर्मों का भोक्ता है, जैसे वणिक् या किसान । आत्मा अपने कर्मों के फलका भोक्ता है इस कारण कर्ता है। जैसे-वणिक या किसान आदि विना किये कर्म का फल नहीं भोगते, इसी प्रकार आत्मा विना किये कर्म का फल नहीं भोगता । - આ દારિકાદિ શરીરને કેઈ કર્તા છે, કારણ કે ઔદારિકાદિ શરીર, આદિમાન અને પ્રતિનિયત આકાર વાળું છે, જેમ ઘડાને કર્તા કુંભાર. જે વસ્તુ કર્તા વિનાની હોય છે, તે આદિમાન અને નિયત આકાર વાળી હોય નહિ, જેમ વાદળને વિકાર, જે શરીરને કર્તા છે તે આત્મા છે. એ પ્રકારે આત્માનું કર્તૃત્વ સિદ્ધ થાય છે. અહીં “આદિમ ” વિશેષણથી મેરુ આદિથી થવા વાળા અને કાન્તિક દેષનું નિવારણ यु छ, अरय ते 'माहिभान्' नथी. અથવા આત્મા કર્તા છે, કારણ કે તે પિતાના કર્મોને ભકતા છે. જેમ વણિક અથવા ખેડૂત. આત્મા પોતાનાં કર્મોનાં ફલને ભેટતા છે, તે કારણથી કર્તા છે, જેમ વણિક અથવા ખેડુત આદિ, કર્મ કર્યા વિના કર્મનું ફળ ભોગવતા નથી. તે પ્રમાણે આત્મા કર્મ કર્યા વિના તેનું ફળ ભેગવત નથી. Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ आचारागसूत्रे यद्वा—आत्मा सुकृतदुष्कृतकर्मणामकर्ता न भवति, सुकृतदुष्कृतकर्मफलरूपसुखदुःखानुभवात् । अकर्तुरात्मनः सुखदुःखानुभवो न युज्यते, तथा सति अतिप्रसंगात् । मुक्तानामपि सांसारिकसुखदुःखानुभवापत्तेः, अकर्तृत्वाऽविशेषात् । अनुभवितृत्वेन भोक्तृत्वसिद्धिः, भोक्तृत्वेन च कर्तृत्वसिद्धिः। यद्ययमात्मा कर्ता न भवेत्तदाऽनुभविताऽपि न भवेत् । न चानुभवितुः कर्तत्वस्वीकारे मुक्तस्यापि कर्तृत्वप्रसङ्गः, इति वाच्यम् , मुक्तात्मनः साक्षिरूपेणानुभवसत्त्वेऽपि द्रव्यभावकमरहितत्वादेव सांसारिकविषयसुखादिजनककमकर्तृत्वासंभवेनाकर्तृत्वात् , अथवाआत्मा सुकृत और दुष्कृतरूप कर्मो का अकर्ता नहीं है, क्यों कि वह अपने सुकृत और दुष्कृत कर्मो के फलस्वरूप सुख-दुःख का अनुभव करता है। आत्मा अकर्ता होता तो उसे सुख-दुःख का अनुभव नहीं होना चाहिए था । कर्ता न होने पर भी फल का भोक्ता मानने से गडबडी मच जायगी। फिर तो मुक्त जीवो को भी सांसारिक सुख और दुःख भोगना पडेगा, क्यो कि वे भी अकर्ता है । आत्मा अनुभव करने वाला होने के कारण भोक्ता सिद्ध होता है और भोक्ता होने के कारण कर्ता सिद्ध होता है। आत्मा कर्ता न होता तो अनुभविता ( अनुभव करनेवाला) भी न होता । ' अनुभव करनेवाले को कर्ता मानने पर मुक्तात्मा को भी कर्तापन का प्रसङ्ग आयगा' ऐसा कहना उचित नहीं है, क्यों कि मुक्तात्माओं को साक्षीरूपसे अनुभव होने पर भी, द्रव्य-भाव को से रहित होने के कारण वे सांसारिक અથવા આત્મા સુકૃત અને દુષ્કૃત–પ કર્મોને અકર્તા નથી, કારણ કે તે પિતાના સુકૃત અને દુષ્કૃત રૂપ કર્મોના ફલસ્વરૂપ સુખ-દુઃખને અનુભવ કરે છે. આત્મા અકર્તા હોત તે તેને સુખ-દુઃખને અનુભવ નહિ થવો જોઈએ. કર્તા ન હોવા છતાંય પણ ફલને ભેટતા હોવાથી ગડબડ થઈ જશે. ફરી તે મુકત જીને પણ સંસારનું સુખ અને દુઃખ જોગવવું પડશે, કારણ કે તે પણ અકર્તા છે. આત્મા અનુભવ કરવા વાળો હેવાથી ભકતા સિદ્ધ થાય છે, અને ભેંકતા હેવાના કારણે કર્તા સિદ્ધ થાય છે. આત્મા કર્તા ન હોય તો અનુભવિતા (અનુભવ કરવા વાળો) ન હોય. “અનુભવ કરવા વાળાને કર્તા માનવાથી મુકતાત્માને પણ કર્તાપણાને પ્રસંગ આવશે, એમ કહેવું તે ઉચિત નથી. કારણ કે મુકતાત્માઓને સાક્ષીરુપ અનુભવથી હેવા છતાંય દ્રવ્ય, ભાવ કર્મોથી રહિત હોવાના કારણે તે Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि–टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५. आत्मवादिम० २५३ अकर्तृत्वाच्च तस्य सांसारिक विषयसुखानामभोक्तृत्वं च सिध्यति । प्रकृते हि कर्तृशब्देनादृष्टादिजनककर्मण एव कर्तृत्वं विवक्षितम् तेन मुक्तात्मनि नातिप्रसंग: । तथा च यः सांसारिकसुखदुःखाद्यनुभविता स एव तत्कारणीभूतकर्मणः कर्ता, अकर्तुर्भोक्तृत्वानुपपत्तेः । (८) भोक्तृत्वसिद्धि: अयमेवात्मा मोहोदयेन शुद्धमात्मस्वभावं विस्मृत्य परवस्तुनि मोहितः सन् रागद्वेषं करोति, रागद्वेषवशोऽहर्निशं नवनवविषयसंग्रहार्थं प्रयतमानस्तद्वियोगे सति चिन्ताव्याकुलितचेता आर्त्तरौद्रध्यानमुपगतः स्वात्मनि कर्मरजः विषयसुख आदि के जनक कर्मों के कर्ता नहीं है, इस कारण वे अकर्ता है । और अकर्ता होने के कारण वे सांसारिक विषयसुखो के भोक्ता भी नहीं है । यहाँ 'कर्ता' शब्द से अदृष्ट आदि के जनक कर्मों का कर्ता ही विवक्षित है, अतः मुक्त आत्मा में अतिप्रसङ्ग नहीं आता, अत एव सिद्ध हुआ कि जो सांसारिक सुख - दुःख आदि का भोक्ता होता है, वही उन के कारणभूत कर्म का कर्ता भी होता है । जो कर्ता नहीं है वह भोक्ता भी नहीं है । (८) आत्मा का भोक्तृत्व आत्मा मोह के उदय से शुद्ध आत्मस्वरूप को भूलकर पर - पदाथों में मोहित होता हुआ राग-द्वेष करता है । राग-द्वेष के वश हो कर रात-दिन नवीन नवीन विषयों का संग्रह करने के लिए प्रयत्नशील होता हुआ, और उनका वियोग होने पर चिन्ता से व्याकुलचित हो कर आर्तध्यान और रौद्रध्यान को प्राप्त होता है, और इस સંસારના વિષયસુખ વગેરેને ઉત્પન્ન કરનાર કર્મના કર્તા નથી. એ કારણથી તે આત્મા અકર્તા છે, અને અકર્તો હાવાના કારણે તે સંસારના વિષયસુખાના ભેાકતા પણ નથી. અહિં ‘કાઁ' શબ્દથી અદૃષ્ટ આદિના જનક કર્મોના કર્તા જ વિવક્ષિત છે. તેથી મુકત આત્મામાં અતિપ્રસ’ગ આવતા નથી. એ કારણથી એમ સિદ્ધ થયું કે જે સંસારના સુખ-દુ:ખ વગેરેના ભોકતા છે, તે એના કારણભૂત કર્માના કર્તા પણ હાય છે, જે કર્તા નથી તે ભોકતા પણ નથી, (८) मात्भानु श्रोतृत्व આત્મા માહના ઉદયથી શુદ્ધ આત્મસ્વરૂપને ભૂલી જઇને પર-પદાર્થોમાં માહિત થઇને રાગ-દ્વેષ કરે છે, રાગ-દ્વેષને વશ થઈ ને રાત્રી અને દિવસ નવાનવા વિષયે ને સંગ્રહ કરવા માટે પ્રયત્નશીલ રહેતા થકા, અને તેનેા વિયાગ થતાં ચિન્તાથી વ્યાકુલચિત્ત થઈને આત ધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાન ને પ્રાપ્ત થાય છે, અને તે કારણથી પેાતાના Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ आचाराङ्गसूत्रे समुपादत्ते। यथा कोऽप्यज्ञानी व्याधिनिदानभूतमपथ्यमश्नन्अवाञ्छितमपि ज्वरादिकं स्वयमुत्पादयति, तथाऽयमात्मा कर्मवन्धनमवाञ्छन्नप्यातरौद्रध्यानवशेन कर्मवन्धनं प्राप्नोति । यथा कर्मवन्धनं स्वयमेवादत्ते, तथा तत्फलमपि वाह्य किञ्चिन्निमित्तमपेक्ष्य म्वयमेवोपभुङ्क्ते । एवं चात्मनो भोक्तृत्वं सिध्यति । भोक्तृत्वाच्च कर्तेसमपि तस्य निर्वाधम् । ___सांख्यसिद्धान्ते प्रकृतेः कर्तत्वं, न तु जीवस्य, भोक्तृत्वं चापि जीवस्योपचरितमेव । दपणाकारायां वुद्धौ संक्रान्तानां सुखदुःखादीनां स्वात्मनि कारण अपनी आत्मा में कर्म-रज इकट्ठी कर लेता है। जैसे अज्ञानी मनुष्य रोग के कारणभूत अपथ्य का सेवन करता हुआ न चाहते हुए भी ज्वर आदि को उत्पन्न कर लेता है, उसी प्रकार आत्मा कर्मबन्धन की इच्छा न कर के भी आर्त-रौद्रध्यान के अधीन होकर कर्मवन्ध को प्राप्त होता है। जैसे कर्मबन्ध को आत्मा स्वयं ग्रहण करता है, उसी प्रकार किसी वाद्य निमित्त की अपेक्षा से उसका फल भी स्वयं ही भोगता है। इसी प्रकार आत्मा में भोक्तापन सिद्ध होता है, और भोक्ता होने से उस में कर्तापन भी विना किसी बाधा के सिद्ध हो जाता है। सांख्यमत से प्रकृति कर्ता है, जीव नहीं, और भोक्तापन जीव में उपचार से है। दर्पणाकार वुद्धि में प्रतिविम्बित होने वाले सुख-दुख आदि का आत्मा में प्रतिबिम्ब આત્માને વિષે કર્મ–જ (કર્મના રજકણો) એકઠી કરી લે છે, જેમ અજ્ઞાની મનુષ્ય રોગના કારણભૂત અપશ્યનું (રેગ ઉત્પન્ન કરે તેવું) સેવન કરીને, પિતે ઈચ્છતા નથી તે પણ જવર (તાવ) આદિને ઉત્પન્ન કરી લે છે. તે પ્રમાણે આત્મા કર્મબંધનની ઈચ્છા નહિ કરવા છતાંય પણ આર્ત–રૌદ્ર ધ્યાનને આધીન થઈને કર્મ બંધનને પ્રાપ્ત થાય છે. જેવી રીતે કર્મબંધનને આત્મા પોતે જ ગ્રહણ કરે છે, તે પ્રમાણે કોઈ બાહા નિમિત્તની અપેક્ષાથી તેનું ફલ પણ પિતે જ ભોગવે છે. એ પ્રમાણે આત્મામાં ભોકતાપણું સિદ્ધ થાય છે. અને ભોકતા હોવાથી તેમાં કોઈ પ્રકારની બાધા વિના કર્તાપણું પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. સાંખ્યમત પ્રમાણે પ્રકૃતિ કર્તા છે, જીવ કર્તા નથી. ભક્તાપણું તે પણ જીવમાં ઉપચારથી છે દર્પણાકાર બુદ્ધિમાં પ્રતિબિમ્બિત (પ્રતિબિંબરૂપે) થવાવાળા (દેખાવવાવાળા) સુખ-દુઃખ આદિનું પ્રતિબિંબ આત્મામાં પડી શકતું નથી, સ્ફટિક Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. १ सू.५ आत्मवादिप्र० प्रतिविम्बोदयासभवात् । स्फटिकदर्पणादावपि परिणामेनैव प्रतिविम्बोदयसमर्थनात् । तादृशपरिणामाङ्गीकारे च जीवस्य कर्तृत्वं स्वत एव भोक्तृत्वं च सिद्धम् । " २५५ (९) आत्मनः स्वशरीरपरिमाणत्वम् अयमात्मा स्वशरीरपरिमाणः । निश्चयनयेन लोकाकाशपरिमाणोऽसंख्यातमदेशी च । व्वहारनयतः शरीरनामकर्मोदयाज्जातेन सूक्ष्मशरीरेण स्थूलशरीरेण वा समानपरिमाणो भवति, तस्मादयं स्वशरीरपरिमाण इत्युच्यते । नहीं पड सकता । स्फटिक तथा दर्पण आदि में जो प्रतिबिम्ब पडता है सो परिणामो होने के कारण ही पडता है । स्फटिक आदि एकान्त अपरिणामी होते तो उन में किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब नहीं पड सकता था । इस प्रकार का परिणाम स्वीकार कर लेने पर जीव में कर्तापन सिद्ध हो जायगा और फिर भोक्तापन भी स्वतः सिद्ध हो जायगा । (९) आत्माका शरीरपरिमाण आत्मा प्राप्त शरीर के बराबर है, अर्थात् शरीर का जो परिमाण है । वही आत्मा का भी परिमाण है । आत्मा निश्वयनय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी है । व्यवहारनय से शरीरनामकर्म के उदय से प्राप्त हुए सूक्ष्म या स्थूल शरीर का जो परिमाण है उसी परिमाणवाला आत्मा है, अत एव आत्मा शरीर परिमाण कहलाता है । તથા દર્પણુ આદિમાં જે પ્રતિષિચ્છ પડે છે, તે પરિણામી હાવાના કારણે પડે છે. સ્ફટિક આદિ જો એકાન્ત અપરિણામી હેત તે તેમાં કાઇ પણ વસ્તુનું પ્રતિબિંબ પડી શકત નહી. આ પ્રમાણે પરિણામ સ્વીકાર કરી લેવાથી જીવમાં કર્તાપણું સિધ્ધ થઈ જશે, અને ભેાકતાપણું પણુ સ્વતઃ સિધ્ધ થઈ જશે. (८) आत्मानु शरीरप्रभाणु આત્મા પ્રાપ્ત શરીરની ખરાખર છે, અર્થાત્ શરીરનુ જે પરિમાણુ છે તે આત્માનું પણ પિરમાણુ છે. આત્મા નિશ્ચયનયથી લેાકાકાશની ખરાખર અસ ખ્યાતપ્રદેશી છે. વ્યવહારનયથી શરીર-નામકના ઉદયથી પ્રાપ્ત થએલ સૂક્ષ્મ અથવા સ્થૂલ શરીરનું જે પિરમાણુ છે. તે પરિમાણુ વાળો આત્મા છે, એટલા માટે આત્મા શરીરપરિમાણુ કહેવાય છે. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ आचाराङ्गसूत्रे आत्मा सर्वव्यापीति वेदान्तिकादिमतं तथाऽऽत्मा - अणुरिति कस्यचिन्मतं च निराकर्तुं शरीरपरिमाण इत्युक्तम् । आत्मनः सर्वव्यापित्वे निष्क्रियत्वाद् भवान्तरसंक्रान्तेरसंभवापत्तिराकाशवत् । आत्मा शरीरमात्रव्यापी, शरीर एव तद्गुणोपलब्धेः, अग्न्यौष्ण्यवत्, अथवा घटादिगुणवत् । यथा घटादेर्वणदियो गुणा यत्रव देशे दृश्यन्ते तत्रैव तस्यास्तित्वं प्रतीयते, नान्यत्र । एवमात्मनोऽपि गुणा चैतन्यादयो शरीर एव दृश्यन्ते, न वहिः, तस्माद् देहप्रमाण एवावमात्मेति । न च पुष्पादीनां 4 आत्मा सर्वव्यापक है' ऐसा वेदान्तिक आदि का मत है । कोई-कोई यह भी मानते हैं कि-'आत्मा अणु - परिमाणवाला है' इन सब मतों का निराकरण करने के लिए आत्मा को शरीर - परिमाण विशेषण लगाया है । आत्मा को सर्वव्यापक माने तो वह निष्क्रिय ठहरेगा और भवान्तर में नहीं जा सकेगा, जैसे आकाश | आत्मा शरीरमात्रव्यापी है, क्यों कि शरीर में ही उसके गुण उपलब्ध होते हैं, जैसे अग्नि की उष्णता अथवा घट आदि । जैसे घट आदि के गुण रूप वगैरह जिस जगह देखे जाते है उसी जगह उसका अस्तित्व प्रतीत होता है, अन्यत्र नहीं । इस प्रकार आत्मा के गुण चैतन्य आदि जहाँ पाये जाएँ वहीं उसका अस्तित्व मानना चाहिए । आत्मा के गुण शरीर में ही पाये जाते है अतः शरीर में ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करना उचित है, अतः आत्मा शरीरपरिमाण ही है । આત્મા સર્વવ્યાપક છે.” એવા વેઢાંતિક આદિના મત છે કોઈ ફાઈ એમ પણ માને છે કેઃ— આત્મા અણુ-પરમાણુવાળો છે.’” તે સવ મતેનુ નિરાકરણ કરવા માટે આત્માને શરીર–પરિમાણુ વિશેષણ લગાડયુ છે. આત્માને સર્વવ્યાપક માનશે તે તે નિષ્ક્રિય ઠરશે અને ભવાન્તરમાં જઈ શકશે નહિ, જેમ આકાશ. L આત્મા શરીરમાત્રવ્યાપી છે કારણ કે શરીરમાં જ તેના ગુણુ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેમ અગ્નિની ઉષ્ણુતા અથવા ઘટ આદિના ગુણુરૂપ વગેરે જે જગ્યામાં જોવામાં આવે છે, તે જ જગ્યામાં તેનું અસ્તિત્વ પ્રતીત થાય છે, અન્યત્ર ( ખીજા સ્થળે) નહિ. એ પ્રમાણે આત્માનાં ચૈતન્ય આદિ ગુણુ લેવામાં આવે, ત્યાં જ તેનું અસ્તિત્વ માનવું જોઈ એ, આત્માના ગુણુ શરીરમાં જ જોવામાં આવે છે તે કારણથી શરીરમાં જ આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકાર કરવે તે ઉચિત છે, તેથી આત્મા શરીર Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ स. ५ आत्मवादिप्र० २५७ गन्धादिगुणः पुष्पाद्यवस्थितिदेशादन्यत्राप्युपलभ्यते, तथा च हेतोरनैकान्तिकत्वापत्तिरिति वाच्यम् , पुष्पाद्याश्रितगन्धादिपुद्गलानां वैस्र सिक्या प्रायोगिक्या वा गत्या गतिमत्त्वेन तदुपलम्भकघ्राणादिदेशपयन्तगमनोपपत्तेरिति । आत्मा सर्वगतो न भवति, तद्गुणस्य सर्वत्रानुपलभ्यमानत्वात् । यस्य यस्य गुणः सर्वत्रानुपलभ्यमानः स स सर्वगतो न भवति, यथा घटः। अयं चात्मा सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणवान् , तस्मात् सर्वगतो न भवतीति । व्यतिरेक्युदाहरणं तु व्योमादि । न चासिद्धोऽयं हेतुरिति वाच्यम् , देहव्यतिरिक्तदेशे बुद्धयादीनां ___ यह कहना ठीक नहीं हैं कि-'फूल आदि का गुण-गन्ध वगैरह फूल की जगह से दूसरी जगह भी पाये जाते है, इस कारण आपका हेतु अनेकान्तिक है' क्यों कि गन्ध के आधारभूत पुद्गल स्वाभाविक गति से या प्रयत्नजन्य गति से गतिमान् होने के कारण, गन्ध को ग्रहण करने वाले घ्राण-देश तक आते है। तात्पर्य यह है कि जहां फूलकी गन्ध है वहाँ उस गन्ध के आधारभूत गन्ध-पुद्गल भी होते हैं, इस कारण हेतु में व्यभिचार नहीं आता। .... आत्मा सर्वव्यापक नहीं है, क्यों कि आत्मा के गुण सर्वत्र नहीं पाये जाते। जिस-जिस के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते, वह पदार्थ सर्वव्यापक नही होता, जैसे घट। आत्मा के गुण सर्वत्र नहीं पाये जाते, अतः वह सर्वव्यापक नही है। 'आकाश यहां व्यतिरेकी उदाहरण है । 'यह हेतु असिद्ध है,' ऐसा नहीं कह सकते, क्यों कि देह से अतिપરિમાણ છે. “ફૂલ આદિને ગુણ-ગંધ વગેરે કુલની જગ્યા વિના બીજી જગ્યાએ પણ જોવામાં આવે છે તે કારણથી આપને હેતુ અનૈકાન્તિક છે.” એમ કહેવું તે ઠીક નથી. કારણ કે ગંધના આધારભૂત પુદ્ગલ સ્વાભાવિક ગતિથી અથવા પ્રયત્નજન્ય ગતિથી ગતિમાન હોવાના કારણે, ગંધને ગ્રહણ કરવા વાળા ઘાણદેશ સુધી આવે છે. તાત્પર્ય એ છે કે –જ્યાં ફૂલની ગંધ છે ત્યાં તે ગંધના આધારભૂત ગંધપુદ્ગલ પણ હોય છે, આ કારણ હેતુમાં વ્યભિચાર આવતો નથી, : " આત્મા સર્વવ્યાપક નથી. કેમકે આત્માને ગુણ સર્વત્ર જોવામાં આવતું નથી, જેનો ગુણ સર્વત્ર ઉપલબ્ધ થતું નથી, તે પદાર્થ સર્વવ્યાપક હોય નહિ, જેમ ઘટ. આત્માન ગુણ સર્વત્ર જોવામાં આવતું નથી, એ કારણથી તે સર્વવ્યાપક નથી. આકાશ અહિં વ્યતિરેકનું ઉદાહરણ છે. “તે હેતુ અસિદ્ધ છે.” એમ કહી શકાશે प्र. भा.-३३ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ आचारागसूत्रे गुणानामसद्भाव इति सर्वैः स्वीकारात् । शरीरे तद्गुणसत्त्वे हेतो प्रसिद्धता, इत्थं च देहान् बहिर्देशेऽपि आत्माऽस्तीति वादं परित्यज्य स्वदेह एवात्माऽस्तीति मन्तव्यम् । यद्वा-आत्मा व्यापको न भवति चेतनत्वात् , यत्तु व्यापकं तन्न चेतनम् , यथा गगनम् । चेतनं चात्मा, तस्मान्न व्यापकः । इत्थमव्यापकत्वे सिद्धे तस्य तत्रैवोपलभ्यमानगुणत्वे कायप्रमाणताऽपि सिद्धा। यत् पुनरष्टसमयसाध्य केवलिसमुद्घातावस्थायामाहतानामपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकव्यापित्वेनात्मनः रिक्त देश में बुद्धि आदि गुणों का सद्भाव नहीं है, ऐसा सभी ने स्वीकार किया है । शरीर में आत्मा के गुणों का अस्तित्व है ही, अत एव हेतु असिद्ध नहीं है । इस प्रकार शरीर से बाहर आत्मा का अस्तित्व मानना छोड कर स्वदेह में ही अस्तित्व मानना चाहिए. • अथवा–आत्मा व्यापक नहीं है, क्या कि वह चेतन है। जो व्यापक होता है वह चेतन नहीं होता, जैसे आकाश । आत्मा चेतन है; अतः व्यापक नहीं है । इस से आत्मा की अव्यापकता सिद्ध हो जाने पर पूर्वोक्त हेतु से (क्यों कि शरीर में ही उस के गुण पाये जाते हैं, इस हेतु से ) आत्मा की शरीरप्रमाणता भी सिद्ध हो जाती है। आठ समय में सम्पन्न होने वाले केवलिसमुद्घात की अवस्था में चौदहराजू लोक में आत्मा का व्याप्त हो जाना जो यहाँ माना है, वह નહિ. કારણ કે દેહથી અતિરિક્ત (દેહ સિવાય) દેશમાં બુદ્ધિ આદિ ગુણેને સદ્દભાવ નથી. એ પ્રમાણે સૌએ સ્વીકારેલું છે. શરીરમાં આત્માના ગુણેનું અસ્તિત્વ છે જ, એ કારણથી હેતુ અસિદ્ધ નથી. આ પ્રમાણે શરીરની બહાર આત્માનું અસ્તિત્વ માનવું ત્યજીને પિતાના દેહમાં જ અસ્તિત્વ માનવું જોઈએ. અથવા–આત્મા વ્યાપક નથી, કારણ કે તે ચેતન છે. જે વ્યાપક હોય છે તે ચેતન હોય નહિ, જેમ આકાશ. આત્મા ચેતન છે તે કારણથી વ્યાપક નથી. આ હેતુથી આત્માની અવ્યાપકતા સિદ્ધ થવાથી પૂર્વોક્ત હેતુથી (કેમકે શરીરમાં જ તેના ગુણ જોવામાં આવે છે એ હેતુથી) આત્માની શરીરપ્રમાણુતા પણ સિદ્ધ થઈ જાય છે. આઠ સમયમાં સંપન થવા વાળા કેવલિસમૃદુઘાતની અવસ્થામાં ચૌદ રાજલોકમાં આત્માનું વ્યાપ્ત થઈ જવાનું અહિં જે માન્યું છે, તે કદાચિક Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५. आत्मवादिप्र० सर्वव्यापित्वं तत् कादाचित्कमिति न तेन व्यभिचारः । आत्मा श्यामाकतण्डुलमात्रो न भवति, अङ्गुष्ठपर्वमात्रो वा न भवति, तावन्मात्रस्योपात्तशरीरव्यापित्वात्, तिले तैलवत् त्वक्पर्यन्तशरीरव्यापित्वेन चोपलभ्यमान गुणत्वात्, तस्मादुपात्तशरोरे त्वक्पर्यन्तशरीरव्यापीति सिद्धम् । (१०) अमूर्तत्वनिरूपणम् — आत्मा अमूर्तः, इन्द्रियैरग्राह्यत्वात्, खड्गादिभिरच्छेद्यत्वात्, शूलादिभिरभेद्यत्वात्, रूपरहितत्वात्, अनाद्यमूर्तपरिणामत्वात्, नित्यत्वात् । कादाचित्क (कभी-कभी होनेवाला ) है, उस से व्यभिचार नही आता । आत्मा श्यामाक धान्यकण बराबर नहीं है, न अंगूठे के पर्व ( पोर) के बराबर ही है, इतना सा आत्मा एक साथ समस्त शरीर में व्यापक नहीं हो सकता, मगर आत्मा के गुण तो संपूर्ण शरीर में उपलब्ध होते है, जैसे तिलों में तेल सर्वत्र पाया जाता है, अत एव सिद्ध हुआ कि आत्मा प्राप्त शरीर में त्वचापर्यन्तव्यापी है । (१०) आत्मा का अमूर्त्तत्व आत्मा अमूर्त है, क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता, वह खड्ग आदि से छेदा नहीं जा सकता, शूल आदि से भेदा नहीं जा सकता, वह अरूपी है, अनादि काल से अमूर्त परिणामवाला है और वह नित्य है । ( उद्याशित थवावाणु ) छे, तेमां व्यलियार भावता नथी. આત્મા શ્યામાક ધાન્યના કણુ ખરાખર નથી; તેમજ અંગૂઠાના પવ ( ર ) ખરાખર પણ નથી. એટલેા આત્મા એક સાથે સમસ્ત શરીરમાં વ્યાપક થઈ શકતા નથી, પરંતુ આત્માના ગુણુ તે સંપૂર્ણ શરીરમાં ઉપલબ્ધ થાય છે, જેમ તલમાં તેલ સત્ર હાય છે. એ કારણથી એ સિદ્ધ થયું કે આત્મા આ પ્રાપ્ત શરીરમાં ત્વચાચામડી સુધી વ્યાપી રહેલા છે. (१०) आत्मानु अभूतत्व આત્મા અમૃત્ત છે. કારણ કે તે ઇન્દ્રિયા દ્વારા મહેણુ કરી શકાતા નથી, ખડગ (તલવાર) આદિથી છેદી શકાતા નથી, શૂલ આદિથી ભેદી શકાતા નથી, અસ્પી છે, અનાદિ કાલથી અમૂત્ત પરિણામવાળે છે. અને તે નિત્ય છે, Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० आचाराङ्गमत्रे __अनेन-"आत्मा नातीन्द्रियो नापि जडाद् भिन्नः" इति नास्तिकमतं निरस्तम् । नन्वमूर्तोऽयमात्मा नेत्रादिभिरिन्द्रियैस्तु न विज्ञेयस्तर्हि कथमिमं जनो जानीयात्-'अस्त्यत्रात्मे'-ति । श्रूयताम्-कस्यचित् समक्षमष्टवर्षीयो वालस्तिष्ठति; तत्समानाकृतिमृन्मयी पुत्तलिकाऽपि तिष्ठति । तत्रासौ द्रष्टा पश्यति-इयं पुत्तलिका चक्षुर्वाणकर्णयुक्ताऽपि द्रष्टुं प्रातुं श्रोतुं वा न शक्नोति, पुनरयं वालश्चक्षुभ्यां पश्यति, पुष्पमाघ्राति, कस्यचिद्भापितं शृणोति च । इस कथन से नास्तिक के इस मत का निराकरण हो गया कि-'आत्मा न अतीन्द्रिय है और न जड से भिन्न है। शङ्का-आत्मा अमूर्त है, नेत्र आदि इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता तो मनुष्य कैसे समझे कि आत्मा का अस्तित्व है ? । समाधान-सुनिये । मान लीजिए किसी के सामने आठ वर्ष का बालक खडा है, उसी के समान आकृतिवाली मिट्टी की एक पुतली भी रक्खी है। दोनों को देखने वाला देखता है कि यह पुतली नेत्र, नाक और कान से युक्त तो है किन्तु देखने में सूंघने में और सुनने में समर्थ नहीं है, और यह बालक आखों से देखता है, फूल सूघता है, और किसी का भाषण सुनता है। આ કથનથી નાસ્તિકના એ મતનું નિરાકરણ થઈ ગયું કે “આત્મા અતીન્દ્રિય नथी, मने ४थी मिन्न नथी." શંકા–આત્મા અમૂર્ત છે, નેત્ર આદિ ઈન્દ્રિયથી જાણી શકાતું નથી, તે પછી માણસ કેવી રીતે સમજી શકશે કે આત્માનું અસ્તિત્વ છે. સમાધાન–સાંભળે? માની લો કે કઈ (માણસ)ના સામે એક આઠ વર્ષને બાળક ઉભે છે. તેની બાજુમાં તેના જેવી સમાન આકૃતિવાલી માટીની એક પુતળી પણ રાખી છે. આ બન્નેને જેવાવાળાં જુવે છે કે-આ પુતલી નેત્ર, નાક, કાનથી યુકત તે છે; પરતુ જેવામા, સુંઘવામાં અને સાંભળવામાં સમર્થ નથી. અને આ બાળક નેત્રથી જુવે છે, ફૂલ સુંઘે છે અને કેઈનું ભાષણ સાંભળે છે. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मवादिप्र० इयं च पुत्तलिका न किञ्चिदिच्छति, पुनरयं बालः सकलेन्द्रियविषयमुपभुज्य सुखीभवितुमिच्छति । यदि कोऽपि खड्गमुत्थाप्येमावभिधावेत् तदा पुत्तलिका पूर्ववदेवावस्थिता भविष्यति, बालस्तु खड्गाभिघातजनितदुःखादुद्विज्य पलायिष्यते । असौ बालः कमपि बुभुक्षितं बालमुपकरिष्यति भोजनीयवस्तुप्रदानेन, कमपि चान्यं बालं चपेटादिप्रहारेण क्रन्दयिष्यति । पुत्तलिका तु हितमहितं वाऽपि किञ्चिन्नैव कर्तुं प्रभविष्यति । यदि मिष्टाशनाय बाल आहूतो भवेत् तदानीं सत्वरमागतो बालो भोक्तुं प्रवर्तेत, तज्जन्यसुखानुभवोऽपि तस्य जायेत । पुत्तलिका तु नागमिष्यति न किंचिद् भोक्ष्यते, का वातौ सुखानुभवस्य ?। यह पुतली कुछ भी इच्छा नहीं करती मगर बालक सभी इन्द्रियों के विषयों का भोग करके सुखी होने की इच्छा करता है। अगर कोई तलवार उठाकर इन्हें मारने दाडे तो पुतली ज्यों की त्यों खडी रहेगी मगर बालक तलवार के आघात के दुःख से उद्विग्न हो कर या आघात की आशङ्का. से भाग जायगा। वह बालक किसी भूखे बालक को भोजन देकर उसका उपकार भी करेगा और किसी बालक को थप्पड़ आदि मारकर रुलाएगा, मगर पुतली किसीका हित या अहित करने में समर्थ नहीं है । अगर बालक को मिठाई खाने के लिए बुलाया जाय तो उसी समय आकर वह मिठाई पर टूट पडेगा और उसे मिठाई खाने के सुख का अनुभव भी होगा। पुतली न मिठाई के लिए आएगी न खाएगी, सुख का अनुभव करने की तो बात ही अलग रही। अत एव यह निश्चय होता है कि बालक में जीव का लक्षण ज्ञान આ પુતળી કાંઈ પણ ઈચ્છા કરતી નથી. પરંતુ બાળક સર્વ ઈન્દ્રિયેના વિષયોને ભેગા કરીને સુખી થવાની ઈચ્છા કરે છે. અથવા કેઈ તલવાર ઉઠાવીને તેને મારવા દોડે તે પુતલી તો જેમ છે તેમ ત્યાં ઉભી રહેશે. પરંતુ બાલક તલવાર મારવાના દુઃખથી ઉદ્વિગ્ન—ચિંતાતુર બનીને અથવા તે મારવાની આશંકાથી मागी शे. એ બાળક કઈ ભૂખ્યા બાળકને ભેજન આપીને તેને ઉપકાર પણ કરશે અને કેઈ બાળકને થયડ આદિ મારીને તેને રોવરાવશે, પરંતુ પુતલી કેઈનું હિત કે અથવા અહિત કરવા સમર્થ નથી. અથવા બાળકને મિઠાઈ ખાવા માટે બોલાવવામાં આવે છે તે જ સમયે આવીને મિઠાઈ પર તૂટી પડશે અને તેને મિઠાઈ ખાવાને સુખને અનુભવ પણ થશે. પુતલી મિઠાઈ માટે આવશે નહીં. અને ખાશે પણ નહીં. તે સુખના અનુભવની તે વાત જ જૂદી રહી. એ કારણથી નિશ્ચય થાય છે કે Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आचारागसूत्रे तथा चायं निश्चयः-वाले जीवलक्षणस्य ज्ञानस्य सद्भावाद वालशरीरे जीवोऽस्तीति । एवमन्यत्रापि सजीवशरीरे जीवस्य सत्ता निश्चेतुं शक्यते । वस्तुतोऽयमात्मैव कर्ता भोक्ता नानाविधशुभपरिणतिकर्ता चेति । अयमात्मा संसारावस्थायां स्वज्ञानवशेन दुःखमर्जयति । उक्तश्च "संसारे पर्यटन् जन्तु,-बहुयोनिसमाकुले, शारीरं मानसं दुःखं, प्राप्नोति वत दारुणम् ।।१।। आतध्यानरतो मूढो, न करोत्यात्मनो हितम् , तेनासौ सुमहत् क्लेशं, परत्रेह च गच्छति" ॥२॥ विद्यमान है, इस लिए उस में जीव है। इसी प्रकार अन्यत्र भी सजीव शरीर में जीव की सत्ता का निश्चय किया जा सकता है। वास्तव में यही आत्मा कर्ता, भोक्ता और नाना प्रकार की शुभ और अशुभ परिणतियों का कर्ता है। आत्मा संसारअवस्था में अपने अज्ञान के आधीन हो कर दुःख उपार्जन करता है, कहा भी है :- . " नाना प्रकार की योनियों से युक्त इस संसार में भ्रमण करता हुआ जीव अनेक और भयानक शारीरिक एवं मानसिक दुःख प्राप्त करता है ॥ १॥ आर्तध्यान और रौद्रध्यान में लीन रहने वाला मूढ जीव आत्मा का हित नहीं करता । इसी कारण वह इस लोक और पर लोक में महान् क्लेश पाता है " ॥२॥ બાલકમાં જીવનું લક્ષણ-જે જ્ઞાન તે વિદ્યમાન છે, તે કારણથી તેમાં જીવ છે. એ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ સજીવ શરીરમાં જીવની સત્તાને નિશ્ચય કરી શકાય છે. વાસ્તવમાં આ આત્મા કર્તા, ભકતા અને નાના પ્રકારની શુભ અને અશુભ પરિણતિઓને કર્તા છે આત્મા સંસાર અવસ્થામાં પિતાના અજ્ઞાનને આધીન થઈને દુખ ઉપાર્જન કરે છે. કહ્યું પણ છે કે – “નાના પ્રકારની ચનિયેથી યુકત આ સંસારમાં ભ્રમણ કરતે થકી જીવે અનેક ભયાનક શારીરિક અને માનસિક દુઃખ પ્રાપ્ત કરે છે. ૧] આધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનમાં લીન રહેવા વાળો મૂઢ જીવ આત્માનું હિત કરતું નથી. આ કારણુથી તે આ લેક અને પરલોકમાં મહાન કલેશ પામે છે. રક્ષા Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१.५ आत्मवादिम० (११) आत्मनः प्रतिशरीरं भिन्नत्वम्आत्मा-प्रतिशरीरं भिन्नः । एकस्यैवात्मनः प्रतिशरीरसत्त्वे तु जन्ममरणवन्धमोक्षव्यवस्था नोपपधेरन् । अन्यो जातः, अन्यो मृतः। अन्यो बद्धः, अन्यस्तु मुक्त इति व्यवस्था कथमुपपद्येत, तस्मात् प्रतिशरीरं भिन्न इति सिद्धम् । तथा चानन्ता आत्मान इति मन्तव्यम् । अनेनाऽद्वैतवादो निराकृतः। (१२) आत्मनः पौगलिककर्मसंयुक्ततम्अयमात्मा-पौद्गलिककर्मसंयुक्तः । निश्चयनयेन फर्मरहितोऽपि व्यवहारनयतोऽनादिकालतः पौगलिककमसंबद्धोऽस्ति, तस्मादयं पौगलिककर्मसंयुक्त इति कथ्यते । (११) आत्मा का प्रतिशरीरभिन्नत्वआत्मा अलग-अलग शरीरों में अलग-अलग है। समस्त शरीरों में एक ही आत्मा का अस्तित्व माना जाय तो जन्म, मरण, बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अर्थात् कोई जनमा, कोई मरा, कोई बद्ध हुआ और कोई मुक्त हुआ, ऐसी व्यवस्था कैसे बन सकेगी ? अतः आत्मा प्रत्येक शरीर में अलग ही सिद्ध होता है। आ.माएँ अनन्त हैं, ऐसा मानना चाहिए । इस से अद्वैतवाद का निराकरण हो गया । (१२) आत्मा का पौद्गलिक कर्मसंयोगयह आत्मा पौद्गलिक कर्मों से संयुक्त है। निश्चयनय से कर्मरहित होने पर भी व्यवहारनयकी अपेक्षा अनादिकाल से पौद्गलिक कर्मों के साथ आत्मा (૧૧) આત્માનું પ્રતિશરીરભિન્નત્વ આત્મા જૂદા-જૂદા શરીરમાં જૂદા-જૂદ છે. સમસ્ત શરીરમાં એક જ આત્માને અસ્તિત્વ માનવામાં આવે તે જન્મ, મરણ, બંધ અને મોક્ષની વ્યવસ્થા થઈ શકશે નહી. અર્થાત, કેઈનું જન્મ, કેઈનું મરણ, કેઈ બદ્ધ થાય અને કોઈ મુકત થાય એવી વ્યવસ્થા કેવી રીતે બની શકશે? આ કારણથી “આત્મા પ્રત્યેક શરીરમાં અલગ છે.” એમ સિધ્ધ થાય છે આત્મા અનંત છે એમ માનવું જોઈએ, આથી અદ્વૈતવાદનું નિરાકરણ થઈ ગયું. (૧૨) આત્માને પૌગલિક કર્મસંગ આ આત્મા પૌદ્ગલિક કર્મોથી સંયુકત (કર્મો સાથે જોડાએલે) છે નિશ્ચયનયથી કમરહિત હોવા છતાંય પણ વ્યવહારનયની અપેક્ષા અનાદિકાલથી પોદ્દગલિક Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे आत्मनो मिध्यात्वेन सहानादिः सम्बन्धः । अनादिमिथ्यात्वजनितविभावपरिणामरूपरागद्वेषपरिणत्याऽऽत्मा संतप्तायोगोलक इव सलिलं सर्वतोभावेन ज्ञानावरणीयादिकर्मदलं समाप्य स्वस्मिन् संयोजयति । ततोऽसौ वह्निनाऽयोगालक इव, नीरेण क्षीरमिव तेन कर्मदलेनैक्यभावं प्राप्य मूर्त इव भवति, अत एव निश्चयन येनाऽमूर्तीऽपि व्यवहारनयेनात्मा मूर्त इत्युच्यते । कर्मसम्बन्धोऽयमात्मनो व्यवहारनयत एव । २६४ का संयोग है । अत एव उसे पौगलिक कर्मों से संयुक्त कहते हैं । मिध्यात्व के साथ आत्मा का अनादि सम्बन्ध है । अनादिकाली नमिध्यात्वजनित विभाव - परिणतिरूप राग-द्वेष से आत्मा अपने समस्त प्रदेशों से ज्ञानावरण आदि के कर्मढ़लिकों को उसी प्रकार ग्रहण करता है, जैसे खूब तपा हुआ लोहे का गोला नल को ग्रहण करता है । अतः जैसे अग्नि और लोहगोलक एकमेक से हो जाने हैं, और दूध पानी एक-मेक होया हुआ प्रतीत होता है, इसी प्रकार कर्मदलिकों के साथ आत्मा एकमेक होकर मूर्त-सा हो जाता है । इस प्रकार निश्रयनय से अमूर्त होने पर भी व्यवहारनय से आत्मा मूर्त है । आत्मा और कर्म का वह सम्बन्ध व्यवहारनय से ही समझना चाहिए । કર્મોની સાથે આત્માના સંચાગ છે. એ કારણથી તેને પૌદ્ગલિક કર્મોથી સંયુકત उहे छे. મિથ્યાત્વની સાથે આત્માના અનાદિ સંબધ છે. અનાદિકાલીન મિથ્યાત્વથી ઉત્પન્ન વિભાવ-પરિણતિરૂપ રાગ-દ્વેષથી આત્મા પેાતાના સમસ્ત પ્રદેશોથી જ્ઞાનાવરણ સ્માદિના કર્યંઢળોને એવી રીતે ગ્રહણુ કરે છે કે જેવી રીતે ખૂબ તપેલા લેાઢાના ગાળો જલતુ ગ્રહણ કરે છે. એટલે કે જેમ અગ્નિ અને લેાઢાને'ગાળો એકમેક થઇ જાય છે, અને દૂધ-પાણી એકમેક થયેલા પ્રતીત થાય છે. તે પ્રમાણે કલિકાની સાથે આત્મા એક-એક થઈને મૂત્ત જેવા થઇ જાય છે. આ પ્રમાણે નિશ્ચયનયથી અમૃત્ત હોવા છતાંય પણુ વ્યવહારનયથી આત્મા સૂત્ત છે. આત્મા અને કર્મના આ સંબંધ વ્યવહારનયથી જ સમજવા જોઇએ. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. आत्मवादिप्र० २६५ कर्मबन्धापेक्षयाऽऽत्मना सह पुद्गलस्यैक्यरूपः संबन्धः, परन्तु लक्षणापेक्षया द्वयोभिन्नता प्रतीयते । तस्मादात्मन एकान्तेनाऽमूर्तत्वं नास्ति । इदमत्र तत्त्वम्-बन्धस्तु वस्तुतः पुद्गलस्य पुद्गलेन सह भवति; यथा पृथक् पृथक् पुद्गला रूक्षस्निग्धगुणाभ्यां परस्परं बन्धं प्राप्नुवन्ति तद्वत्-आत्मना सह पूर्वबद्धैः कर्मपुद्गलैः सह नूतनकर्मपुद्गला निवध्यन्ते । आत्मनोऽसंख्यातप्रदेशेष्वेषां कर्मपुद्गलानामवगाहनं भवति । आत्मन एकैकप्रदेशेऽनन्तकर्मपुद्गलास्तिष्ठति । आत्मप्रदेशानां कर्मपुद्गलानां चैकक्षेत्रेऽवगाहनरूप एव बन्धः । ईदृशोऽयं बन्धो नास्ति । कर्मबन्ध की अपेक्षा आत्मा के साथ पुद्गगल का एकत्व-रूप-सम्बन्ध है, किन्तु लक्षणों से दोनों भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, इस लिए आत्मा में एकान्त अमूर्तता नहीं है। तात्पर्य यह है कि-वास्तव में पुद्गलका बन्ध तो पुद्गल के साथ ही होता है, जैसे पृथक् पृथक् पुद्गल रूक्षता और स्निग्धता गुणों के कारण परस्पर बद्ध हो जाते हैं, इस प्रकार आत्मा के साथ पहले से बँधे हुए कर्मपुद्गल के साथ नवीन कर्मपुद्गलों का बन्ध होता है, इन पुद्गलों को अवगाहना आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में होती है । आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनन्त पुद्गल रहते हैं। आत्मप्रदेशों का और कर्म-पुद्गलों का बन्ध एकक्षेत्रावगाहन रूप ही है, जैसे एक पुद्गल दूसरे पुद्गल के साथ स्निग्धता और रूक्षता गुण के कारण मिल कर स्कन्ध बन जाता है, वैसा आत्मा और पुद्गल का बन्ध नहीं होता। कर्म કર્મ બંધની અપેક્ષા આત્માની સાથે પુદ્ગલને એકત્વરૂપ સંબંધ છે, પરંતુ લક્ષણેથી બંને ભિન્ન ભિન્ન પ્રતીત થાય છે. એ કારણથી એકાન્ત મૂર્તતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે –વાસ્તવમાં પુગલને બંધ તે પુદગલની સાથે જ થાય છે. પૃથફ-પૃથક પુદ્ગલ રૂક્ષતા અને સ્નિગ્ધતા ગુણોના કારણે પરસ્પર બદ્ધ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે આત્માની સાથે પ્રથમથી બદ્ધ થયેલા આત્માને પ્રથમ ગ્રેટેલા) કમપુદગલોની સાથે નવીન કર્મ પુદ્ગલોને બંધ થાય છે. તે પુદ્ગલેની અવગાહના આત્માના અસંખ્યાત પ્રદેશોમાં થાય છે. આત્માના એક એક પ્રદેશમાં અનન્ત યુગલ રહે છે. આત્માના પ્રદેશ અને કર્મયુગલને બંધ એકક્ષેત્રાવગાહનરૂપ જ છે. જેવી રીતે એક પુદ્ગલ બીજા પુગલની સાથે સ્નિગ્ધતા અને રૂક્ષતા ગુણના કારણે મળીને સ્કંધ બની જાય છે, તેવી રીતે આત્મા અને પુદ્ગલને બંધ થતું નથી, કર્મ પુદગલોની અવગાહના આત્માની સાથે આ પ્રકારે અનાદિકાલથી ચાલી આવે છે प्र. आ-३४. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराज्ञसूत्रे यथा- पुद्गलस्य पुद्गलेन सह स्निग्धरूक्षगुणसद्भावे सति स्कन्धभावरूपो वन्धो भवति । कर्मपुद्गलानामवगाहनाऽऽत्मना सहेत्थमनादिकालतः प्रवृत्ता, यत्एकपिण्डरूपं कार्मणशरीरमेव संजायते । तच्च शरीरमात्मनः प्रदेशमेकमपि न मुञ्चति । आत्मनः सर्वप्रदेशमभिव्याप्य तिले तैलमिव कार्मणशरीरं तिष्ठति, किन्तु - अक्षरस्यानन्ततमो भागो वर्त्तत एव मेघपटलाच्छादितसूर्यरश्मिवत् । इदं कार्मणं शरीरं तैजसं चेति द्वयं शरीरमतिम्रक्ष्मं सदाऽऽत्मना सह वर्तते । यत्र सूक्ष्मशरीरे स्थूलशरीरे चाऽयमात्मा गच्छति तत्प्रमाणो भवन् संकुचितो विस्तृतो वा भवति । तदानीमिदं द्वयं शरीरमपि सूक्ष्मस्थूलशरीरानुसारेण संकुचितं विस्तृतं वा भवति । २६६ यथा - अकृत्रिमपर्वतादौ स्कन्धरचना विद्यमानैव, तथापि तस्मात् C पुद्गलों की अवगाहना आत्मा के साथ इस प्रकार अनादिकाल से चली आती है कि एक पिण्डरूप कार्मण शरीर ही उत्पन्न होता है । यह कार्मण शरीर आत्मा के एक भी प्रदेशको नहीं छोडता । आत्मा के समस्त प्रदेशों को व्याप्त करके, तिल में तेल की तरह कार्मण शरीर रहता है, किन्तु ज्ञान का अनन्तवाँ भाग बादलों से आच्छादित सूर्य की प्रभा के समान खुला रहता ही है । यह कार्मण शरीर और तैजस शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है और आत्मा के साथ सदैव रहते है । जिस सूक्ष्म या स्थूल शरीर में आत्मा जाता है उसी शरीरप्रमाण संकुचित या विस्तृत हो जाता है, और उस समय ये दोनों शरीर भी सूक्ष्म अथवा स्थूल शरीर के अनुसार संकुचित अथवा विस्तृत हो जाते है । जैसे अकृत्रिम पर्वत आदि में स्कन्ध की रचना तो ज्यों की त्यों विद्यमान रहती है કે એકપિંડરૂપ કાણુ શરીર જ ઉત્પન્ન થાય છે તે કાણુ શરીર આત્માના એક પણ પ્રદેશને છેાડતા નથી. આત્માના તમામ પ્રદેશાને વ્યાપ્ત ( ચારેય તરફ ઘેરાયેલું) કરીને તલમાં તેલ રહે છે તે પ્રમાણે કાણુ શરીર રહે છે. પરંતુ જ્ઞાનના અનંતમે! ભાગ, વાદળાએથી ઢંકાએલી સૂર્યની પ્રભા પ્રમાણે ખુલ્લા રહે જ છે ? તે કાણું શરીર અને તેજસ શરીર અત્યન્ત સૂક્ષ્મ છે. અને આત્માની સાથે તે હંમેશાં રહે છે. જે સૂક્ષ્મ કે સ્થૂલ શરીરમાં આત્મા જાય તે શરીર પ્રમાણે સંકુચિત અથવા વિસ્તૃત થઈ જાય છે. અને તે સમય આ અન્ને શરીર પણ સૂક્ષ્મ અથવા સ્થૂલ શરીરના અનુસારે સકુચિત અથવા વિસ્તૃત થઈ જાય છે. જેવી રીતે કૃત્રિમ પર્યંત આદિના સ્કંધની રચના તેા જેવી છે તેવી જ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ. सू.५ आत्मवादिप्र० २६७ स्कन्धात् पुरातनाः पुद्गलाः क्षरन्ति नूतनास्तु तत्रागत्य मिलन्ति, तथाऽनयोस्तैजस-कार्मण-शरीरयोः स्वरूपं न कदाचिद् विनश्यति, परन्तु तत्रत्याः पुरातनाः कर्मपुद्गलाः स्वस्वफलप्रदानपुरस्सरं स्वावस्थितिसमयं समाप्यापगच्छन्ति, नूतनाः पुनः कर्मपुद्गला आत्मप्रदेशेषु मिलित्वा संबद्धा भवन्ति । एवामात्मप्रदेशैः सहानादिकालतः प्रवाहरूपोऽयं समायातः कर्मणां सम्बन्धः। _ अयं च कर्मसम्बन्धस्तदैव विनक्ष्यति, यदाऽयमात्मा मुक्तिं लभेत । आभ्यां तैजसकार्मणशरीराभ्यां वियोग एव मुक्तिरुच्यते । यद्यनादिकालतः कार्मणशरीरं संसारिणो न स्यात् तदा कदाचिदपि नवीनकार्मणवर्गणाभिर्बन्धो न भवेत् । कार्मणशरीराभावादेव सिद्धानां कार्मणवर्गणापरिपूर्णेऽपि सिद्धक्षेत्रे कर्मबन्धो न भवति । फिर भी उस स्कन्ध से पुराने पुद्गल खिरते रहते है और नवीन पुद्गल आकर उसमें मिल जाते हैं, इसी प्रकार तैजस और कार्मण शरीर का स्वरूप कभी नष्ट नहीं होता, किन्तु उसमें के पुराने कर्म-पुद्गल अपना-अपना फल देकर, अपनी स्थिति का काल समाप्त करके हट जाते है और नवीन पुद्गल आत्मप्रदेशों में मिलकर बद्ध हो जाते है । इस प्रकार आत्मप्रदेशों के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से प्रवाहरूप में चला आता है। यह कर्म-सम्बन्ध उसी समय नष्ट होगा, जब आत्मा मुक्त हो जायगा। तैजस और कार्मण शरीर से सर्वथा वियोग हो जाना ही आत्मा की मुक्ति है । संसारी जीव के साथ अनादि काल से कार्मण शरीर का सम्बन्ध न होता तो नवीन कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध कभी न होता । यद्यपि सिद्धक्षेत्र कार्मणवर्गणा से भरा हुआ है, फिर भी सिद्धों में कार्मण शरीर न होने से उन्हे कर्मबन्ध नहीं होता । વિદ્યમાન રહે છે, તે પણ તે સ્ક ધમાંથી પુરાણા પુદ્ગલ ખરતાં રહે છે. અને નવીન યુગલ આવીને તેમાં મળી જાય છે. એ પ્રમાણે તેજસ અને કાર્પણ શરીરનું સ્વરૂપ કેઈ વખત પણ નાશ થતું નથી, પરંતુ તેમાં પુરાણું કર્મ પગલું પિત–પિતાનું ફળ આપીને પોતાની રિથતિને સમય સમાપ્ત કરીને હઠી જાય છે, અને નવીન યુગલ આત્મપ્રદેશોમાં મળીને બદ્ધ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આત્મપ્રદેશોની સાથે કર્મોને સંબધ અનાદિ કાળથી પ્રવાહરૂપમાં ચાલ્યો આવે છે. આ કમ~સંબંધ તે સમયે નાશ થશે કે જ્યારે આત્મા મુકત થઈ જશે તેજસ અને કાર્મણ શરીરની સર્વથા વિયેગ થઈ જવો તેજ આત્માની સકિત છે. સંસારી જીવની સાથે અનાદિ કાલથી કાર્પણ શરીરને સંબંધ જો ન હોત તે નવીન કર્તવણુઓને સંબંધ પણ કઈ વખત નહી થતું, જે કે સિદ્ધક્ષેત્ર Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६८ - आचाराङ्गसूत्रे (१३) आत्मन ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वम्अयमात्मा-ऊर्ध्वगतिशीलः, अगुरुलघुत्वात् । यद्येवं तहिं कथमधो गच्छति ?। अलाबुर्यथा स्वभावत ऊर्ध्वगमनशीलोपि मृल्लेपाज्जलेऽधो गच्छति; तदपगमादूर्ध्वमाजलान्ताद् गच्छति, एवमात्मापि कर्मलेपादधो गच्छति तदपगमादृर्ध्वमालोकान्ताद् गच्छति । यथा वा-एरण्डवीजमपि वन्धनमुक्तं सदूर्ध्व गच्छति । (१३) आत्माका ऊर्ध्वगतिस्वभाव ___ यह आत्मा ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला है; क्यों कि वह अगुरुलघु है। प्रश्न किया जा सकता है कि अगर ऐसी बात है तो आत्मा अधोगमन क्यों करता है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जैसे पानी में ऊपर की ओर गमन करने का तूंबेका स्वभाव है, फिर भी मिट्टी का लेप कर देने से वह अयोगमन करता है और लेप हट जाने पर जल की सतह तक ऊपर की ओर उठता है। इसी प्रकार आत्मा कर्मलेप के कारण नीचे जाता है और कर्मलेप हट जाने से लोक के अग्रभाग तक उपर की ओर जाता है। अथवा जैसे-एरण्ड का बीज वन्धन से मुक्त होकर उपर जाता है उसी प्रकार आत्मा भी कर्मबन्धन का नाश होने पर उपर जाता है। કામણવર્ગણાઓથી ભરેલો છે, તે પણ સિદ્ધોમાં કામણ શરીર નહિં હોવાથી તેને કર્મબંધ થતો નથી. (23) मात्भानातिस्पसा PAL मारमा -गति-गमन-स्वभाव वाणो छ, ४१२६१ ते ५४३-वधु छे. તે પ્રશ્ન કરી શકાય છે કે અગર જો એ પ્રમાણે છે તે આત્મા અાગમન કેમ કરે છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર એ છે કે તુંબડાને સ્વભાવ જેમ પાણીમાં ઉપરની તરફ આવવાનું છે તે પણ તેને માટીને લેપ કરી દેવાથી તે પાણીમાં નીચે જાય છે. અને માટીને લેપ દૂર થતાં જલની સપાટી સુધી ઉપરના ભાગમાં આવે છે. એ પ્રમાણે આત્મા કમલેપના કારણે નીચે જાય છે, અને કર્મલેય દૂર થવાથી લેકના અગ્રભાગ સુધી ઉપરના ભાગમાં જાય છે. અથવા જેવી રીતે એરંડાનું બીજ બંધનથી મુકત થતાં ઉપર જાય છે. તે પ્રમાણે આત્મા પણ કર્મબંધન નાશ થતાં ઉપર જાય છે. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ लोकवादिम० लोकवादिप्रकरणम्यः पुनरेवंरूपमात्मानं सर्वथा विज्ञायात्मस्वरूपनिरूपणपरः स एव वस्तुतो लोकवादीत्याह- लोकवादी' इति । लोक्यते सर्वज्ञैरिति लोकःषड्जीवनिकायरूपः । अत्र लोकशब्देन षड्जीवनिकायो गृह्यते, भगवताऽऽत्मज्ञानमेव पुरस्कृत्य लोकवादिप्रतिबोधनात् । यः षड्जीवनिकायरूपं लोकं विजानाति स एव लोकवादी-लोकस्वरूपकथनस्वभाववान् , न तु षड्जीवनिकायानभिज्ञ इत्यर्थः। षड्जीवनिकायरक्षणेनैवात्मस्वरूपं प्रकटीभवति। तच्च षड्जीव लोकवादिप्रकरणजो इस प्रकार आत्मा के स्वरूप को जान कर आत्मा के निरूपण में तत्पर होता है वही वास्तव में लोकवादी है। सर्वज्ञों द्वारा जो लोका जाय-अवलोकन किया जाय वह लोक है, अर्थात् षड्जीवनिकाय को लोक कहते हैं । ' लोक' शब्द से यहाँ षड्जीवनिकाय का ही ग्रहण किया गया है, क्यों कि भगवान् ने आत्मज्ञान को ही आगे रखकर लोकवादी का कथन किया है। जो षड्जीवनिकायरूप लोक को जानता है वही लोकवादी है, अर्थात् लोक के स्वरूप का कथन करने वाला है, किन्तु षड्जीवनिकाय से अनभिज्ञ नहीं । षड्जीवनिकाय की रक्षा करने से ही आत्मा का स्वरूप प्रकट होता है । षड्जीव લેકવાદી પ્રકરણ જે આ પ્રમાણે આત્માના સ્વરૂપને જાણી કરીને આત્માના નિરૂપણમાં તત્પર થાય છે તે વાસ્તવિક રીતે લેકવાદી છે. સવ દ્વારા જે લેકાવાય-અવલોકન કરાય –અર્થાત્ સર્વ જેને જોઈ શકે છે તે લોક છે. અર્થાત્ ષડૂજીવનિકાયને લક કહે છે. “લેક” શબ્દથી ષડ્રજવનિકાયનું જ ગ્રહણ કર્યું છે, કારણ કે ભગવાને આત્મજ્ઞાનને જ આગળ રાખીને લોકવાદીનું કથન કર્યું છે. જે ષડૂજીવનિકાયરૂપ લકને જાણે છે, તે લકવાદી છે, અર્થાત્ લોકના સ્વરૂપનું કથન કરવા વાળા છે ષજીવનિકાયથી અનભિજ્ઞ હોય તે નહિ. ષડુ જીવનિકાયની રક્ષા કરવાથી જ આત્માનું સ્વરૂપ પ્રગટ થાય છે. વડુ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૦ आचारागसूत्रे निकायज्ञानं विना तद्रक्षणं - न संभवति । अतः पड्जीवनिकायस्वरूपं निरूप्यते जीवास्तावत् संक्षेपतो द्विविधाः-सिद्धा असिद्धाश्चेति । तत्र मुक्ति प्राप्ताः सिद्धाः, संसारिणोऽसिद्धाः । संसारिणः पुनर्द्विविधाः-त्रस-स्थावरभेदात् । तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः। त्रसाश्चतुर्विधाः - द्वीन्द्रिय - त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय -- पञ्चेन्द्रियभेदात् । तत्रेन्द्रियाणि पञ्च श्रोत्र-चक्षु-णि-रसनस्पर्शनाख्यानि । पृथिवीकायोऽप्कायस्तेजस्कायो वायुकायो वनस्पतिकायश्चेति पञ्चविधा जीवा एकेन्द्रियाः। कृम्यादयो द्वीन्द्रियाः,। पिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः, भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः । मनुष्यादयःपञ्चेन्द्रियाः ।। निकाय की रक्षा उसके ज्ञान के अभाव में नहीं हो सकती, अतः षड्जीवनिकाय के स्वरूप का निरूपण किया जाता है संक्षेप में जीवों के दो भेद है—सिद्ध जीव और असिद्ध जीव । मुक्त जीव सिद्ध कहलाते हैं और संसारी जीव असिद्ध कहलाते है । संसारी जीव भी दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर । पृथिवीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, और वनस्पतिकाय स्थावर है । त्रस जीव चार प्रकार के है-द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय,चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । श्रोत्र, चक्षु, घ्राण (नाक), रसना और स्पर्शन, ये पांच इन्द्रिया हैं। पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय, ये पांच स्थावर जीव एकेन्द्रिय है। कृमि आदि दीन्द्रिय है । पिपीलिका (चिउंटी ) आदि त्रीन्द्रिय है । भौरा आदि चौइन्द्रिय हैं। मनुष्य आदि पञ्चेन्द्रिय है। જીવનિકાયની રક્ષા તેના જ્ઞાનના અભાવમાં થઈ શકતી નથી, તે કારણથી પડ્ડજીવનિકાયનાં સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે – सपमा ना मे मे छ.-(१) सिद्ध मन (२) मसिद्धव. भुतलव તે સિદ્ધ કહેવાય છે અને અસિદ્ધ તે સંસારી જીવ કહેવાય છે. સંસારી જીવ પણ मे २ना छे. (१) स मने (२) स्था१२. पृथिवीय, २१५४ाय, ते४२४ाय, વાયુકાય, અને વનસ્પતિકાય તે સ્થાવર છે. ત્રસ જીવ ચાર પ્રકારના છે. દ્વીન્દ્રિય, जीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय भने ५येन्द्रिय. श्रोत्र (आन) यक्षु (मत्र), प्रा (ना४), २सना (OH), भने २५शन (यामी), २मा पांय दियो छे. पृथिवीय, साय, તેજસ્કાય, વાયુકાય અને વનસ્પતિકાય, આ પાંચ સ્થાવરજીવ એકેન્દ્રિય છે, કૃમિ આદિ કન્દ્રિય છે. કીડી આદિ ત્રિીન્દ્રિય છે, ભમરા વગેરે ચૌઇન્દ્રિય Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५ लोकवादिम० २७१ अत्र पञ्च स्थावरा एकत्रसश्चेति मिलित्वा पञ्जीवनिकाया भवन्ति एषां प्रत्येकं भेदान प्रदर्शयामः ___(१) पृथिवीकायभेदाः- पृथिवीकायस्तावदुच्यते-पृथिव्येव कायो यस्य स पृथिवीकायः । पृथिवीकायादयः पञ्च स्थावरनामकर्मोदयात् समुत्पन्नास्तस्मादिमे स्थावरा इति कथ्यन्ते । पृथिवीकायोऽनेकविधः, शुद्धपृथिवीशर्करा-वालुकादिभेदात् । तत्र शर्करादिभेदरहिता मृत्तिकारूपा, तथा गोमयकचवरादिरहिता वा पृथिवी पांच स्थावर और एक त्रस मिलकर षटुजीवनिकाय हैं। इन सबके भेद दिखलाते हैं (१) पृथिवीकाय के भेद पृथिवी ही जिस का शरीर हो, वह पृथ्वीकाय कहलाता है। पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावरनाकर्म के उदय से उत्पन्न होने के कारण स्थावर कहलाते है । पृथिवीकाय अनेक प्रकार का हैं-शुद्ध पृथिवी, शर्करा, वालु आदि। उनमें शर्करा आदि भेदों से रहित मृत्तिकारूप, तथा गोबर या कचरा आदि से रहित पृथिवी' शुद्धपृथिवी कहलाती है। पत्थर के छोटे-छोटे खण्डों से मिली हुई मृत्तिका शर्करा पृथिवी है । છે, મનુષ્ય આદિ પંચેન્દ્રિય છે પાંચ સ્થાવર અને એક ત્રસ મળીને ષડૂજીવનિકાય છે. એ તમામના ભેદ બતાવે છે – (१) पृथिवीयन से - પૃથિવી જેનું શરીર હોય, તે પૃથિવીકાય કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય આદિ પાંચેય સ્થાવરનામકર્મના ઉદયથી ઉત્પન્ન હોવાના કારણે સ્થાવર કહેવાય છે. પૃથ્વીકાય અનેક પ્રકારે છે, શુદ્ધપૃથ્વી, શકરા, વા (રેતી) આદિ. તેમાં શર્કરા આદિ ભેદોથી રહિત મૃત્તિકાય, અને છાણ અગર કચરા આદિથી રહિત પૃથ્વી શુદ્ધપૃથ્વી કહેવાય છે. પથ્થરના નાના-નાના કકડામાંથી મળેલી માટી તે શર્કરા પૃથિવી છે. વાલ્ (રેતી) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७२ आचारागसत्रे शुद्धपृथिवी । अश्मलघुखण्डमिश्रिता मृत्तिका-शर्करापृथिवी। वालुकाव्यतिमिश्रा मृत्तिका-वालुकापृथिवी । एवं बहुविधाः पृथिवीकायाः, तथाहि ___ उपल - शिला- लवणो-पर-लोह-त्रपु-ताम्र-सीसक - रजत-सुवर्ण इरितालहिङ्गलक-मनःशिला-सस्यकाञ्जन-प्रवाला-भ्रकपटला-भ्रवालुका-गोमेद-रुचकाङ्कस्फटिक - लोहिताक्ष- मरकत-मसारगल्ल-भुजगेन्द्रनील-गोपीचन्दन-गैरिक - हंसगर्भपुलक-सौगन्धिक-चन्द्रकान्त-सूर्यकान्त-वैडूर्य-जलकान्तादयः सर्वे बादरपृथिवीकायभेदाः। एते च शुद्धपृथिव्यादयः स्वखनिस्थिता एव चेतनावन्तः । गोमयकचवरादिरूपशस्त्रोपहता रविवह्नितापरूपशस्त्रोपहताश्च गतचेतना भवन्ति । बाल मिली मृत्तिका बालका पृथिवी कहलाती है । इस प्रकार पृथिवीकाय के अनेक भेद हैं, वे इस प्रकार : पत्थर, शिला, नमक, उपर, लोहा, रांगा, तांबा, शीशा, चांदी, सोना, हडताल, हिंगल, मैनसिल, सस्यकांजन, मूंगा, अभ्रक अभ्रवालुका गोमेद, रुचक, अङ्क, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजग, इन्द्रनील, गोपीचन्दन, गेरू, हंसगर्म, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रकान्त सूर्यकान्त, वैडूर्य, जलकान्त, आदि बादर पृथिवीकाय के भेद है । वे शुद्ध पृथिवी आदि जब अपनी खान में स्थित होते हैं तभी सचेतन होते हैं। गोबर, कचरा आदि शस्त्रों से उपहत होकर या सूर्य की धूप और अग्नि के तापरूप शस्त्र से अचेमन हो जाते है। મળેલી માટી વાલુકાપૃથિવી કહેવાય છે. એ પ્રમાણે પૃથિવી કાયના અનેક ભેદ છે. पत्थर, शिक्षा, भाई, अष२-मारी, बाटु, संत, (Yes), भु, सीखें, यही, सानु, ताल, गा, मनशिल, सुरभी, भू30-५२i, म, मवायु, गाभेद, ३५४, म४, २७टि४, alsताक्ष, भ२४त, मसास, सु, छन्द्रनात, गोपीयन्टन, गे, साल, पुर, सौगाधि४, यान्त, सूर्यान्त, वैडू, raslid આદિ બાદરપૃથિવીકાયના ભેદ છે (આ ખર બાદર પૃથ્વીકાય છે). એ શુદ્ધ પૃથિવી આદિ જ્યારે પિતાની ખાણમાં સ્થિત હોય છે, ત્યારે તે સચેતન હેાય છે. છાણ-કચર આદિ શસ્ત્રોથી ઉપહત (હણાએલા) થઈને, અથવા તે સૂર્ય અને અગ્નિના તાપરૂપ શસ્ત્રથી અચેતન થઈ જાય છે. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ । आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिप० उक्तवादरपृथिवीकायानां यत्रैको जीवस्तत्र नियमतोऽसंख्याताः पृथिवीकाया जीवाः सन्ति । स्थानमप्येषां पृथिवी-पाताल-भवन-नरक-प्रस्तर-विमानादिकं ज्ञेयम् । सूक्ष्मपृथिवीकायजीवास्तु सर्वलोकव्यापिनः। उभयेषां भेदप्रभेदाः सर्वज्ञप्रणीतादागमादवगन्तव्याः। (२) अपूकायभेदाःअपकायाऽनेकविधः-अवश्याय - मिहिका-करक-हरतनु-शुद्ध-शीतो-ष्णक्षारा-ऽम्ल-लवण-क्षीरोदक-धृतोदकादिभेदात् । एको यत्राप्कायस्तत्रासंख्याता अपकायाः सन्ति । वादरापकायानां समुद्र-हद-नदी-वापी-कूपादिः स्थानम् । सूक्ष्मापकायस्तु सर्वलोकव्यापकः । अस्यापि भेदप्रभेदा आगमतो विज्ञेयाः। उक्त बादर पृथिवीकाय आदि का जहाँ एक जीव है वहाँ नियम से असंख्यात पृथिवीकाय के जीव है । पृथिवी. पाताल, भवन, नरक-प्रस्तर, विमान आदि इनके स्थान है। सूक्ष्म पृथिवीकाय के जीव समस्त लोक में व्याप्त हैं । दोनों के भेद-प्रभेद सर्वज्ञोक्त आगम से समझ लेने चाहिए। (२) अप्काय के भेदअपकाय अनेक प्रकार का है—ओस, मिहिका, ओले, हरतनु, शुद्धजल, शीतजल, उष्णजल, क्षार, अम्ल लवणजल (खारा पानी) क्षीरोदक, और घृतोदक आदि । जहाँ एक अप्काय है वहाँ असंख्यात अपकाय हैं । बादर अप-कायका स्थान समुद्र, तलाव, नदी, वावडी, कृप आदि हैं, और सूक्ष्म अपकाय समस्त लोक में व्याप्त है। इसके भी भेद-प्रभेद आगम से समझना चाहिए। ઉપર કહેલા બાદર પૃથિવીકાય આદિને જ્યાં એક જીવ છે. ત્યાં નિયમથી અસંખ્યાત પૃથિવીકાય જીવ છે પૃથિવી, પાતાલ, ભવન, નરક–પ્રસ્તર, વિમાન આદિ તેના સ્થાન છે. સૂમ પૃથિવી કાયના જીવ સમસ્ત લેકમાં વ્યાપ્ત છે. એ બંનેના ભેદ-પ્રભેદ સર્વના આગમથી સમજી લેવા જોઈએ. (२) मायनसायना भने ४२ -यास, भिडिट (निहार), मणी, रतनु(પૃથ્વીને ભેદીને તૃણના અગ્રભાગ વગેરે ઉપર રહેનારૂં પાણી) શુદ્ધ જલ (मतरिक्षयी ५ अथवा नहीन पाणी) शीतare, Gorgare (माथी गरम पाणीना गर्नु पाणी), माटुस, ३४८, क्षीश६४ मने तो माहि, (Aq, વારૂણ, ક્ષીર, ઈશ્નરસ અને પુષ્કરવર સમુદ્રનાં પાણી) જ્યાં એક અપકાય છે, ત્યાં અસંખ્યાત અપૂકાય છે. બાદર અપકાયના સ્થાન સમુદ્ર, તળાવ, નદી, વાવડી, કૂવા આદિ છે, અને સૂમ અપકાય સમસ્ત લેકમાં વ્યાપ્ત છે. તેના ભેદ-પ્રભેદ પણ આગમથી સમજવા જોઈએ प्र. या.-३५ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७४ आचाराङ्गसूत्रे (३) तेजस्कायभेदाःतेजस्कायोऽनेकविधः-अङ्गाराचिरलातशुद्धाग्न्यादिभेदात् । इमे तेजस्काया जीवा वादराः। यत्रैकस्तेजस्कायस्तत्राऽसंख्यातास्तेजस्कायाः सन्ति । तेषां स्थान साधतृतीयद्वीपरूपसमयक्षेत्रमेव, न ततो बहिः । सूक्ष्मास्तु सर्वलोकव्यापिनः । एषां भेद-प्रभेदाः पूर्ववद् विज्ञेयाः (४) वायुकायभेदाःवायुकायः पौरस्त्य-पाश्चात्याधुत्कलिमण्डलिकादिभेदादनेकविधः। वादरवायुकायानां स्थानं घनवात-तनुवात - तद्वलयाधोलोकपातालभवनादिकम् । सूक्ष्मा वायुकाया सर्वलोकव्यापिनः । एषां भेदप्रभेदाः पूर्ववद् वेदितव्याः। (३) तेजस्काय के भेदतेजस्काय अनेक प्रकार का है, जैसे-अंगार, ज्वाला, अलात, शुद-अग्नि आदि । जहाँ एक बादर तेजस्काय का जीव होता है वहाँ असंख्यात तेजस्काय होते हैं। इन का स्थान अढाईद्वीपरूप समय क्षेत्र ही है, उस से बाहर ये नहीं होते । सूक्ष्म तेजस्काय के जीव लोकव्यापी है । इन के भी भेद--प्रभेद आगम से समझने चाहिए । (४) वायुकाय के भेदवायु के भी पूर्वा और पश्चिमी आदि के भेद से और उत्कलिक मण्डलिक आदि के मेढ से अनेक प्रकार हैं। घनवात, तनुवात, वलय, अधोलोक और पाताल, भवन आदि बादर वायुकाय के स्थान हैं। सूक्ष्म वायुकाय सर्वलोकव्यापी है । (3) ते१२४यना :તેજસ્કાય અનેક પ્રકારના છે, જેમ કે અંગાર, ક્વાલા, અલાત, શુદ્ધ અગ્નિ, આદિ, ત્યાં એક બાદર તેજસ્કાયને જીવ હોય છે ત્યાં અસંખ્યાત તેજસ્કાય હાય છે. તેનું સ્થાન અઢીદીયપ સમયક્ષેત્ર જ છે, તેનાથી બહાર તે નથી. સૂક્ષ્મ તેજરકાયના જીવ લેકવ્યાપી છે. તેના પણ ભેદ-પ્રભેદ આગમથી જાણી લેવા જોઈએ. (४) वायुयना - વાયુકાય પણ પૂર્વ અને પશ્ચિમ આદિના ભેદથી, અને ઉત્કલિક (જેમ સમુદ્રમાં કલ્લેલો) મંડલિક, (મૂળમાંથી જે ગોળ ફરતે વાતે હોય તે વાયુ) આદિ ભેદથી અનેક પ્રકારનો છે, ઘનવાત, તનુવાત, વલય, અલેક, અને પાતાલ, ભવન આદિ બાદર વાયુકાયના સ્થાન છે, અને સૂક્ષ્મ વાયુકાય સર્વલોકવ્યાપી છે, Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ - - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५ लोकवादिप्र० इमौ तेजस्काय-बायुकायौ गतिस्वभावतया असावपि निगद्यते । (५) वनस्पतिकायभेदा:वनस्पतिकायोऽनेकविधः - शैवाल - पनक -हरिद्रा -- sऽर्द्रक-भूलका - लूकसूरण-पलाण्डु-लशुन-कन्दादिभेदात् । इमे वनस्पतिकायाः साधारणा उच्यन्ते । वृक्षगुच्छगुल्मलतादयः प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । साधारणवनस्पतिकायस्यैकस्मिन् इनके भेद-प्रभेद पूर्ववत् आगम से जानने चाहिए । तेजस्काय और वायुकाय गतिशील होने के कारण त्रस भी कहे जाते है । (५) वनस्पतिकाय के मेद वनस्पतिकाय अनेक प्रकार का है। जैसे--शैवाल, पनक, हरिद्रा, (हल्दी), आर्द्रक (अदरख ) मूलक, अळूक (आलू), सूरण, प्याज, लहसुन, और कन्द आदि । ये वनस्पतिया साधारण कहलाती हैं। तथा वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता आदि प्रत्येकशरीर कहलाती है। साधारण वनस्पतिकाय के एक शरीर में अनन्त जीव होते है। इनका તેના ભેદ-પ્રભેદ પૂર્વ પ્રમાણે આગમથી સમજી લેવા જોઈએ. તેજસ્કાય અને વાયુકાય ગતિશીલ હોવાના કારણે ત્રસ પણ કહેવામાં આવે છે. (५) वनस्पतिशायना - वनस्पति य मने प्रारे छ, भ3-शेवास, पन, Pिी, माड, भूत, આલૂ, સૂરણ, ડુંગળી, લસણ અને કન્દ આદિ. આ વનસ્પતિઓ સાધારણ કહેવાય છે, જેમાં અનંત જી હોય તેને સાધારણ કહે છે) તથા વૃક્ષ, (ભગવતી સૂત્રમાં વૃક્ષના ત્રણ ભેદ પાડેલા છે. (૧) શૃંગબેર (આદુ)ની પેઠે અનંત જીવાળાં ઝાડે, (२) मनी भा५४ मध्य वा आडी, (3) भने तार-तमास वगेरे प्रभाये સંખ્યાત જીવાળાં ઝાડે). ગુચ્છ, ગુલ્મ (નવમાલિકા જઈ વગેરે) લતા આદિ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. સાધારણ વનસ્પતિ કાયના એક શરીરમાં અનન્ત જીવ હોય છે. તેનું સ્થાન ઘનોદધિ આદિ છે. સૂમ વનસ્પતિકાય સર્વ લેકવ્યાપી છે. Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ' आचाराङ्गसूत्रे शरीरेऽनन्ता जीवाः सन्ति । एषां स्थानं घनोदध्यादि । सूक्ष्मास्तु वनस्पतिकाया सर्वलोकव्यापिनः । एपां भेदप्रभेदाश्च शास्त्रतोऽवसेयाः । एते पञ्च स्थावराः स्पर्शनरूपैकेन्द्रियाः। पञ्च जीवनिकाया उक्ताः, इदानीं षष्ठस्त्रसाधिकारः कथ्यते (६) त्रसकायमेदाःत्रसस्त्रं द्विविधं, क्रियातो लब्धितश्च । तत्र क्रिया = कर्म-चलनं-देशान्तरमाप्तिः। अतः क्रिययैव तेजस्कायो वायुकायश्च प्रसो भवति । लब्ध्या तूभौ स्थावरौ । द्वीन्द्रियादयस्तु क्रियया लब्ध्यापि असा भवन्ति । लब्धिर्हि असनामकर्मोंदयः, देशान्तरप्राप्तिलक्षणा क्रियाऽपि द्वीन्द्रियादीनाम् । स्थावरनामकर्मोदयरूपया स्थान बनोदधि आदि है। सूक्ष्म वनस्पतिकाय सर्वलोकव्यापी है। इनके भेद-प्रभेद शास्त्र से समझ लेने चाहिए । इन पाँच स्थावरों को एकमात्र स्पर्शनइन्द्रिय होती है। पांच जीवनिकायों का कथन किया जा चुका है। अब छठे त्रसकाय का प्ररूपण किया जाता है (६) सकायत्रसपन दो प्रकार का है--क्रिया से और लब्धि से । कार्य करना, चलना, एक जगह से दूसरी जगह जाना क्रिया है । इस किया से ही तेजस्काय और वायुकाय त्रस कहलाते हैं । लब्धिकी अपेक्षा ये दोनों स्थावर ही है। द्वीन्द्रिय आदि, क्रिया से भी अस है और लब्धि से भी। यहाँ त्रसनामकर्म का उदय लब्धि है, और देशान्तर में તેના ભેદ-પ્રભેદ શાસ્ત્રથી સમજી લેવા જોઈએ. આ પાંચ સ્થાવરોને એક માત્ર સ્પર્શન ઈન્દ્રિય હોય છે. આ પાંચ જવનિકાનું કથન કરી ચૂકયા છીએ. હવે છઠ્ઠા ત્રસ કાયનું પ્રરૂપણ કરવામાં આવે છે— (१) समयસપણું બે પ્રકારનું છે-ક્રિયાથી અને લબ્ધિથી. કાર્ય કરવું, ચાલવું, એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાએ જવું તે ક્રિયા છે. આ ક્રિયાથી જ તેજસ્કાય અને વાયુકાય ત્રસ કહેવાય છે, લબ્ધિની અપેક્ષાએ આ બને સ્થાવર જ છે. દ્વીન્દ્રિય આદિ ક્રિયાથી પણ રસ છે અને લબ્ધિથી પણ ત્રસ છે. અહિં વસનામકર્મને ઉદય તે લબ્ધિ છે, અને દેશાન્તરમાં ગમન કરવું તે ક્રિયા છે. દ્વીન્દ્રિય આદિમાં એ બંને જોવામાં Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.५. लोकवादिप्र० २७७ लब्ध्या पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः सर्वे स्थावरा एव । एवं च त्रसः षविधः तेजस्काय-वायुकाय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय-भेदात् । तत्र तेजस्कायो वायुकायश्च प्रागुक्तः। द्वीन्द्रियादिषु चतुर्विधेषु त्रसजीवेषु द्वीन्द्रियास्तावदुच्यन्ते (१) द्वीन्द्रियः शरीरकाष्ठादिजा:-कृमयः, फलादिजाः-नीलङ्गप्रभृतयः, गोमयादिजाः-गन्दोलकादयः, जलजाः-शङ्खशुक्तिशम्बूकजलौकाप्रभृतयो द्वीन्द्रियाः। गमन करना क्रिया है, द्वीन्द्रिय आदि में ये दोनों पाई जाती है। स्थावरनामकर्मोंदयरूप लब्धि की अपेक्षा पृथ्वी, अप् , तेज, वायु, और वनस्पति, ये सब स्थावर है । इस प्रकार त्रसजीव छह प्रकार के है-तेजस्काय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय । इन में से तेजस्काय और वायुकाय का वर्णन पहले किया जा चुका है। द्वीन्द्रिय आदि चार प्रकार के त्रसजीवों में से प्रथम द्वीन्द्रिय का स्वरूप बतलाते है __(१) द्वीन्द्रियशरीर और काठ आदि में उत्पन्न होने वाली कृमि, फल आदि में उत्पन्न होने वाले नीलंगु वगैरह, गोबर में उत्पन्न होने वाले गिंडोला वगैरह, जल में पैदा होने वाले शङ्ख, सीप, जोक आदि द्वीन्द्रिय जीव है । इन के स्पर्शन और रसना, ये दो आवे छे. स्थावरनाममाय धनी अपेक्षा-पृथ्वी, १५, तेल, वायु, वनस्पति, આ સર્વ સ્થાવર છે. આ પ્રમાણે ત્રસ જીવ છ પ્રકારના છે–તેજસ્કાય, વાયુકાય, શ્રીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય. આમાંથી તેજસ્કાય અને વાયુકાયનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવ્યું છે. દ્વીન્દ્રિય આદિ ચાર પ્રકારના ત્રસ જીવમાંથી દ્વિીન્દ્રિય આદિનું સ્વરૂપ બતાવે છે. (१) न्द्रियશરીર અને કાષ્ઠ આદિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા કૃમિ, ફળ આદિમાં ઉત્પન થવા વાળા નીલંશુ વગેરે. છાણમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા શિંડલા વગેરે. જલમાં ઉત્પનન થવા વાળા શખ, શીપ, જળો વગેરે દ્વીન્દ્રિય જીવ છે. તેને સ્પર્શન અને Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २७८ आचाराङ्गसूत्रे इमे स्पर्शन-रसनोभयेन्द्रियाः द्वीन्द्रिया जीवा असंख्याताः । (२) त्रीन्द्रियाःश्रीन्द्रियाः पिपीलिकादय:-पिपीलिका-रोहिणिका-कुन्थु-यूक-लिम-मत्कुणमत्कोटक-शुलशुल-गोपदिका-खजूरा-कर्णशूलादयः प्रसिद्धाः । इमे स्पर्शन-रसनघ्राणेन्द्रियाः । त्रीन्द्रिया असंख्याताः। (३) चतुरिन्द्रियाःचतुरिन्द्रियाः भ्रमरादयः-भ्रमर-वटर-मक्षिका-दंश-मशक-वृश्चिक-कीटकसारी-पतङ्गादयः प्रसिद्धाः। इसे स्पर्शन-रसन-प्राण-चक्षु-रिन्द्रियाः । चतुरिन्द्रिया अपि असंख्याताः। इन्द्रियां होती हैं । द्वीन्द्रिय जीव असख्यात है। (२) त्रीन्द्रिय--- पिपीलिका (कीडी), रोहिणिका, कुन्थुवा, जूं, लीख, खटमल, मकोडा, शुलशुल, गोपदिका, खजूरा, कर्णशूल, आदि त्रीन्द्रिय जीव प्रसिद्ध है । इनके स्पर्शन रसना और प्राण, ये तीन इन्द्रिया होती हैं । त्रीन्द्रिय जीव असंख्यात है। (३) चतुरिन्द्रियभ्रमर, वटर, मक्खी, डांस, मच्छर, विच्छू, कीट, पतङ्ग, कंसारी, आदि चौइन्द्रिय जीव प्रसिद्ध है। इनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, और चक्षु, ये चार इन्द्रियाँ होती है । ये जीव असंख्यात है। રસના એ બે ઈન્દ્રિય વાળા જી અસંખ્યાત છે (२) त्रीन्द्रिय811, शहिणुि, ४थुवा, j, दीप, भixs, भा , शुखशुस, जाप४ि, કાનખજૂરા, કર્ણફૂલ આદિ ત્રીન્દ્રિય જીવ પ્રસિદ્ધ છે. તેને સ્પર્શન, રસના, અને ઘાણ. આ ત્રણ ઈન્દ્રિયે હોય છે. ત્રીન્દ્રિય જીવ અસંખ્યાત છે. (३) तुरिन्द्रियसभरा, १८२, मामी, स, भ२२२, पीछी, घट, पत', सारी महिन्यार ઈન્દ્રિયવાળા જીવ પ્રસિદ્ધ છે. તેમને સ્પર્શન રસના, છાણ અને નેત્ર આ ચાર ઈન્દ્રિય હોય છે. એ જીવ અસંખ્યાત છે. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५ लोकवादिप्र० ( ४ ) पञ्चेन्द्रियजीवाः - पञ्चेन्द्रियजीवाश्चतुर्धा --- नारक - तिर्यङ् - मनुष्य- देव - भेदात्, नारकाः सप्तविधाः, सप्तनरकेषु समुद्भवात् । रत्न ( १ ) - शर्करा (२) - बालुका ( ३ ) - पडू(४) - धूम (५)-तमो (६) –महातमो (७) - नाम्न्यः सप्त पृथिव्यस्तत्र सप्त नरकभूमयः, तत्र ये निवसन्ति ते नारकाः सप्तविधा इति । नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवानां स्पर्शनरसन - प्राण - चक्षुः - श्रोत्राणि पञ्चेन्द्रियाणि भवन्ति । पञ्चेन्द्रिय - तिर्यञ्चो द्विविधा: - गर्भज-संमूर्छिमभेदात् । तत्र - गर्भजाः पञ्चधा-जलचर-स्थलचर-खेचरो - रः परिसर्प - भुजपरिसर्पभेदात् । संमूर्छिमा अपि (४) पञ्चेन्द्रियजीव - पञ्चेन्द्रिय जीव चार प्रकार के है -- ( १ ) नारक, (२) तिर्यञ्च, ( ३ ) मनुष्य, और ( ४ ) देव | नारक सात प्रकार के हैं, क्यों कि सात नरकों में उनकी उत्पत्ति होती है । ( १ ) रत्नप्रभा ( २ ) शर्कराप्रभा ( ३ ) बालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, ( ६ ) तमःप्रभा और ( ७ ) तमस्तमःप्रभा नामक सात पृथिबी है । वहाँ सात नरकभूमियाँ है । इन भूमियो में निवास करने वाले नारकी भी सात प्रकार के कहलाते हैं । नारक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, और श्रोत्र, ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च दो प्रकार के हैं—गर्भज और संमूर्च्छिम । इन में गर्भज के पांच भेद हैं- (१) जलचर, (२) स्थलचर, (६) खेचर, (४) उरः परिसर्प और (५) भुजपरिसर्प । (४) पयेन्द्रिय चांग धन्द्रिये । वाजा व यार अारना छे - (१) नारडी, (२) तिर्यय, (3) મનુષ્ય, અને (૪) દેવ. નારકીના સાત પ્રકાર છે, કારણ કે સાત નરકેામાં તેની उत्पत्ति होय छे. (१) रत्नप्रभा (२) शरायला, ( 3 ) वालुअला, (४) पं अला, (५) धूभयला, (६) तमायला अने (७) तमस्तभ:- असा नामनी सात पृथिवी छे. ત્યાં સાત નરકભૂમિએ છે. તે નરકભૂમિમાં નિવાસ કરવા વાળા નારકી પણુ सात अञ्जारना हेवाय छे. नारट्ठी, पथेन्द्रिय-तिर्यय, मनुष्य, अने हेवाने स्पर्शन, રસના ઘ્રાણ, ચક્ષુ અને શ્રોત્ર, આ પાંચ ઇન્દ્રિચેા હોય છે. पथेन्द्रिय तिर्यथ मे अारना - ( १ ) गर्ल ४, (२) संभूछिंभ. तेमां गर्भंना यांग नेह :- (१) ४सयर, (२) स्थायर, (3) फेयर, (४) २ः परिसर्प, मते २७९ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आचारागसत्रे पञ्चधा-जलचर(१)-स्थलचर(२)-खेचरो(३)-रःपरिसपै(४)-भुजपरिसर्पभेदात् । तत्र जलचरा मत्स्यमकरादयः, स्थलचरा गोमहिण्यादयः, खेचराः मयूरादयः, उर परिसः सदियः, भुजपरिसाः गोधादयः। मनुष्या द्विविधाः-कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजाः। यत्र जाता मनुष्याः सिध्यन्ति; बुध्यन्ते, परिनिर्वान्ति; सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति सा कर्मभूमिः। अत्रै संसारान्तप्राप्तिकारकस्य रत्नत्रयरूपमोक्षमार्गस्य विज्ञातारः कर्तार उपदेष्टारश्च भगवन्तस्तीर्थङ्करा अवतरन्ति । ते च स्वयं संसारार्णवं तरन्ति, परान् भव्यानपि तारयन्ति । अर्धतृतीयद्वीपाभ्यन्तरे कर्मभूमयः पञ्चदशक्षेत्ररूपा भवन्ति-पश्च संमूर्छिम के भी पांच भेद हैं—(१) जलचर, (२) स्थलचर, (३) खेचर, (४) उरःपरिसर्प और (५) भुज गरिसर्प । मच्छ, मकर, आदि जल के जीव जलचर कहलाते है। गाय, भैंस आदि स्थलचर कहलाते हैं। मयूर आदि खेचर कहलाते हैं । सर्प आदि उर परिसर्प, और गुहेरा (गोह ) आदि मुजपरिसर्प कहलाते हैं । ____ मनुष्य दो प्रकार के हैं-कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज । जहाँ उत्पन्न होकर जीव सिद्ध बुद्ध होते है, निर्वाण प्राप्त करते हैं और सब दुःखों का अन्त करते हैं, उसे कर्मभूमि कहते हैं। संसार का अन्त करने वाले, रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता, कर्ता और उपदेशक तीर्थकर भगवान कर्मभूमि में ही उत्पन्न होते हैं। वे स्वयं संसार समुद्र तरते है और दूसरे भव्य जीवों को भी तारते हैं। अढाई द्वीप में पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं-पाच भरत क्षेत्र में, पांच ऐरवत क्षेत्र में, और पांच महाविदेह में। पांच (५) सुपरिसपं. भ२७, म४२ (मगर) माह सन १ सय२ उपाय छे. ગાય, ભેંસ આદિ સ્થલચર કહેવાય છે મયૂર (મેર) આદિ ખેચર કહેવાય છે. સર્પ આદિ ઉરપરિસર્પ, અને શેયર આદિ ભુજપરિસર્ષ છે. मनुष्य के प्रारना छ-(१) ४भ भूभिर, (२) ५४मभूमि, न्यो अत्यन्त થઈને જીવ સિદ્ધ બુદ્ધ હોય છે, નિર્વાણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને સર્વ દુઃખને અંત કરે છે તેને કર્મભૂમિ કહે છે. સંસારને અંત કરવાવાળા, રત્નત્રયરૂપ મેક્ષમાર્ગના જ્ઞાતા કર્તા, અને ઉપદેશક તીર્થકર ભગવાન કર્મભૂમિમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. તે સ્વયં સંસાર સમુદ્રને તરે છે અને બીજા ભવ્ય જીવોને પણ તારે છે. અઢી દ્વીપમાં પંદર કર્મભૂમિઓ છે-પાંચ ભરતક્ષેત્રમા, પાંચ રવત ક્ષેત્રમાં, અને Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ५ लोकवादिप्र० २८१ भरतानि, पञ्चैरवतानि, पञ्च महाविदेहाः । तत्र पञ्चसु महाविदेहेषु पन्च देवकुरुक्षेत्राणि पञ्चोत्तरकुरुक्षेत्राणि अन्तर्गतानि; तानि विहाय पश्च महाविदेहा कर्मभूमयो भवन्ति । एषु पञ्चदशसु क्षेत्रेषु जाता एव ज्ञानावरणीयादिसकलकर्मतस्करेभ्यः संसारमहारण्ये परिमुक्ता मोक्षधामाभिधावन्ति । एतत्पञ्चदशव्यतिरिक्तेषु क्षेत्रेषु जन्म प्राप्ताः पुनः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणमोक्षमार्ग लब्धुं न प्रभवन्ति । __ अहो भव्यमाणिनः ! स्वनिः यसाय शीघ्र प्रयतन्ताम् , अनन्तकालतः षड्जीवनिकायानां भवस्थिति-कायस्थितिपु-अनन्तजन्म-जरा-मरणाद्यनन्तदुःखमनुभूय पूर्वपुण्योदयेन दुर्लभमिदं मनुष्यजन्म कर्मभूमौ लब्धम् । देशविरति-सर्वविरतिमहाविदेहों में पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र भी अन्तर्गत है, उन्हे छोडकर पांच महाविदेह कर्मभूमि है। इन पन्द्रह कर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ही ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मरूपी चोरों से संसाररूपी महा अरण्यो में छूटकर मोक्षधाम जाते है । इन पन्द्रह क्षेत्रों से भिन्न क्षेत्रों में जन्म लेने वाले, सम्यग् , दर्शन, ज्ञान, चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते ।। अहो भव्य जीवो ! अपने श्रेय (कल्याण ) के लिए शीघ्र प्रयत्न करो। अनादि काल से षडजीवनिकाय की भवस्थिति और कायस्थिति में अनन्त जन्म, जरा, मरण आदि का दुःख भोगकर पूर्वपुण्य के उदय से कर्मभूमि में दुर्लभ मनुष्य भव मिला है । देशविरति और सर्वविरतिके रूप सुधा से परिपूर्ण मनुष्यायु रूप कटोरेको પાંચ મહાવિદેહમાં પાંચ દેવકુરૂ, અને ઉત્તરકુરૂ ક્ષેત્ર પણ અન્તર્ગત છે. તેને છોડીને પાંચ મહાવિદેહ કર્મભૂમિ છે. આ પંદર કર્મભૂમિમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા મનુષ્ય જ જ્ઞાનાવરણીય આદિ તમામ કર્મરૂપી ચોથી સંસારરૂપી મહાઅરણ્યમાંથી છુટીને મોક્ષધામ જાય છે. આ પંદર ક્ષેત્રોથી ભિન્ન ક્ષેત્રોમાં જન્મ લેવાવાળા સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર સ્વરૂપ મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરવા સમર્થ થતા નથી. અહો ભવ્ય જી! પોતાના કલ્યાણ માટે શીધ્ર–જલદી પ્રયત્ન કરો! અનાદિ કાળથી ષડૂછવનિકાયની ભવસ્થિતિ અને કાયસ્થિતિમાં અનન્ત જન્મ, જરા, મરણ આદિનું દુઃખ ભેગવીને પૂર્વ પુણ્યના ઉદયથી કર્મભૂમિમાં દુર્લભ મનુષ્ય ભવ મળ્યો છે. દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિરૂપ અમૃતથી પરિપૂર્ણ મનુયાયુરૂપ આ म. आ-३६. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८२ आचारागसूत्रे पीयूपपूर्णमेतन्मनुष्यायुःकटोरकं मृत्युरपहत पुरोऽवतिष्ठते । तदत्र विरतिसुधास्वादसुखवञ्चिता भवन्तो मा भवन्तु । अकर्मममयः कथ्यन्ते. पञ्च हैमवतानि, पञ्च हरिवर्षाणि, पञ्च रम्यकवर्षाणि, पञ्चरण्यवतवर्षाणि, पञ्च देवकुरवः पश्चोत्तरकुरवः, इति त्रिंशत् , षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः । अन्तरद्वीपा अपि युगलक्षेत्रत्वादकर्मभूमयो भवन्ति । एताः सर्वा अकर्मभूमयः, तीर्थङ्करजन्मादिरहितत्वात् । जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रमर्यादाकारकहिमवत्पर्वतस्य पूर्वपश्चिमान्तभागद्वयात् वक्राकारे द्वे द्वे दंष्ट्रे निःसृते स्तः। एवम् ऐरवतक्षेत्रमर्यादाकारकशिखरिछीनने के लिए मृत्यु सामने खड़ा है, अतः आप विरतिरूपी सुधा के आस्वाद के सुख से वञ्चित मत रहो। अकर्मभूमिका कथनपांच हैमवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच ऐरण्यवत, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु, ये तीस, और छप्पन अन्तर द्वीप, ये सब अकर्मभूमि है । अन्तरद्वीप भी युगलियाक्षेत्र होने के कारण अकर्मभूमि ही है। इन में कभी भी तीर्थंकर का जन्म आदि नहीं होता। जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र की मर्यादा करने वाले हिमवत्पर्वत के पूर्वभाग और पश्चिमभाग से वक्र आकार की दो-दो दाढाएँ निकली हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की मर्यादा करने वाले शिखरिपर्वत के पूर्व और पश्चिम भागों से दो दो वक्राकार दाढाएँ કટેરાને છીનવી લેવા માટે મૃત્યુ સામેજ ઉભેલો છે. એ કારણથી તમે વિરતિરૂપી અમૃતના સ્વાદના સુખથી વંચિત રહેશે નહિ. मममूभिनु थनપાંચ હેમવત, પાંચ હરિવર્ષ, પાંચ રમ્યક વષ, પાંચ અરણ્યવત, પાંચ દેવગુરૂ, અને પાંચ ઉત્તરકુરૂ, આ ત્રીસ, અને છપ્પન અન્તરદ્વીપ, આ સર્વ અકર્મ ભૂમિ છે. અતર દ્વીપ પણ જુગળીયા ક્ષેત્ર હોવાના કારણે અકર્મભૂમિ જ છે, તેમાં કઈ પણ સ્થળે તીર્થકરને જન્મ આદિ થતો નથી. - જખ્ખદ્વીપમાં ભરત ક્ષેત્રની મર્યાદા કરવાવાળા હિમવત પર્વતના પૂર્વભાગ અને પશ્ચિમ ભાગથી વક્ર આકારની બે-બે દાઢે નીકળી છે. એ પ્રકારે એરવત ક્ષેત્રની મર્યાદા કરવાવાળા શિખરી પર્વતના પૂર્વ અને પશ્ચિમ ભાગથી બે-બે વક્રાકાર દાઢ નિકળી છે. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिप्र० पर्वतस्य, पूर्व-पश्चिमान्तभागद्वयाद् वक्राकारे द्वे द्वे दंष्ट्रे निःसृते स्तः। अष्टामु दंष्ट्रासयभागे सप्त सप्तान्तरद्वीपाः सन्ति । एवं षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा भवन्ति । अन्तरद्वीपजा अप्यकर्मभूमिजाः। तत्रोभयेषां मनुष्याणामुच्चारादिषु संमूर्छिमा मनुष्या उभयविधासु भूमिषु जायन्ते । तत्र गर्भजा मनुष्या एकोत्तरशतम् (१०१), पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्वयधिकशतद्वयम् (२०२), संमूर्छिममनुष्या अपर्याप्तमात्रतया-एकोत्तरशतमेव (१०१), सर्वेषु संमिलितेषु व्युत्तरशतत्रयं (३०३) मनुष्याणां भेदाः भवन्ति । देवनिकाय:देवाश्चतुर्विधाः-भवनपति१-व्यन्तर२-ज्योतिष्क३-वैमानिक४-भेदात् । निकली हैं। इन आठ दाढों पर सात-सात अन्तरद्वीप है। इस प्रकार छप्पन अन्तरद्वीप है। अन्तरद्वीपज (अन्तरद्वीप में उत्पन्न हुए ) जीव भी अकर्मभूमिज ( अकर्मभूमि में उत्पन्न हुए) कहलाते हैं । इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के मल आदि में, दोनो भूमियों में संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। गर्भज मनुष्य एक सौ एक (१०१) प्रकार के है। इनके प्रर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से दो सौ दो (२०२) भेद होते हैं। संमूच्छिम मनुष्य अपर्याप्त ही होते हैं, अतः उनके एक सौ एक (१०१) भेद मिला देने से मनुष्यों के कुल भेद तीन सौ तीन (३०३) हो जाते हैं। देवनिकायदेव चार प्रकार के हैं-(१)भवनपति, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क और (४) वैमानिक । આ આઠ દાઢે પર સાત-સાત અન્તરદ્વીપ છે. આ પ્રમાણે છપ્પન અન્તરદ્વીપ છે અન્તરદ્વીપજ (અન્તરદ્વીપમાં ઉત્પન્ન થનારા) જીવ પણ અકર્મભૂમિ (અકર્મ ભૂમિમાં ઉત્પન્ન થનાર) કહેવાય છે. આ બંને પ્રકારના મનુષ્યનાં મળ આદિમાં એ બંને ભૂમિમાં સંમૂઈિમ મનુષ્ય ઉત્પન્ન થાય છે. ગર્ભજ મનુષ્ય એકસે એક (૧૦૧) પ્રકારના છે. તેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવાથી બસે બે (૨૦૨) ભેદ થાય છે. સંમૂછિમ મનુષ્ય અપર્યાપ્ત જ હોય છે તે કારણથી તેના એક એક (૧૦૧) ભેદ તેમાં મેળવવાથી મનુષ્યના કુલ ત્રણ त्रा (303) मे थाय छे. पनियहेव २ ५४२॥ छ–(१) सवनपति, (२) व्यन्त२, (3) ज्योति भने (४) वैमानित Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २८४ आचारागसूत्रे (१) भवनपतिदेवभेदाःतत्र भवनपतयो दशविधाः-(१) असुरकुमाराः, (२) नागकुमाराः, (३) सुवर्णकुमाराः, (४) विद्युत्कुमाराः, (५) अग्निकुमाराः, (६) द्वीपकुमाराः, (७) उदधिकुमाराः, (८) दिशाकुमाराः, (९) वायुकुमाराः, (१०) स्तनितकुमाराश्च । कुमारा इव सुकुमारा मनोहरा मृदुमधुरललितगतयः कुमारवदभिव्यक्तरागाः केलिविलोलितचेतसः कुमारवच्चोद्धतरूपवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाश्चेत्यतः 'कुमारा' इत्युच्यन्ते । जम्बूद्वीपे सुमेरुपर्वतस्याधस्तादक्षिणोत्तरभागयोस्तियंग्भागेऽनेककोटिकोटिलक्षयोजनं यावद् भवनपतयो निवसन्ति । (१) भवनपतिदेवभवनपति देव दश प्रकार के है-(१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) सुवर्णकुमार, (४) विद्युत्कुमार, (५) अग्निकुमार, (६) द्वीपकुमार, (७) उदधिकुमार, (८) दिशाकुमार, (९) वायुकुमार और (१०) स्तनितकुमार । ___ कुमार के समान सुकुमार, मनोहर, मृदु, मधुर, ललित गतिवाले, कुमार के समान राग व्यक्त करने वाले, क्रीडा में चित्त लगाने वाले, कुमार के समान ही उद्धत रूप, वेष, भाषा, आभूषण, आयुध, यान, वाहन आदि धारण करने वाले होने से ये देव, कुमार कहलाते है । जम्बू द्वीप में सुमेरु पर्वत के नीचे दक्षिण भाग और उत्तर भाग के तिरछे भाग में अनेक कोडा-कोडी लाख योजन तक भवनपति देव निवास करते है। (१) सपनपति मनपति व इस प्रा२ना छे-(१) असुरशुमार, (२) नागभा२, (3) सुपाशुभार, (४) विधभार, (५) मनभा२, (६) द्वीपकुमार, (७) धिमा२, (८) शिशुमार (4) वायुभार, मने (१०) स्तनितमा२. કુમાર પ્રમાણે, સુકુમાર, મનોહર, મૃદુ, મધુર, લલિતગતિવાળા, કુમારના સમાન રાગ વ્યક્ત કરવા વાળા, કીડામાં ચિત્ત લગાવવા વાળા, કુમારના પ્રમાણે ઉદ્ધત–૫, વેપ, ભાષા આભૂષણ, આયુધ, યાન, વાહન આદિ ધારણ કરવા વાળા હોવાથી તે દેવ, કુમાર કહેવાય છે. જમ્બુદ્વીપમાં સુમેરુ પર્વતની નીચે દક્ષિણભાગ અને ઉત્તર ભાગના તિછ ભાગમાં અનેક કેડા-છેડી લાખ જન સુધી ભવનપતિ દેવ નિવાસ કરે છે. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ २.५ लोकवादिप्र० २८५ तत्र बहवोऽसुरकुमारा आवासेषु, तथा कदाचिद् भवनेषु च निवसन्ति । तथा नागकुमारादयः सर्वे प्रायशो भवनेष्वेव प्रतिवसन्ति । रत्नप्रभापृथ्वीपिण्डादूर्ध्वमधश्चकैकसहस्रयोजनं विहायैकलक्षाष्टसप्ततिसहस्रयोजनानि तु रत्नप्रभातोऽधस्तानवतिसहस्रयोजनपरिमाणभाग एव भवन्ति, तत्र भवनानि दक्षिणार्धाधिपतीनां चमरेन्द्रादीनाम् , उत्तरार्धाधिपतीनां बलीन्द्रादीनाम् । महामण्डपवदावासाः, भवनानि नगरसदृशानि भवन्ति, परन्तु तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि, अभ्यन्तरे समचतुष्कोणानि, तलभागे तु पुष्करकणिकावद् भवन्ति । अम्बादयः परमाधार्मिका अपि असुरकुमारजातीयाः पञ्चदश सन्ति-१अम्बारम्बरोप वहीं बहुत से असुरकुमार आवासों में और कभी-कभी भवनों में निवास करते है। नागकुमार सब प्रायः भवनों में ही रहते है । रत्नप्रभा पृथ्वी के पिण्ड से ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोडकर एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण में मध्य भाग में सभी जगह असुरकुमार देवों के आवास है, किन्तु भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे नव्वे हजार योजन परिमित भाग में ही है। वहाँ दक्षिणार्धाधिपति चमरेन्द्र आदि के और उत्तरार्द्धाधिपति बलीन्द्र आदि के भवन हैं। महामण्डप के समान आवास है । नगर के समान भवन हैं, किन्तु वे बाहर गोलाकार और भीतर समचतुष्कोण है । उनका तलभाग कमल की कर्णिका के समान होता है । अम्ब आदि पन्द्रह परमाधार्मिक भी असुरकुमार जाति के हैं। उनके नाम-(१) अम्ब, (२) अम्बरीष, (३) श्याम, (४) शबल, ત્યાં ઘણા અસુર કુમારે, આવાસમાં અને કઈ કઈ વખત ભવનમાં નિવાસ કરે છે. નાગકુમાર સર્વ પ્રાયઃ ભવનમાંજ નિવાસ કરે છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પિંડથી ઉપર અને નીચે એક-એક હજાર એજન છેડીને, એક લાખ અયોતેર હજાર એજન પરિમાણમાં મધ્યભાગમાં સર્વ જગ્યાએ અસુરકુમાર દેના આવાસ છે. પરંતુ ભવન, રત્નપ્રભા પૃથ્વીની નીચે (૯૦૦૦૦) નેવું હજાર જન પરિમિત ભાગમાં જ છે. ત્યાં દક્ષિણાર્ધાધિપતિ ચમરેન્દ્ર આદિના અને ઉત્તરાર્ધાધિપતિ બલીન્દ્ર આદિના ભવન છે. મહામંડપની સમાન આવાસ છે. નગરના સમાન ભવન છે પરંતુ તે ભવને બહારથી ગોળાકાર અને અંદરથી સમચતુષ્કોણ છે. તેને તળીઆને ભાગ કમલની કણિકાસમાન હોય છે. અમ્બ આદિ પંદર પરમાધાર્મિક પણ અસુરકુમાર जतिना छे. तसोना नाम रेभडे-(१) अभ्म, (२) समशेष, (3) श्याम, (४) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आचाराङ्गमत्रे ३श्याम४शवलपरुद्रवरुद्रकाल८महाकाला९ऽसिपत्र१०धनुः११कुम्भ१२वालुक१३ वैतरगी १४खरस्वर१५महाधोष-भेदात् । (२) व्यन्तरदेवाःरत्नप्रभाकाण्डस्य सहस्रयोजनपरिमाणयुक्तस्याधस्तादेकशतयोजनमूर्ध्व च तथैकशतयोजनं विहायाष्टशतयोजनपरिमाणयुक्तरत्नप्रभाकाण्डे व्यन्तरदेवानामसंख्यातानि नगराणि सन्ति । तथैव भवनानि तेषामावासाश्च सन्ति । तत्र वालपत् स्वेच्छया शक्रादिदेवेन्द्राज्ञया वा चक्रवर्त्यादिपुरुषाज्ञया वा प्रायेणानियतगतिप्रचारा भवन्ति । मनुष्यानपि केचिद् भृत्यवदुपचरन्ति । विविधेषु च शैलकन्दरान्तरवनविवरादिपु प्रतिवसन्ति; अतो व्यन्तरा इत्युच्यन्ते । (५) रुद्र, (६) वैरुद्र, (७) काल, (८) महाकाल, (९) असिपत्र, (१०) धनुष, (११) कुम्भ, (१२) वालुक, (१३) वैतरगी, (१४) खरस्वर, (१५) महाघोष । (२) व्यन्तर देवएक हजार योजन परिमाण वाले रत्नप्रभाकाण्ड के नीचे और एक सौ योजन ऊपर तथा एक सौ योजन छोडकर आठ सौ योजन परिमाण युक्त रत्नप्रभाकाण्ड में व्यन्तर देवों के असंख्यात नगर है। उसी प्रकार भवन और उनके आवास है। बालकों के समान अपनी इच्छासे, शक्र आदि देवो की आज्ञा से, या चक्रवर्ती आदि की आज्ञासे प्रायः अनियतगति वाले होते है । ये देव किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों की दास के समान सेवा करते है । ये विविध प्रकार के पर्वतों की गुफाओं में और वनविवर आदि में निवास करते है अतः इन्हें व्यन्तर कहते है। शमस, (५) २६, (६) रुद्र, (७) , (८) मात, (6) मसिपत्र, (१०) धनुष, (११) हुल, (१२) पाgs, (१३) वैतरणी, (१४) ४२२१२, (१५) महाप. (२) व्यन्त२४५એક હજાર જન પરિમાણુવાળ રત્નપ્રભાકાંડની નીચે અને એક એજન ઉપર તથા એકસે જન છોડીને આઠસે જન પરિમાણયુક્ત રત્નપ્રભાકાંડમાં વ્યતં દેના અસંખ્યાત નગર છે. તે પ્રમાણે ભવન અને તેના આવાસો છે. બાળકની જેમ પોતાની ઈચ્છાથી, ઇદ્ર આદિ દેવની આજ્ઞાથી. અથવા ચક્રવતી આદિની આજ્ઞાથી પ્રાયઃ અનિયત ગતિવાળા હોય છે. આ દેવ કોઈ કે મનુષ્યની હાસની સમાન સેવા કરે છે. તે વિવિધ પ્રકારના પર્વતની ગુફાઓમાં અને વનગુફાઓ આદિમાં નિવાસ કરે છે, Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१. उ१. सू.५. लोकवादिम० २८७ व्यन्तराः षोडशविधाः- १ पिशाच-२ भूत-३ यक्ष-४ राक्षस -५ किनर ६किंपुरुष-७महोरग-८गन्धर्वा-९प्रज्ञप्तिक-१०पञ्चप्रज्ञप्तिक-११ऋषिवादिक१२भूतवादिक - १३ क्रन्दित - १४ महाक्रन्दित१५कूष्माण्ड-१६पतंग भेदात् । ( स्था. स्था. २३) जृम्भका अपि व्यन्तरदेवा दश सन्ति । यथा-(१) अन्नज़म्भकाः (२) पानज़म्भकाः, (३) वस्त्रज़म्भकाः, (४) लयनजृम्भकाः, (५) शयनजृम्भकाः, (६) पुष्पजृम्भकाः, (७) फलजृम्भकाः, (८) पुष्पफलज़म्भकाः, (९) विद्याजम्भकाः, (१०) अव्यक्तजृम्भकाः। (६) ज्योतिष्कदेवाःज्योतींषि-प्रभापुञ्जस्वरूपाणि समुज्ज्वलानि विमानानि, तत्र भवाः व्यन्तर देव सोलह हैं-(१) पिशच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) महोरग, (८) गन्धर्व, (९) अप्रज्ञप्तिक, (१०) पञ्चप्रज्ञप्तिक, (११) ऋषिवादिक, (१२) भूतवादिक, (१३) क्रन्दित, (१४) महाक्रन्दित, (१५) कूष्माण्ड, और (१६) पतङ्ग (स्था. स्था. २ उ. ३) । जम्भक व्यन्तर देव भी दश प्रकार के हैं। जैसे (१) अन्नमुंभक, (२) पानजुंभक, (३) वस्त्रजुंभक, (४) लयनāभक, (५) शयनजुंभक, (६) पुष्पमुंभक, (७) फलज़ंभक, (८) पुष्पफलज़ंभक, (९) विद्याजुंभक और (१०) अव्यक्तमुंभक । (३) ज्योतिष्क देव प्रभा के पुञ्ज के समान अत्यन्त उज्ज्वल विमानों में उत्पन्न होने वाले _ व्यन्त२ सोप छ (१) (पाय, (२) भूत (3) यक्ष, (४) राक्षस (५) नि२, (६) ५३५, (७) महा२०1, (८) गधर्ष, (६) प्रशस्तिज्ञ, (१०) ५.यज्ञति, (११) ऋषिपा(१२) भूतants, (१३) हित, (१४) भन्हित, (१५) मांड मने (१६) पतन, (स्था.. स्था २ उ. ३) જુભક વ્યન્તર દેવ પણ દસ પ્રકારના છે, જેમ-(૧) અન્નજાંભક, (૨) पान ad Hz, (3) १० म, (४) स्यनम, (५) शयनgaz, (6) पु०५ म', (७) slag (८) Y०५३ates, (6) विधाog onz, मने (१०) सव्यतages. (3) च्यातिवाપ્રભાના પુંજ સમાન અત્યંત ઉજવલ વિમાનમાં ઉત્પન્ન થવા વાળા દેવ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ आचारागसूत्रे ज्योतिष्काः । ज्योतिष्कदेवास्तिर्यग्लोके ज्योति प्रकाशं कुर्वन्ति । ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधाः-(१) चन्द्र-(२) सूर्य-(३) ग्रह-(४) नक्षत्र-(५) तारा-भेदात् । इमे पञ्च समयक्षेत्रान्तर्वतिनश्चरस्वभावाः सन्ति । अपरे पञ्च चन्द्रादयः समयक्षेत्राद् बहिः स्थिरा एव तिष्ठन्ति । (४) वैमानिकदेवाःऊर्ध्वलोके विमानेषु वसन्तीति वैमानिकाः। यद्वा-विशेषेण मानयन्ति= विशति यत्र विशिष्टसुकृतिन इति विमानानि, तत्र भवा वैमानिकाः। यद्वा-वि= विशिष्टं मानं ज्ञानं यत्र, समदर्शितया, अन्यदेवापेक्षया च हेयोपादेयज्ञानविशिष्टा भवन्ति यत्र तानि विमानानि, तत्र भवा वैमानिकाः। देव ज्योतिष्क कहलाते हैं । ज्योतिष्क देव मध्यम लोक में प्रकाश करते हैं। ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं १ चन्द्र, २ सूर्य, ३ ग्रह, ४ नक्षत्र, और ५ तारागण। ये, पांचों समयक्षेत्र ( अढाई द्वीप ) में चलते है और समयक्षेत्र से बाहर स्थिर स्वभाव वाले हैं। (४) वैमानिक देवऊर्ध्व लोक में विमानों में वास करने वाले वैमानिक कहलाते है । अथवा जहां विशिष्ट पुण्यात्मा प्रवेश करते है उन्हे विमान कहते हैं, और विमानो में वास करने वाले वैमानिक कहलाते है । अथवा समदर्शी होने के कारण जहां विशिष्ट ज्ञान हो, या अन्य देवों की अपेक्षा जहां हेय उपादेय का विशिष्ट ज्ञान हो, वे विमान है और उन में होने वाले वैमानिक हैं। તિષ્ક કહેવાય છે. જ્યોતિષ્ક દેવ મધ્ય લેકમાં પ્રકાશ કરે છે. જ્યોતિષ્ક દેવ પાંચ १२ना छे. (१) यन्द्र, (२) सूर्य, (3) ग्रह, (४) नक्षत्र मन (५) ताराग. 241 पांय સમયક્ષેત્ર (અઢીદ્વીપ)માં ચાલે છે અને સમયક્ષેત્રની બહાર સ્થિર સ્વભાવવાળા છે. (४) वैमानि ३५ઉદ્ઘલેકમાં વિમાનમાં વાસ કરવા વાળા વૈમાનિક કહેવાય છે, અથવા જ્યાં વિશિષ્ટ પુણ્યાત્મા પ્રવેશ કરે છે તેને વિમાન કહે છે. અને વિમાનમાં વાસ કરવા વાળા વૈમાનિક કહેવાય છે, અથવા-સમદશી હોવાના કારણે જ્યાં વિશિષ્ટ જ્ઞાન હોય, અથવા અન્ય દેવની અપેક્ષાએ, જ્યાં હેય-ઉપાદેયનું વિશિષ્ટ જ્ઞાન હોય તે વિમાન છે, અને તેમાં થવા વાળા વૈમાનિક છે. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिप्र० २८९ . वैमानिकदेवानां द्वौ भेदौ-कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । कल्पः आचारः स चेहेन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिव्यवहाररूपस्तमुपगताः कल्पोपपन्नाः= सौधर्मादिदेवलोकनिवासिनो वैमानिका देवाः । यद्वा-कल्पेषु सौधर्मादिषु उपपन्नाः सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्ना वैमानिकदेवाः कल्पोपपन्नाः। यद्वा-कल्पेन-नियमेन इन्द्रसामानिकादिस्वामिसेवकादिभावरूपमर्यादयोपपन्नाः युक्ताः कल्पोपपन्नाः। १इन्द्र- २सामानिक - ३त्रायस्त्रिंश- ४ लोकपाल-५ पारिषद्या-६ नीका७त्मरक्षका-८ऽऽभियोगिक-९प्रकीर्णाः, किल्विषिकाश्च१० स्वस्वमर्यादापालकतया कल्पोपपन्ना इत्युच्यन्ते । तत्रेन्द्राः – सामानिकादिदेवानामधिपतयः । इन्द्रसमानाः-सामानिकाः। मन्त्रिपुरोहितस्थानीयास्त्रायस्त्रिंशाः। सीमारक्षका . वैमानिक देव दो प्रकार के है-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्प का अर्थ है-आचार । यहां इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि का व्यवहार कल्प माना गया है, और यह कल्प जिन में पाया जाय वे कल्पोपपन्न कहलाते है। सौधर्म आदि देवलोकों में निवास करने वाले वैमानिक देव कल्पोपपन्न है । अथवा कल्प से अर्थात् नियम से अर्थात् इन्द्र, सामानिक आदि, या स्वामी-सेवक आदिभावरूप मर्यादा से युक्त देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं। इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, पारिषद्य, आनीक. आत्मरक्षक, आभियोग्य, प्रकीर्णक और किल्विषिक, ये दश अपनी-अपनी मर्यादा का पालन करते हुए कल्पोपपन्न कहलाते है । सांमानिक आदि देवों के अधिपति इन्द्र कहलाते है। इन्द्र के समान वैभानि व मे ४२॥ छ-(१) ४८या५पन्न भने (२) पातात. पना અર્થ છે–આચાર. અહિં ઈન્દ્ર, સામાનિક, ત્રાયશ્ચિંશ આદિને વ્યવહાર ક૫ માન્ય છે, અને આ ક૯૫ જેનામાં જોવામાં આવે છે તે કલ્પપપન કહેવાય છે. સૌધર્મ આદિ દેવકેમાં નિવાસ કરવાવાળા વૈમાનિક દેવ કપિપપન્ન છે. અથવા કલ્પથી અર્થાત, નિયમથી અર્થાત્ ઈન્દ્ર સામાનિક આદિ, અથવા સ્વામી-સેવક આદિ ભાવરૂપ મર્યાદાથી યુક્ત દેવ ક૯પપન કહેવાય છે. छन्द्र, सामानि४, त्रायविंश, सोपस, परिषध, मान18, मात्भ२१४, मालियोग्य, પ્રકીર્ણ ક અને કિલ્વિષિક, પિત–પિતાની મર્યાદાનું પાલન કરતા થકા કોપપન્ન उपाय छे. - સામાનિક આદિ દેવેના અધિપતિ ઈન્દ્ર કહેવાય છે. ઈન્દ્રના સમાન સામાનિક प्र. आ-३७ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० आचारागसूत्रे लोकपालाः । मित्रस्थानीयाः पारिषद्याः। सैनिकाः सेनाधिपतिरूपाश्च-आनीकाः। इन्द्रशरीररक्षाकारका आत्मरक्षकाः। दासस्थानीयाः सेवका आभियोग्याः। नागरिक-पौरजनसमानाः प्रकीर्णकाः । अन्त्यजसमानाः कल्विषिकाः । सौधर्मादिद्वादशकल्पेषु दशविधा इन्द्रसामानिकादयो देवाः भवन्ति। व्यन्तरज्योतिष्कदेवेषु त्रायस्त्रिंशा लोकपालाश्च न भवन्ति । । कल्पोपपन्नदेवानां निवासस्थानानि द्वादश सन्ति-१सौधर्में-२शान-३सनकुमार-४माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-६लान्तक-७महाशुक्र-८सहस्रारा-९ऽऽनत १०माणता११ऽऽरणा-१२ऽच्युताः । इमे द्वादश देवलोकाः कल्पविमानानि । तत्र सौधर्मस्य सामानिक होते है । मन्त्री और पुरोहित जसे त्रायस्त्रिंश देव हैं। सीमा की रक्षा करने वाले लोकपाल हैं । मित्र के समान पारिषद्य हैं। सैनिक और सेनाधिपतिरूप आनीक हैं । इन्द्र के शरीर की रक्षा करने वाले आत्मरक्षक कहलाते हैं। नागरिक-पौरजनके समान प्रकीर्णक देव है । दास के समान देव आभियोगिक कहलाते है, और अन्त्यजों के समान किल्विषिक हैं । ये इन्द्र सामानिक आदि दशप्रकारके देव सौधर्म आदि सभी कल्पों में होते हैं। व्यंतरों और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल नहीं होते । कल्पोपपन्न देवों के निवसस्थान बारह हैं १ सौधर्म, २ ऐशान, ३ सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ आरण, १२ अच्युत । ये वारह देवलोक कल्पविमान हैं। सौधर्म कल्प की बराबरी पर ऐशान कल्प है । ऐशान હોય છે. મંત્રી અને પુરોહિત જેવા ત્રાયશ્ચિંશ દેવ છે. સીમાની રક્ષા કરનારા તે લેકપાલ છે મિત્રની સમાન પરિષદ્ય છે, સેનિક અને સેનાધિપતિરૂપ આનીક છે. ઈન્દ્રના શરીરની રક્ષા કરવાવાળા આત્મરક્ષક કહેવાય છે. નાગરિક-પૌરજનની સમાન પ્રકીર્ણક દેવ છે. દાસના સમાન સેવક દેવ અભિયોગિક કહેવાય છે, અત્યજોની સમાન કલ્વિર્ષિક છે. આ ઈન્દ્ર, સામાનિક આદિ દેવ સાધમ આદિ સર્વ કમાં હોય છે. વ્યંતર અને જ્યોતિષ્ક દેવોમાં ત્રાયશિ અને લોકપાલ હોતા નથી. ४६।५५-न वाना निवासस्थान मा२ छ (१) सौधर्म, (२) अशान (3) सनमार (४) भाडेन्द्र (५) प्रझ४ (6) ends, (७) महाशु, (८) ससार, (८) मानत, (१०) प्रात, (११) मार, (१२) अच्युत. આ બાર દેવલોક કલ્પ વિમાન છે. સૌધર્મ કલ્યની બરાબરી પર એશન કલ્પ છે. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मु.५ लोकवादिप्र० कल्पस्य समानदेशे ऐशानः कल्पः । ऐशानस्योपरि सनत्कुमारः कल्पः । सनत्कुमारस्योपरि माहेन्द्रः कल्पः । एवमुपर्युपरि सर्वे कल्पाः सन्ति । तत्रज्योतिष्कलोकादूर्ध्वम संख्यातयोजनकोटिकोटिषुमार्गमारुह्य रूपलक्षितद- . क्षिणभागे गगनप्रदेशे सौधर्मकल्पस्तथैशानकल्पश्चाऽस्ति । सौधर्मकल्पः पूर्व पश्चिमदीर्घः, उत्तरदक्षिणविस्तीर्णोऽर्धचन्द्राकारः सूर्यवद्भास्वरः, आयामविष्कम्भाभ्यांपरिक्षेपतश्चाऽसंख्येययोजनकोटिकोटयः, सर्वरत्नमयः लोकान्तविस्तारोऽस्ति । तत्र मध्यभागे सर्वरत्नमयाशोक-सप्तपर्ण-चम्पका-ऽऽम्र - सौधर्मावतंसकसुशोभितः शक्रावासः । तत्र सुधर्मा नाम शक्रस्य देवेन्द्रस्य सभा तस्मिन् कल्पेऽस्तीति सौधर्मः कल्पः। के ऊपर सनत्कुमार कल्प है । सनत्कुमार के ऊपर माहेन्द्र कल्प है । इसीप्रकार ऊपर-ऊपर सभी कल्प समझने चाहिए। ज्योतिष्क मण्डल से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर जाकर मेरु से उपलक्षित दक्षिण भाग में आकाश-प्रदेश में सौधर्मकल्प और ऐशान कल्प है । सौधर्मकल्प पूर्व पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण और अर्धचन्द्र के आकार का है । सूर्य के समान चमकदार, लम्बाई, चौडाई और परिधि से असंख्यात कोडाकोडी योजन, सर्वरत्नमय और लोक के अन्ततक विस्तृत है । उसके मध्य भाग में सर्वरत्नमय अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक, आम्र, एवं सौधर्मावतंसक से शोभित शक्र का आवास है । शक देवेन्द्र की सुधर्मानामक सभा जिस कल्प में हों, वह सौधर्मकल्प कहलाता है । એશાનના ઉપર સનકુમાર કલ્પ છે, સનકુમારના ઉપર મહેન્દ્ર કલ્પ છે. એ પ્રમાણે ઉપર ઉપર તમામ ક૯૫ સમજવા જોઈએ. તિષ્કમંડળની ઉપર, અસંખ્યાત કેડા-કેડી જન ઉપર જઈને મેથી ઉપલક્ષિત દક્ષિણ ભાગમાં આકાશ-પ્રદેશમાં સૌધર્મક૯પ અને એશાન કલ્પ છે. સૌધર્મક પૂર્વ પશ્ચિમમાં લાંબે, ઉત્તર-દક્ષિણમાં વિસ્તીર્ણ અને અર્ધચન્દ્રકારે છે. સૂર્યના સમાન ચમકદાર લંબાઈ ચૌડાઈ અને પરિધિથી અસંખ્યાત કેડાકોડી એજન, સર્વરત્નમય છે, અને લોકના અંત સુધી વિસ્તૃત છે. તેના મધ્ય ભાગમાં સર્વ રત્નમય અશક, સપ્તપર્ણ, ચમ્પક, આઝ, એવં સૌધર્માવલંસથી ભિત ઇંદ્રને આવાસ છે. શાક દેવેન્દ્રની સુધમાં નામની સભા જે કપમાં હોય, તે સૌધર્મ કલ્પ કહેવાય છે, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २९२ आचांरागसूत्रे तथैशानकल्पोऽप्यर्धचन्द्राकारोऽस्ति । उभौ मिलितों पूर्णचन्द्रकारेणावस्थितौ स्तः ततोऽसंख्यातयोजनकोटिकोटिपूपरि समानप्रदेशे सनत्कुमारमाहेन्द्रौ कल्पौ वर्तते । अर्धचन्द्राकार इव सनत्कुमारस्तथैव माहेन्द्रोऽपि । उभौ मिलित्वा पूर्णचन्द्रसदृशाकारेण स्तः। ततोऽसंख्यातयोजनकोटिकोटयुपरि ब्रह्मलोकः पूर्णचन्द्राकारोऽस्ति । एवमेव लान्तक-महाशुक्र-सहरास्नास्तावत्तावयोजनोवमुपयुपरि प्रत्येकं पूर्णचन्द्राकाराः सन्ति ततोऽप्यसंख्यातयोजनकोटिकोटयुपरि समानगगनप्रदेशे आनत-माणतलोको प्रत्येकमर्धचन्द्राकारौं स्तः । उभौ मिलित्वा पूर्णचन्द्राकारेण भवतः। ततोऽप्यसंख्यातयोजनकोटि कोटयुपरि-आरणाच्युतलोकौं प्रत्येकमर्धचन्द्राकारौं स्तः। उभौ मिलित्वा पूर्णचन्द्राकारं भजतः। ऐशानकल्प भी अर्धचन्द्राकार है । दोनो कल्प मिलकर पूर्ण चन्द्रमा के समान हैं। इन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर समान देश में सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प है। सनत्कुमार कल्प अर्धचन्द्राकार है और माहेन्द्र कल्प भी इसी प्रकार का है। दोनों मिलकर पूर्णचन्द्रमा के सदृश आकार वाले है । इन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर ब्रह्मलोक पूर्णचन्द्राकार है । इसी प्रकार लान्तक, महाशुक्र, और सहस्रार उतने-उतने योजन ऊपर-ऊपर प्रत्येक पूर्णचन्द्रमा के समान अवस्थित हैं। उन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर आकाश प्रदेश में आनत और प्राणत बराबरी पर प्रत्येक अर्धचन्द्राकार है । ये दोनों मिलकर पूर्णचन्द्रके आकार के हो जाते है । उन से असंख्यात कोडाकोडी योजन ऊपर आरण और अच्युत लोक प्रत्येक अर्धचन्द्राकार है। ये दोनों मिलकर पूर्णचन्द्र के आकार के जैसे हो जाते है। અશાન ક૯૫ પણ અર્ધચન્દ્રાકાર છે. અને કહે મળીને પૂર્ણ ચન્દ્રમાની સમાન છે. તેનાથી અસંખ્યાત કેડા–કેડી જન ઉપર સમાન દેશમાં સનકુમાર અને મહેન્દ્ર કલ્પ છે સનકુમાર કલ્પ અર્ધચન્દ્રાકાર છે અને મહેન્દ્ર કલ્પ પણ એ પ્રકાર છે. બને મળીને પૂર્ણચન્દ્રમાની બરાબર આકારવાળા છે. તેનાથી અસંખ્યાત કેડાર્કેડી જન ઉપર બ્રહ્મલોક પૂર્ણચન્દ્રાકાર છે એ પ્રમાણે લાન્તક, મહાશુક્ર અને સહસ્ત્રાર તેટલાતેટલા જન ઉપર–ઉપર પ્રત્યેક, પૂર્ણચન્દ્રમાસમાન અવસ્થિત છે. તેથી અસંખ્યાત કેડા-છેડી જન ઉપર આકાશપ્રદેશમાં આનત અને પ્રાકૃત બરાબરી પર પ્રત્યેક અર્ધચન્દ્રાકાર છે. એ બને કપે મળીને પૂર્ણ ચંદ્રમાના આકારના થઈ જાય છે. તેથી અસંખ્યાત કેડાર્કેડી જન ઉપર આરણ અને અશ્રુત લેક પ્રત્યેક અર્ધ ચન્દ્રાકાર છે. એ બને મળીને પણ પૂર્ણચન્દ્રાકાર જેવાં થઈ જાય છે. Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ लोकवादिम 8 ३९३ द्वादशकल्पनिवासिनामिन्द्राणां नामानि यथा - सौधर्मकल्पस्य शक्रः १, ऐशानस्येशानः २, सनत्कुमारस्य सनत्कुमारः ३, माहेन्द्रस्य महेन्द्रः ४, ब्रह्म - लोकस्य ब्रह्मेन्द्रः ५, लान्तकस्य - लन्तकः ६, महाशुक्रस्य महाशुक्रः ७, सहस्त्रारस्य सहखारः ८, आनत - प्राणतयोः कल्पयोः एक एव प्राणतनामा सुरपतिः ९, आरणाच्युतयोरपि तथैवैको ऽच्युतनामा देवराजोऽस्ति १० । एषु नव लोकांतिकाः सारस्वता १-ssदित्य २ - वह्नि३ - वरुण४-गर्दतोय५तुषिता६ - ऽव्यावाधा७ -ऽऽग्नेय८ - रिष्ट ९ - नामानः सन्ति । ब्रह्मलोके लोकान्तिका निवसन्ति | ईशानकोणे सारस्वता: १, पूर्वस्यामादित्याः २, आग्नेयकोणे वह्नयः ३, दक्षिणस्यां वरुणाः४, नैऋत्ये गर्दतोयाः ५, पश्चिमायां तुषिताः ६, वायव्यकोणेअव्याबाधाः७, उत्तरस्याम् अग्गिच्चा (आग्नेयाः) ८, मध्ये रिष्टाः ९ निवसन्ति । बारह कल्पवासी इन्द्रों के नाम इस प्रकार है- सौधर्म कल्प का शक १, ऐशान का ईशान २, सनत्कुमार का सनत्कुमार ३, माहेन्द्र का महेन्द्र ४, ब्रह्मलोकका ब्रह्मेन्द्र ५, लान्तक को लन्तक ६, महाशुक्र का महाशुक्र ७, सहस्रार का सदस्रार ८ और आनत - प्राणत कल्पों का एक प्राणतनामक इन्द्र है ९ । आरण और अच्युत कल्पों का अच्युत नामक एक ही इन्द्र है १० । इन में नौ लोकान्तिक देव है - (१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) वह्नि, (४) वरुण, (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अव्याबाध, (८) आग्नेय और, (९) रिष्ट । लोकान्तिक देव ब्रह्मलोक में निवास करते है । ईशान कोण में सारस्वत, पूर्व में आदित्य, आग्नेय कोण में वह्नि, दक्षिण में वरुण, नैऋत्य में गर्दतोय, पश्चिम में तुषित, वायव्य में अब्याबाध, उत्तर में अग्गिच्चा (आग्नेय) और मध्य में रिष्ट निवास करते है । ખાર કલ્પવાશી ઈન્દ્રોનાં નામેા આ પ્રમાણે છે—સોધ કલ્પના શકે; (૧) અશાનના ईशान (२) सनत्कुभारना सनत्कुमार ( 3 ) भाडेन्द्रना भडेन्द्र, (४) ब्रह्मबोउना श्रह्मेन्द्र, (4) सान्तना सन्त, (६) महाशुना महाशुङ, (७) सहस्रारना सहस्रार भने ज्ञानतપ્રાણત કલ્પાના એક પ્રાણુત નામના ઈન્દ્ર છે, આરણુ અને અશ્રુત કલ્પાના અચ્યુત नाभना थोड न्द्रि छे (१०) तेमां नव दोान्ति देव छे – (१) सारस्वत, (२) साहित्य, (3) वह्नि, (४) वरुणु, (4) गहतोय, (६) तुषित, (७) सव्यामाध, (८) आग्नेय, अने (ङ) रिष्ट. या सोअन्ति देव ब्रह्मसभा निवास मेरे छे. ईशानअणुभां सारस्वत, પૂર્ણાંમાં આદિત્ય, આગ્નેયકાણમાં વૃદ્ધિ, દક્ષિણમાં વરુણ, નૈઋત્યમાં ગઈ તાય પશ્ચિમમાં તુષિત,વાયવ્યમાં અવ્યાખાધ,ઉત્તરમાં અગિચ્ચા(આગ્નેય)અને મધ્યમાં રિષ્ઠ નિવાસ કરે છે, Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ आचाराङ्ग सूत्रे कल्पाताता: कल्पमतीताः–अतिक्रान्ताः कल्पातीताः । सौधर्मादिद्वादशकल्पवहिर्भूताः स्वामिसेवकाद्याचारवर्जिताः, स्वातन्त्र्यादहमिन्द्रनाम्ना प्रसिद्धाः, भद्रादिनवग्रैवेयकविमान - विजयादिपश्चानुत्तरविमानाधिवासिनो देवाः कल्पातीताः । सौधर्मादिद्वादशकल्पतश्चोर्ध्वमसंख्यातयोजन कोटिकोटिपूपरि नवग्रैवेयका विमानान्युपर्युपरि सन्ति । पुरुषाकारलोकस्य ग्रीवा स्थानीयतया विमानानि ग्रैवेयकान्युच्यन्ते । तद्वासिनो देवा अपि ग्रैवेयका उच्यन्ते । सर्वोपरितनग्रैवेयकविमानादूर्ध्वमसंख्यातयोजन कोटिकोट्यपरि पञ्चानुत्तरविमानानि सन्ति । तत्रैकं मध्यभागे, चतुर्दिक्षु चत्वारि । अनुत्तरविमानवासिनो देवा अनुत्तरा उच्यन्ते । कल्पातीत जो देव कल्प से परे है वे कल्पातीत कहलाते है, अर्थात् सौधर्म आदि कल्पा से बाहर, स्वामी, सेवक आदि मर्यादा से रहित - स्वतंत्र होने के कारण अहमिन्द्र नाम से प्रसिद्ध भद्र आदि नौ ग्रैवेयकों में तथा विजय आदि पांच अनुत्तर विमानों में निवास करने वाले देव कल्पातीत कहलाते है | सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन जाकर नौ ग्रैवेयक विमान एक दूसरे के उपर अवस्थित है । पुरुषाकार लोक की ग्रीवा के स्थान पर जो विमान है, वे ग्रैवेयक विमान कहलाते है । सब से ऊपर के ग्रैवेयक विमान से ऊपर असंख्यात कोडाकोडी योजन जाकर पांच अनुत्तर विमान है। उन में से एक मध्य भाग में है और चार चारो दिशाओं में है । अनुत्तरविमानवासी देव अनुत्तर कहलाते है । इस्पातीत જે દેવા કલ્પથી બહાર છે તે કપાતીત કહેવાય છે. અર્થાત્ સૌધર્મ આદિ કલ્પે થી બહાર સ્વામી-સેવક આદિ મર્યાદાથી રહિત, સ્વતંત્ર હાવાના કારણે અહમિન્દ્ર નામથી પ્રસિદ્ધ છે. ભદ્ર આદિ નથૈવેયકમાં, તથા વિજય આદિ પાંચ અનુત્તર વિમાનામાં નિવાસ કરવા વાળા દેવ તે કપાતીત કહેવાય છે. સૌધર્મ આદિ ખાર કપાથી ઉપર અસ`ખ્યાત કાડા-કેાડી ચેાજન જઈ ને નવ ચૈવેયક વિમાન એક બીજાની ઉપર અવસ્થિત છે. પુરૂષાકાર લેાકની ગ્રીવા (ડાક) ના સ્થાન પર જે વિમાન છે. તે ચૈવેયક વિમાન કહેવાય છે. સૌથી ઉપરના ત્રૈવેયક વિમાન ઉપર અસંખ્યાત કાઢા-કેાડી ચેાજન જઈને પાંચ અનુત્તર વિમાન છે. તેમાંથી એક મધ્ય ભાગમાં છે, ચાર ચારેય દિશાઓમાં છે. અનુત્તવિમાનવાસી દેવ અનુત્તર કહેવાય છે. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ लोकवादिप्र० नववेयकनामानि यथा - १ भद्र - २ सुभद्र - ३ सुजात - ४ सुमानस - ५ सुदर्शन-६ प्रियदर्शना-७ऽमोघ-८सुप्रतिभद्र-९यशोधराणि । पश्चानुत्तरविमानानि यथा-१ विजय-२वैजयन्त-३जयन्ता-४ऽपराजित५ सर्वार्थसिद्धाख्यानि । अविद्यमानमुत्तर-मुत्कृष्टं विमानादि येभ्यस्तान्यनुत्तराणि । तानि च विमानानि-अनुत्तरविमानानि । तीर्थङ्करादीनां समवसरणादौ कल्पोपपन्नदेवा गमनागमनं कुर्वन्ति । कल्पातीतदेवास्तु स्वस्थानादन्यत्र न गच्छन्ति । प जीवनिकायभेद-संकलनम् षड्जीवनिकायानां त्रिषष्टयुत्तरपञ्चशतानि (५६३) भेदाः। तथाहिपृथिव्यप्तेजोवायुकायानां प्रत्येकं बादर-सुक्ष्म-भेदाद् द्वैविध्येऽष्टधा । तेषां नौ प्रैवेयकों के नाम-(१) भद्र, (२) सुभद्र, (३) सुजात, (४) सुमानस, (५) सुदर्शन, (६) प्रियदर्शन, (७) अमोघ, (८) सुप्रतिभद्र, और (९) यशोधर है । पांचे अनुत्तर विमान-(१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित और (५) सर्वार्थसिद्ध । जिन से ऊपर अर्थात् उत्कृष्ट और कोई विमान नहीं वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं । तीर्थंकर आदि के समवसरण आदि में कल्पोपपन्न देव गमनागमनं करते हैं। कल्पातीत देव अपने स्थान से अन्य जगह नहीं जाते । षड्जीवनिकाय के भेदों का संकलनषटुजीवनिकायों के कुल पांचसो त्रेसठ (५६३) भेद है। वे इस प्रकार हैपृथिवी, अप, तेज, और वायुकाय के बादर और सूक्ष्म के भेद से आठ मेद हुए । ___ नववेयन। नाम- (१) मद्र, (२) सुभद्र, (3) सुनत, (४) सुभानस, (५) सुदर्शन, (६) प्रियशन, (७) अमाध, (८) सुप्रतिमा मने () यशोधर छे. पांय अनुत्तर विभान-(१) विनय, (२) वैश्यन्त, (3) न्यन्त, (४) अपराजित અને (૫) સર્વાર્થસિદ્ધ. જેનાથી ઉત્તર અર્થાત્ ઉત્કૃષ્ટ કેઈ વિમાન ન હોય તે અનુત્તર વિમાન કહેવાય છે. તીર્થકર આદિના સમવસરણ આદિમાં કપિપપન્ન દેવ ગમનાગમન કરે છે. કલ્પાતીત દેવ પોતાના સ્થાનથી અન્ય જગ્યાએ જતા નથી. ષડજીવનિકાયના ભેદને ચગ જીવનિકાના કુલ પાંચસે ત્રેસઠ (૫૬૩) ભેદ છે. તે આ પ્રકારે છે– પૃથ્વી, અપૂ, તેજ અને વાયુકાય, તેના બાદર અને સૂક્ષ્મના ભેદથી આઠ ભેદ થયા. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ आचारागसूत्रे पर्याप्तापर्याप्तभेदाद् द्वैविध्ये पोडश (१६) भेदाः। वनस्पतिकायस्य सूक्ष्मसाधारणप्रत्येकभेदात् त्रैविध्यम् , 'त्रिविधस्य वनस्पतिकायस्य पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकं द्वैविध्ये तस्य षड् भेदाः, इत्थं (२२) द्वाविंशतिर्भेदाः स्थावरपञ्चकस्यैकेन्द्रियजीवस्य भवन्ति । द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकं द्वैविध्ये पड् भेदाः । सर्वसंकलनयाऽष्टाविशिति (२८) भेदाः । तिर्यपञ्चेन्द्रियाः-जलचर-स्थलचर-खेचरो-र:परिसर्पभुजपरिसर्प-भेदात्-. पञ्चविधाः । तेषां पञ्चानां संश्यसंज्ञिभेदेन द्वैविध्ये दश- भेदाः। तेषां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन विंशति(२०)श्रृंदाः । पूर्वोक्ताष्टाविंशतिसंकलनतोऽष्टचत्वारिंशद् (४८) भेदास्तिरश्चाम् । इन आठों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से सोलह भेद होते है। वनस्पतिकाय-सूक्ष्म, साधारण और प्रत्येक के भेद से-तीन प्रकार का है । इन तीनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करने से छह भेद हुए । इस प्रकार पांच एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बाईस (२२)भेद है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त अपर्याप्त भेद से छह भेद । सबको जोड देने पर अट्ठाईस (२८) भेद हुए। तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय-जलचर, स्थलचर, खेचर, उरःपरिसर्प और भुजपरिसर्प के भेद से पांच प्रकार के है । पांचों के संज्ञी, असंज्ञी के भेद से दश हुए, इन के पर्याप्त, अपर्याप्त भेद करने से वीस (२०) भेद हुए। इन वीस में पूर्वोक्त अट्ठाईस और मिलाने से तिर्यञ्चों के अडतालीस (४८) भेद होते है। તે આઠના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી સેળ ભેદ થાય છે વનસ્પતિકાય સૂક્ષમ, સાધારણ અને પ્રત્યેકના ભેદથી ત્રણ પ્રકારના છે એ ત્રણેના પર્યાપ્ત અને અપયોસ ભેદ કરવાથી છે ભેદ થયા. આ પ્રમાણે પાંચ એકેન્દ્રિય સ્થાવર ના બાવીસ ભેદ છે. બેઈન્દ્રિય, ત્રણ-ઈન્દ્રિય અને ચૌઈન્દ્રિયના પર્યાપ્ત અપર્યાપ્તના ભેદથી છે ભેદ થયા તે સર્વને એક કરવાથી અઠાવીસ (૨૮) ભેદ થયા. તિર્થં ચ પંચેન્દ્રિય-જલચર, સ્થલચર, બેચર, ઉર પરિસર્પ અને ભુજપરિસર્ષના ભેદથી પાંગા પ્રકારના છે. તે પાંચના સંસી અને અસંજ્ઞીના ભેદથી દસ થયા, તેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવાથી વીશ (૨૦) ભેદ થયા, તે વિસમાં પૂર્વોક્ત અઠાવીસ મેળવવાથી તિર્થના અડતાલીસ (૪૮) ભેદ થાય છે. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ लोकवादिप्र० २९७ रत्नप्रभादयः सप्त नरकभूमयः । तत्र भवा नारकाः सप्तविधाः तेषां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्वैविध्ये चतुर्दश भेदाः मनुष्याणां त्र्युत्तरशतत्रयं (३०३) भेदाः पूर्वमेव तत्प्रकरणे सुस्पष्टं कथिताः । देवानामष्टनवत्युत्तरशत (१९८ ) भेदाः । तत्र भवनपतीनां दश भेदाः असुरकुमारादयः । परमाधार्मिकाः पञ्चदश । एवं (२५) पञ्चविंशतिर्भेदाः । व्यन्तराणां षड् विंशतिर्भेदाः । तत्र पिशाचादयः षोडश, अन्नजंम्भकादयो दश (२६) । ज्योतिष्कानां दश भेदाः । तत्र चन्द्रादयः पञ्च । तेषां पञ्चानां चर- स्थिरभेदेन द्वैविध्ये दश भेदाः (१०) सन्ति । वैमानिकानामष्टत्रिंशद् भेदाः । तत्र सुधर्मादयो द्वादश, सारस्वतादयो नव, किल्विषिकास्त्रयः, ग्रैवेयकाः- भद्रादयो रत्नप्रभा आदि सात नरकभूमियों में सात प्रकार के नारकी हैं। उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेद करने से चौदह भेद होते है । मनुष्यों के तीन सौ तीन ( ३०३) भेद पहले स्पष्ट कहे जा चुके हैं । देवो के एकसौ अट्ठानवे (१९८ ) भेद हैं । वे इस प्रकार - भवनपतियों के असुरकुमार आदि दस, परमाधार्मिक पन्द्रह, सब पच्चीस (२५) भेद हुए । व्यन्तरों के छवीस भेद हैं-सोलह पिशाच आदि और दस अन्नजृंभक आदि (२६) । चन्द्रमा आदि पांच के चर और अचर भेद होने से ज्योतिष्क देवों के दश (१०) भेद हैं । वैमानिकों के अडतीस भेद हैं- सुधर्म आदि बारह, सारस्वत आदि नौ, किल्चिषिक आदि तीन, भद्र आदि ग्रैवेयक नौ, विजय आदि पांच अनुत्तर विमान (३८) । इन सब का योग करने से રત્નપ્રભા આદિ સાત નરકભૂમિમાં સાત પ્રકારના નારકી છે. તેના પર્યાપ્ત અને અર્પાપ્ત ભેદ કરવાથી ચોદ ભેદ થાય છે. મનુષ્ચાના ત્રણસેાત્રણ (૩૦૩) ભેદ પ્રથમ સ્પષ્ટ કહી ચૂકયા છીએ. દેવાના એકસેા અઠાણુ' (૧૯૮) ભેદ છે. ભવનપતિયાના અસુરકુમાર આદિ દસ, પરમાધામી પંદર, સર્વ પચીસ ભેદ થયા. ન્યન્તરાના છવીસ ભેદ છે–સેાળ પિશાચ આદિ, અને દસ અન્નાં ભક— આદિ. ચંદ્રમા આદિ પાંચના ચર અને અચર ભેદ હેાવાથી જ્યેાતિષ્ઠ દેવાના દશ (૧૦) ભેદ छे. वभानिङ हेवाना माउत्रीस (३८) लेह छे - सुधर्भ यहि मार, सारस्वत आहि नव, विषिष्टु આદિ ત્રણ, ભદ્ર આદિ ગ્રેવેચેક નવ, વિજય આદિ પાંચ અનુત્તર વિમાન, આ સર્વાંને એક प्र. भा.-३८ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ आचारागसूत्रे नव, विजयादयः पञ्चानुत्तरविमानाः (३८)। सर्वेषां संकलनेन (९९) नवनवतिर्भेदाः । तेषां पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्वैविध्ये सत्यष्टनवत्युत्तरशतं (१९८) भेदाः देवानां भवन्ति । इत्थं सकलभेदसंकलनया षड्जीवनिकायानां त्रिषष्टयुत्तरपञ्चशतानि (५६३) भेदाः सन्ति । जीवानां संख्याजीवा अनन्ताः सन्ति । तथाहि(१) संज्ञिनो मनुष्याः संख्याताः। (२) असंज्ञिनो मनुष्या असंख्याता (३) नारकिणोऽप्यसंख्याताः। (४) देवाः संख्याताः। (५) तिर्यञ्चः पञ्चेन्द्रिया असंख्याताः। (६) द्वीन्द्रिया असंख्याताः। (७) त्रीन्द्रिया असंख्याताः। (८) चतुरिन्द्रिया असंख्याताः । निन्यानवे (९९) भेद होते है, और इन के पर्याप्त अपर्याप्त के भेद से एकसौ अट्ठानवे (१९८) भेद देवों के है । इस प्रकार सब भेदों का जोड करने से पांचसौ त्रेसठ (५६३) षड्जीवनिकाय के भेद होते हैं। जीवों की संख्याजीव अनन्त हैं। वे इस प्रकार(१) संज्ञी मनुष्य संख्यात । (२) असंज्ञी मनुष्य असंख्यात । (२) नारकी असंख्यात । (४) देव असंख्यात । (५) तिर्यश्च पञ्चेन्द्रिय असंख्यात । (६) द्वीन्द्रिय असंख्यात । (७) त्रीन्द्रिय असंख्यात । (८) चतुरिन्द्रिय असंख्यात । કરવાથી નવાણું (૯) ભેદ થાય છે. અને તેના પર્યાપ્ત અપપ્ત ભેદ કરવાથી એક અઠાણું (૧૯૮) ભેદ દેવાના છે. આ પ્રમાણે ઉપર કહેલા સર્વ ભેદને એકઠા કરવાથી પાંચસે ત્રેસઠ (૫૬૩) જીવનિકાયના ભેદ થાય છે. જીવોની સંખ્યા ॐ अनन्त छ, ते मा प्रारे छ::(१) संशी मनुष्य संन्यात छे. (२) माझी मनुष्य मसभ्यात छे. (3) नारी असभ्यात छे. (४) हे मसज्यात छे. (५) तिय य पथेन्द्रिय अध्यात छ. (६) विन्द्रिय असभ्यात छे. (७) त्रीन्द्रिय अध्यात छ. (८) यतुन्द्रिय मसभ्यात छ. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० २९९ (९) पृथिवीकाया असंख्याताः। (१०) अपकाया असंख्याताः। (११) तेजस्काया असंख्याताः। (१२) वायुकाया असंख्याताः। १३) प्रत्येक-वनस्पतिकाया असंख्याताः। (१४) तद पेक्षया सिद्धजीवा अनन्ताः । (१५) तेभ्योऽपि कन्दमूलादिरूपा (१६) सूक्ष्मनिगोदजीवाः बादरनिगोदजीवा अनन्तगुणाः। सर्वतोऽनन्तगुणाः । कर्मवादिप्रकरणम् यः पुनरेवं षड्जीवनिकायस्वरूपनिरूपणपरः स एव लोकवादी वस्तुतः कर्मवादीत्याह-'कर्मवादी' इति । कम-ज्ञानावरणीयादि, तद् वदितुं शीलमस्येति कर्मवादी-कर्मस्वरूपकथनशीलः । षड्जीवनिकायतत्त्वज्ञः खलु लोकवादी ज्ञाना (९) पृथ्वीकाय असंख्यात । (१०) अप्काय असंख्यात । (११) तेजस्काय असंख्यात । (१२) वायुकाय असंख्यात । (१३) प्रत्येकवनस्पतिकाय असंख्यात । (१४) इस से सिद्ध जीव अनन्त । (१५) बादनिगोदजीव कन्दमूल आदि सिद्धों से (१६) सूक्ष्म , निगोदजीव सब से भी अनन्तगुणा । अनन्त गुणा । कर्मवादिप्रकरणजो इस प्रकार षड्जीवनिकाय का स्वरूप निरूपण करने वाला है, वही लोकवादी वास्तव में कर्तवादी है । ज्ञानावरण आदि कर्मों का कथन करना जिस का स्वभाव हो, वह कर्मवादी है। षड्जीवनिकाय का तत्व समझने वाला लोकवादी ज्ञानावरण (6) पृथ्वीय मध्यात छ. (१०) म५४ाय असभ्यात छे. (११) ४२४ाय मसच्यात छ. (१२) वायुय मसभ्यात छे. (13) प्रत्ये वनस्पतिय २मस ज्यात छ. (१४) तेनाथी सिद्ध मनन्त छ. (૧૫) બાદર નિગદ જીવ કદમૂળ આદિ (૧૬) સૂક્ષ્મ નિગોદ જીવ સૌથી : સિદ્ધોથી પણ અનન્ત છે. અનન્તગણું છે. भवाही:२१- જે આ પ્રમાણે ષડૂછવનિકાયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવાવાળા છે તે લોકવાદી વાસ્તવિક રીતે કર્મવાદી છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોનું કથન કરવું તે જેને સ્વભાવ હાય, તે કર્મવાદી છે. ષડજીવનિકાયના તત્વને સમજવાવાળા લોકવાદી જ્ઞાનાવરણ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० आचारागसूत्रे वरणीयाद्यष्टविधकर्मैव नरकादिचतुर्गतिभ्रमणकारणतया विजानाति । ज्ञानावरणीयादिकर्मवन्धादेव हि जीवाश्चतुर्विधासु गतिषु परिभ्रमन्तः सम्यग्ज्ञानचारित्रप्राप्तिमन्तरेण संसारदावाग्निपतितमात्मानं समुद्धत्तुं न प्रभवन्ति । एवं कर्मवन्धवेदी भव्यः कर्मवादी वोद्धव्य इत्यर्थः। (१) कर्मस्वरूपम्अत्र कर्मप्रसङ्गेन तत्स्वरूपं निरूप्यते जीवेन मिथ्यात्वादिहेतुभिः क्रियते यत् , तत् कर्म । यथा तप्तायोगोलकः सलिले निक्षिप्तः सन् सर्वतः सलिलमाकर्षति तथाऽनादिमिथ्यात्वाआदि आठ कर्मों को ही नरक आदि चार गतियों में भ्रमण का कारण जानता है । ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारण ही जीव चार गतियों में परिभ्रमण करते हुए सम्यग्ज्ञान और चारित्र की प्राप्ति के विना संसाररूपी दावानल में पड़े हुए आत्मा का उद्धार करने में समर्थ नहीं होते । इस प्रकार कर्मबन्ध के वेत्ता (जाननेवाले) भव्यजीव कर्मवादी कहलाते है। (१) कर्मका स्वरूपकर्म का प्रसङ्ग होने से उसके स्वरूप का निरूपण करते है: जीव के द्वारा मिथ्यात्व आदि कारणों से जो कियाजाय वह कर्म है। जैसेतपा हुआ लोहे का गोला जल में डाल दिया जाय तो वह सभी तरफ से जल को खींचता है, उसी प्रकार अनादिकालीन मिथ्यात्व आदि कारणों से आत्मा निरन्तर આદિઆઠ કર્મોને જ નરક આદિચાર ગતિઓમાં ભ્રમણનું કારણ જાણે છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના બંધના કારણથી જ જીવ ચાર ગતિઓમાં પરિભ્રમણ કરતે થકે સમ્યજ્ઞાન અને ચારિત્રની પ્રાપ્તિ વિના સંસારરૂપી દાવાનલમાં પડેલા આત્માને ઉદ્ધાર કરવામાં સમર્થ થતું નથી. આ પ્રકારે કર્મબંધને જાણનાર ભવ્યજીવ કર્મવાદી કહેવાય છે. (१) भनु २५०५કમને પ્રસંગ હોવાથી તેને સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે – છવદ્વારા મિથ્યાત્વઆદિ કારણોથી જે કરવામાં આવે તે કર્મ છે. જેવી રીતે અગ્નિથી તપાવેલે લોઢાને ગોળે પાણીમાં નાખવામાં આવે તે તે ચારેય તરફથી પાણીને ખેંચે છે, તે પ્રમાણે અનાદિકાલીન મિથ્યાત્વ આદિ કારણોથી આત્મા Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५. कर्मवादिप्र० ३०१ दिहेतुभिर्निरन्तरमयमात्मा रागद्वेषपरिणत्या स्वस्मिन् सकलमदेशेषु कर्मवर्गणारूपं पुद्गलं समाकर्षन् क्षीरनीरन्यायेन तादात्म्यसमापन्नं करोति तदेव कर्मोच्यते । (२) कर्मणः सिद्धिः - आत्मत्वधर्मेण सर्वेषामात्मनामेकरूपत्वेऽपि देवनारकमनुष्य तिर्यगादि रूपं सुख-दुःख- सधन - निर्धन - सुरूप - कुरूप - सबला - डबल-नीरोग - सरोगादिरूपं वा यद् वैचित्र्यं तन्न निर्हेतुकं भवितुमर्हति सदा भवाभावदोषप्रसंगात् । निर्हेतुकत्वे देवनारकादिभवः शाश्वतिकः स्यात्, तथा देवनारकादिभवा रागद्वेषरूप परिणामों से अपने समस्त आत्मप्रदेशो में कर्मवर्गणा के पुद्गलों को खींचता है और क्षीर-नीर की तरह तद्रूप बना लेता है उन्हीं को कर्म कहते है । (२) कर्मकी सिद्धि सब आत्माओं में आत्मत्व समान होने पर भी कोई देव है, कोई नारक कोई मनुष्य है, कोई तिर्यञ्च, कोई सुखी है, कोई दुःखी, कोई सघन, कोई निर्धन, कोई सुरूप, कोई कुरूप, कोई सबल, कोई निर्बल, कोई रोगी है, कोई नीरोगी है, यह सब विचित्रता निष्कारण नहीं हो सकती, अगर इसका कोई कारण न होता तो या तो यह विचित्रता होती ही नहीं, अगर होती भी तो सदैव के लिए होती । निष्कारण ही देवगति या नरकगति होती तो वह नित्य होती । तथा देव नरक आदि भवका નિરંતર રાગદ્વેષરૂપ પરિણામેાથી પેાતાના સમસ્ત આત્મપ્રદેશોમાં કવણાના પુ૬ગલાને ખેંચે છે, અને ક્ષીર–નીર પ્રમાણે તપ બનાવી લે છે, તેને ક કહે છે. (२) अर्मनी सिद्धि સર્વ આત્મામાં આત્મત્વ સમાન હોવા છતાંય પણ કાઈ દેવ છે, કોઈ નારકી; अर्थ मनुष्य छे; अर्ध तिर्यय, अर्ध सुभी छे, अर्ध दुःखी छे. अर्ध धनवान् छे, अध निर्धन छे; अर्ध स्व३यवान छे, अर्ध रूप छे, अर्ध समय छे, अर्ध निर्णत छे. अर्ध રાગી છે, કોઈ નિરાગી છે. આ સર્વ વિચિત્રતા કોઈ કારણુ વના હોઈ શકે નહી. તેનું કોઈ કારણ ન હેાય તે આવી વિચિત્રતા પણ હાય નહી. અને હાય તે પછી તે હમેશાં માટે રહી શકતે, કોઈ પણ કારણ વિના દેવગતિ અથવા નરકગતિ હોય તે તે નિત્ય ઢાય, તથા દેવ અને નારક આદિ ભવને અભાવ પણ નિત્ય હત. એ પ્રમાણે Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसूत्रे भावोऽपि शाश्वतिकः स्यात् , एवं यः सुखी, तस्य सर्वदा सुखमेव स्यात् , यश्च दुःखी, तस्य सर्वदा दुःखमेव स्यात्-सर्वदा सुखाभावस्तस्य स्यात् । अत एव-"नित्यं सत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्" इत्याहुः। सहेतुकत्वस्वीकारे च य एवास्य हेतुः स एवास्माकं कर्मेति । उक्तश्च "आत्मत्वेन विशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् । नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् ” ॥ १ ॥ अभाव ही शाश्वतिक होता । इसी प्रकार जो सुखी है वह सदा के लिए सुखी होता । जो दुःखी है उसे सदैव दुःख ही होता-उस के लिए सदैव सुख का अभाव होता । इसी लिए कहा गया है कि- “जो वस्तु किसी कारणकी अपेक्षा नहीं रखती वह, या तो आकाश की भाति सदैव विद्यमान रहती अथवा खरविषाण की तरह कदापि नहीं होती। " अगर इस विचित्रता का जो कारण है उसी कारण को हम कर्म कहते हैं । कहा भी है "आत्मत्व की समानता होने पर भी जिस कारण से मनुष्यादिरूप विचित्रता होती है वही अदृष्ट है। उसी को कर्म कहते है, वह नाना प्रकार का है ॥ १ ॥" જે સુખી છે તે હમેશાં માટે સુખી જ હોત. અને જે દુખી છે તે હમેશાં દુઃખીજ રહેત, તેને હંમેશા માટે સુખનો અભાવ રહેત. એ કારણથી કહ્યું છે કે-“જે વસ્તુ કઈ કારણની અપેક્ષા રાખતી નથી તે આકાશ પ્રમાણે સદેવ વિદ્યમાન રહે છે, અથવા ખર-વિષાણ (ગધેડાના શિંગડા)ની પ્રમાણે કદાપિ હાય નહીં” અગર આ વિચિત્રતાનું કેઈ કારણ માનવામાં આવે છે તે કારણને અમે કર્મ કહીએ છીએ, કહ્યું છે – આત્મ-(આત્માપણાની સમાનતા હોવા છતાં પણ જે કારણથી મનુષ્યાદિ૫ વિચિત્રતા હોય છે–દેખાય છે. તે અદઇ છે. તેને કર્મ કહે છે. અને તે નાના साना छे-मर्थात् पए प्रारना छ." ॥१॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५. कर्मवादिप्र० ____ ३०३ एतत् कर्म पुद्गलस्वरूपं, नामूर्तमस्ति, अमूर्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासंभवात् , गगनादिवत् । उक्तञ्च"तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां, केचिल्लभन्ते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तां मित्र ! निगद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः १ ॥१॥" अपरञ्च"निवध्य मासान्नव गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कललादिभावैः । उद्वर्त्य निष्काशयते सवित्र्याः, ___ को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् ?" इति । यह कर्म, पुद्गलस्वरूप है, अमूर्त नहीं। अगर कर्म अमूर्त माना जाय तो उस से आत्मा का अनुग्रह और उपघात होना असंभव है, जैसे आकाश से नहीं होता । कहा भी है : " समान प्रताप, उधम और साहस वालों में से कोई कोई अपना कार्य सिद्ध करलेते हैं और दूसरे नहीं करपाते । मित्र ! कर्म के सिवाय इस का और कोई कारण हो तो कहो ? अर्थात् कर्म ही इस का एकमात्र कारण है " ॥ १ ॥ और भी कहा है :- - ____ "गर्भ में नौ महीने तक कलल आदि अनेक रूपों में बढाकर माता के गर्भ से पूर्वकर्म के सिवाय और कोन बाहर निकालता है ? " ॥ १ ॥ એ કર્મ, પુદ્ગલસ્વરૂપ છે, અમૂર્ત નથી. અથવા કમને અમૂર્ત માનવામાં આવે તે તેનાથી આત્માને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત કે અસંભવ છે, જેમ આકાશથી થતું નથી. કહ્યું પણ છે – સમાન પરાક્રમ, ઉદ્યમ, અને સાહસવાળી વ્યક્તિઓમાં કેઈ–કેઈ પોતાનું કાર્ય સિદ્ધ કરી લે છે, અને કોઈ કઈ નથી કરી શકતી. મિત્ર! આ બાબતમાં કર્મ વિના બીજું કઈ કારણ હોય તો કહો? અર્થાત્ કર્મજ એનું એક માત્ર કારણ છે.” ૧ બીજું પણ કહ્યું છે-“ગર્ભમાં નવ માસ સુધી કલલ (ગર્ભનું પ્રથમ સ્વરૂપ) આદિ અનેક રૂપમાં વૃદ્ધિ પામીને માતાના ગર્ભમાંથી પૂર્વકર્મ સિવાય બીજું બહાર કાઢે છે?” પેલા Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे ननु यथा कर्म विनाऽपि विचित्रा अभ्रादिविकारा दृश्यन्ते तथा संसारिणां मुखदुःखादिभावेन वैचित्र्यं यदि विनाऽपि कर्म भवेत् , तर्हि का हानिः ? इति चेत् , उच्यते अभ्रविकारा . गन्धर्वनगरशक्रधनुरादयो गृहप्राकारवृक्षरक्तनीलपीतादिभावेन वैचित्र्यं विभ्रति तत्र विस्रसापरिणतेन्द्रधनुरादिपुद्गलपरिणामवैचित्र्यं दृश्यते, तदपेक्षया विशिष्टं परिणामवैचित्र्यं प्रायेण चित्रन्यस्तानां चित्रकरादिशिल्पपरिगृहीतानां लेप्यकाष्ठकर्मानुगतपुद्गलानामुपलभ्यते, तर्हि जीवपरिगृहीतानामान्तरकर्मपुद्गलानां सुखदुःखादिनानारूपतया कथं न विशिष्टतरं परिणामवैचित्र्यं संभवेत् । शङ्का-जैसे कर्म के विना भी भाति-भातिके मेघ आदि के विकार देखे जाते हैं, उसी प्रकार कर्म के अभाव में भी संसारी जीवों में सुख-दुःख आदि की विचित्रता हो तो क्या हानि है । समाधान-मेघविकार-गन्धर्वनगर, इन्द्रधनुष आदि, गृह, प्राकार, वृक्ष, रक्त, नील, पीत, आदि रूप में विचित्रता धारण करते हैं वहाँ स्वभाव से परिणत इन्द्रधनुप आदि, पुद्गल के परिणामों की विचित्रता देखी जाती है, लेकिन चित्रकार आदि किसी शिल्पी के द्वारा गृहीत चित्र में अङ्कित, लेप्य काष्ठ आदि पुद्गलों में उस से भी अधिक विशिष्टता दिखाई देती है तो फिर जीवद्वारा ग्रहण किये हुए आन्तरिक कर्मपुद्गलों की सुख-दु.ख आदि नाना रूपों में परिणमन की विशिष्टतर विचित्रता क्यों न होगी। શંકા–જેવી રીતે કર્મ વિના પણ ભાત-ભાતના મેઘ આદિના વિકારો જોવામાં આવે છે, તે પ્રમાણે કર્મના અભાવમાં પણ સંસારી જેમાં સુખ-દુઃખ આદિની વિચિત્રતા હોય છે. એમ માનવામાં શું હાનિ છે? समाधान-मेधविधा२-धर्व ना२, न्द्रधनुष माहि, गृह, १२, वृक्ष, २४त નીલ, પીત આદિ રૂપમાં વિચિત્રતા ધારણ કરે છે. ત્યાં સ્વભાવથી પરિણત ઈન્દ્રધનુષ આદિ પુદ્ગલના પરિણામોની વિચિત્રતા જોવામાં આવે છે. પરંતુ ચિત્રકાર આદિ કઈ શિલ્પીદાર ગૃહીત ચિત્રમાં અકિત, લેપ્ય, કાષ્ઠ આદિ પુદગલો માં તેનાથી પણ અધિક વિશિષ્ટતા જોવામાં આવે છે તે પછી જીવ દ્વારા ગ્રહણ કરેલા આન્તરિક કર્મ પુદ્ગલાના સુખ-દુખ આદિ નાના (જુદા–જુદા) રૂપમાં પરિણમનની વિશિષ્ટતર વિચિત્રતા કેમ ન હોય ? Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप्र० । ३०५ ननु अभ्रादिवत् कर्मपुद्गलानां विचित्रपरिणतिस्वीकारे बाह्यमिदं शरीरमेव सुखदुःखादिनानारूपतया विचित्रपरिणामं करोतीत्येव मन्यतां, किं पुनस्तद्वैचित्र्यहेतुभूतस्य कर्मणः परिकल्पनया, स्वभावात एव सर्वस्यापि पुद्गलपरिणामवैचित्र्यस्य सिद्धत्वादिति चेत्, अवधेहि __ अभ्रादेरिव शरीरस्य सुखदुःखादिविचित्रपरिणामाङ्गीकारे यदि परितोषमेषि, तर्हि कर्मापि ननु तनुरेव, सेयं कर्मतनुस्तनुते विचित्रपरिणाममित्यवेहि । जीवेन सहातिसंश्लिष्टत्वादतीन्द्रियत्वाचाभ्यन्तरं सूक्ष्मं च कार्मणं शरीरम् , औदारिकं तु बाह्य स्थूलमित्येतावानेव द्वयोः शरीरयोविंशेषो दृश्यते । शंका-अभ्र-मेध आदि के समान कर्मपुद्गलों का विचित्र परिणमन स्वीकार करते हो तो यह क्यों नहीं मान लेते कि बाह्य शरीर ही सुख-दुःख आदि नाना रूपों में विचित्र परिणमन करता है, कर्म को इस विचित्रता का कारण मानने से क्या लाभ है १, पुद्गलों की सारी विचित्रता स्वभाव से ही सिद्ध है। समाधान-अभ्र आदि के समान शरीर का ही सुख-दुःख आदि विचित्र परिणमन अङ्गीकार करने में आप को सन्तोष मिलता है तो कर्म भी तो शरीर ही है, और वही कर्मशरीर विचित्र परिणमन करता है, ऐसा समझ लीजिए । जीव के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण और अतीन्द्रिय होने के कारण कर्मशरीर आभ्यन्तर और सूक्ष्म कहलाता है, तथा औदारिक शरीर बाह्य और स्थूल है । बस इतना ही दानों शरीरों में अन्तर है। શકા-અભ્ર (મેઘ) આદિના સમાન કર્મ પુદ્ગલેનું વિચિત્ર પરિણમન સ્વીકાર કરે છે તે પછી, બાહ્ય શરીર જ સુખ–દુઃખ આદિ નાના રૂપમાં વિચિત્ર પરિણમન કરે છે એમ શા માટે માનતા નથી? કમને એ વિચિત્રતાનું કારણ માનવાથી શું લાભ છે ?, પુગલની પરિણમનની તમામ વિચિત્રતા સ્વભાવથી જ સિદ્ધ છે. સમાધાન-મેઘ આદિના સમાન શરીરનું પણ સુખ દુઃખ આદિ વિચિત્ર પરિણમન અંગીકાર કરવામાં આપને સંતોષ મળે છે તો કર્મ તે શરીરજ છે, અને તે કર્મશરીર વિચિત્ર પરિણમન કરે છે, એ પ્રમાણે સમજી લ્યો. જીવની સાથે ઘનિષ્ઠ સંબંધ હોવાના કારણે અને અતીન્દ્રિય હોવાના કારણે ક—શરીર આત્યંતર અને રુમ કહેવાય છે, તથા ઔદારિક શરીર બાહ્ય અને–સ્થૂલ છે. એટલું જ એ બે શરીરમાં અન્તર છે. प्र. आ.-३९ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे ननु वाह्यशरीरस्य स्थूलत्वात् प्रत्यक्षदृष्टत्वाचाभ्रादिसादृश्येन वाह्यशरीरस्यैव सुखदुःखादिबिचित्रपरिणामोऽस्तु किं पुनरप्रत्यक्षभूतस्य कर्मरूपातीन्द्रियशरीरस्य कल्पनेन, कार्मणशरीरानङ्गीकारे यदि कोऽपि दोष आपतति, ततोऽर्थापत्तेरेव कर्मवैचित्र्यमङ्गीकरिष्यामः ? इति । अत्रोच्यते___ मरणसमये प्रत्यक्षदृष्टवाह्यस्थूलशरीराद् विमुक्तस्य जीवस्य भवान्तरीयबाह्यस्थूलशरीरग्रहणे कारणभृतं सूक्ष्म कार्मणशरीरं विनाऽग्रिमदेहग्रहणाभावरूपो दोषः समापद्यते, ततश्च देहान्तरग्रहणानुपपत्तेर्मरणानन्तरं सर्वस्यापि जीवस्य शरीराभावात् संसारोच्छेदः स्यात् । न च दृश्यते संसारसमुच्छेदः। शङ्का-बाह्य शरीर स्थूल है और प्रत्यक्ष दिखाई देता है, अत एव बाह्य शरीर के साथ ही अभ्र आदि की समानता है, ऐसी स्थिति में बाह्य शरीर का ही सुख दुःख आदिरूप परिणमन मानना चाहिए । कभी प्रत्यक्ष दिखाई न देने वाले कर्मरूप अतीन्द्रिय शरीर की कल्पना करने का कष्ट क्यो उठाते है ? हा !, कर्मणशरीर को स्वीकार न करने से अगर कोई दाष आया तो फिर अर्थापत्ति प्रमाण से ही कर्म की विचित्रता स्वीकार कर लेगे । समाधान-मृत्यु के समय प्रत्यक्ष दीखने वाले वाह्य स्थूल शरीर को ग्रहण करने का कारणभूत सूक्ष्म शरीर न हो तो जीव आगामी शरीर को ग्रहण ही नहीं कर सकेगा । सूक्ष्म शरीर न मानने से यह दोप आता है । जीव अगर अगले शरीर को ग्रहण न करे तो मृत्यु के पश्चात् अशरीर होने के कारण सभी जीव मुक्त हो जाएंगे, और શંકા–બાહ્ય શરીર સ્કૂલ છે અને પ્રત્યક્ષ દેખાય છે, એ કારણથી બાહ્ય શરીરના સાથેજ મેઘ આદિની સમાનતા છે એવી સ્થિતિમાં બાહા શરીરનું જ સુખ–દુઃખ આદિ રૂપ પરિણમન માની લેવું જોઈએ. કેઈ વખત પ્રત્યક્ષ નહિ દેખાતા એવા કર્મરૂપ અતીન્દ્રિય શરીરની કલ્પના કરવાનું કષ્ટ શા માટે ઉઠાવે છે ? હા ! કોણે શરીરને સ્વીકાર નહિ કરવાથી જે કઈ દોષ આવશે તે પછી અર્થપત્તિ પ્રમાણથીજ કર્મની વિચિત્રતા સ્વીકારી લઈશું. સમાધાન-મૃત્યુના સમયે પ્રત્યક્ષ દેખાતાં બાહ્ય સ્થૂલ શરીરથી જીવ અલગ થઈ જય છે. આગલા ભવમાં બાહ્ય સ્થલ શરીરને ગ્રહણ કરવાના કારણભૂત સૂક્ષ્મ શરીર નહિ હોય તે જીવ આગામી શરીરને ગ્રહણજ કરી શકશે નહિ. સૂમ શરીર નહિ માનવાથી આ દેપ આવે છે. જીવ જો મૃત્યુ પછી બીજા શરીરને ગ્રહણ ન કરે તે મૃત્યુ પછી અશરીર હોવાને કારણે સર્વ જી મુક્ત થઇ જશે અને સંસાર બંધ થઈ જશે. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप्र० ३०७ शरीरान्तरग्रहणं च निष्कारणं न संभवति । तस्मात् । स्थूलशरीकारणभूतं सूक्ष्मकार्मणशरीरमस्तीत्यवश्यमङ्गीकर्तव्यम् । ननु कर्मरहितः शुद्धजीवो नानाविधशरीरादीनां कर्ताऽस्तु, तथेश्वरः, स्वभावो यहच्छा वा विविधशरीरादिकं करोतीत्येव सन्यते, किं कर्मकल्पनेन ? अत्रोच्यते अयं जीवेश्वरादिरकर्मा न शरीरसुखदुःखादीनां कर्ता, उपकरणाभावात् , दण्डाद्युपकरणरहितकुम्भकारवत् । कर्म विनाऽन्यदुपकरणं शरीराद्यारम्भकं जीवेश्वरादीनां न संभवति, गर्भावस्थास्वन्योपकरणासंभवात् , कर्म विना शुक्रशोणितादिग्रहणस्याप्यनुपपत्ते । संसार मिट जायगा, मगर संसार का मिटना दिखाई नहीं देता, और विना कारण के शरीर का ग्रहण नहीं हो सकता, अत एव स्थूल शरीर का कारण सूक्ष्म कार्मणशरीर का अस्तित्व अङ्गीकार करना चाहिए । शंका-कमरहित शुद्ध जीव को नाना प्रकार के शरीरों का कर्ता मान लिया जाय, या ईश्वर; स्वभाव अथवा यदृच्छा को कर्ता स्वीकार कर लिया जाय, कर्म की कल्पना से क्या लाभ है । समाधान-कर्मरहित जीव या ईश्वर आदि, शरीर, सुख-दुःख आदि का कर्ता नहीं है, क्यों कि उसके पास उपकरण नहीं है, दण्ड आदि उपकरणों से रहित कुंभार के समान । कर्म के सिवाय, शरीर आदि रचने में ईश्वर आदि को और कोई भी उपकरण नहीं हो सकता । कर्म के अतिरिक्त और कोई उपकरण न होने के कारण गर्भ आदि अवस्थाओ में शुक्र शोणित आदिका ग्रहण भी नहीं हो सकता। પરન્ત સંસાર બંધ થયે તેવું જોવામાં આવતું નથી. અને કારણ વિના શરીરનું ગ્રહણ હોઈ શકે નહીં એ કારણથી સ્થૂલ શરીરનું કારણ સૂફમ-કાશ્મણ શરીરના અસ્તિત્વને અંગીકાર કરવો જોઈએ. શંકા-કમરહિત શુદ્ધ જીવને નાના પ્રકારના શરીરના કર્તા માની લઈએ, અથવા ઈશ્વર સ્વભાવ યા યદ્દચ્છાને કર્તા માની લઈએ તો પછી કર્મની કલ્પના કરવાથી શું લાભ? સમાધાન–કમરહિત જીવ અથવા તે ઈશ્વર આદિ, શરીર, સુખ, દુઃખના કર્તાનથી. કારણ કે તેની પાસે ઉપકરણ-(મુખ્ય સાધન) નથી, દંડ આદિ પ્રધાન સાધને વિનાને જેમ કુંભાર, તે પ્રમાણે, કર્મ વિના શરીર આદિ રચવામાં ઈશ્વર વગેરેને બીજું કઈ પણ ઉપકરણ હોઈ શકે નહિ. કર્મને વિના બીજું કોઈ પ્રધાન સાધન નહિં હોવાને કારણે ગર્ભ આદિ અવસ્થાઓમાં શુક શોણિત વગેરેનું ગ્રહણ પણ થઈ શકે નહી. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ आचारागसूत्रे यद्वा-अकर्मा शरीरादिकं नारभते, निश्चेष्टत्वात् , अमूर्तत्वात् , आकाशवत् । तथा-एकत्वात् एकपरमाणुवत् । यदि शरीरवानीश्वरः करोति विविधशरीरादिकमित्युच्यते तदाऽनवस्थादोपः समापद्यते । तथाहि-शरीरस्येश्वरस्य जगद्वैचित्र्यकर्तृत्वस्वीकारे स्वशरीरकर्तृत्वमकर्मणस्तस्यश्वरस्य न संभवति, निरुपकरणत्वात् , दण्डादिरहितकुम्भकारवत् । अथान्यः कोऽपीश्वरस्तदीयशरीरकरणाय प्रवर्तते ततः सोऽपि शरीरखान् अशरीरो वा ? यद्यशरीरस्तहिँ नासौ शरीरकर्ता निरुपकरणत्वात् । शरीरवांश्चेत्-तर्हि ___अथवा-जो कर्मरहित है वह शरीर आदि का उत्पादक नहीं हो सकता, क्यों कि वह चेष्टारहित है, अथवा अमूर्त है । जो चेष्टाहीन या अमूर्त होता है वह शरीर आदि को जनक नहीं होता, जैसे आकाश । तथा वह एक होने के कारण भी शरीर आदिका जनक नहीं हो सकता, जैसे एक परमाणु । कदाचित् यह कहा जाय कि सशरीर ईश्वर विविध शरीर आदिका कर्ता है तो अनवस्था दोष आता है। वह इस प्रकार-जब सशरीर ईश्वर जगत् की विचित्रता का कारण है तो वह विना शरीर के अपना शरीर भी नहीं बना सकेगा, क्यों कि वह उपकरणहीन है, दण्डआदि से रहित कुंभार के समान । अब यह कहा जाय कि कोई दूसरा ईश्वर, पहले ईश्वर का शरीर बनाने के लिए प्रवृत्त होता है तो उसके विषय में भी वही प्रश्न उपस्थित होता है कि वह सशरीर है अथवा अशरीर है ?, अगर वह अशरीर है तो उपकरणहीन होने के कारण शरीर का कर्ता અથવા–જે કર્મરહિત છે તે શરીર આદિના ઉત્પાદક થઈ શકે નહિ, કારણ કે તે ચેષ્ટારહિત છે. અથવા અમૂર્ત છે. જે ચેષ્ટહીન અથવા અમૂર્ત હોય છે, તે શરીર આદિના ઉત્પન્ન કરનાર હેય નહિ. જેવી રીતે–આકાશ, તથા તે એક હેવાના કારણે પણ શરીર આદિના ઉન્ન કરનાર હાય નહિ. જેવી રીતે એક પરમાણુ. કદાચિત્ એમ કહેવામાં આવે કેન્સશરીર ઈશ્વર વિવિધ શરીર આદિના કર્તા છે. તે અનવસ્થા દેશ આવે છે. તે આ પ્રમાણે કે-જ્યારે શરીર ઈશ્વર જગતની વિચિત્રતાનું કારણ છે તે તે, શરીર વિના પિતાનું શરીર પણ બનાવી શકશે નહી; કારણ કે તે ઉપકરણહીન છે, જેમ દંડ આદિથી રહિત કુંભાર. હવે જે એમ કહેવામાં આવે કે કેઈ બીજો ઈશ્વર પ્રથમના ઈશ્વરનું શરીર બનાવવામાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તે તે વિષયમાં પણ એ પ્રશ્ન ઉભા થાય છે કે તે સશરીર છે અથવા અશરીર છે? અગર જે અશરીર છે તે ઉપકરણહીન Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप्र० तच्छरीरारम्भेऽपि तुल्यता प्रश्नस्य । सोऽप्यकर्मा निजशरीरं नारभते निरुपकरणत्वात् । यदि तच्छरीरकर्ताऽन्यः कोऽपि, तर्हि सोऽपि शरीरखान् अशरीरो वा ? इत्थं चानवस्था । अनिष्टं च सर्वमेतत् । तस्मान्नेश्वरी देहादीनां कर्ता, किन्तु कर्मसहितो जीव एव स्वकीयं देहादिकं करोति । किश्व-ईश्वरस्य देहादिकरणं निष्पयोजनमिति तदोन्मत्ततुल्यता स्यात् । सप्रयोजनकर्तृत्वे तु तस्यानीश्वरत्वप्रसङ्गः। किञ्चानादिशुद्धस्य तस्येश्वरस्य देहादिकरणेच्छा नोपपद्यते, इच्छाया रागरूपत्वात् । नहीं हो सकता । अगर सशरीर है तो उसका शरीर बनाने वाला कोई तीसरा ईश्वर मानना पडेगा । वह तीसरा ईश्वर भी अशरीर है या सशरीर है ?, इत्यादि विकल्प फिर उपस्थित होनेके कारण अनवस्था दोष आता है। यह सब अभीष्ट नहीं है। अतः देह आदिका कर्ता ईश्वर नहीं हो सकता, वरन् कर्मसहित जीव ही अपने शरीर आदि का कर्ता है । दूसरी बात यह है कि ईश्वर, विना किसी प्रयोजन के ही अगर शरीर आदि की रचना करता है तो वह उन्मत्त के समान होगा। अगर उसका कोई प्रयोजन है तो वह ईश्वर नहीं रहेगा। एक बात और-अनादि काल से शुद्ध ईश्वर की देह आदि रचने में इच्छा ही नहीं हो सकती, क्यों कि इच्छा एक प्रकार का राग है और रागी ईश्वर नहीं हो सकता । હોવાના કારણે શરીરકર્તા થઈ શકતું નથી. અગર સશરીર છે તે તેનું શરીર બનાવવાવાળો કેઈ ત્રીજે ઈશ્વર માનવે પડશે. તે ત્રીજા ઈશ્વર પણ સશરીર છે અથવા સશરીર છે ?, ઈત્યાદિ વિકલ્પ ફરીને ઉપસ્થિત હોવાના કારણે અનવસ્થા દોષ આવે છે. તે સર્વ અભીષ્ટ નથી, તે કારણથી દેહ આદિના કર્તા ઈશ્વર થઈ શકતા નથી. પરતુ કર્મસહિત છવજ પિતાના શરીર આદિને કર્તા છે. બીજી વાત એ છે કે-ઈશ્વર કઈ પ્રયેાજન વિના જે શરીર આદિની રચના કરે છે તો તે ઉન્મત્તની સમાન ગણાશે. અથવા તે તેને કોઈ પ્રયોજન છે, તે તે ઈશ્વર નહીં રહે. એક બીજી વાત એ છે કે-અનાદિ કાળથી શુદ્ધ ઈશ્વરની, દેહ આદિ રચનામાં ઈચ્છા જ રહેતી નથી, કારણ કે ઈચ્છા એક પ્રકારને રાગ છે, અને રાગી ઈશ્વર થઈ શકતા નથી. Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ' ओचाराङ्गमत्रे नापि स्वभावो देहादीनां कर्ता भवितुमर्हति । स स्वभावः किं वस्तुविशेषो वा ? अकारणता वा ? वस्तुधर्मो वा ?, तत्र न तावद् वस्तुविशेषः, तस्य वस्तुविशेषरूपत्वे प्रमाणाभावात् । प्रमाणरहितस्यापि वस्तुत्वस्वीकारे कर्मापि कथं नाङ्गीकरोपि ?, त्वन्मते कर्मणोऽपि प्रमाणरहितत्वात् । किञ्च-वस्तुविशेषरूपः स स्वभावो मूर्ती वा स्यादसूत्तों वा ?, यदि मूर्तस्तहि स्वभाव इति नामान्तरेण कर्मैव सिध्यति । यदि पुनरसूर्तस्तहिँ नासौ स्वभावो देहादीनां कर्ता भवितुमर्हति, अमूर्तत्वात् निरुपकरणत्वाच, गगनवत् । स्वभाव भी देह आदि का कर्ता नहीं हो सकता । आखिर स्वभाव का अर्थ क्या है ? स्वभाव कोई वस्तु है ? अथवा कोई भी कारण न होना स्वभाव है ? या किसी वस्तु का धर्म है ? । स्वभाव कोई वस्तु तो है नहीं, क्यों कि उसे वस्तु मानने में कोई प्रमाण नहीं है। प्रमाण के अभावमें भी स्वभाव को वस्तु मान लिया जाय तो कर्म मानने में क्या आपत्ति है ? तुम्हारे मत के अनुसार कर्म मानने में भी कोई प्रमाण नहीं है। स्वभाव अगर कोई वस्तु है तो वह मूर्त है या अमूर्त ?, अगर मूर्त है तो स्वभाव और कर्म एक ही वस्तु है। आप कर्म को ही स्वभाव-शब्द से कहते है तो कह लीजिये । स्वभाव को अमूर्त मानते है तो वह देह आदिका कर्ता नहीं हो सकता, क्यों कि वह अमूर्त है और उपकरणरहित है, जैसे आकाश । मूर्त शरीर का अनुरूप कारण मूर्त ही होना चाहिए, સ્વભાવ પણ દેહ આદિને કર્તા થઈ શકતો નથી, છેવટ સ્વભાવને અર્થ શું છે ? સ્વભાવ કઈ વસ્તુ છે? અથવા કેઈપણ કારણ નહીં હોવું તે સ્વભાવ છે? અથવા કેઈ વસ્તુને ધર્મ છે ? સ્વભાવ કોઈ વસ્તુ તે છે નહીં, કારણ કે તેને વસ્તુ માનવામાં કઈ પ્રમાણ નથી, પ્રમાણના અભાવમાં પણ સ્વભાવને વસ્તુ માની લેવામાં આવે કે માનવામાં શું આપત્તિ છે? તમારા મત પ્રમાણે કર્મ માનવામાં પણ કઈ પ્રમાણ નથી. સ્વભાવ અગર કઈ પણ વસ્તુ છે તો તે મૂત્ત છે અથવા અમૂર્ત છે? જે મૂ છે તે સ્વભાવ અને કમ એક જ વસ્તુ છે, તમે કર્મને જ સ્વભાવ-શબ્દથી કહે છે તો ખુશીથી કહો ને સ્વભાવને અમૂર્ત માનશો તો તે દેહ આદિને કર્તા થઈ શકશે નહીં, કારણ કે તે અમૂર્ત છે. અને ઉપકરણ (પ્રધાન સાધનો) રહિત છે જેવી રીતે આકાશ, Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.१ सू.५ कर्मवादिन मूर्तस्य शरीरादिकार्यस्यानुरूपं कारणं मूर्तमेव संभवति, यथा मृत्पिण्डो घटस्य । अकारणतारूपः स्वभावः ? इति चेत् , एवं सति शरीरादिकमकारणमेवोत्पद्यते, इत्ययमर्थः स्यात् , तथा सति कारणाभावस्य समानत्वादेकस्मिन्नेव समये सकलशरीरोत्पत्तिप्रसंगः । यदि स्वभावो 'वस्तुधर्म इत्युच्यते, तथापि यदि विज्ञानादिवदात्मनो धर्मस्तर्हि नासौ स्वभावः शरीरकारणं भवितुमर्हति, अमूर्तत्वात् , आकाशवदित्युक्तं प्रागेव । यदि स स्वभावो मूर्तवस्तुधर्मस्तर्हि सिद्धसाधनम् , कर्मापि पुद्गलरूपमेवेति वयं ब्रूमः । तस्मात् कसैव जगद्वैचित्र्यकारणमिति सिद्धम् । जैसे घट का कारण मिट्टी का पिण्ड है। अगर कोई भी कारण न होना ही स्वभाव है तो इसका अर्थ यह हुआ कि शरीर आदि निष्कारण ही उत्पन्न हो जाते हैं। अगर निष्कारण ही शरीर की उत्पत्ति होती है तो फिर संसार के समस्त शरीर एक साथ क्यो नहीं हो जाते ? । ___स्वभाव किसी वस्तु का धर्म है, यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। अगर वह ज्ञान आदि के समान आत्मा का धर्म है तो आकाश की तरह अमूर्त होने के कारण शरीर का कर्ता नहीं हो सकता, यह पहले ही कहा जा चुका है । स्वभाव अगर किसी मूर्त वस्तु का धर्म है तो यह हमें भी इष्ट है, क्यों कि हमारे कथनानुसार कर्म भी पुद्गल का क्रममावी धर्म है, अत एव यह सिद्ध हुआ कि कर्म ही जगत् की विचित्रता का कारण है। મૂત્ત શરીરનું અનુરૂપ કારણ મૂજ હોવું જોઈએ, જેમ ઘટનું કારણ માટીને પિંડ છે. અથવા કોઈ જ કારણ ન હોય એ જ સ્વભાવ છે તો તેનો અર્થ એ થયે કે શરીર આદિ નિષ્કારણુજ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, અને નિષ્કારણ જ શરીરની ઉત્પત્તિ થાય છે તે પછી સંસારના સમરત શરીર એક સાથે કેમ થઈ નથી જતાં? સ્વભાવ કઈ વસ્તુને ધર્મ છે એ પ્રમાણે કહેવું તે પણ યુક્તિસંગત નથી. અથવા તો તે જ્ઞાન આદિના સમાન આત્માનો ધર્મ છે. તે આકાશની માફક અમૂર્ત હોવાના કારણે શરીરના કર્તા થઈ શકશે નહીં, આ હકીકત પ્રથમથી જ કહી આપી છે. સ્વભાવ એ કઈ મૂર્ત વસ્તુને ધમર છે, તે તે વાત અમારે પણ માન્ય છે, કારણ કે અમારા કહેવા પ્રમાણે કર્મ પણ પુગલરૂપજ છે, એ માટે એમ સિદ્ધ થયું કે કર્મ જ જગતની વિચિત્રાનું કારણ છે. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ आचारागसत्रे (३) कर्मणो मूतत्वम्नन्वतीन्द्रियस्य कार्मणशरीरस्य मूर्तत्वे 'किं मानम् ? अत्रोच्यते शरीरादिकार्यदर्शनात्तत्कारणभूतं कर्म सिध्यति चेत् तर्हि कार्यानुरूपमेव कारणं भवितुमर्हतीति शरीरादिकार्याणां मूतत्वात्तत्कारणं कर्मापि मूर्तमेव । यथा मूर्तस्य घटादिकार्यस्य कारणं परमाणुपुद्गलास्ते मूर्ती एव सन्ति । यच्च पुनरमूर्त कार्य तस्य कारणमपि-अमूतम् , यथा ज्ञानस्यात्मेति । ननु सुखदुःखादयोऽपि कर्मणः कार्य तर्हि तेषाममूर्तत्वात् कर्मणोऽ मूर्तत्वमपि प्राप्नोति, नहि मूर्तीदमूर्तोत्पत्तिः संभवति, यथा पुद्गलाद् ज्ञानपर्यायः, (३) कर्म का मूर्तपनशङ्का-अतीन्द्रिय कार्मण शरीर के मूर्त होने में क्या प्रमाण है ? ___ समाधान–शरीर आदि कार्यों के देखने से उनके कारणभूत कर्म की सिद्धि होती है, और कारण, कार्य के अनुरूप ही होता है, अत एव जब शरीर आदि कार्य मूर्त हैं तो उन का कारण कर्म भी मूर्त ही होना चाहिए । जैसे मूर्त घट आदि कार्यों के कारणभूत पुद्गल परमाणु भी मूर्त ही हैं, जो कार्य अमूर्त होता है, उसका कारण भी अमूर्त ही होता है; जैसे ज्ञान का कारण आत्मा । शङ्का-सुख और दुःख आदि का कारण भी कर्म है, और सुख दुःख आदि अमूर्त है; अत: उन का कारण कर्म अमूर्त भी होना चाहिए । मूर्त से अमूर्त की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे पुद्गल से ज्ञानपर्याय की उत्पत्ति नहीं हो (3) भनु भूतपःશંકા-અતીન્દ્રિય કામણ શરીરમાં મૂર્તિપણું હવામાં શું પ્રમાણ છે? સમાધાન–શરીર આદિ કાર્યોને દેખવાથી તેના કારણભૂત કર્મની સિદ્ધિ થાય છે, અને કારણ, કાર્યના અનુપજ હોય છે. એ કારણથી જ્યારે શરીર આદિ કાર્ય મૂર્ત છે, તો તેનું કારણ કમ પણ મૂર્ત જ હોવું જોઈએ. જેવી રીતે મૂર્ત ઘટે આદિ કાર્યોના કારણભૂત પુદ્ગલપરમાણુ પણ મૂર્ત છે. જે કાર્ય અમૂર્ત હોય છે તેનું કારણ પણ અમૂર્ત જ હોય છે, જેમકે જ્ઞાનનું કારણ આત્મા. શંક-સુખ અને દુઃખ આદિનું કારણ કર્મ છે, અને સુખ દુઃખ આદિ અમૂર્ત છે, તેથી તેનું કારણ કર્મ પણ અમૂર્તજ હોવું જોઈએ. મૂર્તથી અમૂર્તની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી; જેવી રીતે પુદ્ગલથી જ્ઞાનપર્યાયની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, અને એક Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप्र० नाप्येकस्यैव कर्मणो मूर्तबममूर्तत्वं च युज्यते, विरुद्धत्वादिति चेत् ? उच्यते अत्र कारणशब्देनोपादानकारणं परिगृह्यते; न तु निमित्तकारणम् , मुखदुःखादीनां निमित्तकारणमेव कर्म, यथाऽनपानादयो विषादया वा सुखदुःखादीनां निमित्तकारणमस्ति । उपदानकारणं तु तेषामात्मैव सुखदुःखादीनामात्मधर्मत्वादिति नास्ति दोषलेशोऽपि । (४) जीवकर्मणोः सम्बन्धः । ननु कर्म मूतमस्तीत्युक्तं परन्तु मूर्तस्य कर्मणोऽमूर्तेन जीवेन सह कथं संयोगलक्षण सम्बन्धः ? इति चेन्मैवम् , यथा मूर्तस्य घटस्यामूर्तेन गगनेन संयोगलक्षणः सम्बन्धस्तथाऽत्रापि जीवकर्मणोः सम्बन्धोऽस्तीति । उक्तञ्चसकती। और एक ही कर्म मूर्त भी हो और अमूर्त भी हो, यह कैसे हो सकता है ?, ये दोनों धर्म विरोधी है, एक जगह नहीं रह सकते। समाधान–यहाँ कारण-शब्द से उपादान कारण ग्रहण किया गया है, निमित्त कारण नहीं । कर्म सुख-दुःख के प्रति निमित्त कारण ही है, जैसे अन्न, पान, विष आदि सुख-दुःख के निमित्त कारण हैं। सुख दुःख का उपादान कारण तो आत्मा ही है, क्यों कि वे आत्मा के धर्म हैं, अतः यहां दोष का लेश भी नहीं है। (४) जीव और कर्म का सबन्धशङ्काः—आपने कर्म को मूर्त सिद्ध किया, मगर मूर्त कर्म का अमूर्त जीव के साथ सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है । समाधान-ऐसा न कहिए । जैसे मूर्त घट का अमूर्त आकाश के साथ संयोगसम्बन्ध है, उसी प्रकार जीव और कर्म का भी सम्बन्ध है । कहा भी है :કમ મૂર્ત પણ હોય અને અમૃત પણ હોય, એ કેવી રીતે હોઈ શકે ? આ બને ધર્મ વિરેાધી છે તેથી એક જગ્યાએ રહી શકતા નથી. સમાધાન-અહિં કારણ શબ્દથી ઉપાદાને કારણે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, નિમિત્ત કારણ નહિ. કર્મ, સુખ–દુઃખ થવામાં નિમિત્ત કારણજ છે, જેવી રીતે અન્ન, પાન, વિષ આદિ સુખ-દુઃખના નિમિત્ત કારણ છે, પરન્તુ સુખ-દુઃખનું ઉપાદાન કારણ તે આત્મા જ છે, કારણ કે તે આત્માને ધર્મ છે તેથી તેમાં લેશ પણ દેષ નથી. (४) ७२ मन उभा सम्पन्શંકા-આપે કમને “મૂત્ત છે એમ સિદ્ધ કર્યું તે પછી મૂર્ત કર્મને અમૂર્ત જીવની સાથે સમ્બન્ધ કેવી રીતે હોઈ શકે છે? સમાધાન–આ પ્રમાણે નહિ કહે ? જેમ મૂર્ત ઘટને અમૂર્ત આકાશની સાથે સંયોગસમ્બન્ધ છે, તે પ્રમાણે જીવ અને કર્મને પણ સમ્બન્ધ છે. કહ્યું પણ છે – प्र. आ.-४० Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे "यथा ह्यरूपमाकाशं, रूपिद्रव्यादिभाजनम् । तथा ह्यरूप आत्मापि, रूपिकर्मादिभाजनम् ॥१॥" यथा वा - अमूर्तयाऽऽकुञ्चनादिक्रियया सह मूर्तद्रव्यस्याङ्गुल्यादेः सम्वन्धस्तथाऽत्रापि जीवकर्मणोः सम्बन्ध इति बोध्यम् । यद्वा-यथा वाह्यशरीरमिदं जीवेन सह सम्बद्धं प्रत्यक्षदृष्टमेवास्ति, एवं भवान्तरं गच्छता जीवेन सह कार्मणशरीरं सम्बद्धमेवेति । - यदि बाह्यशरीरस्य जीवेन सह सम्बन्धे धर्माधर्मयोः कारणताऽस्तीत्युच्यते तहि तावपि धर्माधौं मूर्ती स्याताममूर्ती वा ?। यदि मूर्ती तर्हि "जैसे अरूपी आकाश रूपी द्रव्य आदि का आधार है, उसी प्रकार अरूपी आत्मा कर्मों का आधार है" ॥ १॥ अथवा जैसे-आकुश्चन (सिकोडना ) आदि अमूर्त क्रिया के साथ अंगुली आदि मूर्त द्रव्य का सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार यहां जीव और कर्म का सम्बन्ध समझ लेना चाहिए। अथवा जैसे बाह्य शरीरका जीव के साथ सम्बन्ध है, वह प्रत्यक्ष सिद्ध है, उसी प्रकार भवान्तर में जाते जीव के साथ कार्मण शरीर का सम्बन्ध है । अगर कहा जाय कि जीव के साथ वाह्य शरीर का सम्बन्ध होने में धर्म और अधम कारण है तो प्रश्न खडा होता है कि-धर्म अधर्म मूर्त हैं या अमूर्त है ? જેવી રીતે અરૂપી આકાશ, રૂપી દ્રવ્ય આદિને આધાર છે. તે પ્રમાણે અપી આત્મા, રૂપી કર્મોને આધાર છે.” ૧ અથવા–જેવી રીતે–સંકેચવું આદિ અમૂર્ત કિયાની સાથે આંગલી આદિ મૂર્ત દ્રવ્યને સમ્બન્ધ હોય છે તે પ્રમાણે જીવ અને કર્મને સમ્બન્ધ સમજી લેવું જોઈએ. અથવા જેવી રીતે આ બાહ્ય શરીર જીવની સાથે સંબદ્ધ છે. તે પ્રત્યક્ષથી સિદ્ધ છે. તે પ્રમાણે ભાવાન્તરમાં જતા જીવની સાથે કામણ શરીરને સંબંધ છે. અથવા તે એમ કહેવામાં આવે કે જીવની સાથે બાહ્ય શરીરને સમ્બન્ધ હેવામાં ધર્મ અને અધર્મ કારણ છે તે પ્રશ્ન ઉભો થાય છે. કે—ધર્મ અધમ મૂર્ત છે કે અમૂર્ત છે? જે તે મૂર્ત છે એમ કહે તે અમૂર્ત જીવની સાથે તેને સંબંધ કેવી રીતે ? Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ कर्मवादिप्र० तयोरप्यमूर्तेन जीवेन कथं सम्बन्धः १, यदि कथञ्चित् सम्बन्धस्तर्हि कर्मणोऽपि जीवेन सह सम्बन्धः कुतो न स्यात् । यद्यमूर्ती धर्माधर्मौ तर्हि वाह्येन स्थूलशरीरेण मूर्तेन सह तयोः कथं सम्बन्धः ? तवमते मुतमूर्तयोः संम्बन्धासंभवात् । यद्यमूर्तयोरपि धर्माधर्मयोर्वाह्यशरीरेण मूर्तेन सह सम्बन्धोऽङ्गीक्रियते तर्हि जीवेन सह कर्मणः सम्बन्धे कथं दोषः ? | ३१५ नन्वमूर्तस्य जीवस्य मूर्तेन कर्मणा कथं सुखदुःखाद्यनुग्रहोपघातौ स्याताम्, न ह्यमूर्तस्याकाशस्य मूर्तेः स्त्रचन्दनाग्निज्वालादिभिरनुग्रहोपघातौ जायेते ? । अगर वे मूर्त है तो अमूर्त जीव के साथ उनका सम्बन्ध कैसे हुआ ?, अगर किसी प्रकार उनका सम्बन्ध हो गया तो कर्म का सम्बन्ध क्यों नहीं हो सकता ? | अंगर धर्म अधर्म अमूर्त हैं तो बाह्य स्थूल और मूर्त शरीर के साथ उनका सम्बन्ध कैसे हो गया ?, आपके मत से मूर्त और अमूर्त का तो सम्बन्ध हो नहीं सकता । अगर अमूर्त धर्म अधर्म का मूर्त शरीर के साथ सम्बन्ध होना स्वीकार करते हो तो जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध मानने में क्या दोष है 21 'शङ्का - अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के द्वारा सुख दुःख आदिरूपं अनुग्रह और उपघात कैसे हो सकता है, मूर्त माला, चन्दन, अग्नि, ज्वाला आदि से अमूर्त आकाश का अनुग्रह और उपघात नहीं होता અથવા કોઈ પ્રકારે તેના સમ્બન્ધ થઈ ગયા તા કર્મોના સમ્બન્ધ શા માટે નહિં થઈ શકે ? અગર ધર્મ અધમ અમૂત છે તે માહ્ય સ્થૂલ અને મૂર્ત શરીરની સાથે તેના સમ્બન્ધ કેવી રીતે થઈ ગયા ? આપના મત પ્રમાણે તે ભૂત અને અમૃતના સમ્બન્ધજ હાઈ શકે નહી. પરન્તુ જો અમૂર્ત ધર્મ-અધના મૃત શરીરની સાથે સમ્બન્ધ થવા તે સ્વીકાર કરતા હા તા જીવની સાથે કર્મના સમ્બન્ધ માનવામાં દોષ શું છે ? શંકા-અમૂર્ત જીવના, મૂર્ત કાઁદ્વારા સુખ-દુઃખ આદિશ્ય અનુગ્રહ અને ઉપઘાત કઈ રીતે થઈ શકે ? મૂર્ત માળા ચન્દન, અગ્નિ, વાળા આદિથી અમૃત આકાશના અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થઈ શકતેા નથી. Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारांगसूत्रे शणु-यथामदिरापानैर्विषपिपीलिकादिभिर्भक्षितैरमूर्तानामपिधृतिस्मृति-मेधादीनामात्मगुणानामुपघातो जायते, " मेधां पिपीलिका हन्ति " इत्यादिवचनात् , तथा पय शर्कराघृतादिभिश्वानुग्रहः क्रियते तथैवामूर्तस्यात्मनो मुर्तेन कर्मणानुग्रहोपघातौ जायेते । इदं च जीवस्यामूर्तत्वमङ्गीकृत्य समाहितम् , न ह्येकान्तरूपेणाऽमूर्त एवात्मा किन्तु वह्नययोगोलकवत् क्षीरनीरवच्च कार्मणशरीराभेदरूपतां प्राप्तः कथञ्चिन्मूर्तोऽपीति । तस्य मूर्तेन कर्मणानुग्रहोपघातौ भवत एव । आकाशस्य तु तौ न भवतः, तस्यैकान्तरूपेणामूर्तत्वादचेतनत्वाच । समाधान-सुनिये असे-मदिरा का पान करने से, विषभक्षण से और कीडी आदि के खाये जाने से अमूर्त धैर्य, स्मृति और बुद्धि आदि आत्मिक गुणों का उपघात होता है, “ मेधां पिपीलिका हन्ति " इत्यादि वचन से, तथा दूध, शक्कर और घृत आदि से अनुग्रह होता है, उसी प्रकार अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म द्वारा अनुग्रह और उपघात होता है । जीव को अमूर्त अङ्गीकार करके यह समाधान किया है, किन्तु जीव एकान्तरूप से अमूर्त नहीं है। क्षीर-नीर को तरह अथवा अग्नि और लोहे के गोले की तरह आत्मा कार्मणशरीर से कथञ्चित् अभिन्न है, अत एव मूर्त भी है। कर्मलिप्त आत्मा मूर्त होने के कारण मूर्त कर्मों से उसका अनुग्रह और उपघात होता ही है । हा ! आकाश का अनुग्रह और उपघात नहीं होता, क्यों कि वह एकान्ततः अमूर्त और अचेतन है। સમાધાન–સાંભળે! જેમ મદિરાનું પાન કરવાથી, વિષભક્ષણથી, અથવા કીડી આદિ પેટમાં ખાઈ જવામાં આવવાથી અમૂર્ત ધય, અને બુદ્ધિ આદિ આધ્યાત્મિક गुणनो उपधात थाय छे. "मेधां पिपीलिका हन्ति" त्या क्यनाथी, तथा दूध, સાકર અને ઘી આદિથી અનુગ્રહ થાય છે, તે પ્રમાણે અમૂર્ત આત્માને મૂર્ત કર્મ અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થાય છે. જીવને અમૂર્ત અંગીકાર કરીને આ સમાધાન કર્યું છે, પરંતુ જીવ એકાન્તથી અમૂર્ત નથી. ક્ષીર-નીરની પ્રમાણે અથવા અગ્નિ અને લોઢાના ગોળાની માફક આત્મા કામણશરીરથી કથંચિત્ અભિન્ન છે. આ કારણથી મૂર્ત પણ છે. કર્મલિપ્ત આત્મા મૂર્ત હોવાના કારણે મૂર્ત કર્મોથી તેને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થાયજ છે. હા ! આકાશને અનુગ્રહ અને ઉપઘાત થતું નથી, કારણ કે તે એકાન્તથી અમૂત અને અચેતન છે. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५ कर्मवादिप्र० ____३१७ ____ (५) कर्मणोऽनादित्वम्अनादिः कर्मणः प्रवाहः। शरीरकर्मणोः परस्परं कार्यकारण भावात् , बीजाकुरवत् । यथा वीजादकरो जायते, अङ्कुरादपि क्रमेण वीजमुपजायते । एवं शरीरात् कर्म जायते कर्मतस्तु शरीरमित्येवं पुनः पुनरपि परस्परमनादिकालतः कार्यकारणभावसद्भावोऽस्ति । इह ययोः परस्परं कार्यकारणभावस्तयोरनादि प्रवाहो दृश्यते यथा बीजाङ्करयोः, यथा वा कुक्कुटाण्डयोः, तथा शरीरकर्मणोरनादिप्रवाह इति । (५) कर्मों का अनादिपन कर्मों की परम्परा अनादिकालीन है, क्यों कि शरीर और कर्म का परस्पर कार्यकारणभाव है, जैसे बीज और अंकुर का । तात्पर्य है कि जैसे बीज से अंकुर उत्पन्न होता है, और अंकुर से क्रमशः बीज की उत्पत्ति होती है, इसी प्रकार शरीर से कर्म और कर्म से शरीर उत्पन्न होता है । यह पारस्परिक कार्यकारणभाव अनादि काल से चला आता है । जिन दो पदार्थों में परस्पर कार्य-कारणभाव होता है उनका प्रवाह अनादिकालीन देखा जाता है, जैसे पूर्वोक्त बीज और अंकुर का, अथवा मुर्गी और अण्डे का । इस प्रकार शरीर और कर्म का प्रवाह अनादिकालीन है। (4) इनुिमYि :કર્મોની પરંપરા અનાદિકાલીન છે. કારણ કે શરીર અને કર્મોને પરસ્પર કાર્ય. કારણભાવ છે, જેવી રીતે બીજા અને અંકુરને. તાત્પર્ય એ છે કે-જેવી રીતે બીજથી અંકુર ઉત્પન્ન થાય છે, અને અંકુરથી કમશઃ (ક્રમે-કમે) બીજની ઉત્પત્તિ થાય છે. તે પ્રમાણે શરીરથી કર્મ અને કર્મથી શરીર ઉત્પન્ન થાય છે. આ પરસ્પરને કાર્ય– કારણ ભાવ અનાદિ કાલથી ચાલ્યા આવે છે. જે બે પદાર્થોમાં પરસ્પર કાર્ય-કારણભાવ હોય છે તેને પ્રવાહ અનાદિકાલીન લેવામાં આવે છે. જેવી રીતે પૂર્વ કહેલ બીજ અને અંકુરને, અથવા મરઘી અને ઈડાને, એ પ્રમાણે શરીર અને કર્મને પ્રવાહ અનાદિકાલીન છે. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ (६) अकर्मवादिमतनिराकरणम् " , यः पुनरदृष्टं कर्म नास्तीति मन्यते स च नास्तिकः प्रष्टव्यः - अयमदृष्टाभावः किम् अप्रत्यक्षत्वात्, विचाराक्षमत्वात् साधकाभावाद् वा मन्यसे १ अप्रत्यक्षत्वान्नादृष्टाभावः सिध्यति, यतस्तव यदप्रत्यक्षं तन्नास्तीति स्वीकारे त्वदीयपितामहादेरप्यभावः स्यात् तस्य त्वज्जन्मतः पूर्वमेवातीतत्वेन तवा प्रत्यक्षत्वात् । तथा च भवन्मते पितामहादेरतीत कालिकसत्ताया अभावेन भवतोऽपि सत्ता कथमुपपद्येत ? | 1 (६) अकर्मवादी के आचाराङ्गसूत्रे मत का निराकरण - जो नास्तिक यह मानता है कि - अदृष्ट कर्म का सद्भाव नहीं है, उससे पूछना चाहिए कि- तुम अदृष्ट के अभाव को क्यों मानते हो ? प्रत्यक्ष न होने से, विचार को सहन न करने से अर्थात् विचारके योग्य नही होने से, या साधक प्रमाणों का अभाव होने से अदृष्ट का अभाव कहते हो ? प्रत्यक्ष न होने मात्र से अदृष्ट का अभाव तुम्हे प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता वह होता ही नहीं है, सिद्ध नहीं हो सकता । जो ऐसा मान लिया जाय तो तुम्हारे पितामह आदि का भी अभाव हो जायगा । वह तुम्हारे जन्म से पहले ही गुजर चुके है, अतः तुम्हें प्रत्यक्ष दिखाई नहीं दे सकते । ऐसी अवस्था में तुम्हारे पितामह आदि की भूतकालीन सत्ता का अभाव होजाने के कारण तुम्हारी सत्ता भी खतरे में पड जायगी । (१) अर्भवाहीना भतनुं निराहरण ने नास्तिष्ठ भेतुं माने छे :- दृष्टना सद्भाव (अस्तित्व) नथी, तेभने પૂછવું જોઈએ કે–તમે અદૃષ્ટના અભાવ શા માટે માના છે ? પ્રત્યક્ષ નહી હોવાથી, વિચારને સહન નહી કરવાથી અર્થાત્—વિચારવાયાગ્ય નહિ હાવાથી, અથવા સાધક પ્રમાણેાના અભાવ હાવાથી અદૃષ્ટના અભાવ કહેા છે? પ્રત્યક્ષ નહી હૈાવા માત્રથી અષ્ટને અભાવ સિદ્ધ થઈ શકતા નથી, જે વસ્તુ તમને પ્રત્યક્ષ જોવામાં ન આવે તે વસ્તુ હાયજ નહી, એ પ્રમાણે જો માની લેશે તે તમારા પિતામહ (બાપને ખાપ) આદિને અભાવ થઈ જશે, કારણ કે તે તમારા જન્મતા પહેલાજ ગુજરી ગયા છે તેથી તમને તે પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવતા નથી, એવી અવસ્થામાં તમારા પિતામહ આદિની ભૂતકાલીન સત્તાને અભાવ થઈ જવાથી तभारी भत्ता भुतरामां (लयमां) पडी ४शे. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१सू.५ कर्मवादिप्र० ___अथ सर्वप्रमातणां यदप्रत्यक्षं तन्नास्तीत्यपि न संभवति । यतः सर्वमतीन्द्रियं वस्तु सर्वप्रमातॄणां प्रत्यक्षं न भवति, तादशज्ञानशक्तेरभावात् । अस्माभिस्तु समस्तभावावभासनभास्करः सर्वज्ञः स्वीक्रियते । विचाराऽक्षमत्वमपि न युक्तं, कर्कश(दुर्धर्ष)तस्तय॑माणस्य कर्मणः सद्भावसंभवात् । साधकाभावादपि नादृष्टाभावः, पूर्वोक्तागमानुमानयोस्तत्साधकयोः सत्त्वात् । यथा च-शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्येत्यागमः । शुभयोगः पुण्यस्य, अशुभयोगः पापस्य कारणमित्यर्थः। अगर कहा जाय कि एक-दो के अप्रत्यक्ष होने से किसीका अभाव नहीं होता वरन् जो वस्तु सभी के अप्रत्यक्ष है, उसका अभाव होता है। यह कथन भी ठीक नहीं है, क्यों कि सब अतीन्द्रिय वस्तुएँ सब प्रमाताओं के प्रत्यक्ष नहीं होती, इसका कारण विशिष्ट ज्ञानशक्ति का अभाव है। मगर हम लोग तो समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने में सूर्य के समान सवेज्ञ स्वीकार करते हैं। ___ अदृष्ट, विचार को सहन नहीं करता अर्थात् विचारने के योग्य नहीं है, यह कथन भी युक्त नहीं, कठोर तकौं द्वारा विचार करने से कर्म का अस्तित्व सिद्ध हो ही जाता है। साधक प्रमाणों का अभाव होने से कर्म का अभाव बतलाना भी ठीक नहीं, क्यों कि पूर्वोक्त आगम और अनुमान प्रमाण उसका - सद्भाव सिद्ध करते हैं । 'शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य' यह आगमप्रमाण है। अर्थात् शुभयोग पुण्य का और अशुभ योग पाप का कारण होता है। અથવા કહેશે કે એક–એના અપ્રત્યક્ષ હોવાથી કેઈને અભાવ થતો નથી. પરતું જે વસ્તુ સર્વને અપ્રત્યક્ષ છે તેને અભાવ હોય છે. એમ કહેવું તે પણ ઠીક નથી, કારણ કે સર્વ અતીન્દ્રિય વસ્તુઓ પ્રમાતાઓને પ્રત્યક્ષ થતી નથી. તેનું કારણ વિશિષ્ટ જ્ઞાનશક્તિને અભાવ છે. અથવા અમે તે સમસ્ત પદાર્થોને પ્રકાશિત કરવામાં સૂર્યના સમાન સર્વગ્નને સ્વીકાર કરીએ છીએ. અદષ્ટ, વિચારને સહન કરતા નથી અર્થાત વિચારવા યોગ્ય નથી, એમ કહેવું તે પણ યુક્ત નથી, કઠિન તર્કો દ્વારા વિચાર કરવાથી કમનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થઈ जय छे. સાધક પ્રમાણોનો અભાવ હોવાથી કર્મોનો અભાવ બતાવો તે પણ ઠીક નથી; કારણ કે પૂર્વોક્ત આગમ અને અનુમાન પ્રમાણ તેને સદ્ભાવ (અસ્તિત્વ-હેવાપણું) सिद्ध २ छे. शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य' से मामा छ, अर्थात् शुभ योग પુણ્યનું અશુભ ચોગ પાપનું કારણ હોય છે. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० आचारागसूत्रे कार्यविशेषेण कारणस्यानुमानं भवति यथा कार्यविशेषः सकारणकः, कार्यत्वात् , कुम्भवत् । उक्तञ्च " तुल्याकृत्योश्च यमयो,-दश्यते महदन्तरम् । चारित्र-वीर्य-विज्ञान,-चराग्या-रोग्य-संपदाम् " ॥१॥ इति । अदष्टरूपकारणमन्तरेणेदं महदन्तरं न संभवति, तस्मादवश्यं स्वीकरणीयं कर्म । (७) बन्धस्वरूपनिरूपणम्अत्र वन्धशब्देन भाववन्धो गृह्यते, न तु निगडादिवन्धरूपो द्रव्यवन्धः। वन्धनं वन्धः। कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलस्कन्धानामात्मप्रदेशानां च परस्परं क्षीर कार्यविशेष से कारण का अनुमान होता है। जैसे-इस कार्य का कोई कारण है, क्यों कि कार्य है, जैसे-घट, कहा भी है-- “समान आकृति वाले यमल (जोडलो सन्तान ) में चारित्र, वीर्य, विज्ञान, वैराग्य, और सम्पत्ति का महान् अन्तर दिखाई देता है " ॥१॥ अदृष्टरूप कारण के विना यह महान् अन्तर नहीं हो सकता, अत एव कर्म अवश्य स्वीकार करना चाहिए। (७) वन्ध के स्वरूपका निरूपणवन्ध-शब्द से यहा भाववन्ध का ग्रहण करना चाहिए। वेडी आदि द्रव्यबन्धका नहीं । कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्धों का और आत्मप्रदेशों का आपस में दूध કાર્ય–વિશેષથી કારણનું અનુમાન થાય છે જેવી રીતે આ કાર્યનું કેઈ કારણ छे, २९ आर्य छ, रवी शत घट. ४यु पर छ ___ 'समान माइति वाणां यमद-236i संतानमा यारित्र, वीय, विज्ञान, वैराश्य, આરોગ્ય અને સમ્પત્તિનું મહાન અંતર જોવામાં આવે છે... ૧ અદg૫ કારણ વિના આ મહાન અખ્ત હોઈ શકે નહિ, એ કારણથી કર્મના અવશ્ય સ્વીકાર કરી લેવું જોઈએ. (७) स्वरूप नि३५४બંધ-શબ્દથી અહિં ભાવ-બંધનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ, બેડી આદિ દ્રવ્યબંધનું નહિ, કર્મવર્ગણને એગ્ય પુદગલસ્કન અને આત્મ-પ્રદેશને પરસ્પર દૂધ અને Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५. कर्मवादिप्र० ३२१ नीरवत् सम्बन्धो बन्धः । यद्वा-वध्यते = अस्वातन्त्र्य मापद्यते आत्मा येन, सबन्धः । ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मपुद्गलानामवस्थानं हि जीवस्याऽनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूप सामर्थ्यप्रतिबन्धकतया स्वातन्त्र्यविघातकं भवति । यद्यपि निश्चयनयेन रागद्वेषरहितोऽयमात्मा, तथाप्यसौ व्यवहारनयेन रागद्वेषरूपभावकर्मणां ज्ञानावरणीयादिद्रव्यकर्मणां च कर्ता भवति । आत्मसंलग्नशरीरावगाहनक्षेत्रावस्थितकर्मवर्गणायोग्य पुद्गलस्कन्धाः स्वकीयोपादानकारणशक्त्यैव कर्मरूपामवस्थां प्राप्नुवन्ति । ते च कर्मपुद्गला आत्मप्रदेशैः सह परस्परमेक क्षेत्रावगाहरूपं बन्धं क्षीरनीरवत् प्राप्नोति । यथा समुड्डीयमानानि रजांसि और पानी की तरह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है । आत्मा जीव जिस के द्वारा बाँधा जाय=पराधीन किया जाय, वह बन्ध है | ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों की स्थिति, जीव के अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यरूप सामर्थ्य में बाधक होने के कारण स्वतन्त्रता का घात करने वाली है । यद्यपि निश्चयनय से आत्मा राग-द्वेष से रहित है, किन्तु व्यवहारनय से राग-द्वेषरूप भावकर्मों का, तथा ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों का कर्ता है । जिस आकाशक्षेत्र में आत्मा से संबद्ध शरीर है, इसी आकाशक्षेत्र में स्थित कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कन्ध, अपनी उपादानकारण-शक्ति से ही कर्मरूप अवस्था को प्राप्त करते है । वे कर्म पुद्गल आत्मप्रदशों के साथ परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप बन्ध को क्षीर-नीर की नाई प्राप्त होते है। जैसे-उडती हुई रज, तेल से चिकने घडे आदि पर चिपक जाती है, પાણીની પ્રમાણે સમ્બન્ધ થઈ જવા તે બંધ છે. આત્મા-જીવ જેના દ્વારા બંધાઈ જાય–પરાધીન થઈ જાય. તે મધ છે. જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોની સ્થિતિ, જીવના અનન્ત જ્ઞાન, દર્શન સુખ અને વીરૂપ સામર્થ્યમાં ખાધક હોવાના કારણે સ્વતત્રતાના ઘાત કરવા વાળી છે. જો કે નિશ્ચયનયથી આત્મા રાગ–દ્વેષથી રહિત છે, પરન્તુ વ્યવહારનયથી રાગ– દ્વેષરૂપ ભાવકર્માના, તથા જ્ઞાનાવરણ આદિ દ્રવ્યકર્માના કોં છે. જે આકાશક્ષેત્રમાં આત્માથી સમૃદ્ધ શરીર છે, તે આકાશક્ષેત્રમાં સ્થિત (રહેલા) કમ–વગણાના ચાગ્ય પુદ્ગલસ્કંધ, પાતાની ઉપાદાન કારણુ–શક્તિથી જ કરૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે, તે કર્મ પુદ્ગલ આત્મપ્રદેશાની સાથે પરસ્પર એકક્ષેત્રાવગાહરૂપ મધને ક્ષીર–નીરના ન્યાય પ્રમાણે પ્રાપ્ત થાય છે; જેવી રીતે ઉડતી રજ. તેલના ચિકણા ઘડા સ્માદિને प्र. आ. ४१ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ आचाराङ्गसूत्रे तैलस्निग्धे घटादौ संश्लिष्टानि भवन्ति, तथा रागद्वेपरूपतैल स्निग्धमलिनात्मप्रदेशेषु कर्म वर्गणा योग्य पुद्गलाः स्वकीयोपादानशक्त्या ज्ञानावरणीयादिकर्मरूपामवस्थां प्राप्य संश्लिष्टा भवन्ति । औदारिक-वैक्रिया परमाणुरूपा द्विप्रदेशिप्रभृतिस्कंन्धरूपाश्च पुद्गला - ऽऽहारक - तैजस-भाषा-श्वासोच्छास - मनः कार्मण - भेदादष्टविधाः । तत्र कर्म - वर्गणापुद्गला अपि समस्तलोकं व्याप्य वर्तन्ते, यत्र संसारिणां शरीराणि सन्ति, तत्रापि तद्बहिश्चापि सर्वत्र ते वर्तन्ते, तत्र कर्मयोग्यपुद्गला आत्मना परिगृहीताः कर्मरूपेण परिणता भवन्ति । रागद्वेषपरिणत्याऽऽर्द्रीकृतस्यात्मनो मनोवाक्कायरूपकरणसाहाय्येन उसी प्रकार राग-द्वेषरूपी तेल से चिकने मलिन आत्मप्रदेशों मे, कर्म वर्गणा के योग्य पुद्गल, अपनी–अपनी उपादानशक्ति से ज्ञानावरण आदि कर्म-रूप अवस्था को प्राप्त कर के चिपक जाते हैं । परमाणुरूप और द्विप्रदेशी वगैरह स्कन्धरूप पुद्गल तैजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण के भेद से आठ से कार्मणवर्गणा के पुद्गल भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है । जहां संसारी जीवों के शरीर हैं, वहां भी है, और बाहर भी सर्वत्र है । ये कर्मयोग्य पुद्गल आत्माद्वारा जब ग्रहण किये जाते हैं तब कर्मरूप में परिणत हो जाते है । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, प्रकार के होते हैं। इन में राग-द्वेषरूप परिणति से युक्त आत्मा का, मन, वचन, काय, की सहायता से ચાંટી જાય છે, તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષ રૂપી તેલથી ચિકણા અને મલિન આત્મપ્રદેશામાં ક વણાયેાગ્ય પુઠૂગલ પેાત–પેાતાની ઉપાદાનશક્તિથી જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મ રૂપ અવસ્થા પ્રાપ્ત કરીને ચોંટી જાય છે. પરમાણુરૂપ અને દ્વિ–પ્રદેશી વગેરે સ્ટ’ધરૂપ પુદ્ગલ ઔદારિક, વૈક્રિય, આહારક. તૈજસ, ભાષા, શ્વાસેાચ્લાસ, મન અને કાણુના ભેદથી આઠ પ્રકારના હોય છે. તેમાંથી કાણુવાના પુદ્ગલ પશુ સ`પૂર્ણ લેાકમાં વ્યાપ્ત છે. જ્યાં સંસારી જીવાનાં શરીર છે ત્યાં પણ છે અને બહાર સર્વત્ર પણ છે. તે કમચૈાગ્ય પુદ્ગલ આત્માદ્વારા જ્યારે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે ત્યારે તે કરૂપમાં પિરણત થઈ જાય છે. રાગ-દ્વેષરૂપ પરિણતિયુક્ત આત્માની મન, વચન અને કાયાની સહાયતાથી Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.१ २.५ कर्मवादिम० वीर्यगुणपरिणामात्मिका शुभाशुभक्रिया भवति । इयं क्रिया चात्मनः प्रदेशानां परिस्पन्दः, कम्पनं, व्यापारो, योग इति चोच्यते । इयमेव मनोवाक्काययोग इति च कथ्यते । इयमात्मनो ज्ञानावरणाद्यष्टकर्ससम्बन्धरूपे बन्धे हेतुश्च । आत्मनः शुभाशुभक्रियायां सत्यामात्मसंलग्नानादिकार्मणशरीरेणात्माऽनन्तानन्तप्रदेशिस्कन्धरूपांश्चतुःस्पर्शान् कर्मयोग्यपुद्गलानादाय कार्मणशरीरतया परिणमयति । आत्मसंलग्नं यदनादि कार्मणशरीरं, तद्धि आत्मैक्यात् कर्मयोग्यपुद्गलानां ग्रहणे स्वाधीनकरणे स्वस्मिन्नेकत्वपरिणामकरणे च समर्थ भवति । अनादिकार्मणशरीरसम्बन्धादेव संसारी जीवो मूर्तोऽस्ति । मूर्तत्वादेव च तस्य पौगलिककर्मसम्बन्धो भवति । वीर्यगुण के परिणमनरूप शुभा-शुभ क्रिया होती है । इस क्रिया को आत्मा के प्रदेशों का परिस्पन्दन, कम्पन, व्यापार या योग कहते है। यही मन, वचन और काय का योग कहलाता है । यही क्रिया ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के बन्ध का कारण है । आत्मा की जब शुभ या अशुभ क्रिया होती है तो आत्मा के साथ पहले से बंधे हुए कार्मणशरीर के द्वारा आत्मा, अनन्तानन्तप्रदेशी-स्कन्धरूप; चौस्पर्शी कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण कर के कार्मणशरीर के रूप में परिणत करता है । आत्मा से सम्बद्ध अनादिकालीन कार्मणशरीर आत्मा के साथ एकमेक होने के कारण कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने में, अपने अधीन करने में और अपने साथ एकमेक करलेने में समर्थ होता है । अनादिकालीन कार्मणशरीर के सम्बन्ध से ही संसारी जीव मूर्त है, और मूर्त होने के कारण ही उसका पौद्गलिक कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है। વીર્યગુણના પરિણમનરૂપ શુભાશુભ કિયા થાય છે. તે કિયાને આત્માના પ્રદેશનું પરિસ્પન્દન, કમ્પન, વ્યાપાર અથવા પેગ કહે છે. આજ મન વચન અને કાયાને ચોગ કહેવાય છે. આ ક્રિયા જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોના બંધનું કારણ છે. આત્માની જ્યારે શુભ અથવા અશુભ કિયા થાય છે તે આત્માની સાથે પહેલાથી બાંધેલા કામણશરીર દ્વારા આત્મા અનંતાનન્તપ્રદેશી-કંધરૂપ, ચૌસ્પર્શી કમોગ્ય પગલેને ગ્રહણ કરીને કાર્યણશરીરના રૂપમાં પરિણત કરે છે. આત્માથી સંબદ્ધ અનાદિકાલીન કામણુશરીર આત્માની સાથે એકમેક હોવાના કારણે કર્મષ્ય પગલેને ગ્રહણ કરવામાં, પોતાના આધીન કરવામાં અને પિતાની સાથે એકમેક કરી લેવામાં સમર્થ થાય છે. અનાદિકાલીન કાણુશરીરના સંબંધથી જ સંસારી જીવ મૂર્ત હેવાના કારણે જ તેને પૌગલિક કર્મોની સાથે સમ્બન્ધ થાય છે. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आचारागसूत्रे यथा दीपक ऊष्मगुणयोगाद् वर्तिद्वारा तैलमादाय ज्वालारूपेण परिणमयति तथा रागद्वेषोष्मगुणसम्बन्धान्मनोवागादियोगवाऽऽत्मदीपः कर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धतैलमादाय कर्मज्वालारूपेण परिणतं करोति । मनोवागादिरूपकरणसंयोगादात्मनो वीर्यपरिणामो भवति, अतो मनोवागादिव्यापारोयोगशब्देनोच्यते। यथा मृन्मयघटस्याग्निसंयोगाद् रक्तत्वादिपरिणतिर्घटस्यैव भवति तथा मनोवागादिसंयोगात् शुभाशुभक्रियारूपा वीर्यपरिणतिरात्मन एव भवति, न तु पुद्गलरूपमनोवागादेः । यथा च तैलाभ्यक्ते शरीरे जलार्दै वस्त्रे वा धूलिराश्लिष्टा भवति, तथा जैसे-दीपक उष्मागुण के कारण बत्तीद्वारा तैल ग्रहण कर के ज्वाला के रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार राग-द्वेष रूप उष्मागुणके सम्बन्ध से मन, वचन आदि योगों की वत्ती द्वारा आत्मरूपी दीपक कर्मयोग्यपुद्गलस्कन्धरूप तैल को ग्रहण कर के कर्मरूप ज्वाला मे परिणत कर लेता है। मन, वचन और कायरूप करण के द्वारा आत्मा का वीर्यरूप परिणमन होता है । इसीलिए मन, वचन, आदि का व्यापार योग कहलाता है । जैसे -अग्नि के संयोग से मिट्टी के घडे की ललाई आदिरूप परिणति होती है, और वह घडे की ही कहलाती है, उसीप्रकार मन, वचन आदि के संयोग से शुभा-शुभक्रियारूप वीर्य की परिणति आत्मा की ही होती है, पुद्गलरूप मन, वचन आदि की नहीं । जैसे तेल से लिप्त शरीर पर या भीगे हुए वस्त्र पर धूल लग जाती है, જેવી રીતે દીપક ઉમાગુણના કારણે બત્તી દ્વારા તેલને ગ્રહણ કરીને જવાળાના જપમાં પરિણત કરે છે તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષરૂપ ઉષ્માગુણના સમ્બન્ધથી મન વચન આદિ ગેની બત્તી દ્વારા આત્મારૂપી દીપક કર્મચગ્ય-પુગલસ્કંધરૂપ તેલને ગ્રહણ કરીને કમરૂપ જ્વાલામાં પરિણત કરી લે છે. મન, વચન અને કાયારૂપ કરણદ્વારા આત્માનું વીર્યરૂપ પરિણમન થાય છે; એ કારણથી મન, વચન આદિને વ્યાપાર ચેગ કહેવાય છે. જેવી રીતે અગ્નિના સંગથી માટીના ઘડાની જ લાલી (રાતાશપણું) રૂપ પરિણતિ થાય છે, અને તે ઘડાની જ કહેવાય છે. તે પ્રમાણે મન, વચન આદિના સંગથી શુભા-શુભક્રિયારૂપ વીર્યની પરિણતિ આત્માની જ થાય છે. પુદ્ગલરૂપ મન, વચન આદિની નહિ. જેવી રીતે તેલથી લિપ્ત શરીર પર, અથવા ભિંજાએલા વસ્ત્ર પર ધૂળ લાગી જાય છે. તે પ્રમાણે રાગ-દ્વેષરૂપી તેલથી યુક્ત આત્માના કામેણુશરીરરૂપ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० ३२५ रागादिरूपतैलाभ्यक्तस्यात्मनः कार्मणशरीरपरिणामो नवीनकर्मग्रहणे योग्यतां संपादयति। आत्मशरीरयोरैक्ये सति सम्यग्ज्ञानाभावरूपानाभोगवीर्यतः कर्मबन्धो भवति । इत्थं कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानां ज्ञानावरणीयादिकर्मतया परिणतानां सकषायस्यात्मनः सकलप्रदेशेषु लोलीभावो वन्ध इति बोध्यम् । (८) वन्धकारणनिरूपणम्वन्धस्य पश्च साधारणकारणानि मिथ्यात्वाऽ-विरति-प्रमाद-कषाय-योगभेदात् । तत्रातत्त्वे तत्वाध्यवसायरूपो विपरीतावबोधो मोहकर्मोदयजनित आत्मपरिणामो मिथ्यालम् । यद्वा-कुदेव-कुगुरु-कुधर्मष्वभिरुचिरूपमतत्त्वार्थश्रद्धानं उसी प्रकार राग-द्वेषरूपी तेल से युक्त आत्मा का कार्मणशरीररूप परिणाम नवीन कर्मों को ग्रहण करने में योग्य हो जाता है । आत्मा और शरीर के एकमेक होने पर सम्यग्ज्ञान के अभावरूप अनाभोग वीर्य से कर्मबन्ध होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मरूप में परिणत कार्मणवर्गणाओं के योग्य पुद्गलो का कषाययुक्त-आत्मा के समस्त प्रदेशों में एकमेक हो जाना बन्ध है। (५) बन्धके कारणबन्ध के साधारण कारण पांच हैं-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, और (५) योग । अतत्त्व को तत्त्व समझनेरूप मोहनीयकर्मजन्य विपरीतज्ञानरूप आत्मपरिणाम को मिथ्यात्व कहते है, अथवा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म में रुचिरूप अतत्त्व का પરિણામ નવીન કર્મો ગ્રહણ કરવામાં યોગ્ય થઈ જાય છે. આત્મા અને શરીરના એકમેક થવાથી સમ્યજ્ઞાનના અભાવરૂપ અનાગ વીર્યથી કર્મબંધ થાય છે. એ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મ રૂપમાં પરિણત કાર્મણવર્ગણાના ચડ્યા પુદ્ગલોનું કષાયયુક્ત આત્માના સમસ્ત પ્રદેશમાં એકમેક થઈ જવું તે બંધ છે. (८) धनु २५-- मधना साधा२५ ४।२। पाय छे.-(१) मिथ्याप, (२) मविरति, (3) अभाई, (४) ४षाय माने (५) योग અતત્વને તત્ત્વ સમજવા રૂપ મેહનીય કમીજન્ય, વિપરીતજ્ઞાનરૂપ આત્મપરિણામને મિથ્યાત્વ કહે છે. અથવા કુદેવ કુગુરૂ, અને કુલમમાં રૂચિરૂપ અતત્વની Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ आचारागसत्रे मिथ्यात्वम् १ । सावधयोगेपु प्रवृत्तिरविरतिः२ । सदुपयोगाभावः प्रमादः, मोक्षमार्ग प्रति शैथिल्यं वा प्रमादः३। कष्यते पुनःपुन्मर्जन्ममरणादिक्लेशोऽनुभूयते येन स कपायः, मोहनीयकर्मोदयजनित आत्मपरिणतिविशेषः, यद्वा-कष्यते यत्र शारीरिकमानसिकदुखैः, स कपः-संसारः, तस्य आयः-प्राप्तिकारणं कषायः= क्रोधादि ४ । युज्यते-आत्माऽनेनेति योगः मनोवाक्कायव्यापाररूप: ५। उक्तञ्च ___ "पंच आसवदारा पणत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं १, अविरई २, पमाया ३, कसाया ४, जोगा ५"। (समवा० समवाय ५) 'आसवदारा' इति-आस्त्रवो वन्धकारणम् । श्रद्धान मिथ्यात्व कहलाता है ? । सावध योगों में प्रवृत्ति करना अविरत्ति है २ । सम्यक् उपयोग (यतना) का अभाव प्रमाद कहलाता है, या मोक्षमर्ग के विषय में शिथिलता होना प्रमाद है ३ । जिस के द्वारा आत्मा कपा जाय अर्थात् वारंवार जन्म-मरण का क्लेश भोगा जाय उसे कषाय कहते है । कपाय, मोहकर्म से उत्पन्न आत्मा की एक परिणति है । अथवा - जहाँ शारीरिक एवं मानसिक दुःखो से जीव कषा जाय (युक्त हो) उसे कप अर्थात् संसार कहते है और उस कष (संसार) की आय-प्राप्ति जिस से हो वह कपाय कहलाता है ४ । जिस से आत्मा व्याप्त हो, ऐसा मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है ५ । कहा है "पंच आसवदारा पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया, जोगा"। (समवायाग, समवाय ५) यहाँ 'आसवदारा' का अर्थ है-आश्रव के द्वार अर्थात् वन्धके कारण । શ્રદ્ધા તેને મિથ્યાત્વ કહે છે (૧). સાવદ્ય ગોમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તે અવિરતિ છે (૨). સમ્યક્ ઉપગને અભાવ તે પ્રમાદ કહેવાય છે, અથવા મેક્ષમાર્ગના વિષયમાં શિથિલતા થવી તે પ્રમાદ છે (૩). જેના દ્વારા આત્મા કષાય અર્થાત્ વારંવાર જન્મ મરણને કલેશ ભેગવવાય તેને કષાય કહે છે. કષાય, મેહ કમથી ઉત્પન્ન આત્માની એક પરિણતિ છે. અથવા–જ્યાં શારીરિક અને માનસિક દુઃખોથી જીવ કષાય અર્થાત્ પીડાય તેને કષ અર્થાત્ સંસાર કહે છે, અને તે સંસારની આય–પ્રાપ્તિ જેનાથી હોય તે કષાય કહેવાય છે (૪). જેનાથી આત્મા વ્યાપ્ત હોય એવા મન, वयन भने याना व्यापार ते योग हेवाय छे. (५), थु छ : "पंच आसवदारा पण्णत्ता, तंजहा-मिच्छत्तं, अविरई, पमाया, कसाया जोगा." (सभपायांग, समवाय ५,) महिं "आसवदारा" न पथ -माधवना દ્વાર, અર્થાત્ બંધના કારણ. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५, कर्मवादिभ० एषु पञ्चसु कारणेसु कषायः प्रधानम् । स च क्रोधमानमायालोभभेदाचतुर्विधः । चतुर्विधोऽप्ययं कषायो रागद्वेषान्तर्गत एवास्ति । उक्तञ्च __ "दोहिं ठाणेहिं पावकम्मा बंधति, तंजहा-रागेण य, दोसेण य । रागे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-माया य लोभे य । दोसे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-कोहे य माणे य" (स्था० स्थान २ उ०) बन्धश्चतुर्विधः-प्रकृति-स्थित्य-नुभाव-प्रदेशभेदात् । उक्तश्च "चउविहे बंधे पण्णत्ते, तंजहा-पगइबंधे१, ठिइबंधे२, अणुभावबंधे३, पएसबंधे४।" (समवायाङ्ग. समवाय४) इन पांच कारणों में कषाय प्रधान है। क्रोध, मान, माया और लोभ के भेदसे वह चार प्रकार का है। कषाय के ये चारों भेद राग और द्वेष में ही अन्तर्गत हो जाते हैं। कहा भी है " दो स्थानों से पाप कर्मों का बन्ध होता है। वह इस प्रकार--राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का है-माया और लोभ । द्वेष भी दो प्रकार का है-क्रोध और मान" । (स्था० स्थान २ उ. २) बन्ध चार प्रकार का है-(१) प्रकृति-बन्ध, (२) स्थिति बन्ध, (३) अनुभाव-बन्ध; और (४) प्रदेश-बन्ध । कहा भी है "बन्ध चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-(१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभावबन्ध, (४) प्रदेशबन्ध" । ( सम. स. ४) - આ પાંચ કારણેમાં કષાય પ્રધાન છે- મુખ્ય છે. ક્રોધ, માન, માયા અને લોભના ભેદથી તે ચાર પ્રકારના છે. કષાયના તે ચારે ય ભેદ રાગ–અને શ્રેષમાં સમાઈ જાય છે. કહ્યું છે કે – બે સ્થાનેથી પાપકર્મોને બંધ થાય છે. તે આ પ્રમાણે છે-રાગથી અને દ્વેષથી, રાગ બે પ્રકાર છે-માયા અને લોભ. ઠેષ પણ બે પ્રકાર છે-ક્રોધ અને भान" (स्था स्थान २-5. २). म या२ ॥२॥ छ-(१) प्रतिमा, (२) स्थितिमा, (3) मनुमा (४) प्रदेशमध. ४थु ५४ छ ___4°५ या२ ४२ना छे. (१) प्रकृतिमध, (२) स्थितिमाध, (3) अनुसाध, (४) प्रश५५,” (सभ० स. ४) Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ आचाराङ्गसूत्रे तत्र प्रकृतिः-स्वभावः। आत्मपरिगृहीतकर्मपुद्गलानां तच्छक्तिरूपेण परिणमनम् । यथा निम्वस्य तिक्तत्वम् , गुडस्य मधुरत्वम् । प्रकृतिद्विविधा-मूलप्रकृतिः, उत्तरप्रकृतिश्च । मूलरूपः कर्मणः स्वभादो मूलप्रकृतिः। मूलप्रकृतिरष्टधा-ज्ञानावरणीय१ - दर्शनावरणीय२ - वेदनीय३ - मोहनीया४-ऽऽयुष्य५-नाम६-गोत्रान्तराय८-भेदात् । उक्तञ्च___"अट्ठ कम्मपगडीओ पणत्ताओ, तंजहाणाणावरणिज्ज१, दंसणावरणिज्जर, वे यणिज३ मोहणिज्ज४, आउय५, नाम६, गोयं७, अंतराइयं८"। (मज्ञापना० पद-२१ उ. १ सू. २८८) प्रकृति अर्थात् स्वभाव । आत्मा के द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों में अमुकअमुक प्रकार की शक्ति (स्वभाव) उत्पन्न हो जाना प्रकृतिवन्ध है । जैसे-नीम में कटुकता और गुड में मधुरता होती है। प्रकृति दो प्रकार की है-मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति । कर्म का मूल स्वभाव मूलप्रकृति कहलाती है । मूलप्रकृति के आठ भेद है-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोंत्र, और (८) अन्तराय । कहा भी है: "आठ कर्मप्रकृतियां है, वे इस प्रकार-(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयुष्य, (६) नाम, (७) गोत्र, (८) अन्तराय ।" (प्रज्ञा. पद २१ उ. १ सू. २८८ ) પ્રકૃતિ અર્થાત્ સ્વભાવ,આત્માદ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મયુગલોમાં અમુકઅમુક પ્રકારની શક્તિ (સ્વભાવ) નું ઉત્પન્ન થઈ જવું તે પ્રકૃતિબંધ છે. જેવી રીતે લીંબડામાં કડવાશ અને ગળમાં મધુરતા હોય છે. પ્રકૃતિ બે પ્રકારની છે– (૧) મૂલપ્રકૃતિ અને (૨) ઉત્તરપ્રકૃતિ. કર્મને મૂલ સ્વભાવ તે મૂલપ્રકૃતિ કહેવાય છે. તે મૂલ પ્રકૃતિના આઠ ભેદ છે– (૧) જ્ઞાનાવરણીય, (२) शनापीय, (3) वेनीय, (४) मानीय, (५) गायु, (६) नाम, (७) मात्र मन (८) तशय. युं छे : ____मा ४भप्रकृतिमा छे, ते मा प्रभारी-ज्ञानापाय, शना१२४ीय, वहनीय, भाहनीय, आयुष्य, नाम, मात्र, गत२।५.” (अना. ५६ २१ ९. १ स. २८८) Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० ____ ज्ञानावरणीयं कर्म, जीवस्य ज्ञानगुणमादृणोति१। दर्शनावरणीय कर्म दर्शनगुणम् । वेदनीयकर्म जीवस्याव्यावाधगुणं संरुणद्धि३ । मोहनीयकर्म जीवस्याविरतिं तत्त्वानभिरुचिं च जनयति४। आयुष्यकर्म जीवस्यामरत्वं प्रतिहन्ति५ । नामकर्म जीवस्याऽमूर्तत्वं प्रतिवध्नाति६ । गोत्रकर्म तस्यागुरुलघुगुणं व्याहन्ति७ । अन्तरायकर्म जीवस्यानन्तवीर्यगुणं रुणद्धि८। ___ यथा-गवादिभक्षितणादयो दुग्धरूपेण परिणता भवन्ति, माधुर्यस्वभावः सहैव जायते, स चैतावत्कालपर्यन्तस्थायीति स्थितिसमयमर्यादापि जायते माधुर्ये तीव्रमन्दभावादिविशेषोऽपि भवति, तस्य दुग्धस्य पौद्गलिक (१) ज्ञानावरणीय कर्म जीव के ज्ञानगुणको ढाकता है, (२) दर्शनावरणीयकर्म दर्शनगुणको । (३) वेदनीयकर्म जीव के अव्याबाधगुण को रोकता है और (४) मोहनीयकर्म जीव में अविरति और तत्त्व के प्रति अरुचि उत्पन्न करता है। (५) आयुकर्म जीव की अमरता को रोकता है और (६) नामकर्म जीव के अमूर्तत्व गुण को रोकता है। (७) गोत्रकर्म अगुरु-लघुत्व गुण को नष्ट करता है और (८) अन्तरायकर्म जीव के अनन्त वीर्य का घात करता है। जैसे गायद्वारा खाये हुए तृण आदि दूध रूप में परिणत होते है, और उन में मधुरता का स्वभाव भी साथ ही उत्पन्न हो जाता है। उस में अमुक कालपयत ठहरने की स्थिति-मर्यादा भी उत्पन्न हो जाती है, और मधुरता में तीव्रता यो मन्दता की विशेषता भी आजाती है। उस दूध का पौगलिक परिणाम भी साथ ही उत्पन्न होता है । (૧) જ્ઞાનાવરણીય કર્મ જીવના જ્ઞાન-ગુણને ઢાંકી દે છે; (૨) દર્શનાવરણીય કર્મ દશનગુણને ઢાંકે છે. (૩) વેદનીય કર્મ જીવના અવ્યાબાધ ગુણને, રેકી દે છે (૪) મેહનીય કર્મ જીવમાં અવિરતિ અને તત્વપ્રતિ અરૂચી ઉત્પન્ન કરાવે છે (૫) આયુ કર્મ જીવની અમરતાને રોકે છે. (૬) નામ–કમ જીવના અમૂર્તત્વ ગુણને छे. (७) गोत्र-में मशु३सधुत्व गुणनो नारा ४२ छ मन (८) मतशय में જીવના અનંતવીર્યને ઘાત કરે છે. જેવી રીતે ગાયે ખાધેલું ઘાસ આદિ દૂધ રૂપમાં પરિણત થાય છે અને તેમાં મધુરતાને સ્વભાવ પણ સાથે જ ઉપ્તન થાય છે. તેમાં અમુકકાલપર્યન્ત સ્થિર રહેવાની સ્થિતિ-મર્યાદા પણ ઉસન્ન થઈ જાય છે. અને મધુરતામાં તીવ્રતા અથવા મંદતાની વિશેષતા પણ આવી જાય છે. તે દૂધનું પૌદ્ગલિક પરિણામ પણ સાથે જ प्र. मा. ४२ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० आचारागसूत्रे परिणामश्चापि सहैव प्रादुर्भवति तथा जीवेन परिगृहीतानां कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानां कर्मरूपेण परिणमने चतुर्विधा अंशाः सहैव भवन्ति । त एवांशाः वन्धभेदाः प्रकृत्यादयः सन्ति । ___ कणिकागुडघृतकटुकादिद्रव्याणामौषधमोदकरूपेण परिणमने सहैवानेकाकारपरिणामो भवति । यथा मोदको हि कश्चिद् वातपित्तहरणशीलः, कश्चिद् बुद्धिवर्धनः, कश्चित् संमोहकारी, कश्चिन्मारकः, इत्यनेकाकारेण परिणमते जीवसंयोगात् , तथा कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानामात्मसम्बन्धात्कर्मरूपेण परिणाम कश्चित्कर्मपुद्गलः ज्ञानमावृणोति, कश्चिद्दर्शनमावृणोति अपरः सुखदुःखानुभवं जनयती त्यादि योजनीयम् । इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मवर्गणा के योग्यपुद्गोंका कर्मरूप परिणमन होने पर चार प्रकार के अंश उन में साथ ही उत्पन्न होते है । वही अंश बन्ध के प्रकृति आदि भेद कहलाते है। ___ आटा, गुड, घी और कटुक आदि द्रव्यों से बने हुए लडडू में एक साथ अनेक प्रकार के परिणमन होते है । कोई लाहुद्द बात-पित्त का नाशक होता है, कोई बुद्धिवर्धक होता है, कोई सम्मोहजनक होता है, और कोई घातक होता है, इस प्रकार जीव के संयोग से लड्डू अनेक आकारों में परिणत होता है । इसी प्रकार कर्मवर्गणा-योग्य पुद्गलों का आत्मा के निमित्त से कर्मरूप परिणमन होने पर कोई कर्म, ज्ञान को आच्छादित करता है, कोई दर्शनको कोई कर्म, सुख-दुःख का अनुभव कराता है। इत्यादि सब घटा लेना चाहिए । ઉપ્તન થાય છે એ પ્રમાણે જીવદ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મવર્ગણાયોગ્ય પગલોનું કર્મરૂપ પરિણમન થવાની સાથે ચાર પ્રકારના અંશ તેમાં સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે તે અંશ, બંધના પ્રકૃતિ આદિ ભેદ કહેવાય છે. લોટ, ગોળ, ઘી અને કટુક આદિ દ્રવ્યો નાંખીને બનાવેલા લાડુમાં એક સાથે અનેક પ્રકારનું પરિણમન થાય છે, કેઈ લાડુ વાત-પિત્તને નાશ કરનાર હોય છે. કેઈ બુદ્ધિપૂર્વધ હોય છે. કેઈ સંમેહ ઉત્પન્ન કરનાર હોય છે. અને કેઈ ઘાતક હોય છે. એ પ્રમાણે જીવના સંગથી લાડુ અનેક આકારમાં પરિણત થાય છે. તે પ્રમાણે કમવર્ગણાયોગ્ય પગલોનું આત્માના નિમિત્તથી કર્મરૂપ પરિણમન થાય ત્યારે કેઈ કર્મ જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરે છે કે દર્શનને, કઈ કર્મ સુખ-દુઃખનો અનુભવ કરાવે છે. એ પ્રમાણે સર્વ બાબતમાં ઘટાવી લેવું જોઈએ. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ५ कर्मवादिन यथा वा-वातहारिद्रव्यनिर्मितो मोदकः प्रकृत्या वातं हरति, पित्तोपशमकद्रव्यनिर्मितो मोदकः प्रकृत्या पित्तं नाशयति, कफापहारकद्रव्यनिर्मितः कर्फ हरति । इत्येवं मोदकस्य नानाविधा प्रकृतिः। तस्यैव मोदकस्य स्थितिस्तु कस्यचिदेकदिनव्यापिनी, अपरस्य दिनद्वयस्थायिनी, अन्यस्य कस्यचिन्मासादिकालं व्याप्य स्थितिभवति, ततः परं तत्तन्मोदकस्य विनाशात् । एवं मोदकस्यानुभावो मधुरकटुकषायादिरूपः। रसस्तीवमन्दभावेन कस्यचिन्मोदकस्यैकगुणः, कस्यचिद् द्विगुणः, कस्यचित् त्रिगुणो भवति । प्रदेशोऽपि मोदकस्य कस्यचिदेककर्षमितः, कस्यचिद् द्विकर्षपरिमितः, कस्यचित्रिकर्षपरिमितो भवति । अथवा जैसे-वातहारक द्रव्यो से बना मोदक स्वभाव से वात का नाश करता हैं, पित्तका नाश करने वाले द्रव्यों से बना मोदक पित्तका नाश करता है, कफहारी द्रव्यों से बना मोदक कफको दूर करता है, इस प्रकार मोदक की प्रकृति नाना प्रकार की है । कोई मोदक एकदिन तक ही ठहर सकता है, कोई दो दिन तक और कोई महीने भरतक ठहर सकता है, उसके पश्चात् मोदक में वह शक्ति नहीं रहती है । इसी प्रकार किसी मोदक का मधुर या कटुक रस तीव्र होता है किसी का मन्द होता है, किसी मोदक में एकगुण रस होता है, किसी में द्विगुण और किसी में तीन गुणा, किसी मोदक का प्रदेशसमूह एक कर्ष परिमित होता है, किसीका दो कर्ष परिमित होता है, और किसीका तीन कर्ष परिमित होता है। અથવા–જેમ વાયુનાશક દ્રવ્યોથી બનેલા લાડુ સ્વભાવથી વાયુને નાશ કરે છે; પિત્તને શાન્ત કરવા વાળા દ્રવ્યથી બનેલા લાડુ પિતને નાશ કરે છે. કફ નાશ કરનારા દ્રવ્યોથી બનેલા લાડુ કફને દૂર કરે છે, એ પ્રમાણે લાડુની પ્રકૃતિ જુદા-જુદા પ્રકારની છે. કેઈ લાડુ એક દિવસ સુધી રહી શકે છે, કેઈ બે દિવસ અને કઈ મહિના સુધી રહી શકે છે. તે પછી લાડુમાં તે પ્રથમના જેવી શક્તિ રહેતી નથી. એ પ્રમાણે કઈ લાડુને મધુર અથવા કટુક રસ તીવ્ર હોય છે. કેઈન મંદ હોય છે, કેઈ લાડુમાં એક ગુણ રસ હોય છે, કેઈમાં દ્વિગુણ અને કેઈમાં ત્રણ ગુણ રસ હોય છે. કેઈ લાડુના प्रदेशसभूड मे ४१ ( तासा) पशिभित डाय छे. धना मे ४ (यार dial) પરિમિત હોય છે, અને કેઈના ત્રણ કર્ષ (છ તેલા) પરિમતિ હોય છે. Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे एवं कर्मणोऽपि कस्यचिद् ज्ञानावरणस्वभावा प्रकृतिः, अपरस्य दर्शनावरणरूपा, कस्यचित् सम्यग्दर्शनादिविघातस्वभावा।। कर्मणः स्थितिश्च कस्यचित् त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीरूपा, अपरस्य कस्यचित् कर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीरूपेत्यादि । रसस्तु कस्यचित् कर्मणस्तीत्रः, कस्यचित्तीव्रतरः, कस्यचित्तीव्रतमः, कस्यचिन्मन्दः, कस्यचिन्मन्दतर इत्यादि बोध्यम् । (१) प्रकृतिवन्धः ॥ अष्टविध-मूलपकृतिवन्ध-लक्षणम्(१) ज्ञानस्य (विशेषबोधस्य ) आवरकं कर्म ज्ञानावरणीयम् । इसी प्रकार किसी कर्म की ज्ञानको आच्छादित करने की प्रकृति है, किसीका दर्शन को ढंकने की है, किसी की सुख-दुःख का अनुभव कराने की प्रकृति है, और किसी की सम्यग्दर्शन का घात करने की है । किसी कर्म की तीस कोडाकोडी सागरोपमकी स्थिति है, किसी की सत्तर (७०) कोडाकोडी सागरोपम की है । इसी प्रकार किसी कर्म का रस तीव्र है, किसी का तीव्रतर है, किसी का तीव्रतम है । किसी का रस मन्द है, किसी का मन्दतर है । इत्यादि समझ लेना चाहिए। (१) प्रकृतिवन्ध (१) ज्ञान अर्थात् विशेष धर्मों के बाधको आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कहलाता है। આ પ્રમાણે કઈ કર્મની જ્ઞાનને આચ્છાદિત કરવાની પ્રકૃતિ છે, કેઈની દર્શનને ઢાંકી દેવાની છે, કોઈની સુખ–દુઃખને અનુભવ કરાવવાની પ્રકૃતિ છે, અને કોઈની સમ્યગ્દર્શનને ઘાત કરવાની પ્રકૃતિ છે. કેઈ કર્મની ત્રીશ કડાકડી સાગરોપમની સ્થિતિ છે. કેઈની સીતેર (૭૦) કેડાછેડી સાગરોપમની છે. આ પ્રમાણે કઈ કર્મને રસ તીવ્ર છે. કેઈને તીવ્રતર છે, અને કેઈને તીવ્રતમ છે. કેઈને રસ મંદ છે, કેઈન મદંતર છે. ઈત્યાદિ સમજી લેવું જોઈએ. (१) प्रतिम (૧) જ્ઞાન અર્થાત્ વિશેષ ધર્મોના બોધને જે આચ્છાદિત કરવાવાળું કર્મ તે જ્ઞાના વરણીય કહેવાય છે. Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १. उ१. सु. ५. कर्मवादिप्र० दर्शनस्य ( सामान्यबोधस्य ) आवरकं कर्म दर्शनावरणीयम् । ( २ ) (३) सुखदुःखानुभवजनकं कर्म वेदनीयम् । (४) मदिरावन्मोहजनकं कर्म मोहनीयम् (५) भवधारणकारणं कर्म आयुष्कम् । (६) विशिष्टगतिजात्यादिप्राप्तिकारणं कर्म नाम | (७) उत्कर्षापकर्षप्राप्तिकारणं कर्म गोत्रम् । (८) दानलाभादिविघातकं कर्म अन्तरायः । मूलरूपः कर्मणः स्वभावोऽष्टविध इति मूलप्रकृतिरष्टविधा संक्षेपतः कथिता । अष्टानां मूलप्रकृतीनां प्रत्येकमवान्तरभेद एवोत्तरप्रकृतिः । सा च ३३३ (२) दर्शन अर्थात् सामान्य बोधको आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण है । (३) सुख - दुःखका वेदन कराने वाला कर्म वेदनीय कहलाता है । (४) मदिरा के समान मोह उत्पन्न करने वाला कर्म मोहनीय कहलाता है । (५) भवधारणा का कारण कर्म आयुष्क कहलाता है । (६) विशेष प्रकार की गति, जाति आदि की प्राप्ति का कारण नामकर्म है । (७) उत्कर्ष और अपकर्ष की प्राप्ति का कारण गोत्रकर्म कहलाता है । (८) दान लाभ आदि में विघ्न डालने वाला अन्तराय कर्म कहलाता है । कर्म का मूल स्वभाव आठ प्रकार का ही है, अतः आठ प्रकृतियों का संक्षिप्त कथन किया गया है, इन आठ प्रकृतियों के अवान्तर भेदों को उत्तर - प्रकृति कहते हैं । (૨) દન અર્થાત્ સામાન્ય એધને જે આચ્છાદિત કરવાવાળું ક` તે દનાવરણુ છે. (3) सुख-दुःअनु वेहन राववावाणु उर्भ ते वेहनीयर्स हेवाय छे. (૪) મદિરાના સમાન મેાહ ઉપન્ન કરાવવાવાળું કર્યું તે મેાહનીય કહેવાય છે. ભવ–ધારણ કરવાનું જે કારણુ કમ તે આયુષ્ય કહેવાય છે. (૬) વિશેષ પ્રકારની ગતિ-જાતિ આદિની પ્રાપ્તિનું કારણ તે નામક (૭) ઉત્કર્ષ અને અપકર્ષની પ્રાપ્તિનું કારણ તે ગાત્રકમ કહેવાય છે (૮) દાન-લાભ આદિમાં વિઘ્ન નાખવાવાળું તે અન્તરાય કર્મી કહેવાય છે. કહેવાય છે. કના મૂળ સ્વભાવ આઠ પ્રકારના છે. તેથી આઠ પ્રકૃતિએતુ' સંક્ષિપ્તમાં કથન કર્યું" છે. એ આઠ પ્રકૃતિએના અવાંતર ભેદને ઉત્તરપ્રકૃતિ કહે છે. જીજ્ઞાસુ પુરૂષોને Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे विस्तरतो जिज्ञासूनां वोधाय शास्त्रे निर्दिष्टा। ज्ञानावरणीयादिमूलप्रकृतीनामष्टानामवान्तरभेदा यथाक्रमम्-(१) पञ्च, (२) नव, (३) द्वौ, (४) अष्टाविंशतिः, (५) चत्वारः, (६) द्विचत्वारिंशत् , (७) द्वौं, (८) पञ्च सन्ति । एतत्सर्वमागमतोऽत्र वगन्तव्यम् । (२) स्थितिवन्धःआत्मसंलग्नानां कर्मपुद्गलानां यया जघन्यमध्यमोत्कृष्टकालमर्यादयाऽऽत्मप्रदेशेष्ववस्थानं सा कालमर्यादा स्थितिवन्धः। किञ्च-अध्यसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य स्थितिकालनियमनं स्थितिवन्धः । वेदनीयकर्मणो जघन्यस्थिति-दशमुहूर्तप्रमाणा। नाम-गोत्रकर्मणोविस्तार से जिज्ञासु परुषों की जानकारी के लिए शास्त्र में वर्णन किया गया है । ज्ञानावरणीय आदि मूल प्रकृतियों के अवान्तर भेदों की संख्या क्रम से पांच, नौ, दो, अठाईस, चार, वयालीस, दो और पांच है। इन सबको आगम से समझ लेना चाहिए । (२) स्थितिवन्ध आत्मा के साथ लगे हुए कर्मपुद्गल जिस जघन्य मध्यम या उत्कृष्ट कालमर्यादा से आत्मप्रदेशों में स्थिर है, उस कालमर्यादाको स्थितिवन्ध कहते है। अथवा यो कहिए किअध्यवसायविशेष द्वारा ग्रहण किए हुए कर्मदलियों के आत्मा में ठहरने के काळसम्बन्धी नियमन को स्थितिबन्ध कहते है। वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की, तथा नाम और गोत्रकर्म की જાણવા માટે શાસ્ત્રમાં વિસ્તારથી વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ મૂલ प्रकृतिना अपान्त२ हानी सध्या मथी-पांय, नौ, मे, महावीस, यार, मेतादास, બે, અને પાંચ છે, આ સર્વને આગમથી સમજી લેવું જોઈએ. (२) स्थितिमा આત્માની સાથે લાગેલા કર્મપુદ્ગલ જે જઘન્ય, મધ્યમ, અને ઉત્કૃષ્ટ કાલ મર્યાદાથી આત્મપ્રદેશમાં સ્થિતિ છે, તે કાલમર્યાદાને સ્થિતિબંધ કહે છે. અથવા એમ કહીએ કે–અધ્યવસાયવિશેષદ્વારા ગ્રહણ કરેલા કર્મદલિકેને આત્મામાં ટકી શકવાના કાલસંબંધી નિયમનને સ્થિતિબંધ કહે છે. વેદનીય કર્મની જઘન્ય સ્થિતિ બાર મુહર્તની, તથા નામ અને ગોત્ર કર્મની Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ ८.५ कर्मवादिम० _३३५ जघन्य-स्थितिरष्टमुहूर्तप्रमाणा। ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीया-ऽऽयुष्याऽन्तरायकर्मणां जघन्यस्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा । ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीय - वेदनीयाs - न्तरायकर्मणामुत्कृष्टस्थितिः त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः, मोहनीयकर्मणः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटयः स्थितिरुत्कृष्टा । नाम-गोत्र-कर्मणोविंशतिसागरोपमकोटीकोटयः स्थितिरुत्कृष्टा । आयुष्यकर्मणत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमप्रमाणा स्थितिरुत्कृष्टा। मध्यमा स्थितिस्त्वसंख्यातप्रकारा, कषायपरिणामतारतम्येन तस्या असंख्यातभेदात् । आठ मुहूर्त की है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयु और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त की है। । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडा-कोंडी सागरोपम की मोहनीय कर्म की सत्तर कोडा-कोडी सागरोपम की, नाम और गोत्र कर्म की वीस कोडा-कोडी सागरोपम की है। आयुष्य कर्म की तेतीस सागरोपम की है । मध्यम स्थिति असंख्यात प्रकार की है, कषायरूप परिणामों की हीनता और अधिकता के कारण उसके असंख्य प्रकार होते है। स्थितिबन्धका कोष्टक टीका के अनुसार पृष्ट ३३६ से समझ लेना चाहिए। આઠ મૂહુતની છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, મોહનીય, આયુ અને અન્તરાય કર્મની જઘન્ય સ્થિતિ અન્તમુહૂર્તની છે. જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, વેદનીય, અને અન્તરાય કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રીશ 11-3152 सापभनी, भाडनीय मनी सीत२ (७०) 11-3डी सारोपमनी, નામ અને ગોત્ર કર્મની વીશ કેડા-છેડી સાગરેપની, આયુષ્ય કમની તેત્રીસ સાગરોપમની છે. મધ્યમ સ્થિતિ અસંખ્યાત પ્રકારની છે. કપાયરૂપ પરિણામોની હીનતા અને અધિક્તાના કારણે તેના અસંખ્ય પ્રકાર થાય છે. સ્થિતિબંધનું કેક ટીકાના અનુસાર પૃષ્ટ ૩૩૬થી સમજી લેવું જોઈએ. Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ आचारागसूत्रे स्थितिवन्ध-कोष्टकम् । - कर्मणां उत्कृष्टा | जघन्या उत्कृष्टः जघन्यः । उत्कृष्टः जघन्यः नाम स्थितिः स्थितिः । अवाधा- अवाधा- वाधाकाल: । वाधाकाल: कालः | काल: (कर्मनिषेकः) (कर्मनिषेकः) ३००० त्रिसहस्रवर्षोन- अन्तर्मुहर्तज्ञाना- त्रिंशत्साग- अन्तर्मुहर्तः त्रिसहस्र- अन्तमहत्तः त्रिंशत्साग- न्यूनोऽन्तवरणीय- रोपमकोटी वर्षाणि रोपमकोटी मुहूत्तः कमणः कोटयः कोटयः दर्शनावरणीयकर्मणः - अन्तर्मुहूर्त वेदनीयकर्मण: द्वादश १२ मुहर्ताः न्यूना एकादश " " मुहर्ताः अन्तर्मुहूर्तन्युनोन्त अन्तराय- कर्मणः , अन्तमुहत्तः - - - मोहनीय- सप्ततिसागकर्मणः रोपमकोटी | फोटयः । ७००० सप्तसहस्रवर्षाणि सप्तसहस्रवर्षोनसप्तति सागरोपमकोटीकोटयः॥ " . Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० नाम कर्मणां उत्कृष्टा जघन्या जघन्यः उत्कृष्टः जघन्यः स्थितिः स्थितिः | अबाधा- | अबाधा- | वाधाकालः | बाधाकाल: कालः | कालः (कर्मनिषक:) (कर्मनिषकः)। २० विंशति- अष्टौ २००० २००० नाम- | सागरोपम- । महताः। द्विसहस्त्र- द्विसहस्रवर्षान- अन्तर्मुहुर्तकोटीकोटयः वर्षाणि " विशतिसाग- न्यूनाः सप्त रोपमकोटी- मुहूर्ताः कोटयः कर्मणः गोत्र कर्मणः आयुष्य- नि ३३ त्रय- अन्त- पूर्वकोटिकर्मणः स्त्रिशत्साग- मुंहत्तः । त्रिभागः | पूर्वकोटि त्रि पूर्वकोटि- अन्तर्मुहूत्त| भागाधिका विभागोन- न्यूनोऽन्तत्रयस्त्रिंशत् मुहूत्तः सागरोपमाणि | रोपमाणि । पूर्वकोटित्रिभागः-३३ लक्षाणि, ३३ सहस्राणि; ३ शतानि, ३३ पूर्वाणि, २३ लक्षाणि, ५२ सहस्रकोटिवर्षाणि । अन्तर्मुहूत्र्तस्यासंख्यभेदाः सन्ति, तेनान्तमुहूर्तरूपाया जघन्यस्थितेरन्तर्मुहूर्त एवावाधाकालः, तथाऽन्तर्मुहूर्त्तन्यूनोऽन्तर्मु हूर्तश्च बाधाकाल इति विज्ञेयम् । प्र. आ.-४३ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसत्रे (३) अनुभाववन्धः। कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा यो रसो विपाकः सोऽनुभाववन्धः । कर्मणां विशिष्टो विविधो वा पाको विपाकः । कर्मवन्धस्य फलं विपाकस्तस्योदयोऽनुभाव इति बोध्यम् । किञ्च-कर्मणां विविधफलदानशक्तिविपाकः सोऽनुभावः। बन्धकारणस्य कषायपरिणामस्य तीव्रमन्दभावानुसारेण प्रत्येककर्मणि तीव्रमन्दफलदानशक्तिः प्रादुर्भवति । इदं च फलोत्पादनसामर्थ्यम्-अनुभवः, तत्तत्फलानुभवनं चेति । (३) अनुभावबन्धकर्मपुद्गलों का शुभ या अशुभ अथवा घाती या अघाती रूपं जो रस है वही अनुभाव कहलता है । गृहीत कर्मपुद्गलों में यह रस उत्पन्न हो जाना अनुभाव या अनुभाग बन्ध है । कर्मों का विशिष्ट या विविध प्रकार का पाक विपाक कहलाता हैं । तात्पर्य यह है कि कर्म का फल विपाक है, और उसका उदय अनुभाव कहा जाता है । अथवा कर्मों की भांति-भातिको फल देने की शक्ति को विपाक कहते है, और वही अनुमाव है, और तत्तत्फल का अनुभव भी अनुभाव है। बन्ध के कारण कषायरूप परिणाम की तीव्रता और मन्दता के अनुसार प्रत्येक कर्म में तीत्र या मन्द फल देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, इस फल को उत्पन्न करने का सामर्थ्य अनुभाव है। (3) अनुसा५५કર્મ પુદગલોને શુભ અથવા અશુભ, અથવા–ઘાતી કે અઘાતીરૂપ જે રસ છે તે અનુભાવ કહેવાય છે ગૃહીત કર્મપગલે માં એ રસનું ઉત્પન્ન થવું તે અનુભાવ, અથવા અનુભાગ બંધ છે. કર્મોને વિશિષ્ટ અથવા વિવિધ પ્રકારને પાક તે વિપાક કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે કર્મનું ફલ તે વિપાક છે, અને તેને ઉદય તે અનુભવ કહેવાય છે. અથવા કર્મોની તરેહ-તરેહની ફળ દેવાની શક્તિ તેને વિપાક કહે છે અને તેજ અનુભાવ છે અને તે તે ફળને અનુભવ પણ અનુભવ છે. 2 બંધનાં કારણ કષાયરૂપ પરિણામની તીવ્રતા અને મન્દતાના પ્રમાણે પ્રત્યેક કર્મોમાં તીવ્ર અથવા મંદ ફલ દેવાની શક્તિ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, તે ફળને ઉત્પન્ન કરવાનું સામર્થ્ય તે અનુભાવ છે. * "अणुभागे, अणुभावे, विवागे, रसे-त्ति एगट्ठा" अनुभागोऽनुभावो, विपाको रसः, इत्येकार्थकाः । अनुभाग, मनुलाव, विपा भने २सय पचा सार्थ छे. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.५ कर्मवादिम० कर्मणः फलप्रदानशक्तिरूपोऽयमनुभावो यत्कर्मनिष्ठस्तत्कर्मस्वभावानुसारं फलं प्रयच्छति, न त्वन्यकर्मस्वभावानुसारम् । यथा-ज्ञानावरणीयकर्मणोऽनुभावस्तत्कर्मस्वभावानुरूपं ज्ञानावरणमेव तीनं मन्दं वा फलं समुत्पादयति, न तु दर्शनावरणीय-वेदनीयादि-कर्मप्रकृत्यनुसारं दर्शनावरणं सुखदुःखानुभवादिरूपं फलम् । एवं दर्शनावरणीयकर्मणोऽनुभावस्तीत्रमन्दादिरूपेण दर्शनावरणमेव फलं ददाति, न तु ज्ञानावरणादिरूपमन्यकर्मप्रकृत्यनुसारम् । अनुभावबन्धस्य चायं कर्मप्रकृत्यनुरूपेणैव फलदाननियमोऽपि ज्ञाना फर्म का फलदान-शक्तिरूप अनुभाव जिस कर्म में रहता है वह कर्म अपने स्वभाव के अनुसार ही फल देता है-दूसरे कर्म के स्वमाव के अनुसार नहीं। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव ज्ञानावरणीय के स्वभाव के अनुसार ही होता है अर्थात् वह तीव्र या मन्द रूप में ज्ञान का आच्छादन ही करता है । उस से दर्शनावरणीय या वेदनीय कर्म की प्रकृति के अनुसार दर्शन का आवरण अथवा सुख-दुःख का वेदन नहीं होता । इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का अनुभाव तीन या मन्द रूप में दर्शन का आवरण करना ही है, ज्ञान का आवरण करना या अन्य कर्मप्रकृति के अनुसार फल देना नहीं। अनभावबन्ध का अपनी कमप्रकृति के अनुसार फल देने का यह नियम ज्ञानावरणीय आदि आठ मूलप्रकृतियों में ही लागू होता है; उत्तरप्रकृतियों के लिए કમના ફલદાનશક્તિરૂપ અનુભાવ જે કમમાં રહે છે, તે કર્મ પિતાના સ્વભાવ પ્રમાણેજ ફલ આપે છે, બીજા કર્મના સ્વભાવ પ્રમાણે નહિ. જેવી રીતે કેજ્ઞાનાવરણીય કર્મના અનુભાવ જ્ઞાનાવરણીયના સ્વભાવના પ્રમાણેજ હોય છે, અર્થા–તે તીવ્ર અથવા મદરૂપમાં જ્ઞાનનું જ અચ્છાદન કરે છે, તેનાથી દર્શનાવરણીય અથવા વેદનીય કર્મની પ્રકૃતિ અનુસાર દર્શનનું આવરણ અથવા સુખ–દુઃખનું વદન થતું નથી. એ પ્રમાણે દર્શનાવરણીય કર્મને અનુભાવ તીવ્ર અથવા મંદરૂપમાં દર્શનનું આવરણ કરવું તેજ છે, પરંતુ જ્ઞાનનું આવરણ કરવું અથવા અન્ય કર્મ પ્રકૃતિ અનુસાર ફળ આપવું તે નથી. અનુભાવ બંધને પિતાની કમપ્રકૃતિના અનુસાર ફળ આપવાને આ નિયમ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ મૂલપ્રકૃતિઓમાંજ લાગુ થાય છે, પરંતુ ઉત્તર પ્રકૃતિએ માટે Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे वरणीयाधष्टविधमूलप्रकृतिष्वेव प्रवर्तते, नतूत्तरप्रकृतिषु । कस्यापि मूलप्रकृतिरूपकर्मवन्धस्य काचिदुत्तरप्रकृतिस्तदीयेतरोत्तरप्रकृतिरूपेण विपरिणता भवति, कर्मपुद्गलस्य तादृशपरिणमनसामर्थ्यात् । तत्र प्राक्तनोत्तरप्रकृतिगतानु भावः परिवर्तितोत्तरप्रकृतिस्वभावानुरूपं तीनं मन्दं वा फलं प्रदत्ते । यथा-मतिज्ञानावरणीयं यदा श्रुतज्ञानावरणीयादिसजातीयोत्तरप्रकृतिरूपं प्राप्नोति तदा मतिज्ञानावरणीयानुभावोऽपि श्रुतज्ञानावरणीयादिस्वभावानुरूपमेव श्रुतज्ञानादीनामावरणं विधत्ते । उत्तरप्रकृतिषु कतिचित् सजातीया अपि प्रकृतयो नान्यरूपेण परिणता भवन्ति । यथा-दर्शनमोहश्चारित्रमोहरूपेण न परिणमति; तथा चारित्रमोहोऽपि न यह नियम नहीं है। किसी भी मूलप्रकृति की कोई उत्तरप्रकृति उसी मूलप्रकृति की किसी दूसरी उत्तरप्रकृति के रूप में भी परिणत हो सकती है, क्यों कि कर्मपुद्गल में इस प्रकार के परिणमन की शक्ति विद्यमान है। वहाँ पहले वाली उत्तरप्रकृति में रहा हुआ अनुभाव बदली हुई उत्तरप्रकृति के स्वमाव के अनुसार तीव्र या मन्द फल देता है। जैसे-मतिज्ञानावरणीय जब तज्ञानावरणीयसजातीय उत्तरप्रकृति के रूप में पलटता है तब मतिज्ञानावरणीय का अनुभाव भी श्रतज्ञानावग्णीय के स्वभाव के अनुसार श्रतज्ञान का आवरण करता है। उत्तरप्रकृतियों में कुछ ऐसी भी प्रकृतिया है जो सजातीय होते हुए भी अन्यरूप में पलटती नहीं है, जैसे-दर्शनमोहनीय, कभी चारित्रमोहनीय के रूप में नहीं આ નિયમ નથી. કેઈ પણ મૂલપ્રકૃતિની કેઈ ઉત્તરપ્રકૃતિ તે મૂલપ્રકૃતિની કઈ બીજી ઉત્તર પ્રકૃતિના રૂપમાં પણ પરિણત થઈ શકે છે, કારણકે કર્મ પુલમાં એ પ્રમાણે પરિણમનની શક્તિ વિદ્યમાન છે. ત્યાં પ્રથમ વાળી ઉત્તરપ્રકૃતિમાં રહેલો અનુભાવ બદલી ગયેલી ઉત્તર પ્રકૃતિના સ્વભાવ અનુસાર તીવ્ર અથવા મંદ ફલ આપે છે. જેમ–મતિજ્ઞાનાવરણીય જ્યારે શ્રુતજ્ઞાનાવરણીય-સજાતીય ઉત્તર પ્રકૃતિના રૂપમાં પલટાય છે, ત્યારે મતિજ્ઞાનાવરણીય અનુભાવ પણ શ્રુતજ્ઞાનાવરણયના સ્વભાવ પ્રમાણે શ્રુતજ્ઞાનનું આવરણ કરે છે. ઉત્તરપ્રકૃતિમાં કેટલીક એવી પણ પ્રકૃતિએ છે કે જે સજાતીય હોવા છતાંય પણ અન્યરૂપમાં પલટતી નથી. જેવી રીતે-દર્શનમોહનીય કેઈ વખત ચારિત્રમેહનીયના Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० ३४१ दर्शनमोहरूपेण, एवं यथा नारकायुष्यं तिर्यगायुष्यरूपेण न परिणमति तथा तदायुष्यमपि न पुनरन्यायुष्यरूपेण । एतत्सर्वं प्रकृतिवन्धविषये परिवर्तनं यथा भवति तथाऽध्यवसायसामर्थ्यात् स्थितिरसयोरपि परिवर्तनं भवति । तीत्रादिमन्दादिभावेन परिणमति, मन्दादिरपि तीव्रादिभावेन परिणमति । एवमुत्कृष्टा स्थितिर्जघन्यरूपेण परिणमति, जघन्या चोत्कृष्टरूपेण । ___अनुभावानुसारं तीव्र मन्दं वा यस्य कर्मणः फलमनुभूतं भवति चेत् तदा तत्कर्मप्रदेशा आत्मप्रदेशेभ्योऽपगता भवन्ति, न पुनस्ते कर्मपुद्गलाः संलग्ना भवन्ति । बदलता, और चारित्रमोहनीय दर्शनमोहनीय के रूप में नहीं पलटता। उसी प्रकार नरकायु कभी तिर्यंचायु के रूप में नहीं पलटती और तिथंचायु किसी अन्य आयुके रूप में नहीं बदलती। यह सब परिवर्तन जैसे प्रकृतिबन्ध के विषय में होता है उसी प्रकार अध्यवसाय की शक्ति से स्थिति और रस में भी होता है। कभी तीन रस, मंद रस के रूप में बदल जाता है, और कभी मन्द रस, तीव्र रस के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति जघन्यरूप में और जघन्य स्थिति उत्कृष्टरूप में बदल जाती है। ___अनुभाव के अनुसार जिस कर्म का तीव्र या मन्द फल भोग लिया जाता है, उस कर्म के प्रदेश आत्मप्रदेशो से हट जाते है-फिर वे आत्मा के साथ नहीं लगे रहते है। રૂપમાં બદલાતી નથી, અને ચારિત્રમેહનીય દર્શનમોહનીયના રૂપમાં બદલાતી નથી. એ પ્રમાણે નરકાયુ કઈવખત પણ તિર્યંચ આયુના રૂપમાં પલટાતું નથી, અને તીર્થંચાયુ બીજા કોઈ આયુના રૂપમાં પલટાતું નથી. આ તમામ પરિવર્તન જેવી રીતે પ્રકૃતિબંધના વિષયમાં થાય છે, તે પ્રમાણે અધ્યવસાયની શક્તિથી સ્થિતિ અને રસમાં પણ થાય છે–કયારેક તીવ્રરસ, મંદરસના રૂપમાં બદલાઈ જાય છે, અને કયારેક મંદરસ, તીવ્રરસના રૂપમાં પરિવર્તિત થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ જઘન્ય રૂપમાં અને જઘન્ય સ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટ રૂપમાં બદલાઈ જાય છે. અનુભાવપ્રમાણે કઈ કર્મનું તીવ્ર અથવા મંદ ફલ ભેગવી લેવાય તો તે કર્મના પ્રદેશ આત્મપ્રદેશથી હટી જાય છે–પછી તે આત્માની સાથે લાગેલા રહેતા નથી. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारानमंत्रे इदमत्र तत्त्वम्-कर्मणां फलं विविधं भवति । कर्मव मूलप्रकृतिः। सर्वासांमूलप्रकृतीनां फलविविधत्वं तथाऽन्यथा चेति प्रकारद्वयेन भवति । येनाध्यवसायप्रकारेण यादृस्वभावं कर्म बद्धं, तत् तथा तेनैव प्रकारेण अन्यथा च प्रकारान्तरेणापि विपच्यते-तस्य विपाको भवति । स च तीव्रमन्दाद्यवस्थाभेदेन शुभस्तथाऽशुभोऽपि । तत्र कदाचिच्छुभमप्यशुभरसतयाऽनुभूतये कर्म, अशुभं च शुभरसतयेति बोध्यम् ।। सकपायजीवेन मनोवागादिद्वारेण क्रियाविशेषस्य कर्ता भिन्नभिन्नस्वभावानां कर्मपुद्गलानां स्वभावानुसारं तत्तत्परिमाणविभागेन सम्बन्धः प्रदेशवन्धः । तात्पर्य यह है कि कर्मों का फल विविध प्रकार का होता है । कर्म ही मूल प्रकृति है । समस्त मूलप्रकृतियों का फल उसी रूप में या अन्यथा रूप में दो प्रकार से होता है। जिस प्रकार के अध्यवसाय से जिस स्वभाव वाला कर्म बंधा है वह उसी रूप में या अन्यथा रूप में फल देता है । वह फल तीव्र या मन्द अवस्था-भेद से शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है । कभी शुभ भी अशुभ रस के रूप में और कभी अशुभ शुभ रस के रूप में भोगा जाता है, (४) प्रदेशवन्धमन वचन आदि के द्वारा क्रियाविशेष करने वाले कषाययुक्त जीव के साथ भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मपुद्गलो का स्वभाव के अनुसार अमुक-अमुक परिमाण विभाग के साथ सम्बन्ध होना प्रदेशबन्ध है। તાત્પર્ય એ છે કે – કર્મોના ફલ વિવિધ પ્રકારના હોય છે. કર્મજ મૂલપ્રકૃતિ છે તમામ મૂળ પ્રકૃતિઓનું ફલ તે રૂપમાં અથવા બીજા રૂપમાં, એમ બે પ્રકારથી હાય છે. જે પ્રકારના અધ્યવસાયથી જે સ્વભાવવાળાં કર્મ બાંધ્યાં છે તે એજ રૂપમાં અથવા બીજા રૂપમાં ફલ આપે છે. તે ફલ તીવ્ર અથવા મંદ અવસ્થા–ભેદથી શુભ પણ હોય છે, અને અશુભ પણ હોય છે, કેઈ વખત શુભ પણ અશુભ રસના રૂપમાં અને કઈ વખત અશુભ તે શુભ રસના રૂપમાં જોગવવામાં આવે છે. (४) प्रश५५મન, વચન આદિ દ્વારા.ક્રિયા-વિશેષ કરવા વાળા કષાયયુક્ત જીવની સાથે ભિન્નભિન્ન સ્વભાવ વાળા કર્મયુગલના સ્વભાવ અનુસાર અમુક-અમુક પરિમાણુવિભાગની સાથે સમ્બન્યું છે તે પ્રદેશબંધ છે. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५ कर्मवादिप० । (१) ज्ञानोवरणीयादिकर्मणां कारणीभूताः, (२) सर्वदिक्ष्ववस्थिताः, (३) तीव्रमन्दादिभेदाद् मनोवाक्कायक्रियाविशेषसंयोगात् कर्मवर्गणायोग्याः पुद्गलाः सर्वात्मप्रदेशेषु बद्धा भवन्ति । (४) औदारिक वैक्रिया-ऽऽहारकतैजस-भाषा-श्वासोच्छास-मनोवर्गणाऽपेक्षयापि सूक्ष्मपरिणतिरूपा एव कर्मवर्गणायोग्याः बद्धाः भवन्ति, न तु वादराः । (५) तत्रापि त एव पुद्गला वद्धा भवन्ति, ये खलु यत्राकाशे जीवोऽवगादस्तत्रैव वर्तमानाः, न तु तद्वहि क्षेत्रवर्तिनः । (६) तथाविधा अपि पुद्गलाःस्थिता एव बद्धा भवन्ति, न तु गतिपरिणताः, प्रचलितस्वभावत्वेन बन्धानहत्वात् । (७) असंख्यातमदेशिनो जीवस्यैकैकः (१) ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कारणभूत, (२) समस्त दिशाओं में स्थित, (३) तीव्र मन्द आदि के भेद से मन, वचन और काय की क्रियाविशेष के संयोग से कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गल समस्त आत्मप्रदेशों में बद्ध हो जाते हैं। (४) औदारिक वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, और मनोवर्गणा की अपेक्षा भी सूक्ष्म परिणतिरूप कर्मवर्गणा के योग्य पुद्गल ही बंधते है, बादर नहीं बंधते । (६) उन में भी वही पुद्गल बँधते हैं जो एकक्षेत्रावगाढ हो, अर्थात् जिन आकाशप्रदेशों में जीव है उन्हीं आकाशप्रदेशो में विद्यमान हों, बाहर के क्षेत्र में अगवाहन करने वाले नहीं बँधते । (६) एसे पुद्गल भी स्थित ही बँधते हैं चलते-फिरते हुए पुद्गल नहीं बंधते, चलित स्वभाव वाले होने के कारण वे बन्ध के योग्य नहीं है, (७) असंख्यातप्रदेशी जीव का (१) ज्ञानापरीय माना २९मूत, (२) समस्त शायमा स्थित, (3) તીવ્ર, મંદ આદિના ભેદથી મન, વચન અને કાયાની કિયા–વિશેષના સંગથી કર્મવગણના ચોગ્ય પુદગલ સમસ્ત આત્મપ્રદેશમાં બદ્ધ થઈ જાય છે, (૪) દારિક, વૈકિય, આહારક, તેજસ, ભાષા, ધાસ, અને મનોવાની અપેક્ષાએ પણ સૂક્ષ્મપરિણતિરૂપ કર્મ વગણના ચગ્ય પુદગલજ બાંધે છે; બાદર બાંધતા નથી, (૫) એમાં પણ તે મુદ્દગલ બાંધે છે કે જે એક ક્ષેત્રાવગાઢ હોય, અર્થ-જે આકાશપ્રદેશોમાં જીવ છે તેજ આકાશપ્રદેશોમાં વિદ્યમાન હોય. બહારના ક્ષેત્રમાં અવગાહન કરવાવાળા બંધાતા નથી. (૬) એવા પગલ પણ જે સ્થિર હોય તે બંધાય છે, પણ ચાલતા ફરતા પુદ્ગલો બંધાતા નથી, કારણ કે ચલિત સ્વભાવવાળા હોવાના કારણે તે બંધને ચગ્ય નથી. (૭) અસંખ્યાત પ્રદેશી જીવને Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ आचारागसत्रे प्रदेशोऽनन्तर्ज्ञानावरणीयकर्मस्कन्धैर्वद्धः। एवमनन्तैर्दशनावरणीयादिकमस्कन्धैर्वद्धः । (८) तत्र ते स्कन्धा अपि प्रत्येकमनन्तानन्तप्रदेशिनः सन्ति । इति प्रदेशवन्धेऽष्ट हेतवः। पुण्यपापकर्मनिरूपणम्ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं पौद्गलिक कर्म प्रत्येकं द्विविधम्-पुण्यपापभेदात् । शुभंकर्म-पुण्यम् । अशुभं कर्म-पापम् । ननु विनाऽपि पुण्यपापाभ्यां स्वभावत एव जगद्वैचित्र्यं जायते किं पुनस्तत्कल्पनया ? उच्यते-शृणु-स्वभावादेव हि त्रयो विकल्पाः समुत्पद्यन्ते यथा-(१) स्वभावः कि वस्तुरूपः ? (२) कारणाभावो एक-एक प्रदेश अनन्त ज्ञानावरणीय आदि कर्मस्कन्धों के साथ बंधता है, उसी प्रकार अनन्तदर्शनावरणीय आदि कर्मस्कन्धों के साथ भी बंधता है। (८) कर्म के वे स्कन्ध भी अनन्तानन्तप्रदेशी होते है । प्रदेशबन्ध में ये आठ हेतु है । पुण्यकर्म और पापकर्मज्ञानवरणीय आदि प्रत्येक पौद्गलिक कर्म दो-दो प्रकार का है, पुण्यरूप और पापरूप । शुभ कम पुण्य और अशुभ पाप कहलाता है । शङ्का-पुण्य और पाप के विना ही स्वभाव से जगत् की विचित्रता हो सकती है, फिर पुण्य पाप की कल्पना करने से क्या लाभ है ? । समाधान-स्वभाववाद में तीन विकल्प हो सकते हैं, जैसे स्वभाव कोई वस्तु है ?, या कारण का अभाव ही स्वभाव कहलाता है ?, अथवा स्वभाव किसी એક એક પ્રદેશ અનન્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મ સ્કંધેની સાથે પણ બંધાય છે. એ પ્રમાણે દર્શનાવરણીય આદિ કર્મ સ્કંધેની સાથે પણ બંધાય છે. (૮) કર્મના તે સ્કંધ પણ અનન્તાનન્તપ્રદેશ હોય છેપ્રદેશ બંધમાં આ આઠ હેતુ છે. પુણ્યકર્મ અને પાપર્મ– જ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રત્યેક પૌગલિક કમબે-બે પ્રકારના છે-(૧) પુણ્યરૂપ અને (ર) પાપ૫ શુભ કર્મ-પુણ્ય અને અશુભ કર્મ પાપ કહેવાય છે. ક–પુણ્ય અને પાપ વિનાજ, સ્વભાવથી જગતની વિચિત્રતા હોઈ શકે છે, તે પછી પુણ્ય પાપની કલ્પના કરવાથી શું લાભ છે? સમાધાનઃ-સ્વભાવવાદમાં ત્રણ વિકલ્પ (તર્ક-વિતક) થઈ શકે છે, જેમકે સ્વભાવ છે કેઈ વસ્તુ છે? અથવા કારણને અભાવજ સ્વભાવ કહેવાય છે? અથવા સ્વભાવ કેઈ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ स. ५. कर्मवादिम० ३४५ वा स्वभावः ? अथवा (३) स्वभावः कोऽपि वस्तुधर्म: ९ । इति विकल्पत्रयगतदोषाणां कथनं पूर्वं कृतमासीदतो विरभ्यते, तस्मात् पुण्यपापे कर्मणी पौद्गलिके विद्येते, इत्यवश्यं स्वीकरणीयम् । पुण्यपापसद्भावे युक्तस्तावत् प्रदर्शयामः - पुण्यपापे द्वे अपि भिन्ने स्वतन्त्रे स्तः, तत्कार्यभूतयोः सुखदुःखयो - यौगपद्येनानुभवाभावात्, अतोऽनेनैव भिन्नकार्यदर्शनेन तत्कारणभूतयोः पुण्यपापयोभिन्नताऽनुमीयते । जीवकर्मणोः परिणामरूपे पुण्यपापे कारणतः कार्यतञ्चानुमीयेते । दानादिक्रियाणां हिसादिक्रियाणां च कारणरूपत्वात् तत्कार्यरूपपुण्य वस्तु का धर्म है ?, इन तीनों विकल्पों में आने वाले दोषों का कथन पहले किया जा चुका है, अत एव यहाँ पुनरुक्ति नहीं की जाती । अत एव पुण्य और पाप को पौद्गलिक कर्म ही स्वीकार करना चाहिए । पुण्य और पाप के सद्भाव में युक्तियाँ दिखलाते हैं— स्वतन्त्र हैं, क्यों कि उनका यह भिन्नता देखने से उनके पुण्य और पाप दोनों भिन्न और फल सुख और दुःख एक साथ नहीं भोगा जाता । कार्य की कारणभूत पुण्य और पाप की भिन्नता का अनुमान होता है । जीव और कर्म के परिणामरूप पुण्य और पाप का अनुमान कारण से और कार्य से होता है । I दानादि क्रियाए और हिंसा आदि क्रियाऍ कारण हैं, अत एव उनका कार्य વસ્તુના ધર્મ છે?. આ ત્રણેય વિકામાં આવવાવાળા દોષોનું કથન પ્રથમ કહી ચૂકયા છીએ, એટલા કારણથી અહિં પુનરૂક્તિ કરતા નથી. એ માટે પુણ્ય અને પાપને પૌલિક કજ સ્વીકાર કરવા જોઈ એ. પુણ્ય અને પાપના સદ્ભાવમાં યુક્તિ બતાવે છે: પુણ્ય અને પાપ અને જૂદા અને સ્વતંત્ર છે, કારણ કે તેનું ફળ સુખ અને દુઃખ એક સાથે ભાગવવામાં આવતું નથી. કાયની આ ભિન્નતા જોવાથી તેના કારણભૂત પુણ્ય અને પાપની ભિન્નતાનું અનુમાન થાય છે. જીવ અને કર્માંના પરિણામરૂપ પુણ્ય અને પાપનું અનુમાન કારણથી અને કાર્યથી થાય છે. દાન આદિ ક્રિયાઓ અને હિંસા આદિ ક્રિયાઓ કારણ છે, તે માટે તેનું કા प्र. आ -४४ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ आचारागसूत्रे पापात्मको जीवकर्मपरिणामोऽस्ति । यथा-कृष्यादिक्रियाणां शालि-यव-गोधूमादिकं नियमेन फलं भवति । इदमनुमानं कारणतो भवति । एवं कार्यतोऽपि कारणस्यानुमानं भवति । यथा-अस्ति शरीरादीनां कारणं, तेपां कार्यरूपत्वात् । यथा-घटस्य मृद्दण्डचक्रादिसामग्रीसहितः कुम्भकारः कारणम् । न च, दृष्ट एव मातापितादिकः शरीरादीनां कारणमस्तु, इति वाच्यम् , दृष्टकारणस्य समानत्वेऽपि सुरूपकुरूपादिभावेन शरीरादीनां वैचित्र्यदर्शनात्तस्य भी अवश्य होना चाहिए, और वही कार्य जीव और कर्म का परिणामरूप पुण्य और पाप है । जैसे कृषि आदि क्रियाओं का शालि, जौ, गेहुँ आदि फल नियम से होता है। यह कारण से अनुमान है। इसी प्रकार कार्य से भी कारण का अनुमान होता है, जैसे शरीर आदि का कारण अवश्य है, क्यों कि वह कार्य है, जैसे घटका कारण मिट्टी; दण्ड, चक्र आदि सामग्री से युक्त कुंभार होता है। शङ्का-शरीर आदि का कारण प्रत्यक्ष से प्रतीत होने वाले माता-पिता आदि ही मानना चाहिए। समाधान-दिखाई देने वाले कारण की समानता होने पर भी शरीर में सुरूपता कुरूपता आदि की विचित्रता देखी जाती है, अतः उन्हें कारण नहीं माना जा सकता, પણ અવશ્ય લેવું જોઈએ, અને તે કાર્ય જીવ અને કર્મના પરિણામરૂપ પુણ્ય અને પાય છે. જેવી રીતે ખેતી આદિ ક્રિયાઓમાં શાલિ–ડાંગર, જવ, ઘઉં આદિ કુલ નિયમથી થાય છે. આ કારણથી અનુમાન છે. આ પ્રમાણે કાર્યથી પણ કારણનું અનુમાન થાય છે. જેમ શરીર આદિનું કારણ १३२ छे; १२९ ते आर्य छ, रेवी शत घटनु र माटी, ६, २४-यागी, આદિ સામગ્રીથી યુક્ત કુંભાર હેય છે. શંકા–શરીર આદિનું કારણ પ્રત્યક્ષથી જણાતા માતા-પિતા આદિ માનવા જોઈએ. સમાધાન –દેખાવાવાળા કારણની સમાનતા હોવા છતાંય પણ શરીરમાં સુતા કુપતા આદિની વિચિત્રતા જોવામાં આવે છે, તેથી તેમને કારણ માની શકાશે નહિ. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टोका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० ३४७ तत्कारणत्वासिद्धेः। तद्वैचित्र्यस्य चादृष्टकौरव्यहेतुं विनाऽभावात् । शुभशरीरादीनां पुण्यकार्यत्वात् , अशुभशरीरादीनां पापकार्यत्वाच पुण्यपापभेदेन तस्य कर्मणो द्वैविध्यं सिद्धम् ।। ___पुण्यं पापं चेति द्वे कर्मणी भिन्ने स्वतन्त्ररूपे स्तः, इत्यत्रागमोऽपि प्रमाणम् । उक्तञ्च स्थानाङ्गसूत्रे-" एगे पुण्णे। एगे पावे” इति । एवमेव समवायाङ्गेऽपि। सर्वघातिप्रकृतयः(१) केवलज्ञानावरणीयम् । (२) केवलदर्शनावरणीयम् । (३) निद्रा, (४) निद्रानिद्रा, (५) प्रचला, (६) प्रचलाप्रचला, (७) स्त्यानदिः, (८-११) अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयम् , (१२-१५) अप्रत्याख्यानकषायचतुष्टयम् , यह विचित्रता अदृष्ट कारण-कर्म के विना नहीं हो सकती, शुभ शरीर आदि पुण्य का कार्य है और अशुभ शरीर आदि पाप का कार्य है । अतः पुण्य और पाप के भेद से कर्म दो प्रकार का सिद्ध होता है। पुण्यकर्म और पापकर्म दोनों स्वतन्त्र-भिन्न है, इस विषय में आगम भी प्रमाण है। स्थानाङ्ग सूत्र में कहा है-'पुण्य एक है पाप एक है। इसी प्रकार समवायाङ्गसूत्र में भी कहा है। सर्वघाती प्रकृतिया(१) केवलज्ञानावरणीय, (२) केवलदर्शनावरणीय, (३) निद्रा, (४) निद्रानिद्रा, (५) प्रचला, (६) प्रचलाप्रचला, (७) त्यानद्धिं, (८-११) अनन्तानुबन्धी-क्रोध, मान, माया, लोभ, (१२-१५) अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया, लोभ, (१६-१९) प्रत्याख्यानाઆ વિચિત્રતા અદણ કારણ–કમના વિના હોઈ શકે નહિ. શુભ શરીર આદિ પુણ્યનું કાર્ય છે. અને અશુભ શરીર આદિ પાપનું કાર્ય છે. તે કારણથી પુણ્ય અને પાપના ભેદથી કર્મ બે પ્રકારનાં સિદ્ધ થાય છે. પુણ્યકર્મ અને પાપકર્મ અને સ્વતંત્ર-ભિન્ન છે. આ વિષયમાં આગમ પણ प्रभार छ, स्थानin सूत्रमा ४थु छ-" पुण्य से छे, पाय से छे." मे २१ प्रमाणे समवायाङ्ग-सूत्रमा ५ ४युं छे. सघाती प्रतिमा(१) सज्ञाना१२९॥य, (२) उपसना१२९य, (3) निद्रा, (४) निद्रनिद्रा (५) प्रत्यक्षा (6) प्रयदाप्रन्यदा, (७) सत्यानाद्ध, (८-११) अनन्तानुमधी-छ, मान, भाया,साला,(१२-१५) २५प्रध्याना१२-४।५, भान, माया,सोल, (१६-१८) प्रत्याभ्यानावर Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ - आचारागसूत्रे (१६-१९) प्रत्याख्यानकषायचतुष्टयम् , (२०) मिथ्यात्वं च, एता विंशतिः प्रकृतयः सर्वघातिन्यः। समस्तावरणक्षयादाविभूतं सकलद्रव्यपर्यायग्राहि केवलज्ञानं, तदाच्छादनकृत् केवलज्ञानावरणीयम् । इदं हि केवलज्ञानोपघातेन सर्वमेव द्रव्यपर्यायज्ञानं प्रतिहन्ति, तस्मात् सर्वघातीत्यच्यते । ननु-सर्वजीवानां केवलज्ञानस्यानन्तभागोऽनाटत एवावतिष्ठते, तस्याप्यावरणे तु जीवस्याजीवत्वमापयेत तर्हि कथं केवलज्ञानावरणीयस्य सर्वघातित्वसंभवः ? इति चेत् , उच्यते यथा घनीभूतघनपटलेन सूर्यचन्द्रमसोर्वहुतरप्रभासमावरणे सर्वाऽपि प्रभा वरण, क्रोध, मान, माया, लोभ, (२०) मिथ्यात्व । ये वीस प्रकृतिया सर्वघाती हैं । केवलज्ञान समस्त आवरणो के क्षय से प्रकट होने वाला तथा समस्त द्रव्यों और पर्यायों को ग्रहण करने वाला है । इसे आच्छादित करने वाला कर्म केवलज्ञानावरणीय कहलाता है । यह कर्म केवलज्ञान का घात करके समस्त द्रव्य पर्यायों के ज्ञान का घात करता है, अत एव यह सर्वघाती कहलाता है । शङ्का-सब जीवों के केवलज्ञान का अनन्तवा भाग प्रकट रहता है, अगर उतना भी प्रकट न रहे तो जीव अजीव हो .जायगा । ऐसी स्थिति में केवलज्ञानावरणीय सर्वघाती कैसे हो सकता है ? समाधान-जैसे अत्यन्त सघन मेघपटल के द्वारा सूर्य या चन्द्रमा की बहुत सी प्रभा छिप जाने के कारण लोक में कहा जाता है कि सूर्य-चन्द्र की सारी प्रभा छिप -है।ध, भान, भाया, होम, (२०) मिथ्यात्प, PAL वीस प्रतियसर्वधाती छे. કેવલજ્ઞાન સમસ્ત આવરણનાં ક્ષયથી પ્રગટ થવાવાળુ, તથા સમસ્ત દ્રવ્ય અને પર્યાયને ગ્રહણ કરવા વાળું છે, તેને આચ્છાદિત કરવાવાળું કર્મ કેવલજ્ઞાનાવરણીય કહેવાય છે. એ કર્મ કેવલ જ્ઞાનનો ઘાત કરીને સમસ્ત દ્રવ્ય-પર્યાના જ્ઞાનને ઘાત કરે છે. એટલા માટે તે સર્વઘાતી કહેવાય છે. શકા–સર્વ જીને કેવલજ્ઞાનને અનન્ત ભાગ પ્રગટ રહે છે. પણ જે એટલે પણ પ્રગટ ન રહે તે જીવ, અજીવ થઈ જશે. આવી સ્થિતિમાં કેવલજ્ઞાનાવરણીય સર્વઘાતી કેવી રીતે થઈ શકે છે? સમાધાન જેવી રીતે અત્યન્ત, સઘન મેઘપટલ (ઘનઘોર વાદલ) દ્વારા સૂર્ય અથવા ચન્દ્રમાની ઘાણીખરી પ્રભા-કાંતિ ઢંકાઈ જવાથી લોકમાં કહેવાય છે કે સૂર્ય-ચંદ્રની Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ कर्मवादिप्र० ३४९ तयोरावृतेति लोकव्यवहारवत् जीवस्य सर्वज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणीयमकृत्या क्रियते इति व्यपदिश्यते । मतिज्ञानादिविषयान् अर्थान् न जानाति जीवस्तत्र मतिज्ञानावरणीयादिप्रकृत्युदय एव मतिज्ञानादिकमावृणोति, न तु केवलज्ञानावरणीयोदयस्तत्र कारणं भवतीति बोध्यम् । एवं केवलदर्शनस्यानन्तभागोऽप्यनावृत एव तत्रापि मेघदृष्टान्तानुसारेणावरणव्यवहारमादाय केवलदर्शनावरणीयस्य सर्वघातित्वमुपपद्यते । तत्रापि चक्षुर्दर्शनावरणीयादिप्रकृत्युदयादेव जीवश्चक्षुर्दर्शनादिविषयानर्थान् ज्ञातुं न शक्नोति, न तु केवलदर्शनावरणीयोदयस्तत्र कारणमिति बोध्यम् । गई । इसी प्रकार ' केवलज्ञानावरण प्रकृति जीव के समस्त ज्ञानका आवरण करती है ' ऐसा कहा जाता है । जीव मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थों को नहीं जानता, इस में मतिज्ञानावरणीय प्रकृति का उदय ही कारण है, वही मतिज्ञान को रोकता है । इस में केवलज्ञानावरणीय का उदय कारण नहीं है । इसी प्रकार केवलदर्शन का अनन्तवाँ भाग उघाडा रहता है । वहाँ भी मेघ के दृष्टान्त के अनुसार आवरण का व्यवहार समझ कर केवलदर्शनावरणीय को सर्वघाती प्रकृति समझना चाहिए। यहां भी चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत पदार्थों को जीव चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि के उदय से ही नहीं जानता । वहाँ केवलदर्शनावरणीय कारण नहीं समझना चाहिए । તમામ કાંતિ–પ્રકાશ ઢીંકાઈ ગઈ. એ પ્રમાણે કેવલજ્ઞાનવરણ પ્રકૃતિ જીવના સમસ્ત જ્ઞાનનું આવરણ કરે છે, એમ કહેવાય છે. જીવ મતિજ્ઞાનના વિષયભૂત પદાર્થોને જાણતા નથી; તેમાં મતિજ્ઞાનાવરણીય પ્રકૃતિ-કર્માંના ઉદયજ કારણુરૂપ છે. તેજ મતિજ્ઞાનને શકે છે એમાં કેવલજ્ઞાનાવરણીયને ઉદય કારણુ રૂપ નથી. એ પ્રમાણે કેવલદનનેા અનન્તમે ભાગ ઉઘાડા રહે છે. ત્યાં પણ મેઘના દેષ્ટાન્ત પ્રમાણે આવરણના વ્યવહાર સમજી લઈને કેવલદશનાવરણીયને સઘાતી પ્રકૃતિ સમજવું જોઈએ, અહીં પણ ચક્ષુશન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોને જીવ ચક્ષુનાવરણીય આદિના ઉદયથી જાણુતા નથી, ત્યા કેવલદર્શનાવરણીય કારણ નહિ સમજવું જોઈએ. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० आचाराङ्गसूत्रे ननु केवलज्ञानावरणीयस्य केवलदर्शनावरणीयस्य च क्षये सत्यपि मतिज्ञानादीनां चक्षुर्दर्शनादीनां च विपया ज्ञातुमशक्याः स्युः, तेषां केवलज्ञानावरणीय-केवलदर्शनावरणीय-प्रकृत्योर्विषयाभावात् , मतिज्ञानावरणीयादीनां च क्षयाभावात्ताभिर्मतिज्ञानादीनां समादृतत्वादिति चेत् ? उच्यते केवलज्ञानलाभे शेषावबोधलाभस्य तदन्तर्गतत्वात् । यथा-ग्रामलाभे क्षेत्रलाभो ग्रामलाभान्तर्भूत एव भवति । निद्रादिपञ्चकमपि सकलपदार्थावबोधं प्रतिहन्तीति सर्वघाति भवति । यदि पुनः स्वापदशायामपि किंचिद् ज्ञानमस्तीति संभाव्यते, तर्हि तत्रापि जलधरदृष्टान्तमाश्रित्य समाधेयम् । शङ्का केललज्ञानावरणीय और केवलदर्शनावरणीय का क्षय होने पर भी मतिज्ञान आदि और चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत पदार्थो का जानना अशक्य होना चाहिए, क्यों कि वे केवलज्ञानावरणीय, और केवलदर्शनावरणीय प्रकृतियों के विषय नहीं है, और मतिज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ है, उन्हीं से मतिज्ञान आदि आवृत होते हैं। समाधान-केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर शेष ज्ञानों की प्राप्ति उसी में अन्तर्गत हो जाती है । जैसे ग्राम मिलने पर खेत आप ही मिल जाता है। निद्रा आदि पांच प्रकृतिया भी सकल पदार्थो के ज्ञान का घात करती हैं, अत एव सर्वघाती है । अगर निद्रा-अवस्था में भी किञ्चित् ज्ञान की संभावना की जा सकती है तो वहा भी मेघ का दृष्टान्त लेकर समाधान करना चाहिए । શંકા–કેવલજ્ઞાનાવરણીય અને કેવલદર્શનાવણીયને ક્ષય થવા છતાં પણ મતિજ્ઞાન આદિ અને ચક્ષુર્દર્શન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોને જાણવું તે અશકય હોવું જોઈએ, કારણ કે તે કેવલજ્ઞાનાવરણીય અને કેવલદર્શનાવરણીય પ્રકૃતિઓને વિષય નથી. અને મતિ જ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિઓને ક્ષય થયો નથી, તેનાથી મતિજ્ઞાન અદિ આવૃત થાય છે. સમાધાન–કેવલ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થવાથી શેષ જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ તેમાં અન્તર્ગત થઈ જાય છે. જેવી રીતે ગામ મળવાથી ખેતર પિતેજ મલી જાય છે. નિદ્રા આદિ પાંચ પ્રકૃતિઓ પણ તમામ પદાર્થોના જ્ઞાનને ઘાત કરે છે, એ માટે તે સર્વઘાતી છે. અથવા નિદ્રા અવસ્થામાં પણ કિંચિત જ્ઞાનની સંભાવના કરાય છે. તે ત્યાં પણ મેઘનું દષ્ટાંત લઈને સમાધાન કરી લેવું જોઈએ. Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप्र० अनन्तानुबन्ध्यादयो द्वादश कषायाः प्रत्येकं यथाक्रमं सम्यक्त्वं देशविरतिचारित्रं सर्वविरतिचारित्रं च सर्वमेव नन्ति, तस्मादेते द्वादश कषायाः सर्वघातिन इत्युच्यन्ते । तेषां प्रबलोदयेऽपि कुलाचारप्रभृतिकारणवशादशुद्धाहारादिविरमणदर्शनात् सर्वघातित्वं न संभवतीति नाशङ्कनीयम् , नवीनघनघटादृष्टान्ताश्रयणेन तस्यापि समाधेयत्वात् । मिथ्यात्वं तु सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सर्वमपि प्रतिहन्ति, तस्मात् सर्वघातीत्युच्यते । यदि मिथ्यात्वस्य प्रबलोदयेऽपि मनुष्यपश्वादिवस्तुविषयकं सम्यक्त्वमस्ति, कथं तर्हि सर्वघातित्वं मिथ्यात्वस्येति संभाव्यते, तदाऽत्राप्युक्तजलदावलीदृष्टान्तः शरणीकरणीयः। __ अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय क्रमशः सम्यक्त्व का देशविरति का, और सर्वविरतिका पूर्णरूप से घात करते हैं, अतः ये बारह कषाय भी सर्वघाती कहलाते हैं । यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि-इन कषायों का प्रबल उदय होने पर भी कुलाचार आदि कारणों से अशुद्ध आहार आदि का त्याग देखा जाता है अत एव इन्हें सर्वघाती नहीं कहा जा सकता, क्यो कि नवीन मेघघटाका दृष्टान्त लेकर इस शङ्का का भी समाधान किया जा सकता है। मिथ्यात्व प्रकृति तो तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व का पूर्णरूप से घात करती ही है, अतः वह सर्वघाती है। यदि मिथ्यात्व का प्रबल उदय होने पर भी मनुष्य पशु आदि वस्तुओं सम्बन्धी सम्यक्त्व रहता है तो मिथ्यात्व को सर्वघाती कैसे कहा जा सकता है ? इस शङ्का के समाधान के लिए भी उक्त मेघपटल के ही दृष्टान्त का आश्रय लेना चाहिए। અનન્તાનુબંધી આદિ બાર કષાય ક્રમશઃ સમ્યકત્વને દેશવિરતિને અને સર્વ વિરતિને પૂર્ણ રૂપથી ઘાત કરે છે, તેથી એ બાર કષાય પણ સર્વઘાતી કહેવાય છે. એવી શંકા નહિ કરવી જોઈએ કે –એ કષાયોના પ્રબલ ઉદય વખતે પણ કુલાચાર આદિ કારણોથી અશુદ્ધ આહાર આદિનો ત્યાગ જોવામાં આવે છે. તે માટે તેને સર્વઘાતી કહી શકાશે નહિ; કારણ કે નવીન મેઘ ઘટાનું દ્રષ્ટાંત લઈને આ શંકાનું સમાધાન કરી શકાય છે. મિથ્યાત્વ પ્રકૃતિ તે તત્ત્વાર્થ શ્રદ્ધાનરૂપ સમ્યક્ત્વને પૂર્ણ રૂપથી ઘાત કરે છે, તેથી તે સર્વઘાતી છે. જે મિથ્યાત્વને પ્રબલ ઉદય હોય તે વખતે પણ–મનુષ્ય, પશુ આદિ વસ્તુઓ સંબંધી સમ્યક્ત્વ રહે છે તે મિથ્યાત્વને સર્વઘાતી કેવી રીતે કહી શકશે ? એ શંકાના સમાધાન માટે પણ આગળ કહેલ મેઘપટળનાંજ દ્રષ્ટાંતનો આશ્રય લેવો જોઈએ. Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ आचारागसूत्रे देशघातिप्रकृतयःअथ देशघातिप्रकृतयः कथ्यन्ते । (१) मतिज्ञानावरणीयम् , (२) श्रुतज्ञानावरणीयम् , (३) अवधिज्ञानावरणीयम् , (४) मनःपर्ययज्ञानावरणीयम् , एतानि चत्वारि ज्ञानावरणीयानि ४ । (१) चक्षुदर्शनावरणीयम् , (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीयम् , (३) अवधिदर्शनावरणीयम् , इति त्रीणि दर्शनावरणीयानि७ । संज्वलनरूपाः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः कपायाः ११। हास्य-रत्य-रति-भय-शोकजुगुप्सा-स्त्रीवेद-पुंवेद-नपुंसकवेदभेदतो नवसंख्यका नोकषायाः २० । तथा दानलाभ-भोगो-पभोग-वीर्य५भेदात् पञ्चविंशतिः २५ प्रकृतयो देशघातिन्यः सन्ति । मतिज्ञानावरणीयादिचतुष्टयी प्रकृतिः केवलज्ञानावरणीयावृतं दैशिकं ज्ञानं हन्ति, तस्माद्देशघातिनीयमुच्यते । देशघाती प्रकृतियाअब देशघाती प्रकृतियों का कथन किया जाता है:-(१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मनःपर्ययज्ञानावरणीय, ये चार ज्ञानावरणीय४ । तथा (१) चक्षुर्दर्शनावरणीय, (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीय, (३) अवधिदर्शनावरणीय, ये तीन दर्शनावरणीय७ । तथा संज्वलन-क्रोध, मान, मोया, लोभ, ये चार कषाय ११ । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद के भेद से नौ नोकषाय २० । तथा दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभागान्तराय और वीर्यान्तराय, ये पांच अन्तराय २५ । सब मिलकर पच्चीस देशघाती प्रकृतिया है। मतिज्ञानावरणीय आदि चार प्रकृतियों केवलज्ञानावरणीयद्वारा आवृत एक देश ज्ञानका घात करती हैं, अत एव उन्हें देशघाती प्रकृतिया कहते हैं, देशघाती प्रतिमाહવે દેશઘાતી પ્રકૃતિઓનું કથન-નિરૂપણું–કરવામાં આવે છે-(૧) મતિજ્ઞાનાવરણીય, (२) श्रुतनाना१२९॥य, (3) अवधिज्ञाना१२०ीय, (४) मन:पर्ययज्ञाना१२९ीय, २मा यार जाना१२०ीय छे ४, तथा (१) यक्षुदर्शनावरणीय, (२) अन्य दशना१२७॥य, (3) अवधिशनावरणीय, मात्र दशनावीय, ७, तथा सम्पसन-औध, भान, माया, सोम, ये या२ ४पाय, ११, हास्य, २ति, मति, भय, ४, शुसा. श्रीव, पुरुषवे, नधुस४२६ ના ભેદથી નવ નેકષાય, ૨૦,તથા દાનાન્તરાય, લાભાન્તરાય,ભેગાન્તરાય, ઉપભેગાન્તશય, અને વનરાયઆ પાંચ અન્તરાય રપ, બધી મળીને પચીસ દેશઘાતી પ્રકૃતિઓ છે. મતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ ચાર પ્રકૃતિએ કેવલજ્ઞાનાવરણીય દ્વારા આવૃત એક દેશ જ્ઞાનને ઘાત કરે છે, તેટલા માટે તેને દેશઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. १ सू. ५. कर्मवादिप्र० '३५३ मतिज्ञानादिविषयाणामर्थानामवबोधो यन्न भवति, तच्च मतिज्ञानावरणीयादिचतुष्टयप्रकृत्युदयादेव । यत्तु मतिज्ञानाद्यविषयाणामनन्तपदार्थानां ज्ञानं न भवति तत् केवलज्ञानावरणीय प्रकृत्युदयादेव । चक्षुर्दर्शनावरणीयादित्रयी प्रकृतिः केवलदर्शनावरणीयानावृतं केवलदर्शनैकदेशं ज्ञानं हन्तीति देशघातित्वं सिद्धम् । चक्षुरादिदर्शनविषयभूतानामर्थानां दर्शनं यन्न भवति, तत् चक्षुरादिदर्शनावरणीयप्रकृत्युदयादेव; यश्च सद्विषयभूतान् अनन्तगुणान् न पश्यति, तत् केवलदर्शनावरणीयोदयादेव । कषायास्तथा नव नोकषायाश्च लब्धस्य तथा -संज्वलनाश्चत्वारः 1 मतिज्ञान आदि के विषयभूत पदार्थों का जो ज्ञान नहीं होता सो मतिज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों के उदय से ही समझना चाहिए । और जो पदार्थ मतिज्ञान आदि के विषय नहीं है, उनके ज्ञानका अभाव केवलज्ञानावरणीय प्रकृति के उदय से होता है । चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि तीन प्रकृतियाँ केवलदर्शनावरणीयद्वारा अनावृत केवलदर्शन के एकदेश ज्ञानका घात करती हैं, अतः वे देशघाती हैं । चक्षुर्दर्शन आदि के विषयभूत . पदार्थों का जो ज्ञान नहीं होता सो चक्षुर्दर्शनावरणीय आदि प्रकृतियों के उदय से समझना चाहिए और केवलदर्शन के विषयभूत अनन्त गुणों के ज्ञानका जो अभाव होता है सो केवलदर्शनावरणीय के उदय से ही समझना चाहिए । चार संज्वलन कषाय और नौ नोकषाय प्राप्त हुए चारित्र के एक देश का મતિજ્ઞાન આદિના વિષયભૂત પદાર્થાનું જે જ્ઞાન થતું નથી તે મતિજ્ઞાનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિના ઉદયથીજ સમજી લેવું જોઇએ. અને જે પદાર્થ મતિજ્ઞાનાદિના વિષય નથી તેના જ્ઞાનના અભાવ કેવલજ્ઞાનાવરણીય પ્રકૃતિના ઉદયથી હાય છે. ચક્ષુ નાવરણીય આદિ ત્રણ પ્રકૃતિઓ કેવલદનાવરણીય દ્વારા અનાવૃત કેવલર્દેશનના એકદેશ જ્ઞાનને ઘાત કરે છે. એ કારણથી તે દેશઘાતી છે ચક્ષુ ન આદિના વિષયભૂત પદાર્થોનુ જે જ્ઞાન થતું નથી તે ચક્ષુનાવરણીય આદિ પ્રકૃતિના ઉન્નયથી સમજવું જોઈએ, અને કેવલદનના વિષયભૂત અનન્ત ગુણ્ણાના જ્ઞાનના જે અભાવ થાય છે તે કેવલદનાવરણીયના ઉદયથીજ સમજવું જોઈ એ. ચાર સંજવલન કષાય અને નવ નાકષાય પ્રાપ્ત થયેલા ચારિત્રના એક દેશનેાજ प्र. म-४५. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ आचाराङ्गसूत्रे चारित्रस्य देशमेव घ्नन्ति तेषां मूलोत्तरगुणातीचारजनकत्वात् । तस्मादेतात्रयोदश प्रकृतयो देशघातिन्य इति बोध्यम् । तथा - दानान्तरायादिपञ्चान्तरायरूपाः प्रकृतयोऽपि देशघातिन्य एव । दानलाभभोगोपभोगानां चतुणी विषयस्तावद् ग्रहणधारणयोग्यान्येव द्रव्याणि सन्ति । तानि च सकलपुद्गलास्तिकायस्यानन्तभागरूपे देश एव वर्तन्ते, अतो यासां प्रकृतीनामुदयात् पुद्गलास्तिकायदेशवर्तीनि द्रव्याणि दातुं लब्धुं भोक्तुमुपभोत्तकुं च न शक्नोति ताः प्रकृतयो दानलाभभोगोपभोगान्तरायरूपास्तावद्देशघातिन्य एव । यत्तु - समस्तलोकान्तर्गतानि द्रव्याणि दातुं लब्धुं भोक्तुमुपभोक्तुं च न प्रभवति तदानान्तरायादिप्रकृत्युदयतो न भवति, किन्तु तेषामेव ग्रहणधारणही घात करते हैं, क्यों कि वे मूलगुणों और उत्तरगुणों में अतिचार उत्पन्न करते हैं, इस कारण ये तेरह प्रकृतियाँ देशघाती हैं, ऐसा समझना चाहिए । अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियां भी देशघाती ही हैं । दान, लाभ, भोग और उपभोग, इन चार के विषय ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्य ही हैं, और ऐसे द्रव्य समस्त पुद्गलास्तिकाय के अनन्तवें भाग हैं, अतः जिन प्रकृतियों के उदय से पुद्गलास्तिकाय के एकदेशवर्ती द्रव्यों का दान, लाभ, भोग या उपभोग न हो सके वे दानान्तराय आदि प्रकृतियाँ भी देशघाती ही हैं । समस्त लोक के अन्तर्गत द्रव्यों का दान, लाभ, भोग और उपभोग नहीं हो सकता, सो यह दानान्तराय आदि प्रकृतियों के उदय से नहीं, परन्तु उन द्रव्यों को લાત કરે છે કારણુ કે તે મૂલગુણા અને ઉત્તરગુણામાં અતિચાર ઉત્પન્ન કરે છે, આ કારણથી તે તેર પ્રકૃતિએ દેશધાતી છે. એ પ્રમાણે સમજવું જોઇએ. અન્તરાય કની પાંચ પ્રકૃતિએ પણ દેશઘાતીજ છે. દાન, લાભ, ભાગ અને ઉપભાગ, એ ચારના વિષય ગ્રહણ અને ધારણુ કરવા ચેાગ્ય દ્રવ્યજ છે, અને એવા દ્રવ્ય સમસ્ત પુદ્ગલાસ્તિકાયના અનન્તમેા ભાગ છે, તેથી જે પ્રકૃતિએના ઉદ્ભચથી પુદગલાસ્તિકાયના એકદેશવર્તી દ્રવ્યેના દાન, લાભ, ભાગ અને ઉપભેાગ ન થઈ શકે, તે દાનાન્તરીય આદિ પ્રકૃતિએ પણ દેશઘાતી છે. સમસ્ત લેાકના અન્તગત દ્રચૈાના દાન, લાભ, ભેાગ અને ઉપલેગ થઇ શકતા નથી, તે આ દાનાન્તરાય આપ્તિ પ્રકૃતિએના ઉદયથી નહિ; પરન્તુ તે દ્રબ્યાને ગ્રહણ અને Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. ५ कर्मवादिनः ३५५ योग्यताया अभावादशक्यानुष्ठानत्वादिति मन्तव्यम् । वीर्यान्तरायमकृतिरपि सर्व वीर्य न हन्तीति देशघातिन्येव । तथाहि- ... सूक्ष्मनिगोदजीवात् प्रभृति आक्षीणमोहनीयजीवं वीर्यान्तरायस्य क्षयोपशमविशेषाद् वीर्य कस्यचिदल्पं, कस्यचिद् बहु, कस्यचिद् बहुतरं, कस्यचिद् बहुतम भवति, वीर्यान्तरायकर्मणोऽभ्युदये सूक्ष्मनिगोदस्यापि आहारपरिणमनकर्मदलिकग्रहणगत्यन्तरगमनादिकं विद्यते । एतच्च वीर्य विना न संभवति। तस्माद्देशत एव वीर्य वीर्यान्तरायप्रकृत्या हन्यते, न तु सर्वतः । यदि पुनरियं सर्वघातिनी ग्रहण और धारण करने की योग्यता न होने के कारण अशक्यानुष्ठान से समझना चाहिए। वीर्यान्तराय प्रकृति भी समस्त वीर्य का घात नहीं करती अतः देशघाती है। सूक्ष्म निगोदिया जीव से लेकर क्षीणमोह-गुणस्थान पर्यन्त के जीवों में वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से किसी जीव में अल्प वीर्य (शक्ति) होता है, किसी में बहुत वीर्य होता है, किसी में बहुत अधिक वीर्य होता है और किसी में अत्यन्त अधिक वीर्य होता है । वीर्यान्तराय कर्मका उदय होने पर भी सूक्ष्म निगोद का जीव आहार का परिणमन करता है, कर्मदलियों को ग्रहण करता है और दूसरी गति में जाता है। ये सब कार्य वीर्य के विना नहीं हो सकते । इस से यह सिद्ध हुआ कि वीर्यान्तराय कर्म वीर्य को एकदेश से ही घात करता है, सर्वदेश से नहीं। अगर यह प्रकृति सर्वघाती मानी जाय तो जैसे सर्वघाती मिथ्यात्व के उदयं में सम्यग्दर्शन लेशमात्र नहीं होता, और ધારણ કરવાની ચેગ્યતા નહિ હોવાના કારણે અશક્યાનુષ્ઠાનથી સમજવું જોઈએ. વિર્યાન્તરાય પ્રકૃતિ પણ સમસ્ત વીર્યને ઘાત કરતી નથી, તેથી તે દેશઘાતી છે. સૂક્ષ્મનિગેદના જીવથી લઈને ક્ષીણમાહગુણસ્થાન સુધીના માં વિર્યાન્તરાયના લપશમથી કઈ જીવમાં અલ્પવીર્ય (ાડી શકિત) હોય છે, કોઈ જીવમાં બહુ વીર્ય હોય છે; કઈ જીવમાં બહુજ અધિક વીય હોય છે, અને કઈમાં અત્યન્ત અધિક વીર્ય હોય છે. વીર્યન્તરાય કર્મને ઉદય હેય ત્યારે પણ સૂક્ષ્મ નિગદના જીવ આહારનું પરિણમન કરે છે, કમદલિકેને ગ્રહણ કરે છે, અને બીજી ગતિમાં જાય છે. આ તમામ કાર્ય વીર્ય વિના થઈ શકે નહી, તેથી એ સિદ્ધ થયું કે – વીર્યાન્તરાય કર્મ વીર્યના એક દેશનો જ ઘાત કરે છે, સર્વ દેશને નહી. અથવા તે આ પ્રકૃતિને સર્વઘાતી માનવામાં આવે તો જેવી રીતે સર્વઘાતી મિથ્યાત્વના ઉદયમાં સમ્યક્રર્શન લેશમાત્ર પણ હાય નહી, અને સ્મ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६. . . . . आचारागसूत्रे स्यात् तदा सर्वघातिनो मिथ्यात्वस्य कपायद्वादशकस्य चाभ्युदये यथा जघन्यमपि सम्यक्त्वं देशसंयमः सर्वसंयमश्च नोपलभ्यते, तथा वीर्यान्तरायस्योदयेऽपि जघन्यमपि वीर्यगुणं नोपलभ्येत, न चैव भवति, तस्मात् वीर्यान्तरायप्रकृतिरपि देशघातिनीति सिद्धम् । अघातिप्रकृतयः- . अघातिन्यः प्रकृतयः पञ्चसप्ततिः सन्ति । तथाहि-प्रत्येकं प्रकृतयः पराघातो?-वासा२-ऽऽतपो३-धोता४-गुरुलघु५-तीर्थकर६-निर्माणो-पघात८रूपा अष्टौ सन्ति । (१) औदारिकं, (२) वैक्रियम् , (३) आहारकं, (४) तैजसं, (५) कार्मणं चेति पञ्च शरीराणि ५। त्रीण्युपाङ्गानि३ । षट् संस्थानानि६ । षट् संहनजैसे बारह कषायों का उदय होने पर देशविरति और सर्वविरति, एक देश से भी नहीं होती उसी प्रकार वीर्यान्तराय कर्म का उदय होने पर लेशमात्र भी वीर्यगुण प्रकट नहीं होने चाहिए, मगर ऐसा नहीं होता, अतः यह सिद्ध हुआ कि वीर्यान्तराय प्रकृति भी देशघाती ही है। __. अघाती प्रकृतियांअघाति प्रकृतिया पचहत्तर ७५ हैं, वे इस प्रकार-(१) पराघात, (२) उच्वास, (३) आतप, (४) उद्योत, (५) अगुरुलघु, (६) तीर्थकर, (७) निर्माण, (८) उपधात, ये आठ प्रत्येक प्रकृतियां अघाती है८ । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, और कार्मण शरीर, ये पांच शरीर अघाती प्रकृतिया हैं १३ । तीन उपाङ्ग१६, छह संस्थान२२,. બાર કષાને ઉદય થવા સમયે દેવવિરતિ અને સર્વવિરતિ એકદેશથી પણ હોય નહી; તે પ્રમાણે વર્યાન્તરાય કર્મને ઉદય થતાં લેશમાત્ર પણ વીર્યગુણ પ્રગટ થ નહી જોઈએ, પરંતુ એ પ્રમાણે થતું નથી, એ કારણથી સિદ્ધ થયુ કે-વર્યાન્તરાય પ્રકૃતિ પણ દેશઘાતીજ છે. ___मघाती प्रतिमा___ मघाती प्रतिमा यात२ (७५) छे. ते २मा प्रभारी छ:-(१) ५राधात, (२) स; (3) मात५, (४) धोत, (५) २५४३०धु, (६) ती4'४२, (७) निर्माण, (८) Guard, मा भार प्रत्ये प्रतिमे। अघाती छे. (१) मोहारि, (२) वैठिय, (3) मा २४, (४) तस. भन (५) धर्म शरीर, या पांय शरीर मघाती प्रतिमा छे; (१३) Y Guin, (१६) ७ संस्थान, (२२) ७६ खनन, (२८) पाय जतिसा, (33) या२ गति, ३७ मे विडाया. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सु. ५. कर्मवादिप्र० ३५७ नानि६ । पञ्च जातयः ५ । चतस्रो गतयः ४ । द्वे खगती२ । चतस्रः आनु पूर्व्यः ४ | आयूंषि चत्वारि४ । त्रसदशकम् १० । स्थावरदशकम् १० । उच्चैर्गोत्रम् १ । नीचैर्गोत्रम् १ | सातवेदनोयम् १ | असावेदनीयम् १ | वर्ग- गन्ध-रस - स्पर्शाख्या श्चतस्रः प्रकृतयः ४ । ७५ ॥ एताः प्रकृतयः कमपि ज्ञानादिगुणं न इन्तीत्यघातिन्य उच्यन्ते । इमाः सर्ववातिप्रकृतिभिः सह वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि सर्वघातिफलं प्रदर्शयन्ति । देशघातिमकृतिभिः सह पुनर्वेद्यमानाः स्वयमघातिन्योऽपि देशघातिरसं दर्शयन्ति । यथा - स्वयमचौरथी रैः सह वर्तमानचौर इवावभासते तद्वत् । छह संहनन२८, पांच जातियाँ ३३, चार गतिया ३७, दो विहायोगतियाँ ३९, चार आनुपूर्वी४३, चार आयु४७, त्रसदशक५७, स्थावरदशक ६७; उच्चगोत्र ६८, नीचगोत्र ६९, सातावेदनीय७०, असातावेदनीय ७१, तथा वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शनामक चार प्रकृतियाँ ७५ । ये प्रकृतियाँ ज्ञान आदि किसी गुणका घात नहीं करती है । इसी लिये ये अघाती कहलाती है । जब इनका सर्वघातो प्रकृतियों के साथ वेदन होता है तब ये स्वयं अघाती होते हुए भी सर्वघाती रसको प्रकट करती है, और देशघाती प्रकृतियों के साथ इनका वेदन हो तो स्वयं अघाती होने पर भी देशघाती रस को प्रकट करती है । जैसे कोई पुरुष चोर न हो किन्तु चोरों के साथ हो तो वह भी चोर जैसा ही प्रतीत होता है । यही हाल इन अघाती प्रकृतियों का है । गति, (3) यार अनुपूर्वी, (४३) यार भायु, (४७) त्रसदृश, (५७) स्थावरहश, (१७) उभ्यगोत्र, (१८) नीयगोत्र, (१५) शातावेदनीय, ( ७० ) असातावेद्दनीय, (७१) તથા વણુ રસ, ગંધ, અને સ્પર્શી નામની ચાર પ્રકૃતિ (૭૫). આ પ્રકૃતિએ જ્ઞાન આદિ કોઈ ગુણુના ઘાત કરતી નથો. એટલા માટે તેને અઘાતી પ્રકૃતિ કહે છે, પરન્તુ સધાતી પ્રકૃતિએની સાથે જ્યારે તેનું વેદન થાય છે તે પાતે અઘાતી હોવા છતાંય પણ એ સઘાતીનુ ફળ પ્રદર્શિત કરે છે. અથવા દેશઘાતી પ્રકૃતિની સાથે તેનું વેદન હેાય તે પાતે અઘાતી હેાવા છતાંય પણુ દેશઘાતી રસને પ્રગટ કરે છે. જેવી રીતે કેઈ પુરુષ ચાર ન હેાય પરન્તુ ચારાની સાથે હાય તે તે પણ ચાર જેવા જ દેખાય છે. એ પ્રમાણેજ આ અઘાતી પ્રકૃતિએ વિષે સમજવું, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કૃષ્ણ उत्तरप्रकृतिसंख्या आचाराङ्गसूत्र ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणामुत्तरप्रकृतिसंख्या अष्टचत्वारिंशदधिकशतं १४८ भवन्ति । तथाहि (१) ज्ञानावरणीयस्य-मति - श्रुता - ऽवधि - मन:पर्यय केवलज्ञानावरणीयंभेदात् पश्च । (२) दर्शनावरणीयस्य - चक्षुर्दर्शना - ऽचक्षुर्दर्शना - ऽवधिदर्शन - केवलदर्शनावर - णीयानि चत्वारि, तथा - निन्द्रा - निद्रानिद्रा - प्रचला - प्रचलाप्रचला - स्त्यानर्द्धिभेदात् पञ्च मिलित्वा नव भवन्ति । (३) वेदनीयस्य शाताशातभेदेन द्वौ भेदौ स्तः । 1 उत्तरप्रकृतियोंकी संख्या ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियों की संख्याएँ ( मध्यमविवक्षा से ) १४८ है । वे इस प्रकार (१) ज्ञानावरणीय की पांच - (१) मतिज्ञानावरणीय, (२) श्रतज्ञानावरणीय, (३) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मन:पर्ययज्ञानावरणीय, (५) केवलज्ञानावरणीय । (२) दर्शनावरणीय की नौ - (१) चक्षुर्दर्शनावरणीय, (२) अचक्षुर्दर्शनावरणीयं, (३) अवधिदर्शनावरणीय, (४) केवलदर्शनावरणीय, तथा (५) निद्रा, (६) निद्रानिर्द्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचलाप्रचला, (९) स्त्यानर्द्वि, ये पांच निद्राएँ मिलकर कुल नौ प्रकृतियाँ है । (३) वेदनीय की दो - सातावेदनीय और असातावेदनीय । ઉત્તરપ્રકૃતિની સખ્યા— જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોની ઉત્તરપ્રકૃતિએની સંખ્યા (મધ્યમ વિવક્ષાથી) मेभोने अडतासीस (१४८) छे. ते या प्रभा (१) ज्ञानावरणीयनी पांथ - ( १ ) भतिज्ञानावरणीय, (२) श्रुतज्ञानावरथीय, પાંચ (3) अवधिज्ञानावरणीय, (४) मन:पर्ययज्ञानावरणीय, (4) ठेवलज्ञानावरणीय. (२) हर्शनावरणीयनी नव छे. (१) यक्षुर्हर्शनावरणीय, (२) अयक्षुर्द्धर्शनावरणीय, (3) अवधिदर्शनावरीय, (४) ठेवतहर्शनावरणीय, तथा (५) निद्रा, (६) निद्रा-निद्रा (७) असा, (८) प्रयसा-प्रथमा, (स) स्त्यानद्धि, या पांच निद्रा भजीने નવ પ્રકૃતિએ થાય છે. (3) पेहनीयनी मे (१) सातावेदनीय भने असातावेदनीय. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५९ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिप (४) मोहनीयस्य-अष्टाविंशतिर्भदा भवन्ति । तथाहि-सम्यक्त्वमोहनीयमिथ्यात्वमोहनीय-मिश्रमोहनीय-भेदेन त्रीणि दर्शनमोहनीयानि । पञ्चविंशतिचारित्रमोहनीयानि मिलिखाऽष्टाविंशतिः। चारित्रमोहनीयस्य पञ्चविंशतिभैदाः, यथा - कषायमोहनीय१ - नोकषायमोहनीयर-भेदेन चारित्रमोहनीय द्विविधम् । तत्र कषायमोहनीयस्य षोडश भेदा भवन्ति, यथा-अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो, माया, लोभः ४, अनन्तः संसारो नारक-तियग-मनुष्य-देवजन्म-जरा-मरण-परम्परालक्षणः, तदनुबन्धादनन्तानुवन्धिनः क्रोधमानमायालोभाश्चत्वारः कषायाः४। तत्र क्रोधः-कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकाऽक्षमारूप आत्मपरिणामः। मानो-गवः, माया-शाठयम् , लोभो-गृध्नुता। अनन्तानुवन्धि (४) मोहनीय की अट्ठाईस-सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय, ये तीन दर्शनमोहनीय की, तथा पच्चीस चारित्रमोहनीय की कुल अट्ठाईस प्रकृतिया हैं। चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-कषायचारित्र. मोहनीय, और नोकषायचारित्रमोहनीय । कषायचारित्रमोहनीय के सोलह भेद हैं, जैसे-अनन्तानुबंधी क्रोध मान, माया, लोभ, 1 जो कषाय, नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में जन्म-जरा-मरणरूप अनन्त संसार का अनुबंध करे, वह अनन्तानुबन्धी है। उस के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को नष्ट कर देने वाला अक्षमारूप आत्मा का परिणाम क्रोध कहलाता है। गर्वको मान कहते हैं । माया का अर्थ कपट है । गृद्विभाव (लालच) लोभ कहलाता है। अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क में क्रोध को पर्वत की राजि (४) मानीयभनी मावीस छे. (१) सभ्यत्वमाऊनीय, भिश्रमोडनीय, मने. મિથ્યાત્વમોહનીય, આ ત્રણે દર્શનમેહનીયની, તથા પચીસ ચારિત્રમોહનીયની, એ પ્રમાણે કુલ અઢાવીસ પ્રકૃતિએ છે. ચારિત્રમોહનીયની પચીસ પ્રકૃતિઓ આ પ્રમાણે છે – यारित्रमाउनीयता में छ. (१) ४ाययारित्रमाडनीय मन (२) नोपाययारित्रमोहनीय, કષાયચારિત્રમેહનીયના સેળ ભેદ છે. જેમકે-અનન્તાનુબંધી કોધ, માન, માયા, લોભ. જે કષાય નારક, તિર્યંચ, મનુષ્ય, અને દેવગતિમાં જન્મ, જરા, મરણરૂપ અનન્ત સંસારને અનુબંધ કરે તે અનન્તાનુબંધી છે. તેના ચાર ભેદ છે, ક્રોધ, માન, માયા અને લોભ, કર્તવ્ય-અકર્તવ્યનાં વિવેકને નાશ કરવાવાળા અક્ષમારૂપ આત્માને પરિણામ તે ક્રોધ કહેવાય છે. ગર્વને માન કહે છે. માયાને અર્થે કપટ છે. લાલચ તે લોભ કહેવાય છે. અનન્તાનુબંધી કષાયચતુષ્કમાં ક્રોધને પર્વતની રાજિનું (પર્વત કપાવાથી Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० आचारागसूत्रे कषायचतुष्टये क्रोधस्य पर्वतराजिः, मानस्य शैलस्तम्भः, मायायाः वंशमूलं, लोभस्य-कृमिजरागः, उदाहरणम् । एवमप्रत्याख्यानावरणीयकषायाः क्रोधादयश्चत्वारः४ । तत्र प्रत्याख्यानं द्विविधम् – देशविति-सर्वविरति-भेदात् । प्रत्याख्यानमित्यत्र प्रतिशब्दः। प्रतिषेधवाची, प्रतिषेधस्याख्यान-प्रकाशनम्-प्रत्याख्यानम् । 'सर्वान् प्राणिनो न हन्मि यावज्जीवम्' इत्यादि भावतः स्वाचार्यादि समीपे प्रकाशनमित्यर्थः । प्रत्याख्यानस्यावरणीयम् प्रत्याख्यानावरणीयम् , न -प्रत्याख्यानावरणीयम् = अप्रत्याख्यानावरणीयम् । अत्रोपमार्थों 'न' - शब्दः । (पर्वत फटने से उत्पन्न हुई दरार) का, मान को शैलस्तंभका, मायाको वांसकी जडका और लोभको किरमिची रंगका उदाहरण दिया गया है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण के क्रोध आदि चार भेद हैं । प्रत्याख्यान दो प्रकारका है-देशविरति और सर्वविरति। 'प्रत्याख्यान' शब्द में 'पति' उपसर्ग निषेधवाचक है, अर्थात् प्रतिपेघ का प्रकाश करना प्रत्याख्यान है, अर्थात् " मै जीवनपर्यन्त किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करूँगा" इत्यादि प्रकार से भावपूर्वक अपने आचार्य आदि के समक्ष प्रकाशित करना प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का आवरणीय प्रत्याख्यानावरणीय कहलाता है। जो प्रत्याख्यानावरणीय न हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय है । यहाँ 'नन् ' शब्द उपमा के अर्थ में है, अर्थात् जो कषाय प्रत्याख्यानावरणीय के समान हो वह अप्रत्याख्यानावरणीय ઉત્પન્ન થયેલી ફાટ-ચીર) માનને શિલસ્તંભનું, માયાને વાંસની જડનું અને લોભને કિરમીચ રંગનું ઉદાહરણ આપ્યું છે. આ પ્રમાણે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણના ક્રોધ આદી ચાર ભેદ છે. પ્રત્યાખ્યાન બે प्रहारना छ-शिविराति भने साविति 'प्रत्याख्यान' शमा 'प्रति पसर्ग निषेधવાચક છે. અર્થાત પ્રતિષેધને પ્રકાશ કરે તે પ્રત્યાખ્યાન છે. અર્થાત્ “હું જીવન સુધી કેઈ પણ પ્રાણીની હિંસા કરીશ નહી” ઈત્યાદિ પ્રકારે ભાવપૂર્વક પિતાના આચાર્ય આદિના સમક્ષ પ્રકાશિત કરવું તે પ્રત્યાખ્યાન છે. પ્રત્યાખ્યાન ને આવરણીય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય ४३वाय छे. प्रत्याभ्यानापीयन डाय ते प्रत्याभ्यानावरणीय छ. माह निश्' શદ ઉપમાને અર્થમાં છે અર્થાત જે કષાય પ્રત્યાખ્યાનાવરણીયની સમાન હોય તે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. અથવા “” અલ્પથોડું-એવા અર્થમાં છે. અથોત. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिनः प्रत्याख्यानावरणीयवत् = अप्रत्याख्यानावरणीयम् । यद्वा-अल्पार्थों नञ् , अल्पं प्रत्याख्यानम्-अप्रत्याख्यानम् , तस्यावरणीयमिति । अल्पं देशविरतिरूपं प्रत्याख्यान समारणोति कषायचतुष्टयम् , तस्मादप्रत्याख्यानावरणीयमित्युच्यते । यः कषायः स्वल्पं देशविरतिरूपमादृणोति स सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृणो. त्येवेति नात्र चित्रम् । यत्कर्मोदयादाविर्भूताः कषायाः केवलं विरतिमात्रमावृण्वन्ति ते त्वपत्याख्यानावरणीयाः कषायाः। एवं प्रत्याख्यानावरणीयकषायाः क्रोधादयश्चत्वारः। अत्र प्रत्याख्यानशब्देन सर्वविरतिपरिग्रहः । ये पुनः कषायाः सर्वविरतिमेव प्रतिवध्नन्ति, न तु देशविरतिं ते प्रत्याख्यानावरणीया इति । कहलाता है । अथवा 'नन् ' अल्प-अर्थ में है, अर्थात् अल्प प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान कहलाता है, उसका आवरणीय अप्रत्याख्यानावरणीय है। यह कषायचतुष्टय अल्प अर्थात् देशविरतिरूप प्रत्याख्यान को आवृत करता है, इस कारण यह अप्रत्याख्यानावरणीय कहलाता है । जो कषाय स्वल्प देशविरति को भी नहीं होने देता वह सर्वविरति को न होने दे, इस में आश्चर्य ही क्या है ? । जिस कर्म के उदय से आविभूर्त कषाय केवल विरतिमात्र को रोकते है, वे अप्रत्याख्यानावरणीय कहलाते है। इसी प्रकार क्रोध आदि चार प्रत्याख्यानावरणीय है। यहा प्रत्याख्यान शब्द से सर्वविरति का ग्रहण किया गया है । जो कषाय, सिर्फ सर्वविरति का ही घात करते है, देशविरति का नहीं वे प्रत्याख्यानावरणीय कहलाते हैं । અલ્પ પ્રત્યાખ્યાન અપ્રત્યાખ્યાન કહેવાય છે. તેનું આવરણીય અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય છે. આ કષાયચતુષ્ટય અ૮૫ અર્થાત્ દેશવિરતિરૂપ પ્રત્યાખ્યાનને આગૃત કરે છે (ઢાંકી દે છે). એ કારણથી એ અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. જે કંષાય સ્વલ્પ દેશવિરતિને પણ થવા દેતા નથી. તે સર્વવિરતિને નહિ થવાદે. એમાં આશ્ચર્યજ શું છે? જે કર્મના ઉદયથી આવિર્ભૂત (ઉત્પન્ન થયેલા) કષાય કેવલ વિરતિમાત્રને રોકે છે, તે અપ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. આ પ્રમાણે ક્રોધ આદિ ચાર પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય છે, અહિં પ્રત્યાખ્યાન શબ્દથી સર્વવિરતિનું ગ્રહણ કર્યું છે. જે કષાય, માત્ર સર્વવિરતિને ઘાત કરે છે, દેશવિરતિને નહી, તે પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહેવાય છે. प्रा .-४६ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ आचारागसूत्रे प्रत्याख्यानस्य देशविरतिसर्व विरतिरूपस्य परिणामद्वयस्योत्पत्तेर्विघातकत्वात् प्रत्याख्यानावरणीया उच्यन्ते, न तु विद्यमानस्य प्रत्याख्यानस्यविघातकतयेति तत्त्वम् । एवं संज्वलनकषायाः क्रोधादयश्चत्वारः४। समस्तसावद्ययोगविरतं संयमरताप यति दुःसहपरिषहसंपाते संज्वलयन्ति-मालिन्यमापादयन्ति - इति संज्वलनाः। (१६)। अप्रत्याख्यानावरणीयकषायचतुष्टये दृष्टान्ता उच्यन्ते-क्रोधस्यतडागभूमिराजिः, मानस्यास्थिरतम्भः, मायायाः मेषशृङ्गः, लोभस्य कर्दमरागः । देशविरति और सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान की उत्पत्ति का घातक होने से इसे प्रत्याख्यानावरणीय कहते हैं, पहले से विद्यमान प्रत्याख्यान का घातक होने से नहीं । इसी प्रकार क्रोध आदि चार संज्वलन कषाय हैं। सब प्रकार के सावध योग से निवृत्त संयम में लीन मुनि को दुःसह परीपह उपस्थित होने पर जलाने वाला अर्थात् मलिनता उत्पन्न करने वाला कषाय संज्वलन कहलाता है । अप्रत्याख्यानावरणीयकषायचौकडी के दृष्टान्त बतलाते हैं-क्रोध का दृष्टान्त तडागभूमिराजि है, अर्थात् तालाव की भूमि फटने से उत्पन्न होनेवाली दरार के समान यह क्रोव होता है । मान का उदाहरण हड्डीका स्तंभ है। मायाका उदाहरण मेढाका सींग है और लोभ का दृष्टान्त गाडी का ओंगन (गाडी के पैये में दिये हुए तेल का कोटा ) है। દેશવિરતિ અને સર્વવિરતિરૂપ પ્રત્યાખ્યાનની ઉત્પત્તિનું ઘાતક હેવાથી તેને પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કહે છે, પહેલાથી વિદ્યમાન પ્રત્યાખ્યાનનું ઘાતક હોવાથી નહિ. એ પ્રમાણે ફોધ આદિ ચાર સંવલન કષાય છે, સર્વ પ્રકારના સાવદ્ય રોગથી નિવૃત્ત, સંયમમાં લીન મુનિને દુસ્સહ પરીષહ આવી પ્રાપ્ત થતાં જલાવવાવાળા અર્થાત મલિનતા ઉત્પન્ન કરવાવાળા કપાય સંજવલન કહેવાય છે. અપ્રત્યાખ્યાનાવરણય–કવાય-ચોકડીનું દષ્ટાન્ત બતાવે છે–ફોધનું દૃષ્ટાન્ત તલાવની ભૂમિરાજિ છે. અર્થાત્ તલાવની ભૂમિ ફાટવાથી ઉત્પન્ન થયેલી ફાટ-ચીરના સમાન એ ક્રોધ હોય છે. માનનું ઉદાહરણ હાડકાંને સ્તંભ છે. માયાનું ઉદાહરણ ઘેટાનાં સીંગ છે, અને તેનું દૃષ્ટાન્ત ગાડીની મળી (ગાડીનાં પૈડાંમાં અપાયેલા તેલનું છેટું) છે. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ .५. कर्मवादिप्र० प्रत्याख्यानावरणीयकषायचतुष्टये क्रोधस्य-वालकाराजिः, मानस्यकाष्ठस्तम्भः, मायाया-गच्छबलीवर्दमूत्रिका, लोभस्य-खजनरागः । संज्वलनकषायचतुष्टये क्रोधस्य-सलिलराजिः, मानस्य-तृणस्तम्भः, मायाया-रथकारतक्षितकाष्ठसंवलितत्वक् , लोभस्य-हरिद्राराग इति । नोकषायमोहनीयस्य नव भेदाः सन्ति-हास्य, रतिः, अरति, शोकः,, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेदः, स्त्रीवेदः, नपुंसकवेद इति २५ । । (५) आयुष्यकर्म चतुर्विधम्-नारक-तैर्यग्-मानुष-दैवायुर्भेदात् । यस्योदयात् मायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायीभूत आत्मा नारकादिभावेन जीवति, यस्य च प्रत्याख्यानावरणीय कषाय की चौकडी के उदाहरण-क्रोध का उदाहरण वाल में खींची हुई लकीर है । मान का उदाहरण काठका खंभा है । माया का उदाहरण चलते हुए बैल के मूत्र की टेढ़ी-मेढी लकीर है और लोभ का उदाहरण खंजन-राग है । संज्वलन कषाय की चौकडी के उदाहरण-क्रोध का उदाहरण जल में बनाई हुई लकीर है । मानका उदाहरण तिनके का स्तम्भ है । माया का उदाहरण बढई द्वारा छीले हुए काठका छिलका है, और लोभ का उदाहरण हलदी का रंग है। नोकषाय मोहनीय के नौ भेद है-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद २५ ।। (५) आयुष्य कर्म के चार भेद है-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । जिस कर्म के उदय से प्रायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायी अर्थात् जिस कर्म के उदय से उस-उस गतियोग्य प्रकृतिविशेष में स्थित आत्मा नारक आदि के रूप में जीता है પ્રત્યાખ્યાનાવરણીય કષાયની ચોકડીનું ઉદાહરણું–ફોધનું ઉદાહરણ–રેતીમાં કરેલી લીટી છે. માનનું ઉદાહરણ–કાષ્ઠને થાંભલે છે. માયાનું ઉદાહરણ–ચાલતા બળદીઓના મૂત્રની વાંકી-ચૂંકી લીટી છે, અને લોભનું ઉદાહરણ–ખંજન–રાગ છે. સંજ્વલન કષાયની ચેકડીના ઉદાહરણ–ક્રોધનું ઉદાહરણ–પાણીમાં કરેલી લીટી છે. માનનું ઉદાહરણ તણખલાને થાંભલે છે. માયાનું ઉદાહરણ બઢઈ દ્વારા (સતાર દ્વારા) છોલેલા લાકડાની છાલ છે અને લેભનું ઉદાહરણ-હલદરને રંગ છે. नापायभाडनीयता न ले छ-हास्य, २ति, सति, us, लय, गुस्सा, पुरुषवेद, श्रीव, मने नधुसव. २५. (५) मायुष्य-भना यार ले छे-न२४ायु, तिर्थयायु, मनुष्यायु, मने वायु. જે કર્મના પ્રાગ્યપ્રકૃતિવિશેષાનુશાયી, અર્થાત્ જે કમના ઉદયથી તે-તે ગતિયોગ્ય પ્રકૃતિવિશેષમાં સ્થિત આત્મા નારકી આદિના રૂપમાં જીવે છે, અને જેના ક્ષયથી મરણ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ आचाराङ्गसूत्रे क्षयान्मृत उच्यते, तदायुः । यद्वा-आनीयन्ते शेषप्रकृतयः उपभोगाय जीवेन यस्मिन्, तदायुः । यथा- कांस्यादिपात्रे शाल्योदनव्यञ्जनायो भोक्त्रा भोक्तुमानीयन्ते, तद्वत् । (६) नमयति = प्रापयति नारकादिसंज्ञां जीवमिति नाम । नामकर्मस्त्रिनवतिर्भेदाः भवन्ति । तत्र मूलभेदाः द्विचत्वारिंशत् । तथाहि (१) गतिनाम, (२) जातिनाम, (३) शरीरनाम, (४) अङ्गोपाङ्गनाम, (५) निर्माणनाम, (६) वन्धननाम, (७) संघातनाम, (८) संस्थाननाम, (९) संहनननाम, (१०) वर्णनाम, (११) गन्धनाम, (१२) रसनाम, (१३) स्पर्श और जिस के क्षय से मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते है । अथवा जिस में जीव भोगने के लिए अन्य प्रकृतियों को लाता है वह आयु है, जैसे कांसे आदि के भाजन में चावल, ओदन, व्यंजन आदि वस्तुएँ भोगने वाला पुरुष लाता है, उसी प्रकार शेष प्रकृतियाँ आयु में भोगी जाती हैं । (६) नाम–कर्म के तेरानवे (९३) भेद - जो कर्म जीव को नारक आदि संज्ञाओं का पात्र बनाता है, वह नामकर्म कहलाता है । उसके तेरानवे भेद है । उन में भी मूल भेद बयालीस हैं, वे इस प्रकार - (१) गतिनाम, (२) जातिनाम, (३) शरीरनाम, (४) अङ्गोपाङ्गनाम; (५) निर्माणनाम, (६) बन्धननाम, (७) संघातनाम, (८) संस्थाननाम, (९) संहनननाम (१०) वर्णनाम, (११) गन्धनाम, (१२) रसनाम, (१३) स्पर्शनाम, (१४) आनुपूर्वीनाम, પામે છે, તેને આણુક કહે છે અથવા જેમાં જીવ અન્ય પ્રકૃતિને ભાગવવા માટે લાવે છે તે આયુ છે. જેમ કે કાંસા આદિના વાસણમાં ચાખા, ભાત, વ્યંજન (શાક) આદિ વસ્તુઓ ભેગવવાવાળા પુરૂષ લાવે છે તે પ્રમાણે રોષ-પ્રકૃતિએ આયુમાં भोगवाय छे. (૬) નામકર્મના ત્રાણુ (૯૩) ભેદ છે. જે ક જીવને નારકી આદિ સંજ્ઞાઓનુ पात्र मनावे छे, ते नाभम डेवाय छे, तेना त्रासु (-3) ले छे. तेमां या भूल लेह शेतातीस छे. ते या प्रभा-(१) गतिनाभ, (२) लतिनाभ, (3) शरीरनाभ, (४) मगोयांगनाभ, (4) निर्माणुनाभ, (१) संघननाभ, (७) सौंधातनाभ, (८) संस्थाननाम, (2) संसुनननाभ, (१०) व भान, (११) गं घनाभ, (१२) २सनाम, (१३) स्पर्शनाभ, (१४) भानु पूर्वी नाभ, (१५) Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिम० ३६५ नाम, (१४) आनुपूर्वीनाम, (१५) अगुरुलधुनाम, (१६) उपघातनाम, (१७) पराघातनाम, (१८) आतपनाम, (१९) उद्योतनाम, (२०) उच्छासनाम, (२१) विहायोगतिनाम, (२२) प्रत्येकशरीरनाम, (२३) साधारणशरीरनाम, (२४) त्रसनाम, (२५) स्थावरनाम, (२६) सुभगनाम, (२७) दुर्भगनाम, (२८) सुस्वरनाम, (२९) दुस्स्वरनाम, (३०) शुभनाम, (३१) अशुभनाम, (३२) सूक्ष्मनाम, (३३) बादरनाम, (३४) पर्याप्तनाम. (३५) अपर्याप्तनाम, (३६) स्थिरनाम, (३७) अस्थिरनाम, (३८) आदेयनाम, (३९) अनादेयनाम, (४०) यशोनाम, (४१) अयशोनाम, (४२) तीर्थङ्करनाम । एते मूलभेदाः पिण्डपतिनाम्नापि कथ्यन्ते । अत्र गत्यादिचतुर्दशपिण्डप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतयः- पञ्चषष्टिः (६५)। (१५) अगुरुलघुनाम, (१६) उपघातनाम, (१७) पराघातनाम, (१८) आतपनाम, (१९) उद्योतनाम, (२०) उच्छासनाम, (२१) विहायोगतिनाम, (२२) प्रत्येकशरीरनाम, (२३) साधारणशरीरनाम, (२४) त्रसनाम, (२५) स्थावरनाम, (२६) सुभगनाम, (२७) दुर्भगनाम, (२८) सुस्वरनाम, (२९) दुस्वरनाम, (३०) शुभनाम, (३१) अशुभनाम, (३२) सूक्ष्मनाम, (३३) बादरनाम, (३४) पर्याप्तनाम, (३५) अपर्याप्तनाम, (३६) स्थिरनाम, (३७) अस्थिरनाम, (३८) आदेयनाम, (३९) अनादेयनाम, (४०) यशःकीर्तिनाम, (४१) अयश कीर्तिनाम, और (४२) तीर्थकरनाम-कर्म । इन बयालीस प्रकृतियों में जिन प्रकृतियों के अवान्तर भेद है, उन्हें पिण्डप्रकृति कहते है । गति आदि चौदह पिण्डप्रकृतिया है और उनके पैसठ (६५) भेद होते है। मशु३सधुनाम, (१६) यातनाम,(१७)पराधातनाम, (१८)-मातयनाम, (१८)धोतनाम, (२०) उपासनास, (२१) विहायोगतिनाभ, (२२) प्रत्येशरी२नाम, (२3) साधारण शरीरनाम, (२४) सनाम, (२५) स्थापनाभ, (२६) सुभानाम,(२७) हुमनाम, (२८) सुस्वरनाम, (२८) दु:२१२नाम, (30) शुमनाभ, (३१) मशुलनाम, (३२) सूक्ष्मनाम, (33) मारनाम, (३४) पर्यातनाम, (34) अपर्याप्तनाभ, (38) स्थिरनाभ, (७) मस्थिरनाम, (३८) माहेयनाम, (३८) मनायनाम, (४०) यशहीर्तिनाम, (४१) मयशतिनाम, (४२) तीर्थ ४२नाम-भ. આ બેંતાલીસ પ્રવૃતિઓમાં જે પ્રકૃતિના અવાન્તર ભેદ છે, તેને પિંડ પ્રકૃતિ કહે છે. ગતિ આદિ ચૌદ પિંડપ્રકૃતિએ છે. અને પાંસઠ (૬૫) તેના ભેદ છે. Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ आचाराङ्गसूत्रे [१] गतिनाम्नः पिण्डप्रकृतेश्वत्वारो भेदाः - नरकगतिनाम, तिर्यगूगतिनाम, मनुष्यगतिनाम, देवगतिनाम च । [२] जातिनाम्नो भेदा: पञ्च - एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियजातिनाम, पञ्चेन्द्रियजातिनाम | [३] शरीरनाम पञ्चविधम्-औदारिकशरीरनाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम, कार्मणशरीरनाम | [४] अङ्गान्युपाङ्गनि च यस्य कर्मण उदयाद्भवन्ति, तदङ्गोपाङ्गनामकर्म । तत् त्रिविधम्-औदारिक- वैक्रियका - ऽऽहारक - भेदात् । तत्राङ्गान्यष्टौ - उरः, शिरः, [१] गतिनामकर्म के चार भेद - नरकगतिनामकर्म, तिर्थचगतिनामकर्म, मनुष्यगतिनामकर्म और देवगतिनामकर्म । [२] जातिनामकर्म के पांच भेद है - एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातिनाम, त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रियनातिनाम और पञ्चेन्द्रियजातिनाम-कर्म I [३] शरीरनामकर्म के पांच भेद हैं- औदारिकशरीरनाम, वैक्रियशरीरनाम; आहारकशरीरनाम, तैजसशरीरनाम और कार्मणशरीरनाम - कर्म । [४] जिस कर्म के उदय से अङ्ग और उपाङ्ग होते हैं वह अङ्गोपाङ्गशरीरनामकर्म, कहलाता है । उसके तीन भेद है औदारिक- अङ्गोपाङ्ग, वैक्रिय - अङ्गोपाङ्ग और आहारक अङ्गोपाङ्ग । इन में अन आठ होते है - छाती, सिर, पीठ, पेट, दो हाथ और दो पैर | वन्दना करने में पांच अह्न प्रशस्त माने जाते हैं- दो पैर, दो हाथ, और सिर । यहाँ તિય ચતિનામકમ, (१) गतिनामना यार लेह-नरम्गतिनाभम्भ, મનુષ્યગતિનામક અને દેવગતિનામ–કમ. (२) लतिनाभना यांग लेह छे—ोमेन्द्रियमतिनाम, द्वीन्द्रियलतिनाम, શ્રીન્દ્રિયજાતિનામ, ચતુરિન્દ્રિયજાતિનામ, અને ૫'ચેન્દ્રિયજાતિનામ-કર્મ. (૩) શરીરનામકર્માંના પાંચ ભેદ છે——ઔદારિકશરીરનામ, વૈક્રિયશરીરનામ, આહારકશરીરનામ, તેજસશરીરનામ, અને કાર્યં ણુશરીરનામ-ક, જે કર્મના ઉદયથી અંગ અને ઉપાંગ થાય છે તે અંગેાપાંગશરીરનામકમ કહેવાય છે. તેના ત્રણ ભેદ છે. ઔદારિક’ગોપાંગ, વૈક્રિયગંગાપાંગ અને આહારક -अंगोपांग तेमां अंग आह होय छे- छाती, शिर, चीड, पेट में हाथ गने मे यश. વંદના કરવામાં પાંચ અંગ પ્રશસ્ત માન્યાં છે, એ પગ એ હાથ અને શિર-માથું'. અહિં Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१सू.५ कर्मवादिन पृष्टम् , उदरं, करौ, पादौ च । वन्दने तु पञ्चाङ्गान्येव प्रशस्तानि- द्वौ चरणौ, द्वौ करौ, शिरश्चेति । तत्र चरणावित्यनेन जानुनी गृह्यते । एतानि पञ्चाङ्गानि भूमावारोप्य वन्दनं पञ्चाङ्गवन्दनम् । अष्टानामङ्गानामेकैकस्योपाङ्गमनेकपकारम्, तत्र शिरोगस्योपाङ्गनामानि- यथा-मस्तिष्क - कपाल - कुकाटिका- शङ्ख-ललाटतालु-कपोल-हनु-चिबुक-दशनौ-ष्ठ-भू-नयन-कर्ण-नासादीनि । तत्र मस्तिष्क शिरोऽङ्गस्यारम्मकोऽवयवः। ननु मस्तिष्कं धातुविशेषो न त्वङ्ग नाप्युपाङ्गम् ? इति चेत् , उच्यते-कपालादिवत् शिरोऽङ्गस्यारम्भकत्वान्मस्तिष्कमप्युपाङ्गं शिरसोऽवगन्तव्यम् । स्थावरपञ्चके तूर प्रभृतीन्यङ्गानि न सन्ति । पैरों का अभिप्राय घुटना समझना चाहिए । इन पांचों अङ्गों को भूमि पर टिका कर वन्दना करना पञ्चाङ्गवन्दना है । इन आठों अङ्गों में से प्रत्येक अङ्ग के अनेक उपाङ्ग हैं। उन में से सिरअङ्ग के उपाङ्ग इस प्रकार हैं-मस्तिष्क, कपाल, कृकाटिका, शंख, ललाट, तालु, कपोल, हनु, दाडी, चिबुक (ठोडी) दांत, ओठ भौंह, नेत्र, कान, नाक, आदि । मस्तिष्क, शिररूप अङ्ग का आरम्भक अवयव है। 'मस्तिष्क एक प्रकार की धातु है, अङ्ग नहीं है और न उपाङ्ग ही है। इसका समाधान यह है कि कपाल आदि के समान सिररूप अङ्गका आरम्भक होने के कारण मस्तिष्क शिर का उपाङ्ग, ही है । पांच स्थावरों में छाती आदि अङ्ग नहीं होते। પગને અભિપ્રાય ઘુંટણ સમજવું જોઈએ. આ પાંચ અંગોને ભૂમિ પર અડાડીને વંદના કરવી તે પંચાંગ વંદના છે. આ આઠે અંગેમાંથી પ્રત્યેક અંગનાં અનેક ઉપાંગ છે. તેમાંથી શિર-અંગના ઉપાંગ આ પ્રમાણે છે–મસ્તિષ્ક, કપાલ, કૃકાટિકા (ગ્રીવને उन्नत श) । (४ सभीषनु मस्थि) खाट, तY, , हादी, विमु (उपया वरयेना छ।७२ मा) दांत, मे, मो, नेत्र, न, ना माहि. भस्ति शि२३५ અંગનું આરંભક અવયવ છે. મસ્તિષ્ક એક પ્રકારની ધાતુ છે, અંગ નથી અને પ્રત્યંગ પણ નથી તેનું સમાધાન એ છે કે-કપાલ આદિ પ્રમાણે શિરરૂપ અંગનું આરંભક હેવાના કારણે भस्ति, शिरनु Sin०४ छे. • પાંચ સ્થાવરમાં છાતી આદિ અંગ નથી. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ आचाराङ्गसूत्रे (५) शरीरनामकर्मोदयाद् गृहीतेषु गृह्यमाणेषु वा तद्योग्यपुद्गलेष्वात्मप्रदेशस्थितेषु शरीराकारेण परिणामितेष्वपि जतुकाष्ठवत् परस्परमवियोगलक्षणं बन्धननाम । यदीदं न स्यात् ततो वालुकापुरुषवद् विघटितानि शरीराणि स्युः । वन्धननाम पञ्चधा - औदारिकादिभेदात् । (६) काष्ठपिण्डमृत्पिण्डायः पिण्डवत् वद्धानामपि पुद्गलानां संघात विशेषजनकं संघातनाम । यदि संघातनामरूपः कर्मभेदो न स्यात्तर्हि पुरुषयोषिद्गवादिरूपनानाशरीरभेदो न स्यात् । संघातविशेषजनकाऽन्यकर्मविशेषाभावात् । [५] शरीरनामकर्म के उदय से ग्रहण किये हुए या ग्रहण किये जाते हुए आत्मप्रदेशों में स्थित और शरीर के आकार परिणत किये हुए शरीर के योग्य पुद्गलों में लाख और लकडी के समान परस्पर अवियोग होना बन्धननामकर्म है, अगर बन्धननामकर्म न होता तो वाल से बनाये हुए पुरुष के समान बिखर जाता । औदारिक आदि के भेद से बन्धन के भी पांच भेद हैं । [६] काष्ठपिंड, मृत्तिकापिंड या लोह के पिंड के समान बद्ध पुद्गलों में भी एक विशेष प्रकार का संघात (घनिष्टता ) उत्पन्न करने वाला कर्म संघातनामकर्म कहलाता है, और संघातनामकर्म न होता तो पुरुष स्त्री गो आदिरूप भेद शरीर में न होता, क्यों कि संघातविशेष उत्पन्न करने वाला अन्य कर्म ही नहीं है । कार्य, कारण जैसा (૫) શરીરનામકર્મના ઉદયથી ગ્રહણ કરેલા અથવા ગ્ર ુણુ કરવામાં આવતા આત્મપ્રદેશમાં સ્થિત અને શરીરના આકારે પરિણત કરેલા શરીરના ચેાન્ય પુદ્ગલામાં લાખ અને લાકડીના સમાન અવિયેાગ હાવું તે અંધનનામકમ છે. અથવા ખ ધનનામ કર્મ ન હોત તે રેતીથી બનાવેલા પુરૂષની સમાન વિખેરાઈ જાત. ઔદારિક આદિના ભેદથી ખ'ધનના પણ પાંચ ભેદ છે. (૬) કાપિંડ, સ્મૃતિકાર્ષિક, અથવા લેાઢાના પિંડ સમાન મૃદ્ધ પુદ્ગલેામાં પણ એક વિશેષ પ્રકારના સંધાત (ઘનિષ્ઠતા) ઉત્પન્ન કરવાવાળા કમ તે સંઘાત– નામક કહેવાય છે અથવા સઘાતનામકમ' ન હેાય તેા પુરૂષ, સ્ત્રી, ગાય આદિ રૂપભેદ શરીરમાં હાય નહિ. કારણકે સઘાતવિશષ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અન્ય કર્માંજ નથી. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा ३६९ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ कर्मवादिप्र० कारणानुरूपं हि कार्य दृष्टम् । संघातविशेषादेव हि विभागेन पुरुषादिशरीरव्यपदेशी भवति । संघातनाम पञ्चधा-औदारिकादिभेदात् । [७] बध्यमानेषु शरीरयोग्यपुद्गलेषु यस्य कर्मण उदयात् आकारविशेषो भवति तत् संस्थाननाम । एतच्च षड्विधम्-(१) समचतुरस्रनाम-(२) न्यग्रोधपरिमण्डलनाम-(३) सादिनाम-(४) कुब्जनाम-(५) वामननाम-(६) हुण्डनामभेदात् । [८] संहनननाम-अस्यां बन्धविशेषः । तच्च षड्विधम् (१) वज्रर्षभनाराचनाम, (२) अर्धवजर्षभनाराचनाम, (३) नाराचनाम, (४) अर्धनाराचनाम, (५) कीलिकानाम, (६) सेवातनाम च । ही होता है । संघात की भिन्नता के कारण ही शरीरों में स्त्री, पुरुष आदिका भेद-व्यवहार होता है । औदारिक आदि के भेद से संघात भी पांच प्रकार का है । [७] बांधे जाते हुए शरीरयोग्य पुद्गलों में जिस कर्म के उदय से आकृति-विशेष बनता है उसे संस्थाननामकर्म कहते हैं । संस्थान छह प्रकारका है (१) समचतुरस्र-संस्थान, (२) न्यग्रोधपरिमण्डल-संस्थान, (३) सादि-संस्थान, (४) कुब्जक-संस्थान, (५) वामन-संस्थान, (६) हुण्डक-संस्थान । [८] अस्थियों के बन्धविशेष को सहनननामकर्म कहते है। उसके छह भेद है(१) वज्रर्षभनाराच-संहनन, (२) अर्धवज्रर्षभनाराच-संहनन, (३) नाराच-संहनन, (४) अर्धनाराच-संहनन, (५) कीलिका-संहनन और (६) सेवार्त-संहनन । કાર્ય, કારણ જેવાં જ હોય છે. સંઘાતની ભિન્નતાના કારણે જ શરીરમાં સ્ત્રી, પુરૂષ આદિને ભેદ-વ્યવહાર હોય છે. ઔદ્યારિક આદિના ભેદથી સંઘાત પણ પાંચ પ્રકારના છે. (૭) બંધાતા શરીરોગ્ય પગલે માં જે કમના ઉદયથી આકૃતિવિશેષ બને છે. તેને સંસ્થાનનામકર્મ કહે છે. સંસ્થાન છ પ્રકારના છે–(૧) સમચતુરસ-સંસ્થાન, (२) न्यायपरिभा -सस्थान, (3) साहि-सस्थान, (४) ५०४४-सस्थान, (५) पामन-संस्थान, (६) ४४-सस्थान, (૮) અસ્થિઓના બંધવિશેષને સંહનનનામકર્મ કહે છે. તેના છ ભેદ છે(१) १००पनारायसहनन, (२) म०पनारायस उनन, (3) नारायसडनन, (४) अर्धनारायस हनन, (५) सिसिडनन मन (6) सेवास हनन. प्र. भा. ४७ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० आचारागसूत्रे (९) औदारिकादिषु शरीरेषु यस्य कर्मण उदयात् कर्कशादिः स्पर्शविशेपो जायते, तत् स्पर्शनाम । स्पर्शनामाष्टधा-कर्कश-मृदु-गुरु-लघु-स्निग्धरूक्ष-शीतो-प्णनामभेदात् । (१०) रसनाम पश्चविधम्-तिक्त-कटु-कषाया-ऽम्ल-मधुरभेदात् । लवणो मधुरान्तर्गत इति केचित् । (११) शरीरविषयं सौरभं दुर्गन्धित्वं च यस्य कर्मणो विपाकान्निवर्तते, तद् गन्धनाम । गन्धनाम द्विविधम्-सुगन्ध-दुर्गन्धभेदात् ।। (१२) यस्योदयाच्छरीरेषु कृष्णादिपञ्चविधवर्णनिष्पत्तिर्भवति तद् वर्णनाम, तत् पञ्चविधम्-कृष्ण-नोल-लोहित-पीत-शुक्लभेदात् । सर्वाणि चैतानि स्पर्शनामादीनि वर्णनामान्तानि शरीरवर्तिपु पुद्गलेषु परिणतानि भवन्ति । (९) औदारिक आदि शरीरों में जिस कर्म के उदय से कठोर आदि स्पर्श उत्पन्न होता है उसे स्पर्शनामकर्म कहते है। स्पर्शनामकर्म आठ प्रकार का है-कठोर, कोमल, भारी, हल्का, चिकना, रूखा, शीत, और उष्ण । (१०) रसनामकर्म पांच प्रकार का है-तीखा, कडुवा, कसैला, खट्टा और मीठा । किसी के मत से लवण मधुर रस के अन्तर्गत है । __(११) जिस कर्म के उदय से शरीर में सुगन्ध या दुर्गन्ध उत्पन्न होती है उसे गन्धनामकर्म कहते है । उसके दो भेद है-सुगन्धनाम और दुर्गन्धनाम ।। (१२) जिस कर्म के उदय से शरीरों में कृष्ण आदि पांच वर्णों की उत्पत्ति होती है, वह वर्णनामकर्म है । इस के पांच भेद हैं-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल, स्पर्श से लेकर वर्ण तक ये सब, शरीरवत्ती पुद्गलों में ही परिणत होते हैं । (૯) દારિક આદિ શરીરમાં જે કર્મના ઉદયથી કઠેર આદિ સ્પર્શ ઉત્પન્ન થાય છે તેને સ્પર્શનામકર્મ કહે છે. સ્પર્શનામકર્મના આઠ પ્રકારના છે-કઠોર, કેમલ, सारी, हो, यि ३ो, शीत मने Sy. (१०) २सनाम:म पांय अारे छ-तीमा, ४३३१, ४सामेटो, माटो मने भीडा. કેટલાકના મતથી લવણ મધુર રસની અતર્ગત છે. (૧૧) જે કર્મના ઉદયથી શરીરમાં સુગંધ અથવા દુર્ગધ ઉત્પન્ન થાય છે. તેને ગંધનામકર્મ કહે છે. તેના બે ભેદ છે-સુગંધનામ અને દુર્ગધનામ. (૧૨) જે કર્મના ઉદયથી શરીરમાં કૃષ્ણ આદિ પાંચ વર્ણોની ઉત્પત્તિ થાય છે તે નામકર્મ કહેવાય છે. તેના પાંચ ભેદ છે—કાળ, નીલે, રાતે, પીળો અને ધોળે. સ્પર્શથી લઈને વર્ષ સુધી એ બધાય શરીરવત પુદ્ગલોમાં જ પરિણત થાય છે. Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ म्.५ कर्मवादिप्र० (१३) नारकादिगतिं गन्तुरन्तर्गतौ वर्तमानस्य तदभिमुखमानुपूर्व्या [तत्तद्देशक्रमेण] तत्तत्प्रापणसमर्थमानुपुर्वीनाम । गत्यन्तरं गच्छतो जीवस्य यत्कर्मोदयादतिशयेन तद्गमनानुगुण्यं स्यात् , तदपि-आनुपुर्वीशब्दवाच्यं भवति । यथा-वारिवेगो वलीवर्दादेः, यथा वा नस्योतस्य बलीवदस्य नासारज्ज्वां प्रतिवद्धा रज्जुः, तथाऽनुपूर्वीकर्म जीवस्य गत्यन्तरप्रापणार्थं समाकर्षकतयोपग्रहस्वरूपम् । ____अन्तर्गतिश्च यावन्मनुष्यो नरकादिवाच्यमुत्पत्तिस्थानं न पामोति तावकालिकी गतिः । सा द्विविधा-ऋज्वी, वक्रा च । तत्र यदा ऋज्व्या समय (१३) नरक आदि गति में जाने वाला जीव-जो कि अन्तर्गति (विग्रहगति) में वर्तमान है, उसको उन नरक आदि गतियों की ओर अभिमुख करके आनुपूर्वी से अर्थात् उस उस स्थान के क्रम से उन २ गतियों में पहुंचाने में जो कर्म समर्थ होता है, उस कर्म को आनुपूर्वीकर्म कहते है । यद्यपि आनुपूर्वी शब्द का अर्थ उस उस स्थानका क्रम है तथापिगत्यन्तर में जाते हुए जीव को जिस कर्म के उदय होने पर उस गति में उस उस स्थान के क्रम से जाना होता है, इस लिये उस कर्म को भी आनुपूर्वी कहते है । जैसे जलका प्रवाह बैलको अपनी और खींच लेता है । अथवा जैसे गाडीवान बैलको नाथ पकड कर अपनी ओर मोड लेता है, उसी प्रकार आनुपूर्वीकर्म-जीवने जिस गतिका कर्म बाधा है उस गति में उसको पहुँचा देता है, इस लिये वह गति में पहुँचाने के लिये सहायक है। जब तक मनुष्य अपनी मनुष्यगति को छोडकर नरक आदि किसी गति में नहीं पहुंचा है, तब तक की अर्थात् बीचको गतिको अन्तर्गति-विग्रहगति-कहते हैं। वह दो प्रकार की है-सरल और वक्र । जीव जब एकसमयप्रमाणवाली सरल (सीधी) (૧૩) નરક આદિ ગતિમાં જવાવાળા જીવ જે કે-અન્તર્ગતિ (વિગ્રહગતિ)માં વર્તમાન છે તેને તે નરક આદિ ગતિઓની તરફ અભિમુખ કરીને આનુપૂવીથી અર્થાત્ તે તે સ્થાનના કમથી તે તે ગતિઓમાં પહોંચાડવામાં જે કમ સમર્થ હોય છે તે કમને આનપૂવી કર્મ કહે છે. જો કે આનુપૂવી શબ્દનો અર્થ તે તે સ્થાનને કેમ, એ છે તે પણ ગત્યન્તરમાં જતે જીવને જે કમને ઉદય થવાથી તે ગતિમાં તે તે સ્થાનના કમથી જવું હોય છે, આટલા માટે તે કર્મને આનુપૂવી કહે છે. જેમાં પાણીનો પ્રવાહ બળદીયાને પોતાની તરફ ખેંચી લે છે, અથવા જેમ ગાડીવાળે બળદીયાને તેની નાથ પકડીને પિતાની બાજુ મેડી લે છે તે જ પ્રમાણે આનુપૂવકર્મ–જીવ જે ગતિનું કર્મ બાંધ્યું છે તે ગતિમાં તેને પહોંચાડી દે છે માટે તે ગતિમાં પહોંચાડવાને માટે સહાયક છે. - જ્યાં સુધી મનુષ્ય પોતાની મનુષ્યગતિને મૂકીને નરક આદિ બીજી ગતિમાં નથી પહોંચ્યો ત્યાં સુધીની અર્થાત વચલી ગતિને અન્તર્ગતિ-વિગ્રહગતિ કહે છે. તે બે પ્રકારની હોય છે સરલ અને વક્ર. જીવ જ્યારે એકસમયપ્રમાણવાળી સરલ (રસધી) ગતિથી Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ आचारागसत्रे प्रमाणया गच्छति, तदाऽऽयुष्यकर्मणैवात्पत्तिस्थानं प्राप्नोति । तत्रानुपुर्वीनाम्नः कश्चिदुपयोगो न भवति । चक्रगत्या पुनः प्रवृत्तः कूपर- (वक्राकाररथावयव)लाङ्गल-गोमूत्रिकालक्षणया द्वित्रिचतुःसमयमानया वक्रारम्भकाले पुरस्कृतमायुरादत्ते, तदैव चानुपूर्वीनामाप्युदेति । ननु च यथैव ऋज्व्यां गतौ विनाऽऽनुपूर्वीनामकर्मणा गति प्रामोति, तद्वद् चक्रगत्यामपि कस्मान्न ? इति चेत्, उच्यते-ऋज्व्यां -पूर्वायुष्कर्मव्यापारेणैव गच्छति, यत्र तत् पूर्वायुष्कर्म क्षीणं, तत्र तस्याध्वयप्टिस्थानीयस्यानुपूर्वीनामकर्मण उदयो भवति । गति से जाता है तब आयु कर्म के द्वारा ही उत्पत्तिस्थान को प्राप्त कर लेता है, वहां आनुपूर्वीनामकर्म का कोई उपयोग नहीं होता । जब जीव कूपर (रथ का टेढा अवयव ) हल या गोमूत्रिका सरीखी और दो तीन या चार समयवाली वक्र गति से जाता है तव मोडके आरम्भ-समय में आगे की आयु ग्रहण करता है, उसी समय आनुपूर्वी कर्मका उदय होता है । शङ्का-जैसे सरलगति में आनुपूर्वीकर्म के विना ही गति प्राप्त करता है, उसी प्रकार वक्र गति में भी क्यों नहीं गति करता । समाधान-सरल गति में पहले के आयुकर्म के व्यापार से ही जीव गति करता है । जहाँ वह आयु क्षीण हो जाती है वहाँ मार्गयष्टि के समान आनुपूर्वीनामकर्म का उदय होता है। જાય છે, ત્યારે આયુકમદ્વારાજ ઉત્પતિ સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી લે છે. ત્યાં આનુપૂવી નામકર્મને કાંઈ ઉપયોગ થતો નથી જ્યારે જીવ ફૂપર (રથને વાંકે એક ભાગ) હલ અથવા ગોમૂત્રિકા સરખી અને બે, ત્રણ અથવા ચાર સમયવાળી વકગતિથી જાય છે ત્યારે વળવાના આરંભ સમયમાં આગળની આયુ ગ્રહણ કરે છે તે સમય આનુપૂવી કર્મને ઉદય થાય છે. શંકા–જેમ સરગતિમાં આનુપૂવકમ વિનાજ ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે પ્રમાણે વક્રગતિમાં ગતિ શા માટે કરતા નથી ? સમાધાન–સરલગતિમાં પ્રથમના આયુકમના વ્યાપારથીજ જીવ ગતિ કરે છે. ત્યાં તે આયુ ક્ષીણ થઈ જાય છે ત્યાં માર્ગણિ-ભાગની લાકડી–ના સમાન આનુપૂવી નામકર્મનો ઉદય થાય છે. Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.१ ८.५ कर्मवादिप्र० ३७३ आनुपूर्वीनाम चतुर्विधम्-नरकागत्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगत्यानुपूर्वीनाम, देवगत्यानुपूर्वीनाम च । (१४) लब्धि-शिक्षद्धि-प्रत्ययस्याकाशगमनस्य जनकं नाम विहायोगतिः सामान्य गमनरूपा गतिरपि विहायोगति रित्युच्यते न तु केवलमाकाशगमनरूपेति। सा द्विधा-शुभा-शुभभेदात् । तत्र-हंस गज-वृषादीनां शुभा । उष्टशगालादीनाम् अशुभा । तत्र-लब्धिर्देवादीनां देवत्वोत्पत्त्यविनाभाविनी । शिक्षया ऋद्धिः, शिक्षद्धिः, लब्ध्या शिक्षा च तपस्विनां, शिक्षा प्रवचनमधीयानानां विद्याद्यावर्तनप्रभावाद् वा आकाशगमनस्य जनकं विहायोगतिनामकर्म । आनुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का है-नरकगत्यानुपूर्वीनाम, तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनाम, मनुष्यगत्यानुपूर्वीनाम, और देवगत्यानुपूर्वीनाम । (१४) लब्धि एवं शिक्षाऋद्धिकारणक, आकाशगमन उत्पन्न करने वाला कर्म विहायोगतिनामकर्म कहलाता है। वह सामान्य गमनरूप गति भी विहायोगति कहलाती है, नहीं कि मात्र आकाशगमनरूप । इस के दो भेद है-शुभ और अशुभ । हंस, गज, वृषभ आदि की गति के समान शुभविहायोगति है और ऊंट सियार आदि की गतिके अनुसार अशुभविहायोगति है । देव के रूप में उत्पन्न होने के साथ ही उत्पन्न होने वाली लब्धि देवों को प्राप्त होती है । शिक्षा से प्राप्त होने वाली ऋद्धि शिक्षा-ऋद्धि कहलाती है । लब्धि एवं शिक्षा-ऋद्धि से तपस्वियो का आकाशगमन होता है। प्रवचन का अध्ययन करने वालों का विद्या आदि के आवर्तन के प्रभाव से या शिक्षाऋद्धि से जो आकाशगमन होता है वह विहायोगति है । આનુપૂવીનામકર્મ ચાર પ્રકારનાં છે-નરકગત્યાનુપૂર્વનામ, તિયગૂગત્યાનુપૂવીનામ, મનુષ્યગત્યાનુપૂવીનામ, અને દેવગત્યાનુપૂવીનામ. (૧૪) લબ્ધિ એવ શિક્ષા-ઋદ્ધિકારક આકાશગમન ઉત્પન્ન કરવાવાળું કર્મ વિહાગતિનામકમ કહેવાય છે. સામાન્ય ગમનરૂપ ગતિ પણ વિહાયોગતિ કહેવાય છે ફક્ત આકાશગમનરૂપ ગતિ નહીં. તેના બે ભેદ છે-શુભ અને અશુભ. હંસ, હાથી, બળદ વગેરેની ગતિ સમાન શુભવિહાગતિ છે. અને ઉંટ, શિયલ વગેરેની ગતિ અનુસાર અશુભવિહાગતિ છે. દેવના રૂપમાં ઉત્પન્ન હોવાની સાથેજ ઉત્પન્ન થવાવાળી લબ્ધિ દેવને પ્રાપ્ત થાય છે. શિક્ષાથી પ્રાપ્ત થવાવાળી ઋદ્ધિ શિક્ષાઋદ્ધિ કહેવાય છે. લબ્ધિ એવ શિક્ષાઋદ્ધિથી તપસ્વિએ આકાશગમન કરે છે. પ્રવચનનું અધ્યયન કરવાવાળાના વિદ્યા આદિના આવર્તનના પ્રભાવથી અથવા શિક્ષાઋદ્ધિથી જે આકાશગમન થાય છે તે વિહાગતિ છે. Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ - - आंचारागसत्रे (७) गोत्रकर्म द्विविधम्-उच्चनीचभेदात् । तत्रउच्चगोत्रं-देश-जाति-कुलस्थान-मान-सत्कारै-श्वर्याद्युत्कर्षजनकम् । तद्विपरीतं नीचगोत्रम्-अनार्यदेशचाण्डालादिजातिदास्य-निवर्तकम् । (८) अन्तरायकर्म-पञ्चविधम्-दान-लाभ-भोगो-पभोग-वीर्यान्तरायभेदात् । एवं च सर्वसंकलनेनाष्टविधकर्मणामुत्तरप्रकृतिसंख्या अष्टचत्वारिशदधिकशतं (१४८) भवन्ति । कर्मक्षयविचारःज्ञानक्रियाभ्यां कर्मक्षयो भवति । उक्तषड्जीवनिकायानां यथार्थ (७) गोत्रकर्म दो प्रकार का है-उच्चगोत्र और नीचगोत्र । उच्चगोत्र से देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सत्कार, ऐश्वर्य आदि का उत्कर्ष उत्पन्न होता है। नीचगोत्र इस से विपरीत है। इस से अनार्य देश, चाण्डाल आदि जाति और दासता उत्पन्न होती है। (८) अन्तराय कर्म के पांच भेद है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । इस प्रकार सबका योग करने पर आठों कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ एक सौ अडतालीस (१४८) होती है। कर्मक्षय का विचार ज्ञान और क्रिया से कर्मों का क्षय होता है । पूर्वोक्त षड्जीवनिकाय के वास्तविक (७) गर्भ में प्रानुछ-उस्यगात्र मने नायगात्र. न्यगात्रथी देश, गति, કુલ, સ્થાન, માન, સત્કાર, અશ્વર્ય આદિને ઉત્કર્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. નીચ ગોત્ર તેનાથી વિપરીત છે. તેનાથી અનાર્ય દેશ, ચાંડાલ આદિ જાતિ અને દાસપણું વગેરે ઉત્પન્ન થાય છે. અંતરાયકર્મના પાંચ ભેદ છેલ્ટાનાન્તરાય, લાભાન્તરાય, ભેગાન્તરાય, ઉપભેગાન્તરાય અને વીર્યાન્તરાય. આ પ્રમાણે સર્વને ચોગ કરતાં આઠ કર્મોની ઉત્તરપ્રકૃતિએ એકસે અડતાदीस (१४८) थाय छे. भक्षयना विन्यारજ્ઞાન અને ક્રિયાથી કને ક્ષય થાય છે. પૂર્વોક્ત પરજીવકાચના વાસ્તવિક Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५. कर्मवादिम० ३७५ स्वरूपस्य विस्तरेण संक्षेपेण वा अवबोधो ज्ञानम् । गुप्तिसमितिसमाराधनपूर्वक शास्त्रविधिना तपःसंयमाचरणं क्रिया । अष्टकर्मणां भस्मसात्कारकं तपः । तस्यानशनादयो द्वादश भेदा: । सावध क्रियाः सम्यक् परित्यज्य निरवद्यक्रियासु प्रवृत्तिः संयमः । तस्य पृथिवीकायसंयमादयः सप्तदश भेदाः। उक्तषड्जीवनिकायस्वरूपं सम्यग विज्ञाय संयमपूर्वकतपश्चरणेनाभिनवकर्मप्रवेशाभावः, पूर्वपिचितकर्मपरिक्षयश्च भवति । तत्रैवं क्रमः अष्टमगुणस्थानादात्मा क्षपकश्रेणि समारोहति । असौ क्षपको नवम दशमं गुणस्थानं समारुह्य द्वादशं गुणस्थानमारोहति । तत्र शुक्लध्यानस्य द्वितीयस्वरूप का विस्तारपूर्वक या संक्षिप्त बोध-ज्ञान कहलाता है। गुप्ति समिति का आराधन करते हुए शास्त्रोक्त विधि के साथ तप और संयम का आराधन करना क्रिया है । आठ कर्मों का भस्म करना तप है। तप के अनशन आदि बारह भेद है। सावध क्रियाओं का सम्यक् प्रकार से परित्याग करके निरवद्य क्रियाओं में प्रवृत्ति करना संयम है । पृथ्वीकायसंयम आदि के भेद से वह सत्तरह (१७) प्रकार का है। उक्त षड्जीवनिकाय का स्वरूप समीचीन प्रकार से जानकर, संयमपूर्वक तप का आचरण करने से नवीन कर्मों का आना रुक जाता है और पहले के संचित कर्मों का क्षय होता है । कर्मक्षय का क्रम यह है आत्मा आठवें गुणस्थान से क्षपकश्रेणी पर आरूढ होता है। यह क्षपक आत्मा नौवें दशवें गुणस्थानों पर आरूढ हो कर बाहरवे गुणस्थान पर पहुंचता है। સ્વરૂપને વિસ્તારપૂર્વક અથવા સંક્ષિપ્ત બોધ તે જ્ઞાન કહેવાય છે. ગુપ્તિ, સમિતિની આરાધના કરતાં શાસ્ત્રોક્ત વિધિ પ્રમાણે તપ અને સંયમનું આરાધન કરવું તે કિયા છે. આઠ કર્મોને બાળી નાંખવા તે તપ છે. તપના અનશન આદિ બાર ભેદ છે. સાવદ્ય કિયાઓને સમ્યફ પ્રકારે પરિત્યાગ કરીને નિરવદ્ય ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તે સંયમ છે. પૃથ્વીકાયસંયમ આદિના ભેદથી તે સત્તર (૧૭)પ્રકાર છે. આગળ કહેલા ષડૂજીવનિકાયના સ્વરૂપને સારી રીતે જાણીને સંયમપૂર્વક તપનું આચરણ કરવાથી નવીન કર્મોનું આવવું રેકાઈ જાય છે, અને પહેલાના સંચિત કર્મોને ક્ષય થાય છે. કર્મક્ષયને કેમ એ છે– આત્મા આઠમાં ગુણસ્થાનથી ક્ષપકશ્રેણી પર આરૂઢ થાય છે. આ ક્ષેપક આત્મા નવમાં, દસમા ગુણસ્થાન પર આરૂઢ થઈને બારમા ગુણસ્થાન પર જઈ પહોંચે છે. Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ आचाराङ्गसूत्रे पादे प्रयमं मोहनीय कर्म क्षपयति । तदनु ज्ञानावरणीय - दर्शनावरणीया -ऽन्तरायकर्माणि युगपदेव क्षपयित्वा द्वादशगुणस्थानान्ते त्रयोदशगुणस्थानादौ सर्वद्रव्यपर्यायविषयं पारमैश्वर्यमनन्तं केवलं ज्ञानदर्शनं प्राप्य शुद्धो बुद्धः सर्वज्ञः सर्वदर्शी जिनः केवली भवति । ततः सयोगिकेवली प्रतनु - शुभ - चतुष्कर्मावशेषः, आयु:कर्मसंस्कारवशाद् भव्यजनबोधनाय भूमण्डले विहरति, विविधं कर्मरजो भव्यानां हरति च । असौं तत्पश्चाद् अयोगिकेवली भूत्वा चतुर्दशगुणस्थाने - आयुष्यकर्मपरिसमाप्तौ सत्यां वेदनीय - नाम - गोत्रकर्माणि क्षपयति । एवं मूलप्रकृतिवाच्यमष्टविधं ज्ञानावरणीयादिसकलकर्म क्षीयते । 9 वहाँ शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाये में सर्व प्रथम मोहनीय कर्म का क्षय करता है । तत्पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों को एक ही साथ क्षय करके बारहवें गुणस्थान के अन्त में और तेरहवे गुणस्थान की आदि में समस्त द्रव्य पर्याय को विषय करने वाला परम ऐश्वर्य को प्राप्त होने योग्य अनन्त केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करके शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, जिन और केवली हो जाता है । फिर वह सयोगी केवली चार हल्के अघातिया कर्म शेष रहने पर आयुकर्म के संस्कार वश हो कर भव्य जीवों को बोध देने के लिए भूमण्डल में विहार करते है । तत्पश्चात् अयोगी केवली हो कर चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म की समाप्ति होने पर वेदनीय नाम आयु गोत्र कर्मों का क्षय करते हैं । इस प्रकार मूलप्रकृति कहलाने वाले आठों ही कर्मों का क्षय हो जाता है । ત્યાં શુકલ ધ્યાનના ખીજા પાયામાં સર્વપ્રથમ માહનીય કમના ક્ષય કરે છે. તે પછી જ્ઞાનાવરણુ, દર્શનાવરણુ અને અંતરાય કર્મોને એકી સાથે ક્ષય કરીને, ખારમા ગુણુસ્થાનના અંતમાં અને તેરમા ગુણસ્થાનની આદિમાં સમસ્ત દ્રવ્ય-પર્યાયને વિષય કરવાવાળા પરમ ઐશ્વર્યને પ્રાપ્ત થવા ચેાગ્ય અનન્ત કેવલજ્ઞાન અને કેવલદન પ્રાપ્ત કરીને શુદ્ધ, બુદ્ધ, સર્વજ્ઞ, સર્વદેશી, જિન અને કેવલી થઈ જાય છે પછી તે સયેાગી કેવલી ચાર હલકાં અઘાતિયાં કર્મ ખાકી રહેવા પર આયુકના સંસ્કારવશ થઈને ભવ્યછવાને બેધ આપવા માટે પૃથ્વીમાં વિહાર કરે છે. તે પછી અચેાગી કેવલી થઈને ચૌદમાં ગુણસ્થાનમાં આયુકની સમાપ્તિ થયા પછી વેદનીય, નામ અને ગેાત્રકને ક્ષય કરે છે. આ પ્રમાણે મૂળપ્રકૃતિ કહેવાતા આ કર્મોના ક્ષય થઈ ય છે. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ५ कर्मवादिप्र० ३७७ एवमात्मपदेशेभ्यः सकलकर्मणामपगमे सत्यूर्ध्वगमनस्वभावतयाऽऽस्मा साधनन्तमपुनरावृत्तिसिद्धिगतिनामधेयं स्थान प्राप्नोति । ज्ञानक्रियाभ्यामेवं सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षो भवतीति सिद्धम् । केचित्तु-सम्यगज्ञान यथार्थविषयकतया बलवत्तरत्वेन मिथ्याज्ञानं निवर्तयति । मिथ्याज्ञाने निवृत्ते सति मिथ्याज्ञानमूला रागादयो न समुत्पद्यन्ते । कारणाभावे कार्यस्यानुत्पादात् । रागाधभावे च तत्फलभूता मनोवाक्कायप्रवृत्तिनं भवति । प्रवृत्त्यभावे च पुण्यपापयोरनुत्पत्तिः । आरब्धकार्ययोश्च ' आत्मप्रदेशों से समस्त फर्मों के हटजाने पर ऊर्ध्वगतिशील होने के कारण आत्मा सादि-अनन्त पुनरागमनरहित सिद्धिगतिनामक स्थान को प्राप्त करता है । अत एव सिद्ध हुआ कि ज्ञान और क्रिया से सफल कौका क्षयरूप मोक्ष प्राप्त होता है। . कुछ लोगों का कथन यह है कि सम्यग्ज्ञान यथार्थ पदार्थ को विषय करता है, अतः वह बलवान् है, और बलवान् होने के कारण मिथ्याज्ञान को दूर करता है। मिथ्याज्ञान जब हट जाता है तो उसके कारण उत्पन्न होने वाले रागादि की उत्पत्ति नहीं होती; क्यों कि कारण के अभाव में काय उत्पन्न नहीं होता । इस प्रकार रागादि का अभाव होने पर उस से होने वाली मन, वचन और काय की प्रवृत्ति रुक जाती है । प्रवृत्ति के रुक जाने से पुण्यकर्म और पापकर्म की उत्पत्ति नहीं होती। जिन का कार्य * આત્મપ્રદેશથી સમસ્ત કર્મો દૂર થયા પછી ઉર્ધ્વગતિશીલ હેવાના કારણે આત્મા સાદિ-અનન્ત, પુનરાગમન રહિત સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલે એ સિદ્ધ થયું કે જ્ઞાન અને ક્રિયાથી સકલ કર્મોના ક્ષયરૂપ મોક્ષને प्राप्त थाय छे. . . કેટલાક માણસોનું કહેવું એ છે કે–સમ્યજ્ઞાન યથાર્થ પદાર્થને વિષય કરે છે, એ કારણથી તે બળવાન છે. અને બળવાન હોવાના કારણે મિથ્યાજ્ઞાનને દૂર કરે છે મિથ્યાજ્ઞાન જ્યારે દૂર થઈ જાય છે, તે તેના કારણે ઉત્પન્ન થવાવાળા રાગ-આદિની ઉત્પત્તિ થતી નથી; કેમકે કારણના અભાવમાં કાર્ય ઉત્પન્ન થતું નથી. આ પ્રકારે–રાગાદિને અભાવ થવાથી તેનાથી થવા વાળી મન, વચન અને કાયાની પ્રવૃતિ અટકી જાય છે. પ્રવૃતિના અટકાવથી પુણ્યકર્મ અને પાપ કર્મની ઉત્પત્તિ થતી નથી. જેનું કાર્ય આરંભ प्र. मा.-४८ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३७८ आचारागसूत्रे पुण्यपापकर्मणोरुपभोगादेव प्रक्षयो भवति; सञ्चितरूपयोस्तु पुण्यपापकर्मणोस्तत्त्वज्ञानादेव प्रक्षयः । एवं कर्मक्षयो भवति । उक्तञ्च.." ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि, भस्मसात् कुरुते तथा' । इति । तथा "नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि” इति च । केचिच-संचितकर्मणामपि प्रक्षयो भोगादेव भावतीत्युक्तं तत्रानुमान प्रमाणं च प्रदर्शितम् । तथाहि-पूर्वकर्माण्युपभोगादेव क्षीयन्ते, कर्मत्वात् । यत् यत् कर्म तत् तत् उपभोगादेव क्षीयते, यथा-आरब्धशरीरं कर्म, तथा चैतत् कर्म, तस्मादुपभोगादेव भीयते । न चोपभोगात् कर्मप्रक्षयस्वीकारे कर्मान्तरस्यावश्यम्भावात् संसारानुच्छेदः इति वाच्यम् , आरम्भ हो चुका है, ऐसे पाप-पुण्य का, उपभोग से क्षय होता है और सश्चित पुण्य-पाप का, तत्त्वज्ञान से । इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है । कहा भी है "ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर डालती है " । तथा-" करोडों सैकडों कल्पों में भी कर्म का भोगे विना क्षय नहीं होता। किसी का कहना है कि संचित कर्मों का क्षय भी भोग से ही हो जाता है । इस विषय में अनुमान प्रमाण भी दिया गया है। वह इस प्रकार है-पूर्वसंचित कर्म उपभोग से ही क्षीण होता है, क्यों कि वह कर्म है । जो जो कर्म होता है वह वह उपभोग से ही क्षीण होता है, जैसे आरब्ध शरीरकर्म । संचितकर्म भी कर्म है अतः वे भी उपभोग से ही क्षीण होते हैं। उपभोग से कर्मों का क्षय स्वीकार किया जाय तो नवीन कर्मों की उत्पत्ति अवश्य होगी और फलतः जन्म-मरण का कभी नाश नहीं होगा। ऐसी आशङ्का करना उचित नहीं है। થઈ ચૂકય છે, એવા પાપ-પુણ્યનો ઉપગથી ક્ષય છે, અને સંચિત પુણ્ય–પાપને તત્ત્વજ્ઞાનથી ક્ષય થાય છે. આ પ્રકારે સમસ્ત કર્મોને ક્ષય થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે કે-“જ્ઞાનરૂપી અગ્નિ સમસ્ત કર્મોને બાળી નાંખે છે.” તથા “કોડા સેંકડો કોમાં પણ કર્મ ભેગવ્યા વિના ક્ષય થતા નથી.” કેટલાક કહે છે કે સંચિત કર્મોને ક્ષય પણ ભેગથીજ થઈ જાય છે. આ વિષયમાં અનુમાન પ્રમાણ પણ આપવામાં આવ્યું છે તે આ પ્રમાણે છે–પૂર્વસ ચિતકર્મ ઉપગથીજ ક્ષીણ થાય છે, કારણ કે તે કર્મ છે, જે જે કર્મ હોય છે તે તે ઉપભેગથીજ થી થાય છે, જેવી રીતે આરબ્ધ શરીરકર્મ સંચિત કર્મ પણ કર્મ છે, એ કારણથી તે પણ ઉપગથી જ ક્ષીણ થાય છે. આ ઉપભેગથી કર્મોને ય સ્વીકાર કરવામાં આવે તો, નવીન કર્મોની ઉત્પત્તિ અવશ્ય થશે અને ફલતઃ જન્મ મરણને કયારેય નાશ નહિ થાય, આવી શંકા કરવી તે ઉચિત નથી. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ ८.५ कर्मवादिप० । ३७९ समाधिबलेनोत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य जनस्य कर्मज्ञानसामर्थ्यात्तदुपभोगार्थमशेषशरीरमुत्पाद्याशेषभोगादेव पूर्वकर्मक्षयः, पुनस्तस्य तत्त्वज्ञानिनो मिथ्याज्ञानाभावात्तज्जनितसंस्कारस्याप्यभावेन कर्मान्तरानुत्पत्तिश्च । तथा चोपभोगादेव सकलकमक्षयस्वीकारेऽपि नास्ति कोऽपि दोषलेश इति । न च पुण्यपापकर्मणोर्जन्मान्तरशरीरोत्पादने सहकारि कारणं मिथ्याज्ञानजनितसंस्कारोऽस्ति; तस्याभावादेव तत्त्वज्ञानिनां विद्यमाने अपि कर्मणी न जन्मान्तरशरीराण्युत्पादयतः, अतस्तेषां कर्मसत्त्वेऽपि न काऽपि हानिरिति वाच्यम्। समाधि के बल से उत्पन्न तत्त्वज्ञान वाले पुरुष के कर्मज्ञान के सामर्थ्य से कर्म का उपभोग करने के लिए अशेष शरीर उत्पन्न करके अशेष भोग से ही पूर्वकर्म का क्षय हो जाता है । उस तत्त्वज्ञानी पुरुष में मिथ्याज्ञान नहीं होता और मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने वाला संस्कार भी नहीं होता । इस कारण नवीन कर्म की उत्पत्ति भी नहीं होती। ऐसी स्थिति में उपभोग से ही समस्त कर्मों का क्षय मान लेने में लेशमात्र भी दोष नहीं है। मिथ्याज्ञान से उत्पन्न होने वाला संस्कार जन्मान्तर के शरीर की उत्पत्ति में सहकारी कारण होता है । वह संस्कार तत्त्वज्ञानी में नहीं रहता। उस का अभाव हो जाने पर, पुण्य-पाप कर्म भले ही विद्यामान रहे मगर वे शरीर उत्पन्न नहीं कर सकते । अत एव उन में कर्म का सद्भाव होने पर भी कोई हानि नहीं होती। यह सब कथन सत्य नहीं है। સમાધિના બળથી ઉત્પન્ન તત્વજ્ઞાન વાળા પુરુષનાં કર્મજ્ઞાનનાં સામર્થ્યથી કર્મને ઉપભેગા કરવા માટે અશેષ શરીર ઉત્પન્ન કરીને અશેષ ભેગથીજ પૂર્વકર્મને ક્ષય થઈ જાય છે. તે તત્ત્વજ્ઞાની પુરુષમાં મિથ્યાજ્ઞાન નથી અને મિથ્યાજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સંસ્કાર પણ નથી. આ કારણથી નવીન કર્મની ઉત્પત્તિ પણ થતી નથી. એવી સ્થિતિમાં ઉપભેગથીજ સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય માની લેવામાં લેશ માત્ર પણ દેષ નથી. મિથ્યાજ્ઞાનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા સંસ્કાર જન્માન્તરના શરીરની ઉત્પત્તિમાં સહકારી કારણ થાય છે. તે સંસ્કાર તત્વજ્ઞાનીમાં રહેતા નથી. તેને અભાવ થઈ જવાથી, પુણ્ય-પાપકર્મ ભલેને વિદ્યમાન રહે. પરંતુ તે શરીર ઉત્પન્ન કરી શકતાં નથી, એટલા માટે તેમાં કર્મનો સદ્ભાવ હોવા છતાંય પણ કઈ પ્રકારે હાનિ થતી નથી. આ સર્વ કથન સાચાં નથી. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागमत्र ___जन्यपर्दार्थस्य नित्यत्वापत्तिः स्यादित्येव महान् दोपः समापद्येत । तयाहि-पुण्यपापरूपकर्मणोः स्त्रफलानुत्पादनेन तत्सत्तास्वीकारे कार्यरूपयोरपि तयोनित्यत्वमसङ्गः । किञ्च-भविष्यत्काले पुण्यपापकर्मणोरनुत्पत्तिस्वीकारे तत्त्वज्ञानिना प्रत्यवायपरिहारार्थ नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं कथमुपपद्यत ? इति वदन्ति । अत्रोच्यते यत्तु-उक्तम् आरब्धकार्ययोः पुण्यापुण्यकर्मणोरुपभोगात् प्रक्षयः संचितयोश्च तयोः प्रक्षयस्तत्त्वज्ञानादित्यादि, तदपि न संगतम् । तथाहि-उपमोगात् फर्मप्रक्षये तदुपभोगकालेऽभिलापपूर्वकमनोवाक्कायव्यापारस्यापरकर्मकारणस्य सव से पहले महान् हानि तो यही है कि जन्य पदार्थ (काय) भी नित्य हो नायगा । वह इस प्रकार-पुण्य-पाप रूप कर्मों के फल को उत्पन्न न कर के सत्ता स्वीकार की गई है, सो कार्यरूप होने पर भी उन में नित्यता का प्रसङ्ग आता है । दूसरी बात यह है कि आगामी काल में पुण्य-पाप की उत्पत्ति न स्वीकार करने पर तत्त्वज्ञानियों के लिए, प्रत्यवाय (दोप) का परिहार करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठान करना किस प्रकार संगत होगा । ऐसा इन का कथन है, इस पर विचार किया जाता है कार्यरूप में परिणत पुण्य और पाप कर्मों का उपभोग से क्षय होता है और संचित कर्मों का तत्त्वज्ञान से, इत्यादि कथन भी संगत नहीं है। उपभोग से कर्मों का क्षय मानने पर कर्मों का उपमोग करते समय इच्छापूर्वक मन वचन और कायाका व्यापार સૌથી પ્રથમ મહાન હાનિ તે એજ છે કે જન્ય પદાર્થ (કાર્ય) પણ નિત્ય થઈ જશે. તે આ પ્રમાણે-પુયપાપ કર્મોના ફળને ઉત્પન્ન ન કરતાં નિત્યતાને સ્વીકાર કરવામાં આવ્યું છે. તે કાર્યરૂપ હોવા છતાંય પણ તેમાં નિત્યતાને પ્રસંગ આવે છે. બીજી વાત એ છે કે–આગામી કાળમાં પુણ્યપાપની ઉત્પત્તિ નહિ વીકારવાથી તત્ત્વજ્ઞાનીઓ માટે પ્રત્યવાય (દેશ) ને પરિહાર કરવા માટે નિત્યનૈમિત્તિક અનુષ્ઠાન કરવું તે કેવી રીતે સંગત થશે આ પ્રમાણે તેમનું કથન છે. તેના પર વિચાર કરવામાં આવે છે – કાર્યરૂપમાં પરિણત પુણ્ય અને પાપ કર્મોને ઉપભોગથી ક્ષય થાય છે. અને . સંચિત કર્મોને તત્ત્વજ્ઞાનથી. ઈત્યાદિ ઘન પણ સંગત નથી. ઉપભેગથી કર્મોને ક્ષય માનવાથી, કર્મોને ઉપલેગ કરવા સમયે ઈચ્છાપૂર્વક મન, વચન અને કાયાને વ્યાપાર Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १. १. सु. ५. कर्मवादिप्र० संभवात् पुनः प्रचुरतरपुण्यपापकर्मसद्भावे कथमात्यन्तिकः कर्मक्षयः स्यात् । नहि केवलस्य सम्यग्ज्ञानस्य आगामिकर्मानुत्पत्तिसामर्थ्यं विद्यते, किन्तु चारित्रसहितस्यैव सम्यग्ज्ञानस्य संचितकर्मक्षये आगामिकर्मानुत्पत्तौ च सामर्थ्य संभाव्यते । सम्यग्ज्ञानेन हि मिथ्याज्ञानस्य निवृत्तिः । ततश्च रागद्वेषाद्यभावेन हिंसादिपाप क्रियानिवृत्तिरूपचारित्रसहयोगाद् नवीनकर्मानुत्पत्तिर्भवति । तद्वत् संचितकर्मक्षयोsपि चारित्रसहकृतसम्यग्ज्ञानादेव भवति । यथौषधं ज्ञानमात्रेण नाममात्रेण वा न व्याधिं निवर्तयति, किन्तु तत्सेवनादिक्रियापरिणत्यैव, तद्वत् चारित्रसहितसम्यग्ज्ञानेनैव कर्मक्षयः । ३८१ होगा, और यह व्यापार नवीन कर्मबन्ध का कारण है, इस लिए फिर बहुत से पुण्यकर्म और पापकर्म संचित हो जाएँगे । ऐसी दशा में आत्यन्तिक कर्मक्षय किस प्रकार होगा ? अकेला सम्यग्ज्ञान आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ नहीं है । हाँ, चारित्रसहित सम्यग्ज्ञान संचित कर्मों के क्षय में और आगामी कर्मों की उत्पत्ति रोकने में समर्थ हो सकता है । सम्यग्ज्ञान से मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होती है । फिर राग-द्वेष आदि का अभाव हो जाने से हिंसादि पाप क्रिया की निवृत्तिरूप चारित्र की सहायता से नवीन कर्मों की उत्पत्ति रुकती है। इसी प्रकार संचित कर्मों का क्षय भी चारित्र से युक्त सम्यग्ज्ञान से ही होता है । जैसे - औषधि ज्ञानमात्र से या नाम लेने मात्रसे व्याधि को दूर नहीं करती किन्तु सेवन करने से ही दूर करती है, उसी से ही कर्मों का क्षय होता है । 1 प्रकार चारित्रयुक्त सम्यग्ज्ञान થશે, અને તે વ્યાપાર નવીન કખ ધનુ કારણ છે, એ માટે ફરી ઘણુાંજ પુણ્ય પાપ ક્રમ સંચિત થઈ જશે. એવી દશામાં આત્યન્તિક કર્મ ક્ષય કેવી રીતે થશે? એકલું સમ્યજ્ઞાન આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિને રોકવામાં સમથ નથી, `હા. ચારિત્રસહિત સભ્યજ્ઞાન સંચિત કર્મોના ક્ષયમાં અને આગામી કર્મોની ઉત્પત્તિ રોકવામાં સમથ થઈ શકે છે. સમ્યજ્ઞાનથી મિથ્યાજ્ઞાનની નિવૃત્તિ થાય છે. પછી રાગ-દ્વેષ વગેરેના અભાવ થઈ જવાથી હિંસાદિ પાપક્રિયાની નિવૃત્તિરૂપ ચારિત્રની સહાયતાથી નવીન કર્મીની ઉત્પત્તિ અટકે છે. એ પ્રમાણે સંચિત કર્મના ક્ષય પણ ચારિત્રથી ચુક્ત સભ્યજ્ઞાનથીજ થાય છે. જેવી રીતે ઔષધના જ્ઞાનમાત્રથી અથવા ઔષધનું નામ લેવાથી વ્યાધિ દૂર થતી નથી, પરન્તુ સેવન કરવાથી જ દૂર થાય છે. તે પ્રમાણે ચારિત્રયુક્ત સભ્યજ્ઞાનથીજ કર્મોના ક્ષય થાય છે. Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૨ आचाराङ्गसूत्रे यथा-उष्णस्पर्शस्यागामिशीतस्पर्शानुत्पादनसामर्थ्यं पूर्वकालिकशी तत्पर्शध्वंसेऽपि च सामर्थ्यं लोके दृष्टम्, तद्वच्चारित्रसहितसम्यग्ज्ञानस्यापि सकलकर्मक्षयसामर्थ्यं भवति । इदमत्राबधेयम् - सम्यग्ज्ञानं तदेवास्ति यत् खलु परिणामिजीवाजीवादिविपयकम्, न त्वेकान्ततोsपरिणामिकूटस्थ नित्यात्मादिविषयकम्, तस्य विपरीतार्थविषयकतया मिथ्यात्वरूपत्वात् । यदि पुनः संवररूपचारित्रसहित सम्यग्ज्ञानस्याग्निरूपत्वं स्वीकृत्य निःशेषकर्मक्षयसामर्थ्यमङ्गीक्रियते, "यथैधांसि समिद्धोऽग्निः" इत्यादिवचनेन तर्हि मन्मतसिद्ध एवार्थस्तेन साधित इति । जैसे उष्ण स्पर्श, आगामी शीतस्पर्श की उत्पत्ति को रोकता है और पूर्व कालीन शीतस्पर्श का नाश करने में भी समर्थ होता है, यह बात लोक में देखी जाती है । उसी प्रकार चारित्रसहित सम्यग्ज्ञान भी समस्त कर्मों के क्षय में समर्थ होता है । सारांश यह है कि-सम्यग्ज्ञान वही है जो नीव - अजीव आदि को परिणामी जानता है | आत्मा आदि को एकान्त अपरिणामी, कूटस्थ नित्य समझने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है | यह ज्ञान विपरीत वस्तु का बोधक होने संवररूप चरित्र से युक्त सम्यग्ज्ञान को अग्नि के क्षय का कारण मानते हो, जैसा कि कहा हैकरती है" यह तो हमारे ही मत का समर्थन किया ही है। से मिथ्या है । हाँ, अगर कर उसको सब कर्मों के समान मान " वढी हुई अग्नि इन्धन को भस्म गया है, अर्थात् यह कथन हमें भी જેવી રીતે ઉષ્ણુસ્પર્શ, આગામી શીતપની ઉત્પત્તિને શકે છે, અને પૂર્વ કાલીન શીતસ્પર્શીનેા નાશ કરવામાં પણ સમર્થ થાય છે. આ વાત લેાકમાં જોવામાં આવે છે, તે પ્રમાણે ચારિત્રસહિત સભ્યજ્ઞાન પણ સમસ્ત કર્માંના ક્ષય માટે સમ चाय हे. સારાંશ એ છે કેઃ-સમ્યજ્ઞાન તેજ છે કે જે-જીવ–અજીવ આદિને પરિણામી જાને છે. આત્મા આદિને એકાન્ત અપરિણામી, ફ્રૂટસ્થ, નિત્ય સમજવાવાળું જ્ઞાન તે સમ્યજ્ઞાન નથી. તે જ્ઞાન વિપરીત વસ્તુનુ બેાધક હાવાથી મિથ્યા છે. હા. અગર સવરરૂપ ચારિત્રથી યુક્ત સમ્યજ્ઞાનને અગ્નિસમાન માનીને તેને સ* કર્મના ક્ષયનુ કારણ માને છે; જેવી રીતે કહ્યું છે કે- જેમ વધેલી અગ્નિ લાકડાંને બાળી નાંખે છે.” એ તે અમારાજ મનનું સમથૅન કર્યું' છે, અર્થાત્ તે કધન તે અમારે પણ ઇષ્ટ છે, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ क्रियावादिप्र० ___ ३८३ इति संक्षेपतः कर्मवादिप्रकरणं वर्णितम् । विस्तरतस्तु यथाशास्त्रमवगन्तव्यम्। ॥ अथ क्रियावादिप्रकरणम् ।। यः पुनरेवं कर्मवन्धवेदी भव्यः कर्मस्वरूपनिरूपणपरः स एव कर्मवादी वस्तुतः क्रियावादीत्याह-'क्रियावादी' इति । करणं क्रिया । क्रियते जीवेन इति वा क्रिया । कर्मबन्धनिबन्धना चेष्टा । एषा मनोवाक्कायसम्बन्धिनी यथासंभवं योग उच्यते । अथवा-युनक्ति जीवो यं वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं पर्यायं स योगः। वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं मनोयुक्तात्मप्रदेशगतवीर्यपरिणमनं मनोयोगः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं वाक्संयुक्तात्मप्रदेशगतवीर्यपरिणमनं • इस प्रकार संक्षेप में कर्मवादी के प्रकरण का वर्णन किया गया है। अधिक विवरण शास्त्रों से समझ लेना चाहिए। क्रियावादी का प्रकरण । ____ जो भव्य जीव इस प्रकार कर्मबन्ध का ज्ञाता है, और कर्म के स्वरूप का निरूपण करने वाला है वही कर्मवादी सच्चा क्रियावादी है। ___ करना क्रिया है । अथवा जीव के द्वारा जो की जाय वह क्रिया है । कर्मबन्ध का कारण चेष्टा क्रिया है। मन, वचन, काय सम्बन्धी यह क्रिया यथासम्भव योग कहलाती है । अथवा जिस के द्वारा जीव वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से जनित पर्याय से युक्त बनता है, उसको योग कहते हैं। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जनित मन-युक्त आत्मप्रदेशों में रहे हुए वीर्य का परिणमन मनोयोग कहलाता है। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जनित, वचनयुक्त आत्मप्रदेशो में रहे हुए वीर्य का परिणमन वचनयोग આ પ્રમાણે સંક્ષેપમાં કર્મવાદીના પ્રકરણનું વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, અધિક વિવરણ શાસ્ત્રોથી સમજી લેવું જોઈએ. यावादीनु ५४२९१. જે ભવ્ય જીવ આ પ્રમાણે કર્મબંધના જ્ઞાતા છે, અને કર્મના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવાવાળા છે; તેજ કમવાદી સાચા કિયાવાદી છે. કરવું તે ક્રિયા છે, અથવા જીવ દ્વારા જે કરવામાં આવે તે ક્રિયા છે. કર્મબંધનું કારણ ચેષ્ટા, ક્રિયા છે. મન, વચન, કાયા સંબંધી એ ક્રિયા યથાસંભવ ચોગ કહેવાય છે. અથવા જેના દ્વારા જીવ વીર્યાન્તરાય-કર્મના ક્ષપશમથી ઉત્પન્ન પર્યાયયુક્ત બને છે, તેને વેગ કહે છે. વીર્યાન્તરાયના શોપશમથી ઉત્પન્ન, મનયુક્ત આત્મપ્રદેશમાં રહેલા વીર્યના પરિણમન તે મગ કહેવાય છે વર્યા રાયના ક્ષપશમથી Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ आचाराङ्गसूत्रे काययुक्तात्मप्रदेशगतवीर्यपरिणमनं वाग्योगः । वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं काययोगः । सा च क्रिया सकलकर्मवन्धस्य कारणम्, अतः कर्मवादी भव्यः क्रियां सकलकर्मकारणस्वरूपतयाऽऽत्मपरिणतिरूपत्वेन च विजानाति, तस्मात् सकलकर्मबन्धकारणमात्मपरिणतिरूपा च क्रियेति वेदिता, क्रियावादी - क्रियास्वरूपकथनस्वभावो वेदितव्य इत्यर्थः । क्रिया कर्मणः कारणमिति भगवता भगवतीसूत्रे निगदितम्, तथाहि “मंडिअपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं एयह, वेयइ, चल, फंदह, घट्ट, खुन्भड़, उदीरड़, तं तं भावं परिणमह, तावं च णं से जीवे आरंभह सारंभ समारंभ, आरंभे वह सारंभे वट्टर, समारंभे वह, आरंभमाणे सारंभमाणे समारंभमाणे आरंभे वट्टमाणे सारंभे वट्टमाणे समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणयाए, सोयावणयाए, झरावणयाए, तिप्पाणयार, परियावणयाए बट्ट, से तेणट्टेणं मंडिअपुत्ता ! एवं वृच्चइ - जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ जाव परिणम, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भव:" (भगवती. ३. शत. ३उ . ) कहलाता है । चीर्यान्तराय के क्षयोपशम से जनित काययुक्त आत्मप्रदेशों में रहे हुए वीर्य का परिणमन काययोग कहलाता है । यह क्रिया सकल कर्मबन्ध का कारण है, इस लिए भव्य पुरुष क्रिया को सब कर्मों का कारण और आत्मा की परिणतिरूप समझता है, अतः 'क्रिया, समस्त कर्मों का कारण और आत्मा की परिणतिरूप है" इस प्रकार जानने वालेको क्रियावादिक्रिया के स्वरूप का कथन करने वाला समझना चाहिए । 66 क्रिया, कर्म का कारण है, यह बात भगवान् ने भगवतीसूत्र में कही है, वह इस प्रकार : - ઉત્પન્ન, વચન–યુક્ત આત્મપ્રદેશામાં રહેલા વીર્યના પરિણમન કાયચાગ કહેવાય છે. આ ક્રિયા સકલ કબંધનું કારણ છે. એટલા માટે ભવ્ય પુરૂષ ક્રિયાને સર્વ કર્મોનું કારણુ અને આત્માની પરિણતિરૂપ સમજે છે. તે કારણથી “ક્રિયા સમસ્ત કર્માનુ કારણુ અને આત્માની પરિશુતિરૂપ છે. ” આ પ્રમાણે જાણવાવાળાને ક્રિયાવાદી—ક્રિયાના સ્વરૂપનું કથન કરવા વાળા સમજવા જોઈ એ. ક્રિયા એ કર્મનું કારણ છે, એ વાત ભગવાને ભગવતીસૂત્રમાં કહી છે, તે આ प्रभाते थे— Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ क्रियावादिप्र० ३८५ छाया-मण्डितपुत्र ! यावच्च खलु स जीवः सदा समितं एजते व्यजते चलति स्पन्दते घट्टते क्षुभ्यति उदीरयते तं तं भावं परिणमति, तावच्च खलु स जीव आरभते संरभते समारभते, आरम्भे वर्तते संरम्मे वर्तते समारम्मे वर्तते, आरभमाणः, संरभमाणः समारभमाणः । आरम्मे वर्तमानः, संरम्भे वर्तमानः समारम्भ वर्तमानो वहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां सत्त्वानां, दुःखापनतया शोचापनतया झूरापनतया तेपापनतया पिट्टापनतया परितापनतया वर्तते तत् तेनार्थेन मण्डितपुत्र ! एवम् उच्यते-यावच्च खलु स जीवः सदा समितं एजते यावत् परिणमति, तावच्च खलु तस्य जीवस्य अन्ते अन्तक्रिया न भवति । भावार्थःमनोवाक्काययोगसहितस्य जीवस्य सर्वदा क्रियापरिणत्या कम्पनस्थानान्तरगमन-किञ्चिचलन-सर्व दिग्गमन-पृथिव्यादिक्षोभण-बलात्कारपूर्वकप्रेरणोरक्षेपणा-पक्षेपणा-ऽऽकुञ्चन-प्रसारणादिपरिणाम प्राप्तस्य पृथिव्यादिजीवानामुपद्रवकरणेन वा, विनाशसंकल्पनेन वा, परितापनेन वा, मरणलक्षणदुःखप्रापणया वा, प्रियवियोगादिदुःखप्रापणया वा, शोकपापणया वा, शोकाधिक्यजन्य "मन वचन और काययोग से सहित जीव सदा क्रियारूप परिणति से कम्पन, विविध कम्पन; एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन, किंचित् चलना, सब दिशाओं में गमन करना, पृथ्वी आदि को क्षुब्ध करना, बलात्कार से प्रेरित करना, ऊपर उठाना, नीचे करना, सिकोडना, फैलाना, इत्यादि परिणामों को प्राप्त होता है । इस परिणाम के कारण जीव को पृथिवीकाय आदि के जीवों को उपद्रव करने से, घातका संकल्प करने से, परिताप पहुँचाने से, मृत्युरूप दुःख पहुँचाने से, इष्टवियोग आदि का कष्ट पहुँचाने से, शोक મન, વચન અને કાયગથી સહિત જીવ સદાય કિયારૂપ પરિણતિથી કંપન, વિવિધ કમ્પન, એક સ્થાનથી બીજા સ્થાન પર ગમન, કિંચિત્ ચાલવું, સર્વ દિશાઓમાં ગમન કરવું, પૃથ્વી આદિને ક્ષુબ્ધ કરવું, બલાત્કારથી પ્રેરિત કરવું, ઉપર ઉઠાવવું, નીચે કરવું, સંકેચાવું, ફેલાવું, ઈત્યાદિ પરિણામને પ્રાપ્ત થાય છે. આ પરિણામના કારણે જીવને પૃથ્વીકાય આદિના જીને ઉપદ્રવ કરવાથી, ઘાતને સંપલ્પ કરવાથી, પરિતાપ પહોંચાડવાથી, મૃત્યુરૂપ દુઃખ પહોંચાડવાથી, શેકની અધિકતાથી થવાવાળી શરીરની प्र. भा.-४९ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ आचारागसत्रे शरीरजीर्णताप्रापणया वा, अश्रुपातादिप्रापणया वा, शरीरपीडोत्पादनया वा, ग्लानिजननेन वा सकलकर्मक्षयात्मिका मुक्तिन भवतीत्यर्थः । एवम्भूतस्य जीवस्य चतुर्गतिकदुःखमयसंसारदुस्तरमहारण्यपरिभ्रमणाद् विरामो न संभवतीति भावः । क्रियायाः पञ्चविंशतिर्मंदा इति स्थानाङ्गसूत्रे (स्था. २ उ. १ । स्था. ३ उ. ३) कतिभिः क्रियाभिः प्राणातिपातःप्राणातिपातं कुर्वन् जीवः सप्ताष्टौं वा ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि वनाति । तत्रायुर्वन्धे सत्यष्टौ कर्माणि, आयुर्वन्धाभावे सप्त कर्माणि वनाति । तत्र जीवः कतिभिः क्रियाभिः प्राणातिपातं निष्पादयति ? उच्यते-कदाचित् तिसृभिः क्रियाभिः, कदाचिच्चतसृभिः क्रियाभिः, कदाचित् , पञ्चभिः क्रियाभिः । पहुँचाने से शोक की अधिकता से, होने वाली शरीर की जीर्णता पहुँचाने से, अश्रुपात आदि करवाने से, शरीर में पीडा उत्पन्न करने से, ग्लानि उत्पन्न करने से समस्त कर्मों का क्षयरूप मोक्ष प्राप्त नहीं होता । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार के जीव के चार गति के दुःखों से परिपूर्ण संसाररूपी विकट अटवी में भ्रमण करने का अन्त नहीं आता।" किया के पच्चीस भेद स्थानाङ्गसूत्र में कहे है । (स्था. २ उ. १, स्था. ३ उ. ३) प्राणातिपात कितनी क्रियाओं से होता है ? । प्राणातिपात करता हुआ जीव ज्ञानावरणीय आदि सात या आठ कर्मों का वन्ध करता हैं । आयु का बन्ध हो तो आठ कर्मों का अन्यथा सात कर्मों का बन्ध करता है। जीव कितनी क्रियाओं से प्राणातिपात करता है। इस का उत्तर यह है-कदाचित् तीन क्रियाओं से, कदाचित् चार क्रियाओं से, कदाचित् पांच क्रियाओं से । જીર્ણતા પહોંચાડવાથી, આંસુ પડાવવાથી, શરીરમાં પીડા ઉત્પન્ન કરવાથી, ગ્લાનિ ઉત્પન્ન કરવાથી સમસ્તકના ક્ષયરૂપ મોક્ષ પ્રાપ્ત થતો નથી. તાત્પર્ય એ છે કેઆ પ્રમાણે જીવને ચારગતિના દુઃખથી પરિપૂર્ણ સંસારરૂપી વિકટ અટવી (વન)માં ભ્રમણ કરવાને અંત આવતું નથી. स्याना ५यास से स्थानां। सूत्रमा द्या. (स्था. २-6-१. २था. 3-3) પ્રાણાતિપાત કેટલી ક્ષિાએથી થાય છે? પ્રાણાતિપાત કરનાર જીવ જ્ઞાનાવરણીય આદિ સાત અથવા આઠ કર્મોને બ ૫ કરે છે. આયુને બંધ હોય તે આઠ કર્મોને અન્યથા સાત કર્મોને બંધ કરે છે. જીવ કેટલી ક્રિયાઓથી પ્રાણાતિપાત કરી શકે છે? તેને ઉત્તર એ છે -કદાચિત્ ત્રણ ક્રિયાઓથી, કદાચિત ચાર ક્રિયાઓથી; કદાચિત પાંચ ક્રિયાઓ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૭ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ क्रियावादिप्र० तत्र-कायिक्याधिकरणिकीपाद्वेषिकीभिः क्रियाभिस्त्रिक्रियो जीवः कर्माणि बध्नाति । कायिकीनाम-हस्तपादादिव्यापारणम् । अधिकरणिकी-खड्गतीक्ष्णीकरणादिकम् । प्राद्वेषिकी-'एनं मारयामी'-त्यशुभमनःसंप्रधारणमिति । प्राणातिपातं कर्तुजीवस्य चतुष्क्रियता-कायिक्याधिकरणिकीपाद्वेषिकी पारितापनिकीभिश्चतसृभिः क्रियाभिर्भवति । तत्र-पारितापनिकीनाम-खड्गादिधातेन पीडाकरणम् । पञ्चक्रियता तदा भवति यदा प्राणातिपातक्रियाऽपि पश्चमी भवति । प्राणातिपातक्रियानाम-जीविताद् व्यपरोपणम् । उक्तरीत्या ज्ञानावरणी कायिकी, आधिकरणिकी और प्राषिकी, इन तीन क्रियाओं वाला होकर जीव कर्मबन्ध करता है । हाथ-पैर आदि का हिलाना डुलाना वगैरह 'कायिकि' क्रिया है । तलवार को तीक्ष्ण करना वगैरह ‘आधिकरणिकी ' क्रिया है । ' इसे मारूंगा' इस प्रकार मन में अशुभ विचार करना 'प्राद्वेषिकी क्रिया है । प्राणातिपात करने वाला जीव चार क्रिया वाला होता है-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी और पारितापनिकी, ये चार क्रियाएँ उसे लगती हैं । तलवार आदिका आघात कर के पीडा पहूँचाना 'पारितापनिकी' क्रिया है। जब प्राणातिपात क्रिया भी जीव कर डालता है तब उसे पांचों क्रिवाएँ लगती है। किसी प्राणी को जीवन से वियुक्त कर देना 'प्राणातिपातिकी' क्रिया है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों के कारणभूत કાયિકી, અધિકરણિકી અને પ્રાષિકી, આ ત્રણ ક્રિયાઓવાળા થઈને જીવ કર્મબંધ ४२ छ, हाथ-५२॥ महिने सायु-३२१ वगेरे कायिकी ठिया छ. तसवार वगैरेने तley ४२वी विगैरे आधिकरणिकी छिया छ 'मेने भारीश' ॥ प्रारनी भनमा मशुम विया२ ४२ ते प्राद्वेषिकी ठिया छे. પ્રાણાતિપાત કરવાવાળા જીવ ચાર કિયાવાળા હોય છે–કાયિકી, આધિકરણિકી. પ્રાàષિકી અને પારિતાપનિકી, આ ચાર ક્રિયાઓ તેને લાગે છે. તલવાર આદિન આઘાત કરીને પીડા પહોંચાડવી તે પરિતાની ક્રિયા છે. જ્યારે પ્રાણાતિપાત કિયા પણ જીવ કરી નાખે છે ત્યારે તેને પાંચ કિયાએ લાગે છે. કઈ પ્રાણીને જીવનથી વિયુક્ત જાદુ કરી દેવું તે પ્રાણાતિપતિ કિયા છે. આ પ્રમાણે જ્ઞાનાવરણીય આદિ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ आचाराङ्गसूत्रे यादिकर्मणां कारणीभूतस्य प्राणातिपातस्य निष्पत्तिस्त्रिक्रियतया, चतुष्क्रियतया पञ्चक्रियतया वा त्रिधा भवति । एवं चतुर्विंशतिदण्डकेषु विज्ञेयम् । मृगवधोद्यतस्य क्रिया मृगवधोद्यतो लुब्धकः खलु वनपर्वतजलाशयादिषु मृगवधार्थं गत्वा मृगग्रहणाय गर्तादिकं तवन्धनार्थं च पाशं रचयति, तदा मृगवधार्थं गमनगर्त - पाशादिकरणात् तस्य कायिक्यादिकाः क्रिया भवन्ति । तत्र गमनधावनग्रहणादिना गमनादिकायचेष्टारूपा कायिकी, गर्तपाशादिरूपेणाधिकरणेन निर्वृत्ता क्रिया आधिकरणिकी, यश्च मृगेषु प्रद्वेषस्तेन निर्वृत्ता प्राद्वेषिकी क्रिया भवति । प्राणातिपात की निष्पत्ति कहीं तीन, चार तथा कहीं पांच क्रियाओ से, ऐसे तीन प्रकार से होती है । चौवीसों दण्डकों में इसी प्रकार समझना चाहिए । मृगवध में उद्यतको क्रिया मृग मारने के लिए उद्यत हुआ शिकारी वन पर्वत और जलाशय आदि में मृगका वध करने के लिए जाकर मृग पकडने के लिए खड्डा बनाता है और उसे बांधने के लिए नाल रचता है । उस समय मृगवध के लिए गमन करने से, तथा खड्डा एवं पाश तैयार करने से, उसे कायिकी आदि क्रियाएँ लगती है । जाना दौडना, पकडना आदि से कायिकचेष्टारूप कायिकी क्रिया लगती है । खड्ड और जालरूप अधिकरणों के कारण आधिकरणिकी क्रिया होती है, मृग पर होने वाले द्वेष के कारण / કર્મીના કારણભૂત પ્રાણાતિપાતની ઉત્પત્તિ કોઈ સ્થળે ત્રણ, કાઈ ઠેકાણે ચાર તથા કેઈ ઠેકાણે પાંચ ક્રિયાએથી એવા ત્રણ પ્રકારથી હેાય છે. ચાવીશેય દડકામાં આ પ્રમાણે સમજવુ જોઈ એ. મૃગવધમાં તૈયાર થનારને ક્રિયા મૃગને મારવા માટે તૈયાર થયેલા શિકારી વન, પર્યંત અને જલાશય આદિમાં મૃગને વધ કરવા માટે જઇને મૃગ પકડવા માટે ખાડા બનાવે છે, અને તેને બાંધવા માટે જલ રચે છે તે સમયે મૃગના વધ માટે ગમન કરવાથી, તથા ખા અને પાશ તૈયાર કરવાથી તેને કાયિકી આદિ ક્રિયાએ લાગે છે, જવું, દોડવું, પકડવુ' આદિથી કાયિક येष्टारूप कायिकी दिया लागे छे गाडी भने लय अधिरोना रो आधिकरणिकी Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सु.५ क्रियावादिप्र० ३८९ बद्धे सति तु मृगे तस्य लुब्धकस्य पारितापनिकी, परितापनप्रयोजना क्रिया भवति। घातिते च सति मारणरूपा प्राणातिपातक्रिया। पूर्व क्रियया ज्ञानावरणीयादिकं कर्म जन्यते। तत्तत्कर्मफलानुभवनरूपा वेदना च तत्पश्चादेव भवति । उक्तञ्च ___ "पुव्वं भंते ! किरिया पच्छा वेयणा ? पुव्वं वेयणा तच्छा किरिया ? मंडिअपुत्ता ! पुव्वं किरिया पच्छा वेयणा, णो पुन्वं वेयणा, पच्छा किरिया"। (भग. ३ श. ३. उ.) ___ छाया-पूर्व भदन्त ! क्रिया पश्चाद् वेदना ? पूर्व वेदना पश्चात् क्रिया ? भोमण्डितपुत्र ! पूर्व क्रिया पश्चाद् वेदना, नो पूर्व वेदना पश्चात् क्रिया ॥ कुमूलादौ लोहमुत्क्षिपतः क्रियालोहं लोहप्रतापनार्थे कुशूले. लोहमयेन संदंशनेनोत्क्षिपन् प्रक्षिपन् वा प्राद्वेषिकी क्रिया लगती है । मृग के बँध जाने पर शिकारी को पारितापनिकी क्रिया लगती है । मृग का घात करने पर हिंसारूप प्राणातिपातिकी क्रिया होती है । __ पहले क्रिया से ज्ञानावरण आदि कर्मों का बंध होता है और उस का फल भोगनारूप वेदना बाद में ही होती है । कहा भी है--- "हे भगवन् ! पहले क्रिया और फिर वेदना होती है ? अथवा पहले वेदना और पश्चात् क्रिया होती है ? हे मण्डितपुत्र ! पहले क्रिया, पश्चात् वेदना होती है। पहले वेदना और पश्चात् क्रिया नहीं होती" ( भगवती. श. ३. उ. ३.) कुशल आदि में लोहा डालने वाले को क्रियातपाने के लिए कुशूल (मूष) में लोहे की संडासी से लोहा डालने वाले को કિયા થાય છે. મૃગ ઉપર થવાવાળા દ્વેષથી પ્રાપિછી કિયા લાગે છે. મૃગના બંધાઈ જવાથી શિકારીને પરિતાનિવ કિયા લાગે છે. મૃગને ઘાત કરવાથી હિંસારૂપ प्राणातिपातिकी छिया थाय छे. પ્રથમ ક્રિયાથી જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્મોને બંધ થાય છે, અને તેનું ફળ ભોગવવા રૂપ વેદના પછીથીજ થાય છે. કહ્યું છે કે – “હે ભગવન! પહેલાં ક્રિયા અને પછી વેદના થાય છે? કે પહેલાં વેદના અને પછીથી ક્રિયા થાય છે? હે મંડિતપુત્ર! પહેલી કિયા, અને પછીથી વેદના થાય છે. पहेदी वहन मन पछीथी लिया थती नथी.” (लग. श. ३. 6. 3). મૂષ આદિમાં લેવું નાખનારને ક્રિયા– તપાવવા માટે મૂષમાં, લોઢાની સાણસીથી લેતું નાંખવાવાળાને કાયિકીથી લઈને Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आंचारागसूत्रे कायिक्यादि-प्राणातिपातिकीपर्यन्ताभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति । एवं लोहेन फालपरशुकुठारकुद्दालदात्रादिनिर्माणे लोहकारादीनां पञ्चक्रियत्वं भवति, अविरतिसद्भावात् । एवं घनोपरि स्थापनेन कुट्टनेन भस्रया ध्मापनेन विध्यापनेन प्रज्वालितेन शैत्यकरणार्थं जले तप्तलोहप्रक्षेपेण प्रत्येकतत्तद्व्यापारे पञ्चभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति । धनुषा विध्यतः क्रियाधनुर्धरः शरैर्व्यापादयन् यावत् धनुगृह्णाति, धनुः प्रसारयति, कर्णपर्यन्तमाकर्षति, वर्तुलीकरोति, वाणं संयोजयति, ऊर्ध्व प्रक्षिपति, स्वाभिमुखमागच्छतो हन्ति, अन्योन्यगात्रं संहतीकरोति, मनाक् स्पृशति, समन्ततः परिताकायिकी से प्राणातिपातिकी पर्यन्त पांच क्रियाओं का स्पर्श होता है । इसी प्रकार लोहे से फाल, फरसा, कुल्हाडा, कुदाल, दांतला आदि के बनाने में लहार वगैरह को पांच क्रियाएँ लगती है, क्यों कि उस में अविरति मौजूद है । इसी प्रकार घन के ऊपर रखने में, कूटने में, धौंकने में, आग बुझाने में, प्रज्वलित करने में, ठंडा करनेके लिए जल में लोहा डालने में, इस प्रत्येक में पांच २ क्रियाएँ लगती हैं। धनुष से वेधने में क्रिया-. धनुर्धारी पुरुष वाण से मारता हुआ जब तक धनुष ग्रहण करता है, धनुष फैलाता है, कानपर्यन्त खींचता है, गोल करता है, उस में बाण जोडता है, ऊपर फैकता है, अपने सामने आते को मारता है, शरीर को सिकोडता है, जरा-सा स्पर्श પ્રાણાતિપાત સુધીની પાંચ ક્રિયાઓને સ્પર્શ થાય છે. એ પ્રમાણે લેઢાના ફાલહળની કેસ, ફરસી, કુવાડા, કેદાલી, દાંતલા આદિ બનાવવામાં લુહાર વગેરેને પાંચ કિયાઓ લાગે છે, કારણ કે તેમાં અવિરતિ હાજર છે. આ પ્રકારે ઘણને ઉપર રાખવામાં, કૂટવામાં ધકનીથી ધોકવામાં, અગ્નિ બુઝાવામાં પ્રજવલિત કરવામાં અને લેડું ઠંડું કરવા માટે પાણીમાં નાખવામાં. આ પ્રત્યેક કાર્યમાં પાંચ ક્રિયાઓ લાગે છે. ધનુષથી વિંધવામાં ક્રિયા ધનુષ ધારણ કરનાર પુરૂષ બાણથી મારતે જ્યાંસુધી ધનુષ ગ્રહણ કરે છે, ધનુષ ફેલાવે છે, કાન સુધી ખેંચે છે, ગેળ કરે છે, તેમાં બાણ જેડે છે, ઉપર ફેકે છે, પિતાના સામે આવનારને મારે છે, શરીરને સંકેચે છે, થેડે એ સ્પર્શ કરે છે, Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ स.५ त्रियावादिनः पयति, स्थानतः स्थानान्तरं नयति, जीविताद् व्यपरोययति । तत्र कायिक्यादिप्राणातिपातिकीपर्यन्ताभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति । वृष्टिज्ञानाय हस्तादिकं प्रसारयतः क्रियारात्रौ निविडान्धकारे चक्षुदर्शनाभावे सति वृष्टि विज्ञातुमाकाशे यः खलु हस्तं पादं वा बाहुं वा अरुं वा यावत्कालं प्रसारयेत् संकोचयेत् तावत्कालत एवासौ कायिक्यादिपाणातिपातिकीपर्यन्ताभिः पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टो भवति । करता है, पूरी तरह परितापना करता है, एक स्थान से दूसरे स्थान पर लेजाता हैं, जीवन से च्युत करता है, ऐसा करने में वह कायिकी आदि प्राणातिपातिकी पर्यन्त पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । अर्थात् पांचों ही क्रियाएँ उसे लगती हैं। दृष्टिज्ञान के लिए हाथ आदि फैलाने वाले को क्रियाएँरात्रि के समय घोर अन्धकार में-चक्षुर्दर्शन का अभाव होने पर, वर्षा जानने के लिए आकाश में जो हाथ, पैर, बाहु, या ऊरु, जब तक पसारता है, सिकोडता है, तब तक ही वह कायिकी आदि प्राणातिपातिकी पर्यन्त पांचक्रियाओं से स्पृष्ट होता है । પૂરી રીતે પરિતાપના કરે છે, એક સ્થાનથી બીજા સ્થાનમાં લઈ જાય છે, જીવનથી ચુત (વિયુક્ત) કરે છે. એવી રીતે કરવામાં તે કાયિકી આદિ પ્રાણાતિપાતિકી સુધીની પાંચેય કિયાએથી સ્પષ્ટ થાય છે, અર્થાત્ તેને પાંચેય કિયાએ લાગે છે. વૃષ્ટિજ્ઞાન માટે હાથ આદિ ફેલાવવા વાળાને ક્રિયાઓરાત્રિની ઘોર અંધકારમાં, ચક્ષુદર્શનને અભાવ હોવાથી, વરસાદ આવે છે કે નહિ? એ જાણવા માટે, આકાશમાં જે હાથ, પગ, બાહુ અથવા ઉરૂ જ્યાં સુધી પ્રસારે છે, સંકોચે છે, ત્યાં સુધી તે કાયિકી આદિ પ્રાણાતિપાતિકીસુધીની પાંચ ક્રિયાઓ તેને સ્પર્શે છે. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसूत्रे ॥ तालमारुह्य तत्फलं पातयतः क्रिया ॥ तालवृक्षमारुह्य तत्फलं पातयन्नपि तावत्कालत एव पञ्चभिः कायिक्यादिक्रियाभिः स्पृष्टो भवति । अष्टादश पापस्थानानि (१) प्राणातिपात:जीवानां प्राणातिपाताध्यवसायेन प्राणातिपातक्रिया भवति । 'हिंसापरिणामकाल एव प्राणातिपातक्रिया भवति । प्राणातिपातादीनामध्यवसायमात्रादपि ज्ञानावरणीयादि कर्म जन्यते । उक्तञ्च" परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलंबमाणाणं " इति । तालक्ष पर चढ कर फल गिरानेवाले को क्रियाएँताल वृक्ष पर चड कर उस के फल गिराता हुआ तब तक कायिकी आदि पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। अठारह पापस्थान (१) प्राणातिपातजीवों का प्राणातिपात करने के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है। हिंसारूप परिणाम के समय ही प्राणातिपातक्रिया होती है। प्राणातिपात का अध्यवसाय होने मात्र से भी ज्ञानावरण आदि कर्म उत्पन्न होते है । कहा भी है "परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलंबमाणाणं" अर्थात् प्राणातिपात करने का निश्चय करने वाले का परिणाम ही कर्मबन्ध का कारण है તાલવૃક્ષ પર ચઢીને ફલ પાડનારની ક્રિયાઓ– તાલવૃક્ષ પર ચઢીને તેના ફળ પાડે છે ત્યાં સુધી કાયિકી આદિ પાંચ ક્રિયાઓને સ્પર્શ કરે છે. અઢાર પાપસ્થાન (१) प्रामातियातજીના પ્રાણાતિપાત કરવાના અધ્યવસાયથી પ્રાણાતિપાતક્રિયા થાય છે. હિંસારૂપ પરિણામના સમયે જ પ્રાણાતિપાતકિયા થાય છે. પ્રાણાતિપાતને અધ્યવસાય થવા માત્રથી પણ જ્ઞાનાવરણ આદિ કમ ઉત્પન્ન થાય છે કહ્યું છે. કે – “परिणामियं पमाणं णिच्छयमवलवमाणाणं " , અર્થા–પ્રાણાતિપાત કરવાનો નિશ્ચય કરવાવાળાનાં પરિણામ જ કર્મબંધનું કારણ છે. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.५ क्रियावादिप० इयं च प्राणातिपातक्रिया षड्जीवनिकायविषये भवति । यथा-रज्वादौ सर्पादिबुद्धया मारणाध्यवसायोऽपि जीवविषयक एव । तत्र हि-'सोऽय'मितिबुद्धया मारणाध्यवसायो जायते, तस्मात् रज्जु प्रति सर्पवधभावयुक्तः सर्पवधजन्यया प्राणातिपातक्रियया स्पृष्टो भवति । अजीवविषयको मारणाध्यवसायस्तु नैव संभवति, यथा रज्जु रज्जुत्वेन विज्ञाय न कश्चिद्रज्जुविषये मारणाध्यवसायं करोति तस्मात् षट्सु जीवनिकायेष्वेव प्राणांतिपातक्रिया प्रवर्तते, न त्वजीवविषय इति । उक्तञ्च "कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ! । गोयमा छसु जीवणिकाएमु” इति यह प्राणातिपात क्रिया षड्जीवनिकाय के विषय में होती है। रस्सी आदि में सांप आदि की भावना से मारने का अध्यवसाय होना भी जीवविषयक ही अध्यवसाय है । वहाँ 'यह सर्प है' इस प्रकार की भावना से मारने का अध्यवसाय होता है, अत एव वहाँ रस्सी में सर्प के वधके भाव से युक्त पुरुष सर्पवधजन्य प्राणातिपात क्रिया से स्पृष्ट होता है । अजीवविषयक मारने का अध्यवसाय तो हो ही नहीं सकता है-रस्सी को रस्सी समझ कर कोई रस्सी में मारने की भावना नहीं करता, अतः षड्जीवनिकायों में ही प्राणातिपातिकी क्रिया प्रवृत्त होती है, अनीव में नहीं । कहा भी है । " भगवन् ! किन में जीवों को प्राणातिपातिकी क्रिया होती है ! गौतम ! छह जीवनिकायों में"। આ પ્રાણાતિપાત કિયા ષડૂછવનિકાયના વિષયમાં થાય છે. દેરડાં આદિમાં સર્પઆદિની ભાવનાથી મારવાને અધ્યવસાય છે તે પણ જીવવિષયક અધ્યવસાય છે. ત્યાં “આ સર્પ છે” આ પ્રકારની ભાવનાથી મારવાને અધ્યવસાય થાય છે. એટલા કારણથી ત્યાં રસી–દેરડાંમાં–સપના વધની ભાવનાયુક્ત પુરૂષ સર્પવધજન્ય પ્રાણાતિપાત ક્રિયાને સ્પર્શે છે. અજીવવિષયક મારવાના અધ્યવસાય તે થઈ શકતા નથી–રસીને રસી (દેરડી) સમજીને કઈ રસી–દેરડામાં મારવાની ભાવના કરતા નથી, તે માટે ષડૂજીવનીકામાં જ પ્રાણાતિપાતની ક્રિયા પ્રવૃત્ત હોય છે. અજીવમાં નહિ. કહ્યું પણ છે – ભગવન્! શે- જીવોને પ્રાણાતિપાતિકી ક્રિયા થાય છે ? ગૌતમ! छ वनियामां." प्र. भा-५० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारागसूत्रे (२) मृषावाद:'. ' सतोऽपलापोऽसतश्च प्ररूपणं मृपावादः । स सर्वद्रव्यपर्यायविशेषये भवति । (३) अदत्तादानम्अदत्तस्य देवगुर्वादिभिरननुज्ञातस्यादानं-ग्रहणम्-अदत्तादानम् , यद् वस्तु ग्रहीतुं धारयितुं वा शक्यते, तद्वस्तुमात्रत्रिपयकमादानं भवति, न तु तदन्यवस्तुविषयकम् , उक्तञ्च "कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कज्जइ ? । गोयमा गहणधारणिज्जसु दव्वेसु" । इति (भग० १ श. ६ उ.) __(४) मैथुनम्स्त्रीपुंसयोः कर्म-मैथुनम् । मैथुनाध्यवसायोऽपि चित्रलेप्यकाष्ठादिकर्म (२) मृषावादसत् का अपलाप करना और असत् का प्ररूपण करना मृषावाद है । मृषावाद समस्त द्रव्यों और पर्यायों के विषय में होता है। (३) अदत्तादान• * अदत्त अर्थात् देव एवं गुरु आदि द्वारा जिस की आज्ञा प्राप्त न हुई हो उसको ग्रहण करना अदत्तादान है । जो वस्तु ग्रहण की जा सकती है या धारण की जा सकती है उसी वस्तु का आदान हो सकता है, अन्य वस्तु का नहीं। कहा भी है:-- “भगवन् ! किस वस्तु में अदत्तादान के द्वारा क्रिया की जाती है ? गौतम ! ग्रहण करने और धारण करने योग्य द्रव्यों में (भग., श. १, उ. ६) (४) मैथुनमिथुन अर्थात् स्त्री और पुरुष का कार्य मैथुन कहलाता है। मैथुन का अध्यवसाय મૃષાવાદસને ખોટું કહેવું અને અને સાચું કહી તેનું પ્રપણ કરવું તે મૃષા વાદ–સમસ્ત દ્રવ્યો અને પર્યાયાના વિષયમાં થાય છે. (3) महत्ताहानઅદત્ત અર્થાત દેવ-ગુરૂ આદિદ્વારા જેની આજ્ઞા મળી ન હોય, તેવી વસ્તુને ગ્રહણ કરવી તે અદત્તાદાન છે. જે વસ્તુ ગ્રહણ કરી શકાય છે, અથવા ધારણ કરી શકાય છે તે વસ્તુનું આદાન થઈ શકે છે. બીજી વસ્તુનું નહિ. કહ્યું પણ છે – ભગવન્! કઈ વસ્તુમાં અદત્તાદાન દ્વારા ક્રિયા થઈ શકે છે? ગૌતમ! ગ્રહણું ४२१॥ मने धा२६४२वा योग्य द्रव्योमो." (मा. श. १ 6. ६) (४) भैथुनમૈથુન અર્થાત્ સ્ત્રી અને પુરૂષનું કાર્ય મિથુન કહેવાય છે, મૈથુનના અધ્યવસાય Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ २.५ क्रिया० पापस्थान (१८) ३९६ गतरूपेषु रूपसहगतेषु स्यादिषु विषयेषु भवति, न तु सकलवस्तुविषये । उक्तञ्च "कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ १ । गोयमा ! रुवेसु - वा स्वसहगएमु चा दन्वेसु" इति (भग. १ श. ६ उ.) (५) परिग्रहःपरिग्रहः स्वस्वामिभावेन मूर्छा । स च प्राणिनामधिकलोभात् समस्तवस्तुविषये प्रादुर्भवति । कृत्याकृत्यविवेकोन्मूलकोऽक्षमारूप आत्मपरिणामः क्रोधः ६ । मानो गर्वः ७ । माया शाठ्यम् ८ । लोभो-गृध्नुता ९ ? । रागः भीतिरासक्तिर्वा १० । भी सब वस्तुओं में नहीं होता । चित्र, लेप्य, या काष्ठ आदि में अङ्कित किये जाने वाले रूपों में या स्त्री आदि में ही मैथुन का अध्यवसाय होता है । कहा भी है ____ "भगवन् ! किस विषय में जीव मैथुन किया करते है ? गौतम ! रूपों में और, रूप-युक्त विषयों (स्त्रियों आदि) में । (भग. श. १, उ. ६) (५) परिग्रह" यह वस्तु मेरी है मै इसका स्वामी हूँ" इस प्रकार की मूर्छा को परिग्रह कहते हैं । प्राणियों में लोभ की अधिकता होने के कारण सभी वस्तुओं में मूर्छा हो सकती है। कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को नष्ट करने वाला. अक्षमारूप आत्मा का परिणाम (६) क्रोध कहलाता है। गर्व को (७) मान और कपट को (८) माया कहते है। પણ સર્વ વસ્તુઓમાં નથી. ચિત્ર લેખ અથવા કાષ્ઠ આદિમાં ચિતરવામાં આવેલા રૂપમાં અથવા સ્ત્રી આદિમાં જ મિથુનને અધ્યવસાય થાય છે. કહ્યું પણ છે – ભગવાન ! કયા વિષયમાં જીવ મિથુન ક્રિયા કરે છે? गौतम ! योमा म ३५युक्त विषये। (खियो माह)मा (१०१ श--8) (५) परिग्रह“આ વસ્તુ મારી છે હું તેને માલિક છું ” આ પ્રકારની મૂછને પરિગ્રહ, કહે છે. પ્રાણીઓમાં લેભની અધિકતા હોવાના કારણે સર્વ વસ્તુઓમાં મૂછો હોય છે. ' કર્તવ્ય-અકર્તવ્યના વિવેકને નાશ કરવાવાળા, અક્ષમાજ૫ આત્માનું પરિણામ તે १५ उपाय छे. (6), गने भान (७), भने ४५८ने भाया ४ छ (८), द्धिते Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रेद्वेष-अप्रीतिः ११ । कलहो-विरोधः १२ । अभ्याख्यानम्-असद्दोषारोपणम् १३ । पैशुन्यं कर्णान्तिकादौ परोक्षे विद्यमानस्याविद्यमानस्य वा दोपस्योद्घाटनम् १४ । परपरिवादः अभूतजनसमक्ष परदोषप्रकाशनम् १५ । रत्यरतिः विषयेष्वनुरागो रतिः, धर्मेऽनभिरुचिररतिः, रतिसहिता-अरतिः रत्यरतिः, इदमेकं पापस्थानम् १६ । मायामृषा-मायासहितो मृपावादः, इदमप्येकं पापस्थानम् १७ । मिथ्यादर्शनशल्यम्-मिथ्यादर्शनं मिथ्यात्वं तदेव शल्यमिव विविधव्यथाजनकत्वात् मिथ्या गृद्धि-(९) लोभ है, प्रीति या आसक्ति (१०) राग है, और अप्रीति को (११) द्वेष कहते है, (१२) कलह अर्थात् विरोध । (१३) अभ्याख्यान अर्थात् किसी को झूठा दोष लगाना । चुगली वगैरह को (१४) पैशुन्य कहते है, अर्थात् विद्यमान या अविद्यमान दोष को पीठ पीछे प्रकाशित करना। बहुत से लोगों के समक्ष दूसरे के दोष प्रकाशित करना (१५) परपरिवाद है। विषयों में अनुराग होना रति और धर्म में अनुराग न होना भरति है, रतिसहित अरति को (१६) रत्यरति कहते है। यह एक पापस्थानक है। माया से युक्त मृषावाद (१७) मायामृषा कहलाता है, यह भी एक पापस्थानक है । शल्य के समान विविध प्रकार की व्यथाएँ उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व (१८) मिथ्यादर्शनशल्य कहलाता है, अर्थात् कुदेव कुगुरु और कुधर्म को aस छ (6). प्रीति अथवा मासहित त रा छ (१०). मने मप्रीतिन द्वेष छ (૧૧). કલહ અર્થાત વિષેધ (૧૨). અભ્યાખ્યાન અર્થાત્ કેઈન પર જુઠે આરેપ મૂકવે તે (૧૩). ચુગલી વગેરેને પશુન્ય કહે છે, અર્થાત્ વિદ્યમાન અથવા અવિદ્યમાન દેને પાછળથી પ્રકાશિત કરવા (૧૪). ઘણા લેકેના સમક્ષ બીજાના દે પ્રકાશિત કરવા તે પરપરિવાદ છે (૧૫). વિશ્વમાં અનુરાગ થવે તે રતિ છે, અને ધર્મમાં અનુરાગ નહિ થવે તે અરતિ છે, રતિસહિત અરતિને રત્યરતિ કહે છે. આ પણ એક પાપસ્થાનક છે (૧૬). માયાથી યુક્ત મૃષાવાદ તે માયામૃષા કહેવાય છે. તે પણ એક પાપસ્થાનક છે (૧૭). શલ્યની પ્રમાણે વિવિધ પ્રકારની પીડાઓ ઉત્પન્ન કરવાવાળા સિંખ્યાત્વ મિથ્યાદર્શનશલ્ય કહેવાય છે. અર્થાત કુદેવ કુગુરૂ અને કુમિને સુદેવ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. १ सू. ६. कर्म समारम्भः ३९७ दर्शनशल्यम् = कुदेव - कुगुरु - कुधर्मेषु सुदेवादिबुद्धिः १८ । एतान्यष्टादश पापस्थानानि । एताभिः क्रियाभिर्जीवः कर्म बन्धाति ।। सू. ५ ॥ ॥ इति क्रियावादिप्रकरणम् ॥ क्रिया किलात्मनः परिणामः । तेन क्रियावत्त्वं कर्तृत्वं चात्मनः सिध्यति । तत्तत्कालिकक्रिया सम्बन्धादात्मनस्त्रिकालवर्तित्वं च सिध्यतीत्याशयेनाह - " अकरिस्तं" इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ अकरिस्सं चsहं, कारवेसुं चsहं, करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि । एयावंति सव्वाति लोगंस कम्मसमारंभा परिजाणियव्त्रा भवंति । सू. ६ ॥ सुदेव सुगुरु और सुधर्म समझना मिथ्यादर्शनशल्य है । ये अठारह पापस्थानक हैं । इन अठारह प्राणातिपात आदि क्रियाओं से जीव को कर्मों का बन्ध होता है । ॥ सू. ५ ॥ ॥ इति क्रियावादिप्रकरण ॥ क्रिया आत्मा का एक परिणाम है । उस से आत्मा का क्रियावत्त्व या कर्तृत्व सिद्ध होता है, और अमुक-अमुक-कालीन क्रियाओं के सम्बन्ध से यह भी सिद्ध होता है कि- " आत्मा त्रिकालवर्ती है " यह बात अब बतलाई जाती है : - 'अकरिस्सं चऽहं ' इत्यादि । मूलार्थ – मैंने किया था, मै कराता हूँ और करने वाले की मै अनुमोदना करूंगा । यह सब लोक में कर्मसमारम्भ जानने चाहिए । सू. ६ ॥ સુગુરૂ અને સુધર્મ સમજવા તે મિથ્યાદર્શનશલ્ય છે (૧૮). આ અઢાર પાપ સ્થાનક છે. આ અઢાર પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાએથી જીવને કર્માંના ખધ થાય છે. (સૂ. ૫) ઇતિ ક્રિયાવાદિપ્રકરણ, ક્રિયા આત્માનું એક પરિણામ છે, તેનાથી આત્માનું ક્રિયાવત્ત્વ અથવા કતૃત્વ સિદ્ધ થાય છે, અને અમુક-અમુક-કાલીન ક્રિયાએના સંબંધથી એ પણ સિદ્ધ થાય છે }ः-आत्मा त्रिडासवत्ती` छे. ते वात डुवे माववामां आवे छे - 'अकरिस्सं च' इत्याहि. મૂલા મેં કર્યુ”, મે કરાવ્યું અને કરવાવાળાને મેં અનુમેદન આપ્યુ, આ સર્વ લેાકમાં કમ્-સમારભ જાણવા જોઇએ. (સૂ. ૬) Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे - ॥ छाया ॥ अकार्ष चाई, कारयामि चाहं, कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि । एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारंभाः परिज्ञातव्या भवन्ति ॥सू. ६॥ ॥टीका ॥ 'अकार्षे चाहम्' इति । अत्र 'च'-शब्दोपादानेन भूतकालिककारितानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम्, तेन-(१) अहमकार्षम् (२) अहमचीकरम् (३) अहं कुर्वन्तमन्यमन्वमूमुदम्, इति भेदत्रयं भवति । 'कारयामि चाहम् ' इति, अत्र 'च'-शब्देन वर्तमानकालिककृतानुमोदितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम् , । तेन-(१). अहं कारयामि, (२) अहं करोमि, (२) अहमनुमोदयामि, इति भेदत्रयं भवति । टीकार्थ-'अकरिस्स चऽहं' यहाँ जो 'च' का प्रयोग किया है। उस से यह अर्थ समझना चाहिए कि-" मैने अनुमोदन किया था।" इस प्रकार मैंने किया, करवाया और अनुमोदन किया, तीन भेदों का कथन हुआ है। ___ 'कारवेसुं चऽहं ' यहाँ भी 'च' पद से दो क्रियाओं का ग्रहण होता है, अतः मैं कराता हूँ, मैं करता हूँ, और मै अनुमोदन करता हूँ; इन तीन भेदों का कथन समझना चाहिए। " करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि" यहाँ भी 'च' पद से भविष्यकालीन करने और कराने का अर्थ लेना चाहिए, अतः करने वाले का मैं अनुमोदन करूंगा, मै स्वयं करूंगा और मैं कराऊंगा । ये क्रिया के तीन भेद समझ लेने चाहिए। अथ:-'अकरिस्सं चऽहं' महिं २ 'च' ने अयो। यह छे, तथा से અર્થ સમજ જોઈએ કે–કરાવ્યું હતું. આ પ્રમાણે “મેં કર્યું, કરાવ્યું, અને મેં અનુદાન આપ્યું, આ ત્રણ ભેદનું કથન સમજવું જોઈએ. । 'कारवेसुं चऽहं' महिं ५ 'च' ५४थी मे छियायानु अह थाय छे. तेथी में કર્યું, મેં કરાવ્યું, અને મેં અનુમોદન આપ્યુ. આ ત્રણ ભેદનું કથન સમજવું જોઈએ. 'करओ यावि समणुन्ने भविस्सामि' मडिंप 'च' ५४थी भविष्यदीन शश અને કરાવીશ. તે અર્થ તે જોઈએ. એ કારણથી “કરવાવાળાને હું અનુમોદન કરીશ, હું સ્વયં કરીશ અને હું કરાવીશ એ કિયાના ત્રણ ભેદ સમજી લેવા જોઈએ. Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू.६. कर्मसमारम्भः कुर्वतश्चापि समनुज्ञो भविष्यामि, इति । अत्रापि 'च'-शब्दोपादानेन भविष्यकालिककृतकारितक्रियाद्वयस्यापि ग्रहणम् । 'समनुज्ञः' इत्यस्य समनुज्ञाता अनुमोदयितेत्यर्थः । तथा च-(१) अहमन्यस्य कुर्वतोऽनुमोदयिता भविष्यामि, (२) स्वयमहं करिष्यामि, (३) अहं कारयिष्यामि, इति भेदत्रयं क्रियायाः भवति । कुर्वतश्चापीत्यत्र 'अपि'-शब्दोपादानेन तासां नवानां क्रियाणां मनोवाकायभेदेन सप्तविशतिर्भङ्गा भवन्ति । आत्मवाचकमहमिति पदं पुरस्कृत्य 'अकार्षम्' इत्यादिक्रियापदोपादानात "सर्वाः क्रिया आत्मपरिणामरूपाः" इति वोधितम् । एतेन "आत्मा निष्क्रियः" इति सांख्याघभिमतं निराकृतम् । . 'यावि' शब्द में जो 'अपि' पद है, उस से यह समझना चाहिए कि-इन नौ क्रियाओं के मन वचन और कायके भेद से सत्ताईस भेद हो जाते हैं। अर्थात् पूर्वोक्त नौ क्रियाएं मन से की जाती हैं. वचन से की जाती हैं, और काय से भी की जाती है, अतः उनके सत्ताईस भेद हो जाते हैं। आत्मा के वाचक अहम् (मै) पदको प्रधान करके 'अकार्षम्' इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण करने से यह सूचित किया गया है कि ये सब क्रियाएँ आत्मा का ही परिणाम हैं । इस सूचना से आत्माको निष्क्रिय मानने वाले सांख्य आदि मतों का निराकरण हो गया है। 'यावि' शभा २ 'अपि' यह छ तथा से समान से न ક્રિયાઓના મન, વચન અને કાયાના ભેદથી સત્તાવીશ ભંગ થાય છે. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત નવી ક્રિયાઓ મનથી કરી શકાય છે. વચનથી અને કાયાથી પણ કરી શકાય છે. તેથી તેના સત્તાવીશ ભેદ થઈ જાય છે. मात्माना पाय 'अहम् ' ई-पहने प्रधान राभान 'अकार्षम् ' माहि छियाપદના ગ્રહણ કરવાથી એ સૂચન કરવામાં આવ્યું છે કે-એ સર્વ ક્રિયાઓ આત્માનું જ પરિણામ છે. આ સૂચનથી આત્માને નિષ્ક્રિય માનવાવાળા સાંખ્ય આદિના મતનું . निरा४२ थ६ गयु छ. . . Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसूत्रे एकस्य चात्मनस्त्रिकालवर्तितत्तक्रियासम्बन्धेन क्षणिकवादोऽपि निरस्तः। किञ्चआत्मपरिणतिरूपां क्रियां कुर्वन्नात्मा स्वस्य त्रिकालस्थायित्वं मतिज्ञानमात्रेण जानातीति भगवता बोधितम् । तेनात्मनि विषये प्रत्यभिज्ञाऽप्येवं प्रादुर्भभति येन मया मृगतृष्णाम्भसा मृगवद् विविधविषयैराकृष्टेन गर्ने मुग्धमृगवन्मोहगते निपतितेन मुखलिप्सयाऽऽरम्भपरिग्रहरूपसावधक्रियापरायणतया स्थायुः क्षपितम् , स एवाहं संपति वातैगिरिशिखरद्रम इव जन्मजरामरणाधिव्याधिविविधदुःखसंपृक्ततुच्छसुखभोगजर्जरीकृतः कथमस्माद् दुःखजालसंसारान्मुक्तो एक ही आत्माका त्रिकालवर्ती अमुक-अमुक क्रियाओं के साथ सम्बन्ध दिखलानेसे क्षणिकवाद का भी खण्डन किया गया है। भगवान्ने यह भी प्रकट कर दिया है कि-अपनी परिणतिरूप क्रियाएँ करता हुआ आत्मा मतिज्ञान से ही यह जान लेता है कियह (आत्मा) त्रिकालवती है। इससे आत्मा के विषयमें इस प्रकारका प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है ___ "जैसे मृगतृष्णा में फँसकर मूढ मृग कष्ट पाता है उसी प्रकार भाँति-भांति के विषयों से आकृष्ट हो कर मोहरूपी गडहे में गिर कर सुख की लालसा से जिसने आरम्भ-परिग्रह-रूप सावध क्रियामें उद्यत हो कर वृथा आयु गँवाई थी वही में आज जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि वगैरह विविध प्रकार के दुःखों से परिपूर्ण और तुच्छ इन्द्रिय-भोगोंद्वार ऐसा जर्जरित कर दिया गया हूँ, जैसे पर्वत के उपर का पेड એકજ આત્માનું ત્રિકાલવતી અમુક-અમુક ક્રિયાઓની સાથે સંબંધ દેખાડ વાથી ક્ષણિકવાદનું પણ ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. ભગવાને એ પણ પ્રગટ કરી દીધું છે કે પિતાની પરિણતિરૂપ ક્રિયાઓ કરતો આત્મા મતિજ્ઞાનથીજ એ જાણી લે છે કે-તે ત્રિકાલવતી છે. એ કારણથી આત્માના વિષયમાં આ પ્રકારનું પ્રત્યભિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ મૃગતૃષ્ણામાં ફસાઈને મૂઢ મૃગ કષ્ટ પામે છે તે પ્રમાણે જાત-જાતના વિષયેથી આકૃષ્ટ થઈને–ખેંચાઈને મોહરૂપી ખાડામાં પડી જઈને સુખની લાલસાથી જે આરંભ પરિગ્રહરૂપ સાવદ્ય ક્રિયામાં ઉદ્યમી થઈને વૃથા આયુ ગુમાવ્યું હતું. તે હું આજે -०४-भ-१२-भरण-माधि-व्याधि वगैरे विविध प्रश्न माथी परिपूर्ण मने तुम्छ ઈન્દ્રિયો દ્વારા એ જર્જરિત કરવામાં આવ્યો છું કે જેમ-પર્વત ઉપરનું ઝાડ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.१ सू. ६ कर्मसमारम्भः ४०१ भविष्यामीति चिन्तानलेन कोटरस्थवहिना जरदृम इव संतप्तोऽस्मीति भावः । लोके-जिनशासने, सर्वे कर्मसमारंभा: कर्माणि ज्ञानावरणीयादीनि समारभन्ते जनयन्ति ये क्रियाविशेषास्ते कर्मसमारंभाः । एतावन्त एव, नातोऽधिका इत्यर्थः, परिज्ञातव्या भवन्ति-परिज्ञाविषयीकृत्य ज्ञेया हेयाश्च भवन्तीत्यर्थः । परिज्ञा हि द्विविधा-ज्ञपरिज्ञा, प्रत्याख्यानपरिज्ञा च । तत्र ज्ञपरिज्ञया सप्तविंशतिभङ्गरूपाः कर्मसमारंभाः क्रियाविशेषाः विज्ञेयाः। प्रत्याख्यानपरिक्षया च सर्वे कर्मसमारम्भाः क्रियाविशेषाः कर्मबन्धहेतवः प्रत्याख्यातव्या इति भावः ॥ सू० ६॥ आधी से जर्जरित हो जाता है । अब मैं दुःखमय संसार से किस प्रकार छुटकारा पाऊँगा ? इस तरह की चिन्तारूपी अग्नि से मैं ऐसा संतप्त हूँ जैसे कोटरस्थ अग्नि से जीर्ण वृक्ष भीतर ही भीतर भन्म हो जाता है । ___ "लोक में मर्थात् जिनशासन में इतने. ही ज्ञानावरणीय आदि को को उत्पन्न करने वाले कर्मसमारम्भ हैं, इन से न्यून या अधिक नहीं "। यह परिज्ञा विषय करने योग्य है, . अर्थात् परिज्ञा.से ही ये सब ज्ञेय और हेय होते हैं। परिज्ञा दो प्रकारको है-ज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान-परिजा । इन में से सत्ताईस भंग रूप कर्मसमारम्भ (क्रियाविशेष) ज्ञपरिज्ञा से जानने चाहिए, और प्रत्याख्यान-परिज्ञा से कर्म के कारण समस्त कर्मसमारम्भों का त्याग करना चाहिए ॥ सू. ६ ॥ વાવાઝેડાથી જર્જરિત થઈ જાય છે. “હવે હું દુઃખમય સંસારથી છુટકારે કેવી રીતે પામીશ? આ પ્રમાણે ચિત્તારૂપી અગ્નિથી હું એ-સંતપ્ત છું કે જેમ-કોટરસ્થ (ઝાડની બખેલમાં રહેલું) અરિનથી જીણું વૃક્ષ અંદર અંદર જ ભસ્મ થઈ જાય છે. લકમાં અર્થાત્ જિનશાસનમાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ કમોને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આટલાંજ કમસમારંભ છે, તેનાથી ઓછા કે વધારે નથી. આ પરિજ્ઞા વિષય કરવા રોગ્ય છે, અર્થાત્ પરિજ્ઞાથી જ આ બધાં ય અને હેય થાય છે. પરિજ્ઞા બે પ્રકારની छे. (१) श-परिक्षा मन. (२) प्रत्याभ्यान-परिज्ञा, तमांथी सत्तावीश ३५ ४भસમારંભ (કિયા-વિશેષ) જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી જાણવું જોઈએ, અને પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞાથી કર્મોનું કારણ સમસ્ત કર્મસમારંભને ત્યાગ કરવો જોઈએ. (સૂ) ૬) प्रा .-५१ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ - आचारागसूत्रे . ॥ मूलम् ।। अपरिणायकम्मा खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसामो अणुदिसाओ अणुसंचरइ, सव्याओ दिसाआ सबाओ अणुदिसाओ साहेइ ॥ सू० ७॥ . छाया___ अपरिज्ञातकर्मा खलु अयं पुरुषः यः इमा दिशा अनुदिशा वा अनुसंचरति, सर्वा दिशाः सर्वा अनुदिशाः सहति ।। सू० ७॥ टीका'अपरिण्णायकम्मा' इत्यादि । यः इमा दिशा अनुदिशा अनुसंचरतिकर्मपरतन्त्रः संश्चतुर्गतिकसंसारं माप्य दिक्षु विदिक्षु च. परिभ्रमति । तथा-सर्वादिशा अनुदिशाः सहति । इह सर्वशब्देन द्रव्यभावोभयविधदिशो ग्रहणम् । द्रव्यभावदिशः सह-ज्ञानावरणीयादिकर्मभिः साकम् एति-गच्छति प्रामोतीत्य। यत्तच्छब्दयोनित्यसाका तयाऽत्र यच्छन्देन स इति परामृश्यते । सः अयं पुरुषःजीवः खलु-निश्चयेन अपरिज्ञातकर्मा अस्तीति शेषः । न परिज्ञात-परिज्ञाविषयी मूलार्थ-अपरिज्ञातकर्मा यह पुरुष इन दिशाओं और विदिशाओं में परिभ्रमण करता है और सब दिशाओं एवं अनुदिशाओं को प्राप्त होता है ॥ सू. ७ ॥ ..टीकार्थ-कर्म से परतन्त्र जीव चार गतिरूप संसार को प्राप्त होकर दिशाओं में और विदिशाओं में परिभ्रमण करता है । तथा समस्त दिशाओं और अनुदिशाओं को प्राप्त होता है, अर्थात द्रव्य-दिशाओं एवं भाव-दिशाओं (ज्ञानावरण आदि कर्मों) के साथ प्राप्त होता है । वह जीव निश्चयपूर्वक अपरिज्ञातकर्मा है। कर्म की कारणभूत क्रियाओं का स्वरूप जिसने म जाना हो वह अपरिज्ञातकर्मा कहलाता है। अथवा जिसने ज्ञानावरणं आदि आठ कर्मों की कारणभूत क्रियाओं का त्याग न किया हो उसे भी - મૂલાઈ–અપરિજ્ઞાત કર્મા આ પુરૂષ આ દિશામાં અને વિદિશાઓમાં પરિ ભ્રમણ કરે છે, અને સર્વ દિશાઓ એવું અનુદિશાઓને પ્રાપ્ત થાય છે. (૭) ટકાથ-કર્મથી પરતંત્ર જીવ ચાર ગતિરૂપ સંસારને પ્રાપ્ત થઈને દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં પરિભ્રમણ કરે છે, તથા સમસ્ત દિશાઓ અને અનુદિશાઓને પ્રાપ્ત થાય છે. અર્થાત્ દ્રવ્યદિશાઓ અને ભાવદિશાઓની સાથે પ્રાપ્ત થાય છે. તે જીવન નિશ્ચયપૂર્વક અપરિજ્ઞાતકર્મા છેકર્મની કારણભૂત ક્રિયાઓના સ્વરૂપને જે જાણતા નથી તે અપરિજ્ઞાતૈિકેમ કહેવાય છે અથવા જેને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોની કારણભૂત ક્રિયાઓને ત્યાગ કર્યો હોય તેને પણ અપરિક્ષાતકર્મા કહે છે. આશય Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.१ सू. ७ अपरिज्ञातकर्मा-जीवः ..४०३ कृतं कर्मकर्मकारणीभूतक्रियास्वरूपं येन, सोऽपरिज्ञातकर्मा । अज्ञातापरित्यक्त• ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मबन्धकारणभूतक्रियास्वरूप इत्यर्थः। यावदयं जीवः क्रियास्वरूपं न जानाति, नापि यावत् कर्मबन्धनिबन्धनक्रियाः परित्यजति, तावद् द्रव्यभावोभयविधां दिशं परिभ्रमतीति भावः ॥ सू० ७॥ . . उक्तार्थमेव स्पष्टयति 'अणेगरूवाओ.' इत्यादि। ....... ॥ मूलम् ॥. अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विख्वरूवे फासे पडिसंवेएड् ॥ ०८ ॥ छाया- अनेकरूपा योनी: संधयति, विरूपरूपान् स्पर्शान् प्रतिसंवेदयति ।। सू० ८॥ ॥टीका ॥ अपरिज्ञातकर्मा जीवः अनेकरूपा-विविधाः योनी: माणिनामुत्पत्तिस्थानानि, संधयति-प्राप्नोति । अयमात्मा पूर्वभव नाशानन्तरं शरीरान्तरग्रहणाय अपरिज्ञातकर्मा कहते हैं । आशय यह है कि-संसारी जीव जबतक कर्मबन्ध-को कारणभूत क्रियाओं को जान नहीं लेता और त्याग नहीं देता, तबतक वह द्रव्यभावरूप दोनों प्रकार की दिशाओं में परिभ्रमण करता रहता है-। ॥ सू. ७॥ . . . . .' .. इसी अर्थ को और अधिक स्पष्ट करते है:-'अणेगरूवाओ. ' इत्यादि । __ मूलार्थ-(अपरिज्ञातकर्मा जीव) अनेकरूप योनियों को प्राप्त होता है और नाना प्रकार की यातनाओं को भोगता है ॥ ८ ॥ -... -- टीकार्थ-अपरिज्ञातकर्मा जीव विविध प्रकार की योनियों को अर्थात् जीवों के 'उत्पत्तिस्थानों को प्राप्त करता है । 'पूर्वभव का अन्त होवे के अनन्तर जीव नवीन शरीर એ છે કે-સંસારી જીવ જ્યાં સુધી કર્મબંધની કારણભૂત ક્રિયાઓને જાણી લેતે નથી અને ત્યજી દેતું નથી ત્યાં સુધી તે દ્રવ્ય-ભાવરૂપ અને પ્રકારની દિશાઓમાં પરિ. भ्रमण ४२त२ छ. (सू० ७). " .' में अर्थ ने २री अधि: ४२ छ,–“अणेगरूवाओ." त्या મૂલાથ–(અપરિજ્ઞાતકર્મા જીવ) અનેકરૂપ નિઓને પ્રાપ્ત થાય છે અને નાના પ્રકારની યાતનાઓને ભેગવે છે. (૮) * ટીકાર્ય–અપરિજ્ઞાતકર્મા જીવ વિવિધ પ્રકારની નિઓને અર્થ-જીવન ઉત્પત્તિસ્થાનને પ્રાપ્ત કરે છે. પૂર્વભવને અંત થવા અંનતર છવ નવીન શરીર ગ્રહણ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे शरीरान्तरप्राप्तिस्थाने यान् पुद्गलान् गृह्णाति तान् बाह्यपुद्गलान् कार्मणेन सह तप्तायः पिण्डजलग्रहणवत् मिश्रयति यस्मिन् स्थाने, तत् स्थानं योनिः । प्रादुर्भा मात्रं शरीरिणां जन्म, इति योनि - जन्मनोर्भेदः । सा नवविधा | ( १ ) सचित्ता, (२) अचित्ता, (३) सचित्ताचित्ता, (४) शीता, (५) उष्णा, (६) शीतोष्णा, (७) संवृता, (८) विवृता, (९) संवृतविवृता । उक्तश्च - ४०४ " कइविहाणं भंते! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविद्या जोणी पण्णत्ता, तंजदा-सीया जोणी, उसिणा जोणी, सीआसिणा जोणी । तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजा - सचिता जोणी, अचित्ता जोणी, मीसिया जोणी । ग्रहण करने के लिए नवीन शरीर की प्राप्ति के स्थान पर जिन वाह्य करता है, उन्हें जिस जगह पर कार्मगशरीर के साथ तपे लोहे के समान एकमेक करता है, वह स्थान योनि कहलाता है । जीवों का प्रादुर्भाव होना जन्म है | यह योनि और जन्म में अन्तर है । जन्म का आधार योनि- है, अतः योनि और जन्म में आधाराधेयभाव - सम्वन्ध है । योनि के नौ भेद हैं: - (१) सचित्त, (२) अचित्त, (३) संचितांचित्त, (४) शीत, (५) उष्ण, (६) शीतोष्ण, (७) संवृत, (८) विवृत और ( ९ ) संवृत - विवृत । कहा भी है - पुद्गलों को ग्रहण गोले और जलके " “भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! तीन प्रकार की योनि कही गई है। वह इस प्रकार - गीतयोनि, उष्णयोनि और शीतोष्णयोनि । तथा तीन प्रकार की योनि कही है । वह इस प्रकार - सचित्तयोनि, अचित्तयोनी और मिश्रयोनि । કરવા માટે નવીન શરીરની પ્રાપ્તિના સ્થાન પર જે ખાદ્ય પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરે છે. તેને જે જગ્યા પુર કામણુશરીરની સાથે તપેલા લેાઢાના ગાળા અને જલની સમાન એકમેક કરે છે તે સ્થાન ચેાનિ કહેવાય છે. જીવાને પ્રાદુર્ભાવ થવા તે જન્મ છે. ચેાતિ અને જન્મમાં એજ અન્તર છે, જન્મના આધાર ચેતિ છે, તેથી યાનિ અને ४न्भभां आधार-आधेय लाव संबंध है, योनिना नव लेह :- (१) सथित्त (२) सत्ति ( 3 ) सयित्तायित (४) शीत (4) उष्णु (६) शीतोष्णु (७) संवृत (८) विवृत भने (6) संवृत-विवृत या छे “भगवन् । योनि डेंटला अारनी उही छे ? गौतम ! ऋशु प्रहारनी योनि उही छे. ते मा प्रभाो छे—शीतयोनि, उष्णुयोनि, भने शीतोष्णुयोनि तथा त्रयु प्रहारनी योनि કહી છે. તે આ પ્રમાણે છે—સચિન્તયેાનિ, અચિત્તયાનિ અને મિશ્રર્યેાનિ. ફી પણ ત્રણુ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शधिष्ठिता, मानरुणा । यत्र कता विकृता आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ८. जीवयोनिः ४०५ तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजहा-संवुडा जोणी, वियडा जोणी, संवुडवियडा जोणी"। (प्रज्ञा. योनिपद ९) । . जोवप्रदेशेरधिष्ठिता योनिः सचित्ता, जीवप्रदेशैरनवधिष्ठिता योनिरचित्ता। कचिदशे जीवमदेशैरधिष्ठिता, कचिदनधिष्ठिता सा सचित्ताचित्ता । यत्र शीतस्पर्शः सा शीता । यत्रोष्णस्पर्शः सा योनिरुष्णा । यत्र कचिदंशे शीतस्पर्शः, कचिदुष्णस्पर्शः सा शीतोष्णा । अप्रकटिता संवृता । प्रकटिता विकृता। यत्र कचिदंशे प्रकटिता, कचिदमकटिताः सा संवृतविवृता योनिः। कस्य जीवस्य का योनिर्भवती ?-त्युच्यते-देवनारकाणामचित्ता योनिः । देवानां प्रच्छदपटदेवदूष्यान्तरालं योनिः, तच जीवप्रदेशवर्जितम् । नाराकाणां तु फिर भी तीन तरह की योनि कही है । वह इस प्रकार-संवृतयोनि विवृतयोनि और संवृतविवृतयोनि" । (प्रज्ञा. योनिपद ९) जीवप्रदेशों से अधिष्ठित योनि सचित्त कहलाती है और जो जीवप्रदेशों से अधिष्ठित न हो वह अचित्त कहलाती है । जो योनि कहीं जीवप्रदेशों से अधिष्ठित हो और कहीं अधिष्ठित न हो वह मिश्र योनि है । जहाँ शीत स्पर्श हो वह शीतयोनि, जहाँ उष्ण स्पर्श हो वह उपायोनि और जिस में कहीं शीत और कहीं उष्ण स्पर्श हो वह शीतोष्णयोनि है । अप्रकट योनि संवृत कहलाती है। प्रकट को विवृत कहते है और जो कहीं अप्रकट और कहीं प्रकट हो वह संवृतविवृतयोनि है। किस जीव की कौन-सी योनि होती है । वह बताते है-देव और नारकी जीवों की अचित्त योनि होती है । देवों की योनि प्रच्छदपट और देवदूष्य के बीच में होती है, પ્રકારની નિ કહી છે તે આ પ્રમાણે છે –સંવૃતનિ, વિવૃતનિ અને સંવૃતविवृतथानि" (प्रज्ञा. योनिप४ ८). જીવપ્રદેશથી અધિષ્ઠિત નિ સચિત કહેવાય છે. અને જે જીવપ્રદેશથી અધિષિત ન હોય તે અચિત્ત કહેવાય છે. જે નિ કેઈ સ્થળે જીવપ્રદેશોથી અધિષ્ઠિત હોય અને કઈ સ્થળે અધિષિત ન હોય તે મિનિ કહેવાય છે જ્યાં શીત સ્પર્શ હોય તે શીતાનિ, જ્યાં ઉણસ્પર્શ હોય તે ઉણનિ, અને જેમાં કયાંક શીત અને કયાંક ઉoણ સ્પર્શ હોય તે શીતoણ નિ છે. અપ્રગટ યોનિ સંવૃત કહેવાય છે, અને પ્રકટ ચેનિને વિવૃત કહે છે, અને જે કયાંક પ્રગટ અને કયાંક અપ્રગટ હેય તે સંવત-વિદ્યુત નિ છે. કયા જીવની કઈ ચેન છે? તે બતાવે છે–દેવનારકી જીવોની અચિત્તનિ હેય છે. દેવોની નિ પ્રચ્છદપટ અને દેવદૂષ્યના વચમાં હોય છે અને તે જીવ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ----- आचागणसूत्रे वज्रमयवातायनकल्पाः कुम्भयो योन्यः;- ता - अपि जीवनदेशरहिताः । ये गर्भजास्तियश्चो मनुष्यास्तेषां मिश्रासचित्ताचित्तरूपा - योनिः । स्थावरपञ्चकस्य विकलेन्द्रियत्रयस्य अगर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्चां संमूर्छिममनुष्याणां च त्रिविधा ९ सचित्ता अचित्ता, सचित्ताचित्ता च । ... . गभजमनुष्यतिरश्चां देवानां च शीतोष्णा योनिः। तेजस्कायस्य उष्णा । स्थावरचतुष्टयस्य विकलेन्द्रियत्रयस्य अगर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्वां संमूर्छिममनुष्याणां नारकाणां च त्रिविधा शीता, उष्णा, शीतोष्णा च योनिः । , 'नारकाणां देवानामेकेन्द्रियाणां च संहता योनिः। गर्भजानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च संवृतविकृता योनिः । - विकलेन्द्रियत्रयस्य और वह जीवप्रदेशों से रहित है। नारकों की योनि वज्रमय वातायन के समान कुंभिया है । वे भी जीवप्रदेशों से रहित है । गर्भज तिर्यंचों और मनुष्यों की मिश्र (सचित्ताचित ) योनि होती है । पांच स्थवरों की, तीन विकलेन्द्रियों की, अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तियचों की तथा संमूछिम मनुष्यों की योनि तीनों प्रकार की (सचित्त, अचित्त और मिश्र) होती है। .. ___ गर्भज-मनुष्यो, तिर्यचों और देवों की शीतोष्ण योनि होती है। तेजस्काय की उष्ण योनि है । चार स्थावरों क्री, तीन विकलेन्द्रियों की, आगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यचों की संमूर्छिम मनुष्यों की और नारकों की तीनों प्रकार की (शीत उष्ण और मिश्र) योनि होती है। नारकों देवों और - एकेन्द्रियों की संघृत योनि है। गर्भज पञ्चेन्द्रिय तियचों और मनुष्यों की संवृतविवृत योनि होती है । तीन विकलेन्द्रियों की, अगर्भज पञ्चेन्द्रिय પ્રદેશોથી રહિત છે. નારકીઓની નિ વજીમય વાતાયન (બારી)ની સમાન કુલીઓ छ. ते पy प्रशाथी २हित छे. ગજ તિર્યા અને મનુષ્યની મિશ્ર (સચિત્તાચિત્ત) નિ હોય છે. પાચ સ્થાવરેની, ત્રણ વિકસેંદ્રિયેની, અગર્ભજ પચેદ્રિય તિર્યચેની તથા મૂછિંમ મનુષ્યની નિ ત્રણેય પ્રકારની (સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર) હોય છે. . ગર્ભજ મનુષ્યો, તિર્યા અને દેવેની શીતeણ નિ હોય છે. તેજસ્કાયની ઉણનિ છે. ચાર સ્થાવની, ત્રણ વિકલેન્દ્રિયની, અગર્ભજ પંચેન્દ્રિય તિર્યચેની સંમૂછિમ મનુષ્યની અને નારકેની ત્રણેય પ્રકારની (શીત, ઉષણ અને મિશ્ર) નિ હોય છે. .-ना२४ी, हेवो, भने भेन्द्रियानी संवृत यानि छ. म पयन्द्रिय तिय या અને મનુષ્યની સંવૃત–વિવૃત નિ હોય છે. ત્રણ વિકેન્દ્રિયની અગજ પંચેન્દ્રિય Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ८. जीवयोनिः अगर्भजपञ्चेन्द्रियतिरश्चां संमूर्छिममनुष्याणां च विवृता योनिः । यद्वा-चतुरशीतिलक्षणभेदेनानेकरूपा योनयः सन्ति, तथा हि-पथिव्यप्तेजोवायूनां प्रत्येकं सप्त सप्त लक्षाणि २८, प्रत्येकवनस्पतीनां दश लक्षाणि ३८, साधारणवनस्पतीनां चतुर्दश लक्षाणि, ५२, विकलेन्द्रिययस्य प्रत्येकं द्वे द्वे लक्षे, इति तेषां षडू लक्षाणि ५८, देव-नारक-पञ्चेन्द्रियतिरश्चां प्रत्येकं चत्वारि लक्षाणोति तेषां द्वादश लक्षाणि ७०, मनुष्याणां चतुर्दश लक्षाणि ८४ । एवं सर्वसंकलने चतुरशीतिलक्षाणि जीवानां योनयो भवन्ति । अनेकविधयोनिप्राप्ती सत्यामपरिज्ञातकर्मा जीवः कर्मफलं ययाऽनुभवति तत् पदर्शयति-'विरूपरूपान् प्रतिसंवेदयति' इति, विरूपं दुःखतिर्यचों की और संमूर्छिम मनुष्यों की विवृतयोनि होती है । अथवा-योनियों के चौरासी लाख मेद भी हैं। वे इस प्रकार है:-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, और वायुकाय, की सात-सात लाख योनिया हैं२८, प्रत्येक वनस्पति की दश लाख ३८, साधारण वनस्पति की चौद लाख ५२, तीन विकलेन्द्रि की प्रत्येक की दो-दो लाख अर्थात् विकलेन्द्रिय की कुल छह लाख५८, देवों नारकों और पञ्चेन्द्रिय तियचों में प्रत्येक की चार-चार लाख, कुल बारह लाख७०, मनुष्यों की चौदह लाख ८४, इस प्रकार कुल चौरासी लाख जीवयोनिया हैं। अनेक प्रकार की योनिया प्राप्त होने पर अपरिज्ञातकर्मा जीव किस प्रकार कर्मफल भोगता है, सो बतलाते है-दुःखजनक होने के कारण इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों તિર્યચેની અને સંમૂછિમ મનુષ્યની વિદ્યુત નિ હોય છે. અથવા–નિઓના ચોરાસી લાખ ભેદ પણ છે, તે આ પ્રમાણે છે–પૃથ્વીકાય, અપૂકાય, તેજરકાય, અને વાયુકાયની. સાત-સાત લાખ ચનિએ છે (૨૮), પ્રત્યેક વનસ્પતિની દસ લાખ (૩૮), સાધારણ વનસ્પતિની ચૌદલા (૫૨), ત્રણ વિકલેન્દ્રિયની પ્રત્યેકની બેબે લાખ, અર્થાત્ વિકલેન્દ્રિયની કુલ છ લાખ (૫૮), દે નારકીઓ, અને પંચેન્દ્રિય તિર્થમાં પ્રત્યેકની ચાર–ચાર લાખ, તમામ મળી બાર લાખ (७०), मनुष्यानी यौe an (८४), 24 प्रमाणे त योरासी दाम क्यानि छे. - અનેક પ્રકારની યોનિઓ પ્રાપ્ત થવા છતાંય અપરિજ્ઞાતકર્મા જીવ કેવી રીતે - કમફિલ ભગવે છે? તે બતાવે છે–દુઃખ ઉત્પન્ન કરનાર હોવાના કારણે ઈન્દિના અનિષ્ટ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ आचारागसूत्रे हेतुत्वादशोभनं रूपं स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः अनिष्टाः, तान् , स्पर्शान= इन्द्रियाणां विषयैः सह सम्बन्धाः स्पर्शाः, तान् प्रतिसंवेदयति-पुनः पुनरनुभवति । अनिष्टविषयसंयोगैः पुनः पुनदुःखमेव माप्नोतीत्यर्थः । यद्वा-विरूपं विभिन्नरूपं विभिन्नात्मक रूप स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः नानाविधस्वरूपाः, तान् स्पर्शान् दुःखसंपातान् प्रतिसंवेदयति । लक्षणया कर्यकारणयोरभेदाद्वा स्पर्शजन्या अपि दुःखसंपाताः स्पर्शा इति व्यपदिश्यन्ते । अत्र स्पर्शानित्युपलक्षण, तेन मानसानामपीष्टवियोगादिजन्यदुःखसंपातानां संग्रहः । यद्वा-स्पर्शान् स्पर्शनेन्द्रियवेद्यान् दुःखसंपातान् प्रतिसंवेदयतीत्यर्थः । को भोगता है । इस प्रकार अनिष्ट विषयों का संयोग होने के कारण वह जीव पुनः--पुनः दुःख ही अनुभव करता है। अथवा-विरूप अर्थात् भिन्न-भिन्न स्वरूपवाले-नानाप्रकार के दुःखजनक स्पों का संवेदन करता है । लक्षणावृत्ति से, अथवा कार्य-कारण के अभेद की विवक्षा से स्पर्शजन्य दुःख भी स्पर्श ही कहलाते हैं । यहाँ स्पर्श -उपलक्षण मात्र है, उस से इष्टवियोग आदि मानसिक दुःखों का भी ग्रहण समझना चाहिए । अथवा-स्पर्श का अर्थ है-स्पर्शनेन्द्रियविषयभूत दुःख । जीव उन्हें भोगता है। तात्पर्य यह है कि -- जीव अपरिज्ञातपापकर्मा होकर निगोद आदि नाना દુઃખકારક વિષયને ભોગવે છે, એ પ્રમાણે અનિષ્ટ વિષને સંગ હોવાના કારણે તે જીવ ફરી-ફરી દુઃખનેજ અનુભવ કરે છે. અથવા–વિરૂપ અર્થાત્ ભિન્ન-ભિન્ન સ્વરૂપવાળા નાના પ્રકારના દુઃખજનક, સ્પર્શોનું સંવેદન કરે છે. લક્ષણાવૃત્તિથી, અથવા કાર્યકારણના અભેદની વિવક્ષાથી સ્પર્શજન્ય દુઃખ પણ સ્પર્શજ કહેવાય છે. અહિં સ્પર્શ ઉપલક્ષણ માત્ર છે, તેમાં ઈષ્ટવિયેગ આદિ માનસિક દુઓનું ગ્રહણ પણ સમજી લેવું જોઈએ. અથવા સ્પર્શને અર્થ છે–સ્પર્શનેન્દ્રિયવિષયભૂત દુઃખ, જીવ તેને ભેગવે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જીવ અપરિજ્ઞાત–પાપકર્મા થઈને નરક-નિગદ આદિ અનેકનિઓમાં Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य. १ उ. १ सु. ९ परिज्ञा ४०९ अपरिज्ञातकर्मतया नरक निगोदाद्यनेकविधयोनीः संप्राप्य सर्वे जीवाः विचित्रकर्मोंदयात् स्वकर्मफलं नानाविधं दुःखमेवानुभवन्तीति भावः ॥ ८ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद - ' तत्थे ' - इत्यादि । 11 मूलम् तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया ॥ सु० ९ ॥ छाया तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ।। सू० ९ ॥ टीका हे जम्बूः ! अपरिज्ञातकर्मा जीवो विभावपरिणामं कुर्वन् नानाविधयोनिषु पुनः पुनर्दुःखमेव लभते । तत्र - अपरिज्ञातकर्मणो जीवस्य कृतकारितानुमोदितादिभेदेनोक्तसप्तविंशतिभङ्गरूपसावद्यक्रियानुष्ठानान्नरकनिगोदादिनानाविध्यानिषु पुनः पुनर्दुःखानुभवविषये भगवता श्रीमहावीरस्वामिना परिज्ञा योनियों में उत्पन्न होकर विचित्र कर्मों के उदय से अपने-अपने कर्मों का नानाविध दुःखरूप फल अनुभव करते हैं ॥ सू. ८ ॥ सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं - ' तत्थ खलु. ' इत्यादि । मूलार्थ-भगवान् ने परिज्ञा का उपदेश दिया है || सू. ९ ॥ By टीकार्थ- हे जम्बू ! अपरिज्ञातपापकर्मा जीव विभाव परिणाम धारण करता हुआ नाना प्रकार की योनियों में वारंवार दुःख पाता है । अपरिज्ञातपापकर्मा जीव के कृत कारित अनुमोदना आदि के भेद से सत्ताईस भंगरूप स्रावद्यक्रिया के अनुष्ठान से नरक निगोद आदि नाना प्रकार की योनियों में पुनः पुनः दुःखानुभव करने के विषय में ઉત્પન્ન થઈ ને વિચિત્રકર્માંના ઉદયથી પાત–પેાતાના કર્મોના અનેક પ્રકારના દુઃખરૂપ इसने अनुभव उरे छे. (सू० ८) " सुधभ स्वामी भ्यू स्वाभीने हे छे-' तत्थ खलु त्याहि ભગવાને પરિજ્ઞાના ઉપદેશ આપ્યા છે. (૯) મૂલા ટીકા—હૈ જમ્મૂ ! અપરિજ્ઞાતપાપકર્મો જીવ વિભાવ પરિણામ ધારણુ કરતે થકી નાના પ્રકારની ચેનિઆમાં વારવાર દુઃખ પામે છે. અપરિજ્ઞાત-પાપકર્માં જીવના કૃત કારિત અને અનુમેહના આદિના ભેદથી સત્તાવીશ ભંગરૂપ સાવધ ક્રિયાના અનુષ્ઠાનથી નરક-નિગેાદ આદિ નાના પ્રકારના ચેાનિએમાં પુનઃ પુનઃદુઃખ અનુભવ કરવાના વિષયમાં प्र. मा-५२. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० आचाराङ्गसूत्रे खलु प्रवेदिता । तत्तदुःखकारणकर्मवन्धसमुच्छेदार्थं जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रबोधितमिति भावः परिज्ञा सम्यगवयोधः । परिज्ञा द्विविधा ज्ञ-प्रत्याख्यान-भेदात् । 'सावधव्यापारेण कर्मवन्धो भवतीति ज्ञानं ज्ञ-परिज्ञा । कर्मवन्धकारणस्य सावधव्यापारस्य परित्यागः प्रत्याख्यान-परिज्ञा । अत्रेदमवगन्तव्यम्-अतीतकाले मनसा वाचा कायेन च मया सावद्यक्रिया कृता, कारिता, अनुमोदिता च, तथा वर्तमानकाले सावधक्रियां करोमि, कारयामि, कुर्वन्तमप्यन्यमनुमोदयामि । एवं यदि भविष्यत्कालेऽपि सावधक्रियां करिष्यामि, कारयिष्यामि करिष्यमाणमन्यमनुमोदयिष्यामि । इत्थमनेकविधसावद्यव्यापारं कुर्वन् जीवः संसारे परिभ्रमति, नरकनिगोदाधनेकविधदुस्सहयातनां भगवान् महावीर स्वामीने परिज्ञा की प्ररूपणा की है। दुःखों के कारणभूत कर्मों के बन्ध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञा का शरण अवश्य ग्रहण करना चाहिए; ऐसा भगवान् ने कहा है । परिज्ञा का अर्थ है-सम्यग्ज्ञान । परिज्ञा दो प्रकार की हैज्ञ-परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा । सावध व्यापार से कर्मबन्ध होता है। ऐसा जानना ज्ञ--परिज्ञा है । और कर्म बन्ध के कारण सावध व्यापारो का परित्याग कर देना प्रत्याख्यान परिज्ञा है । यहाँ यह समझना चाहिए कि-भूतकाल में मैंने मन, वचन, काय से सावध क्रिया की, कराई और उस की अनुमोदना की, तथा वर्तमान काल में सावध क्रिया करता हूँ, कराता हूँ और दूसरे करने वाले का अनुमोदन करता हूँ, । इसी प्रकार भविष्यकाल में भी सावध क्रिया करूंगा, कराऊंगा, और दूसरे का अनुमोदन करूंगा। इस प्रकार भांति-भांति का सावध व्यापार करता हुआ जीव संसार में परिभ्रमण करता है और नरक निगोद आदि की ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ પરિજ્ઞાની પ્રપણ કરી છે. દુઃખના કારણભૂત કર્મોના બંધને નાશ કરવા માટે જીવને પરિજ્ઞાનું શરણ અવશ્ય ગ્રહણ કરવું જોઈએ, એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. પરિજ્ઞાને અર્થ છે સમ્યજ્ઞાન. પરિજ્ઞા બે પ્રકારની છે , (१) श-परिज्ञा मन (२) प्रत्याज्यान-परिज्ञा 'सावध व्यापारथी भय थाय छे.' આ પ્રકારે સમજવું તે શ–પરિણા છે, અને કર્મબંધના કારણથી સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગ કરી દે તે પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞા છે. અહિં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે – ભૂતકાળમાં મેં મન, વચન, કાયાથી સાવદ્ય ક્રિયા કરી છે, કરાવી છે. અને તેને અનમેદન આપ્યું છે તથા વર્તમાન કાલમાં સાવદ્ય ક્રિયા કરું છું, કરાવું છું, અને બીજ કરવાવાળાને અનુમોદન આપું છું. આ પ્રમાણે ભવિષ્યકાલમાં પણ સાવદ્ય ક્રિયા કરીશ. કરાવીશ અને બીજાને અનુમોદન આપીશ. આ પ્રમાણે અનેક તરેહના જૂદા-જૂદા Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामाण-टीका अध्य.१ उ.१ सू. १० कर्मसमारम्भहेतुः ४११ चानुभवति । एवं ज्ञपरिज्ञया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया सावधक्रिया परित्याज्येति भगवता वोधितमिति । इदं च ज्ञानं सहसम्मत्या (अवधि-मनापर्यय-केवलज्ञानैर्जातिस्मृत्या वा ) मतिज्ञानेन वा भवति, तस्मान्निश्चयव्यवहारस्वरूपसंयममार्गे प्रवृत्तिरेवजीवस्य हितकारिणी, अनयैव हि परमपदं मोक्षो लभ्यते ॥ मू० ९ ॥ ननु तर्हि दुःखफलेषु तेषु क्रियाविशेषेषु किमर्थं प्रवर्तते जीवः ? इत्याशङ्कायामाह-'इमस्स चेव.' इत्यादि। मूलम्-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघायहेउं ।। सू० १०॥ . छाया-अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय-जातिमरणमोचनाय दुःखपतिघातहेतुम् ।। सू० १०॥ अनेक प्रकार की दुस्सह यातनाएं भोगता है, इस प्रकार ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से सावद्य क्रिया त्यागने योग्य है। इस प्रकार भगवान्ने उपदेश दिया है। यह बोध-अवधि, मनःपर्यय, केवलज्ञान और जातिस्मरण से होता है, या, मतिज्ञान से होता है । इस लिये निश्चयव्यवहाररूप संयममार्ग में प्रवृत्ति करना ही जीव के लिए हितकर है और इसी से परमपद-मोक्ष प्राप्त होता है । सू० ९ ॥ अगर सावध क्रियाएँ दुःख का कारण है तो उन में जीव प्रवृत्ति क्यों करता है ? इस आशंका का समाधान करते है-'इमस्स चेव.' इत्यादि । मूलार्थ-इस जीवन के लिए, परिवन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दुःख दूर करने के लिए, (जीव पापक्रिया में प्रवृत्त होता है ) ॥ सू. १० ॥ સાવદ્ય વ્યાપાર કરતે જીવ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે, અને નરક, નિગદ આદિની અનેક પ્રકારની કઠિન યાતનાઓ ભેગવે છે આ પ્રમાણે જ્ઞ–પરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાન–પરિજ્ઞાથી સાવદ્ય ક્રિયા ત્યાગવા ગ્ય છે, આ પ્રમાણે ભગવાને ઉપદેશ આપે છે. આ બોધ-અવધિ, મન:પર્યય, કેવલજ્ઞાન અથવા જાતિસ્મરણથી થાય છે, અથવા તે મતિજ્ઞાનથી થાય છે. એ માટે નિશ્ચય-વ્યવહારરૂપ સંયમમાર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરવી એજ જીવને માટે હિતકર છે, અને એનાથી પરમપદ મોક્ષ થાય છે (સૂ) ) જો કે સાવદ્ય ક્રિયાઓ દુઃખનું કારણ છે, તે તેમાં જીવ પ્રવૃત્તિ શા માટે કરે छ ? २. शानु समाधान ४२ छ-'इमस्स चेव.' त्याह. મૂલાથ–આ જીવનને માટે, પરિવંદન, માનન, અને પૂજન માટે, જન્મ મરણથી भुत थवा भाटे, हुप २ ४२व। भाट (O4 पहियामा प्रवृत्त थाय छ). (१०) Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ आचारागसूत्रे टीका-'अस्य' इति अस्य प्रत्यक्षमनुभूयमानस्य वारितरङ्गवच्चञ्चलतरस्य, सन्ध्यारागवत्त्वरितभङ्गुरस्य जीवितस्य जीवनस्य चिरसुखार्थमपरिज्ञातकर्मा जीवः कर्मवन्धहेतुभूतेषु क्रियाविशेषेषु प्रवर्तते । यथा-जीवनार्थ लावकतित्तिरादिपक्षिणाम् , अजमेषमृगमृगराजादिपशूनां वधरूपघोरकर्मसमाचरणम् । तथा-परिवन्दनमानन-पूजनाय, तत्र-परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थ, यथा-स्वख्यातिमाप्त्यर्थं सापराधनिरपराध-प्राणिनां हिंसनम् । माननम् अभ्युत्थानासनदानादिरूपः सत्कारः, स्वाज्ञास्वीकारो वा, तदर्थम् , यथा-माननार्थ परेषां हिंसनादिकरणम् । पूजनम् रत्नवस्त्रादिपुरस्कारः, प्रतिमादीनां पूजापतिष्ठादि च, तदर्थं, प्राण्युपमर्दनरूपहिंसादिसावद्य टीकार्थ-प्रत्यक्ष अनुभव किये जाने वाले, जलको तरङ्ग के समान अतिशय चंचल, सन्ध्या की लालिमा के समान भड्गुर-जीवन के चिरकालीन सुख के लिए अपरिज्ञातकर्मा जीव कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। जैसे-जीवित रहने के लिए; लावा, तीतर आदि पक्षियों का और बकरा, मेढा, हिरन एवं सिंह आदि पशुओं का वधरूप घोर पापकर्म का आचरण करना। ___ तथा परिवन्दन, मानन और पूजन. के लिए जीव । पापकर्म करता है। 'परिवन्दन' का अर्थ है प्रशंसा । प्रशंसा के लिए सापराध और निरपराध प्राणियों का धात किया जाता है । उठकर खडा होना, आसन देना आदि सत्कार, अथवा अपनी आज्ञा स्वीकार कराना 'मानन' कहलाता है, इस के लिए भी दूसरों की हिंसा की जाती है । रत्नों और वस्त्रो आदि का पुरस्कार 'पूजन' कहलाता है, और प्रतिमा आदि की पूजा ટીકાથ–પ્રત્યક્ષ અનુભવ કરવામાં આવેલા જલના તરંગેની સમાને અતિશય ચંચલ, સંધ્યાની લાલાશ (રાતાપણું)ની સમાન ભંગુર જીવનના લાંબા સમયના સુખ માટે અપરિજ્ઞાતકર્મો જીવ કર્મબંધની કારણભૂત ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. જેવી, રીતે જીવિત રહેવા માટે લાવા તેતર, આદિ પક્ષીઓના અને બકરા, ઘેટા, હરણ એ પ્રમાણે સિંહ આદિ પશુઓના વધરૂપ ઘેર પાપકર્મનું આચરણ કરવું. તથા પરિવન્દન, માનન અને પૂજન માટે પણ જીવ પાપ કર્મ કરે છે. “પરિવંદનને અર્થ છેઃ–પ્રશંસા, પ્રશંસા માટે અપરાધવાળા અને અપરાધ વિનાના પ્રાણીઓનો ઘાત કરવામાં આવે છે ઉઠીને ઉભા થઈ જવું. આસન આપવું આદિ સત્કાર અથવા પિતાની આજ્ઞા સ્વીકાર કરાવવી તે “માનન” કહેવાય છે, તે માટે પણ બીજાની હિંસા કરવામાં આવે છે. રત્ન અને વસ્ત્રો આદિને પુરસ્કાર તે પૂજન કહેવાય છે, અને પ્રતિમા Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. १० कर्मसमारम्भहेतुः ४१३ क्रियां करोति । जातिमरणमोचनाय जातिर्जन्म, तदर्थ भवान्तरसुखप्राप्त्यर्थ झम्पापातादिकं समाचरति । मरणार्थम्=मरणं येषां पित्रादीनां संजातं, तदर्थ पिण्डदानादिक्रियासु प्रवर्त्तते । यद्वा मरणं-वधस्तदर्थ, वधं निमित्तीकृत्य वैरनिर्यापनार्थम् । यद्वा-मरणार्थ-मृत्युनिवृत्त्यर्थ - मिथ्यात्वबुद्धया देवीपूजादौ बलिदानादिकरणम् । मोचनम् आत्मनः कर्मवन्धापगमस्तदर्थ विपरीतमत्या पश्चाग्नितापादों प्राण्युपमर्दनकर्मणि प्रवर्तते । तथा दुःखप्रतिघातहेतुं दुःखानां प्रतिघातो-विध्वंसस्तस्य हेतुं क्रियाविशेषं 'हिंसादिकं करोति, यथा-व्याधि प्रतिष्ठा वगैरह भो 'पूजन' है, उसके लिए भी मनुष्य प्राणियों का उपमर्दनरूप हिंसा वगैरह सावध क्रियाएँ करता है। जन्म और मरण से छुटकारा पाने के लिए सावध क्रियाएँ की जाती है । 'जाति'-जन्म के लिए जैसे आगामी भव में सुख प्राप्त करने के उद्देश से जीव झंपापात-(अग्नि तथा पाणीमें पडकरे अथवा ऊपरसे गिरकर मरना) आदि का भाचरण करता है । ' मरण'-पिता आदि का मरण होने पर उनके लिए पिंडदान आदि क्रियाओं में प्रवृत्त होता है । अथवा-मृत्यु को निमित्त बनाकर वैर का प्रतिशोध (बदला) लेने के लिए पाप करता है । अथवा मृत्यु टालने की मिथ्यावुद्धि से देवी वगैरह के लिए बलिदान आदि करता है। तथा 'मोचन' के लिए अर्थात् अपना कर्मबन्ध हटाने के लिए विपरीतमति हो कर पंचाग्निताप आदिरूप प्राणि हिसा में प्रवृत्त होता है । तथा 'दुःखप्रतिघातहेतुं' दुःखों को निवारण करने के लिए हिंसा आदि पाप करता है। जैसे रोग मिटाने की बुद्धि से मांस (મૂર્તિ) આદિની પૂજા-પ્રતિષ્ઠા વગેરે પણ “પૂજન છે. તેના માટે પણ જીવ, પ્રાણિઓનું ઉપર્ધનરૂપ હિંસા વગેરે સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરે છે. જન્મ અને મરણથી છુટવા માટે પણ સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરવામાં આવે છે. જાતિ-જન્મ માટે, જેમ આગામી ભવમાં સુખ પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશથી જીવ ઝપાપાત (અગ્નિ કે પાણીમાં પડીને મરવું. ઉંચેથી પડતું મૂકવું) આદિનું આચરણ કરે છે. “મરણ પિતા આદિના મરણ પ્રસંગે તેના માટે પિંડદાન આદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, અથવા મૃત્યુ નિવારણ માટે મિથ્યાબુદ્ધિથી દેવી વગેરેને બલિદાન આદિ આપવાં. તથા “મોચન માટે અર્થાત્ પિતાના કર્મબંધને દૂર કરવા માટે વિપરીત મતિથી પંચાગ્નિતાપ આદિરૂપ હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. तथा 'दुःखप्रतिघातहेतुं'-मार्नु निवारण ४२वा भाट डिसामाहिया५ ४२ छमशेश Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ 'आचाराङ्गसूत्रे विध्वंसनबुद्ध्या मांसं भक्षयति, मदिरादिकं पिवति, वनस्पतिमूलत्वक्पत्र निर्यासादिशवपाकसहस्रपाकादितैलार्थं वह्निवनस्पत्याद्यारम्भं करोति । अत्र कारितानुमोदितभूतभविष्यकालादिभेदेन कर्मसमारम्भरूपाः क्रियाविशेषा अन्येऽप्यवगन्तव्याः । एवमपरिज्ञातकर्मतया संसारिणो जीवाः कर्मसमारम्भरूपैः क्रियाविशेषैः संसारे सर्वदिक्षु परिभ्रमन्तो विविधयोनिषु दुःखमेव प्राप्नुवन्तीति विज्ञाय भव्यः कर्मसमारम्भरूपा सकलसावद्यक्क्रियाविशेषास्त्याज्या इति भावः ॥ सू. १० ॥ कर्मसमारम्भरूपान् क्रियाविशेषान् अनुस्मारयितुं प्रागुक्तमपि पुनः कथयति - 'एयावंति ' इत्यदि । खाता है, मदिरा आदि का पान करता है, वनस्पति की नड, छाल, पत्ता, रस वगैरह निकालता है, शतपाक एव सहस्रपाक आदि तैलों के लिए अग्नि और वनस्पति आदि का आरम्भ करता है | यहा कराना और अनुमोदन करना तथा भूत, भविष्य काल आदि के भेद से कर्मसमारम्भरूप अन्य क्रियाऍ भी समझ लेनी चाहिए । इस प्रकार अपरिज्ञातपापकर्मा होने के कारण संसारी जीव कर्मसमारम्भरूप क्रियाओं द्वारा संसार में समस्त दिशाओं में भ्रमण करते हुए नाना योनियों में दुःख का ही अनुभव करते है । ऐसा समझकर भव्य जीवों को पापकर्मजनक सावद्य क्रियाओं का त्याग करना चाहिए | सू० १० ॥ कर्मसमारम्भरूप क्रियाविशेषों का स्मरण कराने के लिए पूर्वोक्त अर्थ को फिर कहते -" एयावंति " इत्यादि । મટાડવાની બુદ્ધિથી માંસ ખાય છે, મદિરા વગેરેનું પાન કરે છે, વનસ્પતિનાં મૂળ, છાલ, પાંદડાં રસ વગેરે કાઢે છે. શતપાક, સહસ્રપાક આદિ તેલે માટે અગ્નિ અને વનસ્પતિ આદિના આરંભ કરે છે. અહિં કરાવવું અને અનુમેદન આપવું, તથા ભૂત ભવિષ્ય કાલ આદિ ના ભેદથી કસમારંભરૂપ અન્ય ક્રિયાએ પણ સમજી લેવી જોઈએ. આ પ્રમાણે અપરિજ્ઞાતપાપકર્મો હોવાના કારણે, સંસારી જીવ કર્માંસમાર ભરૂપ ક્રિયાઓદ્વારા સંસારમાં, સમસ્ત દિશાઓમાં ભ્રમણ કરતા અનેક ચેાનિઓમાં દુઃખ. નેાજ અનુભવ કરે છે. આ પ્રમાણે સમજીને ભવ્ય જીવાએ પાપક જનક સાવદ્ય ક્રિયાઓના ત્યાગ કરવા જોઈએ. (સૂ૦ ૧૦) કર્મ સમારંભરૂપ ક્રિયાવિશેષનુ સ્મરણ કરાવવા માટે પૂર્વોક્ત અને ફરી ४ छे:- 'एयावंति ' त्याहि. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. ११ कर्मसमारम्भहेतुः ४१५ मूलम् - एयावंति सव्यावंति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियन्या भवंति ॥ सू. ११॥ छाया-एतावन्तः सर्वे लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवंति ॥ ११॥ टीका-'एतावन्तः' इति-लोके-जिनशासने कर्मसमारम्भाः कर्मवन्धहेतवः क्रियाविशेषाः सर्वे एतावन्तः । कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधानां कर्मसमारम्भाणां प्रत्येकमतीतवर्तमानानागतत्रयभेदेन नवविधानां पुनर्मनोवाक्कायभेदेन पर अविध्ये सति सप्तविंशतिर्भङ्गा भवन्तीति रीत्या पूर्वकथितसप्तविंशतिभाव-त. न तु तेभ्योऽधिका इत्यर्थः । एते च कर्मसमारम्भाः परिज्ञातव्या भवन्ति, एतत्परिज्ञानार्थ यत्नो विधेय इत्यर्थः । ज्ञाते सति पुनः पुनरस्यानुस्मरणं करणीयं, न स्वत्र प्रमादः कार्य इति भावः ॥ सू. ११॥ कर्मसमारम्भपरिज्ञानस्य फलमाह-'जस्सेते. ' इत्यादि । मूलार्थ-जिनशासन में इतने कर्मसमारम्भ जानने योग्य हैं ।। सू. ११ ॥ टीकार्थ-जिनशासन में कर्मबन्ध के कारण इतने ही है । कृत, कारित, और अनुमोदित के भेद से तीन प्रकार के कर्मसमारम्भोका भतीत वर्तमान और भविष्य काल के साथ गुणाकार करने पर नौ भेद होते हैं । ये नौ भेद मन, वचन, काय के भेदसे सत्ताईस भङ्गरूप हो जाते है । इस प्रकार सत्ताईस तरह के कर्मसमारम्भ जानने चाहिए, इनसे न कम है और न अधिक है। उन्हें जानने के लिए यत्न करना चाहिए । जान लेने के पश्चात् उनका बार-बार स्मरण करना चाहिए । इस विषय में प्रमाद नहीं करना चाहिए ॥ ११ ॥ ___ कर्मसमारम्भ के ज्ञानका फल बतलाते है-' जस्सेते' इत्यादि। મૂલાથ–જિનશાસનમ આટલા કર્મસમારંભ જાણવા યોગ્ય છે (૧૧). ट -निशासनमा भम धना ४२ माखir छे. ४२. ४२१युमने मनु. મદન આપવું આ ભેદથી ત્રણ પ્રકારના કર્મસમારંભેને ભૂતકાળ, વર્તમાન અને ભવિષ્ય કાલની સાથે ગુણાકાર કરવાથી વ ભેદ થાય છે. આ નવ ભેદ મન, વચન, કાયાના ભેદથી સત્તાવીસ લંગરૂપ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે સત્તાવીસ તરેહના કર્મસમારંભેને જાણવા જોઈએ. એનાથી ઓછા નથી અને અધિક પણ નથી. તેને જાણવા માટે યત્ન કરવો જોઈએ. જણ્યા પછી તેનું વારંવાર સ્મરણ કરવું જોઈએ. આ વિષયમાં પ્રમાદ નહિ કરવો જોઈએ. (૧૧) भसमा मना ज्ञान ५१ मतावे छ:-'जस्सेते' त्याहि. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ आचारागसूत्रे __ मूलम् -जस्सेते लोगसि कम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे-त्तिवेमि ॥ सू० १२ ।। छाया-यस्य एते लोके कर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ।। मृ० १२ ॥ ___टीका-'यस्य' इति-लोके यस्य भव्यजीवस्य एतेभागुक्ताः कर्मसमारम्भाः= ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मणः समुत्पादकाः, सावधक्रियाविशेषा इत्यर्थः परिज्ञाता भवन्ति= एते हिंसादयः सप्तविंशतिभङ्गयन्तः सावधक्रियाविशेपा आत्मनः कर्मवन्धे हेतवो भवन्ति' इत्येवं जपरिज्ञया जाता भवन्ति स परिज्ञातकर्मा-ज्ञपरिशया कर्मवन्धनिवन्धनत्वेन विज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्तसकलसावधक्रियाविशेषो निश्चयेन मुनिः सर्वसावधक्रियोपरतिप्रतिज्ञावान् भवतीत्यर्थः । इति-आत्मतत्वस्वरूपनिरूपणं, कर्मवन्धहेतुभूतसकलसावधक्रियास्वरूपप्रदर्शनं, सावधक्रियानिवृत्तिपुरस्सर मुनेविहरणं चेति यत् तीर्थङ्करम्य भगवतो महावीरस्य मूलार्थ-लोक में जो कर्मसमारम्भ बान लेता है, वह मुनि निश्चय से परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मैं कहता हूँ ॥ १२ ॥ टीकार्थ-लोक में जिस भव्य को पूर्वोक्त कर्मसमारम्भ अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के उत्पादक सावद्यव्यापार ज्ञात हो जाते है, अर्थात् जो पूर्वोक्त सत्ताईस भंगों वाले हिंसादिक क्रियाविशेषों को अपने कर्मबन्धो का कारण समझ लेता है, वह परिज्ञात-कर्मा है । जो ज्ञ-परिना से कर्मबन्ध का कारण समझ कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से सम्पूर्ण सावध क्रियाओंका लाग करता है वह निश्रय से परिज्ञातकर्मा मुनि है । 'त्ति वेमि' इति इस प्रकार का आत्मा के स्वरूप का निरूपण, कर्मवन्ध के कारणभूत समस्त सावध व्यापारों के स्वरूप का प्रदर्शन, और सावध क्रिया की निवृत्तिपूर्वक મૂલાથ–લોકમાં જે કર્મસમારંભને જાણી લે છે, તે મુનિ નિશ્ચયથી પરિજ્ઞાતभी छे. मे प्रभारी हुं हुंछु (सू० १२) ટીકાઈ—કમાં જે ભવ્ય જીવને પૂર્વોક્ત કમસમારંભ અર્થાત્ જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ કર્મોને ઉત્પાદક સાવદ્ય વ્યાપાર જાણવામાં આવી જાય છે. અર્થાત્ જે પૂર્વે કહેલા સતાવીસ અંગવાળા હિંસાદિક્રિયાવિશેને પિતાના કર્મબંધનું કારણ સમજી લે છે તે પરિજ્ઞાતકમાં છે. જે ન–પરિજ્ઞાથી કમબંધનું કારણ સમજીને પ્રત્યાખ્યાન-પરિ જ્ઞાથી સપૂર્ણ સાવદ્ય ક્રિયાઓનો ત્યાગ કરે છે. તે નિશ્ચયથી પરિજ્ઞાતકર્મા મુનિ છે. त्ति बेमि'-इति=मा प्रमाणे मात्माना स्व३५र्नु नि३५, भगना ४१२ भूत સમસ્ત સાવદ્ય વ્યાપારના સ્વરૂપનું પ્રદર્શન, અને સાવદ્ય ક્રિયાની નિવૃત્તિપૂર્વક મુનિનું Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ सू. १२ उपसंहारः ४१७ सकाशान्मया साक्षात् श्रुतं तद् ब्रवीमि कथयामि न तु स्वबुद्धिपरिकल्पितम् । यतः स्वबुद्धया कथने श्रुतज्ञानस्याविनयो भवति, किञ्च-छद्मस्थानां दृष्टयोप्यपूर्णा भवन्ति तस्माद् यथाभगवत्प्रतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थः । अत्र सङ्ग्रहगाथा "सुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहि । छउमत्थाणं दिट्ठी, पुण्णा णत्थि-त्ति सूइयं इइणा ॥ १॥" इति । सावधक्रियायाः षङ्जीवनिकायं प्रति शस्त्रवदुपघातकतया सावधक्रियास्वरूपबोधकस्य प्रथमाध्ययनस्य शस्त्रपरिज्ञया व्यपदेशः । ॥ सू. १२ ॥ प्रथमाध्ययनस्य प्रथमोदेशः सम्पूर्णः ॥१-१॥ मुनिका विचरना जो तीर्थंकर भगवान् महावीर के सन्निकट मैंने साक्षात् सुना है वही 'ब्रवीमि' मैं कहता हूँ, अपनी बुद्धिसे कल्पित नहीं कहता । अपनी बुद्धिसे-तीर्थ करकी वाणी की अपेक्षा न रखते हुए कथन करने से श्रुतज्ञान का अविनय होता है। दूसरी बात यह है कि छद्मस्थ की दृष्टि भी अपूर्ण होती है, अतः भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्त्व ही मैं तुम से कहता हूँ। यहाँ यह सड्ग्रहगाथा है: "सुख के अभिलाषी भव्यों को श्रुतज्ञान के अविनय का त्याग करना चाहिए छमस्थों की दृष्टि पूर्ण नहीं होती, ऐसा यहाँ ' इति ' शब्द से सूचित किया गया है " ॥ १ ॥ सावद्य क्रिया षड्जीवनिकाय के लिए शस्त्र के समान घातक है, अतः सावध क्रियाके स्वरूपके बोधक इस प्रथम अध्ययन का शस्त्रपरिज्ञा नाम हुआ है । सू. १२ ॥ प्रथम अध्ययनका प्रथम उद्देश सम्पूर्ण ॥ १-१॥ વિચરવું. જે તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસે મેં સાક્ષાત્ સાંભળ્યું છે, તેજ 'ब्रवीमि'=९ ४९ छु, चातानी मुद्धिथी पित ४हेत. नथी. चातानी मुद्धिथीતીર્થકરની વાણની અપેક્ષા નહી રાખીને કહીએ તે શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય થાય છે. બીજી વાત એ છે કેદ–છઘસ્થની દૃષ્ટિ પણ અપૂર્ણ હોય છે, તે કારણથી ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદન કરાએલું તત્વજ હું તમને કહું છું. અહિં આ સંગ્રહગાથા છે – સુખના અભિલાષી ભએ શ્રુતજ્ઞાનના અવિનયને ત્યાગ કર જોઈએ. छमस्थानी ष्टि पूर्ण हाय नाही. से प्रमाणे 'इति' २५४थी सूयना ४२वामा मापी छ."(७) સાવદ્ય કિયા ષડૂજીવનિકાય માટે શસ્ત્ર (હથીઆર) સમાન ઘાતક છે. એ કારણથી સાવદ્ય ક્રિયાના સ્વરૂપને બંધ કરાવનારું આ પ્રથમ-અધ્યયન છે, તેનું શસ્ત્રપરિજ્ઞાનામ ५७यु छे. નામક પ્રથમ અધ્યયનને પ્રથમ ઉદેશ संपू (१-१) प्र.मा.-५३ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ अथ प्रथमाध्ययनस्य द्वितीयोद्देशः । प्रथमोद्देशे सामान्यरूपेणात्मनः स्वरूपं निरूपितम् तस्यैव विशेषरूपेण वोधनाय द्वितीयोद्देशः प्रारभ्यते, तस्येदमादिमूत्रम् -' अट्टे' इत्यादि । तथा - इह 'पूर्वभवस्मृतिरूपं विशिष्टं ज्ञानं न भवति केषांञ्चि' दिति प्रथमोद्देशे निगदितम् अथ तत् कथं न भवतीति जिज्ञासायामुच्यते- 'अट्टे ' इत्यादि । ܕ आ चाराङ्गसूत्रे प्रथम अध्ययनका द्वितीय उद्देश || पहले उद्देश में सामान्यरूपसे आत्मा के स्वरूप का निरूपण किया गया है । अब विशेषरूप से आत्मा का स्वरूप समझाने के उद्देश्य से दूसरा उद्देश आरम्भ किया जाता है, उसका यह आदिसूत्र है- ' अट्टे ' इत्यादि । तथा - पहले उद्देशमें बतलाया गया था कि किन्हीं - किन्हीं जीवो को पूर्व भव का स्मरणरूप विशिष्ट ज्ञान नहीं होता । वह ज्ञान क्यों नहीं होता ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं-'अट्टे ' इत्यादि । By પહેલા અધ્યયનના श्रीले उद्देश. - પહેલા ઉદ્દેશમાં સામાન્યરૂપથી આત્માના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે વિશેષરૂપથી આત્માનું સ્વરૂપ સમજાવવાના ઉદ્દેશથી ખીજા ઉદ્દેશન આરંભ अश्वामां आवे छे, तेनुं या माहिसूत्र छे-'अट्टे' इत्यादि. તથા—પહેલા ઉદ્દેશમાં ખતાવવામાં આવ્યું છે કે–કાઈ–કાઈ જીવાને પૂર્વભવના સ્મરણુરૂપ વિશિષ્ટ-ઉત્તમ અસાધારણ જ્ઞાન થતું નથી. તે જ્ઞાન કેમ થતું નથી ? मेवी लज्ञासा थवाथी ४डे छे:-'अट्टे' इत्याहि, , Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.२ सू. १ विशिष्टज्ञानाभावकारणम् ४१९ तथा-अयमात्मा परिज्ञातकर्मतया सकलसावधक्रियानिवृत्तः सन् मुनिभवतीत्युपदिष्टम् , अथ यः पुनरपरिज्ञातकर्मा स खलु कीदृशो भवतीत्याकाडक्षायामाह-'अट्टे' इत्यादि। ____ अट्टे लोए परिजुण्णे दुस्संबोहे अविजाणए, अस्सि लोए पव्वहिए तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा अस्सिं परितावेति ।।सू. १॥ छाया आतः लोकः परिधूनः ( परिजीणः) दुःसंवोधः अविज्ञानकः अस्मिन् लोके प्रव्यथिते तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुरा अस्मिन् परितापयन्ति ॥ मू. १॥ तथा यह कहा जा चुका है कि आत्मा कर्मों का स्वरूप समझ कर, और समस्त सावद्य व्यापारों से विरत हो कर मुनि हो जाता है, मगर जिसने कर्मों का स्वरूप नहीं समझा है, उस आत्मा की कैसी स्थिति होती है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते है'अट्टे' इत्यादि। मृलार्थ-( कर्मबन्ध का स्वरूप न समझने वाला ) आर्त लोक परिजीर्ण है-असमर्थ है, बोध पाने मे अशक्त है, अज्ञान है, इस लोक में व्यथित है, पृथक्-पृथक् जीवों को देखो । वे आतुर-अज्ञानी-होकर जीवोंको परिताप पहुंचाते है ॥१॥ - તથા–એ પ્રમાણે કહી ચૂકયા છીએ કે આત્મા કર્મોના સ્વરૂપને સમજીને અને સમસ્ત સાવદ્ય વ્યાપારથી વિરત (દર) થઈને મુનિ થઈ જાય છે, પણ જેઓ કર્મોના સ્વરૂપને સમજ્યા નથી તે આત્માની સ્થિતિ કેવી થાય છે? એવી જીજ્ઞાસા થવાથી ४९ छ:-'अट्टे' त्या. મૂલાથ–(કર્મબંધના સ્વરૂપને નહી સમજવાવાળા) આdલેક પરિજીણું છે. અસમર્થ છે. બોધ પામવામાં અશકત છે. અજ્ઞાન છે. આ લેકમાં દુઃખી છે. જૂદા-જૂદા અને જુઓ તે આતુર–અજ્ઞાની થઈને જેને પરિતાય પહોંચાડે છે. (૧) Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे टीका लोकः पृथिव्यादिषड्जीवनिकायः खलु ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मवन्धहेतुभूतसावधक्रियाविशेषस्वरूपानववोधेन आतः विषयसुखतृष्णाव्याकुलो भवति । अत एव परिघुनः शारीरमानसादिदुःखानलसंतप्तः । यद्वा-परिजीर्णः क्षायोपशमिकभावाभावेन मोक्षमार्गप्रवृत्तावक्षमः, अत एव-दुःसंवोधा ब्रह्मदत्तवचरणकरणशिक्षा ग्रहीतुमसमर्थः, अत एव अविज्ञानका सम्यग्ज्ञानरहितो भवति, अत एव पूर्वभवस्मृतिरूपमपि विशिष्टं ज्ञानं न भवतीति भावः । 'पश्य' इति पदेन शिष्येति संवोधनपदस्याध्याहारः-हे शिष्य ! प्रव्यथिते-पूर्वोपार्जितकर्मोदयेन क्षुधा टीकार्थ-लोक अर्थात् पृथिवीकाय आदि छह प्रकार के जीव, ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्मों के बन्धके कारणभूत सावद्य व्यापारो का स्वरूप न समझकर आर्त होते हैं-विषयसुख की तृष्णा से व्याकुल होते है । अतएव वे शारीरिक और मानसिक दुःखों की आग से संतप्त है। अथवा क्षायोपशमिक भावों के अभाव के कारण मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकते । इसी कारण वे ब्रह्मदत्त की तरह चरण और कारण की शिक्षा लेने में भी असमर्थ है। ऐसे जीव अविज्ञानक अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित होते है, इसी कारण उन्हें पूर्व भव की स्मृतिरूप विशिष्ट (जातिस्मरण ) ज्ञान भी नहीं होता। 'पश्य ' (देखो) इस पद के द्वारा शिष्य के संबोधन का अध्याहार किया गया है । हे शिष्य ! पूर्वोपार्जित कर्मों के उदय से भूख, प्यास, त्रास, इष्टवियोग, ટીકાWલોક અર્થાત્ પૃથ્વીકાય આદિ છ પ્રકારના જીવસમૂહ જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધના કારણે સાવદ્ય વ્યાપારના સ્વરૂપને નહિ સમજીને આત થાય છે. વિષય સુખની તૃણાથી વ્યાકુલ થાય છે. તે કારણથી તે શારીરિક અને માનસિક દુઓની આગથી સંતસ-ખૂબતપેલા છે. અથવા ક્ષાપશમિક ભાવના અભાવના કારણે મેક્ષમાર્ગમાં પ્રવૃતિ કરી શકતા નથી. એ કારણથી તે બ્રહ્રદત્તની પેઠે ચરણ અને કરણની શિક્ષા લેવામાં પણ અસમર્થ છે, એવા જીવ વિજ્ઞાન અર્થાત્ સમ્યજ્ઞાનથી રહિત હોય છે. આ કારણથી તેને પૂર્વભવની સ્મૃતિરૂપ વિશિષ્ટ (तिस्भस्य) शान. ५ यतु नथी. 'पश्य' (हमा-gat) मा ५४थी शिष्या समाधानतुं मध्याहा२ ४२वाभी આવ્યું છે, હે શિષ્ય પૂર્વોપાર્જિત કર્મોના ઉદયથી ભૂખ, તરસ, ત્રાસ, ઈષ્ટવિગ, Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. १ विशिष्टाज्ञानाभावकारणम् ४२१ पिपासा-त्रास-प्रियवियोगा-ऽऽधि-व्याधि-परिपीडिते, अस्मिन् लोके तत्र-तत्र सर्व प्राणिषु पृथक्-प्रत्येकं पश्य । आतुराः विषयसुखतृष्णाव्याकुला अज्ञानिनः अस्मिन् लोके परितापयन्ति-पृथिव्यादिजीवान् परिपीडयन्ति, इति पश्येत्यर्थः । यद्वा-लोकः-षड्जीवनिकायः, आत: परिपीडितः अस्तीति शेषः । कुतः कारणाद् आतः ? इत्यत आह-' परिजुण्णे' इति । यतः परिजीर्णः मोक्ष मार्गप्रवृत्तावक्षमः । कथं परिजीर्णः ? इत्यत आह-'दुस्संवोहे' इति, यतो दुःसंबोधः ब्रह्मदत्तवचरणकरणशिक्षा ग्रहीतुमसमर्थः । दुःसंवोधः कुतोऽस्ती ?त्यत आह-यतः-अविज्ञानकः-विज्ञानरहितः, पूर्वभवार्जितघोरतरहिंसादिदुरितकर्म मानसिक पीडा, शारीरिक पीडा आदि से पीडित इस लोक में जहाँ पृथक्-पृथक् प्राणियों को देखो । वे विषयसुख के लिए व्याकुल एव ज्ञानहीन हो कर संसार में संताप भोग रहे है । वे पृथिवीकाय आदि जीवों को पीडा पहुंचाते है ( यह देखो)। __ अथवा-षड्जीवनिकायरूप यह लोक आर्त है-पीडा भुगत रहा है। यह किस कारण से आर्त है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वह परिजीर्ग अर्थात् मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करने में असमर्थ है । यह परिजीण क्यों है ? इस का समाधान यह है किवह दुःसंबोध है अर्थात् ब्रह्मदत्त की माति चरण-करण की शिक्षा ग्रहण करने में अशक्त है । वह दुःसंबोध क्यों है ? इस का कारण यह है कि वह ज्ञानहीन है अर्थात् पूर्वभव में उपार्जन किये हुए घोरतर हिंसा आदि पापकर्मोके वश हो कर एवं अत्यन्त માનસિક પીડા. શારીરિક પીડા, આદિથી પીડિત આ લેકમાં જ્યાં-ત્યાં જુદા-જુદા પ્રાણીઓને જુઓ, તે વિષયસુખ માટે વ્યાકુલ એવં જ્ઞાનહીન થઈને સંસારમાં સંતાપ ભોગવી રહ્યા છે. તે પૃથિવીકાય આદિ અને પીડા પહોંચાડે છે. તે જુઓ. અથવા ષડૂજીવનિકાયરૂપ આ લોક આર્ત છે–પીડા ભોગવી રહ્યા છે. તે શું કારણથી આ છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે તે પરિજીણું અર્થાત્ મોક્ષ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ કરવાને અસમર્થ છે. તે પરિજીણું શા માટે છે? તેનું સમાધાન એ છે કે તે દસ બેધ છે, અર્થાત્ ત્રણની પ્રમાણે ચરણ-કરણની શિક્ષા ગ્રહણ કરવામાં અશક્ત છે. તે દુઃસંબધ શા માટે છે? તેનું કારણ એ છે કે – તે જ્ઞાનહીન છે. અર્થાત્ પૂર્વ ભવમાં ઉપાર્જન કરેલા ઘોરતર હિંસા આદિ પાપકર્મોને વશ થઈને. એમ-એ પ્રમાણે Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ आचाराङ्गसूत्रे वशतः प्रगाढ मिथ्यात्वमोहनीयोदयात् प्रगाढमोहाक्रान्त इत्यर्थः । एवं स्वकर्मवशतः परिपीडितमपि नितान्तदयनीयमपि रागद्वेपमोहान्धाः परितापयन्तीत्याह-अस्मिन् लोके' इत्यादि । अस्य व्याख्या पूर्ववत् वोध्या । 'पश्य' इति पदेन भागवता मां संवोध्य यथोपदिष्टं तथा कथयामीति जम्बूस्वामिनं श्रीसुधर्मा स्वामी प्रतिबोधयति । " प्रव्यथिते ' इति विशेषणपदं च स्वस्वकर्मणैव नानाविधवेदनासमन्वितानामपि पृथिव्यादिषड्जीवनिकायानां परिपीडने विषयसुखतृष्णाक्रान्ताना गाढे मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मोहयुक्त है । इस प्रकार अपने कर्मों से पीडित और अत्यन्त दयनीय पृथ्वीकाय आदि नीवों को राग-द्वेष और मोह से अन्धे पुरुष पीडा पहुंचाते हैं । ' अस्मिन् लोके ' - ( इस लोक में ) इत्यादि की व्याख्या पहले के समान समझ लेना चाहिए. ' पश्य' (देखो ) इस पद से श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते है कि - मुझे संबोधन करके भगवान् ने जैसा उपदेश दिया है वैसा ही मै कहता हूँ । 'प्रव्यथिते ' पद से यह सूचित किया गया है कि- बेचारे षट्काय के जीव अपने-अपने कर्मों के कारण नाना प्रकार की वेदनाएँ भोग ही रहे है, इस पर भी विषय - सुख के लोलुप लोग उन्हें और सताते है । उन्हें दुःखी देख कर भी इनके અત્યન્ત ગાઢા મિથ્યાત્વમેાહનીયના ઉદયથી માહયુક્ત છે. એ પ્રકારે પેાતાના કર્મોથી પીડિત અને અત્યન્ત દયાપાત્ર પૃથ્વીકાય આદિ જીવાને રાગ-દ્વેષ અને મેહથી અંધ थयेस यु३ष थीडा पडोयाडे छे ' अस्मिन् लोके' (या बोमां ) इत्याहिनी व्याय्या પ્રથમ પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈ એ. 'पश्य' (लुगो) मा पहथी श्री सुधर्मा स्वामी ४भ्यूस्वामीने उडे छे :મને સખાધન કરીને ભગવાને જેવા ઉપદેશ આપ્યા છે તેવાજ હું કહું છું. 'प्रव्यथिते ' यहथी मे सूचित वामां आवे छे :- मियारा षडायना लव પેાત–પાતાના કર્મોના કારણે નાના પ્રકારની વેદનાએ ભેગવીજ રહ્યા છે. તે ઉપરાંત પશુ વિષય-સુખના લાલુપ માણસેા. તેને વધારે સતાવે છે. તેને દુઃખી જોઈ ને પણ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. २ सु. २ पृथ्वीकायसमारम्भः ४२३ मातुराणां हृदयं मनागपि न द्रवतिः प्रत्युत मृगान् क्षुधितव्याघ्र इव ते पृथिव्यादिप्राणिगणं प्रणिघ्नन्ति इति संसूचयति ॥ . १ ॥ तत्र षड्जीवनिकायरूपे लोके प्राथम्यात् पृथिवीकायस्याधिकारमाह-' संति पाणा ' इत्यादि । मूलम् संति पाणा पुढो सिया लज्जमाणा पुढो पास । अणगारामो- त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूक्रूवेहिं सत्येहि पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ॥ सु. २ ॥ छाया सन्ति प्राणाः पृथक् श्रिताः लज्जमानाः पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारम्भमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति ॥ २ ॥ मन में दया नहीं आती, प्रत्युत भूखा वाघ जैसे मृगों को मारता है उसी प्रकार विषयलोलुप लोग उन जीवों की हिंसा करते हैं ॥ सू. १ ॥ षड्जीवनिकायरूप लोक में पृथ्वीकाय पहला है, अतः पृथ्वीकाय का अधिकार कहते है : - ' संति पाणा ' इत्यादि । मूळार्थ- पृथ्वी में अलग-अलग प्राणी हैं । पृथ्वीकाय के आरंभ की निवृत्ति करने वालों (मुनियों) को पृथक् समझो । 'हम अनगार हैं' इस प्रकार कहनेवाले द्रव्यलिंगी नाना प्रकार के पृथ्वीशस्त्रों से पृथ्वीकर्म का समारम्भ करके पृथ्वी शस्त्र का समारम्भ करते हुए अनेक प्रकार के अन्य प्राणियों की भी हिंसा करते हैं ॥ सृ.२ ॥ તેના મનમાં યા આવતી નથી, પરન્તુ ભૂખ્યા વાઘ જેમ મૃગેાને મારે છે, તે પ્રમાણે વિષય-લાલુપ લેાક તે જીવાની હિંસા કરે છે. (૧) ષવનિકાયરૂપ લેાકમાં પૃથ્વીકાય પ્રથમ છે, તે કારણથી પૃથ્વીકાયના अधिकार आहे छे:- ' संति पाणा' त्याहि. આરંભની નિવૃત્તિ अनगार - साधु भुनि छीमे.' मा નાના—પ્રકારના શસ્ત્રાથી પૃથ્વી , થકા અનેક પ્રકારના અન્ય મૂલા—પૃથ્વીમાં અલગ-અલગ પ્રાણી છે. પૃથ્વીકાયના उरवावाजा (सुनियो) ने भूहा लगो. परंतु 'अभे પ્રકારનું કહેવાવાળા દ્રવ્યલિંગી (વેષ ધારણ કરનારા) કના સમારંભ કરીને પૃથ્વીશસ્ત્રને આરંભ કરતા માણીએની પણ હિંસા કરે છે. (૨) Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ आचाराङ्गसूत्रे टीका 1 प्राणाः = प्राणाः सन्ति येषामित्यर्थऽचत्ययः प्राणिन इत्यर्थः । पृथक = भिन्नभिन्नतया श्रिताः = स्वस्वशरीराधिष्ठिताः सन्ति । यद्वा - श्रिताः पृथिव्याश्रिताः = अगुला संख्यातभागप्रमाणस्वशरीरावगाहिनः पृथिव्यामवस्थिताः पृथिवीकायिकाः, प्राणाः = जीवाः, पृथक् = पृथग्भावेन सन्ति इति पश्य । इदमुक्तं भवति - पृथिव्या एकदेवतारूपत्वं मन्यमाना भ्रान्ताः वस्तुतस्तु प्रत्येकशरीररूपाणामसंख्यातपृथिवीकायिकजीवानां समुदायः पृथिवी । एवं च पृथिवी सचित्ताऽनेकजीवाधिष्ठिता चेति । अथ द्वारमदर्शनेन वस्तुस्वरूपं सम्यग् निर्णीयते तस्माद् द्वारणि टीकार्थ - प्राण का अर्थ है प्राणी । प्राणी पृथक्-पृथक् आश्रित है अर्थात् अलग-अलग प्राणी अपने- अपने शरीर में रहते है । अथवा ' श्रित' का अर्थ है- पृथ्वी में आश्रित । अंगुल के असंख्यातवे भाग अवगाहना वाले जीव पृथ्वी - आश्रित हैं, ऐसे पृथ्वीकाय के जीव पृथक्-पृथक् हैं । यह देखो । तात्पर्य यह है कि पृथ्वी को एक ही देवता मानने वाले लोग भ्रम में है । वास्तव में पृथ्वी प्रत्येक शरीर वाले असंख्यात पृथ्वीकायिक जीवों का पिंड है । इसी प्रकार पृथ्वी सचित्त है और अनेक जीवों से अधिष्ठित है । द्वारों के प्रदर्शन से वस्तु का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है, अतः यहाँ द्वार ટીકા—પ્રાણના અથ પ્રાણી છે. પ્રાણી પૃથક્ પૃથક્ આશ્રિત છે, અર્થાત્ अलग-अलग आणी पोत- पोताना शरीरमां रहे छे. अथवा 'श्रित 'नो अर्थ छे. પૃથ્વીમાં આશ્રિત · આંગલના અસંખ્યાતમાં ભાગની અવગાહનાવાળા એ જીવ પૃથ્વી આશ્રિત છે. એવા પૃથ્વીકાયના જીવ જૂદા જૂદા तेलुग તાત્પર્ય એ છે કેઃ—પૃથ્વીને એકજ દેવતા માનવાવાળા લેાક ભ્રમમાં છે વાસ્ત વિક રીતે તેા પૃથ્વી પ્રત્યેક શરીરવાળા અસંખ્યાત પૃથ્વીકાયિક જીવાને પિંડ છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વી સચિત્ત છે, અને અનેક જીવાથી અધિષ્ઠિત છે. દ્વારાના પ્રદશ`નથી વસ્તુનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ થઈ જાય છે; એટલે અહિં દ્વાર ખતા Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४२५ प्रदश्यन्ते-(१) लक्षणं, (२) प्ररूपणा, (३) परिमाणं, (४) वधः, (५) शस्त्रम् , (६) उपभोगः, (७) वेदना, (८) निवृत्तिश्चेत्यष्टौ । उक्तञ्च "लक्रवण १ प्ररूवणा २ खलु, परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्थं ५ च । उवभोग ६ वेयणावि ७ य, निव्बत्ती ८ अट्ठ दाराई ॥१॥" (१) लक्षणद्वारम्ननु पृथिवी सचेतनाऽस्तीत्यत्र किं प्रमाणम् ? उच्यते-अनुमानमेव तावत्पथमं गृहाण । पृथिरी सचेतना तदधिष्ठितशरीरोपलब्धेः, गवाश्वादिवत् । बतलाये जाते हैं-(१) लक्षण, (२) प्ररूपणां, (३) परिमाण, (४) वध, (५) शास्त्र, (६) उपभोग, (७) वेदना, और (८) निवृत्ति । ये आठ द्वार है । कहा भी है "लक्रवण १ परूवणा २ खलु, परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्थं च ५। उपभोग ६ वेयणावि ७ य, निश्चित्ती ८ अट्ट दाराई ॥ १॥” इति । लक्षण, प्ररूपणा, परिणाम, वध, शास्त्र, उपभोग, वेदना और निवृत्ति, ये आठ द्वार कहे गये है । ॥ १॥ शंका-पृथ्वी सजीव है इस विषयमें क्या प्रमाण है ? समाधान—पहले अनुमान प्रमाण ही लीजिए-पृथ्वी सचेतन है, क्यों कि उसमें चेतना से अधिष्ठित शरीर की उपलब्धि होती है, गाय और अश्व के समान । वामां आवे छ :-(१) सक्षY, (२) ५३५, (3) परिभाए, (४) qध, (५) शस्त्र, (१) Guan, (७) वेहन मन (८) निवृत्ति, -! 18 द्वा२ छ. ४ह्यु ५ : ___“ लक्खण १ परूवणा २ खलु, परिमाणं ३ वह ४ तहेव सत्यं च ५ । उवभोग ६ वेयणावि ७ य, निवित्ती ८ अट्ट दाराई ॥ १ ॥” इति । ___“ सक्ष, प्र३५, परिमार, १५, शख, प वना मने निवृत्ति. २0 208 दा२ छ.” (१) (१) सक्षद्वारશંકા–પૃથ્વી સજીવ છે, એ વિષયમાં શું પ્રમાણ છે? સમાધાન –પ્રથમ અનુમાન પ્રમાણને લઈને–પૃથ્વી સચેતન છે. કારણ કે તેમાં ચેતનાથી અધિષ્ઠિત શરીરની ઉપલબ્ધિ થાય છે. ગાય અને અશ્વિની સમાન. म. आ. ५४ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२६ आचारागसूत्रे किञ्च-जीवस्य यानि लक्षणानि तानि पृथिवीकायस्य सन्ति, केवलमत्रस्त्यानर्द्धिनामदर्शनावरणकर्मोदयादुपयोगशक्तिनिदर्शनरूपा नास्ति व्यक्ता इत्यव्यक्तरूपेणोपयोगो वर्तते । तथौदारिक-तन्मिश्र-कार्मणशरीरात्मकः काययोगो वृद्धयष्टिवत् तस्यालम्बनाय वर्त्तते । तथा मानसिकचिन्ताविशेषवत्सूक्ष्मा आत्मपरिणामविशेषरूपा अध्यवसायास्तत्र सन्ति । तथा साकारोपयोगान्तर्गतमतिश्रुतरूपमज्ञानद्वयं च तत्रास्ति । तथा स्पर्शनेन्द्रियमात्रस्य सद्भावादचक्षुर्दर्शनं च । तथा सेवार्तसंहननं, चन्द्रममूरसंस्थान वास्ति । तथा-मिथ्यात्वादिसद्भावादष्टविधकर्मवन्धोऽपि । कृण्णनील दूसरी बात यह है कि जीव के जो लक्षण हैं वे सब पृथ्वी में पाये जाते हैं । हां, पृथ्वीकाय में स्त्यानबिनामक दर्शनावरण कर्म के उदय से ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगशक्ति प्रकटरूप में नहीं है । पृथ्वी में अव्यक्तरूप से उपयोग रहता है। तथा औदारिक औदारिकमिश्र और कार्मण शरीररूप काययोग वृद्धपुरुष को लकडीके समान उस के आलम्बन के लिए विद्यमान है । पृथ्वी में आत्मा के परिणाम मानसिकचिन्तारूप अध्यवसाय भी मौजूद है। पृथ्वी में साकार-उपयोग के अन्तर्गत मति और श्रत-अज्ञान भी पाये जाते हैं । अकेली स्पर्शनेन्द्रिय होने से अचक्षुदर्शन भी है। और सेवार्त संहनन, एवं चन्द्रमसूर संस्थान भी है। मिथ्यात्व आदि कारण विद्यमान होने से आठ प्रकारका कर्मबन्ध होता है । कृष्ण, नील, कापोत और तैजस ये चार लेझ्याएँ भी पृथ्वीकाय में हैं। બીજી વાત આ છે કે-જીવના જે લક્ષણ છે તે સર્વ પૃથ્વીમાં જોવામાં આવે છે. હા. પૃથ્વીકાયમાં સ્થાનધિનામક દર્શનાવરણીય કર્મના ઉદયથી જ્ઞાન-દર્શનારૂપ ઉપગશક્તિ પ્રકટ રૂપમાં નથી. પૃથ્વીમાં અવ્યક્ત રૂપમાં ઉપગ રહે છે. તથા-દારિક ઔદારિકમિશ્ર અને કામણ શરીરરૂપ કાયયોગ વૃદ્ધપુરૂષની લાકડી સમાન તેના આલંબન માટે વિદ્યમાન છે. પૃથ્વીમાં આત્માના પરિણામ, માનસિકચિત્તારૂપ અધ્યવસાય પણ મેજુદ છે. પૃથ્વીમાં સાકાર ઉપગના અંતર્ગત મતિ અને શ્રત અજ્ઞાન પણ જોવામાં આવે છે. એકલી સ્પશેન્દ્રિય હોવાથી અચક્ષુદર્શન પણ છે. અને સેવાર્ત સંહનન, એ પ્રમાણે ચન્દ્ર-મસૂર સંસ્થાન પણ છે. મિથ્યાત્વ આદિ કારણે વિદ્યમાન હોવાથી આઠ પ્રકારનાં કર્મબંધ પણ થાય છે. કુર્ણ, નીલ, કાપત, અને તૈજસ. આ ચાર લેસ્યાઓ પણ પૃથ્વીકાયમ છે. Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.२ सू. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४२७ कापोततैजसलेश्याचतुष्टयं, सूक्ष्मप्रथिवीकायस्याद्यलेश्यात्रयम् । तथा-आहारादिसज्ञा अपि । तथा-वेदनाकषायमारणान्तिकसमुद्धाताऽसज्झित्वं, नपुंसकवेदः। पर्याप्तिचतुष्टयम् । तथा पृथिवीकायजीवा निरन्तरं सततमुच्छ्वसन्ति निःश्वसन्ति च । एवमुपयोगादिश्वासोच्छ्वासान्तजीवलक्षण समन्वितत्वान्मनुष्यवत्पृथिवीसचित्ताऽस्तीति सिद्धम् । ननु-उपयोगादीनि जीवलक्षणानि पृथिवीकायजीवेषु कचिन्नोपलभ्यन्ते, तथा सति-असिद्धेनैव उपयोगादिजीवलक्षणेन कथं पृथिव्याः सचित्तत्वं साध्यते ? । उच्यते-पृथिवीकायजीवेषुमासन्तुसुव्यक्तान्युपयोगलक्षणानि, अव्यक्तानि सूक्ष्म पृथ्वीकाय में आदि की तीन लेश्याएँ है । आहार आदि संज्ञाएँ भी उसमें है । पृथ्वी में वेदना कषाय और मारणान्तिक समुद्धात है, असंज्ञीपन है, नपुंसक वेद है और चार पर्याप्तियाँ भी हैं, पृथ्वीकाय के जीव निरन्तर श्वासोच्छीस लेते रहते है । इस प्रकार उपयोग से लगाकर श्वासोच्छास पर्यन्त जीव के लक्षणो से युक्त होने के कारण पृथ्वी मनुष्य के समान सचित्त है, यह बात सिद्ध हुई । शङ्का-जीव के लक्षण उपयोग वगैरह पृथ्वीकाय के जीवो में कहीं भी उपलब्ध नहीं होते । ऐसी स्थिति में वहाँ उपयोग आदि जीव के लक्षणो का होना असिद्ध है। असिद्ध कथन से पृथ्वी की सचित्तता किस प्रकार सिद्ध हो सकती है ? समाधान-पृथ्वीकाय के जीवों में भलीभाँति व्यक्त उपयोग आदि लक्षण भले સૂમપૃથ્વીકાયમાં આદિની ત્રણ લેશ્યાઓ છે. આહાર આદિ સંજ્ઞાઓ પણ તેમાં છે. પૃથ્વીમાં વેદના, કષાય અને મારણાન્તિકસમુદ્દઘાત છે. અસંસીપણું છે. નપુસક વેદ છે અને ચાર પતિએ પણ છે. પૃથ્વીકાયના જીવ નિરંતર શ્વાસે રસ લેતા રહે છે. આ પ્રમાણે ઉપગથી લઈને શ્વાસ પર્યત જીવના લક્ષણેથી યુક્ત હેવાથી પૃથ્વી મનુષ્ય પ્રમાણે સચિત્ત છે. તે વાત સિદ્ધ થઈ શંકા–જીવનું લક્ષણ ઉપયોગ વગેરે પૃથિવીકાયના જીમાં કઈ સ્થળે ઉપલબ્ધ થતાં નથી. એવી સ્થિતિમાં જ્યાં ઉપગ આદિ જીવના લક્ષણોનું હોવું તે નકકી નથી. એ અસિદ્ધ કથનથી પૃથ્વીની સચિત્તતા કેવી રીતે સિદ્ધ થઈ શકે છે? સમાધાન–પૃથિવીકાયના જીવમાં સારી રીતે સ્પષ્ટ વ્યક્ત ઉપયોગ આદિ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ आचाराङ्गसूत्रे तु तत्र सन्त्येव, यथा-कस्यचिन्मनुष्यस्य अत्युत्कटमदिरातिपानजनितपित्तोदयमूछितस्य चेतनाया अव्यक्तत्वेऽपि न तस्याचित्तरूपता विज्ञायते, एवं पृथिवीकायजीवेष्वव्यक्तचेतना संभवति । न चाव्यक्तचेतनाऽभिव्यञ्जकमुच्छ्वासादिकं मद्यमूर्छितमनुष्यस्य सचित्तस्वमावेदयति, इह तु न किञ्चिच्चेतनालक्षणं लक्ष्यत इति वाच्यम् । यथा मनुष्यशरीरे क्षतस्थानं मांसादिरिक्तमपि पश्चात्मतादिनिवृतौ स्वयं भ्रियते, तथैव खनितं खनिभूम्यादिकं सजातीयावयवैर्धियमाणं दृश्यते । ही न हों, मगर अव्यक्तरूप में तो विद्यमान है ही । जैसे कोई मनुष्य खूब नसैली मदिराका डॉटकर पान कर ले और पित्त के प्रकोप से मूच्छित हो जाय तो उसको भी चेतना अव्यक्त हो जाती है, फिर भी उसे अचित्त (अचेतन) नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार पृथ्वीकाय के जीवों में अव्यक्त चेतना है। शङ्का-अव्यक्त चेतना के बोधक उच्छास वगैरह मद्यमूञ्छित मनुष्य की सचित्तता को प्रकट करते है; मगर यहाँ ( पृथ्वीमें) तो चेतना का कोई भी लक्षण नहीं दिखाई देता । ऐसी स्थिति में पृथ्वी की सचेतनता किस प्रकार मानी जाय ? समाधान-जैसे–मनुष्य के शरीर में घाव हो जाता है तो उस स्थान में मांस आदि नहीं रहता । पश्चात् घाव मिट जाने पर वह भर जाता है । इसी प्रकार खोदी हुई खान आदि की भूमि अपने सजातीय अवयवों से भरजाती दिखाई देती है। લક્ષણ ભલે ન હોય, પરંતુ અવ્યક્ત રૂપમાં તે વિદ્યમાન છે. જેમ કેઈ મનુષ્ય ખૂબ પેટભરીને ઘણું નીસાવાળી મદિરાનું પાન કરી લે અને પિત્તના પ્રકોપથી મૂછિત થઈ જાય તે તેની પણ ચેતના અવ્યક્ત થઈ જાય છે, એટલે તેને અચિત્ત કહી શકતા નથી. એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયના જીવમાં અવ્યક્ત ચેતના છે. શંકા–અવ્યક્ત ચેતનાના બેધક તરીકે ઉસ વગેરે મનુષ્યની સચિત્તતાને પ્રગટ કરે છે પરંતુ અહિં (પૃથ્વીમાં) તે ચેતનાનું કેઈ પણ લક્ષણ જોવામાં આવતું નથી. એવી સ્થિતિમાં પૃથ્વીની સચેતનતા કેવી રીતે માની શકાય? સમાધાન–જેવી રીતે મનુષ્યના શરીરમાં ઘાવ-ઉંડે જખમ થઈ જાય છે તે તે સ્થાનમાં માંસ આદિ રહેતું નથી. પાછળથી ઘાવ રૂઝાઈ જતાં તે માંસથી ભરાઈ જાય છે. એ પ્રમાણે ખેદેલી ખાણની ભૂમિ પિતાના સજાતીય અવયથી ભરાઈ જાય છે. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सू.२ पृथिवीकायस्वरूपम् ४२९ एवं च मनुष्यवद् व्रणस्थानभरणरूपस्य चेतनालक्षणस्य पृथिवीकायेऽपि सच्चात् । यद्वा- पृथिवी सजीवा, दैनिकघर्षणोपचय संदर्शनात्, चरणतलवत्, तद्यथा - चरणतलं घृष्यते पुष्यति च तद्वत् पृथिव्यपि प्रत्यहं घृष्यते, उपचीयते च; तस्मात्तस्याः सजीवत्वम् । अथवा - विद्रमपाषाणिरूपा पृथिवी सचेतना, काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिदर्शनात्, शरीरस्थितास्थ्यादिवत् । तद्यथा - शरीरस्थितमस्थ्यादिकं कमठपृष्ठकठिनं सदपि चित्तवदनुभूयमानमुपचयं च गच्छत् संदृश्यते । एवं विद्रुमशिलाद्यात्मिकायाः इस प्रकार मनुष्य के समान घाव का भरना भी चेतना का एक लक्षण है, और वह पृथ्वी कायमें विद्यमान है | अथवा - पृथ्वी सजीव है, क्यों कि उस में प्रतिदिन घिसना और उपचय होना देखा जाता है, पैर के तल की तरह । तात्पर्य यह है कि-जैसे पैर का तलभाग घिसता है और फिर पुष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पृथिवी भी प्रतिदिन घिसती है और भरजाती है । अतः पृथिवी भी सजीव है । अथवा - मूंगा, पाषाण आदि रूप पृथ्वी सजीव है, क्यो कि उसमें कठिनता होने पर भी वृद्धि आदि देखी जाती है; जैसे शरीर की हड्डी आदि । तात्पर्य यह है कि जैसे शरीर की हड्डी आदि कछुवे की पीठ की भाँति कठोर होने पर भी सचित्त मालम होती है और उपचय को प्राप्त होती हुई दिखाई देती है, इसी प्रकार मूगा - शिला તે પ્રમાણે મનુષ્યના સમાન ઘાવતું ભરાઇ જવું તે પણ એક ચેતનાનુ લક્ષણ છે, અને તે પૃથ્વીકાયમાં વિદ્યમાન છે. અથવા—પૃથિવી સજીવ છે, કારણ કે તેમાં પ્રતિદિન ઘસાવું અને વધવું તે જોવામાં આવે છે, પગના તળીઆની પ્રમાણે. તાત્પર્ય એ છે કે–જેમ પગના તળી. આના ભાગ ઘસાય છે અને ફરી પાછા પુષ્ટ થઈ જાય છે તે પ્રમાણે પૃથિવી પણ પ્રતિદિન ઘસાય છે અને ફ્રી પાછી ભરાઈ જાય છે, તેથી પૃથિવી પણ સજીવ છે. અથવા—મુંગા (પરવાળા) પાષાણુ આદિપ પૃથ્વી સજીવ છે કેમકે–તેમાં કઠિનતા હોવા છતાંય પણ વૃદ્ધિ વગેરે જોવામાં આવે છે, જેવી રીતે શરીરના હાડકા આદિ તાપ એ છે કે-જેવી રીતે શરીરના હાડકાં આદિ કાચબાની પીઠ જેવા કઠોર હેાવા છતાંય પણ સચિત્ત માલૂમ પડે છે, અને વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત થતાં હોય તેમ દેખાય છે, તે Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० आचाराङ्गस्त्रे पृथिव्याः काठिन्ये सत्यपि वृद्धयादिकं प्रत्यक्षं दृश्यते तस्मात्तस्याः सचेतनत्वम् । अथ च-विद्रुमाद्यात्मिका पृथिवी सचित्ता, छेदादौ तत्मजातीयधातूत्पत्तिदर्शनात्, अर्शोऽङ्कुरवत् । तद्याथा-अर्शसोऽङ्कुरे छिन्नेऽपि पुनस्तत्समान एवाङ्कुरः प्रादुर्भवति, एवं विद्रुमशिलाघात्मिकायाः पृथिव्याः खन्यादौ छेदेऽपि तत्सजातीयधातुभिस्तद्रिक्तभागः परिपूर्यते, तस्मात् सिद्धं पृथिव्याः सचित्तत्वम् । किञ्च - यथा सास्नाविषाणाधवयवसंघातानां गोमहिष्यादिशरीराणां छिन्नभिन्नो-क्षिप्त-स्पृष्ट-दृष्ट-द्रव्यत्वेन जीवशरीरत्वं, तथैव पृथिव्यादीनां प्रत्यक्षदृष्टं आदिरूप पृथ्वी में, कठिनता होने पर वृद्धि आदि प्रत्यक्ष दिखाई देता है । इस कारण पथिवी सचित्त है। - अथवा-मूंगा आदि पथ्वी सचित्त है, क्यों कि उसका छेदन होने पर वहां उसी की सजातीय धातु उत्पन्न होती है, अर्श ( मस्सा) के अंकुर के समान, जैसे अर्श के अंकुर एकवार काट देने पर भी फिर वहाँ उसी जाति के अंकुर उत्पन्न हो जाते है, उसी प्रकार मूंगा-शिला आदि रूप पथिवी का खान आदि में छेदन कर देने पर भी उसी की सजातीय धातुओं से यह खाली स्थान भर जाता है, अतः पृथिवी की सचित्तता सिद्ध हुई। ____ और भी लीजिए-जैसे सास्ना (गायके गले में लटकने वाली चमडी ) सीग आदि अवयवों का समुदायरूप गाय, भैस आदि के शरीर छिन्न, भिन्न, उक्षिप्त, स्पष्ट, दृष्ट और द्रव्यत्व के कारण जीव के शरीर है, इसी प्रकार पृथिवी आदि में प्रत्यक्ष से પ્રમાણે મૂગા (પરવાળાં) શિલા આદિ રૂપ પૃથ્વીમાં કઠિનતા હોવા છતાંય પણ વૃદ્ધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે, આ કારણથી પૃથ્વી સચિત્ત છે. અથવા—મૂંગા (પરવાળાં) આદિ પૃથ્વી સચિત્ત છે. કેમકે–તેનું છેદન થવાથી ત્યાં તેની સજાતીય ધાતુ, ઉત્પન્ન થાય છે, અર્શ (મસા)ના અંકુર પ્રમાણે, જેમ અને અંકુર એકવાર કાપી નાંખવા છતાંય પણ ફરીથી ત્યાં તે જતિને અંકુર ઉત્પન્ન થાય છે, તે પ્રમાણે મૂંગા-શિલા આદિરૂપ પૃશિવનું ખાણ આદિમાં છેદન કરી દેવા છતાંય પણ તેની સજાતીય ધાતુઓથી તે ખાલી સ્થાન ભરાઈ જાય છે, તે કારણથી પૃથ્વીની સચિત્તતા સિદ્ધ થઈ બીજું પણ પ્રમાણ લઈએ, જેમ સાસ્ના (ગાયના ગળામાં લટકવાવાળી ચામડી) સીંગ આદિ અવયના સમુદાયરૂપ-ગાય, ભેંસ આદિના શરીર છિન્ન, ભિન્ન, ઉસ્લિપ્ત, સ્પષ્ટ, દષ્ટ, અને દ્રવ્યત્વના કારણથી જીવનું શરીર છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વી આદિમાં પ્રત્યક્ષ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १. उ२. सू. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४३१ छिन्नत्वादिकमपलपितुं न शक्यते, तस्मात्पृथिव्यादीनामपि जीवशरीरत्वं सिद्धयति । जीवशरीरत्वेन निरूपितत्वाच्च पृथिव्यादीनामपि करचरणसंघातानामिव कदाचिच्चैतन्यं सिद्धथति, नतु सर्वथा शाश्वतिकनिर्जीवत्वं तेषां संभवति, कदाचिदचित्तत्वमपि शस्त्रोपहतत्वादेव भवति करचरणादिवदिति । पृथिव्याः सचित्तत्वेऽनेकजीवाधिष्ठितत्वे चागमोऽपि प्रमाणम् । तथाहि"पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थपरिणएणं" (दश.४ अ.) पृथिवी चित्तवती-सजीवा-आख्याता भगवता कथिता अनेकजीवा दिखाई देने वाली छिन्नता आदि का अपलाप नहीं किया जा सकता, अतः पृथिवी आदि जीव के शरीर हैं, इस प्रकारका निरूपण करने से हाथ पैर की तरह उन में भी किसी समय चैतन्य का अस्तित्व सिद्ध होता है, उनकी सदैव और सर्वथा निर्जीवता सिद्ध नहीं हो सकती । पथिवी आदि कदाचित् निर्जीव होती है सो उसका कारण शस्त्र का उपघात है । शस्त्र के प्रयोग से जैसे हाथ-पैर आदि अवयव निर्जीव हो जाते हैं उसी प्रकार पृथ्वी भी निर्जीव हो जाती है। पृथ्वी सचित्त है और अनेक जीवों से अधिष्ठित है, इस विषय में आगमप्रमाण भी है वह इस प्रकार-" पृथ्वी सचित्त कही गई है उसमें अनेक जीव हैं और उन सब की सत्ता पृथक्-पृथक् है,-शस्त्रपरिणत पृथ्वी को छोडकर " ( दश. ४. अ. ) अर्थात्-पथ्वी सजीव है, ऐसा भगवानने कहा है । उस में अनेक एकेन्द्रिय जीव है । દેખાઈ આવે તેવી છિન્નતા આદિને અપલાપ (છતી વસ્તુ દેખાય તે ના કહેવી કે નથી દેખાતી) કરી શકાશે નહિ, એ માટે પૃથ્વી આદિ પણ જીવનું શરીર સિદ્ધ થાય છે. પૃથ્વી આદિ જીવનાં શરીર છે. એ પ્રકારનું નિરૂપણ કરવાથી હાથ–પગની પ્રમાણે તેમાં પણ કેઈ સમય ચૈતન્યનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. તેની હમેશાં અને સર્વથા નિજીવતા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી. પૃથ્વી આદિ કદાચિત્ નિર્જીવ હોય છે, તે તેનું કારણ શસ્ત્રને ઉપઘાત છે. (હથિઆરથી કપાવું-ખોદાવું તે છે) શસ્ત્રના પ્રયોગથી જેમ હાથ–પગ અવયવ નિજીવ થઈ જાય છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વી પણ નિર્જીવ થઈ જાય છે. પૃથ્વી સચિત્ત છે. અને અનેક જીવોથી અધિષ્ઠિત છે. આ વિષયમાં આગમ प्रभार ५ छे. ते या प्रमाणे: “પૃથ્વી સચિત્ત કહેવામાં આવી છે, તેમાં અનેક જીવ છે, અને તે સર્વની सत्ता पृथ५-Yथ छे; शस्त्रपरिशुत पृथ्वीन. त्यने.” (शालि, ४-५ ) અથ–પૃથ્વી સજીવ છે, એવું ભગવાને કહ્યું છે. તેમાં અનેક એકેન્દ્રિય જીવ છે. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे अनेके बहवो जीवा एकेन्द्रिया यस्यां सा तथोक्ता, पृथकसत्त्वा-पृथक् पृथग्भूता अङ्गलासंख्येयभागमात्रशरीरावगाहनामाश्रित्य विभिन्नरूपेण स्थिताः सत्वाः स्पर्शनेन्द्रियवन्तो जीवा यस्यां सा तथोक्ता 'आख्याता' इति पूर्वोक्तेन संवन्धः । ननु तर्हि तथाभूतायां सचित्तायां पृथिव्यां गमनागमनादिक्रियां कुर्वतां संयतानाम हिंसाव्रतस्य संरक्षणं कथं भवति प्रत्युतावश्यकरणीयोच्चारप्रस्रवणादिक्रियया हिंसैव भवति, तस्मादहिंसाव्रतपालनं वन्ध्यापुत्रपालनवदसंभवम् ?-इत्यत आह-'अन्नत्थ सत्थपरिणएणं' इति, शस्त्रपरिणताया अन्यत्र, शस्त्रपरिणतां पृथिवीं वर्जयित्वाऽन्या पृथिवी सजीवा । शस्यते हिंस्यते प्राणिगणोऽनेनेति शस्त्रं । यद् यस्य विनाशकारणं तत्तस्य शस्त्रमित्यर्थः । तत् द्विविधं द्रव्यभाववे सब जीव अंगुल के असख्यातवें भागकी शरीर-अवगाहनावाले भिन्न-भिन्न रूप में स्थित हैं । यहाँ सत्त्व का अर्थ एकेन्द्रिय जीव समझना चाहिए । शङ्का-पृथ्वी अगर सचित्त है तो सचित्त पृथ्वी पर गमन-आगमन आदि क्रिया करने वाले साधुओं का अहिंसावत कैसे स्थिर रह सकता है ? प्रत्युत मल-मूत्र आदि का त्याग अनिवार्य है और इस से हिंसा होना भी अनिवार्य है। एसी स्थिति में अहिंसा का पालन करना वंध्या-पुत्र का पालन करने के समान असंभव है। समाधान-शास्त्र में कहा है-'अन्नत्थ सत्थपरिणएणं' अर्थात् शस्त्रपरिणत पृथ्वी को छोडकर दूसरी पृथ्वी सचित्त है। जिस के द्वारा प्राणिगण का हनन हो उसे शस्त्र कहते है। तात्पर्य यह है कि जो जिस के विनाश का कारण है, वह उस તે સર્વ જીવ અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગની શરીર–અવગાહનાવાળા ભિન્ન-ભિન્ન રૂપમાં સ્થિત છે. અહિં સર્વને અર્થ એકેન્દ્રિય જીવ સમજવું જોઈએ. શંકા–પૃથિવી અગર સચિત્ત છે તે સચિત્ત પૃથ્વી પર જવા આવવાની ક્રિયા કરવાવાળા સાધુઓનુ અહિંસાવૃત સ્થિર કેવી રીતે રહી શકે છે ? ઉલટું મલમૂત્ર આદિને ત્યાગ અનિવાર્ય છે, તેથી હિંસા થવી પણ અનિવાર્ય છે. એવી સ્થિતિમાં અહિંસાનું પાલન કરવું તે વંધ્યાપુત્રના પાલન કરવા સમાન અસંભવ છે. समाधान-शास्त्रमा ४यु छ :- · अन्नत्थ सत्थपरिणएणं' अर्थात् शપરિણત પૃથ્વીને ત્યજી બીજી પ્રથ્વી સચિત્ત છે જેના દ્વારા પ્રાણિગણુનું હનન (નાશ) થાય તેને શસ્ત્ર કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે–જે જેના વિનાશનું કારણ છે તે તેના માટે શસ્ત્ર છે. Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ म. २ पृथिवीकायस्वरूपम् सू. २ प्राथवाकायस्वरूपम् ४३३ भेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकायपरकायतदुभयलक्षणम् । तत्र स्वकायशस्त्रं पृथिव्याः पृथिव्येव यथा-कृष्णमृत्तिकायाः शुक्लमृत्तिकेत्यादि । परकायशस्त्रं जलाग्निगोमयचरणशकटचक्रादि । उभयकायशस्त्रं जलादिमिश्रमृत्तिका । एवं च शस्त्रपरिणतायाः पृथिव्या अचित्ततया न तत्रोच्चारप्रस्त्रवणादिक्रियया मुनीनामहिंसाव्रतक्षतिः । (२) प्ररूपणाद्वारम्पृथिवीजीवा द्विविधाः सूक्ष्मवादरभेदात् । सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयाद् वादराः, न तु बदरामलकवदापेक्षिकं सूक्ष्मत्वं बादरत्वं च । के लिए शस्त्र है । शस्त्र के दो भेद हैं-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप द्रव्य-शस्त्र है । पृथ्वी का शस्त्र पृथ्वी-स्वकायशस्त्र है जैसे काली मिट्टी का शस्त्र सफेद मिट्टी है। परकायशस्त्र जैसे-जल, अग्नि, गोबर, चरण (पग), शकट (गाडी) का पैया आदि । जल आदि से मिली हुई मृत्तिका उभयकायशस्त्र है। इस प्रकार शस्त्र से परिणत पृथ्वी अचित्त हो जाती है, अत एव उस पर मल-मूत्र आदि त्यागने वाले मुनियों के अहिंसावत में कोई क्षति नहीं पहुँचती।। (२) प्ररूपणा-द्वारपृथ्वी के सूक्ष्म और बादर के भेदसे दो प्रकार हैं । सूक्ष्मनामकर्म के उदय से सूक्ष्म और बादरनामकर्म के उदय से बादर होते हैं । यहाँ सूक्ष्मता और बादरता बेर और आवले की तरह सापेक्ष नहीं समझनी चाहिए । શસ્ત્રના બે ભેદ છે. દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્ર, સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ કિર્થશાસ્ત્ર છે. પૃથ્વીનું શસ્ત્ર પૃથ્વી સ્વકીય-શસ્ત્ર છે, જેમ કાલી માટીનું શસ્ત્ર સફેદ भाटी छ. ५२४ाय-शखरेभस, मनि, छ, ५, गाडीनु या माहि. - પાણી આદિથી મળેલી માટી ઉભયકાય–શસ્ત્ર છે. આ પ્રમાણે શસ્ત્રથી પરિણત પૃથ્વી અચિત્ત થઈ જાય છે. એટલા માટે તેના પર મળ-મૂત્રાદિ ત્યાગ કરવાવાળા મુનિએના અહિંસાવ્રતમાં કેઈ હાનિ પહોંચતી નથી. ___ (२) myearપૃથ્વીકાયના જીવ સૂક્ષમ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના છે. સૂક્ષ્મનામકર્મના ઉદયથી સૂક્ષમ અને બાદરનામકર્મના ઉદયથી બાદર થાય છે. અહિં સૂક્ષમતા અને બાકરતા. બોર અને આંબળાની પ્રમાણે સાપેક્ષ સમજવી નહિ જોઈએ. म. भा.-५५ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराजसंत्रे तत्र सूक्ष्माः द्विविधाः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, ते कज्जलकूपिकावत् सर्वलोकव्यापिनः। बादरा अपि द्विधा-पर्याप्तापर्याप्तभेदात् । तत्र वादराः पर्याप्ता अपर्यास्ताच लोकस्यैकदेशे पृथिव्यष्टकाधोऽधःपाताल-भवन-नकरप्रस्तरादौ सन्ति । ते विद्विधाः श्लक्ष्ण-खरभेदात् । तत्र श्लक्ष्णा वादरपृथिवी सप्तधाकृष्णनील-लोहित-पीत-शुक्ल-पण्डु-पनकभेदात् । खरवादरपृथिव्यास्तु चत्वारिंशद् (४०) भेदाः, तथाहि ____ (१)शुद्धपृथिवी, (२)शर्करापृथिवी, (३)वालुकापृथिवी, (४)उपलः, (५)शिला, (६)लवणः,(७)ऊषः (८)अयः, (९)ताम्रः, (१०)त्रपुः, (११)सीसकम्, (१२)रूप्यम्, (१३)सुवर्णम्, (१४)वज्रः, (१५)हरितालः (१६)हिङ्गलका, (१७)मनःशिला, सूक्ष्म जीव भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । ये जीव काजल की कुप्पी के समान सम्पूर्ण लोक में भरे हुए हैं। बादर भी पर्याप्त और अपर्याप्त-दो प्रकार के हैं। ये जीव लोक के एक देश में हैं । इन के दो भेद हैं-'लक्ष्ण और खर । श्लदणबादरपृथ्वी के सात भेद हैं-कृष्ण नील लोहित (लाल) पीत शुक्ल पाण्डु और पनक खरबादर पथ्वी के चालीस भेद हैं, वे इस प्रकार ___ (१) शुद्ध-पथिवी, (२) शर्करा-पथिवी, (३) बालका-पथिवी, (४) उपल, (५) शिला, (६) लवण-नमक, (७) ऊष-क्षार, (८) लोहा, (९) तांबा, (१०) रागा, (११) सीसा, (१२) चांदी, (१३) सोना, (१४) वज्र, (१५) हरिताल, (१६) हींगल, સૂફમ જીવ પણ બે પ્રકારના છે. પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત-જીવ કાજળની કુખીના સમાન સંપૂર્ણ લેકમાં ભરેલા છે. બાદર પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એમ બે પ્રકારના છે. એ જીવ લેકના એક દેશમાં છે. તેના બે ભેદ છે. સ્લણ અને ખર, શ્વણ બાદર પૃથ્વીના સાત से छे. gy, नीस, सहित (Ana) पीत, शुसी, पड भने यन. २-माहर પૃથ્વીના ચાલીસ ભેદ છે–તે આ પ્રમાણે છે – (१) शुद्ध पृथिवी; (२) शई। पृथिवी, (3) वायु पृथिवी, (४) S५८, (५) शिक्षा, (6) aag-नम, (७) 6ष-क्षार, (८) , (6) ३iमा, (१०) रागा-Bene, (११) सीसा, (१२) यांडी, (१३) सोना, (१४) 400, (१५) उरतात, (१६) डीशुख, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सु. २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४३५ (१८) शस्यकः - पारदः, स्वनामख्यातो रत्नविशेषश्च, (१९) अञ्जनं, (२०) मवालम्, (२१) अभ्रपटलम् (२२) अभ्रवालुका (अभ्रकचूर्णम् ) ( २३ ) गोमेदकः, (२४)रुचकः, (२५)अङ्कः, (२३) स्फटिकः, (२७) लोहिताक्षः, (२८) मरकतः, (२९) मसारगल्लः, (३०) भुजमोचक:, (३१) इन्द्रनील:, (३२) चन्दनम् ।, (३३) गैरिकम्:, (३४) हंसगर्भः, (३५) पुलकः, ( ३६ ) सौगन्धिकः, (३७) चन्द्रप्रभः, (३८)वैडूर्यम्:, (३१) जलकान्तः, (४०) सूर्यकान्तः । एते च शुद्धपृथिव्यादयः पृथिवीकायिकाः स्वाकरादौ सचित्ता भवन्ति । गोमय - कचवर-सवितृतापादिसंपर्कात्तु गतचेतना अपि भवन्ति । वादरपृथिव्या यत्रैको जीवस्तत्राऽसंख्यातैर्नियमतो भाव्यम् । एवमप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिष्वपि विज्ञेयम् । निगोदे तु यत्रैको (१७) मैनसिल, (१८) शस्यक - पारा, अथवा रत्नविशेष, (१९) अंजन, (२०) प्रवाल, (२१) अभ्रपटल, (२२) अभ्रवाल्लुका (अभ्रकचूर्ण), (२३) गोमेद, (२४) रुचक्र, (२५) अंकरत्न, (२६) स्फटिक, (२७) लोहिताक्ष, ( २८ ) मरकत, (२९) मसारगल्ल, (३०) भुजमोचक, (३१) इन्द्रनील, (३२) चंदन, (३३) गेरू, (३४) हंसगर्भ, (३५) पुलक, (३६) सौगधिक, (३७) चन्द्रप्रभचन्द्रकान्त, (३८) वैह्न े, (३९) जलकान्त, (४०) सूर्यकान्त । ये शुद्ध पृथिवी आदि चालीस जब अपने आकर (खान) में रहते है तो सचित्त होते है । गोबर कचरा सूरज की धूप आदि के संपर्क से अचेतन हो जाते है । जहां बादरपृथ्वी काय का एक जीव होता है वहा असंख्यात जीव नियम से होते है । इसी प्रकार अप्, तेज, वायु, और प्रत्येकवनस्पति में भी समझना चाहिए । (१७) भनशील, (१८) यारो, (१८) सुरभो, (२४) ३२४, (२५) २४-२त्न, (२१) स्टूटिङ, (२७) सोहिताक्ष, (२८) भरत, (२८) मसारंगस, (30) लुभाय:, (३१) इन्द्रनीस, (३२) यन्दन, (33) गेरू, (३४) (सगल, (३६) पुस, (३९) सौग ंधिक, (३६) चन्द्रप्रल-य द्रान्त, (३८) वैडूर्य, (36) सान्त, (४०) सूर्य अन्त मा शुद्ध પૃથ્વી આદિ ચાલીશ જ્યારે પેાતાના આકર-ખાણમાં રહે છે તે સચિત્ત હેાય છે. છાણુ, કચરા, સૂરજના તડકેા વગેરેના સંપર્કથી તે અચેતન થઈ જાય છે. જ્યાં ખાદર્ પૃથ્વીકાયના એક જીવ હાય છે, ત્યાં અસંખ્યાત જીવ નિયમથી હેાય છે. એ પ્રકારે અપૂ, તેજ, વાયુ અને પ્રત્યેકવનસ્પતિમાં પણ સમજવું જેઈ એ, Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे - निगोदजीवस्तत्र नियमतोऽनन्ताः। वादराणां सूक्ष्माणां च पृथिवीकायानाभेते वक्ष्यमाणा भेदाः सन्ति, तत्रोभयोः पर्याप्तापर्याप्तभेदः प्रागुक्तः, अन्ये भेदा उच्यन्ते-शरीरत्रया-ऽङ्गलासंख्येयभागशरीर-सेवार्तसंहनन-ममूरचन्द्रसंस्थान-कपायचतुष्क-सज्ञाचतुष्काऽऽधलेश्यात्रय-स्पर्शनेन्द्रिय-वेदनाकपायमारणान्तिकसमुद्धाता-ऽसज्ञित्व- नपुंसकवेद-पर्याप्तिचतुष्टय-मिथ्यादर्शना-ऽचक्षुदर्शना-ऽज्ञान-काययोग-साकारानाकारोपयोगाऽऽहारादिप्रभृतयः । तत्र विशेषस्तु बादरपृथिवीकायानां लेश्या आधाश्चतस्रः, शेषं सर्व समानम् । असंख्येयाश्च प्रत्येकमुभये । निगोद में जहाँ एक जीव होता है वहाँ नियम से अनन्त जीव होते है। वादर और सूक्ष्म पृथिवीकायों के भेद इस प्रकार है-दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद पहले कहे जा चुके है । अब अन्य भेद कहते है-तीन शरीर, अंगुलका असंख्यातवां भाग शरीर, सेवात संहनन, मसूरचन्द्रसंस्थान, चार कषाय, चार संज्ञाएँ, प्रारंभ की तीन लेश्याएँ, स्पर्शनेन्द्रिय, वेदना कषाय और मारणान्तिक समुद्धात, असंज्ञीपन, नपुंसकवेद, चार पर्याप्तिया, मिथ्यादर्शन, अचक्षुदर्शन तीन अज्ञान; काययोग, साकार तथा अनाकार उपयोग, आहार आदि । इन में विशेषता इतनी ही है कि बादरपृथिवीकाय में पहले की चार लेश्याएँ होती है । शेष सब बोल समान है। दोनों ही असंख्यातअसंख्यात है। નિગેદમાં જ્યાં એક જીવ હોય છે ત્યાં નિયમથી અનન્ત જીવ હોય છે. બાદર અને સૂકમ પૃથિવીકાના ભેદ આ પ્રમાણે છે—બન્નેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત બેઉ ભેદ પ્રથમ કહેવામાં આવ્યા છે. હવે બીજા ભેદ કહે છે-ત્રણ શરીર, અંગુલના અસંખ્યાતમાં ભાગ શરીર, સેવાર્તા સંહનન, મસૂર–ચ સંસ્થાન, ચાર કષાય, ચાર સંજ્ઞાઓ, પ્રારંભની ત્રણ વેશ્યાઓ, સ્પર્શ ઈન્દ્રિય, વેદના કષાય, અને મારણાન્તિક સમુદઘાત, અસંસીપણું, નપુંસકવેદ, ચાર પર્યાપ્તિએ, મિથ્યાદર્શન, અચક્ષુદર્શન, ત્રણ અજ્ઞાન, કાયાગ, સાકાર તથા અનાકાર ઉપયોગ, આહાર આદિ. તેમાં વિશેષતા એટલી જ છે કે –બાદર પૃથિવીકાયમાં પ્રથમની ચાર વેશ્યાઓ હોય છે, બાકી તમામ બેલ સમાન છે. બન્ને જ અસંખ્યાત-અસંખ્યાત છે. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ. २ . २ पृथिवीकायस्वरूपम् ४३७ (३) परिमाणद्वारम्-- बादरपर्याप्ताः पृथिवीकायजीवाः सर्वतः स्तोकाः । तदपेक्षया वादराऽपर्याप्ताः असंख्येयगुणाः। तदपेक्षया सूक्ष्माऽपर्याप्ता असंख्येयगुणाः। तदपेक्षया सूक्ष्मपर्याप्ता असंख्येयगुणाः । यदि जकारीधान्यकणप्रमाणपृथिव्यंशाश्रया जीवा एकैकं बहिर्निगत्य पृथक्-पृथक् कपोतमितं कायं कुर्युस्तर्हि तेषां लक्षयोजनप्रमाणजम्बूद्वीपे समावेशोऽपि न संभवति । ननु जवारीधान्यकणमात्रे पथिव्यंशे कथमियन्तो जीवास्तिष्ठन्ति ! इति चेत् उच्यते-यथा सहस्रौषधिसंमिश्रणनिष्पन्नसहस्रपाकतैलस्याल्पीयसि (३) परिमाणद्वारपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय के जीव सब से थोडे हैं । उन की अपेक्षा बादर अपर्याप्त असंख्यात गुना अधिक है । उन से सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्येय गुना है। उन से सूक्ष्म पर्याप्त असंख्यात गुना है । अगर जवार नामक धान्य के कण के बराबर थ्वी के अंश में रहने वाले जीव एक-एक करके बाहर निकल जाएँ और वे सब अपना शरीर कबूतर के शरीर के बराबर बनालें तो एक लाख योजन विस्तार वाले जम्बूद्वीप में उनका समावेश नहीं हो सकता। शङ्का-जवार के एक दाने के बराबर पृथिवी के अंश में इतने अधिक जीव किस प्रकार रह सकते है ? समाधान-जैसे हजार औषधों के सम्मिश्रण से बने हुए सहस्र-पाक तैल के (3) परिभाारપર્યાપ્ત બાદર પૃથ્વીકાયના જીવ સૌથી થડા છે તેની અપેક્ષા બાદર અપર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણા અધિક છે. તેનાથી સૂક્ષમ અપર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણા છે, તેનાથી સૂક્ષમ પર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણુ છે. અગર જુવાર નામના ધાન્યના કણની બરાબર પૃથ્વીમાં રહેવાવાળા જીવ એક-એક થઈને બહાર નિકળે અને તે સર્વ પિતાનું શરીર કબૂતર–પારેવાનાં શરીર બરાબર બનાવી લીએ તે એક લાખ જનના વિસ્તારવાળા જમ્મુ દ્વિપમાં તેને સમાવેશ થઈ શકે નહિ. શકા–જાવારના એક દાણુની બરાબર પૃથિવીમાં એટલા અધિક જીવ કેવી રીતે રહી શકે છે? સમાધાન–જેવી રીતે હજાર ઔષધના સંમિશ્રણથી બનેલા સહઅ–પાક તલના Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ आचारागमत्रे सूच्यग्रलग्नविन्दुमात्रेऽपि सहस्रौषधिसमावेशस्तथैव पृथिवीकायजीवास्तावन्मात्रे पृथिव्यंशे तिष्ठन्तीति । यथा वा सहस्रौषधिसंमिश्रणे कृते चूर्णीकृत्य परिपिष्य खसखसकणप्रमाणगुटिका क्रियते, तत्र प्रत्येकगुटिकायां सहस्रौषधिसमावेशो दृश्यते, तद्वज्जवारीधान्यकणमात्रेऽल्पीयसि पृथिव्यंशे पृथिवीकायजीवास्तिष्ठन्तीति नैतच्चित्रम् । यदि लोकाकाशस्य प्रत्येकप्रदेशे, एकैकः पृथिवीकायजीवः स्थाप्यते तदा असंख्याता लोका पूरिता भवेयुः। पृथिवीकायजीवानां परिमाणं तावदस्ति, यदि लोका असंख्याता भवेयुः, तेषामसंख्यातलोकानां यावन्तः प्रदेशाः भवेयुस्तावन्तः पृथिवीकायजीवाः सन्तीति बोध्यम् । ना। छोटे से, सूई को नोंक पर लगे हुए एक बूंद में भी हजार औषधों का समावेश हो जाता है, इसी प्रकार जवार के एक दाने के बराबर पथ्वी के अंश में इतने जीव रहते है। अथवा जैसे एक हजार औषधो को मिला दिया जाय और उनका चूर्ण बना लिया जाय, खूब पीसा जाय और उससे खसखस के दाने के बराबर गोली बना लो जाय तो उस प्रत्येक गोली में हजार औषधियों का समावेश जान पडता है। इस प्रकार जवार बराबर पृथ्वी के अश में अगर इतने जीव रहते है तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है ? अगर लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में, एक-एक जीव स्थापित किया जाय तो असंख्यात लोक भरजाएँ । पृथिवीकाय के जीवों का परिमाण इतना है कि-यदि लोक असंख्यात हों और उन असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही पृथिवीकाय जीव हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। નાના એવા સેઈની અણી પર લાગેલા એક ટીપામાં પણ હજાર ઔષધને સમાવેશ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે જુવારના એક દાણાની બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે. અથવા જેવી રીતે એક હજાર ઔષધને મેળવવામાં આવે અને તેનું ચૂર્ણ બનાવી લેવાય, અને તેને ખૂબ વાટવામાં આવે અને તેમાંથી ખસ-ખસના દાણા બરાબર ગેળી બનાવવામાં આવે તે પ્રત્યેક ગોળીમાં હજાર ઔષધીઓને સમાવેશ થયેલ છે, એમ જાણી શકાય છે. એ પ્રમાણે જુવાર બરાબર પૃથ્વીમાં એટલા જીવ રહે છે તે તેમાં આશ્ચર્યની વાત શું હોઈ શકે ? અથવા કાકાશના એક એક પ્રદેશમાં, એક–એક જીવ સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લેક ભરાઈ જાય. પૃથિવીકાયના જીનું પરિણામ એટલું છેજે લેક અસંખ્યાત હોય અને તે અસંખ્યાત લેકના જેટલા પ્રદેશે હાય એટલા જ પૃથિવીકાય જીવ છે. એમ સમજી લેવું જોઈએ. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार चिन्तामणि - टीका अभ्य. १ उ. २ सू. २ पृथिवीकायजीवपरिमाणम् ४३९ ये पृथिवी कायहिंसायां लज्जमानास्ते - अनगाराः ये तु तत्र प्रवृत्तास्ते द्रव्यलिङ्गः, इति बोधयितुमाह-' लज्जमाणाः ' इत्यादि । एके = अन्ये, लज्जमानाः पृथिवीकायस्यारम्मे परमकरुणया द्रवितहृदयतया संकोचमापद्यमानाः पृथक्= केचित् प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधि - मनः पर्यय - केवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः सन्ति, इति, पृथक्-पश्य । इमे सूक्ष्मवादरपृथिवीकायारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगः पृथिवीकायारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः । एके पुनः = अन्ये तु - ' वयमगाराः साधवः स्मः' इति साभिमानं प्रवदमानाः ' वयमेव पृथिवीकायजीवरक्षणपरा: महात्रतधारिणः ' इति व्यर्थं जो पुरुष पृथिवीकाय की हिंसा से विरत होते हैं, वेही अनगार हैं । जो उस हिंसा में प्रवृत्त हैं, वे द्रव्यलिंगी है । यह बतलाने के लिए कहते हैं-' लज्जमाणा' इत्यादि । कोई-कोई पुरुष पृथिवीकाय के आरम्भ में अत्यन्त करुणाशील होने के कारण, द्रवित हृदय वाले होने से, संकोच - वृत्ति करते हैं, उन में से कोई-कोई प्रत्यक्षज्ञानी अर्थात् अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी, तथा कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा अनगार हैं, इस प्रकार पृथक्-पृथक्भाव से देखो । अर्थात् उन पुरुषों को देखो जो सूक्ष्म और बादर पृथ्वीकाय का आरम्भ करने में लज्जा करते हैं, त्रस्त होते है, और तीनकरण, तीनयोग से पृथिवीकाय के आरम्भ के त्यागी है । और कोई-कोई ' हम साधु हैं । ऐसा अभिमान के साथ कहते हुए 'हम ही पृथिवीकाय की रक्षा में तत्पर हैं और महाव्रतधारी हैं ' । इस प्रकार वृथा प्रलाप જે પુરૂષ પૃથિવીકાયની હિંસાથી વિરત–નિવૃત્ત થાય છે તેજ અણુગાર છે. મુનિ छेने हिसामां प्रवृत्त छे ते द्रव्यटिंगी छे. ते मताववा भाटे हे छे- 'लज्ज माणा' इत्यादि. કાઈ કાઈ પુરૂષ પ્રથિવીકાયના આરંભમાં અત્યન્ત કરૂણાશીલ ડેવાના કારણે દ્રવિત હૃદયવાળા હોવાથી સ`કાચ-વૃત્તિ કરે છે તેમાંથી કાઈ કાઈ પ્રત્યક્ષજ્ઞાની અર્થાત્ અવિધજ્ઞાની, મન:પર્યંયજ્ઞાની અને કેવલજ્ઞાની અને કાઈ પરાક્ષજ્ઞાની ભાવિતાત્મા અણુગાર છે. પૃથ=પૃથભાવથી જુએ, અર્થાત્ તે પુરૂષોને જુએ કે જે સૂક્ષ્મ અને બાદર પૃથ્વીકાયના આરંભ કરવામાં લજ્જા કરે છે—શરમાય છે–ત્રાસ પામે છે. અને ત્રણ કરણ ત્રણ ચેાગથી પૃથ્વીકાયના આરભના ત્યાગી છે. C અને કાઈ–કાઈ · અમે સાધુ છીએ' એવા અભિમાનની સાથે કહે છે કે-અમે પણ પૃથ્વીકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, અને મહાવ્રતધારી છીએ.' આ પ્રમાણે વૃથા Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे ४४० मलपन्तो द्रव्यलिङ्गिनः सन्ति तान् पृथक-पृथग्भावेन पश्य । (४) वधद्वारं, (५) शस्त्रद्वारं च । इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिङ्गिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शयति यद्=यस्माद् विरूपरूपैः विभिन्नरूपैर्नानाविधैः शस्त्रैः =लोष्ट पाषाणादिभिः स्वकायरूपैः, अग्न्यादिभिः = परकायरूवै हलकुद्दालखनित्रादिभिस्तदुभयरूपैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण=पृथिव्याः कर्मसमारम्भः - पृथिवीकर्मसमारम्भः पृथिवीमाश्रित्य ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धनिबन्धनसारद्यव्यापारः, तेन इमं= पृथिवीकायं विहिंसन्ति । पृथिवीकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु षड्जीवनिकायकरते हुए द्रव्यलिंगी है उन्हें पृथक् देखो । (४) वध और ( ५ ) शस्त्रद्वार अपने आप को अनगार समझने वाले ये द्रव्यलिङ्गी साधु के गुणों में तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते, और न गृहस्थों के किसी कार्य का त्याग करते हैं, यह बात बतलाते हैंये द्रव्यलिङ्गी लोग विभिन्न प्रकार के मिट्टी, पत्थर आदि स्वकाय - शस्त्रों से अग्नि आदि परकाय-शस्त्रों से, हल, कुदाल आदि खोदने के साघनरूप उभयकाय शस्त्रों से पृथिवीकर्मसमारम्भ करते है, अर्थात् पृथिवी के निमित्त से ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मबन्ध का कारण सावध व्यापार करते हैं, और उस से पृथिवीकाय को हिंसा करते हैं । पृथिवीकाय की हिंसा में प्रवृत्त होने वाला पुरुष छहों जीवनिकायों મિથ્યા પ્રલાપ કરનારા દ્રવ્યલિંગી છે. તેને જૂદા જૂદા ભાવથી જુએ. (४) वध अपने (4) शस्त्र द्वार પેાતેજ પેાતાને અણુગાર-સાધુ સમજવાવાળા એ દ્રવ્યલિંગી, સાધુના ગુÌામાં જરા પણ પ્રવૃત્ત થતા નથી. અને ગૃહસ્થાના કાઈ કાર્યના ત્યાગ કરતા નથી. એ वात मतावे छे: એ દ્રવ્યલિંગી લાક જૂદા જૂદા પ્રકારની માટી, પથ્થર આદિ સ્વકાય શસ્ત્રોથી અગ્નિાદિ પરકાય શસ્ત્રોથી હળ, કાદાળી આદિ ખેાઢવાના સાધનરૂપ ઉભયકાય શસ્ત્રોથી પૃથ્વીકસમારંભ કરે છે. અર્થાત્ પૃથ્વીના નિમિત્તથી જ્ઞાનાવરણીય દિ આ પ્રકારના કર્મબંધના કારણુ સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે, અને તેથી પૃથ્વીકાયની હિંસા કરે છે. પૃથ્વીકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થવાવાળા પુરૂષ જીવનિકાચાની હિંસા કરે છે. Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ मू.२ पृथिवीकायसमारम्भः रूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-'पुढवीसत्थं -इत्यादि । पृथिवीशस्त्रम्-पृथिव्युपमर्दकं शस्त्रम्, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रम् , तद् द्विविध-द्रव्य-भाव-भेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्रं-स्वकायपरकायतदुभयरूपम् । भावशस्त्र दुष्पयुक्तमनोवाकायलक्षणम् , समारभमाणाः पृथिवीकार्य प्रति व्यापारयन्तः, अन्यान् पृथिवीकायभिन्नान् अनेकरूपान् अपूकायादीन् स्थावरान् , द्वीन्द्रियादीन् प्रसांश्च विहिंसन्ति । (६) उपभोगद्वारम्जगति खलु बहवो द्रव्यलिङ्गिनो विद्यन्ते, यथा-' वयं पञ्चमहाव्रतधारिणः की हिंसा करता है, यह बतलाने के लिए कहते हैं-'पुढवीसत्थं ' इत्यादि । पृथिवीशस्त्रका अर्थ है-पथिवीकाय की हिंसा करनेवाला शस्त्र । जिस से हिंसा हो वह शस्त्र कहलाता है । शस्त्र दो प्रकार का है-(१) द्रव्यशस्त्र और (२) भावशस्त्र । स्वकाय, परकाय और उभय-स्वपर-कायरूपसे द्रव्यशस्त्र तीन प्रकार का है । मन वचन और कायका दुष्प्रयोग करना भावशस्त्र है। पृथ्वीकाय का आरंभ करनेवाले, पृथिवीकाय से भिन्न अनेक अप्काय आदि स्थावर जीवों की, तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों की भी हिंसा करते हैं । (६) उपभोगद्वारसंसार में बहुत से द्रव्यलिंगी हैं। जैसे-' हम पंचमहाव्रतधारी हैं, सब आरंभ मे मतावा भाटे ४ छ :-'पुढवीसत्थं' त्याहि. પૃથ્વીશ અને અર્થ છે–પૃથ્વીકાયની હિંસા કરવાવાળા શસ્ત્રો જેનાથી હિંસા थ६ श ते शस्त्र पाय छे. शस मे प्रा२ना छे. (१) द्रव्य शस्त्र भने (२) ભાવ-શસ્ત્ર-સ્વકાય, પરકાય, અને ઉભયસ્વ–પરકાયરૂપ દ્રવ્યશસ્ત્ર ત્રણ પ્રકારના છે. મન, વચન અને કાયના દુષ્પગ કરવા તે ભવશાસ્ત્ર છે. પૃથ્વીકાયને આરંભ કરવાવાળા, પૃથ્વીકાયથી ભિન્ન અનેક અપકાય આદિ સ્થાવર જેની તથા શ્રીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવની પણ હિંસા કરે છે. (६) उप -२સંસારમાં ઘણાજ દ્રવ્યલિંગી સાધુ છે. જેવી રીતે “અમે પંચમહાવ્રતધારી Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४४२ आचारागसूत्रे सर्वारम्भपरित्यागिनः पटकायरक्षका अनगाराः (साधवः) स्मः' इति वदन्तो दण्डिशाक्यादयः सन्ति । तत्र केचिद्देहशुद्धयर्थं मृत्तिकास्नायिनो भवन्ति । केचित्स्वनिवासार्थ गृहादिनिर्माणकरणं कुदालखनित्रादिभिः पृथिवीकायमुपमर्दयन्ति । केचित् स्वोदरपूर्त्यर्थं कृष्यादिकर्म कुर्वन्ति । केचिच्च देवकुलाद्यर्थ सावद्यमुपदिशन्ति. पार्थिवीदेव-गुर्वादि-प्रतिमानिर्माणे जीर्णोद्धारकरणे च महाभीमभवसमुद्रादात्मनः समुद्धारो भवतीति मन्यन्ते, वदन्ति च "जिणभवणकारणविही, सुद्धा भूमी दलं च कट्ठाई। भियगाणइसंधाणं, सासयडी य जयणाय ॥९॥....एयस्स फलं भणियं, इय आणाकारिणो उ सङ्घस्स । और परिग्रह के त्यागी हैं, घट्काय के रक्षक साधु हैं'। इस प्रकार कहने वाले दण्डी शाक्य आदि हैं। इन में कोई-कोई तो शरीर की शुद्धि के लिए मिट्टी से स्नान करते हैं । कोई अपने रहने के लिए मकान आदि बनाने में कुदाल खनित्र (कुस) आदि खोदने के साधनों द्वारा पृथ्वीकाय का उपमर्दन करते है । कोई-कोई अपना पेट भरने के उद्देश्य से खेती आदि करते हैं । कोई देवकुल आदि के लिए सावध उपदेश देते है-देव गुरु आदि की पार्थिव प्रतिमा निर्माण कराने से और जीर्णोद्धार कराने से भवसागर से आत्मा का तरना होता है, ऐसा मानते हैं और कहते है कि " जिनभवन बनाने की विधि इस प्रकार है-" शुद्ध भूमि, शुद्ध ईंटें, पत्थर, काष्ठ आदि होना, कार्य करने वाले कारीगरों को प्रसन्न रखना, अपने परिणाम उत्तरोत्तर चढते हुए रखकर यतनापूर्वक कार्य कराना" इत्यादि । . .भगवान की आज्ञाके છીએ. સર્વ આરંભ અને પરિગ્રહના ત્યાગી છીએ, ષકાયના રક્ષક સાધુ છીએ. આ પ્રમાણે કહેવાવાળી દંડી શાકય આદિ છે તેમાં કઈ-કઈ તે શરીરની શુદ્ધિ માટે માટીથી સ્નાન કરે છે. કેઈ પિતાને રહેવા માટે મકાન આદિ બનાવવામાં કેદાળી, કેસ આદિ ખોદવાનાં સાધનો દ્વારા પૃથ્વીકાયનું ઉપમર્દન કરે છે, કઈ-કઈ પોતાનું પેટ ભરવાના ઉદ્દેશથી ખેતી કરે છે કેઈ દેવકુળ આદિને માટે સાવદ્ય ઉપદેશ કરે છે–દેવ, ગુરૂ આદિની પાર્થિવ પ્રતિમા નિર્માણ કરાવવામાં અને જીર્ણોદ્ધાર કરાવામાં ભવસાગરથી આત્મા તરી શકે છે, એવું માને છે અને કહે છે કે – "निभरि मनावानी विधि मा प्रमाणे छ:-शुद्ध भूमि, शुद्ध टो, ५५५२, કાષ્ઠ આદિ જોઈએ. કામ કરવાવાળા કારીગરેને પ્રસન્ન રાખવા, પિતાનાં પરિણામ ઉત્તરોત્તર ચઢતાં રાખીને યતનાપૂર્વક કાર્ય કરવું. ઈત્યાદિ ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક શ્રાવકને Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य.१ उ.२ सू.२ पृथिवीकायसमारम्भप्रयोजनम् ४४३ चित्तं सुहाणुबंध, निव्वाणं तं जिणिदेहिं ॥ ४४ ॥ (पञ्चाशक टीका ७. वि.) " जिणभवणाई जे उद्धरंति भत्तीइ सडियपडियाई। ते उद्धरंति अप्पं, भीमाओ भवसमुद्दाओ ॥" (धर्मसंग्रहटीका २अधि.) छाया-" जिनभवनकारणविधिः-शुध्धा भूमिर्दलं च काष्ठादि । भृतकानतिसन्धानं, स्वाशयवृद्धिश्च (शोभनाशयद्धिः ) यतना च ।। ....एतस्य फलं भणितं, इत्याज्ञाकारिणस्तु श्राद्धस्य । चित्रं सुखानुवन्धं, निर्वाणान्तं जिनेन्द्रः (भणितम् ) ।। ४४ ।। जिनभवनानि ये उद्धरन्ति भक्त्या शटितपतितानि । ते उद्धरन्त्यात्मानं भीमाद् भवसमुद्रात्" इति च ॥ तथैव शास्त्रनिषिद्धे पूजाप्रतिष्ठादिसावद्यकार्ये प्रवृत्त्या द्रव्यलिङ्गिनोऽपि स्वात्मानं मुनिमेव मन्यन्ते । ये पथिवीशस्त्र प्रयुञ्जानाः षड्जीवनिकायआराधक श्रावक को भगवान् ने इस का फल इस प्रकार बताया है-"उसको अनेकानेक सुखों का अनुबन्ध होता है और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है"। (पञ्चाशकटीका ७ वि.) जो पुरुष जीर्ण जिनभवनों का भक्तिसे उद्धार कराते है वे भीम भवसागर से अपनी आत्मा को तारते है " । (धर्मसंग्रहटीका २ अधि.) इसी प्रकार शास्त्रनिषिद्ध पूजा प्रतिष्ठा आदि सावध कार्यों में प्रवृत्ति करके द्रव्यलिंगी भी अपनने आप को मुनि मानते है। आशय है कि-जो लोक पृथिवीशस्त्र का प्रयोग करके षड्जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करते है, और भगवानका नाम लेकर स्वयं खोटी प्ररूपणा करते है अतः वे द्रव्य ભગવાને તેનું ફલ આ પ્રમાણે બતાવ્યું છે-તેને અનેકાનેક સુખોને અનુબંધ થાય छ; मने ५२२५२।थी मोक्षनी प्राति थाय छ.” (पंचाशकटीका ७ वि.) “જે પુરૂષ જીર્ણ થયેલું જિનમંદિર, તેને ભક્તિથી ઉદ્ધાર કરાવે છે તે મહાન सपसागरथी पोताना भान रे छ." (धर्मसंग्रहटीका २ अधि ) આજ પ્રમાણે શાસ્ત્રનિષિદ્ધ પૂજા, પ્રતિષ્ઠા આદિ સાવદ્ય કાર્યોમાં પ્રવૃત્તિ કરીને દ્રવ્યલિંગી પણ પિતે પિતાને મુનિ માને છે. આશય એ છે કે-જે લોક પૃથ્વીશ અને પ્રયોગ કરીને ષડૂજીવનિકાયરૂપ સમસ્ત લોકની હિંસા કરે છે અને ભગવાનનું નામ લઈને પોતે ખોટી પ્રકપણ કરે છે માટે તે વ્યલિંગી છે, સાચા Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ आँचाराङ्गमत्रे रूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ति ते द्रव्यलिङ्गिनो नानगारा इति भावः, उक्तञ्च "सावजा किरिया जेसि, सावज्जा देसणा तहा। भमंति दीहसंसारे, ते सव्वे दवलिंगिणो ॥ १ इति । सू. २ ॥ एवं शाक्यादीनां पृथिवीकायोपमर्दकत्वेन द्रव्यलिङ्गित्वं प्रतिबोधितं भगवतेति जम्बूस्वामिनं सुधर्मा स्वामी कथयति-तत्थे '-त्यादि । ॥ मूलम् ॥ तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइआ, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेजें, से सयमेव पुढविसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा पुढविसत्यं लिंगी है-सच्चे अनगार नहीं है । कहा भी है ___ "जिन की क्रिया सावध है और जिनका उपदेश सावध है, वे दीर्घ संसारमें परिभ्रमण करते है । उन सबको द्रव्यलिंगी जानना चाहिए" | सू. २ ॥ इस प्रकार पृथिवीकाय का उपमर्दन करने वाले होने से शाक्य आदि को भगवान् ने द्रव्यलिंगी कहा है । यह बात सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं-'तत्य खलु' इत्यादि। मूलार्थ-भगवान् ने परिज्ञा का उपदेश दिया है। इसी जीवन के लिएवन्दना, मान और पूजन के लिए, जन्म और मरण से मुक्त होने के लिए, दुःख का नाश करने के लिए वह स्वयं ही पृथिवीकाय का आरंभ करता है, दूसरों से पथिवीकायका आरम्भ कराता है, और पथिवीकायका आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । मगार-साधु नथी. यु छ : જેની ક્રિયા સાવદ્ય છે, અને જેને ઉપદેશ સાવદ્ય છે, તે દી સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. તે સર્વને દ્રવ્યલિંગી જાણવા જોઈએ.” (સૂ) ૨) એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયનું ઉપમન-નાશ કરવાવાળા હોવાથી શાક્ય આદિને ભગવાને દ્રવ્યલિંગી કહ્યા છે. આ વાત સુધર્મા સ્વામી જખ્ખ સ્વામીને કહે છે-“તરથ ઈત્યાદિ, મૂલાર્થ–ભગવાને પરિજ્ઞાને ઉપદેશ આપે છે. આ જીવનને માટે, વંદના, માન અને પૂજન માટે, જન્મ અને મરણથી મુક્ત હોવાના માટે, દુઃખને નાશ કરવા માટે તે પોતે જ પૃથ્વીકાયને આરંભ કરે છે, બીજાથી પૃથિવીકાયને આરંભ કરાવે છે, અને પૃથ્વીકાયને આરંભ કરનાર બીજાને અનુમોદન આપે છે. તે આરંભ તેના Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ मु.३ पृथिवीकायसमारम्भमयोजनम् ४४५ समारंभंते समणुजाणइ । तं से अहियाए, तं से अबोहीए ॥ सू० ३॥ छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं, स स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा पृथिवीशस्त्र समारभमाणान् समनुजानाति । तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अवोधये ॥ सू० ३॥ टीकातत्र-पृथिवीकायसमारम्भे भगवता-श्रीमहावीरेण परिज्ञा-सम्यगववोधः खलु प्रवेदिता-प्रबोधिता । कर्मवन्धसमुच्छेदाथै जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रबोधितमिति भावः । परिज्ञा द्विविधा, ज्ञ-प्रत्याख्यान-भेदात् । 'सावधव्यापार एव कर्मबन्धस्य कारण'-मिति ज्ञानं-ज्ञपरिज्ञा, तद्व्यापारपरित्यागः -प्रत्याख्यानपरिज्ञा । वह आरंभ उसके अहित के लिए और उसको अबोधि के लिए है ॥ सू. ३ ॥ टीकार्थ-पथिवीकाय के समारंभ के विषय में भगवान् श्री महावीर स्वामीने सम्यग्बोधरूप परिज्ञा का सदुपदेश दिया है । तात्पर्य यह है कि-कर्मबन्ध को नष्ट करने के लिए जीव को वह परिज्ञा अवश्य ही स्वीकार करनी चाहिए, ऐसा भगवान्ने कहा है । परिज्ञा दो प्रकार को है--ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा । 'सावद्य व्यापार से ही कर्मबन्ध का कारण होता है' ऐसा जानना ज्ञ-परिज्ञा है, और सावद्यव्यापार का त्याग करना प्रत्याख्यान-परिज्ञा है। महित भाट भने त तनी ममाधि भाटे छ. (3) ટાર્થ–પૃથ્વીકાયના સમારંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ સમ્યગોધરૂપ પરિજ્ઞાને સદુપદેશ આપ્યો છે. તાત્પર્ય એ છે કે –કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીવે તે પરિજ્ઞા અવશ્યજ સ્વીકાર કરવી જોઈએ, એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. પરિજ્ઞા બે પ્રકારની છે. જ્ઞપરિજ્ઞા, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા, “સાવદ્ય વ્યાપારજ કર્મબંધનું કારણ થાય છે. એ પ્રમાણે જાણવું તે જ્ઞ–પરિજ્ઞા છે, અને સાવધ વ્યાપારનો ત્યાગ કરે તે પ્રત્યાખ્યાન-પરિજ્ઞા છે. Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ - आचारागसूत्रे जीवः कस्मै प्रयोजनाय पृथिवीकार्य प्रति सावधव्यापारं करोती ?-त्याह'इमस्स चेवे'-त्यादि । अस्यैव विद्युल्लताविलासवत्क्षणभङ्गरस्य जीवितस्य जीवनस्वार्थे चिरमुखार्थ, प्रासादसदनादिरचनाथ, गमना-गमना-वस्थानो-पवेशन-पाचपरिवर्तन-पुत्तलिकाप्रतिमादिकरणो-चारप्रस्रवणादिकरणो-पकरणादिग्रहणनिक्षेपणाऽऽलेपन-प्रहरण-भूषण-क्रय-विक्रय-कृषिकरण-भाण्डादिनिर्माणाद्यर्थमित्यर्थः । तथा परिचन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थं यथा *आश्चर्यगृहादि जीव किस प्रयोजनके लिये पृथिवीकाय के विषय में सावद्य व्यापार करता है ? सो बतलाते हैं विजली की चमक के समान इस क्षणविनश्वर जीवन के चिरकालीन सुख के उद्देश से महल, मकान आदि का निर्माण कराने के लिए, अथवा गमन, आगमन, अवस्थान (स्थित रहना), उपवेशन (बैठना ), पाश्व-परिवर्तन (पसवाडा बदलना), पुतली बनाना, प्रतिमा बनाना, मल-मूत्र त्यागना, उपकरण आदि ग्रहण करना, रखना, लेपकरना, ग्रहण करना, सजाना, खरीदना, बेचना, खेती करना, तथा वर्तन आदि बनाना, इत्यादि कार्यों के लिए सावद्य व्यापार किया जाता है। इस के अतिरिक्त परिवन्दन मानन और पूजन के लिए भी सावध व्यापार किया जाता है। परिबन्दन अर्थात् प्रशंसा के लिए, जैसे आश्चर्यगृह (आजायव घर) જીવ કયા પ્રયોજન માટે પૃથ્વીકાયના વિષયમાં સાવધ વ્યાપાર કરે છે ? તે मताव छ: વિજલીના ચમકારાની સમાન આ ક્ષણભંગુર જીવનના ચિરકાલીન (લાંબા સમય સુધી) સુખના ઉદ્દેશથી, મહેલ મકાન આદિ બનાવવાને માટે, અથવા ગમન, मागमन, भवस्थान, (स्थित २) उपवेशन, (मेस) पाव-परिपत्तन, (५७माબદલવાં) પુતલી બનાવવી, પ્રતિમા બનાવવી, મલ-મૂત્ર ત્યાગ કરે; ઉપકરણ આર્ણિ अडएर ४२j, राम, ५ ४२वी, प्रड२९५ ४२, सन्त, मशह, वेय, मता કરવી તથા વાસણ બનાવવાં, ઈત્યાદિ કાર્યોને માટે સાવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં આવે છે. તે સિવાય પરિવંદન માન અને પૂજન માટે પણ સાવદ્ય વ્યાપાર કરવામાં આવે છે. પરિવન્દન અર્થાત્ પ્રશંસા માટે જેમ આશ્ચર્યગૃહ-(અજાયબ ઘર) આદિ બનાવવામાં * आश्चर्यगृहम्-'म्युझियम' 'अजायवघर' इति भाषाप्रसिद्धम् । Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ २.३ पृथिवीसमारम्भप्रयोजनम् ४४७ करणे, माननं-जनसत्कारः, तदर्थ, यथा-कीर्तिस्तम्भादिकरणे पूजन वस्त्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, यथा-शिल्पिनां राजदेवप्रतिमादिरचने । जातिमरणमोचनाय-जातिः जन्म, तदर्थ भवान्तरसुखप्राप्त्यर्थं देवकुलादिकरणे, मरणं मरणं येषां जातं तदर्थं मृतपित्रादिस्मरणार्थमित्यर्थः, यथा स्तूपचैत्यादिकरणे, मोचनं मुक्तिस्तदर्थ, यथा-देवभवनप्रतिमादिकरणे । यद्वा जातिमरणमोचनाय जन्ममरणविमुक्तये । तथा दुःखमतिघातहेतु-दुःखविध्वंसार्थ, यथाआदि बनवानेसे प्रशंसा होती है। मानन अर्थात् जनताद्वारा मिलने वाला सत्कार । उस सत्कार के लिए कीर्तिस्तम्भ ( मेमोरियल ) आदि बनवाकर समारम्भ करते हैं। पूजन का अर्थ हैवस्त्र या रत्न आदि का पुरस्कार पाना । जैसे शिल्पी लोग पुरस्कार पाने के उद्देश्य से राजा या देवता की प्रतिमा बनाते हैं। जन्म, मरण और मुक्ति के लिए भी पथिवीकायका समारम्भ किया जाता है । जन्म के लिए जैसे भवान्तर में सुख पाने के लिए देवकुल आदि का निर्माण कराने में और मृत्यु के लिए असे मृत पिता आदि का स्मारक (स्तूप-चैत्य) बनवाने में, और मोचन के अर्थात् मुक्ति के लिए देवभवन एवं उनकी प्रतिमा बनवाने में, अथवा जन्म-मरणमोचन का अर्थ है-जन्म और मरणसे मुक्त होना, उस के लिए पृथ्वीकाय का समारम्भ करते है। तथा दुःखका नाश करने के लिए भी पृथ्वीकाय का समारम्भ करते है, जैसे આરંભ કરે છે. માનન અર્થાત જનતા દ્વારા મળવાવાળે સત્કાર, તે સત્કાર માટેકીર્તિસ્તંભ (મેમોરિયલ) આદિ બનાવીને સમારંભ કરે છે. પૂજનને અર્થ છે-વસ્ત્ર અથવા રત્ન આદિને પુરસ્કાર પ્રાપ્ત કરે તે માટે શિલ્પીલોગ રાજાની કે દેવતાની પ્રતિમા બનાવવામાં સમારંભ કરે છે. જન્મ મરણ મેચન (મૂકાવવા) માટે પણ પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરવામાં આવે છે. જન્મના માટે જેમ ભવાતરમાં સુખ પ્રાપ્ત કરવા માટે દેવકુલ આદિના નિર્માણ કરાવવામાં, અને મૃત્યુ માટે જેમ મૃત પિતા આદિનું સ્મારક તૃપ-ચૈત્ય બનાવવામાં, મેચન અર્થાત મુક્તિને માટે દેવભવન એવું તેની પ્રતિમા બનાવવામાં, અથવા જન્મ– મરણ–મેચનને અર્થ છે–જન્મ અને મરણથી મુક્ત થવું તે માટે પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરે છે. તથા દુઃખને નાશ કરવા માટે પણ પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરે છે, જેમ-ગ્રીષ્મના Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ आचारागसूत्रे ग्रीष्मतापादिनिवारणार्थ, स्वचक्रपरचक्रभयनिथै च भूमिगृहप्राकारादिरचने । सः जीवनपरिवन्दनमाननपूजनाद्यर्थ जनः स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते-पृथिव्युपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्र व्यापारयति । अन्यैर्वा पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति-उद्योजयति पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् समनुजानातिअनुमोदयति । एममतीतानागताभ्यां, तथा मनोवाकायैश्च पृथिवीशस्त्रसमारभ्भभेदा अवगन्तव्याः । (७) वेदनाद्वारम्पृथिवीशस्त्रं समारममाणः किं फलं प्रामोतीत्याह-'तं से अहियाए' इत्यादि। ग्रीष्म के ताप से बचने के लिए, अथवा स्वचक और परचक्र के भयकी निवृत्ति, के लिए, भोहरा या चहारदीवारी ( प्रकोटा) बनवाना । इस प्रकार जीवन परिवन्दन मानन और पूजन आदि के लिए मनुष्य स्वयं ही पृथ्वीशस्त्रका समारम्भ करता है अर्थात् थिवी का घात करने वाले द्रव्य और भावशस्त्र का व्यापार करता है और पथिवीशस्त्र का प्रयोग करने करानेवाले दूसरो का अनुमोदन करता है । इस प्रकार अतीत और अनागत से तथा मन, वचन और कायसे पथिवीशस्त्र के आरम्भ के भेद समझलेने चाहिए. (७) वेदनाद्वारथिवीशस्त्र का आरम्भ करनेवाला क्या फल पाता है ? सो कहते हैं-'तं से अहियाए' इत्यादि । તાપથી બચવા માટે અથવા સ્વચક અને પરચક્રના ભયની નિવૃત્તિ માટે ભોયરા અથવા કેટ બનાવવા. આ પ્રમાણે જીવન, પરિવંદન, માનન, અને પૂજન આદિ માટે મનુષ્ય પોતેજ પૃથ્વી–શસ્ત્રને સમારંભ કરે છે. અર્થાત પૃથ્વીને ઘાત કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવે શસ્ત્રના વ્યાપાર કરે છે. તથા બીજા પાસે પૃથ્વીશસ્ત્રને વ્યાપાર કરાવે છે. અને પૃથ્વીશ અને પ્રવેગ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. આ પ્રમાણે અતીત અને અનાગત (ભૂત-ભવિષ્ય)થી તથા મન, વચન અને કાયાથી પૃથ્વી શસ્ત્રના આરંભના ભેદેને સમજી લેવા જોઈએ. (७) वहनाद्वारपृथ्वीशलना न्यारा ४२वावा शं ३ पामे छ१ ते ४ -'तं से अहियाए, त्याहि. Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.२ सू. ३ पृथिवीसमारम्भफलम् ४४९ तत्-पृथिवीकायसमारम्भणं तस्य पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य अहिताय अकल्याणाय भवतीति शेषः । तत्-तदेव च पृथिवीकायसमारम्भणमेव च तस्य पृथिवीशस्त्र समारभमाणस्य अबोधये सम्यक्त्वालाभाय, जिनधर्मप्राप्त्यभावाय च भवति । पृथिवीका यसमारम्भणं हि कृतकारितानुमोदितभेदेन त्रिविधं, तस्यातीतवर्तमानानागत भेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये नवधा भवति, नवविधस्यापि पृथिवीकायसमारम्भणस्य मनोवाकाययोगभेदेन प्रत्येकं त्रैविध्ये सप्तविंशतिभङ्गा भवन्ति । एवंविधपृथिवीकायसमारम्भप्रवृतः खलु षट्कायारम्भसंपातजन्यघोरतरदुरितार्जनेन दुरन्तसंसारदावानलज्वालान्तःपातं प्राप्यानन्तनरकनिगोदादिदुःखमनुभवन् न कदाचित्कल्याणं शाश्वतसुखप्रदं मोक्षमार्ग प्राप्नोतीति भावः ॥३॥ ___ वह पृथिवीकाय का आरंभ, आरंभ करने वाले के अहित के लिए और अबोधि के लिए होता है । अर्थात् आरंभ करने से सम्यक्त्व और जिनधर्म की प्राप्ति नहीं होती है । पृथिवीकाय का आरंभ-करना, कराना, और अनुमोदन के भेद से तीन प्रकार का है । इन तीनों भेदों के अतीत वर्तमान और अनागत के भेद से तीन-तीन भेद करने पर आरम्भ नौ प्रकार होता है । इन नौ भेदों का मन, वचन, और काय से गुणाकार कर देने पर सत्ताईस भेद हो जाते हैं। इस प्रकार के पथिवीकाय के समारम्भ में प्रवृत्त पुरुष छहों कायो का आरम्भ करता है और अत्यन्त घोर पाप उपार्जन करके दुरन्त संसाररूपी दावानलकी ज्वालाओं में पडकर नरक निगोद आदि के दुःख भोगता हुआ न कभी कल्याण की प्राप्ति करता है और न शाश्वत सुख देनेवाले मोक्षमार्ग को पाता है ॥ ३ ॥ તે પૃથ્વીકાયનો આરંભ કરવાવાળાના અહિત માટે અને અબાધિને માટે હોય છે. અર્થાત્ આરંભ કરવાથી સમ્યક્ત્વ અને જિન ધર્મની પ્રાપ્તિ થતી નથી. પૃથ્વીકાયને આરંભ-કર, કરાવે અને કરવાવાળાને અનુમોદન આપ વગેરેના ભેદથી ત્રણ પ્રકારનો છે, એ ત્રણેય ભેદેના ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ અને વર્તન માનકાળના ભેદથી ત્રણ ત્રણ ભેદ કરવાથી આરંભ નવ પ્રકારનું છે. એ નવ ભેદને મન, વચન અને કાયા, આ ત્રણથી ગુણવા વડે કરી સત્તાવીશ ભેદ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્ત પુરૂષ છે કાને આરંભ કરે છે, અને અત્યન્ત ઘોર પાપ ઉપાર્જન કરીને દુરન્તસંસારરૂપી દાવાનલની જવાલાઓમાં પડીને, નરક-નિગોદ આદિના ખ ભેગવતાં કઈ વખત પણ કલ્યાણની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી, અને શાશ્વત સુખ દેવાવાળા મોક્ષમાર્ગને પણ પ્રાપ્ત થતા નથી. (૩) प्र. मा.-५७ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० आचारागसूत्रे (८) निवृत्तिद्वारम् येन तु तीर्थकरादीनां समीपे पृथिवीकायजीवस्वरूपं जातं स एवं विजानातीत्याह-'से तं संबुज्झमाणे' इत्यादि । ॥सूलम् ॥ से तं संवुल्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणं अंतिए । इह मेगे सिंणायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे. एस खलु णरए, इञ्चत्थं, गढिए लोए जमिणं यिख्वस्वेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ॥ मू. ४ ॥ छायास तत् संवुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणामन्तिके इढेकपां ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एप खलु मोहः, एप खलु मारः, एप खलु नरका, इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः पथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्रणान् विहिंसति ॥ मू. ४॥ (८) निवृत्तिद्वारजिसने तीर्थंकर आदिके समीप में पथिवीकाय के जीवों का स्वरूप जान लिया है. वह इस प्रकार जानता है—'से तं.' इत्यादि । मृलार्थ-जो पुरुष तीर्थंकर भगवान् के अथवा अनगारों के निकट उपदेश सुनकर समझता है और उपादेय ( चारित्र ) को अङ्गीकार करके विचरता है उसे ज्ञात हो जाता है कि पथिवीकायका यह आरंभ ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । इस में आसक पृथ्वीशन का आरंभ, करने वाला लोक तरह-तरह के शास्त्रों से पृथ्वीकायका आरंभ करक अन्य अनेक प्रकार के प्राणीकी हिंसा करता है । सू. ४ ॥ (2) निवृत्तिार જેણે તીર્થંકર આદિના સમીપમાં પૃથ્વીકાયના જીનું સ્વરૂપ જાણી લીધું છે, ते मा प्रमाणे नए छ-' से तं.' त्यादि. મુલાથ–જે પુરૂષ તીર્થકર ભગવાનની અથવા અણુગારોની સમીપ ઉપદેશ સાંભળીને સમજે છે, અને ઉપાદેય (ચારિત્ર)ને અંગીકાર કરીને વિચરે છે; તેને માલુમ પડે છે કે પૃથ્વીકાયનો આરંભ એ ગ્રંથ છે, એ મોહ છે, એ માર છે, એ નરક છે, એમાં આસક્ત પૃથ્વીશ અને આરંભ કરવાવાળા જાત-જાતના શસ્ત્રથી પૃથ્વીકાયની આરંભ કરીને અન્ય અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે (૪) Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.२ मू. ४ पृथिवीसमारम्भफलम् ४५१ ॥ टीका ॥ यः खलु भगवतः तीर्थंकरस्य, अनगाराणाम्सदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानाम्, अन्तिके समीपे, श्रुत्वा-उपदेशं निशम्य, आदानीयम्, उपादेयं सर्वसावद्ययोगपरित्यागरूपं चारित्रं समुत्थाय अङ्गीकृत्य विहरति, स तत्-पृथिवीकायसमारम्भणम् संवुध्यमानः अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवतीति । स हि एवं विचारयति-इह मनुष्यलोके एकेषां श्रमणनिर्ग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव ज्ञातं-विदितं भवति । किं ज्ञातं भवती ?त्याकाङ्क्षायामाह-'एस खलु गंथे'. इत्यादि । एषः पृथिवीशस्त्रसमारम्भः खलु-निश्चयेन प्रन्यायथ्यते बध्यतेऽनेनेति ग्रन्थः अष्टविधकर्मबन्धः । कारणे कार्योपचारात् पृथिवीशस्त्रममारम्भस्य टीकार्थ-जो भगवान् तीर्थकर के या उनके निर्गन्थ श्रमणों के समीप उपदेश सुनकर उपादेय को अर्थात् सर्वसावद्ययोग के त्यागरूप चारित्र को अङ्गीकार करके विचरता है वह पृथ्वीकायके समारभ को अहितकर और अबोधिजनक समझता है । वह इस प्रकार विचार करता है-इस मनुष्य लोक में श्रमण निर्ग्रन्थों के उपदेश से जिन्हें सम्यगूज्ञान और वैराग्य हो गया है उन आत्मार्थी पुरुषो को ही ज्ञात होता है। उन्हें क्या ज्ञात होता है ? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते है-' एस खलु गंथे.' इत्यादि । यह पृथ्वीकाय का समारम्भ निश्चय ही ग्रंथ है अर्थात् आठ प्रकार के कर्मोका बंध है। कारण में कार्यका उपचार करके पृथिवीकाय के समारम्भ को यहाँ ग्रन्थ कहा है। ટીકાથ–જે ભગવાન તીર્થકરની અથવા તેના નિર્ગસ્થ શ્રમણોની સમીપ ઉપદેશ સાંભળી ઉપાદેયને અર્થાત્ સર્વસાવદ્યાગના ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે પૃથ્વીકાયના સમારંભને અહિતકર અને અબોધિજનક સમજે છે. તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કે –આ મનુષ્ય લોકમાં શ્રમણ નિર્ચન્થોના ઉપદેશથી જેને સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય થઈ ગયો છે તે આત્માથી પુરૂષને જ જાણવામાં હોય છે. तेशुलवामा डाय छ ? सवा At थतi ४ छ-'एस खलु गंधे 'त्यादि આ પૃથ્વીકાયને સમારંભ નિશ્ચય ગ્રંથ છે. અર્થાત્ આઠ પ્રકારના કર્મોનો બંધ છે. કારણમાં કાર્યનો ઉપચાર કરીને પૃથ્વીકાયના સમારંભને અહિં ગ્રંથ કહ્યો છે. આશય એ છે કે – Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ आचाराङ्गसूत्रे ग्रन्थरूपत्वम्, एवमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा एप एव पृथिवीसमारम्भः मोहा-विपर्यासः, विपरीतज्ञानरूपः । तथा-एष एव मार:-मरणम् निगोदादिमरणरूपः । तथा-एष खलु नरकः नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम् एतदर्थ कर्मवन्ध-मोह -मरण-नरकरूपं घोरं दुःखकलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोकः अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धः लिप्सुरस्ति । यद्वा गृद्धा विषयभोगासक्तः लोकः संसारी जीवः इत्यर्थ एतदर्थमेव-कर्मवन्धमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तते । __यद्यपि-विषयभोगासक्तो लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थ परिवन्दनमाननपूजनार्थं जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थं च पृथिवीशस्त्रसमारम्भं करोति आशय यह है कि आरंभ-ग्रन्थ (बंध) का कारण होने से ग्रन्थ कहा गया है । इसी प्रकार का उपचार आगे के कथन में भी समझ लेना चाहिए । __ यह पृथिवीकायसमारंभ मोह अर्थात् विपर्यास है-विपरीत ज्ञानरूप है, तथा यही आरम्भ, निगोद आदि मरणरूप है । तथा यही आरंभ नरक है अर्थात् नारकी जीवों के लिए दश प्रकार की क्षेत्र वेदनाओं का स्थान है । इस समारंभ के कारण कर्मबंध, मोह, मरण एवं नरकरूप घोर दुःखमय फल प्राप्तकर के भी अज्ञानी लोग बार-बार इसी की इच्छा करते हैं । अथवा संसारी जीव विषयभोगों में आसक्त होता है अर्थात् कर्मबन्ध, मोह, मरण और नरक के लिए ही अज्ञानी जीव प्रवृत्ति करते है। विषयभोगों में आसक्त जीव यद्यपि शरीर आदि को पुष्ट करने के लिए परिवन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दु.ख का આરંભ-ગ્રંથ (બંધ)નું કારણ હોવાથી ગ્રન્થ કહ્યો છે, આ પ્રમાણેને ઉપચાર આગળના કથનમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ પૃથ્વીકાય-સમારંભ મોહ અર્થાત્ વિપર્યાસ છે, વિપરીતજ્ઞાનરૂપ છે, તથા એ આરંભ નિગદ આદિ મરણરૂપ છે. તથા એ આરંભ નરક છે અર્થાત્ નારકીના જ માટે દસ પ્રકારની ક્ષેત્ર વેદનાઓનું સ્થાન છે. આ સમારંભના કારણે કર્મબંધ, મેહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘેર દુઃખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લાક વારંવાર તેની ઈચ્છા કરે છે. અથવા સંસારી જીવ વિષયભેગમાં આસક્ત થાય છે, અર્થાત્ કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરકના માટે જ અજ્ઞાની જીવ તેમાં પ્રવૃત્તિ કરે છે. વિષયોમાં આસક્ત જીવ હજી પણ શરીર આદિને પુષ્ટ કરવા માટે પરિવંદન, માનન, અને પૂજનને માટે, જન્મ મરણથી મુક્ત થવા માટે દુઃખને નાશ કરવા માટે, Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. ४ पृथिवीसमारम्भफलम् ४५३ तथापि तत्फलं कर्मबन्धमोहमरणनरकरूपमेव लभन्ते, अतः पृथिवीकर्मसमारम्भस्य तदेव फलं भवतीति भावः । इत्यर्थमिति प्रयोगस्तु यथा-अयं संसारी लोको जायते मरणायैव, म्रियते च जननायैव, इति, तद्वत् । लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव लिप्मुरस्ति, तदर्थमेव प्रवर्तते वा, इति प्रतिज्ञायां हेतुमाह-'जमिणं'. इत्यादि । यद्-यस्मात्-विरूपरूपैः = नानाविधैः शास्त्रः स्वकायपरकायतदुभयरूपैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण=पृथिव्युपमर्दकसावधब्यापारकरणेन, यद्वा-पृथिवीकायमुदिश्याष्टविधकर्मसमुत्पादकसावधव्यापारण, इमं = पृथिवीकार्य विहिनस्ति, विनाश करने के लिए, 'पृथिवीशस्त्र का आरंभ करता है तथापि इस आरंभ का फल उसे कर्मबन्ध, मोह, मरण और नरक के रूप में ही मिलता है । अत एव आशय यह है कि कोई किसी भी अभिलाषा से पृथिवीकायका आरंभ करे मगर फल तो वही कर्मबंध आदि ही होगा। (इच्चत्थं ) इस का प्रयोग यह बतलाने के लिए किया गया है-यह संसारी जीव उत्पन्न होता है मरने के लिए और मरता है जनमने के लिए, इसी प्रकार यह प्रयोग है। लोक बारम्बार कर्मबंध आदि के लिए ही अभिलाषी है, अथवा-कर्मबंध के लिए ही प्रवृत्ति करता है । इस प्रतिज्ञा में हेतु कहते है-'जमिणं.' इत्यादि। जिस कारण से गृद्ध (आसक्त) लोक नाना प्रकार के शस्त्रों से-स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप शस्त्रों से-पृथिवीकाय का समारंभ करके अर्थात् पृथिवीकाय की हिंसा करने वाला सावध व्यापार करके, अथवा पृथिवीकाय के निमित्त से आठों कर्म-जनक सावध પૃથ્વીશસ્ત્રને આરંભ કરે છે તે પણ તે આરંભનું ફળ તેને કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરકના રૂપમાંજ મળે છે. એ માટે આશય એ છે કે કેઈ કાંઈ પણ અભિલાષાથી પૃથ્વીકાયને આરંભ કરે પરતુ ફળ તે તે કર્મબંધ આદિજ થશે. 'इच्चत्थं' सनी प्रयोग से तावा भाटे, ध्यो छे है मा संसारी 46त्पन्न થાય છે મરવાને માટે, અને મરે છે તે જન્મ લેવા માટે, આ પ્રમાણે એ પ્રયોગ છે. લોક વારંવાર કર્મબંધ આદિ માટેજ અભિલાષી છે. અથવા કર્મબંધ માટેજ प्रवृत्ति ४२ छ. २ प्रतिज्ञामा हेतु ४९ छ-'जमिणं'. त्याहि. જે કારણથી ગૃદ્ધ આસકત કે નાના પ્રકારના શસ્ત્રોથી–સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય રૂપ શસ્ત્રોથી–પૃથ્વીકાયને સમારંભ કરીને અર્થાત્ પૃથ્વીકાયની હિંસા કરવાવાળા સાવધ વ્યાપાર કરીને અથવા પૃથ્વીકાયના નિમિત્તથી આઠ કર્મોને ઉત્પન્ન કરનાર સાવદ્ય વ્યાપારથી Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे ખ छिनत्ति, भिनत्ति, प्राणरहितं करोति गृद्धो लोक इत्यादि । तथा पृथिवीशस्त्र = पृथिव्युपमर्द्दकं शस्त्र स्त्रकायपरकायतदुभयरूपं समारभमाण. =व्यापारयन् अन्यान्= अपकायादीन् अनेकरूपान् = त्रसान् स्थावरांश्च प्राणान=प्राणिनो विहिनस्ति । पृथिवी का यहिंसया पड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव मणिहन्तीति घोरतरं दुरितं कुर्वन् पुनः पुनः कर्मबन्धादिनरकान्तं प्राप्यापि तदर्थमेव प्रवर्त्तते न पुनर्मोक्षायेति भावः ॥ सु. ४ ॥ ननु पृथिवीकायजीवानां श्रोत्रनेत्रघाणरसनेन्द्रियाणि न सन्ति, नापि मनस्तेषां कथं तर्हि दुःखवेदना संभवति ? ततश्च पृथिवीकायसमारम्भिणां व्यापार से इस पृथिवीकाय का हनन करता है, छेदन करता है, भेदन करता है, उसे प्राणहीन बनाता है | तथा पृथिवीकाय के स्वकाय, परकाय, और उभयकायरूप शस्त्रों का उपयोग करता हुआ अकाय आदि अनेक त्रस स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । 1 तात्पर्य यह है कि - पृथिवीकाय की हिंसा के द्वारा समस्त षड्जीवनिकायरूप लोक की हिंसा करता है । इस प्रकार अत्यन्त घोर पाप करता हुआ बारबार कर्मबंध करता है और यहाँ तक कि नरक को प्राप्त करके भी नरक के लिए ही प्रवृत्ति करता है, मोक्ष के लिए नहीं ॥ सू. ४ ॥ पृथिवीकाय के जीवों में श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसना - इन्द्रिय और मन नहीं है, फिर उन्हें दुःख का अनुभव कैसे हो सकता है ? में पृथिवीकाय का आरंभ करनेवालों को कर्मबंध क्यों होता है ? इस और ऐसी अवस्था 2 शंका का समाधान આ પૃથ્વીકાયના ઘાત કરે છે. છેદન કરે છે. ભેદન કરે છે, તેને પ્રાણહીન મનાવે છે. તથા પૃથ્વીકાયના સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ શસ્ત્રોના ઉપયોગ કરતા થકા અકાય આદિ અનેક ત્રસ-સ્થાવર પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે પૃથ્વીકાયની હિંસા દ્વારા સમસ્ત ષડૂજીવનિકાયરૂપ લેાકની હિંસા કરે છે. આ પ્રમાણે અત્યન્ત ઘેર પાપ કરીને વારવાર કર્મબંધ કરે છે. અને ત્યાં સુધી કે નરકને પ્રાપ્ત કરીને પશુ નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે, મેાક્ષ માટે १२ता नथी. (४) પૃથ્વીકાયના જીવામાં શ્રોત્રેન્દ્રિય, ચક્ષુરિન્દ્રિય, ઘ્રાણેન્દ્રિય, રસના-ઇન્દ્રિય અને મન નથી, તે પછી તેને દુઃખના અનુભવ કેવી રીતે થઈ શકશે ? અને એવી અવ સ્થામાં પૃથ્વીકાયના આરંભ કરવાવાળાને કખ ધ કેમ થઇ શકશે ? આ શ ંકાનુ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. ४ पृथिवीजीवसिद्धिः कथं कर्मवन्धः ? इति जिज्ञासायामाह-' से वेमि.' इत्यादि । (मूलम) से बेमि-अप्पेगे अंधमब्भे, अप्पेगे अंधमच्छे, अप्पेगे पायमन्भे, अप्पेगे पायमच्छे. अप्पेगे गुंफमन्भे२, अप्पेगे जंघमब्भे२, अप्पेगे जाणुमन्भे२, अप्पेगे उकमब्भे२, अप्पेगे कडिमब्भे२, अप्पेगे णाभिमभे२, अप्पेगे उयरमन्भे२, अप्पेगे पासमब्भे२, अप्पेगे पिटिममे२, अप्पेगे उरमब्भे२, अप्पेगे हिययमन्भे२, अप्पेगे थणमन्भे२, अप्पेगे खंधमन्भे२, अप्पेगे बाहुमब्भे२, अप्पेगे हत्थमन्भे२, अप्पेगे अंगुलिमन्भे२, अप्पेगे णहमभे२, अप्पेगे गीबामन्भे२, अप्पेगे हणुयमन्भे२, अप्पेगे होट्ठमन्भे२, अप्पेगे दंतमब्भे२, अप्पेगे जीहमन्भे२, अप्पेगे तालुमब्भे२, अप्पेगे गलमब्भे२, अप्पेगे, गंडमब्भे२, अप्पेगे कन्नमन्भे२, अप्पेगे णासमभे२, अप्पेगे अच्छिमब्भे२, अप्पेगे भमुहमभे२, अप्पेगे णिडालमब्भे२, अप्पेगे सीसमन्भे, अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए ॥ सू. ५॥ (छाया) ___ अथ बीवीमि-अप्येकः अन्धमाभिन्द्यात् अप्येकः अन्धमाच्छिन्द्यात् । अप्येकः पादमाभिन्द्यात्, अप्येकः पादमाच्छिन्द्यात् । अप्येकः गुल्फमाभिन्द्यात्२, अप्येकः जङ्घामाभिन्द्यात्२, अप्येकः जानु आभिन्द्यात्२, अप्येकः उरु आभिन्द्यात् २, अप्येकः कटिमाभिन्द्यात्२, अप्येकः नामिमाभिन्द्यात् २, अप्येकः उदरमाभिन्द्यात्२, अप्येकः पार्श्वमाभिन्द्यात्२, अप्येकः पृष्टिमाभिन्द्यात्२, अप्येकः उर आभिन्द्यात्२, अप्येकः करने के लिए सूत्र कहते हैं:-‘से बेमि.' इत्यादि । मूलार्थ-मै कहता हूँ-कोई अन्धे को भेदे, कोई अंधे को छेदे, कोई पैर को भेदे कोई पैर को छेदे, कोई गुल्फ को भेदे छेदे, कोई पिण्डी को भेदे छेदे, कोई घुटने को भेदे, छेदे, कोई जांघ को भेदे छेदे, कोई कमर को भेदे छेदे, कोई नाभि को भेदे छेदे, * कोई पेट को भेदे छेदे, कोई, पसवाडे को भेदे छेदे, कोई पीठ को भेदे छेदे, कोई छाती समाधान ४२१॥ भाट सूत्र ४ छ:-' से बेमि.' याह. મૂલાથ– હું કહું છું કોઈ આંધળાને ભેદન કરે, કઈ આંધળાને છેદન કરે, કોઈ પગને કાપે, કેઈ પગને છેદે કોઈ ગુફ-(ઘુંટી)ને ભેદે, છેદે, કઈ પડીને ભેદે, છેદે, કઈ ઘુટણને ભેદે છેદે, કોઈ જાંઘને ભેદે છેદે કેઈકમરને ભેદે છેદે કેઈનાભિ(ડુંટી)ને ભેદે છેદે કઈ પેટને ભેદે છેદે, કઈ પાંસળીઓને ભેદે છેદે કેઈપીઠને ભેદે છે, કેઈ-છાતીને ભેદે છેદે કઈ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ आचाराङ्गमुत्रे हृदयमा भिन्द्यात्र, अप्येकः स्तनमाभिन्द्यात्र, अप्येकः स्कन्धमाभिन्द्यात्र, अप्येकः बाहुमाभिन्द्यात्२, अप्येकः हस्तमाभिन्द्यात्, अप्येकः अङ्गुलिमाभिन्द्यात् २, अप्येकः नखमाभिन्द्यात्र, अप्येकः ग्रीवामाभिन्द्यात्र, अप्येकः हनु आभिन्द्यात् २, अप्येकः ओष्ठमाभिन्द्यात्र, अप्येकः दन्तमाभिन्द्यात् २, अप्येकः जिह्वामाभिन्द्यात्२, अप्येकः ताल आभिन्द्यात्र, अप्येकः गलमाभिन्द्यात्र, अप्येकः गण्डमाभिन्द्यात्र, अप्येकः कर्णमा भिन्द्यात्र; अप्येकः नासामाभिन्द्यात्२, अप्येकः अक्षि आभिन्द्यात् २, अप्येकः माभिन्द्यात्२, अप्येकः ललाटमाभिन्द्यात्र, अप्येकः शीर्षमाभिन्द्यात् २, अप्येकः संप्रमारयेत्, अध्येकः उपद्रावयेत् ॥ सू. ५ ॥ " " को भेदे छेदे, कोई हृदय को भेदे छेदे, कोई स्तन को भेदे छेदे, कोई बाहु को भेदे छेदे, कोई हाथ को भेदे छेदे, कोई नख को भेदे छेदे, कोई गर्दन को भेदे छेदे, भेदे छेदे, कोई होठ को भेदे छेदे, कोई दांत को भेदे छेदे, कोई तालु को भेदे छेदे, कोई गले को भेदे छेदे, कोई भेदे छेदे, कोई कान को भेदे छेटे, कोई नाकको भेदे छेदे, कोई कोई भौंह को भेदे छेदे, कोई ललाट को भेदे छेदे, कोई सिरको भेदे छेदे, कोई मारकर बेहोश कर दे; या कोई मार ही डाले, इस प्रकार इन्द्रियबलहीन होने पर भी उसे वेदना का अनुभव होता ही है ।। सू. ५ ॥ भेदे छेदे, कोई कन्धे को छेदे, कोई उगली को भेदे कोई हनु ( डाढी-ठोडी) को छेदे, कोई जीभ को भेदे, गंडस्थल ( कनपटी ) को आंख को भेदे छेदे, હૃદયને ભેદે છેકે, કોઈ સ્તનને ભેદે છેદે, કાઈ કાંધને ભેદે છેજે, કોઈ બાહુને ભેદ છેકે, કાઈ हाधने लेहे-छेहे, अर्ध सांगलीने लेहे-छेडे, अर्ध नमने लेहे-छेहे, अर्ध गर्छनने लेहे छे छे, કોઈ ડાઢીને ભેદે છેઢે, કેાઈ હોઠને છેદે ભેદે, કાઈ દાંતને ભેદે છેઢે, કેાઈ જીભને ભેદે છેદે, अर्ध तालु-(ताजवा) ने लेटे-छेटे, अर्ध गजाने लेहे-छेहे, अर्ध गंडस्थल (सभा) अनपटीने लेहे-छेहे, अर्ध अनने लेहे छेडे, अर्ध नाउने लेहे छेडे, अर्ध मांगने लेहे-छेद्दे, अर्ध लंभरने लेहे-छेहे, अर्थ ससाटने लेहे छेडे, अर्ध शिरने लेटे-छेहे, કાઈ મારીને મેહેાશ કરી દે, અથવા કેાઈ મારીજ નાંખે, આ પ્રમાણે ઇન્દ્રિયખલહીન હોવા છતાં પણ તેને વેદનાને અનુભવ થાય છે. (૫) Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ म्. ५ पृथिवीजीवसिद्धिः ४५७ ॥टीका ॥ 'से बेमि' इत्यादि । अथेति प्रतिवाक्यप्रारम्भद्योतनाय । ब्रवीमि पृथिवीकायस्य वेदनाविषये कथयामि । यथा-एकः कश्चित् अन्ध-जन्मान्धं आभिन्द्यात्, तथा एकः अपरः कश्चित् अन्धमपि आछिन्द्यात् । अत्र अन्धमित्युपलक्षणं, बधिरमूकपगुप्रभृतीनाम् । यः खलु जन्मान्धो जन्मवधिरो जन्ममूको जन्मपर्मंगापुत्रवत्करचरणाद्यवयवविभागरहितः पूर्वभवार्जिताशुभकर्मोंदयात् स्वहितप्राप्त्यहितपरिहाराक्षमोऽतिदयनीयदशामुपगतः। एवंविधजन्मान्धादिकं कश्चित् कठोरहदयो निर्दयतयाऽतिनिशितभल्लादिना भिनत्तिचेत्, सुतीक्ष्णपरशुकुठारादिना छिनत्ति चेत्तदाऽसौ स्वाङ्ग भेदनच्छेदनसमये भेदकं छेदकं न टीकार्थ-'अथ' शब्द नया वाक्य आरंभ करने को प्रकट करता है-'कहता हूं अर्थात् पृथिवीकाय की वेदना के विषय में कहता हूँ । जैसे-कोई पुरुष अंधे अर्थात् जन्म से अंधे को भेदे छेदे । यहाँ 'अंध' पद उपलक्षण है, उस से बहिरा, मूंगा, लंगडा, आदि भी ग्रहण कर लेना चाहिए। जो जीव मृगालोढक की तरह जन्मान्ध है, जन्म से बहिरा है, जन्म से मूंगा है, जन्म से लंगडा है, हाथ-और आदि विभिन्न अवयवों का जिस के शरीर में भेद नहीं है, और जो पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से अपने हित की प्राप्ति तथा अहित के परिहार में असमर्थ है, अत्यन्त दयनीय दशा को प्राप्त है, इस प्रकार के जन्मान्ध वगैरह को कोई कठोर हृदयवाला पुरुष निर्दय हो कर आवेश के साथ, बहुत तीखे भाले वगैरह से भेदता है, अत्यन्त तीखे फरसी कुठार आदि से छेदता है, ટીકાથ-“” શબ્દ નવું વાક્ય આરંભ કરવાનું પ્રગટ કરે છે “કહું છું” અર્થાત્ પૃથ્વીકાયની વેદનાના વિષયમાં કહું છું–જેમ કેઈ મનુષ્ય અન્ય અર્થાત-જન્મથી અંધને (આંધળો છે તેને ભેદે છે. અહિં “ઘ'પદ તે ઉપલક્ષણ છે, તેનાથી બહેરા મૂંગા, લંગડા આદિ પણ ગ્રહણ કરી લેવા જોઈએ. જે જીવ મૃગલોઢાની માફક જન્માંધ છે. (જન્મથી આંધળે છે) જન્મથી બહેરે છે. જન્મથીજ મૂંગે છે જન્મથી લંગડે છે. હાથ-પગ આદિ વિભિન્ન અવયના જેના શરીરમાં ભેદ નથી, અને તે પૂર્વભવના અશુભ કર્મોના ઉદયથી પિતાના હિતની પ્રાપ્તિ તથા અહિતના પરિહારમાં અસમર્થ છે, અત્યન્ત દયાપાત્ર-દશાને પ્રાપ્ત છે, આ પ્રકારના જન્માંધ વગેરેને કઈ કઠોર હદયવાળા પુરૂષ નિર્દય થઈને આવેશની સાથે બહુજ તીક્ષણ ભાલા વગેરેથી ભેદે છે (વિંધે છે), અત્યન્ત તીખી ધારવાળી ફરસી, કુઠાર આદિથી प्र मा.-५८ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ आचारागसूत्रे पश्यति न, शणोति, नाप्युच्चैः क्रन्दति, तावता तस्याऽजीवत्वं वेदनाया अभावो वा निश्चेतु वक्तुं वा न शक्यते, एवं पृथिवी सचेतना वेदनासहिता चेति निश्चीयते । जात्यन्धवधिरमूकपड्ग्वादिगुणयुक्तपुरुषवत्, मृगापुत्रवत्, इत्यर्थः । यद्वा पञ्चन्द्रियाणां सुव्यक्तचेतनानां पादगुल्फजङ्घाजानूरुकटिनाभ्युदरपार्श्वपृष्ठोरोहृदयस्तनस्कन्धवाहुहस्ताङ्गुलिनखग्रीवाहन्वोष्ठदन्तजिह्वातालुगलगण्डकर्णनासाक्षिभ्रललाटमस्तकादिषु भिद्यमानेषु छिद्यमानेषु वा यथा घोरतरवेदना जायते तथा प्रगाढमोहाज्ञानवतां स्त्यानद्धर्यादिकर्मोदयाद् अव्यक्तचेतनानां भेदन-छेदन के समय, अपने अंग के भेदने छेदने वाले को न देखता है, न सुनता है, न उची आवाज से चिल्लाता है; इतने मात्र से उस में अजीवपना या वेदना का अभाव निश्चित नहीं किया जा सकता, और नहीं कहा जाता । इसी प्रकार पृथिवी सचेतन है और उसे वेदना भी होती है, यह बात निश्चित हो जाती है । अर्थात् जैसे मृगालोढक की तरह बहिरे, मूगे, लंगडे आदि पुरुष को वेदना होती है, उसी प्रकार पृथिवीकाय को भी वेदना होती है। अथवा स्पष्ट चेतना वाले पञ्चेन्द्रिय जीवों के पैर, गुल्क, जांघ, जानु, उरू, कमर, नाभि, उदर, पार्श्व, पृष्ठ, उर-छाती, हदय, स्नन, स्कन्ध, वाहु, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, दाढी, होठ, दांत, जीभ, ताल, गला, कनपटी, कान नाक आँख, भौंह, ललाट, मस्तक आदि के भिदने--छिदने पर जैसे अत्यन्त घोर वेदना उत्पन्न होती है છેદે છે, તે ભેદન- છેદનના સમયે પિતાના અંગનું ભેદન–છેદન કરનારને તે દેખતા નથી, સાંભળતું નથી, ઊંચા અવાજથી શોર-બકેર કરી શકતું નથી. એટલામાત્રથી તેમાં અજીવપણું અથવા વેદનાને અભાવ નિશ્ચિત કરી શકાતું નથી, તેમ કહેવાતું પણ નથી. એ પ્રમાણે પૃથ્વી સચેતન છે અને તેને વેદના પણ થાય છે. એ વાત નિશ્ચિત થઈ જાય છે. અર્થાત જેવી રીતે મૃગાલોઢી આ પ્રમાણે-બહેરા, મૂંગા, લંગડા આદિ પુરૂષને વેદના થાય છે, તે પ્રમાણે પૃથ્વીકાયને પણ વેદના થાય છે. અથવા-સ્પષ્ટ ચેતનાવાળા જન્મા આદિપંચેન્દ્રિયજીના પગ,ઢીંચણ, જાંઘ,જાન, २० ४भर, नालि, S२, पाव, पृष्ठ, ७२-छाती, इत्य, स्तन, २४, मा डाथ, मांदा, नम, श्रीवाहाटी, 18, , WH, ताण, गणु, सभा, जान, ना, मांग, सभ२, ससाट, મસ્તક આદિના ભેદવા-છેદવાથી જેમ અત્યન્ત ઘર વેદના ઉત્પન્ન થાય છે, તેમ પ્રગાઢ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. २ सू. ५ पृथिवीजीवसिद्धिः ४५९ पृथिव्यादीनामव्यक्तैव घोरतरवेदना भवतीति भगवता केवलालोकेन साक्षात्कृत्य प्रवेदितम् । अत्रैवान्यमपि दृष्टान्तमाह - " अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए " इति । एकः कश्चित् यथा सर्वावयवयुक्तं कञ्चित्प्राणिनं संप्रमारयेत् = तीत्रद्वेषावेशेन शस्त्रादिप्रहारेण चेष्टाराहित्यरूपां मूर्छामापादयेत् तथा एकः कश्चित् मूर्छापिन्नं उद्यावयेत्= प्राणेभ्यो व्यपरोपयेत्, तस्य मूर्च्छाविशेन व्यक्त - वेदनाया अभावेऽपि अव्यक्ता घोरतर वेदना जायत एव तथा पृथिवीजीवानामव्यक्ता घोरतरवेदना भवत्येव ।। सू. ५ ॥ इत्थं पृथिवीकायस्य जीवत्वं शखादाघातेन वेदनां च प्रदर्श्य, अधुना उसी प्रकार प्रगाढ मोह अज्ञान वाले स्त्यानर्द्धि आदि कर्म के उदय से अप्रकट चेतना वाले पृथ्वीकाय आदि जीवों को अप्रकट किन्तु अत्यन्त दारुण वेदना होती है । यह बात भगवान् ने केवलज्ञान से साक्षात् जानकर प्रकट की है । इसी विषय में एक दृष्टान्त और कहते है - 'अप्पेगे' इत्यादि । जैसे - कोई पुरुष, सभी अवयवों से युक्त किसी प्राणी को तीव्र द्वेष के आवेश के वश हो कर शस्त्र आदि का प्रहार कर के चेष्टारहित-मूर्च्छित कर देता है, तथा कोई उस मूर्च्छित पुरुष को प्राणहीन करता है तो यद्यपि उस मूर्च्छित में व्यक्त वेदना नहीं है फिर भी अभ्यक्त अत्यन्त घोर वेदना होती ही है, इसी प्रकार पृथिवीकाय में घोर अव्यक्त वेदना होती है | सू. ६ ॥ इस प्रकार पृथिवीकाय की सचित्तता और शस्त्र आदि के आघात से होने वाली (દૃઢ) માહ અજ્ઞાનવાળા સ્ત્યાનહિં આદિ કર્મના ઉદયથી અપ્રકટ ચેતનાવાળા પૃથ્વીકાય આદિ જીવાને અપ્રકટ પરન્તુ અત્યન્ત દારુણ વેદના થાય છે, આ વાત ભગવાને કેવલ જ્ઞાનથી સાક્ષાત્ જાણીને પ્રકટ કરી છે. या विषयभां भेङ भीलु दृष्टान्त उडे छे- 'अप्पेगे' इत्यादि, प्रेम अर्थ पुरुष, સર્વ અવયવાથી યુક્ત કોઈ પ્રાણીને તીવ્ર દ્વેષથી આવેશને વશ થઈ શસ્ત્ર આદિના પ્રહાર કરીને ચેષ્ટારહિત-મૂતિ કરી નાખે છે, તથા કાઈ તે મૂતિ પુરૂષને પ્રાણહીન કરે છે. તે મૂતિમાં વ્યક્ત વેદના નથી. તે પણુ અવ્યક્ત (જાણીજોઈ શકાય નહિ તેવી રીતે) અત્યન્ત ઘાર વેદના થાય છે. એ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયમાં પણ ઘેર વેદના થાય છે. પા આ પ્રમાણે પૃથ્વીકાયની સચિત્તતા અને શસ્ત્ર આદિના આઘાતથી થવાવાળી Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे ४६० तत्समारम्भे कर्मबन्धो भवतीत्याह - ' एत्थ ' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवति ॥ भ्रू. ६ ॥ ॥ छाया ॥ अत्र शस्त्र समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति ॥ सु. ६ ॥ ॥ टीका ॥ शस्त्र = स्वकायपरकायतदुभयरूपं सावद्यव्यापाराः, अत्र = पृथिवीकाये. द्रव्यशस्त्र, दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायरूपं भावशस्त्रं वा समारभमाणस्य = व्यापारयतः इत्येते = प्रागुक्ताः सप्तविंशतिभङ्गरूपाः, आरम्भाः = खनन कृष्यादिरूपाः अपरिज्ञाता भवन्ति = कर्मबन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता न भवन्ति, पृथिवीशस्त्र समारभमाणः खननादिसावद्यव्यापारस्य कर्मबन्धकारणतामविज्ञाय चारित्ररूपवेदना प्रदर्शित कर के यह बताते हैं कि - पृथिवीकाय का आरंभ करने में कर्म का बंध होता है - ' एत्थ ' इत्यादि । मूलार्थ - - पृथिवीकाय का आरंभ करने वाले को यह ( पूर्वोक्त) आरंभ ज्ञात नहीं होता है ॥ सू. ६ ॥ टीकार्थ — पृथिवीकाय में स्वकाय परकाय और उभयकायरूप द्रव्यशस्त्र का, तथा मन वचन कायका दुष्प्रणिधानरूप भावशस्त्र का व्यापार करने वाले को ज्ञात नहीं होता किपूर्वोक्त सत्ताईस प्रकार का खनन एवं कृषि आदिरूप सावध व्यापार कर्मबंध के कारण है । तात्पर्य यह है कि - जो पुरुष पृथिवीकाय का आरंभ करता है, उसे यह मालूम नहीं होता कि - यह सावध व्यापार कर्मबंध का कारण है, यह मालूम न होने के कारण વેઢના બતાવીને હવે એ બતાવે છે કેઃ–પૃથ્વીકાયના આરંભ કરવામાં કમના અધ थाय छे - ' एत्थ ' त्याहि. મૂલા —પૃથ્વીકાયના આરંભ કરવાવાળાને આ ( પૂર્વોક્ત ) આરંભ જ્ઞાન હતું नथी. ( है ) ટીકા પૃથ્વીકાયમાં સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાયરૂપ દ્રવ્યશસ્રના તથા મન, વચન, કાયાનાં દુપ્રણિધાન (ખરાબ ભાવ)રૂપ ભાવશસ્ત્રના વ્યાપાર કરવાવાળાને ખખર નથી હાતી કે-પૂર્વાકત (પૂર્વ કહેલા) સત્તાવીસ પ્રકારના ખનન (ખેાઢવું) એ પ્રમાણે કૃષિ-ખેતી આરૂિપ સાવદ્ય-વ્યાપાર કમબંધનુ કારણ છે. તાપય એ છે કેઃ—જે પુરૂષ પૂથ્વીકાયના આરંભ કરે છે, તેને એ માલૂમ નથી કેઃ–આ સાવદ્ય વ્યાપાર ક Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाती भवती) वितिभा मुनिर्भ आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.२ सू. ६ परिज्ञातकर्मस्वरूपम् ४६१ मोक्षमार्गतो दूरमपगतो भवतीत्यर्थः ॥ सू० ६॥ (८) विवृत्तिद्वारम्पृथिवीकायसमारम्भपरिज्ञाने हि परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवतीत्याह-एत्थ' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति । तं परिणाय मेहावी नेव सयं पुढविसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं पुढविसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा। जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे-त्तिबेमि ॥ सू० ७ ॥ ॥ इय सत्थपरिणाए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ १-२ ॥ ॥छाया ॥ अत्र शस्त्रं असमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं पृथिवीशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः पृथिवीशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् पृथिवीशस्त्रं समारभतः समनुजानीयात्, यस्यैते पृथिवीकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू० ७॥ ॥ इति शस्त्रपरिज्ञायां द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ १ ॥ २ ॥ यह चारित्ररूप मोक्षमार्ग से दूर ही रहता है । सू. ६ ॥ पृथिवीकाय के समारम्भ का परिज्ञान होने पर ही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है, इस बात को कहते है-' एत्थ' इत्यादि । मूलार्थ- -पृथिवीकाय में शस्त्र का आरंभ न करने वाले को यह आरंभ ज्ञात होता है। उन्हे जान कर बुद्धिमान् पुरुष न स्वयं पृथिवीकाय के शास्त्र का आरंभ करे. न दूसरों से पृथ्वीकाय के शस्त्रका आरंभ करावे और न पृथ्वीकाय का आरंभ करने वाले दूसरों की अनुमोदना करे । इन पृथिवीकर्मसमारम्भों को जानने वाला ही मुनि है, वही परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मै कहता हूँ ॥ सू. ७ ॥ બંધનું કારણ છે. આ માલુમ નહિ હોવાથી તે ચારિત્રરૂપ મેક્ષમાર્ગથી દૂર જ રહે છે. દા પૃથિવીકાયના સમારંભનું પરિજ્ઞાન હોવાથીજ પરિજ્ઞાતકર્મા મુનિ હોય છે, આ पात मताव छ:-"एत्थ' त्याहि. મૂલાથ–પૃથ્વીકાયમાં શસ્ત્રને આરંભ નહિ કરવાવાળાને આ આરંભની ખબર હેય છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ પોતે પૃથ્વીકાયના શસ્ત્રને આરંભ કરતા નથી; બીજા પાસે પણ પૃથ્વીકાયના શસ્ત્રને આરંભ કરાવતા નથી. અને પૃથ્વીકાયને અરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપતા નથી. એ પૃથ્વીકર્મ-સમારંભને જાણવાવાળા જ મુનિ છે, તે પરિજ્ઞાતકર્મ છે એ પ્રમાણે હું કહું છું. (૭) Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे टीकाअत्र-पृथिवीकाये शस्त्रं-स्वकायपरकायादिकम् असमारभमाणस्य अव्यापारयतः इत्येते पूर्वोक्ता आरम्भाः-सावधक्रियाविशेषाः परिज्ञाता भवन्ति । ज्ञपरिज्ञया सर्वान् पृथिवीकायसमारम्भान् कर्मबन्धहेतुत्वेन अनन्तनरकनिगोदादिदुःखजनकत्वेन च परिज्ञाय चारित्ररूपमोक्षमार्गे प्रवर्तत इति भावः । उपसंहारमाह तत् पृथिवीकायसमारम्भणं परिज्ञाय-बन्धहेतुत्वेनावबुध्य मेधावीसदसद्विवेकी पृथिवीशस्त्रं द्रव्यभावरूपं स्वयं नैव समारभते अपि च-अन्यैरपि पृथिवीशस्त्रं नैत्र समारम्भयति, पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् नैव समनुजानाति । एवं मनोवाकायभेदेनातीतानागतवत्तमानकालभेदेन च पृथिवीका य टीकार्थ-पृथिवीकाय में स्वकाय परकाय आदि शस्त्रों का आरंभ न करने वाले को यह पूर्वोक्त सावधव्यापाररूप आरंभ ज्ञात होता है । इन आरंभों को जानने वाला अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से पृथिवीकायसबंधी आरंभों को कर्मबंध का कारण तथा अनन्त नरक निगोद के दुःखो का कारण जानकर चारित्ररूप मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होता है । उपसंहार करते है-- पृथ्वीकाय के आरंभ को बंधका कारण जानकर बुद्धिमान् सत् असत् का भेद समझने वाला, द्रव्य-भावरूप पृथ्वीशस्त्रका स्वयं व्यापार नहीं करता, दूसरे से व्यापार नहीं कराता और व्यापार करने वाले की अनुमोदना भी नहीं करता । इसी प्रकार मन, वचन, काय के भेद से और अतीत, अनागत, वर्तमान काल के भेद से सत्ताईस प्रकार के ટીકાથ–પૃથ્વીકાયમાં રૂકાય પરકાય આદિ શોને આરંભ નહિ કરવાવાળાને એ પૂર્વોક્ત સાવદ્ય વ્યાપારરૂપ આરંભની ખબર હોય છે, તે આરંભેને જાણવાવાળા અર્થાત જ્ઞપરિણાથી પૃથ્વીકાયસમ્બન્ધી આરંભને કર્મબંધનુ કારણ, તથા અનન્ત નરક નિગોદના દુઃખનું કારણ જાણીને ચારિત્રરૂપ મોક્ષમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. હવે ઉપસંહાર કરે છે– પૃથ્વીકાયના આરમ્ભને બંધનું કારણ જાણુને બુદ્ધિમાન સત્-અસત્તા ભેદને જાણવા-સમજવાવાળા, દ્રવ્યભાવરૂપ પૃથ્વીશ અને પિતે વ્યાપાર કરતા નથી, બીજા પાસે વ્યાપાર કરાવતા નથી, અને વ્યાપાર કરવાવાળાને અનુમોદન પણ કરતા નથી, આ પ્રમાણે મન, વચન, કાયાના ભેદથી, અને ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ, વર્તમાનકાળના Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.२ सू. ७ उपसंहारः समारंभान विज्ञाय सर्वान् परित्यजेत् । - एवं यस्य एते पृथिवीकर्मसमारम्भाः पृथिवीविषयाः खननकृष्यादिरूपाः सावधक्रियाविशेषाः परिज्ञाता भवन्ति-ज्ञपरिज्ञया कर्मवन्धहेतुत्वेन विज्ञाताः, तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्ता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा-विदितपरित्यक्तसकलसावधक्रियाविशेषः मुनिर्भवति, न त्वपरो द्रव्यलिङ्गीत्यर्थः । इति ब्रवीमियथा भगवता कथितं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सू०७॥ ॥ इति शस्त्रपरिज्ञाध्ययने द्वितीय उद्देशः समाप्तः ॥ १-२॥ पृथ्वीकायसमारंभ को जानकर सबका त्याग करना चाहिए। इस प्रकार जो पुरुष पृथ्वीकायसम्बन्धी खोदना जोतना आदि सावध व्यापारो को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण समझता है, और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उन का त्याग कर देता है वही परिज्ञातकर्मा और सकल सावध क्रियाओं को जानने वाला पुरुष मुनि कहलाता है, सिर्फ द्रव्यलिंगी मुनि नहीं कहलाता । 'त्तिबेमि' भगवान्ने जैसा कहा है वैसा ही मै कहता हूँ ॥ ७ ॥ आचाराङ्ग-मूत्र की आचारचिन्तामणि-टीका के हिन्दी-अनुवादमें शस्त्रपरिज्ञानामक प्रथम अध्ययनका द्वितीय उद्देश समाप्त ॥ १-२॥ ભેદથી સત્તાવીસ પ્રકારના પૃથ્વીકાયના સમારંભને જાણ કરીને સર્વને ત્યાગ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયસમ્બન્ધી ખોદવું, ખેડવું આદિ સાવદ્ય વ્યાપારને સપરિજ્ઞાથી કમબંધનું કારણ સમજે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિણાથી તેને ત્યાગ કરી દે છે, તે પરિસાતકર્મ અને સકલસાવઘક્રિયાઓને જાણવાવાળા પુરૂષ મુનિ કહેવાય છે, માત્ર દ્રવ્યલિંગી મુનિ કહેવાતા નથી. ભગવાને જેવું કહ્યું છે, એવું જ હું કહું છું IIળા આચારાંગ સત્રની આચારચિંતામણિ ટીકાના ગુજરાતી અનુવાદમાં શસ્ત્રપરિજ્ઞાનામક પ્રથમ અધ્યયનને બીજો ઉદેશ सभात थय।।१-२॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ आचारास्त्रे अथ तृतीयशः । द्वितीयदेशे पृथिव्याः सचित्तत्वं तत्र पृथक्पृथगनेकपृथिवीकायजी वाश्रितत्त्वं च प्रसाधितम्, तस्य हिंसया कर्मबन्धो भवतीत्युक्तम्, अन्ततश्च पृथिवीकायजीवहिंसानिवृत्त्या सुनिर्भवतीति सिद्धान्तितम् । इदानीमपां सचित्तत्वमनेकाप्कायजीवाश्रितत्वं बोधयता भगवताऽपकायहिंसया षट्कायजीवहिंसासंपातात् कर्मबन्धो भवति, तथाऽपकायहिंसानिवृत्या च मुनित्वं लभ्यत इति बोधयितुं तृतीयोद्देशः प्रारभ्यते' से बेमि' इत्यादि । , अप्कायजीवस्वरूपविचारणायां प्रथममनगारस्य योग्यता दर्शयति तीसरा उद्देश द्वितीय उद्देशक में पृथिवी की सचित्तता सिद्ध को और पृथिवी में पृथक्पृथक् अनेक पृथिवोकाय के जीवों का रहना सिद्ध किया । यह भी बतलाया जा चुका है कि- उन जीवों की हिंसा करने से कर्म का बंध होता है । अन्त में यह भी प्रमाणित किया है कि - पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा का त्याग करने से मुनि होता है । अब यह बतलाते हैं कि -अप्काय सचित्त है, अनेक अप्काय के जीवों से आश्रित है और अप्काय की हिंसा से षट्काय के जीवों की हिंसा होती है और अप्काय की हिंसा का त्याग करने वाला मुनिपन पाता है । यह सब बतलाने के लिए तीसरा उद्देश आरंभ किया जाता है - ' से बेमि' इत्यादि । अप्काय के जीवों के स्वरूप का विचार करते हुए सर्व प्रथम अनगार की ત્રીજો ઉદ્દેશકે— ખીજા ઉદ્દેશકમાં પૃથ્વીની સચિત્તતા સિદ્ધ કરી છે. અને પૃથ્વીમાં જૂદા-જૂદા અનેક પૃથ્વીકાયના જીવા રહે છે તે સિદ્ધ કર્યું છે. એ પણ ખતાવવામાં આવ્યું છે કે તે જીવાની હિંસા કરવાથી કર્મના અધ થાય છે. અન્તમાં એ પણ પ્રમાણિત કર્યું કે પૃથ્વીકાયના જીવાની હિંસાના ત્યાગ કરવાથી મુનિ થાય છે. હવે તે બતાવે છે કે:-અકાય સચિત્ત છે, અનેક અકાયના જીવાથી આશ્રિત છે, અને અકાયની હિંસાથી ષટ્કાયના જીવાની હિંસા થાય છે, અને અકાયની હિંસાના ત્યાગ કરવાવાળા મુનિપણાને પામે છે. मे सर्व अताववा भाटे त्रीन्न उद्देशम्नो भारं वामां आवे छे:- 'से बेमि' त्याहि. અપકાયના જીવેાના સ્વરૂપના વિચાર કરતા થકા સૌથી પ્રથમ અણુગારની ચાગ્યતા Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ आचारचित्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ उपक्रम सर्वविरतिरूपं पदं प्राप्तो मुनिः पृथिवीकायादिसूक्ष्मजीवसमारम्भनिवृत्त्यादिकर्तव्यतायामल्पीयोऽपि प्रमादजातं स्खलनं समुपेक्षते चेत् तर्हि पुनस्तत्राधिकतरं स्खलनं कर्तुं न लज्जते, तथाविधनियमानुसारिणी हि मनोवृत्तिः, अतः स्वल्पमपि संयमतः स्खलनं यथा न भवेत् तथा प्रयतितव्यं मुनिमिः । अत्र दृष्टान्तः प्रदर्श्यते केनचिद् बाल्यावस्थायामन्यस्य कपर्दिकामात्रं स्तेयवृत्याऽपहृत्य स्वमातुरग्रे निहितम् । माता तदवलोक्य हृष्टा सती तस्मै मधुरं वस्तु ददौ । अथ पुनः पुनः स्तेयकर्मणि प्रवृत्तः स्वमातृहस्तात् पारितोषिकं प्राप्तः क्रमेण योग्यता दिखलाते है-सर्वविरतिरूप पदको प्राप्त मुनि पृथिवीकाय आदि छोटे-छोटे जीवों के आरंभ का त्याग करने में यदि प्रमाद के कारण थोडे से भी स्खलन की उपेक्षा करता है तो फिर और अधिक स्खलन करने में भी संकोच नहीं करता । मनोवृत्ति का ऐसा ही नियम है कि-गिरी सो गिरती ही जाती है, अत एव मुनियों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि, जिस से संयम में तनिक भी स्खलन न हो । इस विषय में दृष्टान्त कहते हैं किसी बालकने अपनी बाल्यावस्था में एक कौडी चुराकर अपनी माता के पास रख दी। माता उसे देखकर हर्षित हुई और उसने इनाम के तौर पर बालक को मीठी चीज दी । इस के बाद वह बारबार चौरी करने लगा और अपनी माता के हाथ से पारितोषिक प्राप्त करने लगा। धीरे-धीरे वह ताम्रपण (तांबे का सिक्का) कार्षापण બતાવે છે–સર્વવિરતિરૂપ પદને પામેલા મુનિ પૃથ્વીકાય આદિ નાના-નાના જીના આરંભને ત્યાગ કરવામાં જે પ્રમાદના કારણે ચેડાં પણ ખલન (બુટ)ની ઉપેક્ષા કરે છે. તો ફરીને વધારે સ્મલન કરવામાં પણ સંકેચ કરતા નથી. મને વૃત્તિને એજ નિયમ છે કે–નીચે પડવા પછી વધારે નીચે પડી જાય છે. એ કારણથી મુનિઓએ એ પ્રયત્ન કરી જોઈએ કે –જેનાથી સંયમમાં થોડું પણ ખલન નહી હોય. આ વિષયમાં દષ્ટાન્ત કહે છે – કઈ બાળકે પિતાની બાલ્યાવસ્થામાં એક કેડી ચેારીને પોતાની માતાની પાસે રાખી દીધી; માતા તેને જોઈને રાજી થઈ અને તેને ઈનામ આપવાના ઢંગથી બાળકને મીઠી વસ્તુ આપી. ત્યાર પછી તે બાળક વારંવાર ચોરી કરવા લાગ્યો. અને પિતાની માતા પાસેથી (માતાના હાથથી) ઈનામ મેળવવા લાગ્યો. ધીરે ધીરે તે તામ્રપણ–ત્રાંબાના प्र. मा-५९ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ आचारसूत्रे ताम्रपण- कार्षापण - रूप्यक- दीनार रत्न- स्पर्ण - मणि- माणिक्यादिहरणप्रवीणः कस्यचिन्नृपस्य कोशागारं प्रविष्टः । ततः प्रचण्डभुजदण्ड कैस्तद्रक्षकैः सघोषणं धृतो राजान्तिकं समानीतः । तदपराधं विज्ञाय क्रोधाविप्टेन राज्ञा समादिष्टम् - अयं चौरः शूले समारोप्यताम्, इति । असौ पृष्टश्च राज्ञा - तव काचिदिच्छा वर्तते ? चेद् ब्रूहि । चौरेणोक्तम्राजन् ! स्वमातुर्मिलनं प्रार्थयेः । अथ नृपाज्ञया तज्जननी तत्रागत्य मिलिता । स चौरस्तत्र राज्ञः समक्षमेव सवेगमुत्थाय सत्वरं मातुर्नासिकां दन्तैश्चिच्छेद् । ततोऽसौं राज्ञा पृष्टः-त्वया कथमेवं दुश्चरितमाचरितम् १ | चौरोऽवदत् - इयमेव ममै ( चौअन्नी) रुपया, दीनार (सुवर्ण - मुहर ), रत्न, सुवर्ण, मणि, माणिक आदि चुराने में भी प्रवीण हो गया । वह किसी राजा के खजाने में घुसा । खजाने के बलवान् पहरेदारों ने उसे पकड लिया और राजा के सामने पेश किया । राजा उसका अपराध सुनकर क्रोधित हुआ, उसने आज्ञा दी - ' इस चोर को शूली पर चढा दो ' । राजाने उस से पूछा- अगर तुम्हारी कोई इच्छा हो तो कहो । चोरने कहा- ' महाराज ! मैं अपनी माता से मिलने की प्रार्थना करता हूँ । राजा की आज्ञा से चोर की माता वहाँ आकर मिली । चौरने राजा के सामने ही वेग के साथ उठ कर जल्दी से अपनी माता की नाक दांतों से काटली । यह देखकर राजाने पूछा- अरे ! तूंने यह दुष्कर्म क्यों किया ? सिा, यार यानी, ३पिया, सोना भोर, रत्न, सोनुं, भणि, भागे माहि शौरवामां પણ પ્રવીણ થઈ ગયા. ( કેટલેાક સમય જતા ) તે કેાઈ રાજાના ખજાનામાં ઘુસી ગયેા. ખજાનાના મલવાન્ પહેરેદારો રક્ષકાએ તેને પકડી લીધે અને રાજાની સામે– હાજર કર્યાં. રાજા તેના અપરાધ સાંભળીને ક્રોધાયમાન થયા, અને આજ્ઞા આપી કે એ ચારને શૈલી પર ચઢાવી દ્યો! રાજાએ તેને પૂછ્યું કે તારી કાંઈ ઇચ્છા હાય તા કહા. ચારે કહ્યું-‘મહારાજ! હું મારી માતાને મળવાની પ્રાર્થના કરૂ છું.' રાજાની આજ્ઞાથી ચારની માતા ત્યાં આગળ આવી. અને ચારને મળી, ચારે રાજાના સામેજ વેગથી એકદમ ઉઠીને જલ્દીથી પેાતાની માતાનું નાક પેાતાના ક્રાંતથી કાપી લીધું. તે જોઈને રાજાએ પૂછ્યું-અરે! તેં આવું દુષ્ટકમ' શા માટે કર્યું" ? Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ३ सु. १ उपक्रम ४६७ तद्घोरतरदुःखमदशलारोपण'फलमदात्री माणापहर्त्री, न तु भवान् । इत्युक्त्वा सर्व पूर्व राज्ञे विज्ञापयामास । ततः स्वकृतस्तेयकर्मणो विपाकं शूलारोपेण घोरतरवेदनां प्राप्नुवन्मृतः । तस्मात् स्वल्पोऽपि दोपो महानर्थाय भवतीति विज्ञायात्मार्थिभिर्मुनिभिः संयमतः स्वल्पमपि स्खलनं यथा न भवेत् तथा वर्तितव्यम् । तपःसंयमे कदाचिदाकस्मिकस्खलन संपातस्त्वन्य एव, स्खलनोपेक्षणमध्यन्यदेव, यतः स्खलनोपेक्षया पुनरुत्तरोत्तरस्खलनवृद्ध्या साधुत्वमेव नश्यतीति विचिन्त्य जागरूकाः साधवो नवनवागन्तुकस्खलनपरंपराविरहिताः पूर्वजातस्खलन चोर - महाराज ! इसी के कारण मुझे घोर दुःख देने वाली शूली पर चढना पड रहा है; यही मेरे प्राण लेने वाली है, आप नहीं । यह कह कर चोरने अपना सम्पूर्ण पूर्व - वृत्तांत राजा को सुना दिया । तत्पश्चात् अपने किये चौर्य कर्म का घोरवेदनारूप फल - शूली पर चढनेरूप - को भोगता हुआ वह चोर मर गया । अत एव थोडा- - सा भी दोष महान् अनर्थ का कारण बन जाता है, ऐसा समझकर आत्मकल्याण के अभिलाषी मुनियों को ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि जिस से संयम में तनिक भी स्खलन न हो । तप और संयम में कदाचित् अकस्मात् स्खलना की बात दूसरी है किन्तु स्खलना की उपेक्षा करना और बात है, उस का कारण यह है कि स्खलना की उपेक्षा करने से उत्तरोत्तर स्खलना बढती ही चली जाती है, ऐसा विचार करके सदैव सावधान ચાર કહે-મહારાજ! એ માતાના કારણે જ મારે ઘેાર દુઃખ આપવાવાળી શૈલી ઉપર ચઢવાનું થાય છે, એ મારા પ્રાણ લેવાવાળી છે, આપ નહિ. આ પ્રમાણે કહીને ચારે પેાતાની આગળની સંપૂર્ણ હકીકત રાજાને સભળાવી. તે પછી પેાતાનું કરેલ ચારીનુ કર્મનું ઘારવેઢનારૂપ લ-શૂલી પર ચઢવાનું, તે ભાગવતે થકે તે ચાર મરણ પામ્યા. એટલે કે:-થાડા પણુ દોષ મહાન્ અનનુ કારણુ ખની જાય છે. એ પ્રમાણે સમજીને આત્મકલ્યાણના અભિલાષી મુનિઓએ એવા પ્રયત્ન કરવા જોઈ એ કે, જેનાથી સચમમાં થેાડુંક પણ સ્ખલન ન થાય. તપ અને સંયમમાં કાઇ વખત અકસ્માત્ સ્ખલનની વાત જૂદી છે. પણ સ્ખલનની ઉપેક્ષા કરવી તે ખીજી વાત છે. તેનુ કારણ એ છે કે—સ્ખલનની ઉપેક્ષા કરવાથી ઉત્તરાત્તર સ્ખલન (ભૂલ) વધતું જ જાય છે. એવા વિચાર કરીને સદૈવ-હ ંમેશાં સાવધાન રહેવાવાળા Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४६८ आचारागसूत्रे दोषमपनेतुं शक्नुवन्ति । तदेव विशदयन् सुधर्मा स्वामी पाह-'से बेमि' इत्यादि । द्वितीयोदेशसमाप्तौ " जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मा" इत्युक्तम् । अधुना तु-न च तावतैव सर्वथा मुनिर्भवितुमर्हति। यथा भवति तथा दर्शयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी पाह-' से बेमि' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ से बेमि-से जहावि अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे अमायं कुन्चमाणे वियाहिए ॥ सू० १॥ ॥छाया ॥ तद् ब्रवीमि स यथापि अनगार ऋजुकृतः नियागप्रतिपन्नः अमायां कुर्वाणो व्याख्यातः ॥ सू० १॥ ॥टीका। से बेमि' इत्यादि। तद् ब्रवीमि यदन्यच्च भगवदन्तिके मया रहने वाले साधु नयी-नयी होने वाली स्खलना के दोषों से बच सकते है । यही बात स्पष्ट करते हुए सुधर्मा स्वामी आगे कहते है-'से बेमि' इत्यादि । मूलार्थ (भगवान् के मुखारविन्द से- जो सुना है,) सो कहता हूँ-ऋजुकृतः मोक्षमार्ग में प्राप्त और माया न करने वाला अनगार कहा गया है। सू. १ ॥ टोकार्थ--भगवान् के समीप और भी जो सुना है वह कहता हूँ । पृथ्वीकाय के विषय में शस्त्र का आरंभ न करने वाला पृथ्वीकाय के आरंभ को जानने वाला पुरुष जिस સાધુ-નવી નવી થવાવાળી સ્કૂલના દોષથી બચી શકે છે, એ વાત સ્પષ્ટ કરીને सुधा स्वामी मा ४ छ-' से बेमि' त्याहि. બીજા ઉદ્દેશકની સમાપ્તિમાં કહ્યું હતું કે-જે પુરૂષ પૃથ્વીકાયના આરંભને જાણીને તેને ત્યાગ કરી આપે છે, તે મુનિ છે. અહિં એ બતાવવામાં આવે છે કેઆટલુ કરવા માત્રથી જ કેઈ પૂરી રીતે મુનિ થઈ શકતા નથી, મુનિ થવાને માટે બીજી वातानी (aneणुपान) मावश्यता छ, तेने सुधी पामि ४९ छ-'से बेमि' Jant. भसाथ-(पाना भुभाविहथी रे Airयु छ) ते ४ छ:જુકૃત, મેક્ષમાર્ગમાં પ્રાપ્ત અને માયા નહિ કરવાવાળા અણગાર કહ્યા છે (૧) ___ -मसाननी पासेथी भानु ५५ रे सज्यु छे, ते ४ :પૃથ્વીકાયના વિષયમાં શસ્ત્રને આરંભ નહિ કરવાવાળા, પૃથ્વીકાયના આરંભને Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ३ स. १ अनगारलक्षणम् ४६५ श्रुतं तत् कथयामि । स पृथिवीकायशस्त्रमसमारभमाणः परिज्ञातपृथिवीकर्मसमारम्भो यथा संपूर्णोऽनगारो भवति, अपिच-यथाऽनगारो न भवति, तद् द्वयमपि ब्रवीमि, वक्ष्यति च-' अणगारामोत्ति एगे पवयमाणा' इत्यादि । सावधक्रियाया गृहाश्रयत्वाद् गृहपरित्याग एव मुनित्वे प्रधानकारणमिति वोधनाय साध्वादिशब्दं परित्यज्य 'अनगार'-शब्दोपादानम् । कथं सर्वथाऽनगारो भवति ? इत्याकाङ्क्षायामाह _ 'उज्जुकडे ' इति, ऋजुकृतः, अर्जयति क्षान्त्यादिगुणानिति ऋजुः । यद्वा-अर्जयति-सकलपाणिगणहितं दयास्वभावमिति ऋजुः। यदिवा-अर्जयति= यथावस्थितात्मस्वरूपं प्रापयतीति ऋजुः। यद्वा-अर्जयति मापयति शाश्वतिकं प्रकार पूर्ण अनगार होता है, और जिस प्रकार पूर्ण अनगार नहीं होता, ये दोनों बातें मैं कहता हूँ-'अगगारा मोत्ति एगे पवयमाणा' इत्यादि सूत्र में आगे कहा जायगा । गृह में सावधक्रिया अवश्य होती है, अत एव गृह का त्याग करना ही मुनिपन का प्रधान कारण है । यह बात प्रकट करने के लिए साधुवाचक अन्य ज्ञब्द छोडकर यहाँ अनगार शब्द का प्रयोग किया है। पूरा अनगार किस प्रकार बनता है, एसी आकांक्षा होने पर कहने है-'उज्जुकडे' इति । उज्जुकडे का संस्कृत रूप है 'ऋजुकृतः' । क्षमा आदि गुणों को उपार्जन करने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा समस्त प्राणियों के हितरूप दया को उपार्जन करने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा आत्मा को अपने असली स्वरूप पर पहुंचाने જાણવાવાળા પુરૂષ, જે પ્રમાણે પૂર્ણ અણગાર થાય છે અને જે પ્રમાણે પૂર્ણ અણુगार नथी था, ते सन्न वात हुई छु:-'अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा' त्यादि । સૂત્રમાં આગળ કહેવામાં આવશે. ઘરમાં સાવદ્યકિયા અવશ્ય થાય છે એટલા માટે ઘરને ત્યાગ કર તેજ સનિ. પણનું પ્રધાન કારણ છે એ વાત પ્રગટ-કરવા માટે સાધુવાચક અન્ય સબ્દ ત્યજીને माडिं 'अनगार' शहनी प्रयोग या छे. ५२॥ भए॥२ वी शत मन छ, सेवी २छ। थवाथी ४ छ–'उज्जुकडे' ति. 'उज्जुकडे' नुसरत ३५ 'ऋजुकृत ' थाय छे. क्षमा मा गुणेनु पान કરવાવાળા કુ (સરલસિધા) કહેવાય છે અથવા સમસ્ત પ્રાણીઓના હિતરૂપ દયાને ઉપાર્જન કરવાવાળા શું કહેવાય છે. અથવા આત્માને અસલ સ્વરૂપ સુધી પહોચડવા Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० आचारागसूत्रे शिवस्थानमिति - ऋजुः = विषमभावरहितत्वाद् दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायनिरोधरूपः संयमः, स कृतः अनुष्ठितो येन स ऋजुकृतः-मनोवाकायजन्यसकलसावद्यक्रियानिवृत्त इत्यर्थः। यद्वा-संपूर्णसंवरस्वरूपसंयमेन संयमिना मोक्षस्थानगमनार्थ ऋजुगतिः प्राप्यते, तत्र ऋजुगतेः कारणं संयम इति कारणे कार्योपचारात्सप्तदशविधसंयमोऽपि ऋजुरित्युच्यते, स कृतः समाचरितो येनासौ ऋजुकृतः कृतसंपूर्णसंयमानुष्ठान इत्यर्थः । वाला ऋजु कहलता है । अथवा आत्मा को शाश्वत मोक्षस्थान पर पहुंचाने वाला ऋजु कहलाता है । अथवा ऋजु का अर्थ है-संयम । मन, वचन, काय के खोटे व्यापार को रोकनारूप संयम है । जिस ने एसा व्यापार रोक दिया है वह ऋजुकृत कहलाता है । अर्थात् जो मन, वचन और काय से होने वाली समस्त सावद्य क्रियाओं से निवृत्त हो गया हो वह 'ऋजुकृत' है। __ अथवा--सम्पूर्णसंवररूप संयम के द्वारा संयमी मोक्ष में गमन करने के लिए ऋजुगति प्राप्ति करता है । इस ऋजुगति का कारण संयम है । अतः कारण में कार्य का उपचार करने से सत्रह प्रकार का संयम भी 'ऋजु' कहलाता है । उस 'ऋजु' अर्थात् संयम का जिसने आचरण किया हो वह 'ऋजुकृत' कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पूर्ण संयम का अनुष्ठान करने वाला ऋजुकृत है । વાળા ન કહેવાય છે. અથવા આત્માને શાશ્વત મોક્ષસ્થાન પર પહોંચાડવાવાળા જ્ઞ કહેવાય છે. અથવા જુને અર્થ છે સંયમ–મન, વચન અને કાયના ખેટા व्यापारने २।४। ३५ संयम छ. रणे व व्यापार २४ी माया छे ते 'ऋजुकृत' કહેવાય છે. અર્થાત્ જે મન, વચન અને કાયાથી થવાવાળી સમસ્ત સાવદ્ય ક્રિયાसाथी निवृत्त 25 गया डाय ते ऋजुकृत छे. અથવા–સ પૂર્ણસંવરરૂપ સંયમદ્વારા સંયમી મેક્ષમાં ગમન કરવા માટે #mગતિ પ્રાપ્ત કરે છે. તે જુગતિનું કારણ સંયમ છે. તેથી કારણમાં કાર્યને उपयार ४२पाथी सत्त२ (१७) प्रार। सयम पर 'ऋजु' उपाय छे ते * सात सयभनु रणे मान्य२५ ४यु छे ते 'ऋजुकृत' उपाय छे. तात्पर्य के छ ? -संयभनु मनुष्ठान ४२वा ऋजुकृत छे. Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ सं. २ अनगारलक्षणम् ४७१ तथा नियागप्रतिपन्नः, नि-निश्चयेन यजति सम्यग्गमनं कुर्वन्ति यत्र स नियागः मोक्षमार्गः ज्ञानक्रियालक्षणः । यद्वा-नि-निश्चयेन यजति ददाति सिद्धिगतिमिति नियागः=क्षान्त्यादिदशविधो यतिधर्मः, तं प्रतिपन्नः प्राप्तः । तथा ' अमायां कुर्वाणः' माया वीर्याचारसंगोपनं परवञ्चनं वा, न माया अमाया, तां कुर्वाणः अनगारो व्याख्याता भगवता कथितः । अयं भावः-न केवलं पृथिवीशस्त्रसमारम्भमात्रनिवृत्त्याऽनगारो भवति किन्तु यः खलु पृथिवीशस्त्रसमारम्भनिवृत्तः परिज्ञातसकलसावधकर्मा निरव अब 'नियागप्रतिपन्न' शब्दका अर्थ करते हैं । 'नि' अर्थात् निश्चय से 'याग' अर्थात् सम्यक् गमन जहाँ किया जाता है उसे 'नियाग' या मोक्षमार्ग कहते है । ज्ञान और क्रिया मोक्ष का मार्ग है। __अथवा 'नि' अर्थात् निश्चय से 'याग' अर्थात् सिद्धिगति देने वाला क्षमा आदि दश प्रकार का यतिधर्म 'नियाग' कहलाता है, एसे नियाग को जो प्राप्त हो चुका हो वह नियागपतिपन्न है। तथा माया अर्थात् वीर्याचर का गोपन करना या दूसरे को गोखा देना माया है। इस माया का सेवन न करने वाला जो वही अनगार है, एसा भगवान् ने कहा है। __ तात्पर्य यह है कि केवल पृथ्वीशस्त्र के आरंभ का त्याग कर देने मात्र से ही कोई अनगार नहीं हो जाता, वरन् जो पृथ्वीशस्त्र के आरंभ का त्याग कर के सकल वे 'नियागप्रतिपन्न' शहन म ४२ छ. 'नि' अर्थात् निश्चयथी 'याग' અર્થાત્ સમ્યક્રગમન જ્યાં કરવામાં આવે છે. તેને નિયાગ અથવા મોક્ષમાર્ગ કહે છે. शान भने छिया भाक्षना भाग छ. अथवा 'नि' अर्थात् निश्चयथी 'याग' अर्थात् सिद्धगति मावावाणी क्षमा माह इस मारना यतिधर्म नियाग' वाय छे. मेवा नियागन प्राप्त थ यूट्या छे, ते नियागप्रतिपन्न छ. तथा माया मर्थात् વીર્યચરનું ગોપન કરવું અથવા બીજાને ધોખો દે તે માયા છે. તે માયાનું સેવન નહિ કરવાવાળા જે હોય તે અણગાર છે. એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે. તાત્પર્ય એ છે કેકેવલ પૃથ્વીશસ્ત્રના આરંભનો ત્યાગ કરી દેવા માત્રથી જ કઈ અણગાર થતા નથી. પરંતુ જે પૃથ્વીશસ્ત્રના આરંભને ત્યાગ કરીને, સકલ સાવદ્ય કર્મોને Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ आचारागसूत्रे शेषसंयमानुष्ठानप्रवृत्तः समाश्रितमोक्षमार्गः कर्पूरखण्डवदन्तर्वहिरेकरूपतया स्ववीर्यसंगोपन-परवञ्चनलक्षणमायाचाररहितो भवति स एव वस्तुतोऽनगारो वोद्धव्य इति ॥ मू० १॥ उक्तरूपस्यानगारस्य कर्त्तव्यमाह-'जाए' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ जाए सद्धाए निक्खतो तमेव अणुपालिज्जा विजहित्ता विसोनियं पुव्वसंजोगं । सू०२॥ ॥छाया ॥ यया श्रद्धया निष्क्रान्तस्तामेवानुपालयेत् विस्रोतसिकां पूर्वसंयोगम् ॥ २॥ ॥टीका ॥ यया श्रद्धया विस्त्रोतसिकांशङ्का, सर्वशङ्कां देशशङ्कां चेत्यर्थः । सावद्य कार्यों का ज्ञाता होता है और पूर्ण संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त हो तथा मोक्षमार्ग का आश्रय लेता है । कपूर के टुकडे की भांति भीतर-बाहर एकसा उज्ज्वल होने के कारण अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता और दूसरों को धोखा नहीं देता अर्थात् मायाचार से रहित होता है, उसी को वास्तव में अनगार समझना चाहिए ॥ सू. १ ॥ उक्त प्रकार के अनगार का कर्तव्य बतलाते हैं-'जाए' इत्यादि । मूलार्थ-शङ्का काङ्क्षा आदि का त्याग कर के और पूर्वकालीक संयोगों का त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ निकला है, उसी श्रद्धा का निरन्तर पालन करे ॥ सू. २ ॥ टीकार्थ--'विस्त्रोतसिका' का अर्थ है शङ्का, शङ्का दो प्रकार की है (१) सर्वशङ्का જ્ઞાતા-જાણનાર થાય છે. અને પૂર્ણ સંયમના અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તથા મોક્ષ માગને આશ્રય લે છે. કપૂરના ટુકડાની માફક અંદર અને બહાર એક જ પ્રકારે ઉજવલ હોવાના કારણે પિતાની શક્તિનુ ગોપન કરતું નથી. અને બીજાને દશે દેતું નથી. અર્થાત માયાચારથી રહિત હોય છે, તેને વાસ્તવિક રીતે અણગાર સમજે જોઈએ. (સૂ. ૧) S५२ ह्या ते मारनु ४तव्य मताव छ:-'जाए' त्यादि. મૂલાથ–શંકા, કાંક્ષા વગેરેને ત્યાગ કરીને અને પૂર્વ કાલના સંગે ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી નિકળ્યા છે, તે શ્રદ્ધાનું નિરંતર પાલન કરવું. (સ. ૨) थ:-'विनोतसिका'नो मथ छ. २४, श में प्रा२नी छे-(१) सर्वशः। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सूं. २ अनगारकर्त्तव्यम् ४७३ " किमाहतो मार्गोऽस्ति न वा " इति सर्वागमविषियका शङ्का सर्वशङ्का, तथा" किमपूकायादयो जीवाः सन्ति न वा " इति देशशङ्का । केवलालकेन विलोक्य भगवता विशिष्य प्रवचने कथितत्वात् अपकायादयः सन्ति जीवाः, इति पूर्वा कोटिः, चेतनारूपात्मलक्षणस्य सुस्पष्टमनुपलब्धेर्न सन्ति अप्कायादयो जीवाः, इत्युत्तरा कोटिः प्रादुर्भवति । पूर्वसंयोगं= मातापित्रादिसम्बन्धं, धनधान्य स्वजनादिसम्बन्धं वा । इदमुपलक्षणम् - तेन पश्चात्संयोगमपि श्वशुरादिकृतं विहाय = परित्यज्य निष्क्रान्तः = अनगारो जातः, तां श्रद्धाम् अनुपालयेदेव निरतिचारं रक्षेदित्यर्थः । और (२) देशशङ्का । अर्हन्त भगवान द्वारा प्ररूपित मार्ग वास्तव में मोक्षमार्ग है या नहीं ? ऐसी-शंका सर्वशङ्का है । अप्काय आदि के जाव हैं या नहीं ?' यह देश शङ्का है। भगवान्ने केवल ज्ञान से देखकर प्रवचन में अप्काय आदि के जीवों का अस्तित्व प्रगट किया है, यह शङ्का की पूर्वकोटि है । आत्मा का चेतनालक्षण स्पष्ट रूप से नहीं पाया जाता, अत एव अप्काय आदि अजीव हैं, वह शङ्का की दूसरी कोटि है । माता, पिता आदि का संबंध तथा धन धान्य; स्वजन आदि का संबंध पूर्वसंयोग । कदलाता है । उपलक्षण से सास-ससुर आदि का संबंध पश्चात्संयोग कहलाता है । इन दोनों संयोगों की त्याग कर के जिस श्रद्धा के साथ अनगार हुआ है उसी श्रद्धा का पालन करे अर्थात् उस की निरतिचार रक्षा करे । અને (૨) દેશશંકા અર્હત ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત માર્ગ વાસ્તવિક રીતે માક્ષ મા` છે કે નહીં?? આ પ્રકારની શંકા તે સર્વંશકા છે. અકાય આદિના જીવ છે કે નહી'? આ દેશશકા છે. ભગવાને કેવલજ્ઞાન વડે જોઈને પ્રવચનમાં અકાય આદિના જીવાનું અસ્તિત્વ પ્રગટ કર્યું છે; આ શંકાની પૂર્વકાટિ છે. આત્માનું ચેતનાલક્ષણુ સ્પષ્ટરૂપથી જોવામાં આવતું નથી તેથી અકાય આદિ અજીવ છે, આ શંકાની બીજી કેટિ છે. માતા–પિતા આદિના સબંધ તથા ધન, ધાન્ય સ્વજન આદિના સંબંધ પૂર્વસંચાગ કહેવાય છે, ઉપલક્ષણથી સાસુ, સાસરા આદિના સંબંધ પશ્ચાત્સ ચાગ કહેવાય છે. આ બન્ને સચાગને ત્યાગ કરીને જે શ્રદ્ધાથી અણુગાર થયા છે, તે શ્રદ્ધાનું પાલન કરે, અર્થાત્ તેની નિરતિચાર (વિના અતિચાર) રક્ષા કરે. प्र. आ.-६० Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ आचारागसूत्रे ननु का नाम श्रद्धा, यया विनाऽनगारत्वं नोपलभ्यते ? उच्यते-जीवादितत्त्वेषु श्रद्धानं, रुचिः, अभिप्रीतिः, सम्यग्दर्शनं श्रद्धा, 'एतत्तत्त्वमेवमेवे'-त्यवधारणम्, "तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं" इति वचनानुस्मरणेन जगदेकवन्धुना वीतरागेण भगवता यथा कथितं तथैवेदं जीवादितत्त्वं सत्यमिति निश्चय इति यावत् । यद्वा मिथ्यात्वमोहनीयकर्मण उपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाद्वा आत्मनोऽपूर्वा ज्ञानावस्था जायते, आविलसलिलस्य कतकफलचूर्णसंयोगात्स्वच्छतावत् सैव श्रद्धा । शङ्का—यह श्रद्धा कौन-सी है जिस के विना साधुपन नही रह सकता ? समाधान-जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धा करना, रुचि होना, अभिप्रीति होना, यह सम्यद्गर्शन-श्रद्धा है । ' यह तत्व ऐसा ही है। इस प्रकार पक्का निश्चय करना श्रद्धा है। 'जिन भगवान्ने जो कहा है वही सत्य और संदेह-रहित है' इस वचन के अनुसार यह निश्चय करना कि जगत के अद्वितीय बन्धु वीतराग भगवान् ने जैसा निरूपण किया है, उसी प्रकार जीवादितत्त्व सत्य है । यह श्रद्धा का स्वरूप है। अथवा-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उपशम से, क्षयोपशम से अथवा क्षय से आत्मा की एक अपूर्व ज्ञानावस्था उत्पन्न होती है। जैसे–मलिन जल में कतकफल का चूर्ण डालने से जल स्वच्छ हो जाता है । ऐसी स्वच्छ-निर्मल आत्मदशा श्रद्धा कहलाती है । શંકા–તે શ્રદ્ધા કેવી છે, કે જેના વિના સાધુપણું રહી શકે નહિ? સમાધાન–જીવાદિ તત્વો પર શ્રદ્ધા કરવી, રૂચિ થવી, અભિપ્રીતિ થવી, તે સમ્યગ્દર્શન શ્રદ્ધા છે, કે આ તત્વ આવુંજ છે એ પ્રમાણે પાકે નિશ્ચય કરવો તે શ્રદ્ધા છે. “જિન ભગવાને જે કહ્યું છે તે સત્ય અને સંદેહરહિત છે? એ વચન પ્રમાણે એ નિશ્ચય કરે કે જગતના અજોડ બધુ વીતરાગ ભગવાને જેવું નિરૂપણ કર્યું છે, તે પ્રમાણે જીવાદિ તત્વ સત્ય છે. આ શ્રદ્ધાનું સ્વરૂપ છે અથવા–મિથ્યાત્વમોહનીય કર્મના ઉપશમથી, ક્ષપશમથી, અથવા ક્ષયથી આત્માની એક અપૂર્વ જ્ઞાનાવસ્થા ઉત્પન્ન થાય છે. જેમ મલીન પાણીમાં કતકફળનિર્મળફળનું ચૂર્ણ નાંખવાથી જલ સ્વચ્છ થઈ જાય છે. એવી સ્વચ્છ-નિર્મલ આત્મદશા શ્રદ્ધા કહેવાય છે. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् ४७५ अस्या लक्षणं तु शमसंवेगनिर्वेदानुकम्पाऽऽस्तिक्यानां प्रादुर्भावः । तत्र वीतरागप्रणीतप्रवचनतत्त्वाभिनिवेशवशेनाऽनन्तानुवन्धिकपायाणामनुदयः शम इत्युच्यते । यद्वा विषयासक्तिनिवृत्तिः शमः। तथा संवेगः जिनप्रवचनानुसारेण नरकादिगतिषु ननाविधदुःखावलोकनाद्भयम्, यथा स्वकृतकर्मोदयान्नरकेषु-क्षेत्रजन्यशीतोष्णादिदशविधवेदनासहनं, परमाधार्मिकदेवकृतं, परस्परोदीरितं चेति त्रिविधं दुःखं, तथा तिर्यक्षु-ताडनतर्जन-क्षुत्पिपासा-पारवश्य-भारारोपणाद्यनेकविधं दुःखं, मनुष्येषु-दारिद्रय शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य का प्रकट हो जाना श्रद्धा का चिह्न है । वीतरागद्वारा प्ररूपित प्रवचन के तत्त्व में गाढी प्रीति होने से अनन्तानुबंधी कषायों का (क्रोध, मान, माया, लोभ, का) उदय न होना शम कहलाता है। अथवा विपयों के प्रति आसक्ति हट जाना 'शम' है । जिन भगवान् के वचन के अनुसार नरक आदि गतियो में नाना प्रकार के दुःखों को जानकर उन से भयभीत होना 'संवेग' है। जैसे-" अपने किये कर्मों के उदय से नरकों में क्षेत्रजन्य शीत-उष्ण (सर्दी-गर्मी) आदि दश प्रकार की वेदना, परमाधामी देवों द्वारा दीजाने वाली वेदना और परस्पर नारकी जीवों द्वारा होने वाली वेदना, नरक में यह तीन तरह की वेदना है। तिर्यंचों में ताडना, तर्जना, भूख, प्यास, पराधीनता, बोझा ढोना आदि अनेक प्रकार की वेदना है। मनुष्यों में दरिद्रता, શમ, સંવેગ, નિર્વેદ, અનુકંપા અને આસ્તિકય વગેરે પ્રગટ થઈ જાય તે श्रद्धानु चिह्न छ. વીતરાગદ્વારા પ્રરૂપિત પ્રવચનનાં તમાં સજ્જડ પ્રીતિ થવાથી અનન્તાનબંધી કષાયોને (કોધ, માન, માયા, લોભન) ઉદય થાય નહિ તે શમ કહેવાય छ. मथवा विषये प्रति मासहित ही तय ते शम छे. જિન ભગવાનના વચન–અનુસાર નરક આદિ ગતિઓમાં નાના પ્રકારના દુઃખોને नतेनाथ भयभीत थत 'संवेग' छ.रम-“पताना ४२सां ना यथा નરકમાં ક્ષેત્રજન્ય શીત-ઉષ્ણ શર્દી–ગરમી) આદિ દસ પ્રકારની વેદના, પરમાધામી દે દ્વારા જે થાય છે તે વેદના, અને પરસ્પર નારકી જી દ્વારા થનારી વેદના, નરકમાં આ प्रमाणे त्रय प्रशारनी वहना छ. तिर्थ यामां ताना, तना (भार-तरछ।७) भूम, तरस, પરાધીનતા, બીજા ઉપાડવા આદિ અનેક પ્રકારની વેદના છે. મનુષ્યમાં દરિદ્રતા, દુર્ભાગ્ય. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ आचाराङ्गसूत्रे दौर्भाग्य - जन्म - जरा - मरण - रोग-शोक-सन्तापादि, देवेषु - ईर्ष्या - विषाद - परप्रेष्यत्वादिदुःखं जीवा अनुभवन्ति, तस्माद् - ' यथा ममेदृशं दुःखं न स्यात् तथा यत्नं करोमि इत्याकारक आत्मिकपरिणामः संवेगः । यद्वा-सुदेव - सुगुरु- सुधर्मेषु निश्चलोऽनुरागः संवेगः । उक्तञ्च - “ तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्त | साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥ १ ॥ " इति । आगमोऽप्यत्रार्थे प्रमाणम् जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, संताप आदि की वेदना है । देवों में ईर्ष्या, विषाद, आज्ञापालन आदि के दुःख है । जीव इन दुःखों का अनुभव करते है, अत एव मै ऐसा प्रयत्न करूँ कि – जिस से मुझे इस प्रकार के दुःख न भुगतने पडे " । इस प्रकार का आत्मा का परिणाम ‘संवेग' कहलाता है । अथवा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में अचल अनुराग होना 'संवेग ' कहलाता है । कहा भी है " हिंसा आदि की परम्परा से रहित सच्चे धर्म में, राग द्वेष और मोह आदि से रहित देव में, तथा सब प्रकार के परिग्रह से रहित गुरु- साधु में निश्चल अनुराग होना संवेग है " ॥ १ ॥ इस विषय में आगम प्रमाण भी है ४न्स, ४रा, भराशु, रोग, शोड, सन्ताय सहिनी वेहना छे, हेवेाभां ईर्ष्या, विषाद, ( शो४) आज्ञापालन माहिनां दुःयो छे. लव या दुःमोनो अनुभव रे छे. ते કારણથી હું એવા પ્રયત્ન કરૂં કે–જેથી મને આ પ્રકારનુ દુ:ખ ભોગવવું પડે નિહ.' આ પ્રકારનુ આત્માનુ પરિણામ તે સંવેશ કહેવાય છે. અથવા સુદેવ, સુગુરૂ અને સુધર્મમાં અચલ અનુરાગ–પ્રીતિ થવા તે સવેગ કહેવાય છે. કહ્યું પણ છે કેઃ હિંસા આદિની પરમ્પરાથી રહિત સાચા ધર્મમાં, રાગ દ્વેષ અને મેહુ આદિથી રહિત દેવમાં, તથા સર્વ પ્રકારના પરિગ્રહથી રહિત ગુરૂ-સાધુમાં નિશ્ર્ચલ अनुराग थव। ते संवेग छे." ॥ १ ॥ આ વિષયમાં આગમ પ્રમાણ પણ છેઃ ८८ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् "संवेगेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अणंताणुवंधिकोहमाणमायालोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । विसोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥” (उत्तरा० अ० २९) छाया- "संवेगेन भदन्त ! जीवः क जनयति ? संवेगेन अनुत्तरां धर्मश्रद्धां जनयति । अनुत्तरया धर्मश्रद्धया संवेगो हव्यमागच्छति, अनन्तानुवन्धि-क्रोधमानमायालोभान क्षपयति, नवं च कर्म न वनाति, तत्मत्ययिकां च खलु मिथ्यात्वविशोधि कृत्वा दर्शनाराधको भवति, दर्शनविशोध्या च खलु विशुद्धया अप्येककस्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धयति । विशोध्या च खलु विशुद्धया तृतीय पुनर्भवग्रहणं नातिकामति ॥" सुदेव-सुगुरु-सुधर्मेषु निश्चलानुरागरूपेण संवेगेन उत्कृष्टतमा धर्मश्रद्धां "भगवान् ! संवेग से जीव को क्या लाभ होता है ? ___ संवेग से सर्वश्रेष्ठ धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है, और धर्मश्रद्धा से संवेग शीघ्र उत्पन्न हो जाता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ का वह क्षय करता है। नवीन कर्मों का बंध नहीं करता, और इन कारणों से मिथ्यात्व की विशुद्धि कर के जीव दर्शन का अराधक होता है । दर्शनविशुद्धता बढजाने से कोई-कोई जीव उसी भव में सिद्ध हो जाता है, अगर कोई उसी भव में मोक्ष न जावे तो तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता, अर्थात् तीसरे भव में वह अवश्य मोक्ष जाता है"। -(उत्तराध्ययन अ. २९) " सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में निश्चल अनुरागरूप सवेग से जीव को सर्वोत्कृष्ट ભગવદ્ સ વેગથી જીવને શું લાભ થાય છે?” સંવેગથી સર્વશ્રેષ્ઠ ધર્મશ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, અને ધર્મશ્રદ્ધાથી સંવેગ શીધ્ર ઉત્પન્ન થાય છે. અનન્તાનુબ ધી ફોધ. માન, માયા અને લોભ તે ક્ષય કરે છે. નવીન કર્મોને બંધ કરતો નથી, અને એ કારણોથી મિથ્યાત્વની વિશુદ્ધિ કરીને જીવ દર્શનનો આરાધક થાય છે. દર્શનવિશુદ્ધતા વધી જવાથી કઈ-કઈ એ ભવમાં સિદ્ધ થઈ જાય છે કેઈએ ભવમાં મોક્ષે ન જાય તો ત્રીજા ભવનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી, અર્થાત્ ત્રીજા ભવમાં તે અવશ્ય મેક્ષે જાય છે.”(ઉત્તરાઅ.૨) સુદેવ, સુગુરૂ અને સુધર્મમાં નિશ્ચલ અનુરાગરૂપ સંવેગથી જીવને સર્વોત્કૃષ્ટ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ आचारागसूत्रे जीवो जनयति । तया च नरकादिभवेषु घोरतरबहुतराशातवेदनामवलोक्य तद्भयान्मोक्षमार्ग शरणीकृत्य मोक्षाभिलाषरूपं संवेगं शीघ्रं प्राप्नोति । अनन्तानुबन्धिकषायान् क्षपयति, नवीनं कर्म न बध्नाति, तेन मिथ्यात्वं क्षपयित्वा क्षायिकशुद्धसम्यक्त्वं निरतिचारेण पालयति । एवमतिनिर्मलया सम्यक्त्वविशुद्धया कश्चिद्भव्यजीवस्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धि प्राप्नोति । एकः पुनः सम्यक्त्वस्य निर्मलया विशुद्धया तृतीय पुनर्भवग्रहणं नातिक्रामति । मिथ्यात्व. मोहनीयकर्मणो निरवशेषक्षयात् शुद्धक्षायिकसम्यक्त्ववान् भवत्रयमध्ये मोक्षं प्राप्नोत्येवेत्यर्थः। तथा निर्वेदः-आईतवचनाभिनिवेशात्सर्वविषयेषु अनासक्तिः, 'इह –अलोके श्रद्धा उत्पन्न होती है । उस श्रद्धा से नरक आदि गतियों में घोर और बहु असाता की वेदना देखकर तथा उस वेदना के भय से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर मोक्षाभिलाषा-रूपी संवेग को शीघ्र ही स्वीकार कर लेता है । वह अनन्तानुबंधी कषायों का क्षय करता है और नवीन कर्म के बंध को रोक देता है । मिथ्यात्व का क्षय कर के शुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है । इस प्रकार अत्यन्त निर्मल दर्शनविशुद्धि के कारण कोई-कोई भव्य जीव उसी भव में मुक्त हो जाता है, और कोई-कोई तीसरे भव का उल्लंघन नहीं करता अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के सम्पूर्ण क्षय से शुद्धक्षायिकसम्यक्त्वी जीव तीन भवों में अवश्य मोक्ष पाता है। अर्हन्त भगवान् के प्रवचन में प्रगाढ प्रीति होने के कारण सब इन्द्रिय-विषयों में શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, એ શ્રદ્ધાથી નરક આદિ ગતિઓમાં ઘર અને બહુજ અસાતાની વેદના જોઈને. તથા એ વેદનાના ભયથી મોક્ષમાર્ગને આશ્રય લઈને મેક્ષા ભિલાષારૂપી સંવેગને શીઘજ સ્વીકાર કરી લે છે. તે અનન્તાનુબંધી કષાયોને ક્ષય કરે છે. અને નવીન કર્મના બંધને રેકી દે છે. મિથ્યાત્વને ક્ષય કરીને શુદ્ધ ક્ષાયિક સમ્યક્ત્વનું નિરતિચાર પાલન કરે છે. આ પ્રમાણે અત્યન્ત નિર્મલ દર્શનવિશુદ્ધિના કારણે કઈ-કઈ ભવ્ય જીવ એજ ભવમાં મુક્ત થઈ જાય છે, અને કોઈ-કોઈ ત્રીજા ભવનું ઉલ્લંઘન કરતા નથી. અર્થાત્ મિથ્યાત્વમોહનીય કર્મના સંપૂર્ણ ક્ષયથી શુદ્ધક્ષાયિકસમ્યક્ત્વી જીવ ત્રણ ભાગમાં અવશ્ય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. અહંત ભગવાનના પ્રવચનમાં પ્રગાઢ-સજ્જડ પ્રીતિ હોવાના કારણે સર્વ ઈન્ડિયાના Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् ४७९ कामभोगाध्यवसायः खलु दुरन्तोऽनन्तदुःखफलदश्च, परलोकेऽप्यतिकटुको नरकादिजन्मफलप्रदः, इत्यतो न किञ्चित्प्रयोजनमनेन कामभोगाध्यवसायेन, परित्याज्य एवायमतिप्रयत्नेन' इत्येवंरूप आत्मकपरिणामो निर्वेदः । उक्तं च निर्वेदस्वरूपं तत्फलं च, तथाहि "निव्वेएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? निव्वेएणं दिव्यमाणुसतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ । सव्वविसएसु विरज्जइ। सचविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ । आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिदइ, सिद्धिमग्गं पडिवन्ने य हवइ ।" (उत्तरा० अ. २९) आसक्ति न होना 'निर्वेद' है । ' कामभोगसम्बन्धी अध्यवसाय इस लोक में अत्यन्त दुःखदायक है, और परलोक में भी अत्यन्त कटुक नरक आदिरूप फल देने वाला है, अत एव कामभोगसंबंधी अध्यवसाय से मुझे क्या लेन-देन है । इसे खूब परिश्रम कर के त्याग ही देना चाहिए । इस प्रकार का आत्मिक परिणाम 'निर्वेद' कहलाता है । निर्वेद का स्वरूप और फल इस प्रकार कहा गया है: __ " भगवन् ! निर्वेद से जीव को क्या लाभ होता है ? निर्वेद से जीव को देवता मनुष्य और तिथंच संबंधी काम भोगों में शीघ्र ही विरक्ति उत्पन्न होती है। सब विषयों से जीव विरक्त होकर आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ का परित्याग करता हुआ संसारमार्ग को त्यागता है और मोक्षमार्ग को अंगीकार करता है" ।-(उत्तरा. अ. २९) विषयोमा मासहित थाय नडित निर्वेद छ. 'मलासमन्धी मध्यवसाय मा मां અત્યન્ત દુખદાયક છે, અને પરલોકમાં પણ અત્યન્ત કટુક નરકગતિ આદિ રૂપ ફળ દેવાવાળા છે, એટલા માટે કામગસઍધી અધ્યવસાયથી મારે શું લેવા દેવા છે. તેને ખૂબ પરિશ્રમ કરીને ત્યજી દેવા જોઈએ. આ પ્રકારનું આત્મિક પરિણામ તે નિર્વેદ કહેવાય છે. નિર્વેદનું સ્વરૂપ અને ફલ આ પ્રકારે કહ્યું છે– " लावन् ! नि था वने शुदाम थाय छ ? નિર્વેદથી જીવને દેવતા, મનુષ્ય અને તિર્યંચસમ્બન્ધી કામગોમાં શીઘજ વિરકિત ઉત્પન્ન થાય છે. સર્વવિષયોથી જીવ વિરક્ત થઈ જાય છે. સર્વ વિષયેથી વિરકત થઈને આરંભને પરિત્યાગ કરતો થકો સંસારમાગને ત્યજી દે છે. અને મોક્ષમાર્ગને અંગીકાર કરે છે.” (ઉત્તરા૦ અ૦ ર૯) Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० आचारागसूत्रे कदाऽहं संसारं परित्यजेयम् ?' इत्येवंरूपेण निर्वेदेन दिव्यमानुपतैरश्चेषु कामभोगेषु निर्वेदम् अनासक्तिं जीवः शीघ्र प्राप्नोति । इममेवार्थ स्पष्टयति-सर्वविषयेषु विरज्यते-'अलमेतैरनर्थहेतुभूतैविपयैः' इत्येवंरूपं वैराग्यं प्राप्नोति । वैराग्यं प्राप्तश्च सावधव्यापारं परित्यजति । तत्परित्यागं कुर्वन् संसारमार्ग-मिथ्यात्वाविरतिपभृतिरूपं व्यवच्छिनत्ति, संसारमार्गव्यवच्छेदे च जीवः सिद्धिमार्ग सम्यग्दर्शनादिरूपं प्राप्नोतीत्यर्थः। अनुकम्पा-अनु अनुकूलं कम्पनं-रक्षणचेष्टाकरणमनुकम्पा-जिनप्रवचनानुसारेणजीवानामुपरि कारुण्य, प्राणातिपाताकरणं, परदुःखनिवारणं, म्रियमाण ‘कव मै ससार का त्याग करूँ ?' इस प्रकार के निर्वेद से जीव को देव मनुष्य और तिर्यच संबंधी काम भोगों में अनासक्ति प्राप्त होती है । इसी विषय को स्पष्ट करते हैं कि-जीव सब विषयों से विरक्त हो जाता है, अर्थात् ' इन अनर्थ के कारणभूत विषयों से वस करो !' इस प्रकार का वैराग्य पाता है। वैराग्य पाकर जीव सावध व्यापार का त्याग कर देता है । सावध व्यापारका त्याग करता हुआ मिथ्यात्व अविरति आदि संसारमार्ग को छोडता है और संसारमार्ग का त्याग कर के सम्यग्दर्शन आदिरूप मोक्षमार्ग को प्राप्त कर लेता है। ___ 'अनु' अर्थात् अनुकूल ‘कम्पन' अर्थात् रक्षा करने की चेष्टा करना-अनुकम्पा है । अर्थात् जिन भगवान् के उपदेश के अनुसार जीवों पर करुणाभाव होना, किसी के प्राणों का वियोग न करना, दूसरों का दुःख दूर करना, मरते हुए और मारे जाते हुए प्राणियों को प्राण “હું કયારે સંસારને ત્યાગ કરું?” આ પ્રકારના નિર્વેદથી જીવને દેવ, મનુષ્ય અને તિર્યંચ સમ્બન્ધી કામમાં અનાસક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે, તે વિષયને સ્પષ્ટ કરે છે કે –જીવ સર્વ વિષથી વિરકત થઈ જાય છે. અર્થાત્ આ અનર્થના કારણભૂત વિષયોથી બસ કરે?” આ પ્રકારનો વૈરાગ્ય પામે છે. વિરાગ્ય પામીને જીવ સાવદ્ય વ્યાપારનો ત્યાગ કરી દે છે. સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગ કરતે થકે મિથ્યાત્વ, અવિરતિ આદિ સંસારમાગને છેડે છે, અને સંસારમાર્ગને ત્યાગ કરીને સમ્યગ્દર્શન આદિરૂપ મેક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરી લે છે. अनु अर्थात् मनुस, कम्पन अर्थात् २क्षा ४२वानी येष्टा ४२वी ते अनुकम्पा छ. અર્થાત્-જિન ભગવાનના ઉપદેશ પ્રમાણે જીવ પર કરૂણાભાવ થવો, કેઈના પ્રાણની વિગ કરે નહિ, બીજાના દુઃખ દૂર કરવાં, મરતાં અને મરાતાં પ્રાણીઓને પ્રાર્થ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् ४८१ मार्यमाणप्राणिनां प्राणसंकटान्मोचनं च । आस्तिक्यम्-जिनप्रणीतागमानुसारेण · अस्ति जीवादिपदार्थसार्थः' इति मतियस्य स आस्तिकः, तस्य भावः आस्तिक्यम् । 'जिनेन्द्रप्रवचनोपदिष्टा जीवपरलोकादयः सर्वेऽतीन्द्रियाः पदार्थाः सन्ति' इत्येवंरूप आत्मपरिणामः । एभिः शमसंवेगादिभिर्भव्यानां श्रद्धाऽवबुध्यते । ।मिथ्यादृष्टेरपि श्रद्वाप्राप्तिःश्रद्धा निसर्गादधिगमाद्वा जायते । उक्तश्च " सम्मइंसणे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-निसग्गसम्मइंसणे चैव अधिगमसंकट से छुडाना-अनुकम्पा है। 'आस्तिक्य'-"जिनप्रणीत आगम के अनुसार जीवादि पदार्थों का अस्तित्व है " । एसी “जिस की मति हो वह 'आस्तिक' है । आस्तिकपन को 'आस्तिक्य' कहते है । जिनप्रवचन में उपदिष्ट जीव, परलोक आदि सभी अतीन्द्रिय पदार्थ है " इस प्रकार का आत्म-परिणाम 'आस्तिक्य' है । इन शम संवेग आदि से भव्यों के सम्यक्त्व का पता लगता है । मिथ्यादृष्टि को श्रद्धापाप्ति जिस ? (स्वभाव) से अथवा अधिगम (किसी के द्वारा सुनने आदि) से श्रद्धा उत्पन्न होती है । कहा भी है “सम्यग्दर्शन दो प्रकार का कहा गया है-निसर्ग-सम्यग्दर्शन और अधिगम स४थी छ।31440 ते अनुकम्पा छे. आस्तिक्य-“निप्रीत मागम मनुसार पाहि पार्थानु मस्तित्व छ." मेवानी भति छ. ते मास्तिछे. मास्तिपाने 'आस्तिक्य' ४ छ. 'नि પ્રવચનમાં ઉપદિષ્ટ જીવ, પરલેક આદિ સર્વ અતીન્દ્રિય પદાર્થ છે. આ પ્રકારનાં मात्मपरिणाम त आस्तिक्य छे. આ શમ, સંવેગ, આદિથી ભવ્યેના સમ્યકત્વને પતે લાગે છે. મિથ્યાષ્ટિને શ્રદ્ધાની પ્રાપ્તિ નિસર્ગ (સ્વભાવ)થી અથવા અધિગમ (કેઈન દ્વારા સાંભળવું આદિ)થી શ્રદ્ધા उत्पन्न थाय छे. ४युं पY छ - ___सभ्यर्शन में प्राप्नु -निसर्ग-सभ्यशान भने (२) मलिगमप्र. मा.-६१ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ आचारागसूत्रे सम्मइंसणे चेय" (स्थानाङ्ग० स्था. २ उ.१) । तत्र निसर्गः, परिणामः, स्वभावः, इत्येकार्थकाः । अपूर्वकरणानन्तरं यद् भवत्यनिवृत्तिकरणं तनिसर्ग इति कथ्यते । निसृज्यते कार्योत्पत्तौ सत्यामिति निसर्गः, कार्ये समुत्पन्ने सति कारणस्य न किञ्चित् प्रयोजनं भवति, उत्पन्ने सम्यक्त्वे प्रयोजनाभावादनिवृत्तिकरणं परित्यज्यते । न चात्यन्तं परित्यागस्तस्येष्यते यतस्तदेव कारणं तेनाकारेण परिणतम्, यथा-उत्थितोऽपि पुरुषः पुरुष एव, आसीनो शयितो वा पुरुषः पुरुष एव, अवस्थामात्रभेदादवस्थावतो भेदः क्वापि न दृश्यते। तत्रपरिणामस्यानेकरूपत्वेऽपि परिणामिनोऽन्वयिद्रव्यस्य न तत्त्वात् सर्वथा भेदः, सम्यम्दर्शन" । ( स्थानांग. स्था. २ उ. १) । निसर्ग, परिणाम, या स्वभाव, ये सब पर्यायवाचक हैं । अपूर्वकरण के पश्चात् होने वाला अनिवृत्तिकरण 'निसर्ग' कहलाता है। कार्य की उत्पत्ति हो जाने पर जो त्याग दिया जाता है वह 'निसर्ग' है। कार्य की उत्पत्ति हो जाने के बाद कारण का कोई प्रयोजन नहीं रहता, क्यों कि सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर प्रयोजन नहीं रहने से अनिवृत्तिकरण त्याग दिया जाता है, मगर उस का अत्यन्त परित्याग नहीं किया जाता, क्यों कि वही कारण उस आकार में कार्यरूप मेंपरिणत हो जाता है । जैसे-खडा हुआ पुरुष-पुरुष ही है 1 बैठा हुआ या सोया हुआ पुरुष भी पुरुष ही है। अवस्थाओं में भेद होनेमात्र से अवस्थावाले में कहीं सर्वथा सभ्यशिन" (स्थानां10 स्था. २ ७. १) નિસર્ગ, પરિણામ અથવા તે સ્વભાવ, આ સર્વ પર્યાયવાચક શબ્દ છે. અપૂર્વ કરણની પછી થવાવાળાં અનિવૃત્તિકરણ ના કહેવાય છે. કાર્યની ઉત્પત્તિ થઈ જવા પછી त्य वामां पाव छ. निसर्ग छे. ४ायनी उत्पत्ति थ गया पछी ४।२र्नु । પ્રોજન રહેતું નથી. કેમકે–સમ્યકત્વ ઉત્પન્ન હોવા છતાંય પણ પ્રોજન નહિ રહેવાથી અનિવૃત્તિકરણ ત્યાગી દેવામાં આવે છે. અર્થાત પ્રયોજન નહિ રહેવાથી અનિવૃત્તિકરણને ત્યાગ કરવામાં આવે છે. પરંતુ તેને અત્યન્ત પરિત્યાગ કરવામાં આવતું નથી કારણ કે તે કારણ તેવા આકારમાં–કાર્યરૂપમાં–પરિણત થઈ જાય છે. જેમ ઉભે રહેલો પુરૂષ, પુરજ છે, બેઠેલે અથવા સુતેલે પુરૂષ પણ પુરૂષ જ છે, અવસ્થાઓમાં ભેદ થવા માત્રથી અવસ્થા Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १. उ. ३ सु. २ श्रद्धास्वरूपम् ૮૩ तथाऽत्रापि अनिवृत्तिकरणरूपः परिणामो निसर्गः सम्यक्त्वाकारेण वर्तते पूर्वावस्थामपनुद्याबस्थान्तरमाप्तिः परिणामः परिणामि जीवद्रव्यं तु ध्रुवमेव । परिणामोऽप्यत्र वैनसिक एव, अभ्रन्द्रधनुरादिवदिति परिणामः स्वभाव इति वाच्यम् । • ननु श्रद्धा निसर्गतः कथमुत्पद्यते ? उच्यते - कर्मणोऽनादित्वात्पूर्वकर्मोंदयेन यद्यदन्यत्कर्म ज्ञानावरणीयादिकं स्वेनैव कृतं तदपि कार्मणशरीरेण सहैव बध्यते कर्मत्वादिदानीतनकर्मवत् । एवंविधपूर्वगृहीतकर्मणः फलमुपभुञ्जानस्य भव्यजीवस्य ज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावतयाऽनादिमिथ्यादृष्टेरपि तादृशभवस्थिति भेद नहीं देखा जाता । जैसे परिणमन, अनेक प्रकार का होने पर भी परिणामी - अन्वयि - द्रव्य एक होने से उस में सर्वथा भेद नहीं होता । उसी प्रकार यहाँ अनिवृत्तिकरणरूप परिणाम निसर्गसम्यक्त्व के रूप में परिणत हो जाता है - उसकी पूर्व - अवस्था मिटकर नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है, फिर भी परिणामी - जीवद्रव्य - ज्यों का त्यों ध्रुव बना रहता है । परिणाम भी यहाँ वैखसिक ( स्वाभाविक ) लेना चाहिए, मेघ तथा इन्द्रधनुष की तरह, अत एव परिणाम का अर्थ - स्वभाव है । शङ्का- - श्रद्धा, स्वभाव ( निसर्ग ) से किस प्रकार उत्पन्न होती है ? | समाधान --- अनादि काल से लगे हुए पूर्वकर्मों के उदय से ज्ञानावरणीय आदि जो-जो कर्म जीवने किये है, वे सब कार्मण शरीर के साथ ही कर्म है, वर्तमानकालीन कर्मों के समान । इस प्रकार के पहेले ग्रहण फल भोगते हुए भव्य जीव ज्ञानदर्शनरूप उपयोगस्वभाववाला बँधते है, क्योंकि वे किये हुए कर्मों का होने के कारण વાળામાં કેાઈ સર્વથા ભેદ જોવામાં આવતા નથી જેમ-પરિણમન અનેક પ્રકારનાં હેવા છતાંય પણ પરિણામી—અન્વયિદ્રવ્ય એક હાવાથી તેમાં સર્વથા ભેદ થતા નથી, તે પ્રમાણે અહિં અનિવૃત્તિકરણરૂપ પરિણામ નિસર્ગ સમ્યક્ત્વના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે—તેની પૂર્વ અવસ્થા મટીને નવીન અવસ્થા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, પણ પરિણામી लवद्रव्य-नेम छे तेस ध्रुव भनी रहे छे. परिणाम पशु अहि वैनसिक (स्वालावि४) લેવું જોઇએ, મેઘ તથા ઈન્દ્રધનુષની માફક એ પ્રમાણે પરિણામના અથ સ્વભાવ છે. શકા—શ્રદ્ધા સ્વભાવ (નિસગ`)થી કયા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે? સમાધાન—અનાદિ કાળથી લાગેલાં પૂર્વ કર્માંના ઉદયથી જ્ઞાનાવરણીય આદિ જે-જે કર્માં જીવે કર્યા છે, તે સ કાણુ શરીરની સાથેજ ખંધાય છે; કેમકે તે કમ છે, વર્તમાનકાલીન કર્મીની સમાન. આ પ્રકારનાં પહેલાં ગ્રહણ કરેલા કર્મોનુ ફૂલ ભાગવત Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ आचाराङ्गसूत्रे परिपाकवशेन शुभपरिणामरूपाऽध्यवसाया भवन्ति, तेषां स्थानानि मन्द-मध्यतीव्राणि भवन्ति । तत्र जघन्यशुभपरिणामस्य स्थानं विशुद्धं, तस्मादुत्कृष्टस्य विशुद्धतरं, ततोऽप्युत्कृष्टशुभपरिणामस्य विशुद्धतमं स्थान प्राप्नुवतो जीवस्य वर्धमानशुभपरिणत्या तादृक्परिणामविशेषो जायते, येन तीर्थङ्कराद्युपदेशमन्तरेण स्वत एव जीवस्य कर्मोपशमादिभ्यः श्रद्धोत्पद्यते । तत्रायं क्रमः श्रद्धाप्राप्तयेऽधिकारी द्विविधो भवति, अनादिमिथ्यादृष्टिः, सादिमिथ्यादृष्टिश्च । यः पूर्व कदापि सम्यक्त्वं न लब्धवान् सोऽनादिमिथ्यादृष्टिः । यश्च भव्यः पूर्व सम्यक्त्वं प्राप्य पश्चादनन्तानुवन्धिकषायोदयादुपजातमिथ्यात्वः अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि होने पर भी अमुक प्रकार की भवस्थिति का परिपाक होने से उसके शुभपरिणामरूप अध्यवसाय उत्पन्न होते है। उन अध्यवसायों के स्थान मन्द, मध्यम और तीव्र होते है । इन में जघन्य शुभ परिणाम का स्थान विशुद्ध है, उस से उत्कृष्ट विशुद्धतर है । और उससे भी उत्कृष्ट शुभपरिणाम विशुद्धतम है । इन स्थानों को प्राप्त जीव के बढ़ते हुए शुभ परिणामों से एक ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है, जिस के द्वारा तीर्थकर आदि के उपदेश के विना ही स्वयमेव जीव को कर्मों का उपशम आदि होने से श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। कम इस प्रकार हैदो प्रकार के जीव श्रद्धा पाने के अधिकारी हैं-(१) अनादिमिथ्यादृष्टि और (२) सादिमिथ्यादृष्टि । जिस जीवने पहले कभी सम्यक्त्व नहीं पाया वह अनादिमिथ्यादृष्टि कहलाता है। जिस भव्य जीवने पहले सम्यक्त्व पाया किन्तु થકે ભવ્ય જીવ જ્ઞાન-દર્શનારૂપ ઉપગસ્વભાવવાળા હેવાના કારણે અનાદિ કાલથી મિથ્યાદષ્ટિ હોવા છતાંય પણ અમુક પ્રકારની ભાવસ્થિતિને પરિપાક હોવાથી તેને શુભ પરિ ણામરૂપ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થાય છે. તે અધ્યવસાયનાં સ્થાન મંદ, મધ્યમ અને તીવ્ર હોય છે. તેમાં જઘન્ય શુભ પરિણામનું સ્થાન વિશુદ્ધ છે, તેનાથી ઉત્કૃષ્ટ વિશુદ્ધતર છે અને એનાથી પણ ઉત્કૃષ્ટ શુભ પરિણામ વિશુદ્ધતમ છે. આ સ્થાનેને પ્રાપ્ત જીવના વધતા ગયેલા શુભ પરિણમેમાંથી એક એવું પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે કે જેના દ્વારા તીર્થકર આદિના ઉપદેશ વિનાજ સ્વયમેવ, જીવને કર્મોને ઉપશમ આદિ થવાથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. उमरेछબે પ્રકારના જીવ શ્રદ્ધા પ્રાપ્ત કરવાની અધિકારી છે. (૧) અનાદિમિથ્યાષ્ટિ અને (૨) સાદિમિાદષ્ટિ. જે જીવે પહેલા ક્યારેય સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત કર્યું. નથી તે અનાદિ મિથ્યાષ્ટિ કહેવાય છે. જે ભવ્ય જીવે પહેલાં સમ્યક્ત્વ પ્રાપ્ત કર્યું હતું પરંતુ પછીથી Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू.२ श्रद्धास्वरूपम् છે, जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, स उत्कर्पतो देशोनापुद्गलपरावर्त्त स्थित्वा पुनः सम्यक्त्वं प्राप्स्यति, स सादिमिथ्यादृष्टिर्भवति ।। ___ यथाप्रवृत्तिकरणम्एवमुभयविधस्य मिथ्यादृष्टेजीवस्य परिणामरूपाध्यवसायः पूर्वं जघन्यशुभपरिणाममङ्गीकृत्य परः परः शुभपरिणामः परिणामविशेष इत्युच्यते । स एव परिणामविशेषो 'यथाप्रवृत्तिकरण'-मित्युच्यते । ___ यथाप्रवृत्तिकरण-मित्यस्य शब्दार्थस्त्वेवम्-यथा येन अनादिसंसिद्धप्रकारेण प्रवृत्तिर्यस्य तत् यथाप्रवृत्ति, क्रियते कर्मक्षपणमनेनेति करण जीवस्य शुभपरिणामः, यथाप्रवृत्ति च तत्करणं च यथाप्रवृत्तिकरणं कर्मक्षपणकारणस्याबाद में अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से फिर मिथ्यात्व आ गया किन्तु वह मिथ्यात्व जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन अर्द्धपुद्गलपरावर्तन तक रहता है वह जीव सादिमिथ्यादृष्टि है। यथाप्रवृत्तिकरणइस प्रकार दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि जीवों का अध्यवसाय पहले के जघन्य शुभ परिणाम से लेकर उत्तरोत्तर बढते हुए शुभ परिणाम, परिणामविशेष कहलाता है। उसी परिणामविशेष को 'यथाप्रवृत्तिकरण' कहते है। 'यथाप्रवृत्तिकरण' का शब्दार्थ इस प्रकार है-'यथा' अर्थात् अनादिकालीनरूप से जिस की प्रवृत्ति हो वह यथाप्रवृत्ति कहलाता है । जिस से कर्मों का क्षय किया जाता है, जीव के उस शुभ परिणाम को 'करण' कहते है । यथाप्रवृत्तिઅનન્તાનુબંધી કષાયના ઉદયથી ફરીથી મિથ્યાત્વ આવી ગયું. પણ તે મિથ્યાત્વ જઘન્ય અન્તમુહૂર્ત સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ દેશેન અદ્ધ પુદ્ગલપરાવર્તન સુધી રહે છે. તે જીવ સાદિમિથ્યાષ્ટિ છે. यथावृत्ति:२४આ પ્રકારના બને મિદષ્ટિ ના અધ્યવસાય પહેલાના જઘન્ય શુભ પરિણામથી લઈને ઉત્તરોત્તર વધતા શુભ પરિણામ, પરિણામવિશેષ કહેવાય છે. તે પરિણામ विशेषने यथाप्रवृत्तिकरण छ. "यथाप्रवृतिकरण" न शहाथ 20 मारे छ-'यथा' मर्यात मनाहिदीनपथी २नी 'प्रवृत्ति' डाय ते 'यथाप्रवृत्ति' ४वाय छे. नाथी ४ाना क्षय ४२पामा मा छ, न त शुभ परिणामने "करण" हे. Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ आचाराङ्गसूत्रे व्यवसायमात्रस्य सर्वदैव भावादुदयावलिकामविष्टानां कर्मणां सर्वदैव क्षपणात् । यथाप्रवृत्तिकरणं भव्यस्याभव्यस्य च भवति । वक्ष्यमाणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च भव्यस्यैव भवति, न त्वभव्यस्य । मिथ्यात्ववशादनन्तान् पुद्गलपरावर्त्तान् अनन्तदुःखान्यनुभूय कथमपि तादृशभवस्थितिपरिपाकवशाद् गिरिणदीप्रवहदुद्वर्त्तितापवर्त्तित पापाणवर्चुलावस्थावदनाभोगनिर्वर्त्तितेन यथामवृत्तिकरणेन विशुद्धपरिणाम विशेषरूपेणायुष्यकर्म वर्गयित्वा ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासंख्येयभागन्यूनैकरूप करण यथाप्रवृत्तिकरण कहलाता है । कर्मक्षय का कारणभूत अध्यवसाय सदैव वना रहता है, क्यों कि उदयावलिका में आए हुए कर्मों का सदा क्षय होता रहता है । यथाप्रवृत्तिकरण भव्य जीव को भी होता है और अभव्य जीव को भी होता है, किन्तु आगे कहे जाने वाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण भव्य जीव को ही होते हैं; अभव्य जीव को नहीं । मिथ्यात्व के वश होकर अनन्त पुद्गलपरावर्तनों तक अनन्त दुःखों को भोगने के पश्चात् किसी भी तरह उस प्रकार की भवस्थिति का परिपाक होने से पहाड़ी नदी के प्रवाह में बहने वाला; लुढक (गुडक )ने वाला, घिसने वाला पाषाण जैसे गोलमटोल बन जाता है, उसी प्रकार अनजान में ही यथाप्रवृत्तिकरणरूप विशुद्ध परिणाम के कारण आयुकर्म को छोडकर ज्ञानावरणीय आदि सात कर्म पल्योपम के असंख्यातवे भाग कम यथाप्रवृत्तिरूप करण ते 'यथाप्रवृत्तिकरण' अडेवाय छे. उर्भक्षयना अरशुलूत अध्यवसाय હમેશાં ખની રહે છે, કેમકે-ઉદયાવલિકામાં આવેલાં કર્મોના હમેશાં ક્ષય થયા કરે છે. यथाप्रवृत्तिकरण भव्य भवने पशु थाय छे, भने मलव्य भवने या थाय छे, परन्तु આગળ કહેવામાં આવશે તે અપૂર્વકરણ અને અનિવૃત્તિકરણ ભવ્ય જીવાને જ થાય છે, અલબ્ધ જીવાને થતાં નથી. મિથ્યાત્વને વશ થઈ તે અનન્ત પુદ્ગલપરાવર્ત્તના સુધી અનન્ત દુ:ખાને ભાગવ્યા પછી કાઈ પણ પ્રકારે આ પ્રકારની ભવસ્થિતિના પરિપાક થવાથી પ્રહાડી નદીના પ્રવાહમાં વહેવાવાળા ગમડવાવાળા, ઘસાતા જતા પથ્થર જેવી રીતે ગેાળ–મટોળ ખની જાય છે, એ પ્રમાણે અજાણતાં પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણુરૂપ વિશુદ્ધ પરિણામના કારણે આયુકતે ત્યજીને ખીજા જ્ઞાનાવરણીય આદિ સાત કેમ પડ્યેાપમના અસંખ્યાતમા ભાગ–આછાં Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् सागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानि करोति । उक्तञ्च- . "अंतिमकोडाकोडीए होइ सव्यासि कम्मपगडीणं । पलियामसंखभागे, खीणे सेसे हवइ गंठी ॥ १॥" तत्रायं क्रमो विज्ञेयः-ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-वेदनीया-ऽन्तरायकर्मचतुष्टयस्य त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोट्य उत्कृष्टा स्थितिः। नामगोत्रयोविंशतिसागरोपमकोटीकोटयः, मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोटय उत्कृष्टा स्थितिः। तत्र यथाप्रवृत्तिकरणेन जीव उत्कृष्टां स्थिति हासयन् तावती स्थिति प्रापयति, येन समानरूपेण सप्तानां कर्मणां पल्योपमासंख्येयभागन्यूनैकसागरोपमकोटीकोटीस्थितिएक कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति में लाये जाते हैं। कहा भी है " समस्त कर्म प्रकृतिया जब पल्य के असंख्यातवें भाग कम कोडाकोडी की स्थितिवाली होती है, तब ग्रन्थि होती है " ॥ १ ॥ क्रम इस प्रकार है-ज्ञानावरणीय, दशनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस-तीसकोडा-कोडी सागरोपम की है। नाम और गोत्रकी वीस-वीस कोडाकोडी सागरोपम की है, और मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सित्तर (७०) कोडाकोडी सागरोपम की है। यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा जीव इस सारी उत्कृष्ट स्थिति को घटाकर इतनी कम कर डालता है कि सातो कर्मों की स्थिति समानरूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम कोडाकोडी એક કોડા-કોડી સાગરોપમની સ્થિતિમાં લાવવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે. “સમસ્ત કર્મપ્રકૃતિએ જ્યારે પલ્યના અસંખ્યાતમાં-ભાગ ઓછા–એક जोड1-8ोडीनी स्थितिवाणी डाय छे, त्यारे अथि थाय छे." ||१|| ક્રમ આ પ્રમાણે છે-જ્ઞાનાવરણીય, દર્શનાવરણીય, વેદનીય અને અન્તરાય આ ચાર કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રીસ-ત્રીસ કોડા–કોડી સાગરોપમની છે. નામ અને ગોત્રની વીસ વીસ કોડાકોડી સાગરોપમની છે. અને મોહનીય કર્મની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સીતેર (૭) કોડા-કોડી સાગરોપમની છે. યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા જીવ તમામ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિને ઓછી કરીને–એટલી ઓછી કરી નાંખે છે કે-સાતે કર્મોની સ્થિતિ સમાનરૂપથી પાપમના અસંખ્યાતમાં ભાગ ઓછા એક સાગરેપમ કોડા-કોડીની બાકી રહી જાય છે એના Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ आचारागसूत्रे रवशिष्टा भवति । अत्रान्तरे च यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्मनिर्जरां कुर्वतो जीवस्य यावत् पूर्वकर्मणो निर्जरा न भवति तावत् स्थीयमानं तीव्ररागद्वेषपरिणामरूपं कर्म, ग्रन्थिसादृश्याद् ग्रन्थिरित्युच्यते ॥ यथा काष्ठविशेषस्य अतिकठोरनिविडातिशुष्कघनगूढग्रन्थिदुर्भधस्तथा तीव्ररागद्वेषपरिणामरूपः कर्मविशेषोऽपि दुर्भयो भवति तस्माद् ग्रन्थिशब्देन व्यवहियते । अभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणवलेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तवारमेतद्ग्रन्थिपर्यन्तमागच्छन्ति । कश्चिद् ग्रन्थिस्थान प्राप्य तस्मादधः पतति । कश्चित्तत्रैव ग्रन्थिस्थाने स्थितस्तिष्ठति, न तस्मादग्रे प्रवर्तते । की बाकी रह जाती है । इसी बीच-यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा कर्मों की निर्जरा करते हुए जीव के जितने कर्मों की निर्जरा नहीं होती अर्थात् जो कर्म शेष रह जाते है, वेतीत्र राग द्वेषपरिणामरूप कर्म, ग्रन्थि के समान होने के कारण ग्रन्थि ( गांठ) कहलाती हैं । ____जैसे-काठविशेष की अत्यन्त कठिन घनी और एकदम सूखी भीतरी गांठ दुर्भध होती है, उसी प्रकार राग-द्वेषपरिणामरूप कर्मविशेष भी दुर्भेद्य होता है, अत एव वह कर्म, ग्रन्थि कहलाती है। ___ अभव्य जीव भी यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा कर्म का क्षय कर के अनन्त वार ग्रन्थि पर्यन्त आ पहुँचते है, कोई-कोई ग्रन्थिस्थान को प्राप्त कर के फिर नीचे गिर जाता है । कोई-कोई प्रन्थिस्थान पर ही ठहर जाता है, आगे नहीं बढता है। વચમાં-યથાપ્રવૃત્તિકરણ દ્વારા કર્મોની નિજેરા કરતા થકા જીવનમાં જેટલાં કર્મોની નિર્જરા નથી થતી અર્થાત્ જે કર્મ શેષ રહી જાય છે તે તીવ્ર રાગદ્વેષપરિણામરૂપ કમ, ગ્રંથિના સમાન હોવાના કારણે ગ્રંથિ (ગાંઠ) કહેવાય છે. જેવી રીતે કાષ્ઠ (લાકડા) વિશેષની અત્યન્ત કઠિન, મજબુત અને એકદમ સૂકી અંદરની ગાંઠ દુર્ભેદ્ય હોય છે, એ પ્રમાણે રાગ-દ્વેષપરિણામરૂપ કર્મ વિશેષ પણ દુર્ભેદ્ય હોય છે. એટલા માટે તે કર્મ, ગ્રંથિ કહેવાય છે. અભવ્ય જીવ પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણ દ્વારા કમને ક્ષય કરીને અનંતવાર ગ્રંથિ સુધી પહોંચે છે. કેઈ કઈ ગ્રંથિ સ્થાનને પ્રાપ્ત થઈને પાછા નીચે પડી જાય છે. કઈ-કઈ ગ્રંથિ સ્થાન ઉપરજ રહી જાય છે. આગળ વધી શકતા નથી. Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सृ. २ श्रद्धास्वरूपम् अभव्योऽपि कश्चिद् यथाप्रवृत्तिकरणेन ग्रन्थिपर्यन्तं समागत्य तीर्थङ्करातिशयदर्शनेन लब्धिधारिभावितात्ममहात्मनो महिमावलोकनेन, प्रयोजनान्तरेण वा प्रवर्त्तमानः सूत्रार्थतदुभयश्रवण पठनरूपं श्रुतसामायिकं करणादिकम् । लभते, न त्वन्यदपूर्व ४८९ ॥ अपूर्वकरणम् तदनन्तरं कश्विदेव भव्यजीव आसन्नसिद्धिसुखत्वादुदितमचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरोऽतिनिशित कुठारेणेव यथाप्रवृत्तिकरणापेक्षया ध्यवसायविशेषरूपेणा पूर्वकरणेन प्रागुक्तं दुर्भेद्यं कर्मग्रन्थि भिनत्ति । विशुद्धतरेणाभूत पूर्वशुभा कोई अभव्य भी यथाप्रवृतिकरणद्वारा ग्रन्थि तक आकर तीर्थंकर भगवान् का अतिशय देखकर, लब्धिधारी भावितात्मा महात्मा की महिमा देखकर, अथवा किसी अन्य प्रयोजन से प्रवृत्ति करता हुआ सूत्र, अर्थ और तदुभय आगम का श्रवण या पठनरूप श्रुतसामायिक को प्राप्त कर लेता है, मगर वह अपूर्वकरण आदि को नहीं पा सकता । अपूर्वकरण तदनन्तर मोक्षसुख समीप होने के कारण जिस में प्रचुर और दुर्निवार शक्ति उत्पन्न हो गई है ऐसा कोई भव्य जीव ही बहुत तीखे कुल्हाडे के समान यथाप्रवृत्ति - करण की अपेक्षा अधिक विशुद्ध, और पहले कभी भी प्राप्त न होने वाले शुभअध्यवसायरूप अपूर्वकरण के द्वारा उस दुर्भेद्य कर्मग्रन्थि को भेदता है । - કાઈ અલભ્ય પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારા ગ્રંથી સુધી આવીને તીર્થંકર ભગવાના અતિશયને જોઇને, લબ્ધિધારી ભાવિતાત્મા મહાત્માના મહિમા જોઇને, અથવા કેાઈ અન્ય પ્રચાજનથી પ્રવૃત્તિ કરતે થકે, સૂત્ર, અર્થ અને તદુભય આગમના શ્રવણ અથવા પઠનરૂપ શ્રુત–સામાયિકને પ્રાપ્ત કરી લે છે, પરન્તુ તે અપૂર્ણાંકરણ આદિને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. पूर्व– ત્યાર પછી મેાક્ષસુખ સમીપ હાવાના કારણે જેનામાં મહાન અને કાઈથી નિવારી શકાય નહિ તેવી શક્તિ ઉત્પન્ન થઈ ગઈ છે. એવા કાઈ ભવ્ય જીવજ મહુજ તીખા કુહાડા સમાન યથાપ્રવૃતિકરણની અપેક્ષા અધિક વિશુદ્ધ, અને પહેલાં કેાઈ વખત પણ પ્રાપ્ત નહિ થયેલા શુભ-અધ્યવસાયરૂપ પૂર્વવરણ દ્વારા એ દુર્ભેદ્ય ક`ગ'થિને ભેદે છે. प्र. आ.-६२ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे अस्मिन् ग्रन्थिभेदे मनःक्षोभपरिश्रमादिविघ्नाः भवन्ति । यथा विद्यासाधकस्य विद्याधिष्ठातृदेवताकृतोपसर्गैर्मनः क्षोभो भवति, यथा घोरमहासमरगतसुभटस्य दुर्धर्षबहुतरशत्रगणपराजयकरणात्परिश्रमो भवति, यथा च महासमुद्रादिभ्यो नौकादितारणे नाविकस्य परिश्रमो भवति तथा प्रचुरदुर्जयकर्मशत्रुसंघातपराजये परिश्रमोऽतिशयेन जायते । वज्राश्मवदुर्भेद्योऽयं कर्मग्रन्थिः । अपूर्वकरणवज्रसूच्याश्रयमन्तरेणास्य भेदो दुष्करः । ४९० अपूर्वकरणवज्रसूच्या सकृद् ग्रन्थिभेदे कृते सति लब्धविशुद्धतमश्रद्धाग्रन्थिभेदन करने में मानसिक क्षोभ तथा परिश्रम आदि अनेक विघ्न उपस्थित होते हैं । जैसे विद्या की साधना करने वाले को विद्या की अधिष्ठात्री देवता के द्वारा किये जाने वाले विघ्नों से मन में क्षोभ होता है, और घनघोर महायुद्ध में गये हुए योद्धा को बहु-संख्यक और दुर्जय शत्रुओं के दल पर विजय प्राप्त करने में परिश्रम करना पडता है, अथवा जैसे किसी महासमुद्र से जहान वगैरह को पार लगाने में नाविक को परिश्रम करना पडता है, उसी प्रकार बहुत-से दुर्जय कर्मशत्रुओं के दल को पराजित करने में अत्यन्त परिश्रम करना पडता है । यह कर्मग्रन्थि वज्र की तरह बडी कठिनाई से भेदी जाती है । अपूर्वकरणरूपी वज्र की सुई का सहारा लिये विना उस का भेदन होना अशक्य है । अपूर्वकरण की वज्रमय सुई से एक वार कर्मग्रन्थि का भेदन हो जाने पर પ્રથિભેદ્યન કરવામાં માનસિક ક્ષેાભ તથા પરિશ્રમ આદિ અનેક વિઘ્ન ઉપસ્થિત થાય છે. જેમ વિદ્યાની સાધના કરવાવાળાને વિદ્યાની અધિષ્ઠાત્રી દેવતાદ્વારા થવાવાળા વિઘ્નાથી મનમાં ક્ષોભ થાય છે, અને ઘનઘાર મહાયુદ્ધમાં ગયેલા ચૈાધાને ઘણીજ સંખ્યાવાળા અને દુય શત્રુઓના દળ ઉપર વિજય મેળવવામાં જેમ પરિશ્રમ १२वा पडे छे. अथवा — ——જેવી રીતે કોઈ મહાસમુદ્રમાંથી વહાણુ વગેરેને પાર લઈ જવામાં નાવિકાને પરિશ્રમ કરવા પડે છે, એ પ્રમાણે બહુજ દુય કશત્રુઓના દળના પરાજય કરવામાં અત્યન્ત પરિશ્રમ કરવા પડે છે. या उर्भग्रंथि चलना नेवी भडाउठिनताथी लेही शाय छे. अपूर्वकरण ३थी વજ્રની સાયની સહાય લીધા વિના તેનુ લેટ્ઠન થવું અશક્ય છે. અપૂર્વાની વામય સેાયથી એકવાર કમગ્રંથિનું ભેદન થઈ જવા પછી Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. २ श्रद्धास्वरूपम् ४९१ सामर्थ्यान्न पुनर्ग्रन्थिबन्धनं भवति, यथा जातवेधो मणिः कथञ्चिद्रजसा परिपूरितेऽपि रन्धे न पूर्वावस्थां प्राप्नोति, तथैव संस्पृष्टसम्यक्त्वो जीवः कथञ्चित्सम्यक्त्वापगमे पश्चात्तीव्ररागद्वेषपरिणामप्राप्तावपि न पुनर्ग्रन्थिरूपेण कर्म बध्नाति । ___ यथा जन्मान्धस्य कथञ्चिच्चक्षुःप्राप्तौ सत्यां यथावस्थितपदार्थसार्थावलोकनेन, यथा', च महाव्याधिजनितदुरन्तघोरवेदनासमाक्रान्तस्य तद्वयाध्यपगमे महान् । प्रमोदो जायते तथा भव्यस्यानिवृत्तिकरणवलेन वीतरागोपदिष्ट जीव को श्रद्धा की अत्यन्त विशुद्ध शक्ति प्राप्त हो जाती है, अत एव • फिर कभी ग्रंथिबंध नहीं होता। किसी मणि में एक बार छेद कर दिया जाय और कालान्तर में उस में धूल भर जाय तो भी वह छेद पहले की भाति नहीं होता । इसी प्रकार एकवार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने वाला जीव सम्यक्व के नष्ट हो जाने पर भी बाद में तीन राग-द्वेषरूप परिणामो की प्राप्ति होने पर भी ग्रंथि के रूप में कर्मों का बध नहीं करता। जैसे जन्म से अंवे को किसो उपाय से आंख मिलने पर पदार्थों का असली स्वरूप देखकर अत्यन्त हर्ष होता है, अथवा जैसे किसी महान् रोग से होने वाली घोर वेदना से पीडित पुरुष के रोग हट जाने पर महान् हर्ष होता है, उसी प्रकार भव्य-जीव को अनिष्टत्तिकरण के बल से भगवान् वीतराग द्वारा कथित यथार्थ જીવને શ્રદ્ધાની અત્યન્ત વિશુદ્ધ શક્તિ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે, એટલા માટે ફરી કઈ વખત ગ્રંથિબંધ થતું નથી. કેઈ મણિમાં એક વખત છિદ્ર–કાણુ પાડયાં પછી કાલાન્તરમાં તે છિદ્રમાં કદાચ ધૂળ ભરાઈ જાય તે પણ તે છેદ પ્રથમ પ્રમાણે થતું નથી. આ પ્રકારે એકવાર સમ્યકત્વ પ્રાપ્ત કરી લેવાવાળા જીવ, સમ્યક્ત્વનો નાશ થવા છતાં પણ પછીથી તીવ્ર રાગ-દ્વેષ રૂપ પરિણામેની પ્રાપ્તિ થવા છતાંય પણ ગ્રંથિના રૂપમાં કર્મોને બંધ કરતા નથી. જેવી રીતે જન્મથી આંધળાને કેઈપણ ઉપાયથી નેત્ર મળી જતાં પદાર્થોના અસલી સ્વરૂપને જોઈને અત્યંત હર્ષ થાય છે, અથવા જેમ કેઈ મહાન રોગથી થવા વાળી મહાઘોર વેદનાથી પીડિત પુરૂષને રેગ નિવારણ થઈ જતાં તેને મહાન હર્ષ થાય છે. એ પ્રમાણે ભવ્ય જીવને નિવૃત્તિના બળથી, ભગવાન વિતરાગદ્વારા કથિત Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ४९२ आचारासूत्रे यथावस्थितवस्तुतत्त्वाऽभिरुच्या श्रद्धयाऽभूतपूर्वो विषयवरस्यपुरस्कृतः प्रमोदः प्रादुर्भवति । ॥अनिवृत्तिकरणम्ततश्च ग्रन्थिभेदोत्तरकालमेव ततो विशुद्धतम शुभाध्यवसायविशेषमनिवृत्तिकरणं प्राप्नोति, येन तावन्न निवर्तते जीवः सम्यक्त्वं न लभते यावदित्यनिवृत्तिकरणमुच्यते । अनिवृत्तिकरणवलेन जीवः सम्यगदर्शनं लभते। तदेव नैसर्गिकी श्रद्धोच्यते । ननु प्रागुक्तं - मिथ्थात्वमोहनीयकर्मापशमादिभ्यः श्रद्धा जायते' पुनरुच्यते 'निसर्गादधिगमाद्वा श्रद्धा जायते । तदसंगतम् । वस्तुस्वरूप के प्रति रूचिरूप श्रद्धा से विषयवैराग्यपूर्वक एक ऐसा आनन्द उत्पन्न होता है, जिस का पहेले कभी अनुभव नहीं हुआ था । अनिवृत्तिकरणग्रंथिभेद के अनन्तर काल में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम उत्पन्न होता है । वही अनिवृत्तिकरण कहलाता है । यह परिणाम प्राप्त होने पर जीव सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना नहीं लौटता, इसी कारण इसे 'अनिवृत्तिकरण' कहते है । अनिवृत्तिकरण के द्वारा जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । उसी को नैसर्गिक श्रद्धा कहते हैं । शा--पहले कहा था कि-'मिथ्यात्वमोहनीयकर्म के उपशम आदि से श्रद्धा उत्पन्न होती है और बाद में कहते है कि-'निसर्ग से, अथवा अधिगम से श्रद्धा उत्पन्न होती है'। यह कथन परस्पर असंगत है ? યથાર્થવસ્તુસ્વરૂપની રૂચિરૂ૫ શ્રદ્ધાથી વિષયવૈરાગ્યપૂર્વક એક એવો આનંદ ઉત્પન્ન થાય છે કે જેને પહેલા કેઈ વખત અનુભવ થયે નથી. मनिवृत्ति:२४ગ્રંથિભેદના અનન્તર (તરતના) કાળમાં અત્યન્ત વિશુદ્ધ પરિણામ ઉત્પન્ન થાય છે ते 'अनिवत्तिकरण' हवाय छ. २मा परिणाम प्राप्त थयां पछी व सभ्यत्व प्राप्त या विना छ। नथी तथा०४ मेने अनिवृत्तिकरण ४ छ. अनिवृत्तिकरण ०१ દ્વારા સમ્યગ્દર્શન પ્રાપ્ત કરે છે. તેનેજ નૈસર્ગિક (સ્વાભાવિક) શ્રદ્ધા કહે છે. શંક–પહેલાં કહ્યું હતું કે “મિથ્યાત્વમોહનીય કર્મના ઉપશમ આદિથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે. અને પછી કહે છે કે- નિસર્ગ અથવા અધિગમથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે, એ કથન પરસ્પર અસંગત છે. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ . २ श्रद्धास्वरूपम् ४९३ अत्रोच्यते - स एव क्षयोपशमादिर्निसर्गाधिगमाद्वा जायते, तथा च श्रद्धाया अपि तद्वयं कारणं सिद्धयतीति न दोषः । ननु सम्यक्त्वगुणरहितेनैव जीवेन द्राघीयसी कर्मस्थितिर्ग्रन्थिभेदापूर्वं यथाप्रवृत्तिकरणेन यथा क्षपिता तथा तदवशिष्टमपि कर्मग्रन्थि यथाप्रवृत्तिकरणेनैव भिनत्तु ततो मोक्षमप्येवमेव प्राप्नोतु किं पुनरपूर्वकरणालम्बनेन ? अत्रोच्यते -महाविद्यासाधनवदेतद् द्रष्टव्यम् । यथा महाविद्यायाः साधने पूर्वं स्वल्प एव परिश्रमो भवति, तत्सिद्धिप्राप्तिसमये तु सा विद्या तद्विद्याधिष्ठातृदेवताकृत , समाधान - मिध्यात्वमोहनीय कर्म का क्षयोपशम आदि, निसर्ग से अथवा अधिगम से होता है, ऐसी स्थिति में यह दोनो कारण श्रद्धा के ही है, अतः कोई दोष नहीं है । शङ्का -- जीव ने सम्यक्त्व न होने पर भी जैसे उतनी बडी भारी कर्मस्थितिको ग्रंथिभेद से पहले ही यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा खना डाली इसी प्रकार शेष स्थिति भी यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा ही खपा ले और मोक्ष भी इसी प्रकार प्राप्त करले फिर अपूर्वकरण का आश्रय लेने की क्या आवश्यकता है ? समाधान — महाविद्या की साधना की तरह ही यहाँ खमझना चाहिए। जैसे महाविद्या की साधना में पहले थोडा-सा श्रम होता है किन्तु जब उस को सिद्धि का समय नजदीक आता है तो वह विधाधिष्ठात्री देवताद्वारा किये जानेवाले नाना प्रकार के उपसर्गों द्वारा विघ्नयुक्त हो जाता है और प्रायः अत्यन्त कष्टसाध्य बन जाती है, સમાધાન—મિથ્યાત્વમાહનીય કર્મના ક્ષયાપશમ આદિ, નિસગથી અથવા અધિગમથી થાય છે, એવી સ્થિતિમાં આ બન્ને કારણેા શ્રદ્ધાનાજ છે તેથી કોઈ દોષ નથી. શંકા—જીવને સમ્યકૃત્વ ન હોય તે પણુ જેવી રીતે એવડી મહાભારી કમ સ્થિતિને ગ્રંથિભેદ્યના પહેલાજ ચયાપ્રવૃત્તિષ્ઠરળના દ્વારા ખપાવી નાંખે છે તે પ્રમાણે શેષ સ્થિતિ પણ યથાપ્રવૃત્તિકરણદ્વારાજ ખપાવી નાંખે અને મેક્ષ પણ આ પ્રમાણે પ્રાપ્ત કરી લીએ તો પછી અપૂર્વળના આશ્રય લેવાની શું આવશ્યકતા છે ? સમાધાન—મહાવિદ્યાની સાધના પ્રમાણેજ અહિં સમજી લેવું જોઈએ. જેમ મહાવિદ્યાની સાધનામાં પહેલાં ઘેાડા એવા શ્રમ થાય છે, પરન્તુ જ્યારે તેની સિદ્ધિને સમય નજીક આવે છે ત્યારે તે વિદ્યાની અધિષ્ઠાત્રીદેવતાદ્વારા કરવામાં આવતા નાના પ્રકારના ઉપસર્ગો દ્વારા વિઘ્નયુક્ત થઈ જાય છે. અને ઘણું કરીને અત્યન્ત કષ્ટસાધ્ય Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L आचाराङ्गसूत्रे विविधोपसर्गेः सविघ्ना कष्टतरसाध्या च प्रायशो भवति, तद्वद् ग्रन्थिभेदो मनःक्षोभादिविविधोपसँगैः, परमवीर्याविष्कारपूर्वक कष्टतरसाध्यत्वेन च सविघ्नोऽतिदुष्करथ, तस्मात् केवलं यथाप्रवृत्तिकरणेन ग्रन्थिभेदो न भवितुमर्हति, अत एवा पूर्वकरणभावश्यकमिति । इत्थं चापूर्वकरणेन ग्रन्थिभेदं विधायाऽनिवृत्ति - करणेन श्रद्धा लभ्यते । ॥ अधिगमश्रद्धा येन प्रकारेण निसर्गतः श्रद्धा जायते स कथितः, अधुना -अधिगमश्रद्धा व्याख्यायते-अधि=अधिकृत्य तीर्थङ्कराद्युपदेशं निमित्तीकृत्य गमः = ज्ञानं यद्भवति सोऽधिगमः, वीतरागोपदेशश्रवणाद् वीतरागप्राणीतागमार्थपर्यालोचनाद्वा यथाव ४९४ इसी प्रकार ग्रन्थिभेद भी मनःक्षाम आदि अनेक उपसर्गों के कारण विघ्नयुक्त हो जाता है और ग्रंथिभेद के करने में बडी शक्ति की आवश्यकता होती है, अत एव अकेले यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रंथिभेद नहीं हो सकता, उस के लिए अनूर्वकरण को आवश्यकता होती है । इस प्रकार अपूर्वकरण - द्वारा ग्रन्थिभेद करने पर अनिवृत्तिकरण द्वारा श्रद्धा प्राप्त की जाती है । अधिगमश्रद्धा जिस प्रकार निसर्ग से श्रद्धा उत्पन्न होती है वह प्रकार कहा जा चुका । अब अधिगमश्रद्धा की व्याख्या की जाती है - तीर्थकर आदि के उपदेश के निमित्त से होने वाला ज्ञान अधिगम कहलाता है । वीतराग भगवान् का उपदेश सुनने से ખની જાય છે; એ પ્રમાણે ગ્રંથિભેદ પણ મનઃક્ષોભ આદિ અનેક ઉપસર્ગાના કારણે વિઘ્નયુક્ત થઈ જાય છે, અને તે ગ્રન્થિભેદના કરવામાં ભારે શક્તિની આવશ્યકતા હાય છે, એટલા માટે એકલા ચયાપ્રવૃત્તિળથી ગ્રથિભેદ થતા નથી, તેને માટે अपूर्वकरणनी न्यावश्यता रहे हैं, मे प्रभा अपूर्वकरण द्वारा ग्रंथिलेह ४२वाथी अनिवृत्तिकरण - द्वारा श्रद्धी प्राप्त वामां आवे छे અધિગમશ્રદ્ધા— જે પ્રમાણે નિસર્ગથી શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થાય છે તે પ્રકાર કહેવામાં આવી ગયા છે. હવે અવિામચંદાની વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે-તીર્થંકર આદિના ઉપદેશના નિમિત્તથી થવાવાળુ' જ્ઞાન તે અધિગમ કહેવાય છે. વીતરાગ ભગવાનના ઉપદેશ સાંભળવાથી, અથવા Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ म्. २ श्रद्धास्वरूपम् ४९५ स्थितपदार्थनिर्णयो जायते सोऽधिगमः, तस्मादुपशमादिद्वारेण तत्त्वार्थाभिरुचिर्जायते सा-अधिगमश्रद्धा। श्रद्धया शमसंवेगादयः प्रादुर्भवन्ति, ततश्च राज्यादिविभवं पुत्रदारादिकं स्वजनं सर्व परिणामदुःखपदं विषवत्परित्यज्य सर्वसुखसारभूतं नित्यं ध्रुवं शाश्वतिक मोक्षसुख प्राप्तुकामः प्रबजितो भवति । संयमश्रेणिप्राप्तिकाले या प्रवृद्धपरिणामधारा वर्तते तां सर्वथा रक्षेन्न तु हासयेदिति भावः । श्रद्धायाः परमदुर्लभत्वात्, ज्ञानचारित्रकारणतया मोक्षस्यादिअथवा वीतराग द्वारा निरूपित आगम के अर्थ का विचार करने से पदार्थों का यथार्थ निर्णय होता है। उस निर्णय को अधिगम कहते है । उस अधिगम से मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय, उपशम आदि होने पर तत्त्वार्थ की जो रुचि होती है, वह अधिगमश्रद्धा है। __ श्रद्धा से शम, संवेग आदि उत्पन्न होते हैं, अत एव "राज्य आदि वैभव तथा पुत्र, पत्नी आदि समस्त आत्मीयजन अन्त में दुःखदायक है" ऐसा जान कर, और विष के समान उन का परित्याग कर के सब सुखों में उत्तम, नित्य, ध्रुव, शाश्वतिक मोक्ष-सुख की इच्छावाला वह सम्यग्दृष्टि पुरुष दीक्षित हो जाता है । तात्पर्य यह है कि-संयमप्राप्ति के समय परिणामों की जो बढी हुई धारा थी उस की सब प्रकार से रक्षा करना चाहिए, उसे घटने नहीं देना चाहिए । श्रद्धा परम दुर्लभ है, और ज्ञान एवं चारित्र का कारण होने से मोक्ष का आद्य कारण है, अत एव વિતરાગદ્વારા નિરૂપિત આગમના અર્થને વિચાર કરવાથી પદાર્થોને યથાર્થ નિર્ણય થાય છે તે નિર્ણયને કમિ કહે છે તે અમિથી મિથ્યાત્વમોહનીય ક્ષય-ઉપશમ मा थया पछी तत्वार्थ नी २ ३थि थाय छ, ते अधिगमश्रद्धा छ. શ્રદ્ધાથી શમ, સંવેગ આદિ ઉત્પન્ન થાય છે એટલા માટે “રાજ્ય આદિ વૈભવ તથા પુત્ર, પત્ની વગેરે સમસ્ત આત્મીયજન અંતમાં દુઃખદાયક છે. એ પ્રમાણે જાણીને વિષની સમાન તેનો ત્યાગ કરીને સર્વ સુખમાં ઉત્તમ, નિત્ય, ધ્રુવ, શાશ્વતિક મોક્ષ સુખની ઇરછાવાળા સમ્યગ્દષ્ટિ પુરૂષ દીક્ષિત થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે-સંયમની પ્રાપ્તિના સમયે પરિણામોની જે વધતી જતી ધારા હતી તેનું સર્વ પ્રકારથી રક્ષણ કરવું જોઈએ. તેને ઘટવા દેવી જોઈએ નહિ શ્રદ્ધા પરમ દુર્લભ છે અને જ્ઞાન, એવી રીતે ચારિત્રનું કારણ હોવાથી મેક્ષનું મુખ્ય કારણ છે. એટલા માટે Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४९६ आचारागसंत्रे कारणत्वाच्च श्रद्धा न परित्यजेत् । यथा-कथञ्चित्माप्तस्यापि संयमस्य श्रद्धापूर्वकरक्षणे यावज्जीवं सावधानो भवेदिति सूत्राशयः ॥ सू० २ ॥ शिष्यश्रद्धादृढीकरणाय 'परिशीलितमार्गोऽनुगम्यते' इति लोकरीत्या पूर्वमहापुरुषाचरितोऽयं मार्गः' इत्याशयेन कथयति__यद्वा पूर्वमहापुरुषतीर्थङ्कर-गणधरादिभिरप्याचरितोऽयं मार्गः' इति प्रदर्शनाय शिष्यचेतसि श्रद्धातिरेको यथा स्यात्तथा मूत्रकारः स्वयमाह-'पणया' इत्यादि। ॥ मूलम् ॥ पणया वीरा महावीहिं ।। मू० ३॥ ॥छाया । प्रणता वीरा महावीथिम् ॥ सू० ३॥ . श्रद्धा का त्याग नहीं करना चाहिए, आशय यह है कि-बडी कठिनाई से प्राप्त होने वाले संयम की श्रद्धापूर्वक रक्षा करने में जीवनभर सावधान रहना चाहिए |सू. २॥ 'चले मार्ग पर चला जाता है। इस लोकव्यवहार के अनुसार शिष्य की श्रद्धा मजबूत करनेके लिए यह मार्ग पूर्वकालीन महापुरुषों द्वारा आचरित है' इस आशयसे कहते हैं __अथवा-'पूर्वकाल के तिर्थङ्कर गणधर आदिने भी इसी मार्ग का अवलम्बन किया है' यह बतलाते हुए शिष्य के चित्त की श्रद्धा बढाने के लिए कहते है:'पणया' इत्यादि। मूलार्थ-वीर पुरुष महामार्ग को प्राप्त हुए ॥ सू. ३ ॥ શ્રદ્ધાને ત્યાગ કરવે જોઈએ નહિ; આશય એ છે કે –મહાન કઠિનાઈથી પ્રાપ્ત થવાવાળા સંયમની શ્રદ્ધાપૂર્વક રક્ષા કરવામાં જીવનના છેલ્લા રક્ષણ સુધી સાવધાન २ मे. (सू. २) ચાલતા માર્ગ પર ચલાવાય છે. આ લોકવ્યવહાર પ્રમાણે શિષ્યની શ્રદ્ધા મજબૂત કરવા માટે આ માગ પૂર્વકાલીન મહાપુરૂષોએ આચરણ કરેલ છે.” આ माशयथा ४ छ અથવા પૂર્વ કાલના તીર્થકર ગણધર આદિ સૌએ આ માર્ગનું અવલમ્બન (આશ્રય) કર્યું. એ બતાવવા માટે શિષ્યના ચિત્તની શ્રદ્ધાને વધારવા માટે કહે છે 'पणया' छत्यादि મૂલાથ–વીર પુરૂષ મહામાર્ગને પ્રાપ્ત • થયા-(વીર પુરૂષે મહામાગને प्राप्त यो ) (सू. 3) Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ सू. ३ श्रद्धास्वरूपम् ४९७ ॥ टीका ॥ वीराः परीषहोपसर्गकषायादिरूपशत्रुविजयिनो भाववीराः संयमानुष्ठाने कीर्यवन्तः सर्वोत्कृष्टा इति यावत्, . महती चासौ वीथिः महावीथिः सम्यग्ज्ञानादिलक्षणो महामार्गः, महापुरुषसेवितत्वात्, तां महावीथिम् प्रणताः प्राप्ताः कठिनतरतपःसंयमाराधनेन प्राप्तवन्त इत्यर्थः, अयमेव मार्गों मोक्षावाप्तिकरोऽशेषसंयमिसेवितत्वात् । तीर्थङ्करादिमहापुरुषा अपि मार्गमिममनुशीलितवन्त इति विश्वसनीयतया शिष्याणां श्रद्धापूर्वकप्रवृत्तिर्यथा स्यादिति भावः । ____ यथा राजानो विपक्षपक्षदलनाद् वीरत्वेन प्रसिद्धा भवन्ति, एवमेव टीकार्थ—परीषह, उपसर्ग, कषाय आदिरूप शत्रुओं को जीतनेवाले, संयम के आचरण में पराक्रम करनेवाले सर्वोत्कृष्ट भाववीर यहाँ 'वीर' शब्द से ग्रहण किये गये है। ___ सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष का महामार्ग 'महावीथि' कहलाता है, क्यों कि महापुरुषोंने उस का सेवन किया है । भाववीर इस महामार्ग को प्राप्त हुए हैं । अत्यन्त कठोर तप और संयम का आराधन करना ही इस मार्ग को प्राप्त करना है । यही मार्ग मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है, क्यों कि समस्त मुनियोंने इसी का सेवन किया है। तीर्थंकर आदि महापुरुषोंने भी इसी मार्ग का आश्रय लिया है, अत एव विश्वसनीय समझ कर शिष्यगण की भी इसी में प्रवृत्ति होनी चाहिए। 'वीर' पद से यह प्रकट किया गया है कि-जैसे राजा लोग अपने शत्रुओं का ટીકાથ–પરીષહ, ઉપસર્ગ કષાય વગેરે શત્રુઓને જીતવાવાળા, સંયમના मायरमा ५२म ४२वावाणा सहिष्ट लावधी२ मडि 'वीर' श४ वडे डर કરવામાં આવ્યા છે. सभ्यज्ञान माह मोक्षन माग ते “महावीथि" उपाय छ, ४१२ए है महाપુરૂષોએ તેનું સેવન કર્યું છે. ભાવવીર આ મહામાર્ગને પ્રાપ્ત થયા છે. અત્યન્ત કઠેર તપ અને સંયમનું આરાધન કરવું એ જ આ માર્ગને પ્રાપ્ત કરે તે છે. આ માર્ગજ મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવવાવાળે છે, કારણ કે સમસ્ત મુનિઓએ એ માર્ગને સેવન કર્યું છે. તીર્થકર આદિ મહાપુરૂષોએ પણ આ માર્ગને આશ્રય લીધો છે, એટલા માટે આ માર્ગને વિશ્વાસપાત્ર સમજીને શિષ્યગણની પણ આ માર્ગમાં પ્રવૃત્તિ થવી જોઈએ. 'वीर' ५४थी ये प्रगट ४२वामा मा०यु छ है:-भ रात at पोताना शत्रुभाना प्र. मा.-६३ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ आचारागसूत्रे परिपहादिरूपशत्रुविजयेन संयमिनोऽपि मोक्षमार्ग लब्ध्वा लोकोत्तरवीरा भवन्ति, इति वीरपदेन् व्यज्यते, इति सूत्राशयः ॥ सू० ३ ॥ कश्चिन्मन्दधीः शिष्योऽनेकदृष्टान्तैाध्यमानोऽपि अपकायादिजीवेपु न श्रद्दधातीति तमुद्दिश्य कथयति-हे शिष्य ! तव मतिर्यद्यप्यप्कायजीवविषये न परिस्फुरति, तद्विपये विशेषज्ञानाभावात्, तथापि भगवदाज्ञया श्रद्धा नितरां विधेयेत्याशयेनाह–'लोगं च' इत्यादि । लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं ॥ सू० ४ ॥ छायालोकं चाज्ञयाऽभिसमेत्य अकुतोभयम् ॥ सू० ४ ॥ दलन करके वीर पदवी पाते है, उसी प्रकार परीषह आदि शत्रुओं को जीतने से सयमी मोक्षमार्ग प्राप्त कर के लोकोत्तर वीर कहलाते है ॥सू. ३ ॥ कोई मन्दबुद्धिवाला शिष्य अनेक दृष्टान्तों से समझाने पर भी अपकाय आदि के जीवों पर श्रद्धा नहीं करता तो उसे लक्ष्य कर के कहते हैं-हे शिष्य ! यद्यपि तुम्हारी बुद्धि अपकाय के जीवों के विषय में नहीं दौडती, क्यों कि तुम्हें उस विषय का विशेष ज्ञान नहीं है, फिर भी भगवान् की आज्ञा से अवश्य ही श्रद्धा रखनी चाहिए । इस आशय से कहते है-'लोगं च' इत्यादि । मूलाथ--भगवान् की आज्ञा से ( अप्कायरूप ) लोक को सम्यक् प्रकार से जानकर संयम का पालन करना चाहिए ।। सू. ४ ॥ નાશ કરીને વીર પદવી પ્રાપ્ત કરે છે, તે પ્રમાણે પરીષહ આદિ શત્રુઓને જીતવાથી સંયમી પણ મેક્ષમાગ પ્રાપ્ત કરીને લોકોત્તર વીર કહેવાય છે. (સૂ. ૩). કઈ મંદબુદ્ધિવાળા શિષ્ય અનેક દષ્ટાથી સમજાવ્યા છતાં પણ અમુકાય આદિના જી પર શ્રદ્ધા નથી કરતા તો તેને લક્ષ્યરૂપ રાખીને કહે છે કે –હે શિષ્ય હજી સુધી તમારી બુદ્ધિ અપકાયના જે વિષયમાં દોડતી નથી (કામ કરતી નથી) કારણ કે તમને આ વિષયનું વિશેષ જ્ઞાન નથી તો પછી ભગવાનની આજ્ઞાથી અવશ્યક श्रद्धा रावी नसे. मे २माशयथी ४ छ-' लोगं च ' त्यादि. મૂલાથ–ભગવાનની આજ્ઞાથી (અષ્કાયરૂ૫) લેકને સમ્યફ પ્રકારથી જાણીને सयभर्नु पासान ४२वू नये. (सू. ४) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ मू० ४ अप्कायश्रद्धोपदेशः ४९९ टीकाअत्र लोकशब्देन प्रकरणक्शादप्कायलोक एवं गृह्यते, तमकाय-लोकं, 'च'-शब्देनान्याश्वाप्कायाश्रितान, आज्ञया-तीर्थङ्करवचनेन, अभिसमेत्य= आभिमुख्येन सम्यक् ज्ञात्वा 'अष्कायादयो जीवाः सन्ती-त्येवमवबुध्येत्यर्थः, अकुतोभयम् नास्ति कुतश्चित्केनापि प्रकारेण प्राणिनां भयं यस्मात्सोऽकुतोभयः= संयमस्तम् अनुपालयेत् इत्यन्वयः । सर्वथा जीवाभिरक्षणरूपसंयमानुपालने सावधानतया यत्नः कार्य इत्यर्थः । यद्वाऽकुतोभयोऽप्कायलोको, यतोऽसौ न कुतश्चिदन्यस्माद्भयमिच्छति, स्वकीयमरणादिभयात् सर्वः प्राणिगणः खिन्नो भवति । 'सव्वे जीवा वि टीकार्थ--मूल सूत्र में दिये हुए 'लोक' शब्द से, प्रकरण के कारण यहां अप्काय-लोक ही समझना चाहिए । 'च' शब्द से अपकाय के आश्रय रहे हुए अन्य जीवों का ग्रहण करना चाहिए । इस प्रकार अप्काय और अप्काय के आश्रित रहनेवाले अन्य जीवो को तिर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा से सम्यक् प्रकार जानकर अर्थात् 'अकाय आदि जीव है' ऐसा समझ कर संयम का पालन करना चाहिए । 'अकुतोमय' अर्थात् जिस से किसी भी प्राणि को किसी प्रकार का भय न हो ऐसा संयम । सर्वथा जीवरक्षारूप संयम के पालने में सावधान होकर यत्न करना चाहिए । अथवा---'अकुतोभय' का अर्थ है-अप्कायलोक, क्यों कि वह दूसरे से भय की इच्छा नहीं करता । सभी प्रागो अपनी मृत्यु आदि के भय से खिन्न होते है। अथ-भूतसूत्रमा मायेसा 'लोक' श७४थी ४२एनछारो मायલોકજ સમજવું જોઈએ “ શબ્દથી અષ્કાયના આશ્રયે રહેલા અન્ય જીનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એ પ્રમાણે અપ્લાય અને અષ્કાયના આશ્રિત રહેવાવાળા અન્ય જીને તીર્થકર ભગવાનની આજ્ઞાથી, સમ્યફ પ્રકારે જાણ કરીને અર્થાત્ “અપ્લાય આદિ १. छ.' मे प्रमाणे समलने सयभनु पासन ४२ नये. "अकुतोभय" मर्यात જેના વડે કોઈપણ પ્રાણીને કોઈ પ્રકારને ભય ન હોય એવે સયમ, સર્વથા જવું. રક્ષારૂપ સંયમના પાલનમાં સાવધાન થઈને યત્ન કરી જોઈએ. अथवा 'अकुतोभय'नो अर्थ छ-मयa४, ४१२ ते मीतना त२५थी ભયની ઈરછા કરતા નથી; સર્વ પ્રાણી પિતાના મૃત્યુ આદિના ભયથી ખિન્ન-દુઃખી થાય છે. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० आचाराङ्गसूत्रे इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं ' इति वचनात् । तमप्काय लोकं समनुपालयेदिति सम्बन्धः । संयमी सर्वप्राणिगणपरिपालक एवं सन् नान्यस्मै भयमुत्पादयति, 'मित्ती मे सव्वभू' इति वचनेन तस्य सर्वैः सह मैत्रीसद्भावात्, अतोऽसौ संयमी न तेभ्यो भयं जनयति, कस्मैचिदपि भयं केनापि नोत्पादयति, प्रत्युत सर्वप्राणिगणं परिरक्षतीति भावः । यद्यपि छद्मस्थैः प्राणिभिः सर्वद्रव्यपर्यायज्ञानाभावाद्बुद्धिसंस्कारराहित्येनापकायजीवस्याव्यक्तचेतनया च ' आपो जीवाः सन्ती ' - त्यपरोक्षत्वेन कदाचिदपि ज्ञातुं न शक्यते, तथापि सकळतीर्थोद्धारधुरीण - तीर्थङ्कर - वचनप्रामाण्यादवश्यं " । आगम में कहा है- ' सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं मरना नहीं चाहते । ” उस अप्कायलोक का पालन करे अर्थात् रक्षण करे । संयमी पुरुष समस्त प्राणियों का रक्षक होता है । वह किसी भी प्राणी को भय उत्पन्न नहीं करता मेरा सब प्राणियों पर मैत्रीभाव है " इस वचन के अनुसार उस की प्राणीमात्र पर मित्रता की भावना होती है । इस कारण संयमी उन्हे भय उत्पन्न नहीं करता, किसी को भी किसी द्वारा भय उत्पन्न नहीं कराता, बल्कि वह सब प्राणियों की रक्षा करता है । "" यद्यपि छद्मस्थ जीवों को समस्त द्रव्यों का ज्ञान नहीं होता इस कारण, तथा बुद्धि, संस्कार से रहित होने के कारण अप्काय के जीवों में अव्यक्त चेतना होने से, तथा 'जल जीव है ' यह बात प्रत्यक्ष न होने से कभी इन्द्रियों द्वारा जानी नहीं जा सकती, फिर भी सम्पूर्ण तीर्थ का उद्धार करने में समर्थ तीर्थकर के वचनों को प्रमाण આગમમાં પણ કહ્યું છે કેઃ−સ જીવ જીવતા રહેવાની ઇચ્છા કરે છે, મરવાની ઇચ્છા કરતા નથી,” તે અપ્લાયલેાકનું પાલન કરે અર્થાત્ રક્ષા કરે. સંયમી પુરૂષ સમસ્ત પ્રાણીઓના રક્ષક થાય છે. તે કાઈ પણ પ્રાણીને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી. ‘સર્વ પ્રાણીઓ પર મારા મૈત્રીભાવ છે.’ આ વચન પ્રમાણે તેની સર્વ પ્રાણીમાત્ર પર મિત્રતાની ભાવના ડાય છે, તે કારણથી સંયમી તે જીવાને ભય ઉત્પન્ન કરતા નથી, કોઈ ને પણ કાઇથી ભય ઉત્પન્ન કરાવતા નથી, પરંતુ તે સવ પ્રાણીઓની રક્ષા કરે છે. જો કે છદ્મસ્થ જીવાને સમસ્ત દ્રવ્યે અને પર્યાયાનુ જ્ઞાન નથી; તે કારણથી તથા બુદ્ધિ, સ ંસ્કારથી રહિત હોવાથી અકાયના જીવામાં અવ્યક્ત ચેતના હેાવાથી, તથા " જલ જીવ છે' એ વાત પ્રત્યક્ષ નહિ હોવાથી ઇન્દ્રિયાદ્વારા કોઈ વખત જાણવામાં આવતી નથી તા પણ સંપૂર્ણ તીથૅના ઉદ્ધાર કરવામાં સમથ તીર્થંકરના વચનેને પ્રમાણું Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ४ अष्कायश्रद्धोपदेशः ५०१ विश्वास विधेयः । अवध्यादिप्रत्यक्षज्ञानिनोऽपि पूर्व भगवदाज्ञायां श्रद्धावन्तः सन्त एवाsकायजीवान् विज्ञाय प्रत्यक्षज्ञानिनः संजाताः, अतः संयमिभिरवश्यमप्कायादिजीवरक्षायां सावधानैर्भवितव्यमिति परमार्थः । सू० ४ ॥ अप्कायलोकं भगवदाज्ञया विज्ञाय संयमिना यत् कर्तव्यं, तत् कथयति -' से बेमि' इत्यादि । मूलम् - से बेमिव सयं लोगं अब्भाइक्खिज्जा, जे लोयं अभाइक्ख से अत्ताणं अब्भाइक्ख, जे अब्भाइक्ख || सू० ५ ॥ णेव : अत्ताणं अभाइक्खिज्जा, अत्ताणं अन्माइवखर, से लोयं छाया स ब्रवीमि नैव स्वयं लोकमभ्याख्यात्, नैवात्माननमभ्याख्यात्, यो लोकमभ्याख्याति, स आत्मानमभ्याख्याति य आत्मानमभ्याख्याति, स लोकमभ्याख्याति ॥ ०५ ॥ मानकर अवश्य विश्वास करना चाहिए । अवधिज्ञानी आदि प्रत्यक्षज्ञानी भी पहले भगवान् की आज्ञा पर श्रद्धा रखते हुए अप्काय के जीवों को जान कर प्रत्यक्षज्ञानी हुए, अतः संयमी जनों को अप्काय आदि के जीवों की रक्षा में सावधान होना चाहिए ॥ सू. ४ ॥ भगवान् की आज्ञा से अप्कायलोक को जान कर संयमी को जो करना चाहिये वह प्रगट करते हैं-' से बेमि' इत्यादि । मूलार्थ - वह मै कहता हूँ–स्वयं अकाल का अपलाप न करे, आत्मा का अपलाप न करे, जो लोक का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है, और जो आत्मा का अपलाप करता है वह लोक का अपलाप करता है ।। सू. ५ ॥ માનીને અવશ્ય વિશ્વાસ કરવા જોઇએ. અવધિ આદિ પ્રત્યક્ષ જ્ઞાની પણ પ્રથમ ભગવાનની આજ્ઞા પર શ્રદ્ધા રાખીને અપ્રકાયના જીવાને જાણી કરીને પ્રત્યક્ષજ્ઞાની થયા, એ માટે સચમી પુરૂષોએ અપ્લાય આદિના જીવાની રક્ષામાં સાવધાન રહેવું જોઇએ. (સૂ. ૪) ભગવાનની આજ્ઞાથી અકાયલેકને જાણીને સંયમીનું જે કત્ત્તવ્ય છે તે પ્રગટ अरे छे–' से वेमि' इत्यादि. મૂલા—તે હું કહું છું-પાતે અપ્કાય લેાકને અપલાપ—(હાવા છતાં નથી કહેવું તે) ન કરે. આત્માને અપલાપ કરે નહિ. જે લેાકના અપલાપ કરે છે તે આત્માના અપલાપ કરે છે. અને જે આત્માને અપલાપ કરે છે તે લેાકના અપલાપ કરે છે. (સૂ. ૫) Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ आचाराङ्गमत्रे टीकासोऽहं-भगवद्वचनेन ज्ञाताप्कायस्वरूपः, ब्रवीमि यथा भगवतः सकाशान्मया श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । लोकम् अपकायलोकं, नैव स्वयम् अभ्याख्यात्= आपो जीवा न सन्ती'-त्येवं नापलपेदित्यर्थः । अभ्याख्यानं नामासदभियोगः, यथा कश्चिदचौरमुद्दिश्य वदति-चोरोऽयमिति। अत्र तु-'घृततैलादिवज्जीवानामुपकरणमात्रं जलं, न तु तद् जीवो भवितुमर्हति, जीवोपकरणत्वात् ' एतत्कथनमेवासदभियोगः, यतो हि तुरगादीनां जीवानामपि जीवोपकरणत्वेन दृष्टत्वादुक्तरीत्या जलस्य जीवत्वं नापलपितुं शक्यते । नन्यजीवानामपां जीवत्वारोपणमेवाभ्याख्यानं कुतो न भवति ? मैवम् , टीकार्थ-भगवान् के वचनों के अनुसार अपकाय का स्वरूप जानने वाला मैं कहता हूँ, अर्थात् मैंने भगवान् के समीप जैसा जाना है वैसा ही कहता हूँ-स्वयं अप्कायरूप लोक का अपलाप न करे अर्थात् ऐसा न कहे कि-'जल जीव नहीं है। ___असत् आरोप को अभ्याख्यान कहते है, जैसे अचौर को चौर कहना । यहाँ " घी तेल आदि के समान जल, जीवों का उपकरणमात्र ही हो सकता है, वह स्वयं जीव नहीं है, क्योंकि जीव का उपकरण है" । इस प्रकार का कथन ही असत्-अभियोग है । क्यों कि घोडा वगैरह जीव भी जीवोपकरण के रूप में देखे जाते है, अतः जल के जीवपन का अपलाव नहीं किया जा सकता। शंका--अजीव जल में जीवत्व का आरोप करना ही अभ्याख्यान क्यों न समझा जाय ? ટીકાઈ–ભગવાનનાં વચને પ્રમાણે અપ્લાયનું સ્વરૂપ જાણવાવાળે હું કહું છું, અર્થાત્ મેં ભગવાનની પાસેથી જેવું સાંભળ્યું છે તેવું જ કહું છું—પોતે અપકાય રૂપ લેકને અપલાપ કરે નહિ, અર્થાત એવું કહે નહિ કે – જલ જીવ નથી. અસત આપને અભ્યાખ્યાન કહે છે, જેમકે અચીરને ચોર કહે. અહિં “ઘી તેલ આદિ પ્રમાણે જલ એ જેનું ઉપકરણમાત્રજ હેઈ શકે છે, તે સ્વયં જીવ નથી, કારણ 3-" पनु ५४२९४ छे, २॥ प्रार्नु ४०४-मसत् (भिथ्या) मलिया छ, કારણકે ઘડા વગેરે જીવ પણ જીપકરણના રૂપમાં જોવામાં આવે છે. તેથી જલનું જીવપણું અ૫લાપ કરી શકાય નહિ. શંકા–અજીવ પાણીમાં જીવપણાને આરેપ કર તેજ અભ્યાખ્યાન શા માટે નહિ સમજવું ? Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ स. ५ अप्कायश्रद्धोपदेशः ५०३ अनुमानागमाभ्यां जीवलक्षणकलापसम्बन्धाचापां जीवत्वनिरूपणात् । __ यद्यप्कायलोकस्याभ्याख्यानं कुर्यात्, तात्मनोऽपि शरीराधिष्ठातुरभ्याख्यानं तेन कर्तव्यं स्यात्, न च तत् सभवतीत्यत आह-नवमात्मानमभ्याख्यादिति । आत्मा हि शरीराधिष्ठाता प्रत्यक्षभूतश्चेतनावानिति नापह्रोतुं शक्यः, तस्मादात्मा नास्तीत्येवमात्मानं नापलपेदित्यर्थः । यः खलु मन्दधीः लोकम् अप्कायलोकम् अभ्याख्याति-अपलपति, स प्रत्यक्षादिप्रमाणनिरूपितमात्मानमभ्याख्याति । यश्चात्मानमभ्याख्याति-'आत्मा नास्तीति यद्वा-' अहं नास्मीति, स महामूढः लोकम् अपकायलोक समाधान-ऐसा मत कहो । अनुमान और आगमप्रमाण से तथा जीव के लक्षणों के संबंध से जल को जीव निरूपण किया गया है । यदि अप्काय लोक का अभ्याख्यान किया जाय तो शरीर के अधिष्ठाता आत्मा का भी अभ्याख्यान करना होना मगर वह सभव नहीं है, यही बात कहते हैआत्मा का अभ्याख्यान न करे । आत्मा शरीर का अधिष्ठाता है और प्रत्यक्ष चेतना वाला है, अतः उस का अपलाप नहीं किया जा सकता । अत एव 'आत्मा नहीं है" इस प्रकार आत्मा का अपलाप न करें। जो मन्दबुद्धि अप्कायलोक का निषेध करता है वह प्रत्यक्ष जादि प्रमाणों से सिद्ध आत्मा का अपलाप करता है । और जो 'आत्मा नहीं है, अथवा ' मै नहीं हूँ' इस तरह आत्मा का अपलाप करता है वह महामूढ मनुष्य अपने अज्ञान के वल से સમાધાન–આ પ્રમાણે કહે નહિ, અનુમાન અને આગમ પ્રમાણથી તથા જીવના લક્ષણેના સંબંધથી જલનું જીવપણું નિરૂપણ કર્યું છે. જે અષ્કાય-લોકનું અભ્યાખ્યાન કરવામાં આવે તે શરીરના અધિષ્ઠાતા આત્માનું પણ અભ્યાખ્યાન કરવું પડશે. પરંતુ તે સંભવ નથી. એ વાત કહે છે– આત્માનું અભ્યાખ્યાન કરશે નહિ. આત્મા શરીરને અધિષ્ઠાતા છે, અને પ્રત્યક્ષ ચેતનાવાળા છે. તેથી તેને અપલાપ કરી શકાશે નહિ. એટલા માટે “આત્મા નથી એ પ્રમાણે અપલાપ કરશે નહિ. જે મંદ બુદ્ધિવાળા અષ્કાયલકને નિષેધ કરે છે, તે પ્રત્યક્ષ આદિ-પ્રમાણોથી सिद्ध-मात्माना २५सा५ ४२ छ, मने २ "मात्मा नथी" अथवा "ई नयी से પ્રમાણે આત્માને અ૫લાપ કરે છે તે મહામૂઢ મનુષ્ય પિતાના અજ્ઞાનના બળથી Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ आचारास्त्रे स्वाज्ञानवलादभ्याख्याति । करचरणमुखाद्यवयवसहितशरीराधिष्ठाता सुव्यक्तोपयोगादिलक्षणः स्वात्माऽपि येनाभ्याख्यातस्तस्याव्यक्तोपयोगादिलक्षणस्याप्कायस्याभ्याख्यानं किं नु नाम दुप्करम् ? ॥ सू०५॥ अप्कायलोकस्याभ्याख्याने बहुदोषापातो भवतीति पर्यालोच्यानगारा अप्कायं नोपमर्दयन्ति । दण्डिशाक्यादयस्तु नानगारा भवितुमर्हन्ति, तेपामपकायोपमर्दकत्वादित्याह-'लज्जमाणा' इत्यादि। मूलम्लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मो-त्ति एगे पत्रयमाणा जमिणं अप्काय का अपलाप करता है । जिस ने हाथ, पैर, मुख आदि अवयवों से युक्त शरीर के अधिष्ठाता, तथा अत्यन्त स्पष्ट उपयोग आदि लक्षणों वाले आत्मा का ही अपलाप कर दिया तो उस के लिए अस्पष्ट उपयोग आदि लक्षणों वाले अप्काय का अपलाप करना कुच्छ भी कठिन नहीं है । सू. ५ ॥ अप्काय का अपलाप करने से बहुत से दोब आते हैं, ऐसा विचार कर अनगार अप्काय की विराधना नहीं करते। दण्डी और शाक्य आदि, अनगार नहीं हो सकते, क्यों कि वे अपकाय की विराधना करते है। यह बात इस सूत्र में बतलाते है-'लज्जमाणा' इत्यादि। मूलार्थ-अप्काय की हिंसासे संकोच करने वालों को अलग समझो, और 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वालों को अलग समझो। जो नाना प्रकार के शस्त्रों से અષ્કાયને અપલાપ કરે છે. જેણે હાથ, પગ, મુખ આદિ અવયવોથી યુક્ત, શરીરના અધિષ્ઠાતા, તથા અત્યન્ત સ્પષ્ટ ઉપગ આદિ લક્ષણોવાળા આત્માનેજ અ૫લાપ કરી દીધે, તેને માટે અસ્પષ્ટ ઉપગ આદિ લક્ષણવાળા અષ્કાયને અપલાપ કરવો તે zi अनि नथी. (सू. ५) અષ્કાયને અપલાપ કરવાથી ઘણુજ દેષ આવે છે, એ વિચાર કરીને અણગાર અપ્લાયની વિરાધના કરતા નથી, દંડી અને શાકય આદિ, અણગારો થઈ શકતા નથી, કારણ કે તેઓ અષ્કાયની વિરાધના કરે છે. તે વાત આગળના સૂત્રમાં मता छ-'लज्जमाणा' त्याहि. મૂલાઈ–અપ્લાયની હિંસાને સંકેચ કરવાવાળાને જૂદા જાણે અને “અમે અણગાર છીએ.” એ પ્રમાણે કહેવાવાળાને પણ જૂદા જાણે. જે નાના પ્રકારનાં શરથી Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ३ सू. ६ अष्का यशस्त्रम् ५०५ विरूवरूवेर्हि सत्थेहिं उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्यं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति | सू० ६ ॥ छाया लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः उदककर्म समारम्भेण, उदकशस्त्रं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपाम् प्राणान् विहिंसन्ति || सू० ६ ॥ टीका एके = अन्ये लज्जमानाः = अष्कायस्यारम्भे परमकरुणया द्रवितहृदयतया संकोच मापद्यमानाः, पृथक् = विभिन्नाः केचित्तु प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनः पर्ययकेवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः सन्ति इति पश्य । इमे सूक्ष्मवादराकायारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैरप्कायारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः । अप्काय का आरम्भ करते है वे अप्काय के शस्त्रों का आरंभ करने वाले अनेक प्राणियों के प्राणों का हनन करते है ॥ सू. ६ ॥ टीकार्थ - - तीव्र करुणा से द्रवित हृदयवाले कोई-कोई ( अनगार ) अपकाय के आरंभ में संकोच करते हैं- अप्काय का आरंभ नहीं करते वे विभिन्न है - कोई अवधिज्ञानी कोई मन:पर्ययज्ञानी और कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा अनगार हैं, उन्हें देखो । ये सूक्ष्म बादर अप्काय का आरंभ करने में भीत है, त्रस्त हैं, उद्विग्न हैं, और तीन कारण तीन योग से अप्काय के आरंभ के त्यागी हैं, उन्हें देखो । અકાયના આરંભ કરે છે; તે અપ્લાયના શàાના આરંભ કરવાવાળા અનેક પ્રાણીमोना आनो नाश अरे छे. (सू. ५ ) ટીકા—તીવ્ર કરૂણાથી દ્રવિત હૃદયવાળા કેાઈ-કાઈ અણુગાર આર’ભમાં સકાચ કરે છે—અપ્કાયને! આરંભ કરતા નથી તે જૂદા છે. કોઈ અધિજ્ઞાની, કાઈ મનઃપયજ્ઞાની અને કાઈ પરાક્ષજ્ઞાની ભાવિતાત્મા અણુગાર છે, તેને જીએઃ-તે સૂક્ષ્મ અને માદર અપ્લાયના આરંભ કરવામાં ભય પામેલા છે, ત્રસિત છે, ઉદ્વિગ્ન છે, અને ત્રણ કરણ ત્રણ ચૈાગથી અજ્કાયના આરંભના ત્યાગી છે. તેને જુએ. प्र. आ-६४ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ आचारास्त्रे एके-पुनरन्ये तु वयमनगारा साधवः म्मः, इति साभिमानं प्रवदमानाः 'वयमेव अप्कायजीवरक्षणपराः महाव्रतधारिणः' इति व्यथै प्रलपन्तो द्रव्यलिगिनः सन्ति तान् पृथक्-पृथग्भावेन पश्य ।। इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिदिनो मनागप्यनगारगणेपुन प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्य किञ्चित् परित्यजन्ति, इनि दर्शयति- यदिमम्' इत्यादि। यद् यस्माद् विरूपस्पैः विभिन्नरूपैर्नानाविधैः, द्रव्यभावस्पैः शवः । तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकाय-परकाय-नभयरूपम् । स्वकायगवं-तडागाधुदकम्य कृपा. घुदकम् । कृपाधुदकस्य तडागायुदकं च । परकायशवं द्रासा-गाक-तण्डुल-पिष्ट__और कोई-कोई लोग 'हम साधु हैं। इस प्रकार अभिमान के साथ कहते हुएअर्थात् 'हम ही अकाय के रक्षक और महावतधारी है। इस प्रकार वृथा प्रलाप करते हुए द्रव्यलिंगी है, उन्हें अलग समझो । अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी, अनगार के गुणों में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते, और न गृहस्थ के किसी कार्य का त्याग करते है। यही बात आगे बतलाते हैं-'जमिणं.' इत्यादि । वे नाना प्रकार के शलों से जलका आरंभ करते हैं। शा अनेक प्रकार के है, उन में से द्रव्यशल-स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप है। तालाव का जल, कूप का जल परस्पर स्वकायशल है। इसी प्रकार कृप आदि के जल का शव-तालाव आदिका जल है यह स्वकायशल है । दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, चना, वाल आदि परकाय અને કઈ-કઈ લોક “અમે સાધુ છીએ” આ પ્રમાણે અભિમાન સાથે કહેતા અર્થાત્ “અમેજ અપકાયના રક્ષક અને મહાવ્રત ધારણ કરવાવાળા છીએ આ પ્રમાણે વૃથા પ્રલાપ કરતા થકા દ્રવ્યલિંગી છે તેને જૂદા જાણે. અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળા એ દ્રવ્યલિંગી સાચા અણગારના ગુણોમાં જરાપણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, અને ગૃહસ્થના કોઈપણ કાર્યોને ત્યાગ કરતા નથી, ते पात मा मताव छ-'जमिणं त्याहि. પ્રકારના શસ્ત્રોથી જલને આરંભ કરે છે. શાસ્ત્રો અનેક પ્રકારના છે, તેમાંથી દ્રવ્યશસ્ત્ર-સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકા–રૂ૫ છે. તળાવનું પાણી, કુવાનું પાણી, પરસ્પર સ્વકાયશસ્ત્ર છે. એ પ્રમાણે કુવા વગેરેના જલનું શસ્ત્ર તલાવ આદિનું જલ છે, તે પણ સ્વીકાયશસ્ત્ર છે. દ્રાક્ષ, ચાવલ, લોટ, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य० १ उ. ३ मू. ६ अप्कायशस्त्रम् दाली-चणक-बल्लादिकम् । तदुभयशस्त्रं-मृत्तिकादिमिश्रं जलम् । भावशस्त्रम् अपः प्रति मनोवाकायानां दुष्प्रणिहितत्वम् । एतैः शस्त्रैः उदककर्मसमारम्भेण=उदयकस्य कर्मसमारम्भः उदककर्मसमारम्भः=उदकमाश्रित्य ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मवन्धनिवन्धनसावधव्यापारस्तेन, इमम् अप्कायं विहिंसन्ति । अप्कायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-' उदकशस्त्र'-मित्यादि, उदकशस्त्रम्-उदकोपमर्दकं शस्त्रं, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, तत् पूर्वोक्तप्रकारं द्रव्यभावभेदभिन्नं समारभमाणः उदककायं प्रति व्यापारयन्तः, अन्यान् अप्कायभिन्नान् अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन्-स्थावरान्, द्वीन्द्रियादीन् त्रसांश्च विहिंसन्ति । शस्त्र है । मिट्टी आदि से मिला हुआ जल उभयकायशस्त्र है । जल के विषय में मन, वचन और कायका दूषित प्रयोग करना भावशास्त्र है । इन शस्त्रों से जलकर्म का समारंभ कर के अर्थात् जल के आरंभद्वारा ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों के बंध कारणभूत सावध व्यापार कर के जलकाय की हिंसा करते है । जो जलकाय की हिंसा में प्रवृत्त होते है वे षट्कायरूप समस्त लोक की हिंसा करते है, यह बतलाते है-'उदयसत्थं.' इत्यादि। जिस के द्वारा हिंसा की जाय उसे शस्त्र कहते हैं। शस्त्र दा प्रकार के हैंद्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । जिस से अप्काय को हिंसा हो वह अपकायशन है । अप्कायशस्त्र का अपकाय के विषय में प्रयोग करने वाले अप्काय से भिन्न अनेक पृथ्वीकाय आदि स्थावरो की, तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवो की हिंसा करते है। દાલ, ચણા, વાલ આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે. માટી આદિથી મળેલુ જલ ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. જલના વિષયમાં મન, વચન અને કાયાને દૂષિત પ્રયોગ કરવે તે ભાવશસ્ત્ર છે. એ શસ્ત્રોથી જલકર્મને સમારંભ કરીને, અર્થાત્ જલના આરંભદ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોના બંધના કારણભૂત સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને જલકાયની હિંસા કરે છે. જલકાયની હિંસામાં જે પ્રવૃત્ત થાય છે તે ષટ્યાયરૂપ સમસ્ત લોકની હિંસા से पताव छ–'उदयसत्यं. त्या ना डिसा री शाय तेने शस : छ. शर मे ४२ना छे-(१) यशस मने (२) मावश नायी અપ્લાયની હિંસા થાય તે અપ્લાયશસ્ત્ર છે. અષ્કાયશાસ્ત્રને અપ્લાયના વિષયમાં પ્રયોગ કરવાવાળા અષ્કાયથી ભિન્ન અનેક પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરોની દ્વીન્દ્રિય વિગેરે ત્રસ જીની હિંસા કરે છે, उ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे जगति खलु बहवो द्रव्यलिङ्गिनो विद्यन्ते, यथा- 'वयं पञ्चणहाव्रतधारिणः सर्वारम्भपरित्यागिनः षट्कायरक्षका अनगाराः स्मः ' इति वदन्तो दण्डिशाक्यादयः सन्ति । तत्र केचिदेहशुद्ध बहूदकस्नायिनो भवन्ति । केचित्स्वनिवास गृहादिनिर्माणकरणे मृत्तिकापाषाणचूर्णादिषु निक्षेपणेनाप्कायमुपमर्द यन्ति । केचित् स्वोदरपूर्त्त्यर्थं कृष्यादिषु जलसेचनं कुर्वन्ति । केचिच्च देवकुलाद्यर्थं सावद्यमुपदिशन्ति, पार्थिवीं देवगुर्वादिप्रतिमामने कघटजलेः स्नपयन्ति । ते हि सविधिजिनपूजायां, प्रतिमाप्रतिष्ठापने बहुविधसचित्तजलैः प्रतिमास्नपने च महाभीमभवसमुद्रादात्मनः समुद्धारो भवतीति मन्यन्ते, उपदिशन्ति च I ६०८ Į संसार में बहुतसे द्रव्यलिंगी है । जैसे - ' हम पंचमहाव्रतधारी, सब आरम्भ के त्यागी, और षट्काय के रक्षक अनगार है ' ऐसा कहने वाले दण्डी तथा शाक्य आदि है । इन में कोई-कोई देह की शुद्धि के लिए बहुत-से जल से स्नान करने वाले है । कोई अपने रहने के वास्ते मकान आदि बनाने के लिए मिट्टी कंकर और चूने वगैरह में मिलाकर जलकाय की हिंसा करते है । कोई अपना पेट भरने लिए कृषि ( खेती ) में जल सींचते है । कोई देकुलादिके लिये खावद्य करते है । कोई देव एवं गुरु की पार्थिव प्रतिमा को बहुत से - घडे पानी से स्नान कराते हैं । वे विधिपूर्वक जिनपूजा में और प्रतिमा की प्रतिष्ठा में बहुत प्रकार के सचित्त जल से प्रतिमा के स्नान में, महाभयकर भवसागर से आत्मा का उद्धार होना मानते है और उपदेश देते है -- उपदेश સંસારમાં બહુ સંખ્યામાં દ્રવ્યલિંગી છે. જેમ કે- અમે ૫'ચમહાવ્રતધારી, સર્વ પ્રકારના આરભના ત્યાગી અને ષટ્કાયના રક્ષક અણુગાર છીએ’ આ પ્રમાણે કહેવાવાળા ક્રૂ'ડી તથા શાકય આદિ છે, તેમાંથી કેટલાક તે દેહની શુદ્ધિ માટે ઘણાજ જલથી સ્નાન કરવાવાળા હોય છે. કેટલાક તે પેાતાને રહેવા માટે મકાન આદિ બનાવવા માટે માટી કાંકરા અને ચુના વગેરેમાં મેળવીને જલકાયની હિંસા કરે છે. કેાઈ-કાઈ પેાતાનૢ પેટ ભરવા માટે ખેતીમાં જલ સીંચે છે. કેઈ દેવકુલ વગેરે માટે સાવઘને ઉપદેશ આપે છે, અને કેાઈ દેવ અને ગુરૂની પાર્થિવ પ્રતિમાને ઘણાં જ–ઘડા પાણીથી સ્નાન કરાવે છે. તે વિધિપૂર્વક જિનામાં અને પ્રતિષ્ઠામાં ઘણાં જ પ્રકારના સચિત્ત જલથી પ્રતિમાને સ્નાન કરાવામાં મટ્ઠાભય કર ભવસાગરથી આત્માને ઉદ્ધાર થાય છે, એવું માને છે, અને ઉપદેશ આપે છે: Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ स. ६ अप्कायरक्षोपदेशः "सम्यक् स्नात्वोचिते काले, संस्नाप्य च जिनान् क्रमात् । पुष्पाहारस्तुतिभिश्च, पूजयेदिति तद्विधिः" ॥१॥ (धर्मसंग्रहः ) " कुसुमक्खयधूवेहि, दीवयवासेहि सुंदरफलेहि। पूया घयसलिलेहिं, अट्ठविहा तस्स कायया " ॥ १ ॥ (दर्शनशुद्धिः सटीका १ तत्त्व ) छाया-"कुसुमाक्षतधूप-दीपकवासैः सुन्दरफलैः । पूजा घृतसलिलै,-रष्टविधा तस्य कर्तव्या ॥ १ ॥” इति । "विहिणा उ कीरमाणा, सव्व चिय फलवई भवे चेहा । इअलोइया वि किं पुण, जिणपूया उभयलोगहिया" ॥१॥ (पञ्चाशक ४ विव.) छाया-विधिना तु क्रियमाणा, सर्वां चैव फलवती भवेच्चेष्टा । . इहलौकिकाऽपि किं पुन,-जिनपूजा-उभयलोकहिता ॥ १॥ इति ॥ तथैव पूजापतिष्ठादिषु अप्कायोपमदनरूपे शास्त्रनिषिद्धे सावद्यकार्ये प्रवृत्त्याऽपि . द्रव्यलिङ्गिनो दण्डिनः शाक्यादयश्च स्वात्मानमनगारमेव मन्यन्ते । "उचित काल में सम्यक् प्रकार से स्नान कर के और क्रम से जिनप्रतिमा को स्नान करा के पुष्प, आहार और स्तुतिसे पूजा करे । यह पूजा की विधि है" । (धर्मसंग्रह) " विधिपूर्वक की हुई समस्त इस लोकसंबंधी चेष्टाएँ भी सफल होती है तो जिनेन्द्र भगवान् की पूजा का तो कहना ही क्या है, अर्थात् वह दोनों लोको में हितकारी है"। (पञ्चाशक ४ विव.) इसी प्रकार पूजा प्रतिष्ठा आदि अप्काय को हिंसारूप, शास्त्रनिषिद्ध सावध कार्य में प्रवृत्ति करके भी द्रव्यलिंगी दंडी शाक्य आदि अपने आप को अनगार ही मानते है। ઉચિત કાલમાં સમ્યફપ્રકારથી સ્નાન કરીને અને કમથી જિનપ્રતિમાને સ્નાન કરાવી, પુષ્પ, આહાર અને સ્તુતિથી પૂજા કરે. આ પ્રમાણે પૂજાની विधि छे. (धर्म ) વિધિપૂર્વક કરવામાં આવેલી લોકસંબંધી સમસ્ત ચેષ્ટાઓ ( ક્રિયાઓ ) પણ સફલ થાય છે, તે જિતેંદ્ર ભગવાનની પૂજાનું તે કહેવું જ શું ? આ તે भन्ने म तिरी छे ॥ १ ॥” (याश४-४-१५) એ પ્રમાણે પૂજા પ્રતિષ્ઠા આદિ અષ્કાયની હિંસારૂપ શાસ્ત્રનિષિદ્ધ સાવદ્ય કાર્યમાં પ્રવૃત્તિ કરીને પણ દ્રવ્યલિંગી દંડી, શાકય આદિ પિત–પતાને અણગારજ भान छे. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० आंचारागसूत्रे ये उदकशस्त्रं प्रयुञ्जानाः षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्ति, ते द्रव्यलिङ्गिनो नरकनिगोदादिनानाविधदुःखज्वालमालाकुले दीर्घसंसारे परिभ्रमन्ति, उक्तञ्च " सावज्जपूयकारी, सावज्जं उवदिसति जे अण्णू । आउक्कायवहाओ, भमंति ते दीहसंसारे ॥१॥" । सू० ६॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह ' तत्थ' इत्यादि । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए इमस्स चेव दुक्खपडिघायहेउं से जो लोग जलशस्त्र का प्रयोग करते हुए षट्काय के समस्त जीवों की विराधना करते है वे द्रव्यलिंगी नरक आदि के नाना प्रकारके दुःखों की ज्वालाओं के समूह से व्याप्त लम्बे संसार में चारों ओर चक्कर लगाते है । कहा भी है "जो पुरुष ज्ञानरहित होकर सावद्य का उपदेश देते हैं वे, और सावद्य पूजा करने वाले है वे अप्काय की हिंसा से दीर्घ संसार में भ्रमण करते है" ॥ सू. ६॥ सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते है-' तत्थ' इत्यादि । मूलार्थ--भगवान् ने परिज्ञा का प्रतिबोध दिया है। जो इस जीवन के सुख के लिए अपनी वन्दना, मानना, पूजा, जन्म-मरण से छुटकारा, तथा दुःखों का नाश જે લોક જલશસ્ત્રનો પ્રયોગ કરીને ષટૂકાયના તમામ જીવોની વિરાધના કરે છે તે દ્રવ્યલિંગી, નરક નિગોદ આદિના નાના પ્રકારના દુઃખની જવાલાઓના સમૂહથી વ્યાપ્ત લાંબા સંસારમાં ચારેય તરફ ચક્કર લગાવે છે. કહ્યું છે કે જે પુરુષ જ્ઞાનરહિત થઈને સાદ્યનો ઉપદેશ આપે છે તે, અને સાવદ્ય ५० ४२पावणा ही-ein संसारमा प्रभार ४२ छ." ।। १ ॥ (सू. १) सूधा स्वामी भ्यू स्वाभीने ४९ छ-'तत्य' त्याहि. મૂલાઈ–ભગવાને પરિક્ષાને બોધ આપ્યો છે. જે આ જીવનના સુખ માટે પિતાની વંદના, માન્યતા, પૂજા, જન્મ-મરણથી મુક્તિ તથા દુઃખોના નિવારણ માટે તે Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ३ . ७ अप्कायरक्षोपदेशः सयमेव उदयसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं , उदयसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणइ, तं से अहियाए तं से अबोहीए । सू० ७॥ छाया तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता। अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-माननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते, अन्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा उदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत्तस्याहिताय तत्तस्याबोधये ॥ सू० ७॥ ___टीका तत्र-अप्कायसमारम्भे भगवता-श्रीमहावीरेण परिज्ञा-सम्यगवबोधः खलु प्रवेदिता प्रतिबोधिता। कर्मबन्धसमुच्छेदार्थ जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतिबोधितमिति भावः । ज्ञ-प्रत्याण्यान-भेदात् परिज्ञाया द्वैविध्य, द्विविधायास्तस्या लक्षणं च प्रागभिहितम् । करने के निमित्त वह स्वयं ही उदकशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से उदकशस्त्र का आरंभ कराता है, और उदकशस्त्र का आरंभ करने वालों की अनुमोदना करता है। वह उस के अहित के लिए है, वह उसकी अबोधि के लिए है । सू. ७ ॥ टीकार्थ-अप्काय के समारंभ के विषय में भगवान् श्री महावीरने सम्यग् बोध का उपदेश दिया है । भगवान्ने कहा है कि-कर्मबंध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञा का आश्रय आवश्य लेना चाहिए । ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा, इस प्रकार परिज्ञा के दो भेद हैं। दोनों के लक्षण पहले ही कह चुके हैं। પિતેજ જલશસ્ત્રને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે જલશસ્ત્રનો આરંભ કરાવે છે. અને જલશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળાની અનુમોદના કરે છે. તે પિતાના અહિત માટે છે ते तनी राधिन माटे छे. (सू. ७) ટીકાર્થ—અખાયના સમારંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીરે સમ્યગ્ર બેધને ઉપદેશ આપે છે. ભગવાને કહ્યું છે કે-કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીવોએ પરિજ્ઞાને આશ્રય જરૂર લે એઈએ. જ્ઞપરિજ્ઞા અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા, આ પ્રમાણે પરિક્ષાના બે ભેદ છે. બન્નેના લક્ષણે પ્રથમ જ કહેવામાં આવ્યા છે. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे उपभोगद्वारम्जीवः कस्मै प्रयोजनायापकायजीवं प्रति सावधव्यापार करोती ?-त्याह'अस्य चैवे'-त्यादि । अस्यैव क्षणभङगुरस्य जीवितस्य जीवनस्यार्थ-सुखार्थ स्नान-पान -धावन-सेक-यानपात्रो-डुप-गमनागमनाद्यर्थम्, तथा परिवन्दन-मानन-पूजनायपरिचन्दन-प्रशंसा, तदर्थ, यथा-जलयन्त्रण शीकरदृष्टयादौ, ‘फुहारा' इति भाषायाम्। माननंजन्सत्कारः, तदर्थ, यथा-मलापकर्षस्नानवस्त्रमलापकर्षणादौ। पूजनं वस्त्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थ, यथा-देवप्रतिमादिस्नपनपूजनादौ । जातिमरणमोचनाय तीर्थस्नानादौः । दुःखप्रतिघातहेतुंरोगादिशमनार्थं स्नानपानादौ, स स्वयमेवोदकशस्त्रं समारभते व्यापारयति । अन्यैर्वा उदकशस्त्रं समारम्भयति-उद्योजयति । अन्यान् उपभोगद्वार जीव किस प्रयोजन से अप्काय के जीवों के प्रति सावध व्यापार करता है ? इस का उत्तर कहते हैं-इसी क्षणभडगुर जीवन के सुख के लिए, अर्थात् स्नान, पान, धोना, सींचना, जहाज, नौका का गमनागमन, इत्यादि के लिए । प्रशंसाके लिए, जैसे-जल से फौहारा चलाने आदि में, लोगों से सत्कार पाने के लिए, जैसे-स्नान और वस्त्र आदि का मैल दूर करने आदि में, पूजा अर्थात् वस्त्र, रत्न आदि का पुरस्कार पाने के लिए, जैसे देवप्रतिमा आदि के स्नपन और पूजन आदि में, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए तीर्थस्नान आदि में। दुःखों का निरोध करने के हेतु, अर्थात् रोग आदि को शान्त करने लिए स्नान-पान आदि में वह स्वयं अप्काय के विराधक द्रव्य और भावशस्त्र का आरंभ करता - - पभोगवारજીવ કયા પ્રજનથી અષ્કાયના છ પ્રતિ સાવદ્ય વ્યાપાર કરે છે? તેને ઉત્તર ४ छ - AYY२ बनना सुम भाटे, अथात्, स्नान, पान घा, या सीयj, વહાણ આગબેટમાં જવું આવવું,ઈત્યાદિ માટે. પ્રશંસાને માટે જેમકે-નળમાંથી કુવારા ચલાવવા આદિમાં, લોથી સત્કાર પામવા માટે. જેમકે- સ્નાન કરવામાં અને વસ્ત્ર વગેરેને મેલ દર કરવામાં પૂજા અર્થાત્ વસ, રત્ન, આદિન પુરસ્કાર મેળવવા માટે, જેમ-દેવપ્રતિમા આદિના સ્નાન અને પૂજન વગેરેમાં, જન્મ-મરણથી મુકત થવા માટે, જેમ–તીર્થસ્નાન આદિમાં, દુઃખને નિરોધ કરવાના હેતુથી, અર્થાત–રોગ વગેરેની શક્તિ માટે સ્નાન–પાન વગેરેમાં તે પિતે અકાયના વિરાધક દ્રવ્ય અને ભાવશસ્ત્રનો આરંભ કરે છે, બીજા પાસે અચ્છાયશ અને Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलम् आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ.३ स. ७ अप्कायोपभोगः ५१३ बा उदकशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति अनुमोदयति । तत् अष्कायसमारम्भणं तस्य अप्कायसमारम्भणं कुर्वतः कारयितुरनुमोदयितुश्च अहिताय भवति, तथा तत् तस्य अबोधये जिनधर्मप्राप्त्यभावाय भवति ॥ सू० ७॥ __ येन तु तीर्थङ्करादीनां समीपेऽप्कायजीवस्वरूपं ज्ञातं स एवं विजानावीत्याह' से तं संबुज्झमाणे.' इत्यादि । से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ आणगाराणं वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इच्चत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं उदयकम्मसमारम्भेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्यो अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ॥ सू० ८॥ है; दूसरों से अप्कायशस्त्रों का समारंभ करवाता है और अप्कायशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । वह अप्काय का आरंभ, आरंभ करने वाले, कराने वाले और अनुमोदन करने वाले के अहित के लिए होता है और अबोधि-जिनधर्म की अप्राप्ति के लिए होता है ॥सू. ७॥ जिसने तीर्थंकर आदि के सन्निकट अप्काय के जीवों का स्वरूप जान लिया है, वह इस प्रकार जानता है-' से तं.' इत्यादि । मूलार्थ-भगवान और अनगारों से सुनकर अकाय का स्वरूप जानता हुआ जीव चारित्र अङ्गीकार करके कोई-कोई इस प्रकार जानता है-यह ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार (मृत्यु) है, यह नरक है । गृद्ध पुरुष नाना प्रकार के शस्त्रों से जल का आरंभ करके जलशस्त्र का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है |सू. ८॥ સમારંભ કરાવે છે, અને અષ્કાયશઅને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે તે અપકાયને આરંભ કરનારને કરાવનારને અને કરવાવાળાને અનુદાન આપવાવાળાને એ સૌને માટે અહિત કરનાર છે. અને અબાધિ-જિનધર્મની અપ્રાપ્તિ માટે હોય છે. (સ્ ૭) જેણે તીર્થકર આદિના સમીપમાં અષ્કાયના જીવોનું સ્વરૂપ જાણી લીધું છે તે मा प्रमाणे ये छ:-' से तं.' ल्याटि. મૂલાથ–ભગવાન અથવા અણગારો પાસેથી સાંભળીને અષ્કાયના સ્વરૂપને જાણનારા જી ચારિત્ર અંગીકાર કરીને કઈ-કઈ આ પ્રમાણે જાણે છે–આ ગ્રંથ છે, આ મોહ છે, આ મૃત્યુ છે, આ નરક છે. ગૃદ્ધ પુરુષ નાના પ્રકારનાં (અનેક પ્રકારનાં શસ્ત્રથી જલને આરંભ કરીને, જલશને આરંભ કરતા થકા બીજા અનેક ४२ प्राणीशानी हिंसा ४२ छे. (सू. ८) प्र. भा.-६५ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ आचारागसूत्रे - छाया स तत् संयुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वाऽन्तिके, इहैकेपां, ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एप खलु मोहः एष खलु मारा, एप खलु नरका, इत्यर्थ गृद्धो लोकः यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैरुदककर्मसमारम्भेण, उद कशस्त्र समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति ॥ सू० ८॥ टीका यः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्य, अनगाराणाम् तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानाम्, अन्तिके समीपे, श्रुत्वा-उपदेशं निशम्य, आदानीयम् उपादेयं, सर्वसावद्ययोगपरित्यागरूपं चारित्रं, समुत्थाय अङ्गीकृत्य विहरति, स तत्-अप्कायसमारम्भणं, संयुध्यमानः अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवति ॥ स हि-एवं विचारयति इह-मनुप्यलोके, एकेषां श्रमणनिर्ग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवयोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञात-विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाङ्क्षायामाह-एप खलु ग्रन्थः' इत्यादि। टीकार्थ-जा पुरुष तीर्थंकर भगवान् या उनके अनुयायी श्रमण निम्रन्थों के समीप उपदेश सुनकर सर्वसावध व्यापार का त्यागरूप चारित्र अंगीकार करके विचरता है, वह अपकाय के आरंभ को समझता है-उसे अहितकर और अबोधिजनक जानता है । वह इस प्रकार विचार करता है-इस मनुष्य लोक में श्रमण निर्ग्रन्थों के उपदेश से सम्यग्ज्ञान और वैराग्य प्राप्त करनेवाले किन्हीं२ आत्मार्थियों को ही विदित होता है कि-' यह ग्रंय है ' इत्यादि । ટીકાર્ય–જે પુરુષ તીર્થકર ભગવાન તથા તેના અનુયાયી શ્રમણનિર્ચ ના સમીપ ઉપદેશ સાંભળીને સર્વ સાવઘવ્યાપારના ત્યાગરૂપે ચારિત્ર અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે અષ્કાયના આરંભને સમજે છે-તેને અહિતકર અને અધિજનક જાણે છે, તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે કે આ મનુષ્ય લોકમાં શ્રમણ-નિર્ચાના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરવાવાળા કેઈ પણ આત્માર્થિઓના જાણવામાં હોય છે કે આ ગ્રંથ છે ઈત્યાદિ. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.३ सू. ८ अप्कायरक्षोपदेशः ५१६ एषः-उदकशस्त्रसमारम्भः खलु-निश्चयेन, ग्रन्था अथ्यते बध्यतेऽनेनेति ग्रन्थः अष्टविधकर्मबन्धः । कारणे कार्योपचारादुदकशस्त्रसमारम्भस्य ग्रन्थरूपत्वम्, एगमग्रेऽपि बोध्यम् । तथा एषः उदकशस्त्रसमारम्भः मोहः-विपर्यासः विपरीतज्ञानरूपः । तथा एष एव मारः मरणं निगोदादिमरणरूपः। तथा एष खलु नरका-नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यर्थम् एतदर्थ कर्मबन्ध-मोह-मरण-नरकरूपं घोरं दुःखफलं प्राप्य पुनः पुनरेतदर्थमेव लोका-अज्ञानक्शवी जीवः गृद्धा लिप्सुरस्ति । यद्वागृद्धः विषयभोगासक्तः, लोकः संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव-कर्मबन्ध-मोहमरण-नरकार्थमेव, प्रवर्तते । जिस के द्वारा गूंथा जाय-बांधा जाय यह ग्रंथ कहलाता है । यह उदकशस्त्र का समारंभ ग्रंथ है, अर्थात् आठ कर्मों का बध है। यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके उदकशस्त्र के समारंभ को ग्रंथ कहा है । वास्तव में वह ग्रंथ (कर्मबंध) का कारण है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए । यह जलशस्त्र का समारंभ मोह-विपरीत ज्ञान है। तथा यह मार-निगोद आदि के मरणरूप है । यह नरक है अर्थात् नारकी जीवों को होनेवाली दस प्रकार की वेदनाओं का स्थान है । कर्मबंध, मोह, मरण, और नरकरूप घोर दुःखरूप फल को प्राप्त कर के भी अज्ञानी लोग फिर इसी के लिए गृद्ध होते है । अथवा गृद्ध अर्थात् भोगों में आसक्त, संसारी जीव इसी के लिए, अर्थात् कर्मबंध, मोह, मरण तथा नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते हैं। જેના દ્વારા ગૂંચી શકાય–બાંધી શકાય તે ગ્રંથ કહેવાય છે. એ ઉદક-જલશસ્ત્રને સમારંભ ગ્રંથ છે અર્થાત્ આઠ કર્મોને બંધ છે. અહિ કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને ઉદકશાસ્ત્રના સમારંભને ગ્રંથ કહ્યો છે. વાસ્તવિક રીતે તે ગ્રથ (કર્મબંધ)નું કારણ છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. આ જલશસ્ત્રનો સમારંભ મેહ-વિપરીત જ્ઞાન છે, તથા આ માર-નિગોદ વગેરેના મરણપ છે, આ નરક છે–અર્થાત્ નારકી જીને થવાવાળી દસ પ્રકારની વેદનાઓનું સ્થાન છે. કર્મબંધ, મેહ મરણ અને નરક રૂપ ઘેરદુઃખરૂપ ફલને પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લેક ફરીને તેના માટે વૃદ્ધ-આસક્ત થાય છે. અથવા વૃદ્ધ અર્થાત ભેગોમાં આસક્ત સંસારી જીવ એ માટે, અર્થાત્ કર્મબંધ, મોહ, મરણ તથા નરક માટે જ પ્રવૃત્તિ કરે છે. Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ आचारागसूत्रे __ यद्यपि विषयभोगासक्तो लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थ परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातार्थ चाकायशस्त्रसमारम्भं करोति, तथापि तत्फलं ग्रन्ध-मोह-मरण-नरकरूपमेव लभते, अत उदककर्मसमारंभस्य तदेव फलं भवतीति भावः । लोकः पुनः पुनः कर्मवन्धाद्यर्थमेव लिप्सुरस्ति, तदर्थ मेव च प्रवर्तते, इति यदुक्तं तत्र हेतुमाह-' यदिमम्. ' इत्यादि। यद्-यस्माद्, गृद्धो लोकः, विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः स्वकायपरकायतदुमयरूपैः, उदककर्मसमारम्भेण अकायमुद्दिश्याष्टविधकर्मसमुत्पादकसावधव्यापारण, इमम् अप्कायं, विहिनस्ति माणरहितं करोति। तथा-उदक तात्यर्य यह है कि विषयभोगों में आसक्त जीव, शरीर आदि का पोषण करने के लिए, चन्दन-मान-पूजन के लिए, जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए तथा दुःखों का नाश करने के लिए, अप्काय के शस्त्र का आरंभ करता है मगर उस का फल-ग्रन्थ, मोह, मरण और नरक-रूप ही पाता है। अत एव जलकर्मसमारंभ का वही फल होता है। लोक बार-बार कर्मबंध आदि के लिए ही इच्छुक होता है, और उसी के लिए प्रवृत्ति करता है, यह बात पहले कही है । यह। उस का कारण बतलाते है-- क्यों कि गृद्धजन नाना प्रकार के स्वकाय, परकाय और उभयकायरूप शस्त्रों से, उदककर्म के आरंभद्वारा, अपकायसंबंधी अष्टकर्म-जनक सावधव्यापारद्वारा अपूफाय की हिंसा करता है। तथा जलकाय के विराधक स्वकाय, परकाय और તાત્પર્ય એ છે કે–વિષયોમાં આસક્ત જીવ શરીર-આદિના પિષણ કરવા માટે વન્દન, માન, પૂજા માટે, જન્મ મરણથી મુક્ત થવા માટે તથા દુઃખોને નાશ કરવા માટે અપ્લાયના શઅને આરંભ કરે છે, પરંતુ તેનું ફળ ગ્રંથ, મોહ, મરણ અને નરક ઉપજ પામે છે, એ માટે જલકમસમારંભનું ફલ તેજ હોય છે. લેક વારંવાર કર્મબંધ વગેરે માટે ઈરછા કરતા હોય છે અને તે માટે પ્રવૃત્તિ કરે છે. એ વાત પ્રથમ કહી છે. અહિં તેનું કારણ બતાવે છે કેમકે ગૃદ્ધ માણસ નાના પ્રકારના કાય, પરકાય અને ઉભયકાય રૂ૫ શાથી ઉદકર્મના આરંભદ્વારા અષ્કાયના સંબંધી આઠ કર્મજનક સાવધવ્યાપારદ્વારા અપ્લાયની હિંસા કરે છે. તથા Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सू. ९ अप्कायसचित्तता शस्त्रम् - अकायमर्दकं शस्त्रं स्वकाय परकाय तदुभयरूपं, अन्यान् = पृथिवीकायादीन्, अनेकरूपान् = त्रसान् स्थावरांश्च, विहिनस्ति । ५१७ समारभमाणः= व्यापारयन् प्राणान् =पाणिनो अकायहिंसया षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव मणिहन्तीति घोरतरं दुरितं कुर्वन् पुनः पुनः ग्रन्थादिनरकान्तं प्राप्यापि तदर्थमेव प्रवर्त्तते न पुनर्मोक्षायेति भावः ॥ सु० ८ ॥ पुनरपि सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्राह - ' से बेमि. ' इत्यादि । ॥ मूलम् ॥ से बेमि संतिपाणा उदयनिस्सिया जीवा अणेगे | सु०९ ॥ ॥ छाया ॥ मिसन्ति प्राणा उदकनिश्रिता जीवा अनेके ॥ सू० ९ ॥ उभयकाय रूप शश्त्रों का आरंभ करता हुआ अन्यकाय -स्थावर और त्रस जीवों को भो हिंसा करता है, वह जलकायकी हिंसाद्वारा षड्जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है; अतः अत्यन्त घोर पाप करता हुआ पुनःपुनः ग्रंथ से लेकर नरक तक के दुष्फल को पाकरके भी उसी के लिए प्रवृत्ति करता है - मोक्ष के लिए नहीं ||सू. ८|| सुधर्मा स्वामी फिर नम्बू स्वामी से कहते है - ' से बेमि' इत्यादि । मूलार्थ — मैं कहता हूँ अप्काय के आश्रित प्राणी है और अन्य अनेक (द्दीन्द्रिय आदि) जीव भी हैं । सू. ९ ॥ જલકાયના વિરાધક સ્વકાય, પરકાય અને ઉભયકાય રૂપ શસ્ત્રોને આરંભ કરીને અન્યકાય–સ્થાવર અને ત્રસ જીવેાની પણ હિંસા કરે છે. તે જલકાયની હિંસાદ્વારા ષજીવનિકાયરૂપ સમસ્ત લેાકની હિંસા કરે છે. તેથી અત્યન્ત ઘાર પાપ કરતા થકા ફ્રી ફ્રી ગ્રંથ (કબંધ)થી લઈને નરક સુધીના માઠા-દુઃખકારક ફળને પામીને ते भाटे अवृत्ति उरे छे, भोक्ष भाटे उरता नथी. (सू. ८ ) सुधर्मा स्वाभी इरीथी भ्यू स्वाभीने उडे छे -' से वेमि.' इत्याहि. મૂલા—હું કહું છું—અકાયના આશ્રિત પ્રાણી છે, અને અન્ય અનેક (દ્વીન્દ્રિય माहि) वायु छे. (सू. स्) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे टीकासः विज्ञाताप्कायस्वरूपोऽहं ब्रवीमि-यथा साक्षाद् भगवतः सकाशान्मया श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । उदकनिश्रिताः जलरूपं कायमाश्रित्य वर्तमानाः अप्कायिका इत्यर्थः प्राणाः आणिनः सन्ति । तथाऽने के द्वीन्द्रियादयः नानाविधाः जीवा नीला-पूतरक-मत्स्यादयः उदकनिश्रिताः उदकावस्थिताः सन्ति । देहलीदीपन्यायेनोदकनिश्रिता इत्यस्योभयत्रान्वयः, अनेनोदकं सचित्तमनेकजीवाधिष्ठितं चेति प्रतिबोधितम् । टीकार्थ-अप्काय के स्वरूप का ज्ञाता मैं कहता हूँ। जैसा कि भगवान् से मैने सुना है कि-अप्काय को आश्रित करके रहे हुए अप्कायिक प्राणी है, तथा अनेक द्वीन्द्रिय आदि नाना प्रकार के जीव नीलगु, पूरतक, मत्स्य आदि भी जल में रहे हुए है । उदकनिश्रिताः-'जलकाय के आश्रित' यह पद देहली-दीपकन्याय से दोनों ओर जोड लेना चाहिए । यहाँ इतना समझ लेना आवश्यक है कि-जलकाय के जीवों का शरीर जल ही है, जब कि जल में रहने वाले बस आदि जीवों का शरीर भिन्न होता है, फिरभी वे जल ही में रहते है और जल की विराधना करनेसे उन त्रस आदि जीवों की भी विराधना होती है। जहाँ जलकाय है वहा सभी काय के जीव होते है। ટીકાથ–અષ્કાયના સ્વરૂપને જાણનાર હું કહું છું. જેવી રીતે કે મેં ભગવાન પાસેથી સાંભળ્યું છે કે-અપ્લાયને આશ્રિત–આશ્રય કરીને રહેલા અષ્કાયના જીવે છે. તથા અનેક હીન્દ્રિય આદિ નાના પ્રકારના જીવ નિલંગ. પૂરતક, મત્સ્ય આદિ પણ रसभा २डेसा छे. 'उदकनिश्रिताः' restयने माश्रित' मा ५६ हेहुली-सी५४-न्यायथी બને છાજુ જેડી લેવું જોઈએ. અહિં એટલું સમજી લેવું આવશ્યક છે કે-જલકાયના-જીનાં શરીર જજ છે. ત્યારે કે જલમાં રહેવાવાળા ત્રસ આદિ ના શરીર ભિન્ન-જુદાં હોય છે. તે પણ તે જલમાંજ રહે છે, અને જલની વિરાધના કરવાથી તે ત્રાસ આદિ જીવોની પણ વિરાધના થાય છે. જ્યાં જલકાય છે ત્યાં તમામ કાયના જીવ હોય છે. Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सू. ९ अप्कायसचित्तता अप्कायस्य लक्षणद्वारम्ननूदकं सचित्तमस्तीत्यत्र किं प्रमाणम् ? उच्यते-आपः सचित्ताः, शस्त्रानुपहतवे सति द्रवखात्, हस्तिशरीरोपादानभूतकललवत् । वस्रवणादौ दोषवारणाय शस्त्रानुपहतत्वविशेषणोपादानम् । कललशब्दग्रहणेन सप्तदिवसमाप्रवर्तिनो ग्रहणम्, ततः परमष्टमदिवसादौ तदेवार्बुदाद्यवस्थामापद्यते । किञ्च-आपः सजीवाः, अनुपहतद्रवत्वात्, अण्डकमध्यस्थितकललवत् । किञ्च-आपो जीवशरीराणि, छेद्यत्वात, भेषत्वात्, दृश्यत्वात्, करचरणादिसमुदायवत् । अप्कायका लक्षणद्वार शंका--जल सचित्त है, इस विषय में क्या प्रमाण है ? समाधान--जल सचित्त है, क्यों कि शस्त्र के उपघात के विना ही वह द्रव (तरल) है, जैसे-हाथी के शरीर का उपादान कलल । यहाँ मूत्र आदि से व्यभिचार हटाने के लिए 'शस्त्र के उपघात के विना' यह विशेषण लगाया गया है। 'कलल' शब्द के ग्रहण करने से सिर्फ सात दिन का गर्भाशयस्थित शुक्रशोणितमिश्रित द्रवपदार्थ लेना चाहिए । आठवें दिन से उककी अर्बुद आदि अवस्थाएं हो जाती हैं-अर्थात् वह गाढा होने लगता है। और भी-जल सजीव है, क्यों कि वह अनुपहत द्रव है, जैसे अंडे का रस । और भी-जल, जीव का शरीर है, क्यों कि उसका छेदन-भेदन किया जाता है और दृश्य है, हाथ पग आदि के समूह की तरह । सायनुसारश -४५-पाणी सथित छे ये विषयमा शुं प्रमाण छ સમાધાન -જલ સચિત્ત છે. કેમકે શસ્ત્રના ઉપઘાત વિનાજ તે તરલ છે. જેવી રીતે હાથીના શરીરનું ઉપાદાન “કલલ”. અહિં મૂત્ર આદિથી વ્યભિચાર હઠાવવા माटे शखन पधात विना' से विशेष गायुछे. “Bed." शहना ग्रहण ४२વાથી માત્ર સાત દિવસને ગર્ભાશયમાં રહેલો શુકશોણિત-મિશ્રિત દ્રવપદાર્થ સમજ જોઈએ. આઠમા દિવસથી તેની અન્દ આદિ અવસ્થાઓ થઈ જાય છે. અર્થાત તે કઠણ થવા લાગે છે. બીજું પણ–જલ સજીવ છે, કેમકે તે અનુપહત કવ છે, જેમકે ઈંડાને રસ. બીજું પણ જલ-જવ–શરીર છે. કેમકે–તેનું છેદન–ભેદન કરી શકાય છે અને દેશ્ય છે; હાથ-પગ આદિના સમૂહ પ્રમાણે. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे किञ्चाऽव्यक्तोपयोगादीनि कपायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिवीकायोद्देशके प्रागुक्तानि तेषां जीवलक्षणानां समन्वयादापः सचित्ता मनुष्यवदिति विज्ञायते । एवं तेजस्कायादेरेकेन्द्रियजीवस्यैतानि जीवलक्षणानि सन्तीति बोध्यम् । आगमोऽपि यथा—“आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता " इति ( दशवे. अ० ४ ) ५२० प्ररूपणाद्वारम् - सूक्ष्मनामकर्मोदयात् इस के अतिरक्त-अव्यक्त उपभोग से लेकर कषायपर्यन्त जीव के जो लक्षण पृथ्वीका य के उद्देशक मे बतलाये हैं, उन सब जीव के लक्षणों की विद्यमानता होने के कारण भी जल सचित्त हैं, जैसे मनुष्य आदि । अकाया जीवा द्विविधाः 5 सूक्ष्मवादरभेदात् । इसी प्रकार तेजस्काय आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी जीव के लक्षण हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए । आगम प्रमाण से भी नल सजीव सिद्ध होता है - " अप सचित कहा गया है । उसमें अनेक जीव है और उन का अस्तित्व, अलग-अलग है । " ( दश० अ० ४ ) प्ररूपणाद्वार अष्काय के जीव दो प्रकार के है- सूक्ष्म और बादर । जिनके सूक्ष्मनाम તે સિવાય અવ્યક્ત ઉપચેગથી લઈને કષાય સુધી જીવતાં જે લક્ષણ પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશકમાં ખતાવ્યાં છે તે સર્વ જીવના લક્ષષ્ણેાની વિદ્યમાનતા હેાવાના કારણે પણ જલ ચિત્ત છે. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિ. એ પ્રમાણે તેજસ્કાય આદિ એકેન્દ્રિય જીવામાં પણ જીવના લક્ષણુ છે. એ રીતે સમજી લેવું જોઈએ. આગમ પ્રમાણુથી પણુ જલ સજીવ સિદ્ધ થાય છે— “मय सत्तिहेतुं छे; तेमां ने लव हे अने तेनुं अस्तित्व असण अक्षम है.” ( दृश० २५. ४ ) प्ररूपालाद्वार અકાયના જીવ એ પ્રકારનાં છે—(૧) સૂક્ષ્મ અને (૨) ખાદર જેને સૂક્ષ્મનામ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य० १ उ. ३ सू. ९ अप्कायभेदाः ५२१ सूक्ष्माः, बादरनामकर्मोदयाद् बादराः। तत्र सूक्ष्मा द्विविधाः-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनः । वादरा लोकैकदेशे सन्ति । बादरा अकाया अनेकविधाः -हिमा-वश्याय-मिहिका-करक-हरतनु-शुद्ध--शीतो-ष्ण-क्षाराम्ल-लवण-क्षीर-घृतोदकादयः । ते सर्वे वादरा अप्कायाः संक्षेपतो द्विधा-पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च। बादराणां यत्रैको जीवस्तत्रासंख्येयैर्बादरजीवैनियमतो भाव्यम् । बादराणां स्थानं समुद्रहदनदीप्रभृतयः। वादराणां सूक्ष्माणां चोभयेषामकायानां पर्याप्तापर्याप्तभेदवदन्येऽपि शरीरत्रयादिभेदाः सन्ति, ते पृथिवीकायोद्देशे प्रागुक्तास्तत एव बोद्धव्याः । कर्मका उदय है वे सूक्ष्म कहलाते है, और बादरनामकर्म के उदय वाले बादर कहलाते हैं । इन मेंसे सूक्ष्म जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। सूक्ष्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है । बादर लोक के एक देश में है, बादरअप्काय के अनेक भेद हैहिम, ओस, मिहिका ( धूवर ) ओले, हरतनु ( तृणके अग्र पर रहा हुआ पानी ) शुद्ध, शीतउष्ण, क्षार, आम्ल, लवण, क्षीर, घृतोदक आदि । सब बादर अप्काय संक्षेप से पर्याप्त तथा अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं । जहाँ एक बादर जीव होता है वहां नियम से असंख्यात बादर जीव होते है । समुद्र, तालाब, नदी वगैरह बादर जीवों के स्थान है। ___बादर और सूक्ष्म, दोनों प्रकार के जलकाय के जैसे पर्याप्त और अपर्याप्त भेद किये गये हैं उसी प्रकार शरीरत्रय आदि और भेद भी है । वे पृथ्वीकाय के उद्देशक में बतलाये हैं । वहीं से जान लेने चाहिए। કમને ઉદય છે તે સૂક્ષ્મ કહેવાય છે અને બાદરનામકર્મના ઉદયવાળા બાર કહેવાય છે. તેમાંથી સૂક્ષ્મ જીવ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી બે પ્રકારનાં છે. સૂક્ષ્મ સર્વ લોકમાં વ્યાપ્ત છે. અને બાદર લેકના એક દેશમાં છે. બાદર અષ્કાયના અનેક से छे. डिम, आ४, रतनु (तृणुन मय५२ हेतु पा) शुद्ध શીત,ઉષ્ણુ ક્ષાર,અમ્લ, લવણ, ક્ષીર, ઘતેદક આદિ સર્વ બાદર અકાય સંક્ષેપથી પર્યાપ્ત તથા અપર્યાપ્તના ભેદથી બે પ્રકારનાં છે. જ્યાં એક બાદર છવ હોય છે. ત્યાં નિયમથી અસંખ્યાત બાદર જીવ હોય છે. સમુદ્ર, તળાવ, નદી વગેરે બાદર જીના સ્થાન છે. બાદર અને સૂમ-બને પ્રકારના જલકાયના જેવી રીતે પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત ભેદ કરવામાં આવ્યા છે. તે પ્રમાણે શરીરત્રય આદિ બીજા ભેદ પણ છે તે પ્રશ્વી કાયના ઉદ્દેશકમાં બતાવેલા છે. તે ત્યાંથી જાણી લેવા જોઈએ. प्र. आ-६६ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे पृथिवीकायवद् असंख्येयाश्च प्रत्येकमुभये । केवलं शरीरसंस्थानं स्तिवुकविन्दुक संस्थितमेव । ५२२ परिमाणद्वारम् - ये वादरप्रर्याप्ता अष्कायाः, ते अयमत्र संवर्तितलोकप्रतराऽसंख्येयभाग मदेशराशिपरिमाणाः, ये तु वादरा अपर्याप्ताः, तथा सूक्ष्माः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च राशयस्ते पृथक् पृथग संख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति । विशेषः - बादरपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो वादरपर्याप्ता अष्काया असंख्येयगुणाः, वादरेभ्योऽपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो वादरा अपर्याप्ता अप्काया असंख्येयगुणाः । सुक्ष्मापर्याप्तपृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्ता अपुकाया विशेषाधिकाः, पृथ्वीकाय के समान प्रत्येक प्रकार के नीव असंख्यात है । अलबत्ता इन के शरीर का आकार स्तिवुकविन्दु (बुद - वुद) के समान है । परिमाणद्वार चादर पर्याप्त अप्काय के जीव संवर्तित लोकप्रतर के असंख्येयभाग प्रदेशों के बराबर है, बादर अपर्याप्त तथा सूक्ष्म प्रर्याप्त और अपर्याप्त राशियाँ अलग अलग असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश के बराबर हैं । यहाँ इतनी विशेषता समझनी चाहिए कि- चादर पर्याप्त पृथ्वीकाय की अपेक्षा वादर पर्याप्त अपूकाय असंख्यातगुणा हैं, और चादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय की उपेक्षा बादर अपर्याप्त अप्काय के जीव असंख्यातगुणा हैं । सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक जीव विशेष अधिक है . પૃથ્વીકાયની પ્રમાણે પ્રત્યેક પ્રકારના જીવ અસંખ્યાત છે. અલખત્ત તેના શરીરના આકાર સ્તિણુકખિન્દુ-ખુદ ખુદના પ્રમાણે છે. પરિમાણદ્વાર~~ બાદર પર્યાપ્ત અપ્કાયના જીવ સર્જિત લેાકપ્રતરના અસભ્યેય ભાગ પ્રદેશના ખરાખર છે. ખાદર અપર્યાપ્ત તથા સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત રાશિઓ અલગ-અલગ અસંખ્યાત લેાકાકાશના પ્રદેશેની ખરાખર છે. અહિં એટલી વિશેષતા સમજવી જોઇએ કેબાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા ખાદર પર્યાપ્ત અકાય અસખ્યાત ગુણા છે, અને ખાદર અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા બાદર અપર્યાપ્ત અકાયના જીવ અસંખ્યાત ગુણા છે, સૂમ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવાથી સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત અાયિક જીવ વિશેષ અધિક છે. Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ मू. ९ अकायशस्त्रम् सूक्ष्म-पर्याप्त-पृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्मपर्याप्ता अप्काया विशेषाधिकाः ॥ मू०९॥ श्रीसुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनमामन्त्र्य कथयति-' इहं चे.'-त्यादि । मूलम्इहं च खलु भो ! अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया सू० ॥१०॥ छायाइह च खलु भोः ! अनगाराणामुदकं जीवा व्याख्याताः ॥ सू० १०॥ टीका'भोः' इति परस्परालापविषयकामन्त्रणे, तेन भोः हेजम्बूः ! इह-जिनशासने खलु-निश्चयेन अनगाराणां-द्रव्यभावगृहरहितानां मुनीनां पतिबोधनायेति शेषः, उदकं जीवा व्याख्याताः' इति, उदकं जीवपिण्डभूततथा सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकाय की अपेक्षा सूक्ष्म पर्याप्त अप्काय के जीव विशेष अधिक हैं ॥ सू. ९ ॥ श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी को संबोधन करके कहते है:-'इहं च' इत्यादि । मलार्थ है शिष्य ! जिन शासन में अनगारों के लिए यह व्याख्या की गई है कि-जल जीव है ॥ सू. १०॥ टीकार्थ – 'भो' शब्द संबोधन के लिए है। इस का तात्पर्य यह हुआ कि हे जम्बू ! इस जिन शासन में निश्चय से अनगारों अर्थात् द्रव्य और भाव गृह से रहित मुनियों के बोध के लिए 'जल जीव है' यह व्याख्यान किया गया है । जल, जीवों का તથા સૂક્ષમ પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયની અપેક્ષા સૂમ પર્યાપ્ત અષ્કાયના જીવ વિશેષ मधि छ. (सू. ८) श्री सुधा स्वामी न्यू स्वाभान, समाधन रीने ४ छ-' इहं च त्याह. મૂલાઈ–હે શિષ્ય! જિનશાસનમાં અણગારેને માટે આ વ્યાખ્યા કરવામાં भावी छे, , ४८ ७१ छे. (सू. १०) ટીકાથ– શબ્દ સંબંધન માટે છે. તેનું તાત્પર્ય એ થયું કે-હે જબૂ. આ જિનશાસનમાં નિશ્ચયથી અણગારેના અર્થાત્ દ્રવ્ય અને ભાવ ગૃહથી રહિત મુનિઓના બંધ માટે “જલ જીવ છે આ વ્યાખ્યાન કરવામાં આવ્યું છે. જલ, જીનેપિંડ છે, એ પ્રમાણે Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ आचारागसूत्रे मस्तीति भगवता केवलालोकेन विज्ञायानगारेभ्यः संयमरक्षणार्थमुदकं जीवत्वेन प्रतिवोधितमित्यर्थः । 'च'-शब्दात् तदाश्रिता अन्ये द्वीन्द्रियादयोऽपि जीवा व्याख्याता इति वोधितम् । यो विन्दुमात्रोदकविराधकः, स पइजीवनिकायविराधको भवतीति वर्गलार्थः ॥ सू० १० ॥ शस्त्रद्वारम्ननु यदि जीवपिण्डभूतमुदकं भगवता प्रोक्तं तर्हि उदकसेविनां मुनीनामवश्यं प्राणाविपातदोपसम्पातः, तेन कथं संयमः संयमिनां संपद्यते ? उच्यते सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिविधमुदकम् । तत्र सचित्तं-नदीकूपतडागादिपिण्ड है, इस प्रकार भगवान् ने केवलज्ञान से जानकर साधुओं के संयम की रक्षा के लिए जल को जीव बतलाया है । सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि जल के आश्रित दूसरे द्वीन्द्रिय आदि जीव भी है । संक्षेप में तात्पर्य यह है कि-जो पुरुष एक विन्दु जल की विराधना करता है वह षट्काय के जीवों का विराधक है ।। सू. १० ॥ शस्त्रद्वारशंका--यदि जल जीवों का पिण्ड है, ऐसा भगवान्ने कहा है तो जलका सेवन करने वाले मुनियों को हिंसा का दोष लगता है। ऐसी स्थिति में साधुओं का संयम किस प्रकार कायम रह सकता है ? ___समाधान--जल तीन प्रकार का है-(१) सचित्त (२) अचित्त और (३) मिश्र ભગવાને કેવલજ્ઞાનથી જાણ કરીને સાધુઓના સંયમની રક્ષા માટે જલને જીવ તરીકે બતાવ્યું છે. સૂત્રમાં આપેલા “ર' શબ્દથી એ પ્રગટ કરવામાં આવ્યું છે કેજલના આશ્રિત બીજા કીન્દ્રિય આદિ જીવ પણ છે. સંક્ષેપમાં તાત્પર્ય એ છે કેજે પુરૂષ એક ટીપા જલની વિરાધના કરે છે તે પકાયના જીને વિરાધક છે. (સૂ. ૧૦) शनद्वारશંક–જે જલ ને પિંડ છે. એ પ્રમાણે ભગવાને કહ્યું છે તે જલનું સેવન કરવાવાળા મુનિઓને હિંસાદેષ લાગે છે. એવી સ્થિતિમાં સાધુઓને સંયમ કાયમ કેવી રીતે રહી શકે છે ? समाधान-ara aey प्रा२र्नु छ (१) सचित्त (२) अथित मन (3) मिश्र. Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सू. ११ अष्कायशस्त्रम् ५३५ जलम् | मिश्रं सचित्ताचित्तसंमिलितम् । एतद् द्वयं चाग्राह्यम् । अचित्तं द्विविधं स्वभावतः, शस्त्रसंपर्कतश्च । स्वभावतोऽचित्तं जलं केवलि - मनःपर्ययाऽवधि-श्रुतज्ञानिनस्तज्जानाना अपि न सेवन्ते, अनवस्थादोषप्रसङ्गात्, व्यवहाराशुद्धेश्च । प्रसिद्धं च यत् कदाचित्स्वभावतोऽचित्तजलपरिपूर्ण हृदं, स्वभावतोऽचित्तीभूतं तिलादिकं च दृष्ट्वा व्यवहाराशुद्धत्वात्पिपासाक्षुधापरिपीडितानामपि साधूनां पानार्थ भक्षणार्थ च तत्रानुज्ञा न कृता भगवतेति । यत्तु शस्त्रसंपर्कादिचित्तं जलं तत् साधूनामुपभोगाय ग्राह्यं तेन संयमनिर्वाहो भवति । किं तच्छत्रम् ? इत्याह- ' सत्थं. ' इत्यादि । सचित्त, और अचित्त मिला जल मिश्र अग्राह्य है । अचित्त जल दो नदी, कूप, तालाव आदि का जल कहलाता है । यह दोनों प्रकार का जल साधु के लिये प्रकार का है - स्वभाव से अचित्त और शस्त्र के संयोग से अचित्त । स्वभाव से अचित जल को केवली, मन:पर्ययज्ञानी, अवधिज्ञानी, तथा श्रुतज्ञानी, जानते है, मगर उस का सेवन नहीं करते । सेवन करने से अनवस्था दोष आता है और व्यवहार अशुद्ध हो जाता है । यह बात प्रसिद्ध है कि - कदाचित् स्वभाव से अचित्त जल से भरा हुआ तालाब, तथा स्वभाव से अचित्त तिल, आदि को देखकर व्यवहार में अशुद्ध होने के कारण प्यास और भूख से पीडित साधुओं को भी पीने-खाने की आज्ञा भगवान् ने नहीं दी है । जो जल, शस्त्र के संयोग से अचित्त हो गया हो वही साधुओं के लिए, ग्राह्य होता है । ऐसा करने से ही संयम का पालन होता है । वह शस्त्र क्या है, यह बतलाने के लिए कहते है - 'सत्थं.' इत्यादि । નદી, કુવા,તળાવ આદિનું જલ સચિત્ત છે. સચિત્ત અચિત્ત બન્ને પ્રકારનું ભેગુ થયેલું જલ મિશ્રકહેવાય છે. આ બન્ને પ્રકારનાં જલ સાધુએ માટે અગ્રાહ્ય છે. અચિત્ત જલ એ પ્રકારનુ છે.(૧) સ્વભાવથી અચિત્ત અને (૨) શસ્ત્રના સંચાગથી અચિત્ત. સ્વભાવથી અચિત્ત જલને કેવલી, મન:પર્યં યજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની તથા શ્રુતજ્ઞાની જાણે છે, પરંતુ તેનુ સેવન કરતા નથી–સેવન કરવાથી અનવસ્થા દોષ આવે છે, અને વ્યવહાર અશુદ્ધ થઈ જાય છે. એ વાત પ્રસિદ્ધ છે કે-કદાચિત્ સ્વભાવથી અચિત્ત જલથી ભરેલું તળાવ તથા સ્વભાવથી અચિત્ત તલ આદિને જોઇને વ્યવહારમાં અશુદ્ધ હાવાના કારણે તરસ અને ભૂખથી પીડિત સાધુઓને પણ પીવા–ખાવાની આજ્ઞા ભગવાને આપી નથી. જે જલ શસ્ત્રના સંચાગથી અચિત્ત થઈ ગયુ હોય તે જલ સાધુ માટે ગ્રાહ્ય ડાય છે. એ પ્રમાણે કરવાથીજ संयभनु पालन थाय छे. ते शस्त्र शुं छे ? मे मतावना भाटे उडेछे- 'सत्यं' इत्यादि. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ मूलम् — सत्थं चेत्थ अणुवी पास, पुढो सत्थं पवेइयं ॥ सू० ११ ॥ आचाराङ्गमुत्रे छाया- शस्त्रं चात्र अनुविचिन्त्य पश्य, पृथक् शस्त्रं प्रवेदितम् ॥ ११ ॥ टीका अस्मिन् प्रस्तुतेऽप्काये शस्त्रं- शस्यते = हिंस्यते प्राणी येन तच्छत्रम् अनुविचिन्त्य =' इदमप्कायस्य शस्त्रम्' इति विचार्य, पश्य = हे शिष्य ! ज्ञानदृष्टया विलोक्य । शस्त्रम् = उपमर्दकं प्रस्तुतत्वादष्कायस्य पृथक् = विभिन्नरूपं स्वकायपरकायोभयकायभेदात् त्रिविधमित्यर्थः प्रवेदितं = प्रतिबोधितं भगवतेतिशेषः । तत्र स्वकायशस्त्र नद्याद्युदकानां कूपाद्युदकम् । कूपाद्युदकानां नद्याद्युदकं च । स्वकायशस्त्रपरिणतं जलं साधूनामग्राह्यं व्यवहाराशुद्धेः । उभयका यशस्त्र कूपादिजलस्योष्णजलं मृत्तिकादि मूलार्थ -- अकाय के विषय में, हे शिष्य ! शस्त्र का विचार करो । अप्काय के शस्त्र पृथक्-पृथक् समझाये गये है ॥ सु. ११ ॥ टीकार्य -- जिस के द्वारा हिंसा हो वह शत्र कहलाता है, हे शिष्य 1 अप्काय के विषय में 'यह अप्काय का शस्त्र है' इस प्रकार विचार करो अप्काय के छात्र स्वकाय, परकाय और उभयकाय के भेद से नाना प्रकार के भगवानन् ने बतलाये है 1 कुंएका जल नदी के जल के लिए स्वकायशास्त्र है, इसी प्रकार नदी आदि का जल कुँए के जल के लिए स्वकायशस्त्र है । स्वकायशस्त्र से परिणत नल साधुओं के लिए ग्राह्य नहीं होता, क्यों कि वह व्यवहार में अशुद्ध है । उभयकायशस्त्र है- कुँए आदि के મૂલા—અપ્લાયના વિષયમાં હું શિષ્ય ! શસ્ત્રના વિચાર કરો. અપ્કાયનાં शस्त्र लुहां लुहां सभलव्यां छे. (सू. ११) ટીકા જેના દ્વારા હિંસા થઈ શકે તે શસ્ત્ર કહેવાય છે, હું શિષ્ય ! અપ્કાયના વિષયમાં ‘આ અપ્લાયનુ શસ્ત્ર છે' એ પ્રમાણે વિચાર કરે! અપ્લાયનાં શસ્ત્ર સ્વકાય, પરકાય, અને ઉભયકાયના ભેદથી નાના પ્રકારનાં ભગવાને ખતાનાં છે. કુવાનુ જલ, નદી આદિનાં જલ માટે સ્વકાયશસ્ત્ર છે. એ પ્રમાણે નદી આદિનુ જલ કુવાનાં જલ માટે સ્વકાયશસ્ત્ર છે. સ્વકાયાગ્નથી પરિણત જલ સાધુએ માટે ગ્રાહ્ય રહેતું નથી, કારણ કે તે વ્યવહારમાં અશુદ્ધ છે. ઉભયકાયશસ્ત્ર છે કુવા આદિનાં જલ. માટે ગરમ જલ, અથવા માટી વગેરેથી Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.३ सु. ११ अप्कायशस्त्रम् ५२७ मिश्रजलं च। उभयकायशस्त्रपरिणतमपि न ग्राह्यम्, तत्र मिश्रशङ्कासद्भावात् । परकायशस्त्रपरिणतमेव जलं मुनीनां ग्राह्यम्, परकायशस्त्रं चाप्कायस्य अग्नि-मृत्तिकाद्राक्षा-शाक-तण्डुल-पिष्ट-दाली-चणकादिकम् । परकायशस्त्रपरिणतं-वर्णादीनां पूर्वावस्थावैलक्षण्यापन्नम् । तत्र वर्णतो धूसरत्वादिरूपं, गन्धतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धिगन्धवत्त्वम्, रसतस्तत्तद्वस्तुसम्बन्धितिक्तकटुकषायादिरसवत्त्वम् । स्पर्शतः स्निग्धरूक्षत्वादिरूपम् । तदेवम्भूतमचित्तं जलमस्यैवाङ्गस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धे पानेषणायामेकविंशतिविधं मुनीनां ग्राह्यत्वेन वक्ष्यते भगवता । तथाहि जल के लिए गर्म जल अथवा मिट्टी आदि से मिला हुआ जल । उभयकायशस्त्र से परिणत जल भी साधुओं के लिए ग्राह्य नहीं है, क्यों कि उस में मिश्र (सचित्ताचित्त) की शङ्का रहती है । मुनियों के लिए परकायशस्त्रपरिणत जल ही ग्रहण करने योग्य है । अप्काय का परकायशस्त्र-अग्नि, मिट्टी, दाख, शाक, चावल, आटा, दाल, और चना आदि है। पहले की अपेक्षा वर्ण, रस गंध आदि बदल जाना परकायशस्त्र से जल के परिणत (अचित्त) हो जाने की पहचान है । वर्ण से जल का धूसर आदि हो जाना, गंध से उस में मिली हुई वस्तुओं की गंध आने लगना, इसी प्रकार जल में मिली हुई वस्तुओं का तीखा, कडवा, कसैला आदि रस का स्वाद आ जाना, और स्पर्श से जल का रूखा, चिकना आदि हो जाना जल के अचित्त होने के लक्षण हैं । મળેલું જલ. ઉભયકાય શસ્ત્રથી પરિણુત જલ પણ સાધુઓ માટે ગ્રાહ્ય નથી. કેમકેતેમાં મિશ્ર (સચિત્તાચિત્ત) ની શંકા રહે છે. મુનિએ માટે પરકાયશસ્ત્રપરિણત જલજ अडर २१॥ योग्य छे. मायर्नु ५२४१यशस, मशि, भाटी, द्राक्ष, ॥४, यापस, લોટ, દાલ અને ચણ આદિ છે. પહેલાં કરતાં જેનાં વર્ણ, રસ, ગંધ, આદિ બદલાઈ જાય તે પરાકાયશસ્ત્રથી જલ પરિણત (અચિત્ત) થઈ જવાની એ નિશાની અર્થાત્ ઓળખાણ છે. વર્ણથી જલનું ધૂસર આદિ થઈ જવું, ગંધથી તેમાં મળેલી વસ્તુઓની ગંધ આવવી, એ પ્રમાણે જલમાં મળેલી વસ્તુઓના તીખા, કડવા, કસેલા આદિ રસને સ્વાદ આવી છે, અને સ્પર્શથી જલનું રક્ષ ચિકણું આદિ થઈ જવું એ જલ અચિત્ત હોવાના લક્ષણ છે. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५२८ आचारागसूत्रे (१) उत्स्वेद्यम्-पिष्टसंसृष्टपिठरादिप्रक्षालनजलम् । (२) संस्वेद्यम् संसेकिम वा उत्कालिततिलधावनजलं, उत्कालितपत्रशाकादिधावनजलं वा । (३) तन्दुलोदकम् तन्दुलधावनजलम् । (४) तिलोदकम्-तिलधावनजलम् । (७) तुपोदकम् ब्रीहिधावनजलम् । (६) यवोदकम् यवधान्यक्षालनजलम् । (७) आचामकम् अवश्रामणजलं 'औसामण' इति भाषाप्रसिद्धम् । (८) सौंवीरम्= आरनालं, तक्रपात्रधावनजलं, तक्रोपरिष्ठानिस्तारितजलं वा 'ऑछ' इति भाषायाम् । (९) आम्रफलादिधावनजलम् । (१०) आम्रातकपानकम्-आम्रातकधावनजलम् । आम्रातकमिति 'अम्बाडी' इति भापापसिद्धम् । (११) कपित्थपानकम्= कपित्थं= कविठ' इति भपायां, तस्य धावनजलम् । (१२) मातुलिङ्गम् 'विजोरा' इस प्रकार का अचित्त जल इसी सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में 'पानैषणा' प्रकरण में इक्कीस प्रकार का भगवान् ने साधुओं के लिए ग्राह्य कहा है । वह इस प्रकारः (१) उत्सेद्य-आटेका मिला हुवा पीठर (कथोटी) आदिको धोवन । (२) संस्वेद्य (संसेकिम) उकाले हुए तिलोका घोवन या उकाले हुए पत्तों के शाक का धोवन । (३) चावलों का घोवन, (४) तिलों का धोवन, (५) धान्यका धोवन, (६) जौ का घोवन (७) ओसामण, (८) आरनाल, छाछ के वर्तनो का धोवन, अथवा छाछ के उपर का नितारा पानी जिसे 'आंछ' भी कहते है। (९) आम आदि फलों का धोवन (१०) अम्बाडी का धोवन (११) कविठ (कैथ) का धोवन (१२) विजौरे का धोवन (१३) दाख का धोवन (१४) दाडिम (अनार) આવા પ્રકારનું અચિત્ત જલ આ સૂત્રના બીજા શ્રુતસ્કંધના પાનૈષણા–પ્રકરણમાં એકવીશ પ્રકારનું ભગવાને સાધુઓ માટે ગ્રાહ્ય કહ્યું છે, તે આ પ્રમાણે છે – (१) स्वध-वोट भणे, थरीट माहितु घेवाण. (૨) સંવેદ્ય–ઉકાળેલા તલનું ધાવણ, અથવા ઉકાળેલા પત્તાવાળાં શાકનું વર્ણ, (3) योभानुं धावा. (४) सन धावणु. (५) धान्यनु धौqy. (६) पर्नु छापा. (७) सामान. (८) मारनास-छासना वासानु घोवा, मथवा छासनी ५२ નીતરેલ પાણ. જેને “આઇ” પણ કહે છે. (e) आमा-PAIH. मागेानु घोपर (१०) माडीj घाव (११) talk धावा (१२) निलेश धौपा. (१३) द्राक्ष धावा. (१४) उमनु घोषY (१५) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ३ सु. ११ जलप्रकरणम् ५२९ इति भाषायां, तस्य पानकं = धावनजलम् । (१३) द्राक्षापानकम् = द्राक्षाधावनजलम् । (१४) दाडिमपानकम् = दाडिमधावन जलम् । (१५) खर्जूरपानकम् = खर्जूरधावन - जलम् । (१६) नालिकेलपानकम् = नालिकेलधावनजलम् । (१७) करीरपानकम् = करीरधावनजलम् । (१८) कोलपानकम् = बदरधावनजलम् । (१९) आमलकपानकम्आमलकधावनजलम् । (२०) चिञ्चपानकम् = चिश्चा-अम्लिका' इमली' इति भाषायां, तस्याः पानकं = धावनजलम् । (२१) शुद्धविकृतम् = अग्न्युत्कालितमुष्णं जलं च । st शेपद्वाराणि पृथिविकायवद विज्ञेयानि । ये तु शाक्यादयः सचित्तापकायोपभोगिनः सन्ति तेषु शाक्यादयः स्वोपभोगार्थम् ' आपो जीवा न सन्ति ' इति प्रतिपादयन्ति, दण्डिनस्तु जलं सचितं मन्यमाना अपि मोहप्रमादवशतः स्वार्थमुत्कालयन्ति, परमुपदिशन्ति, च, यथा त्रिदण्डमुत्कालनीयं जलम् इत्युपदिश्याप्कायसमारम्भं कारयन्तो न केवलमप्कायं विहिंसन्ति, किन्तु तदाश्रितानन्यानपि द्वीन्द्रियान् विराधयन्ति । का धोवन (१५) खजूर का घोवन (१६) नारियल का धोवन (१७) कैर का घोवन (१८) बेर का घोवन (१९) आँवले का घोवन (२०) इमली का घोवन (२१) अग्नि से उकाला हुआ गर्म जल । कि - जल तीन जो शाक्य आदि सचित्त अप्काय का सेवन करते है, उन में से शाक्य आदि अपने उपभोग के लिए 'जल सचित नहीं है ' इस प्रकार की प्ररूपणा करते है । दण्डी लोक जल को सचित्त मान कर के भी मोह और प्रमाद के वश हो कर अपने लिए पानी गरम करवाते है ओर दूसरों को उकालने का उपदेश देते है दण्ड, उकालना चाहिए । अर्थात् तीन उकालेका पानी इस प्रकार उपदेश देकर अप्काय का समारम्भ करते हुए न केवल अपूकाय की हिंसा करते है अपितु जल में रहने वाले द्वीन्द्रिय आदि की भी विराधना करत है । धोवाणु, (१६) नारीभेसनु घीवाणु (१७) ङेरनु घोवा (१८) मोरानु घोव. (१८) यांगजानुं धोषण (२०) सांमतीनु घोव. (२१) अग्निथी उठानेतुं गरम ४. होना चाहिये જે શાકય આદિ સચિત્તઅપ્રકાયનુ સેવન કરે છે. તેમાંથી શાય આદિ પેાતાના ઉપલેાગ માટે ‘જલ સચિત્ત નથી’ એ પ્રકારની પ્રરૂપણા કરે છે. દંડી જાને સચિત્ત માનીને પણ માહ અને પ્રમાદ વશ થઈ. પેાતાના માટે પાણી ગરમ કરાવે છે, અને બીજાને પાણી ગરમ કરવાના ઉપદેશ આપે છે કે-જલ ત્રણ ઈંડ–ઉકાળા આપીને ઉકાળવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપીને અપ્રકાયને સમારભ કરતા થકા કેવળ અપકાયનીજ હિંસા કરે છે, એટલુંજ નહી પરન્તુ જલમાં રહેવાવાળા દ્વીન્દ્રિય આદિની પણ વિરાધના કરે છે. प्र. आ.-६७ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० आचारागसूत्रे दृश्यन्ते च तीर्थादिषु अधःकर्मादिदोपदूषितभक्तपानादिग्रहणेनाप्कायादिमहासमारम्भ कुर्वाणाः । न च ते स्वात्मानं भवसागरात्तारयितुं समर्था भवन्ति, उक्तञ्च-भगवतोतराध्ययनसूत्रे-(अध्य. २०) “चिरंपि से मुंडई भवित्ता, अथिरव्चए तवनियमेहिं भट्टे । चिरंपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए " ॥ मू० ११ ॥ न केवलं ते हिंसादोपभागिनः, अपि त्वन्यदोषभागिनोऽपि सन्ति, तदेव भगवानाह-'अदुवा.' इत्यादि । मूलम्अदुवा अदिन्नादाणं ।। मू० १२ ॥ छायाअथवा अदत्तादानम् ।। सू० १२॥ तीर्थ आदि पर आधाकर्म आदि दोषों से दूषित आहारपानी ग्रहणकरके अप्कायका महारंभ करते हुए देखे जाते है । वे अपने आत्मा को भवसागर से तारने में समर्थ नहीं हैं । भगवान् ने उत्तराध्ययनसूत्र (अध्ययन २०) में कहा है " जो पुरुष अस्थिर व्रत वाला है और तप तथा नियमों से भ्रष्ट है वह चिरकाल तक अपने आत्मा को क्लेश पहुँचाने पर भी संपराय (संसार से ) पार नहीं हो चकता" (उत्त, अ. २०) ॥ सू० ११ ॥ सचित्त जल का आरंभ करने वाले अकेली हिंसा के ही भागी नहीं है, किन्तु अन्य दोपों के भागी भी हैं । यही बात भगवान् कहते है:-'अदुवा.' इत्यादि । मूलार्थ-अथवा अदत्तादान का दोष लगता है । मू० १२ ॥ તીર્થ આદિ પર આધાકર્મ આદિ દોષોથી દૂષિત આહાર-પાણી ગ્રહણ કરીને અપકાયને મહારંભ કરતા હોય એમ જોવામાં આવે છે. તે પિતાના આત્માને ભવસાગરથી तारपामा समर्थ नथी लपाने-उत्तराध्ययन सूत्रमा (मध्ययन २०५i) ४बुछ है: જે પુરુષ અસ્થિર વ્રતવાળા છે અને તપ તથા નિયમથી ભ્રષ્ટ છે, તે લાંબા સમય સુધી પિતાના આત્માને લેશ પહોંચાડવા ઉપરાંત પણ સંસારથી પાર થઈ शता नथी.” (उत्त२१० २५. २०) (सू. ११) સચિત્ત જલને આરંભ કરવાવાળા એકલી હિંસાનાજ ભાગી નથી પરંતુ અન્ય हयाना ५ मा छे. ते पात समपान ४९ छे-'अदुवा.' त्याहि. भुता-अया महत्ताहाननी होप लागे छे. (सू. १२) Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ३ सु. १३ अष्कायविराधनादोषः ५३१ टीका 1 ' अथवा ' - शब्दः कथितस्यार्थस्य प्रकारान्तरेण स्पष्टीकरणे वर्त्तते । येऽष्कायारम्भिणस्तेषामदत्तादानदोषापत्तिरपि । यतोऽकाय जीवैस्तेभ्यो नार्पितानि स्वशरीराण्युपमर्दयितुं, ते च तानि वाङ्मनः काययोगैः कृतकारितानुमोदितैरुपमर्दयन्ति तत - श्राकायारम्भिणामदत्तादानदोषोऽप्यनिवार्यो भवति, तस्मान्मुमुक्षुभिः सर्वथाऽकायारम्भो वर्जनीयः, इति भगवता साक्षात्मोक्तम् ॥ सू० १२ ॥ सचित्तजलोपभोगिनो हि पृष्टाः सन्तो यद् वदन्ति तदाह यद्वा-अष्कायारम्भं स्वयं परिहर्तुमक्षमाः शाक्यादयो यद्वदन्ति तदाह'कप्पइ . ' इत्यादि । टीकार्थ- पहले कही हुई बात का दूसरी तरह से स्पष्टीकरण करने के लिये ' अथवा ' शब्द है । जो अप्काय का आरंभ करते हैं उन्हें अदत्तादान का दोष भी लगता है । कारण यह है कि - अप्काय के जीवों ने अपने शरीर उपमर्दन करने के लिए उन्हें सौंपे नहीं हैं, फिर भी वे लोग मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से उनका उपमर्दन करते हैं. अतः अप्काय का आरंभ करने वालों को अदत्तादान का दोष अनिवार्य है । अतः मुमुक्षु पुरुषों को अप्काय का आरंभ त्यागना चाहिए ! ऐसा भगवान् ने साक्षात् कहा है ॥ सू० १२ ॥ 1 सचित्त जलका उपयोग करनेवाले पूछनेपर जो उत्तर देते है सो कहते है - अथवा जो लोग अपूकाय के आरंभ को त्यागने में असमर्थ है उनका कथन बतलाते हैं:'कप्पड़ णे,' इत्यादि । ટીકા——પ્રથમ કહેલી વાતને ખીજી રીતથી સ્પષ્ટીકરણ કરવાના અમાં અથવા' શબ્દ છે. જે અખાયના આરંભ કરે છે, તેને અદત્તાદાનના દોષ પણ લાગે છે, કારણ એ છે કે—અકાયના જીવે એ પેાતાનું શરીર ઉપમન કરવા માટે તેને સેવ્યું નથી, તેા પણ તે લેાકા મન, વચન અને કાયાથી અને કરવું, કરાવવું તથા અનુમેદવું તે વડે કરી ઉપમન કરે છે, તે કારણથી અપ્કાયના આરંભ કરવાવાળાને અદ્યત્તા દાનના દોષ પણ અનિવાર્ય (ટાળી ન શકાય તેવા) છે. એ માટે મુમુક્ષુ પુરૂષાએ અખાયના આરંભ ત્યાગી દેવા જોઇએ. એ પ્રમાણે ભગવાને સાક્ષાત્ કહ્યુ` છે. (સૂ. ૧૨) 6 સચિત્ત જલના ઉપયેગ કરવાવાળાને પૂછતાં જે ઉત્તર આપે છે-તે કહે છે, અથવા જે લેાક ખાયના આરભને ત્યજવામાંઅસમર્થ છે. તેમનુ કહેવું-કથન बताये छे-' कप्पइ णे.' हत्याहि Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ आचारागसूत्रे मूलम्कप्पइ णे कप्पइ णे पाउं अदुवा विभूसाए ॥ सू० १३ ॥ छायाकल्पतेऽस्माकं कल्पतेऽस्माकं पातुं, अथवा विभूषायै ॥ मू० १३ ॥ टीका'कल्पतेऽस्माक'-मिति । न वयं स्वेच्छयोदकमुपमर्दयामः किन्त्वस्माकमागमे निर्जीवत्वेन प्रविबोधितत्वादनिपिद्धत्वाच पातुं कल्पते । 'कल्पतेऽस्माकम् ' इत्यस्य द्विरुचारणेन पुनःपुनरनेकप्रयोजनवशाद् बहुविध उपभोगोऽस्माकं कल्पते, इति बोध्यते । तथाहि-- भस्मस्नायिनो वदन्ति-अस्माकं पातुमेव कल्पने न तु स्नातुमिति । शाक्यादयस्त्वेवं जल्पन्ति-स्नान-पानादि सर्व कल्पते जलेनेति । मूलार्थ-हमें कल्पता है, हमें कल्पता है, (जल) पीने और विभूषा करने–हाथ पैर आदि धोने, नहाने के लिए ॥ सू. १३ ॥ टीकार्थ-हम स्वेच्छा से जल की विराधना नहीं करते, वरन हमारे आगम में जल को अचित्त बतलाया है और पीने का निषेध नहीं किया है, अतः हमें पीना कल्पता है । 'हमें कल्पता है यह दो बार कहने से यह सूचित किया गया है कि-प्रयोजन के वश नाना प्रकार का उपभोग करना हमें कल्पता है । जैसे ___भस्म से स्नानकरनेवाले कहते है-हमें पीना हो कल्पता है, स्नानकरना नहीं कल्पता । शाक्य आदि का कहना है कि हमें पीना और स्नानकरना-सभी कुछ कल्पता है! भूसाथ:-मभने ४८ छ, मभने ४८ छे, (ara) पीवान भने विभूषाहाय ५ माघौवा, नहावा भाटे (सू. १३) ટીકાથ—અમે સ્વેચ્છાથી જલની વિરાધના કરતા નથી. પરંતુ અમારા આગમમાં જવને અચિત્ત બતાવ્યું છે, અને પીવાને નિષેધ કર્યો નથી. તેથી અમારે પીવું કપે છે. “અમારે કપે છે. આ બે વાર કહેવાથી એ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે –પ્રજનવશ નાના પ્રકારને ઉપભેગ કરવાનુ અમને કપે છે. જેમ કે ભસ્મથી સ્નાન કરવાવાળા કહે છે–અમારે પીવું કપે છે, સ્નાન કરવું ४६५तुं नथी. શાકય આદિનું કહેવું છે કે-અમારે પીવું અને ખાન, સર્વે કાંઈ કલ્પ છે. Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य०१ उ. ३ सु. १३-१४ अप्कायोपभोगवादिमतम् ५३३ ते पुनरेवं वदन्ति - अथवा विभूषायै-शोभार्थं कल्पतेऽस्माकमुदकमिति । विभूपा नाम - करचरणमुखादिप्रक्षालनादिका, वस्त्रादिप्रक्षालनरुपा वा, तदर्थं जलेन व्यवहरतामस्माकं नास्ति कोऽपि दोषलेश इति ।। सू० १३ ॥ पुनः किं कुर्वन्ति ते ? इत्याह- ' पुढो सत्थेहिं, ' इत्यादि मूलम् -- पुढो सत्थे विति ॥ मु० १४ ॥ छाया- पृथक शस्त्रैवर्त्तयन्ति ( विकुङ्कंति वा ) ॥ सू० १४ ॥ ॥ टीका ॥ आत्मानमनगारं प्रवदमाना शाक्यादयः पृथक = भिन्नभिन्नस्वरूपैः शखैः= स्नान पानधावनोत्सेचनादिभिरष्का यजीवान् व्यावर्त्तयन्ति प्राणेभ्यो व्यपरोपयन्ति । यद्वा विकुन्ती ' - तिच्छाया तेन विकुहन्ति विशेषेण छिन्दन्ति, सर्वथा भावेन विराधयन्तीत्यर्थः । सू० १४ ॥ उनका यह भी कहना है कि - विभूषा - शोभा के लिए भी जल का उपभोग हमें कल्पता है । हाथ, पैर, मुख, आदि घोना और वस्त्र आदि धोना विभूषा है । इस के लिए जलका व्यवहारकरने में हमें जरा भी दोष नहीं लगता ॥ सू० १३ ॥ वे और क्या करते है, सो करते है : - 'पुढो,' इत्यादि । मूलार्थ--भिन्न–भिन्न शस्त्रों से जलकाय की हिंसा करते है || सू० १४ ॥ टीकार्थ -- -- अपन को अनगार कहते हुए शाक्य वगैरह भिन्न–भिन्न प्रकार के शस्त्रों स्नान, पान, धोना, सीचना आदि कार्य कर के अप्काय की हिंसा करते है । अथवा पूर्णरुप से उस की विराधना करते है || सू० १४ ॥ તેમનુ એ પણ કહેવું છે કે વિભૂષા—શાભા માટે પણ જલના ઉપભાગ અમારે કલ્પે છે. હાથ પગ, મુખ આદિને ધાવાં અને વસ્ત્ર આદિ ધાવાં તે વિભૂષા કહેવાય છે. એ માટે જલના વ્યવહાર કરવામાં અમને જરાપણ દોષ લાગતા નથી. (સૂ. ૧૩) तेज शुरे छे, ते उडे छे 'पुढो.' इत्यादि. મૂલા-જૂદા જૂદા શસ્ત્રાથી જલકાયની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૧૪) ટીકા—પોતાને અણુગાર કહેનારા શાકય વગેરે ભિન્ન-ભિન્ન પ્રકારના શસ્ત્રોથી સ્નાન, પાન, ધેાવું, સીચવું આદિ કાય કરીને અાયની હિંસા કરે છે, અથવા પૂર્ણ રૂપથી તેની વિરાધના કરે છે. (સૂ. ૧૪) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे साम्प्रतमेपां युक्त्यागमयोनिस्सारत्वं प्रदर्शयन्नाह-एत्थवि.' इत्यादि। ॥ मूलम् ॥ एत्थ वि तेसिं नो निकरणाए ॥ मू० १५ ॥ ॥छाया॥ अत्रापि तेषां नो निकरणायै । सू० १५ ॥ ॥ टीका ॥ तेषां शक्यादीनां युक्तयः अत्र अस्मिन्नष्कायारम्भविषये नो नैव निकरणायैनिश्चयकरणाय समर्थाः सन्ति । अपिशब्देन तेषामागमोऽपि न निश्चेतुं समर्थों भवति । आगमत्वपि तत्र न संभवति, अनाप्तप्रणीतत्वात, हिंसाविधायकत्वाच्च । यतो हि स एवागमशब्दवाच्यः यः खलु वीतरागप्रणीतः सर्वप्राणिहितकरो भवति ।। मू० १५ ॥ उन का कथन युक्ति और आगम से सारहीन है, यह बतलाते हुए कहते है'एत्थवि.' इत्यादि। मूलार्थ--उन लोगों को युक्तिया अप्काय के विषय में निश्चय नहीं कर सकती ।। सू० १५॥ टीकार्थ--उन शाक्य आदि की युक्तिया अकाय के आरंभ के विषय में, निश्चय करने में समर्थ नहीं है । 'वि' अपि शब्द से यह सूचित किया है कि उनका . आगम भी निश्चय करने में समर्थ नहीं है । उनका आगम, आगम भी नहीं है, क्यों कि वह आप्तपुरुपद्वारा प्रणीत नहीं है और हिंसा का विधान करनेवाला है । आगम वही कहला सकता है जो वीतरागद्वारा प्रणीत हो और प्राणीमात्र का हितकारी हो । सू० १५ ॥ તેમનું કથન-કહેવું-યુક્તિ અને આરામથી સારહીન છે. એ બતાવીને કહે છે'एत्यवि, 'त्यादि મુલાર્થતે લોકેની યુક્તિઓ અષ્કાયના વિષયમાં નિશ્ચય કરી શકતી નથી.(સૂ. ૧૫) ટીકાથ–તે શાકય આદિની યુક્તિઓ અષ્કાયના આરંભના વિષયમાં નિશ્ચય કરવામાં સમર્થ નથી. “વિ અપિ શબ્દથી એ સૂચિત કર્યું છે કે તેમનું આગમ પણ નિશ્ચય કરવામાં સમર્થ નથી. તેમનુ આગમ તે આગમ પણ નથી. કેમકે તે આપ્ત પુરૂ દ્વારા પ્રણત નથી. અને હિંસાનું નિધાન કરવાવાળાં છે. આગમ તે કહેવાય છે કે જે વીતરાગદ્વારા પ્રણીત હોય અને પ્રાણીમાત્રનું હિતકારી હોય. (સૂ. ૧૫) Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार चिन्तामणि- टीका अध्य. १उ. ३. १५-१६ अप्कयोपभोगवादिमतखण्डनम् ५३५ तदेवमपां जीवत्वं प्रतिबोध्य अस्य उद्देशस्य सकलार्थमुपसंहरन्नाह - ' एत्थ सत्थं. ' इत्यादि । मूलम् -- एत्थ सस्यं समारभमाणस्य इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति । तं परिण्णाय मेहावी पणेव सयं उदयसस्थं समारंभेज्जा, वन्नेहिं उदयसत्थं समारंभावेज्जा, उदयसत्थं समारंभतेऽवि अण्णे न समणुजाणेज्जा । जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ॥ सू० १६ ॥ तइओ उद्देशो समत्तो ॥ ३ ॥ छाया अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमुदकखं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भयेत्, उदकशस्त्र इस प्रकार जल को जीव बतलाकर इस उद्देशक के समस्त कथन का उपसंहार करते है- 'एत्थ सत्थं.' इत्यादि । मूलार्थ - - अपूकाय में शस्त्र का आरंभ करने वाले को ये आरंभ ज्ञात नहीं होते । अपूकाय में शस्त्र का आरंभ न करने वालो को ये आरंभ ज्ञात होते है । उन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं जल का आरंभ न करे, दूसरों से आरंभ न करावे और आरंभ करने वाले दूसरे को भला न जाने । जो जलकाय के इस आरंभ को जानता है वही परिज्ञातकर्मा मुनि है । भगवान् से मैंने जो सुना वह कहता हूँ || सू० १६ ॥ આ પમાણે જલને જીવ બતાવીને આ ઉદ્દેશકનાં સમસ્ત કથનના ઉપસંહાર ३२ छे–' एत्थ. ' इत्याहि. , મૂલા—અકાયમાં શસ્ત્રના આરંભ કરવાવાળાને આરંભ જાણવામાં આવતા નથી. અષ્ટાયમાં શસ્ત્રના આરંભ નહિ કરવાવાળાને એ આરંભ જાણવામાં આવે છે. તેને જાણી કરીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ સ્વયં જલન આરંભ કરે નહિ. ખીજા પાસે આરંભ કરાવે નહિ. અને આરંભ કરવાવાળા ખીજાને ભલે જાણે નહિ. જે જલકાયને આ પ્રમાણે આરંભ જાણે છે. તે પરિજ્ઞાતકર્મા મુનિ છે, ભગવાન પાસેથી જે સાંભળ્યુ તે કહું છું. (સૂ. ૧૬) Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारङ्गसूत्रे समारभमाणानन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति त्रवीमि ॥ सू० १६ ॥ | तृतीय उद्देशः समाप्तः ॥ ३ ॥ ५३६ टीका- अत्र = अस्मिन्नप्काये शस्त्रं द्रव्यभावरूपं समारभमाणस्य=व्यापारयतः इत्येते आरम्भाः वन्धहेतुत्वेनापरिज्ञाता भवन्ति । अत्र = अस्मिन्नप्काये शस्त्रं द्रव्यभावरूपम् असमारभमाणस्य = अव्यापारयतः इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाताः, तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्ता भवन्तीत्यर्थः । परिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा समुद्भवति दर्शयति- ' तत् परिज्ञाये - त्यादि । तद् = उद्कारम्भणं परिज्ञाय = 'वन्धाय भवती ' - त्येवमवबुध्य मेधावी = साधुमर्यादायां सावधानः, नैव मुदकशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरुदकशस्त्रं समारम्भ टीकार्थ - - इस अकाय के विषय में द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का व्यापार करने वाला अपने व्यपारों को कर्मबंध का कारण नहीं जानता । को अप्काय के विषय में द्रव्य और भाव रूप शस्त्र का उपयोग नहीं करते, उन्हे इस व्यापारों का ज्ञान होता है । अर्थात् वे ज्ञ्पग्ज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देते है । ज्ञपरिज्ञा के बाद प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार उत्पन्न होती है सों कहते है -जल के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर साधु की मर्यादा में रहने वाले बुद्धिमान् स्वयं जलकाय का आरंभ नहीं करे, दूसरों से आरंभ नहीं करावे और जलका आरंभ करने ટીકા—આ અપ્કાયના વિષયમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શસ્ત્રના વ્યાપાર કરવીવાળા પોતાના વ્યાપારીને કમબંધનું કારણ જાણતા નથી. જે અપ્કાયના વિષયમાં દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ શસ્રના ઉપયાગ કરતા નથી, તેને એ વ્યાપારાનું જ્ઞાન હાય છે. અર્થાત્ તે નપરિજ્ઞાથી જાણીને પ્રત્યાખ્યાનપરિનાથી તેને ત્યાગ કરી દે છે. રૂપરિના પછી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા કેવા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે, તે કહે છેજલના આરંભને કબંધનું કારણ જાણી કરીને સાધુની મર્યાદામાં રહેવાવાળા બુદ્ધિમાન સ્વયં જલકાયને આરંભ કરે નહિ, ખીજા પાસે કરાવે નહિ, અને જલને આર્ભ કરવાવાળાને Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ ३.३ मू. १६ उपसंहारः येत् , उदकशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् अपि न समनुजानीयात् नानुमोदयेदित्यर्थः। यस्यैते उदकशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा मुनिर्भवति, इति ब्रवीमि, एतद्वयाख्यानं प्राग्वद् बोध्यम् ॥ सू० १६ ॥ इत्याचाराङ्गसूत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशः समाप्तः ॥ १।३॥ वाले दूसरों का अनुमोदन नहीं करे । जो उदकशस्त्र के आरंभ को जानता है वह परिज्ञातकर्मा मुनि है । 'इति बेमि' का अर्थ पहले की तरह जानना चाहिए ॥ सू० १६॥ इति श्री आचाराङ्ग सूत्र की 'आचारचिन्तामणि' टीका के हिन्दी अनुवाद में प्रथम अध्ययनका तीसरा उद्देशक समाप्त ॥१-३॥ અનુમોદન આપે નહિ. જે ઉદકશાસ્ત્રના આરંભને જાણે છે, તે પરિશ્નાતકર્મા મુનિ છે. 'इति बेमि' ने पथ पडेस-i प्रमाणे any न . (सू० १६) छति श्री सायासंग सूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' ना ગુજરાતી અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનને त्री देश सभापत. ॥१३॥ प्र. भा.-६८ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - आचारागसूत्रे अथ चतुर्थीदृशः। अनन्तरतृतीयोदेशके मुनित्वप्राप्तयेऽप्कायस्य स्वरूपं निर्णीतं, तदर्थमेवाप्कायशम्बसमारम्भे ज्ञ-प्रत्याख्यान-भेदाद् द्विविधा परिज्ञाऽपि प्रवेदिता । अथैवर्थमेव च क्रममाप्तमग्निकार्य प्रतिवोधयितुकामश्चतुर्थमुद्देशकं प्रारभते । तत्रादौ 'तेजस्काया जीवाः सन्ती'ति निर्धारयितुमाचं मूत्रमाह-से वेमि' इत्यादि। मृलमसे वेमि नेव सयं लोयं अन्भाइक्खेजा, नेव अत्ताणं अन्भाइक्खेजा, जे लोयं अन्माइक्वड, से अत्ताणं अन्भाइक्खइ । जे अत्ताणं अन्भाइक्खइ, से लोयं अन्भाइक्खड़ ॥ मू०१॥ चौथा उद्देशकपिछले तीसरे उद्देशक में साधुता की प्राप्ति के लिए अप्काय के स्वरूप का निर्णय किया, और अप्कायशस्त्र का उपयोग करने में ज्ञपरिक्षा तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा भी वतलाई । अब उसी साधुता की प्राप्ति के लिए क्रमप्राप्त अग्निकाय का स्वरूप समझाते हुए चौथा उद्देशक आरंभ करते हैं। सर्वप्रथम तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व निश्चित करने के लिए सूत्र कहते हैं-'से वेमि' इत्यादि । मृलार्थ--भगवान् के समीप जैसा सुना है वैसा कहता हू । स्वयं अनिकायल्प लोक का अपलाप न करे । न आत्माका अपलाप करे । जो अग्निकाय का अपलाप करता है वह आत्मा का अपलाप करता है, जो आत्मा का अपलाप करता है वह अग्निकाय का अपलाप करता है । सू० १ ॥ यो देश:પાછળના ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે અપ્લાયને નિર્ણય કર્યો અને અપ્લાય અને ઉપયોગ કરવામાં પરિજ્ઞા તથા પ્રત્યાખ્યાનપરિક્ષા પણ બતાવી. હવે તે સાધુતાની પ્રાપ્તિ માટે ક્રમ પ્રાપ્ત અનિકાયનું સ્વરૂપ સમજાવતા થકા-ચોથા ઉદ્દેશકને આરંભ કરે છે. સર્વ પ્રથમ તેજસ્કાયના જીવોનું અસ્તિત્વ નિશ્ચય કરવા भाटे सूत्र हे 2-' से बेमि' त्याहि. મૂલાથ–ભગવાનની સમીપ જેવું સાંભળ્યું છે, તેવું કહું છું. સ્વયં અગ્નિકાય ૫ લોકને અ૫લાપ કરે નહિ અને આત્માને અ૫લાપ પણ કરે નહિ. જે અગ્નિકાયને અ૫લાપ કરે છે, તે આત્માને અપલાય કરે છે. જે આત્માને અપલાપ કરે છે તે અનિકાયને અપલાપ કરે છે, ( ૧) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सु. १ उपक्रमः छाया--- , , स ब्रवीमि नैव स्वयं लोकमभ्याख्यायात् नैवात्मानमभ्याख्यायात् । यो लोकमभ्याख्याति, स आत्मानमभ्याख्याति । य आत्मानमभ्याख्याति, स लोकमभ्याख्याति ॥ सू० १ ॥ ५३९ टीका येन मया नित्यं गुरुकुलनिवासिना भगवतः समीपे षड्जीवनिकायस्वरूपं निरवशेषविशेषपुरस्सरं श्रवणमननादिना परिज्ञाविषयीकृत्य निर्णीतं, सोऽहं ब्रवीमि श्रुतं यथा भगवन्मुखात्, तथा कथयामीत्यर्थः । लोकम् = अग्निकायलोकम् प्रकरणसम्वन्धादिह लोकशब्देनाग्निकायलोकस्य ग्रहणम् । स्वयम् = आत्मना, नैव अभ्याख्यायात् = नैवापह्नुवीत । 'अग्निकायजीवा न सन्तीत्येवमग्निकायजीवस्यापलापं नैव कुर्यादित्यर्थः । स्वयमित्यनेनाग्निकायजीवापलपनकर्मणा स्वमात्मानं नैव बभीयादित्यर्थो बोध्यते । टीकार्थ----गुरुकुल में निवास करते हुए मैंने समस्त विशेषो से युक्त जो स्वरूप श्रवण मनन आदि से किया है, उसे मैं कहता हूँ । अर्थात् जैसा भगवान् के कहता हूँ । भगवान के मुख से घट्काय का परिज्ञा का विषय कर के निर्णीत मुखारविन्द से सुना है वैसा ही अग्निकाय का प्रकरण होने के कारण यहाँ 'लोक' क' अर्थ अग्निकायरूप लोक समझना चाहिए । इस अग्निकाय का स्वयं अपलाप न करे अर्थात् यह न कहे कि -अग्निकाय के जीव नहीं है । स्वयं शब्द से यह अर्थ प्रकट होता है कि अग्निकाय के अपलापरूप कर्म से अपने आप को बद्ध न करे । ટીકા—ગુરુકુલમાં નિવાસ કરીને મે' ભગવાનના મુખથી ષટ્કાયના સમસ્ત વિશેપોથી યુકત જે સ્વરૂપને શ્રવણ-મનન આદિથી પરિજ્ઞાનેા વિષય કરીને નિીત કર્યું તે હું કહું છું. અર્થાત્ જે પ્રમાણે ભગવાનના મુખારવિંદથી સાંભળ્યુ છે. તેવુંજ હું કહું છું. અગ્નિકાયનું' પ્રકરણ હાવાના કારણે હું જોઇ ના અથ અગ્નિકાયરૂપ લેાક સમજવા જોઈ એ. આ અગ્નિકાયના સ્વયંપલાપ કરે નહિ. અર્થાત્ એ પ્રમાણે કહે નહિ કે–અગ્નિકાયના જીવ નથી ‘સ્વય' શબ્દથી એ અથ પ્રગટ થાય છે કે અગ્નિકાયના અપલાપરૂપ ૪માઁથી ાતે પેાતાને ખદ્ધ કરે નહિ. Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० आचारागसूत्रे अयं भावः-कृतकारितानुमोदितभेदेन, मनोवाक्कायभेदेन, तथाऽतीतानागतवर्तमानभेदेन च प्रत्येकक्रियायाः सप्तविंशतिभेदा भवन्ति; एवमस्या अपि तेजस्कायजीवाभ्याख्यानरूपक्रियाया एकस्या एव सप्तविंशतिभेदा भवितुमर्हन्ति । तत्र कस्याञ्चिदपि क्रियायां स्वात्मानं न नियुज्यादिति । उपपद्यतेऽप्ययमर्थः, अन्यथा हि स्वयंकृतस्यैवाभ्याख्यानस्य प्रतिषेधे कारितानुमोदितरूपाणां तेजस्कायजीवाभ्याख्यानरूपक्रियाणां प्रतिषेधाभावः प्रसज्येत । ततश्च तादृशाभ्याख्यानं पापाय न स्यात् । तथाचोत्सूत्रप्ररूपणापत्तिः । ____ तात्पर्य यह है-प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन काय, और अतीत, अनागत, वर्तमान के भेद से (इनका परस्पर गुणाकार करने से ) सत्ताईस भेद होते है । इसीप्रकार इस तेजस्काय का अपलापरूप क्रिया के भी सत्ताईस भेद हो सकते हैं । इन भेदों से किसी भी भेद में आत्मा को जोडना न चाहिए। अगर ऐसा अर्थ न लगाया जाता तो यह भी समझ लिया जाता कि अग्निकाय का स्वयं अपलाप न करे, मगर अपलाप कराने और अनुमोदन करने की क्रियाओ का निषेध नहीं है । ऐसा अर्थ संगत नहीं है, क्यों कि ऐसा अर्थ करने से केवल स्वयंकृत अपलापका ही प्रतिमेघ होगा, किन्तु कारित और अनुमोदित अपलायका प्रतिपेध नहीं होगा और इस प्रकार का अपलाप पाप का कारण न होगा । फिर तो सूत्र के विरुद्ध प्ररूपणा का दोष आएगा। તાત્પર્ય એ છે–પ્રત્યેક ક્રિયાના કરવું–કરાવવું અને અનુમોદના, મન, વચન, કાયા અને ભૂતકાલ, ભવિષ્યકાલ તથા વર્તમાન કાલના ભેદથી (એને પરસ્પર ગુણાકાર કરવાથી) સત્યાવીસ ભેદ થાય છે. એ પ્રમાણે આ તેજસ્કાયના અપલાપરૂપ ક્ષિાના પણ સત્યાવીસ ભેદ થઈ શકે છે. એ બેમાંથી કઈ પણ ભેદમાં આત્માને જોડવો જોઈએ નહિ; પરન્તુ એ પ્રમાણે અર્થ કરવામાં ન આવે તે એ પણ સમજી લેવામાં આવત કે, અગ્નિકાયને સ્વયં અપલાપ કરે નહિ. પરન્તુ અપલાપ કરાવવાની અને અનુમોદન કરવાની ક્રિયાઓને નિષેધ નથી. આ પ્રકારને અર્થ સંગત નથી, કેમકે-આવો અર્થ કરવાથી કેવળ સ્વયંકૃત અપલાપને જ નિષેધ થશે. કિન્તુ કારિત અને અનુમોદિત અપાપને નિષેધ થશે નહિ, અને એ પ્રકારને અ૫લાપ પાપનું કારણું ન થાય, પછી તે સૂવના વિરુદ્ધ પ્રપટ્ટાને દેવ આવશે, Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सू. १ अनिकायसिद्धिः लक्षणद्वारम् -- ननु तेजस्कायजीवाः सन्तीत्यत्र किं मानम् ? उच्यते-अङ्गारादयो जीवशरीराणि, छेद्यत्वाद्, दृश्यत्वाद्, करचरणादिसमुदायवत् । अङ्गारादीनां प्रकाशपरिणामः आत्मप्रयोगाविर्भूतः शरीरस्थत्वात्, खद्योतदेह परिणामवत् । यथा - रजन्यादौ विशिष्टकाले प्राणिविशेषस्य खद्योतस्य देहपरिणामो जीवप्रयोगविशेषाद् भवति, एवमङ्गारादीनामपि प्रकाशपरिणामः । यद्वा - अङ्गारादीनामूष्मा आत्मसंप्रयोगपूर्वकः, शरीरस्थत्वात्, ज्वरोष्मवत् । ५४१ P लक्षणद्वार शङ्का -- तेजस्काय के जीवो के अस्तित्व में क्या प्रमाण है 2 समाधान -- अंगार आदि, जीव के शरीर है, क्यों कि वह छेद्य है, भेय है और दृश्य हैं, जैसे हाथ-पैर आदि का समूह । अथवा — अंगार आदि की प्रकाशरूप क्यो कि वह शरीर में स्थित है, जैसे- जुगनू के खास समय में जुगनू नामका प्राणी का शरीर परिणाम होता है, उसी प्रकार अंगार आदि का प्रकाशरूप उत्पन्न होता है । अथवा ——अंगार आदि की गर्मी आत्मा के व्यापार से उत्पन्न होती है, क्यों कि वह शरीर में है, जैसे ज्वर की गर्मी ज्वर की गर्मी जीव से युक्त शरीर में ही उत्पन्न होती है, लक्षणद्वार पर्याय, आत्मा के प्रयोग से उत्पन्न हुई है; शरीर को पर्याय, जैसे रात्रि वगैरह ( चमकना ) जीव के प्रयोग से प्रकट परिणाम भी आत्मा के व्यापार से ही શકા—તેજસ્કાયના જીવાના અસ્તિત્વ (હાવાપા)માં શું પ્રમાણુ છે ? સમાધાન—અંગાર આદિ જીવનાં શરીર છે. કેમકે તે છેદ્ય છે, ભેદ્ય છે, અને दृश्य छे, नेभट्ठे हाथ, पण माहिनो समूह. અથવા—અંગાર આદિની પ્રકાશરૂપ પર્યાય આત્માના પ્રયાગથી ઉત્પન્ન થઈ छे; ३२णुडे ते शरीरभां स्थित छे. नेवी रीते - लुगनू ( आगियो नामना आशी ) ना શરીરની પર્યાય, જેમ રાત્રી વગેરે ખાસ સમયમાં જીંગન (આગીએ) નામક પ્રાણીના શરીર—પરિણામ (ચમકવું) જીવના પ્રયાગથી પ્રગટ થાય છે. તે પ્રમાણે અંગાર આદિના પ્રકાશરૂપ પરિણામ પણ આત્માના વ્યાપારથીજ ઉત્પન્ન થાય છે. અથવા—અંગાર આદિની ગરમી આત્માના વ્યાપારથી ઉત્પન્ન થાય છે. કારણકે તે શરીરમાં છે. જેમકે વર-તાવની ગરમી, જવર–તાવની ગરમી જીવથી યુક્ત શરીરમાંજ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४२ आचारागसूत्रे यथा-ज्वरोष्मा जीवाधिष्ठितशरीरमेवाश्रित्य भवति, जीवसंयोगं नातिक्रामति । न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते । एवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामग्नेः सचित्तता विज्ञेया। न च सूर्यादिभिरनेकान्तो वाच्यः, सर्वेपामात्मसंयोगपूर्वक एवोष्णपरिणामो भवति, तस्मादनेकान्तो न संभवति ।। __ यद्वा--तेजः सचेतनम् , यथायोग्याहारग्रहणेन वृद्धिविशेषतद्विकारवत्त्वात् , पुरुषवत् । एवमुक्तलक्षणेन तेजस्कायजीवाः सन्तीति विज्ञायते । यद्वा-अव्यक्तोपयोगादीनि कपायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिव्यप्. कायवत् तेजस्कायेऽपि समुपलभ्यन्ते । एवं च जीवलक्षणसद्भावात् तेजस्कायजीवाः सन्तीति निश्चीयते । आगमोऽपि यथाजीव के संयोग विना उत्पन्न नहीं होती। मुझे ज्वर कहीं नहीं देखा जाता । इस प्रकार अग्नि में अन्यय-व्यतिरेकद्वारा सचित्तता समझनी चाहिए । यह। सूर्य से हेतु में व्यभिचार नहीं है, क्यो कि सब में आत्मप्रयोगपूर्वक ही गर्मी हो सकती है, अतः व्यभिचार नहीं है। अथवा-तेज सचेतन है, क्यों कि यथायोग्य आहार ग्रहण करने से उस में वृद्धिरूप विकार देखा जाता है, जैसे पुरुष में । इस प्रकार इस लक्षण से तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व विदित होता है । अथवा अप्रकट उपयोग से लेकर कपायपर्यन्त जीव के लक्षण जैसे पृथ्वीकाय और अप्काय में पाये जाते हैं, उसी प्रकार तेजस्काय में भी पाये जाते हैं । इस प्रकार जीव के लक्षण पाये जाने के कारण तेजस्काय के जीवों का अस्तित्व निश्चित होता है। इसमें आगम प्रमाण भी है-- ઉત્પન્ન થાય છે. જીવના સાગ વિના ઉત્પન્ન થતી નથી. મુડદામાં જવર-તાવ કઈ સ્થળે જોવામાં આવતું નથી, આ પ્રમાણે અગ્નિમાં અન્વય-વ્યતિરેક દ્વારા સચિત્તતા સમજવી જોઈએ. અહિં સૂર્યથી હેતુમાં વ્યભિચાર નથી, કેમકે સર્વમાં આત્મપૂર્વકજ ગરમી હોઈ શકે છે, એટલા કારણથી વ્યભિચાર નથી. અથવા–તેજ સચેતન છે. કેમકે યથાક્ય આહાર ગ્રહણ કરવાથી તેનામાં વૃદ્વિરૂપ વિકાર જોવામાં આવે છે. જેવી રીતે પુષમાં. આ પ્રકારે જીવના લક્ષણ મળવાથી તે કાયના છાનું અસ્તિત્વ જણવામાં આવે છે. અધવા–અપ્રગટ ઉપગથી લઈને કષાયપર્યન જીવના લા લેવામાં આવે છે. તે કાર તેરકાયના જેનું અસ્તિત્વ નિશ્ચય હેય છે. આમાં આગમ પ્રમાણ પત્ર છે Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ मू. १ अग्निकायमरूपणा ५४३ " तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सस्थपरिणएणं" इत्यादि। ( दशवै० अ० ४) भरूपणाद्वारम्अग्निकायजीवा द्विविधाः, सूक्ष्मवादरभेदात् । तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्माः । बादरनामकर्मोदयाद् वादराः । तत्र सूक्ष्माः द्विधा, पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । सूक्ष्माः सर्वलोकव्यापिनः । बादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति । बादरा अग्निकाया अनेकविधाः-अङ्गाराचिरलातशुद्धाग्न्यादयः। सर्वे बादरा अग्निकाया अपि द्विविधाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । वादराणां यत्रैको जीवस्तत्रा ___ " तेजस्काय सचित्त कहा गया है । उस में अनेक जीव है, उनका अस्तित्व अलगअलग है, शस्त्रपरिणत अग्नि को छोड़ कर" इत्यादि । (दशवै० अध्य० ४) प्ररूपणाद्वारअग्निकाय के जीव दो प्रकार के हैं-(१) सूक्ष्म और बादर, जिनके सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो वे सूक्ष्म और जिनके बादर नामकर्म का उदय हो वे बादर जीव हैं। इनमें से सूक्ष्म के भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं और बादर लोक के एक देश में हैं । ___ बादर अनिकाय अनेक प्रकार के है । जैसे-अंगार, ज्वाला, अलात (जलता हुआ काष्ठ), शुद्ध अग्नि आदि । सब बादर अग्निकाय भी दो प्रकार के है-पर्याप्त _ “४२४य सचित्त ४ढं छे. तेभा भने ७१ छ, तेनु मस्तित्व Aan५५ छ, शवपरित पनि छोडीन." त्यादि (शवे, २१, ४) रूपवारमनायना प्रारना छ-(१) सूक्ष्म अने. (२) मा६२. २२ सूक्ष्म. નામકર્મને ઉદય હોય તે સૂક્ષ્મ અને જેને બાદર નામકર્મનો ઉદય હોય તે બાદરજીવ છે. તેમાંથી સૂકમના પણ બે ભેદ છે. પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત. સૂક્ષ્મ જીવ સમસ્ત કાકાશમાં વ્યાપ્ત છે. અને બાદર લોકના એક દેશમાં છે. બાદર અગ્નિકાય અનેક પ્રકારના છે. જેમકે–અંગાર, જવાલા, બળતું લાકડું, શુદ્ધ અનિ વગેરે. સર્વ બાદર અગ્નિકાચ પણ બે પ્રકારના છે–પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ सना सान्त । आचारागसूत्रे संख्येयैर्नियमतो भाव्यम् । बादराणां स्वस्थानं मनुष्यक्षेत्रमेव, न ततः परमस्ति । बादरास्तेजस्कायाः व्याघाताभावे सति मनुष्यक्षेत्रेऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्रेषु पञ्चदशक्षेत्रेषु विद्यन्ते । युगलसमयरूपे व्याघाते सति तु पश्चमहाविदेहेषु वर्तन्ते, नान्यत्र । उपपाताङ्गीकरणेन लोकसंख्येयभागवर्तिनः सन्ति । समुद्घातेन सर्वलोकवर्तिनः पृथिवीकायादयश्च मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहता वादराग्निषु समुत्पद्यमानास्तत्तद्वयपदेशभाजः सर्वलोकव्यापिनः सन्ति । यत्र च वादराः पर्याप्तास्त व बादरा अपर्याप्ताः, यतस्ते तन्निश्रयो. और अपर्याप्त । जहा एक बादर जीव होता है वहा नियम से असंख्यात जीव होते हैं। बादर जीवों का क्षेत्र मनुष्यलोक ही है; उससे आगे नहीं । वादर तेजस्काय व्याघात ( अन्तर) न हो तो मनुष्य क्षेत्र में अढाई द्वीप समुद्रों में पन्द्रह क्षेत्रों में रहते हैं । युगलियों के समयरूप व्याघात (अन्तर ) के होने पर पाच महाविदेहों में रहते हैं, अन्यत्र नहीं । उपघात की अपेक्षा लोक के संख्यात भाग में रहते हैं। समुद्धात की अपेक्षा-समस्तलोकव्यापी पृथ्वीकाय आदि, मारणान्तिक समुद्घात करके बादर अग्नि में उत्पन्न होते हुए उस-उस व्यपदेश (नाम) के पात्र हो कर सर्वलोकन्यापी हैं। ___ जहाँ वादर पर्याप्त है वहीं बादर अपर्याप्त हैं, क्यों कि-अपर्याप्त जीव જ્યાં એક બાદર છવ હોય છે ત્યાં નિયમથી અસંખ્યાત જીવ હોય છે. બાદર જીનું ક્ષેત્ર મનુષ્ય લોકજ છે. તેનાથી આગળ નથી. બાદર તેજસ્કાય, અન્તર ન હેય તે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં અઢી દ્વીપસમુદ્રોમાં, પંદર ક્ષેત્રમાં રહે છે. યુગલિઆઓના સમયરૂપ અંતર હોવા પર પાંચ મહાવિદેહમાં રહે છે, અન્યત્ર નહિ, ઉપપાતની અપેક્ષા લોકના સંખ્યાત ભાગમાં રહે છે. સમુદઘાતની અપેક્ષા સમસ્તલકવ્યાપી પૃથ્વીકાય આદિ મારણાનિક સમુદઘાત કરીને બાદર અનિમાં ઉત્પન્ન થઈને તેતે વ્યપદેશ-(નામ)ને પાત્ર થઈને સર્વ व्यापी छे. જયાં બાદર પર્યાપ્ત છે ત્યાંજ બાદર અપર્યાપ્ત છે, કેમકે-અપર્યાપ્ત જીવ પર્યાપ્ત Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.४ मू.१ अग्निकायप्ररूपणा ५४५ त्पद्यन्ते, तस्मात् सक्ष्मा बादराश्च प्रत्येकं पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति । सर्वे चैते वर्णगन्धरसस्पर्शभेदैः सहस्राग्रशो भिद्यमानाः संख्येययोनिप्रमुखशतसहस्रभेदपरिमाणा भवन्ति । तत्रषां संतोप्णा च योनिः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्रिधा। एषां सप्त लक्षाणि योनयो भवन्ति । मूक्ष्मवादराणामुभयेषामग्निकायानां शरीरसंस्थानं सचीकलापाकृतिकम् , अन्ये शरीरत्रयादिभेदाः पृथिवीकाय वत् । उभयेऽग्निकायाः प्रत्येकमसंख्येयाश्च । पर्याप्त के आश्रय ही उत्पन्न होते हैं । अतः सूक्ष्म और बादर, प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो भेद है और वर्ण, गंध, रस, और स्पर्श के भेद से हजारो भेदों को प्राप्त होते हुए इनकी संख्येय योनि वगैरह भेदों की संख्या लाखों की हो जाती है। इनकी योनि संवृत और उष्ण है । वह भी सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की है। इनकी सात लाख योनिया है । सूक्ष्म और बादर-दोनों प्रकार के अग्निकाय जीवों के शरीर का आकार सुइयों के समूह की तरह है । शरीरत्रय आदि अन्य भेद पृथ्वीकाय के समान हैं। दोनों प्रकार के अग्निकाय असंख्यात-असंख्यात हैं । આશ્રયે જ ઉત્પન્ન થાય છે. એ કારણથી સૂક્ષ્મ અને બાદર પ્રત્યેકના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી બે ભેદ છે અને વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શના ભેદથી હજારે ભેદ પામતા થકા એની સંય નિ વગેરે ભેદની સંખ્યા લાખો થઈ જાય છે. તેની ચાનિ સંત અને ઉsણ છે, તે પણ સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની છે. એની સાત લાખ એનિઓ છે. સૂકમ અને બાદર અને પ્રકારના અગ્નિકાય જીના શરીરને આકાર સોયના સમહની પ્રમાણે છે. શરીરત્રય (ત્રણ શરીર) આદિ અન્ય ભેદ પૃથ્વીકાયની સમાન છે. બનને પ્રકારના અગ્નિકાય અસંખ્યાત-અસંખ્યાત છે. प्र. आ.-६९ Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ - आचारागसूत्रे परिमाणद्वारम्वादरपर्याप्तास्तेजस्कायजीवाः क्षेत्रपल्योपमस्याऽसंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति। तदपेक्षया बादरा अपर्याप्तास्तेजस्कायजीवा असंख्यातगुणाः तदपेक्षया मूक्ष्मा अपर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणाः, तदपेक्षया सूक्ष्माः पर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणाः सन्ति । पृथिवीकायेन सहाग्निकायस्य परिमोणसमालोचनायां त्वेवमवधेयम्--- ये तेजस्काया बादरपर्याप्ताः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागमात्रवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः सन्ति, ते वादरपर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्योऽसंख्यातगुणहीनाः। शेपास्त्रयोऽपि राशयः पृथिवीकायवद् विज्ञेयाः। तत्रायं विशेष: परिमाणद्वार___ बादर पर्याप्त तेजस्काय के जीव क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों की राशि के बराबर हैं। वादर अपर्याप्त तेजस्काय जीव उनसे असंख्यात गुणा हैं, सूक्ष्म अपर्याप्त इनसे भी असंख्यात गुणा हैं, और सूक्ष्म पर्याप्त इन से भी असंख्यात गुणा है । पृथ्वीकाय के साथ अग्निकाय के परिमाण का विचार किया जाय तो इस प्रकार है तेजस्काय के जो वादर पर्याप्त जीव क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के बराबर हैं, वे वादर पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवो से असंख्यातगुणा हीन हैं । शेप तीनों राशिया पृथ्वीकाय से समान ही समझ लेनी चाहिए । विशेषता सिर्फ इतनी है परिमाए! २બાદર પર્યાપ્ત તેજ કાયના જીવ ક્ષેત્ર-૫૫મના અસંખ્યાતમા ભાગવતી પ્રદેશની રાશિના બરાબર છે. બાદર અપર્યાપ્ત-તેજકાય જીવ તેનાથી અસંખ્યાત ગુણા છે. સૂક્ષમ અપર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. અને સૂફમ પર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાત ગુણ છે. પૃથ્વીકાયની સાથે અગ્નિકાયના પરિમાણને વિચાર કરવામાં આવે તે આ પ્રકારે છે– તેજસ્કાયના જે બાદર પર્યાપ્ત જીવ ક્ષેત્રપલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગવર્તી પ્રદેશની બરાબર છે; તે બાદર પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીવોથી અસંખ્યાત ગુણ હીન છે. બાકીની ત્રિય રાશિઓ પૃથ્વીકાયની સમાનજ સમજી લેવી જોઈએ, વિશેષતા માત્ર એટલી છે કે Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ सू. १ अग्निकायपरिमाणम् ५४७ वादरापर्याप्तेभ्यः पृथिवीकायेभ्यो बादरा अपर्याप्तास्तेजस्काया असंख्यातगुणहीनाः, १क्ष्माऽपर्याप्तपृथिवीकायेभ्यः सक्ष्मा अपर्याप्तास्तेजस्काया विशेषहीनाः । सूक्ष्मपर्याप्तपृथिवीकायेभ्यः सूक्ष्माः पर्याप्तास्तेजस्काया विशेषहीना इति । एवं युक्त्यागमप्रमाणाभ्यामग्नेर्जीवत्वे सिद्धे यदि कश्चिदग्निकाय जीवस्याभ्याख्यानं कुर्यात् , तझुपयोगादिलक्षणैरनुमितस्य शरीराधिष्ठातुरात्मतोsप्यभ्याख्यानं तेन कर्तव्यं स्यात्, परन्तु तन्न उचितं भवतीत्यत आह-"नैवाऽऽस्मानमभ्याख्याया'-दिति। केनचिदात्मना शरीरमिदं, परिगृहीतं, केनचिच्च शरीरमिदं परित्यक्तमिति प्रत्यक्षदर्शनादात्मनः शरीराधिष्ठात्त्वं सिध्यति । बादर अपर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवों से वादर अपर्याप्त तेजस्काय के जीव असंख्यातगुणा कम हैं। सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवो से सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्काय के जीव विशेष हीन है । सूक्ष्म पर्याप्त पृथ्वीकाय के जीवो से सूक्ष्म पर्याप्त तेजस्काय के जीव विशेष हीन है। इस प्रकार युक्ति और आगमप्रमाण से अग्नि की सजीवता सिद्ध हो जाने पर भी यदि कोई अग्निकाय के जीवों का अपलाप करता है तो वह उपयोग आदि लक्षणों से अनुमान किये जाने वाले और शरीर के अधिष्टाता आत्मा का अपलाप करता है, मगर ऐसा करना उचित नहीं है, अतः सूत्रकार कहते है-' आत्मा का अपलाप न करे। किसी आत्माने यह शरीर ग्रहण किया है और किसी ने शरीर का त्याग किया है, यह बात प्रत्यक्ष देखी जाती है । इस से यह सिद्ध हो जाता है कि शरीर. आत्मद्वारा अधिष्ठित है। બાદર અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીથી બાદર અપર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ અસંખ્યાત ગુણ ઓછા છે. સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીથી સૂમ અપર્યાપ્ત તેજસ્કાયના જીવ વિશેષહીન છે. સૂક્ષ્મ પર્યાપ્ત પૃથ્વીકાયના જીથી સૂક્રમ પર્યાપ્ત તેજસકાયના જીવ વિશેષહીન છે-વિશેષ ઓછા છે. - આ પ્રમાણે યુતિ અને આગમપ્રમાણથી અગ્નિની સજીવતા સિદ્ધ થઈ જવા • છતાય પણ જો કોઈ અગ્નિકાયના જીવોને અ૫લાપ કરે છે તે તે ઉપયોગ લક્ષણથી અનુમાન કરવામાં આવેલા અને શરીરના અધિષ્ઠાતા આત્માને અ૫લાપ કરે છે, પરંતુ એ પ્રમાણે કરવું તે ઉચિત નથી. તેથી સૂત્રકાર કહે છે–આત્માને અપલાપ ન કરો.” કઈ આત્માએ આ શરીર ગ્રહણ કર્યું છે, અને કેઈએ શરીરને ત્યાગ કર્યો છે, એ વાત પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે. તેથી એ સિદ્ધ થાય છે કે શરીર આત્માકાર અધિછિત છે, Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ आचारागसूत्रे एवं च युक्त्यागमसंसिद्धः शरीराधिष्ठाता ज्ञानादिगुणवानयमात्मा कथमपि नापलपितुं शक्यः । तस्मादात्मा नास्तीत्येवमभ्याख्यानमात्मनो न कुर्यादित्यर्थः । ___ यः खलु मन्दधीः, लोकम् अग्निकायलोकम् , अभ्याख्याति, आत्मवत्सर्वप्रमाणसंसिद्धमप्यग्निकायलोकं प्रत्याचष्टे-'अग्निकायजीवो नास्तीति, स आत्मानमभ्याख्याति स मूढः खलु युक्त्यागमप्रमाणसंसिद्धमात्मानमपलपति 'आत्मा नास्तीति । सर्वप्रमाणसंसिद्धाग्निकायलोकाभ्याख्याने प्रवृत्तस्य सुकरमेवात्मनोऽभ्याख्यानम् , अग्निकायवदेवात्मन्यपि प्रमाणसत्तायास्तुल्यत्वादिति भावः । य आत्मानमभ्याख्याति यच्चात्मनोऽभ्याख्याने 'आत्मा नास्ती' इस प्रकार युक्ति और आगम से सिद्ध शरीर के अधिष्ठाता तथा ज्ञान आदि गुणों वाले आत्मा का निषेध नहीं किया जा सकता । अत एव 'अत्मा नहीं है। इस प्रकार आत्मा का निषेध नहीं करना चाहिए । __ जो मन्दबुद्धि पुरुष अग्निकायरूप लोक का जो आत्मा की भाति समस्त प्रमाणों से सिद्ध है-निषेध करता है अर्थात् अग्निकाय के जीवों का निषेध करता है वह युक्ति और आगम से सिद्ध आत्मा का निषेध करता है । सब प्रमाणों से सिद्ध अग्निकाय लोक का अपलाप करने पर आत्मा का अपलाप करना सरल ही है, क्यों कि अग्निकाय और आत्मा के अस्तित्व में प्रमाणों का सद्भाव समान है । जो मूर्ख ‘आत्मा नहीं है। इस प्रकार आत्मा का निषेध करता है वह આ પ્રમાણે યુક્તિ અને આગમથી સિદ્ધ, શરીરના અધિષ્ઠાતા તથા જ્ઞાન આદિ ગુણવાળા આત્માને નિષેધ કરી શકાતું નથી. એટલા માટે “આત્મા નથી” આ પ્રમાણે આત્માને નિષેધ કરી શકાતું નથી. એટલા માટે “આત્મા નથી” આ પ્રમાણે આત્માને નિષેધ કરે જઈએ નહિ. જે મન્દબુદ્ધિ પુરુષ અગ્નિકાયપલકને કે જે આત્મા પ્રમાણે સમસ્ત પ્રમાણેથી સિદ્ધ છે તેને, નિષેધ કરે છે, અર્થાત્ અનિકાયના છને નિષેધ કરે છે, તે યુક્તિ અને આગમથી સિદ્ધ આત્માને નિષેધ કરે છે. સર્વ પ્રમાણોથી સિદ્ધ અગ્નિકાયેલેકના અ૫લાપ કરવાથી આત્માને અ૫લાપ કરે તે સરલાજ છે. કેમકે અગ્નિકાય અને આત્માના અસ્તિત્વમાં પ્રમાણેને સદ્દભાવ સમાન છે. જે ભૂખ “આત્મા નથી આ પ્રમાણે આત્માને નિષેધ કરે છે, તે “ અગ્નિકાય Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सु. १ अग्निकायापलापः ५४९ लोकम् = अधिकायलोकम् " त्यपलपने प्रवर्त्तते स मूढ: अभ्याख्याति = 'अग्निकायजीवो नास्ती ' - त्यपलपति । अयं भावः - सामान्यरूपेणात्मनः सिद्धौ सत्यमेव हि तस्यात्मनो भेदाः पथिवीकायादयः सिध्यन्ति नान्यथा । सामान्यात्मनोऽभ्याख्याने प्रवृत्तः साहसिकः पृथिवीकायादे विशेषात्मनोऽभ्याख्यानं सुतरां कर्तुमर्हतीति । अपि चार्य भावः - करचरणाद्यव पवयुक्तशरीराधिष्ठाता सुव्यक्तोपयोगादिलक्षणः स्वात्माऽपि येनाभ्याख्यातः, तस्याव्यक्तोपयोगादिलक्षणाग्निकायाभ्याख्यानं किं नु दुष्कर ? - मिति ॥ सू० १ ॥ ' अग्निकाय नहीं है ' इस प्रकार अग्निकाय का निषेध करता है । तात्पर्य यह है कि - सामान्यरूप से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होने पर ही उसके पृथ्वीकाय आदि भेद सिद्ध हो सकते है अन्यथा नहीं । जो साहसी पुरुष सामान्य आत्मा का ही निषेध करने को तैयार हो गया वह पृथ्वीकाय आदि विशेष आत्माओं का निषेध करे; यह तो स्वाभाविक ही है । इससे यह भी आशय निकलता है - हाथ-पैर आदि अधिष्ठाता और भलीभाँति प्रकट उपयोग आदि लक्षणो वाले निषेध कर दिया उसके लिए अप्रकट उपयोग आदि लक्षणों करना कौन बडी बात है ? ॥ सू० १ ॥ अवयवों से युक्त शरीर के अपने आत्मा का भी जिसने वाले अग्निकाय का निषेध નથી ' આ પ્રમાણે અગ્નિકાયના નિષેધ કરે છે. તાત્પય એ છે કે“સામાન્યરૂપથી આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થવાથી જ તેના પૃથ્વીકાય આદિ ભેદ સિદ્ધ થઈ શકે છે, અન્યથા-ખીજી રીતે નહિ. જે સાહસી પુરુષ સામાન્ય માત્માનેાજ નિષેધ કરવા માટે તૈયાર થઈ ગયા તે પૃથ્વીકાય આદિ વિશેષ આત્માઓના નિષેધ કરે એ તા સ્વાભાવિકજ છે. એમાંથી એ પણુ આશય નિકળે છે કે હાથ-પગ આદિ અવયવેાથી યુક્ત રારીરના અધિષ્ઠાતા ને સારી રીતે પ્રગટ ઉપયાગ આદિ લક્ષણેાવાળા પેાતાના આત્માને પણ જેણે નિષેધ કરી દીધેા તેને પ્રગટ ઉપયાગ આદિ લક્ષણાવાળા ૠગ્નિકાયના નિષેધ કરવા તે શું માટી વાત છે? (સૂ. ૧) Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे अयमग्निकायलोकः स्वात्मवन्नैव अभ्याख्येय इति प्रतिबोधितम्, इदानीमग्निकाय जीवोपमर्दनाद् विनिवृत्त एव मुनिर्भवितुमर्हतीत्याह - 'जे दीह० ' इत्यादि । ५५० मूलम् - जे दीहलोग सत्थस्त खेयन्ने, से असत्यस्स खेयन्ने, जे असत्थस्स खेयन्ने से दीहलो सत्थस्स खेयन्ने ॥ सू० २ ॥ छाया यो दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः, सोऽशस्त्रस्य खेदज्ञः । योऽशस्त्रस्य खेदज्ञः, स दीर्घ लोकशस्त्रस्य खेदज्ञः ॥ सु. २ ॥ टीका यो भव्यः, दीर्घ लोकशस्त्रस्य दीर्घश्वासौ लोकच दीर्घलोक : = वनस्पतिः, तस्य शस्त्रं दीर्घ लोकशस्त्रम्=अग्निः । वनस्पतिकायस्य दाहकरणेन विनाशकतया - अग्निकायलोक, आत्मा की तरह निषेध करने योग्य नहीं है, यह बतला दिया । अब बतलाते है कि–अग्निकाय के जीवों की हिंसा से निवृत्त होने वाला पुरुष ही मुनि होता 'है: - ' जे दीह ० ' इत्यादि । मूलार्थ - जो दीर्घलोक (वनस्पतिकाय) के शस्त्र (अग्निकाय ) के दुख को जानता "है वही संयम के खेद को जानता है और जो संयम के खेद को जानता है वह दीर्घलोक के शस्त्र के खेद को जानता है ॥ सृ० १ ॥ टीकार्थ - जो भव्य पुरुष दीर्घलोक अर्थात् वनस्पति के शस्त्र - अग्नि के को दुःख जानता है, वही अशा अर्थात् संयम के खेद को जानता है । वनस्पतिकाय की विराधना અગ્નિકાયલેાક, આત્માની પ્રમાણે નિષેધ કરવા ચૈાગ્ય નથી; તે ખતાવી આપ્યુ છે. હુંવે મતાવે છે કે-અગ્નિકાયના જીવાની હિંસાથી નિવૃત્ત થવાવાળા પુરુષજ भुनि हाय छे:- ' जे दीह० ' इत्यादि. भूसार्थ - हीर्घदोङ ( वनस्यति अर्थ ) ना शस्त्र ( अग्निप्राय ) ता दुःमने लो છે, તેજ સંયમના ખેને જાણે છે, અને જે સંયમના ભેદને જાણે છે. તેજ દીધું. લાકના શસ્ત્રના ભેદને જાણે છે. (સ. ૨) ટીકા—જે ભવ્ય પુરુષ દીર્ઘ લેાક અર્થાત વનસ્પતિનુ શસ્ત્ર અગ્નિના દુઃખને તો છે, તેજ અગસ્ત્ર અર્થાત સંયમના ખેદ્રને ન્તણે છે. વનસ્પતિકાયની વિગધના કરવાના Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ४ सू. १ अनिकायखेदज्ञः ५५१ " ग्निस्तेषां शस्त्रं भवति । तस्य खेदज्ञः = खेदम् = उपमर्दनजन्यदुःखं जानातीति खेदज्ञः, स एव अशस्त्रस्य - अशस्त्र - संयमः संयमो हि न व्यापादको भयदो वा कस्या - पीत्यशस्त्रमुच्यते । तस्य खेदज्ञः = संयमभङ्गभयजनितदुःखानुभवकुशलः । एवं संयमानुष्ठानादेव मुनित्वं लभ्यमिति भावः । ननु कथमिदं ज्ञायते दीर्घलोकशब्दार्थो वनस्पतिरिति ? उच्यते-कायस्थितिकालेन परिमाणेन शरीरावगाहनया च वनस्पतिकायस्य अन्यै केन्द्रि यापेक्षया महत्त्वमस्ति । तथाहि - वनस्पतिकायस्य काय स्थितिकालोऽनन्तः, स चानन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपः तस्मिन्नसंख्येयाः पुद्गलपरावर्ता भवन्ति, ते पुद्गलपरावर्त्ता आवलिकाया असंख्येये भागे यावन्तः समयास्तावत्ममाणाः करने के कारण अग्नि, वनस्पतिकाय का शस्त्र है । संयम से किसी की विराधना नहीं होती, न वह किसी को भयकारी है, अत एव संयम को अशस्त्र कहते हैं । संयम के भंग होने के भय से उत्पन्न होने वाला दुःख संयम का खेद कहलाता है । इस प्रकार संयम के पालन करने से ही मुनिपन होता है । शंका - दीर्घलोक शब्द का अर्थ वनस्पति कैसे समझा जाय ? समाधान-कार्यस्थिति के समय, परिमाण और शरीर की अवगाहना से वनस्पतिकाय अन्य एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा महान् है । वनस्पतिकाय की कायस्थिति का काल अनन्त है, और वह अनन्त भी अनन्त उत्सर्विंगीरूप - अवसर्पिणीरूप है । उसमें असंख्यात पुद्गलपरावर्तन होते है । वे पुद्गलपरावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग में કારણથી અગ્નિ વનસ્પતિકાયનું શસ્ત્ર છે. સયમથી કોઈની પણ વિરાધના થતી નથી. તે કાઇને ભયકારી નથી. એ માટે સંયમને અશસ્ત્ર કહે છે. સંયમના ભંગ થવાના ભયથી ઉત્પન્ન થવાવાળુ દુઃખ તે સંયમને ખેદ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે સંયમનું પાલન કરવાથીજ મુનિપણું હોય છે. શકા—દી લાક શબ્દના અર્થ વનસ્પતિ કેવી રીતે સમજી શકાય ? સમાધાન—કાયસ્થિતિના સમય, પરિમાણુ અને શરીરની અવગાહનાથી વનસ્પતિકાય, અન્ય એકેન્દ્રિય જીવાની અપેક્ષાએ મહાન છે. વનસ્પતિકાયની કાયસ્થિતિને કાલ અનન્ત છે અને તે અનન્ત પણ અનન્ત ઉત્સર્પિણી અવસવણીરૂપ છે. તેમાં અસંખ્યાત પુદ્ગલપરાવર્ત્તન થાય છે. તે પુદ્ગલપરાવર્ત્તન આવૃલિકાના અસંખ્યાતમા Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ आचारागसूत्रे सन्ति । एतावान् कालो वनस्पतिकाल इत्युच्यते । परिमाणतस्तु प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां निर्लेपना नास्ति । शरीरावगाहनया च सातिरेकं योजनसहस्रम् । अतो वनस्पतिकायस्य दीर्घलोक इति व्यपदेशः । (प्रज्ञापना १८ पदे) ननु प्रसिद्धमग्निशब्दं विहाय किमर्थमिह दीर्घलोकशस्त्रशब्दोपादानम् ? उच्यते-वनस्पतिकायदहनप्रवृत्तोऽग्निकायो बहुतरप्राणिनां विनाशको भवति, वनस्पतिकाये बहुविधाः प्राणिनः कीट पिपीलिका भ्रमरमधुमक्षिकाकपोतादयो निवसन्ति, तरकोटरेषु पृथिवीकायाश्च, अवश्यायरूपा अपकाया अपि, मृदुतर जितने समय होते है उतने है, इतना काल वनस्पतिकाल कहलाता है । परिमाण से प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना नहीं है । इनके शरीर की अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है । इसी कारण वनस्पतिकाय को दीर्घलोक कहते है । अब प्रश्न हो सकता है कि-प्रसिद्ध 'अग्नि' शब्द को छोड़ कर 'दीर्घलोकशस्त्र शब्द का प्रयोग करने की क्या आवश्यकता थी ? इसका उत्तर यह है कि-वनस्पतिकाय को जलाने में प्रवृत्त अग्निकाय और भी बहुत से प्राणियों का विनाश करता है । वनस्पतिकाय के सहारे कीडे, चिउंटी, भोरे, मधुमक्खी और कबूतर आदि बहुत से प्राणी निवास करते हैं । वृक्षों को खोतरों में पृथ्वीकाय के जीव भी होते हैं । ओसरूप अप्काय भी होता है, और अत्यन्त कोमल ભાગમાં જેટલા સમય થાય છે. તેટલા છે એટલે કાળ તે વનસ્પતિકાળ કહેવાય છે. પરિમાણથી પ્રત્યુત્પન્ન વનસ્પતિકાયિક જીની નિલેપના નથી. તેના શરીરની અવગાહના * अघि मे उन्नर यान छे. मा १२Yथी वनस्पति यने 'दीर्घलोक ' ४ छे. वे प्रश्न य श छ -प्रसिद्ध अग्नि शहने छीन 'दीर्घलोकशस्त्र' શબ્દને પ્રયોગ કરવાની શું આવશ્યકતા હતી? તેને ઉત્તર એ છે કે-વનસ્પતિકાયને બાળવામાં પ્રવૃત્ત (ચાલુ) અગ્નિકાય બીજા પણ પ્રાણીઓને વિનાશ કરે છે. વનસ્પતિના આશ્રયે કીડા, મકેડા, ભમરા, મધમાખી અને કબૂતર આદિ ઘણજ પ્રાણીઓ નિવાસ કરે છે. વૃક્ષના બોલમાં પૃથ્વીકાયના જીવ પણ હોય છે. ઝાકળરૂપ અષ્કાય પણ હોય છે. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार चिन्तामणि- टीका अभ्य. १ उ. ४ सू. २ दीर्घलोकशब्दार्थः ५५३ यद्वा - दीर्घ लोकः = पृथिवीकायादिः, पल्लवानुसारी वायुरपि तत्र संभाव्यते, तदेवं वनस्पतिशास्त्रीभूय दहनों बहुतरजीवान्नाशयतीति सूचनाय भगवता दीर्घलोकशस्त्रशब्दः परिगृहीत इति । पृथिव्यव्वायुवनस्पतिकायानां भवस्थितिर्यथाक्रमं द्वाविंशति, - सप्त-त्रि- दश वर्षसहस्रपरिमाणा, अग्निकायस्य तु त्रीण्येवाहोरात्राणि । यथा वादराशिकायाः पर्याप्तकाः स्वल्पाः सन्ति, अन्ये पृथिव्यादयः पर्याप्तकाः बहवः सन्ति, अतो दीर्घलोकः पृथिव्यादिस्तस्य शस्त्रम् - अग्निकायः । अग्निरुत्पाद्यमानः प्रज्वाल्यमानो वा पृथिव्यादिजीवसमूहं प्रणिहन्तीति तस्य शस्त्रत्वम् । उक्तञ्च पत्तों (कोपलो) का अनुसारी वायु भी वहाँ संभव है । इस प्रकार अग्नि वनस्पति का शस्त्र हो कर बहुतेरे जीवों का विनाश करता है । यह सूचित करने के लिए भगवान् ने 'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द का अग्नि के लिए प्रयोग किया है । अथवा – 'दीर्घलोकका' अर्थ पृथ्वीकाय आदि है । पृथ्वीकाय, और वनस्पतिकाय की भवस्थिति क्रम से बाईस, सात, तीन और मगर अग्निकाय की तीन रात्रि - दिन ही है । बादर अग्निकाय के मगर पृथ्वी आदि के पर्याप्त जीव बहुत हैं । अतः 'दीर्घ लोक' शब्द का ग्रहण करना चाहिए और उनका शस्त्र अग्निकाय समझना चाहिए । अग्नि उत्पन्न हो ही और जलते ही पृथ्वी आदि के जीवो के समूह का घात करता है, अतः वह पृथ्वी आदि का शस्त्र है । कहा भी है: अपूकाय, वायुकाय दश हजार वर्ष की है, पर्याप्त जीव स्वल्प हैं से पृथ्वी काय आदि અને અત્યંત કામલ પત્તા (કુંપળો)ના અનુસારી વાયુને પણ ત્યાં સ'ભવ છે. આ પ્રમાણે અગ્નિ, વનસ્પતિનું શસ્ર ખની ઘણાંજ જીવાના વિનાશ કરે છે. આ હકીકત सूयववा भाटे लगवाने ' दीर्घलोकशस्त्र' शहना अग्नि भारे प्रयोग ये छे. अथवा — दीर्घबाङना अर्थ पृथ्वीय सहि छे, पृथ्वीभय, अच्छाय, वायुप्राय, અને વનસ્પતિકાયની ભવસ્થિતિ ક્રમથી ખાવીસ, સાત, ત્રણ અને દસ હજાર વર્ષની છે. પરન્તુ અગ્નિકાયની ત્રણ રાત્રિ-દિવસજ છે. જેમકે-માદર અગ્નિકાયના પર્યાપ્ત लव स्वस्थ छे. परन्तु पृथ्वी महिना पर्याप्त कवधान है. ये भाटे 'दीर्घलोक' શબ્દથી પૃથ્વીકાય આદિનુ ગ્રહણ કરવું જોઈએ, અને તેનુ' શસ્ત્ર અગ્નિકાય સમજવું જોઈ એ. અગ્નિ ઉત્પન્ન થતાંજ અને ખળવાની ક્રિયા થતાંજ પૃથ્વીઆદિના જીવેાન સમૂહના ઘાત કરે છે. તેથી તે પૃથ્વી આદિનુ' શસ્ત્ર છે. કહ્યું પણ છે કેઃ— प्र. म.-७० Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ आचारागसत्रे ___"भूयाणमेसमाधाओ हव्ववाहो न संसओ"। (दशवै० ३ अ०गा०३५) तस्य खेदज्ञः खेदयतीति खेदः अग्नेर्व्यापारः, अग्निव्यापारो हि पृथिव्यादिजीवानां दहनात्मकतया दुःखमुत्पादयतीत्यतः खेद-शब्देन व्यपदिश्यते, तं जानातीति खेदज्ञः। अग्निकायस्य व्यापारः सर्वप्राणिपीडाकर इति विज्ञाता यः खलु भवति, स एव अशस्त्रस्य सप्तदशविधसंयमस्य खेदज्ञा संयमक्षरणजन्यदुःखानुभावकः, अस्तीति शेषः। अग्निकायव्यापारेण पृथिव्यादिजीवानां विनाशस्तेन संयमक्षरणं, ततश्च मुनित्वविभ्रंश इति सर्वस्वनाशकतयाऽग्निव्यापारः साधूनां ज्ञपरिया विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरणीय इति भावः । "यह अग्नि भूतों का घातक है, इसमें संदेह नहीं"। (दशवै. ३. अ. गा. ३५) उस अग्नि के व्यापार को पृथ्वीकाय आदि का खेद कहते है, क्यों कि दाहक होने के कारण वह पृथ्वी आदि को दुःख उत्पन्न करता है । उसे जानने वाला 'खेदज्ञ' कहलाता है । ' अग्निकाय का व्यापार सब प्राणियों को पीडा पहुँचाता है' जो ऐसा जानता वही पुरुप अशस्त्र का अर्थात् सत्तरह प्रकार के संयम के खेद का-संयम के भंग से होने वाले खेद का ज्ञाता होता है । तात्पर्य यह है कि-अग्निकाय के व्यापार से पृथ्वीकाय आदि के जीवों का विनाश होता है, और उससे संयमभंग होता है, और संयम के भंग से मुनिपन का भंग होता है । इस प्रकार अग्निव्यापार सर्वस्व का नाशक होने से वह साधुओं के लिए ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्यागने योग्य है ।। "२0 मनि भूताना पात छे, सभी सहेड नथी." (श 4. 24. 3. 20 ३५) આ અગ્નિના વ્યાપારને પૃથ્વીકાયને ખેદ કહે છે કારણ કે દાહક હેવાના કારણે તે પૃથ્વી આદિને દુઃખ ઉત્પન્ન કરે છે તેને જાણવાવાળા “દ” કહેવાય છે. અગ્નિકાયને વ્યાપાર સર્વ પ્રાણીઓને પીડા પહોંચાડે છે. જે આ પ્રકારે જાણે છે તેજ પુરુષ અશઅને અર્થાત્ સત્તર પ્રકારના સંયમના ખેદન-સંયમના ભંગથી થવાવાળા ખેદને જ્ઞાતા-જાણનાર હોય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–અગ્નિકાયના વ્યાપારથી પૃથ્વીકાય આદિના જીવન નાશ થાય છે. અને તેથી સંયમ ભંગ થાય છે, અને સંયમના ભંગથી, મુનિ પણું ભંગ થાય છે. આ પ્રમાણે અગ્નિવ્યાપાર સર્વસ્વને નાશક લેવાથી સાધુઓ માટે જ્ઞપરિણાથી જાણને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી ત્યાગવા ગ્ય છે. Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ४ सू. २ अग्निकायखेदज्ञः ५५५ उक्त दृढी विपर्ययेण पुनः कथयति - 'योऽशस्रस्य खेदज्ञः स दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदज्ञः' इति, व्याख्या पूर्ववत् । ॥ ०२ ॥ ॥ शस्त्रद्वारम् ॥ ननु येन शस्त्रेण वह्निः खिद्यते, तत् केन दृष्टम् ? अपि चाशस्त्रं संयमस्वरूपमिति केन दृष्टम् १, इति जिज्ञासायामाह - ' वीरेहिं ' इत्यादि । मूलम् - वीरेहिं एय अभिभूय दिहं, संजएहिं सया जएहिं सया अप्पमतेहिं ||०३ || छाया वीरेः एतद् अभिभूय दृष्टम्, संयतैः सदा यतैः सदा अममत्तैः ॥ सु०३ ॥ इसी बात को दृढ करने के उद्देश्य से पुनः अन्यरूप से कहते है कि - जो अशस्त्र (संयम) के खेद को जानता है वह दीर्घलोकशस्त्र के खेद को जानता है । इस की व्याख्या पहले के समान ही समझनी चाहिए | सू० २ ॥ शंका होती है कि - जिस देखा है और संयमरूप अशस्त्र शस्त्रद्वार शस्त्र से अग्नि को खेद होता है वह किस ने किस ने देखा है ? इसके उत्तर में कहते है: ―――― 'वीरे हिं'. इत्यादि । मूलार्थ - - परिषह उपसर्ग आदि को जीतनेवाले संयत सदा यतनावान् और सदा अप्रमत्त रहने वाले वीर पुरुषों ने यह देखा है || सू० ३ ॥ આ વાતને દૃઢ કરવાના ઉદ્દેશથી ફરી ખીજા રૂપથી કહે છે કે—જે અશસ્ત્ર (સંયમ)ના ખેહને જાણે છે તે દીર્ઘલાકશસ્ત્રના પેટને જાણે છે. તેની વ્યાખ્યા પ્રથમ કહેલી છે તે પ્રમાણે સમજવી જોઈએ. (સ્ ૨) शत्रद्वार શંકા થાય છે કે જે શસ્ત્રથી અગ્નિને ખેદ થાય છે તે કણે જોયું છે? અને संयमरूप अशस्त्र आगे ले छे ? तेना उत्तरमा छे:- 'वीरेहिं'. त्याहि. भूदार्थ-परीषड-उपसर्ग साहिने लतवावाणा, संयंत—संयभी सहा यतनाવાન્ અને સદા અપ્રમત્ત રહેવાવાળા વીરપુરુષોએ તે જોયું છે. (સૂ. ૩) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारास्त्रे टीकाघनघातिकर्मरूप रिपुगणक्षपणानन्तरं वीरैरिति । लब्धातुलकेवला लोकलक्ष्म्या विराजन्त इति वीराः । यथा - राजानश्चतुरङ्गसैन्यसमाहृतं स्वकीयमरिवर्ग निहत्य लव्धराज्यविजयलक्ष्म्या विराजमाना वीरा निगद्यन्ते । यद्वा - वि= विशेषेण ईरयन्ति = रागाद्यन्तरङ्गमहासुभटान् निवारयितुमनन्ततपोवीर्यं व्यापारयन्तीति वीराः । यद्वा - विशेषेण ईरयन्ति = शिवगतिं गमयन्ति भव्यजीवानिति वीराः । यद्वा - विशेपेण ईरयन्ति = ज्ञानाचारादीन् प्रति प्रेरयन्ति भव्यजीवानिति वीराः, तीर्थङ्करा गणधरा, तैर्वीरैः, एतद् = अग्निकायस्वरूपं, यद्वा-अग्निशस्त्रम् अशस्त्रं चेति द्वयं दृष्टं-ज्ञानदृष्टय विलोकितम्, अर्थतस्तीर्थङ्करैः, गणधरैस्तु भगवद्वचनैरिति विशेषः । ५५६ टीकार्थ — घातिया कर्मरूपी शत्रुओं के समूह को नाश करने के अनन्तर अनुपम केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त होती है । उस लक्ष्मी से जो विराजमान है उन्हें वीर कहते है । जैसे कोई राजा, चतुरंग सेना से युक्त शत्रुओं को हराकर प्राप्त राज्य और विजय की लक्ष्मी से सुशोभित हो कर 'वीर' कहलाते हैं । अथवा राग-द्वेष आदि आन्तरिक महायोद्धाओं को रोकने के लिए अनन्त तपोवीर्य का प्रयोग करने वाले 'वीर' कहलाते है | अथवा भव्य जीवों को विशेषरूप से मुक्ति की ओर प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते है | अथवा विशेषरूप से ज्ञानाचार आदि की ओर भव्य जीवों को प्रेरित करने वाले 'वीर' कहलाते हैं । ऐसे वीर तीर्थंकर गणधर आदि है । उन वीरों ने अग्नि के स्वरूप को अथवा अग्निशस्त्र और अशस्त्र को ज्ञानदृष्टि से देखा है । अर्थ से तीर्थंकरों ने और उन के वचनों के अनुसार गणधरों ने देखा है । ટીકા—ઘાતિ—કર્મરૂપી શત્રુઓના સમૂહના નાશ કર્યોના અનન્તર અનુપમ કેવલજ્ઞાન રૂપી લક્ષ્મી પ્રાપ્ત થાય છે. તે લક્ષ્મીથી જે વિરાજમાન છે તેને વીર કહે છે. જેમ કેાઈ રાજા, ચતુરંગ સેનાથી યુક્ત (ચાર પ્રકારની સેના સહિત) શત્રુએને હરાવીને પ્રાપ્ત કરેલુ રાજ્ય અને વિજયરૂપ લક્ષ્મીથી સુશેાભિત ખની ‘વીર’ डेवाथ छे, अथवा-राग-द्वेष याहि यान्तरि महायोद्धाओने रोडवावाजाने 'वीर' ४द्धे छे. अथवा लव्य लवाने विशेषरूपथी भुम्तिनी तर प्रेरित पुरवावाजा 'वीर' કહેવાય છે. અથવા વિશેષરૂપથી જ્ઞાનાચાર આદિની તરફ ભવ્ય જીવાને પ્રેરિત अश्वावाला 'वीर' हेवाय छे. मेवा वीर तीर्थ १२ गने गयुधर याहि छे, ते वी અગ્નિના સ્વરૂપને અથવા અગ્નિશસ્ત્ર અને અશસ્રને જ્ઞાનદૃષ્ટિથી જેયાં છે. અર્થ થી તીર્થંકરાએ જોયાં છે. અને તેમનાં વચને અનુસાર ગણુધરીએ તૈયાં છે, Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.४ सू. ३ वीरशब्दार्थः ५६७ किं कृत्वा तैरेतद् दृष्ट ?-मित्याकाङ्क्षायामाह-अभिभूय' इति । परिपहोपसर्गान् , ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय-ऽन्तरायाख्यघातिकर्मचतुष्टयं च विजित्य केवलं संप्राप्येत्यर्थः। कथम्भूतैस्तै ?-रित्याह-संयतैः सम्= सम्यक्प्रकारेण यताः परमकरुणया ईर्यासमित्यादियतनावन्तस्तैः, सकलषड्जीवनिकायपरित्राणपरायणैरित्यर्थः। यतना द्विविधा-प्रमत्तयतना, अप्रमत्तयतना च । अथ प्रमत्तस्य कीदृशी यतना ? उच्यते-कपायादिनिग्रहिण ईर्याधुपयोगवत्त्वं प्रमत्तयतना कथ्यते । ___ अप्रमत्तयतना कषायरहितवचनसाध्या भवति । अत्र अप्रमत्तग्रहणादिन्द्रियादिप्रमादवर्जनं गृह्यते । यतनाग्रहणाद् यावज्जीवयतना गृह्यते । अत एव __उन्हों ने क्या कर के यह देखा है ? इस शंका का उत्तर है-परीषह और उपसर्गों को तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार घातिया कर्मों को जीतकर केवल ज्ञान प्राप्त कर के उन्हों ने देखा है । वे देखने वाले किस प्रकार के थे ? इसका उत्तर यह है-सम्यक् प्रकार से, अत्यन्त करुणापूर्वक ईर्यासमिति आदि का पालन करनेवाले अर्थात् समस्त षट्काय की रक्षा में तत्पर थे । यतना दो प्रकार की है-प्रमत्त की यतना और अप्रमत्त की यतना । प्रमत्त की यतना कैसी होती है ? इसका उत्तर यह है कि-कषाय आदि का निग्रह करने वाला पुरुष ईर्या आदि में जो उपयोग रखता है, वह प्रमत्तयतना है। अप्रमत्त की यतना कषायरहित वचनो से होती है । यहाँ अप्रमत्त शब्द से इन्द्रिय आदि प्रमादों का त्याग लेना चाहिए । यतना शब्द से यहा यावज्जीव यतना का ग्रहण करना चाहिए। अतः તેમણે શું કરીને જોયાં છે? આ શંકાને ઉત્તર એ છે પરીષહ અને ઉપસર્ગોને તથા જ્ઞાનાવરણ, દર્શનાવરણ, મેહનીય અને અન્તરાય નામના ચાર ઘાતિયા કર્મોને જીતીને કેવલજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને તેમણે જોયાં છે. તે જોવાવાળા કેવા પ્રકારના હતા? તેને ઉત્તર-સમ્યફપ્રકારે, અત્યન્ત કરુણાપૂર્વક ઈસમિતિ આદિના પાલન કરવાવાળા, અર્થાત્ સમસ્ત કાયની રક્ષામાં તેઓ તત્પર હતા. યતના બે પ્રકારની છે–પ્રમત્તની યતના અને અપ્રમત્તની યતના પ્રમત્તની યતના કેવી હોય છે તેનો ઉત્તર એ છે કે-કષાય આદિના નિગ્રહ કરવાવાળા પુરૂષ, ઈર્યો આદિમાં જે ઉપયોગ રાખે છે તે પ્રમત્તની યતના છે. અપ્રમત્તની યનના કષાયરહિત વચનથી થાય છે. અહિં અપ્રમત્ત શબ્દથી ઈન્દ્રિય આદિ પ્રમાદને ત્યાગ લેવો જોઈએ. યતના શદથી અહિં જીવમાત્રની યતનાનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એ માટે Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ आचारागसत्रे सद सर्वदा यतैः चरणकरणविषये निरतिचारतया यत्नवद्भिः, तथा सदासर्वकाले अप्रमत्तैः विषयकषायादिवर्जितैः । एवम्भूतवीं रैरग्निकायस्वरूपं तदीयशस्त्रमशस्त्रं च दृष्टमिय॑थः । ननु किं नामाग्निशस्त्रम् ? उच्यते-अग्न्युपमर्दकं शस्त्रम् । तत् किस्वरूप ?-मितिचेत् , अवधेहि-अग्निशस्त्रं तावद् द्विधा-द्रव्य-भावभेदात् । तत्र द्रव्यशस्त्रं त्रिविधम् स्वकायपरकायोभयकायभेदात् । स्वकायशस्त्रं-अग्निकायस्याग्निकाय एव, यथा-तृणाग्निः, पर्णाग्नेः शस्त्रम् । परकायशस्त्रं-धूलिरापश्च, आर्द्रश्चवनस्पतिः, साः प्राणिनश्च । उभयकायशस्त्रं तुषकरीपादिमिश्रोऽग्निरन्यस्याग्ने:, सर्वदा चरणसत्तरी और करणसत्तरी में अतिचाररहित यतना करने वाले तथा सदैव विषयकपाय आदि प्रमाद से रहित वीर पुरुषोंने अग्निकाय के स्वरूप को तथा उसके शस्त्र और अशस्त्र को देखा है। शङ्का-अग्निशस्त्र क्या है ? समाधान-अग्नि की विराधना करने वाला शस्त्र अग्निशस्त्र कहलाता है। उसका स्वरूप क्या है ? सो इस प्रकार समझो-द्रव्य और भाव के भेद से अग्नि अत्र दो प्रकार का है । इनमें से द्रव्यशस्त्र के तीन भेद हैं-स्वकाय-शस्त्र, परकाय-शस्त्र और उभयकाय-शस्त्र । अग्निकाय का स्वकायशस्त्र अग्नि ही है, जैसे तिनके को अग्नि, पत्तों की अग्नि का शस्त्र है । धूलि और पानी आदि अग्निकाय का परकायशस्त्र है । गीली वनस्पति भी परकायशस्त्र है और त्रस पाणी भी। तुष ( छिलका ) और करीप સર્વદા ચરણ સીતેરી અને કરણસીતેરીમાં અતિચારરહિત યતના કરવાવાળા તથા હંમેશાં વિષય-કપાય આદિ પ્રમાદથી રહિત વીર પુરુષેએ અગ્નિકાયના સ્વરૂપને તથા તેના શસ્ત્ર અને અશસ્ત્રને જોયાં છે. શંકા–અગ્નિ શસ્ત્ર એ શું છે? સમાધાન–અગ્નિની વિરાધના કરવાવાળું શસ્ત્ર તે અગ્નિશસ્ત્ર કહેવાય છે. તેનું સ્વરૂપ કેવું છે? તે આ પ્રમાણે સમજો-દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી અગ્નિશસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે, તેમાંથી દ્રવ્યશસ્ત્રના ત્રણ ભેદ છે સ્વકાયશસ્ત્ર પરકાયશસ્ત્ર, અને ઉભયકાયશસ્ત્ર. અગ્નિકાયનુ સ્વાયશસ્ત્ર અનિજ છે. જેમ તણખાની અગ્નિ, પાંદડાંની અગ્નિનું શસ્ત્ર છે. ધૂળ અને પાણી આદિ અગ્નિકાયનું પરકાયશસ્ત્ર છે. લીલી વનસ્પતિ પણ પરકાયશસ્ત્ર છે. અને ત્રસ પ્રાણી પણ પરકાયશસ્ત્ર છે. તુષ અને છાણ આદિથી મળેલી અગ્નિ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ४ सु. ४ अग्निशस्त्र निरूपणम् ५५९ तप्तोदकादिकं च । भावशस्त्रं तु - अग्नि प्रति दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायरूपम् । शेषाणि पृथिवीकायवद् बोध्यानि || सू० ३ ॥ यस्तु प्रमादवशादुपभोगार्थमग्निकायजीवानुपमर्दयति, तत्फलमाह – 'जे' इत्यादि । मूलम् — जे पत्ते गुणट्ठिए से हु दंडेति पवच्च ॥ ४ ॥ छाया यः प्रमत्तः गुणार्थिकः ( गुणस्थितः ) स खलु दण्ड इति प्रोच्यते । टीका यो हि प्रमत्तः विषयकाषायादिप्रमादवशगः सन् गुणार्थिकः भवतीत्यन्वयः । गुणः=अग्निकायकृतोपकारः स एवार्थः = प्रयोजनं यस्य स गुणार्थी, स एव गुणार्थिकः, रन्धन - पचन - प्रकाश- तापनादिप्रयोजनवान् भवति । यद्वा(छाणे) आदि से मिली अग्नि तथा गर्म जल अग्नि का उभयकायशस्त्र है । अग्नि के प्रति दुष्ट मन वचन और कायका प्रवर्त्तन भावशस्त्र है । शेष द्वार पृथिवीकाय के समान समझ चाहिए ॥ सू० ३॥ प्रमाद के वश होकर उपभोग के निमित्त अग्निकाय के जीवों की विराधना करने वाले को होने वाला फल कहते है : - 'जे' इत्यादि । मूलार्थ - जो प्रमादी पुरुष अग्नि के गुणों का अर्थी - रांधना आदि में स्थित है, वह उसके लिए दण्ड कहलाता है | सू० ४ ॥ टीकार्थ -- विषय कषाय आदि प्रमादों के अधीन होकर पुरुष गुणार्थी होता है | अग्निकाय द्वारा होने वाला उपकार यहां गुण कहा गया है । इस गुण का अर्थी गुणार्थिक कहलाता है । रांधना, पकाना, उजाला करना आदि अग्नि के गुण है । जो તથા ગરમ જલ અગ્નિનુ ભયકાયશસ્ત્ર છે. અગ્નિ પ્રતિનુ દુષ્ટ મન, વચન અને કાયાનું પ્રવર્તન તે ભાવશસ્ત્ર છે, બાકીના દ્વાર પૃથ્વીકાયની સમાન ખરાખર-સમજવા જોઇએ.(સ્ ૩) પ્રમાદને વશ થઈ ઉપભાગના નિમિત્તે અગ્નિકાયના જીવાની વિરાધના કરવા वाजाने ने इज थाय छे-भणे छे. ते आहे छे. 'जे' इत्याहि. મૂલા—જે પ્રમાદી પુરુષ અગ્નિના અથી—રાંધવું વિગેરેમાં સ્થિત-છે તે भेना भाटे हंडे उडेवाय छे. (सू. ४) ટીકા—વિષય કષાય આદિ પ્રમાદેને આધીન થઈને પુરુષ ગુણાર્થી થાય છે. અગ્નિકાય દ્વારા થવાવાળા ઉપકાર તેને અહિં ગુણુ કહેવામાં આવ્યે છે. આ ગુણને અર્થી તે ગુણાર્થિક કહેવાય છે. રાંધવુ–પકાવવું, અજવાળું કરવું આદિ અગ્નિના ગુણ छे. Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० आचारागसूत्रे 'गुणस्थितः' इति च्छाया, तेन गुणेषु अग्निगुणेषु रन्धनपचनादिषु, शब्दादिषु वा स्थितः आसक्तः, रन्धनाधर्थमग्निमुत्पादयति प्रज्वालयति यथाकथञ्चिदुपमर्दयतीत्यर्थः । स मनोवाक्कायस्य दुप्पणिधानेनाग्निशस्त्रसमारम्भकरणेन चाग्न्यादीनां प्राणिनां दण्डं प्रति कारणभृतत्वाद् दण्ड इति पोच्यते, कारणे कार्योपचाराद्, दण्डवत् प्राणिनां हिंसकतया दण्ड इति निन्धनाम्ना लोके प्रसिध्यतीति भावः ।। मू० ४ ॥ एवं विज्ञायाग्निशस्त्रसमारम्भाद् विनिवर्तितव्यमित्याह--'तं' इत्यादि । __ मूलम्तं परिणाय मेहावी इयाणि णो जमहं पुन्चमकासी पमाएणं ॥ ० ५ ॥ छायापरिज्ञाय मेधावी इदानीं नो यदहं पूर्वमकापं प्रमादेन ॥ सू० ५॥ पुरुष इन गुणों में अथवा शब्द आदि इन्द्रियविषयों में आसक्त है अर्थात् रांधने आदि के लिए अग्नि उत्पन्न करता है, जलाता है और किसी भी प्रकार उसका हनन करता है, वह पुरुप अपने मन, वचन, काय के दूपित व्यापार के कारण तथा अग्निशन का समारंभ करने के कारण अग्नि के जीवों के दंडका कारण होने से दण्ड कहलाता है। कारण में कार्य का उपचार करने से ठंड के कारणभूत पुरुष को दंड कहते है । लोक में उस पुरुप की 'दंड' इस निंदनीय नाम से प्रसिद्धि होती है । सू० ४ ॥ अब बतलाते है कि पूर्वोक्त कथन जानकर अग्निशस्त्र के समारंभ से वचना चाहिए:'ते' इत्यादि। मूलार्थ--अग्निकाय अथवा अग्निकाय के समारंभ को जानकर बुद्धिमान् पुरुष निश्चय करे कि-प्रमाद के वश होकर मैंने पहले जो किया सो अब नहीं करूंगा ।। सू० ५ ॥ પુરુષ આ ગુણેમાં અથવા શબ્દ આદિ ઇન્દ્રિયવિષમાં આસક્ત છે. અર્થાત રાંધવા આદિને માટે અગ્નિ ઉત્પન્ન કરે છે, બાળે છે, અને કેઈ પણ પ્રકારે તેનું હનન કરે છે, તે પુરુષ પિતાના મન, વચન અને કાયાના દૂષિત વ્યાપારના કારણે તથા અગ્નિશઅન સમારંભ કરવાના કારણે અગ્નિના જીવેને દંડનુ કારણ હોવાથી દંડ કહેવાય છે. કારમાં કાર્યનો ઉપચાર કરવાથી દંડના કારણભૂત પુરુષને પણ દંડ કહે छे. मि ते पुश्पनी मानिनीय नामथी प्रसिद्धि थाय छ. (सू. ४) । હવે બતાવે છે કે–પૂર્વોકત કથન જાણીને અગ્નિશસ્ત્રના સમારંભથી બચવું २४ -'तं' इत्याहि. મલાથ–અગ્નિકાય અથવા અનિકાયના સમારંભને જાણી બુદ્ધિમાન પુરુષ નિશ્ચય કરે કે-પ્રાદના વશ થઈને મેં પહેલાં જે કર્યું છે તે હવે નહીં કરું. (સૂ. ૫) Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ५ अग्निशस्त्रसमारम्भवर्जनम् ५६१ टीका - meme ments मेधावी-ग्रहणधारणादिगुणवान् , यद्वा-साधुमर्यादारक्षणे सावधानः, यद्वाहेयोपादेयविवेकनिपुणः, तम् अग्निकार्य, यद्वा तम्-अग्निशस्त्रसमारम्भं दण्डनामफलप्रदं परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन, प्रत्याख्यानपरिज्ञया हेयत्वेन पर्यालोज्य, प्रतिजानीते-अहं-मिथ्यात्वादिमलिनान्तःकरणः प्रमादेन विषयकषायादिप्रमादवशतः यम् अग्निशस्त्रसमारम्भं पूर्वम् अज्ञानावस्थायाम्, अकार्षम् कृतवान्, यत्तदोनित्यसाकाङ्क्षत्वात् तम् इदानीम् संप्रति प्रत्रज्यावस्थायाम् नो-नैव करिष्य इति शेषः ॥ सू० ५॥ __ अथ सर्वथाऽग्निशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान्, तथाऽग्निशस्त्रसमारम्भे प्रवृत्तान् द्रव्यलिङ्गिनश्च विविच्य प्रतिबोधयितुमाह-'लज्जमाणा'. इत्यादि। टीकार्थ-ग्रहण और धारणादिक गुणों से युक्त, अथवा साधुओं की मर्यादा की रक्षा करने में सावधान, अथवा हेय और उपादेय के विवेक में निपुण पुरुष अग्निकाय अथवा अग्निकाय के समारंभ को जानकर अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से उसे कर्मबंध का कारण समझकर और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से हेय समझकर इस प्रकार प्रतिज्ञा करते है-मिथ्यात्व आदि विकारों के वश होकर मैने अज्ञानदशा में अग्निकाय का समारंभ किया था। वह समारंभ अब दीक्षाअवस्था में नहीं करूँगा ।। सू० ५ ॥ अग्रिशस्त्र का सर्वथा त्याग करने वाले अनगारो तथा अग्निशस्त्र के समारंभ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिङ्गी पुरुषों को अलग अलग कर के समझाते हैं-'लज्जमाणा'. इत्यादि । ટીકાર્ચ–ગ્રહણ અને ધારણાદિક ગુણેથી યુક્ત અથવા સાધુઓની મર્યાદાની રક્ષા કરવામાં સાવધાન, અથવા હેય અને ઉપાદેયના વિવેકમાં નિપુણ પુરુષ અગ્નિકાય અથવા અગ્નિકાયના સમારંભને જાણુને અર્થાત્ સપરિણાથી તેને કમબંધનું કારણ સમજીને અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી હેય-(ત્યાજ્ય) સમજીને આ પ્રમાણે પ્રતિજ્ઞા કરે છે મેં અજ્ઞાન દશામાં મિથ્યાત્વ આદિ વિકારેને વશ થઈને અગ્નિકાયને સમારંભ ध्या ता; त सभास हवे हीक्षा-अवस्थामा नही ४३. (सू. ५) અગ્નિશસ્ત્રને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણગાર તથા અગ્નિશસ્ત્રના સમારંભમાં प्रवृत्ति ४२वावाणाद्र०यलिंगी पुरुषाने स- म शने समलव छ-'लज्जमाणा. त्याह. प्र. आ.-७१ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ आचारागसूत्रे लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं, अगणिसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति ॥ सू०६॥ छाया--- लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदिम विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्मसमारम्भेण, अग्निशस्त्र समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणिनो विहिंसन्ति ॥ सू०६॥ टीकालज्जमानाः अग्निकायसमारम्भे परमकरुणया द्रवीभूतहृदयतया संकुचितात्मानः, अग्निशस्त्रसमारम्भपरित्यागिन इत्यर्थः, पृथक्-विभिन्नाः, केचित् प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनःपर्ययकेवलिनः, केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानोऽनगाराः मूलार्थ-अग्निकाय के आरंभ में संकोच करने वालों को अलग समझो। और 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वाले नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा अग्निकर्म का समारंभ करने वाले दूसरे (द्रव्यलिङ्गी, अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते है ॥ सू० ६ ॥ टीकार्थ-अत्यन्त दया के कारण अग्निकाय के समारंभ में हार्दिक संकोच करने वाले, इसी कारण अग्निशस्त्र के समारंभ के त्यागी अलग हैं, उन में कोई अवधिज्ञानी हैं, कोई मनःपर्ययज्ञानी हैं, कोई केवलज्ञानी हैं। कोई परोक्षज्ञानी भावितात्मा મૂલાથ—અગ્નિકાયના આરંભમાં સંકેચ કરવાવાળાને અલગ સમજે, અને અમે અણગાર છીએ એ પણ કહેવાવાળા નાના પ્રકારનાં શસ્ત્ર દ્વારા અગ્નિકને સમારંભ કરવાવાળા બીજા દિવ્યલિંગી) અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૬) ટાર્થ—અત્યન્ત દયાના કારણે અગ્નિકાયના સમારંભમાં હાર્દિકે સંકેચ કરવાવાળા, આજ કારણથી અગ્નિશસ્ત્રના સમારંભના ત્યાગી અલગ છે–જુદા છે. એમાં કોઈ અવધિજ્ઞાની છે, કેઈ મન:પર્યયજ્ઞાની છે, કઈ કેવલજ્ઞાની છે. કેઈ પક્ષજ્ઞાની ભાવિતાત્મા અગાર છે. તે સર્વ સૂકી અને બાદર અગ્નિકાયને સમારંભ કરવામાં Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४.६अग्निकायसमारम्भकत निरूपणम् ५६३ सन्तीति पश्य । इमे सूक्ष्मवादाग्निकायसमारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैरग्निकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते तानवलोकयेत्यर्थः । एके पुनरन्ये तु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमानं प्रवदमानाः 'वयमेवाग्निकायजीवरक्षणपरा महाव्रतधारिणः' इति प्रलपन्तो द्रव्यलिगिनः सन्ति, तान् पृथक =पृथग्भावेन पश्य । इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिगिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्ति, इति दर्शयति-'यदिमम्' इत्यादि। यद्-यस्माद् विरूपरूपैः विभिन्नस्वरूपैः द्रव्यभावभेदभिन्नैः शस्त्रैः= अग्निकायशस्वैः, अग्निकर्मसमारम्भेण=अग्नेः कर्मसमारम्भः अग्निकर्मसमारम्भः= अनगार हैं । ये सब सूक्ष्म और बादर अग्निकाय का समारंभ करने में भीत-डरने वाले हैं, त्रस्त हैं, उद्विग्न हैं और तीन करण तीन योग से अग्निकाय के समारंभ के त्यागी हैं, उन्हें देखो। इन से विपरीत दूसरे लोग 'हम अनगार हैं, हमीं अग्निकाय की रक्षा में तत्पर हैं, महाव्रती हैं। इस प्रकार अभिमान के साथ प्रलाप करते हुए द्रव्यलिङ्गी हैं, उन्हें अलग समझो। अनगार होने का अभिमान करने वाले ये लोग साधुओं का तनिक भी कर्तव्य नहीं करते और न गृहस्थकार्य का त्याग करते है । वे लोग तरह-तरह के द्रव्य और भाव रूप अग्निकाय के शस्त्रों से अग्निकर्म का ભીત-ભયવાન છે, ત્રસ્ત છે, ઉદ્વિગ્ન છે. અને ત્રકરણ, ત્રણગથી અગ્નિકાયના સમારંભના ત્યાગી છે, તેને જુઓ. એનાથી વિપરીત (ઉપર કહ્યા તેનાથી ઉલટે વ્યવહાર કરનારા) બીજા લોક અમે અણગાર છીએ, અમે અગ્નિકાયની રક્ષામાં તત્પર છીએ, મહાવતી છીએ.” એ પ્રમાણે અભિમાનની સાથે પ્રલાપ કરે છે તે દ્રવ્યલિંગી છે, તેને અલગ સમજો. અણગાર હેવાનું અભિમાન કરવાવાળા આ લોક સાધુઓના જરાપણ કર્તવ્યને કરતા નથી અને ગૃહસ્થનાં કાર્યોને ત્યાગ કરતા નથી. તે લેક તરેહ-તરેહના દ્રવ્ય અને ભાવરૂપ અગ્નિકાયના એથી અગ્નિકર્મને Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ आचारागसत्रे अग्नि निमित्तीकृत्य ज्ञानावरणीयाधष्टविधर्मवन्धनिवन्धनसावधव्यापारस्तेन, इमम्= अग्निकार्य विहिंसन्ति । अग्निकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह- अग्निशस्त्र'-मित्यादि। अग्निशस्त्रम् अग्न्युपमर्दक शस्त्रम् , तत् पूर्वोक्तमकारं द्रव्यभावभेदभिन्न समारभमाणाः अग्निकार्य प्रति व्यापारयन्तः अन्यान् सांश्च विहिंसन्ति । इह बहुविधा द्रव्यलिङ्गिनो विद्यन्ते, यथा-'वयं पञ्चमहाव्रतधारिणः सर्वारम्भपरित्यागिनः षड्जीवनिकायरक्षका अनगाराः स्मः इति वदन्तो दण्डिशाक्यादयः सन्ति । ते चात्मानमनगारं प्रवदमाना नानगारगुणेषु लेशतोऽपि प्रवर्तन्ते । आरंभ कर के अर्थात् अग्नि के निमिन से ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का कारणभूत सावद्य व्यापार कर के अग्निकाय की हिंसा करते है । अग्निकाय की हिंसा में प्रवृत्त पुरुप षट्कायरूप समस्त जीवो की हिंसा करते है, यही बतलाते है-अग्नि का घात करने वाले-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र का अग्नि के विषय में प्रयोग करने वाले अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य पृथ्वीकाय आदि स्थावरों की तथा द्वीन्द्रिय त्रस जीवों की हिंसा करते है। संसार में बहुत से द्रव्यलिङ्गी हैं । ' हम पञ्चमहाव्रतधारी, समस्त आरंभ का त्याग करने वाले और पट्काय के रक्षक अनगार हैं । इस प्रकार कहने वाले दंडी शाक्य आदि है । वे अपने को अनगार कहते हुए भी लेशमात्र भी अनगार के गुणों में प्रवृत्ति नहीं करते। આરંભ કરીને અર્થાત્ અગ્નિને નિમિત્તથી જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ કર્મોના કારણભૂત સાવધ વ્યાપાર કરીને અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. અગ્નિકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત પુરુષ પટ્ટાયરૂપ સમસ્ત જેની હિંસા કરે છે. એજ બતાવે છે-અવિનને વાત કરવાવાળા-દ્રવ્યશસ્ત્ર અને ભાવશઅને અગ્નિના વિષયમાં પ્રયોગ કરવાવાળા અગ્નિકાય સાથે બીજા પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરની તથા ક્રિીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવેની હિંસા કરે છે. સંસારમાં ઘણું જ વ્યલિંગી છે. “અમે પંચમહાવ્રતધારી સમસ્ત આરંભને ત્યાગ કરવાવાળા અને પકાયના રાક અણગાર છીએ.” આ પ્રકારે કહેવાવાળા દંડી શાકય આદિ છે. તે પિતાને અણગાર કહેતા થકા પણ લેશમાત્ર અણુગારના ગુણોમાં વૃત્તિ કરતા નથી. Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४ भू.६ अग्निकायसमारम्भकर्तनिरूपणम् ५६५ शाक्यादयः पचन-पाचन-प्रतापन-प्रकाशाद्यर्थमग्निकर्मसमारम्भं कुर्वन्ति, कारयन्ति, कुचतोऽनुमोदयन्ति च, तेन षटकायजीवविराधका भवन्ति । दण्डिनोऽपि-'वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनवचनाराधका अनगाराः स्मः' इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासाः सावद्यमुपदिशन्तः शास्त्रनिषिद्धमप्यग्निकर्मसमारम्भ कारयन्ति । दृश्यन्ते हि-शास्त्रव्याख्यानादौ देवकुलादौ प्रतिमापतिश्रयादिप्रतिष्ठादौ च धूपदीपहवनादिभिरग्निकर्मसमारम्भ कारयन्तो दण्डिनः एवं कथयन्ति च-स्नानादिना पुष्पधूपैश्च पायसापूपलड्डूकादिभिर्विविध. वेद्यैश्च प्रतिमापूजा शाक्य आदि पचन, पाचन, तापन तथा प्रकाश आदि के लिए अग्निकर्म का समारंभ करते है, कराते हैं और करते हुए का अनुमोदन करते है, अतः वे पदकाय के विराधक हैं। दण्डी कहते है-' हम पंचमहाव्रतधारी हैं, जिनवचन के आराधक अनगार हैं। ये साध्वाभास सावद्य का उपदेश देते हैं और शास्त्रनिषिद्ध अग्निकर्म का समारंभ करवाते हैं। शास्त्र के व्याख्यान आदि में, देवकुल आदि में, प्रतिमा प्रतिश्रय और प्रतिष्ठा आदि में धूप दीप और हवन आदि द्वारा अग्निकर्म का आरंभ करवाते हुए दंडी देखे जाते हैं । वे ऐसा कहते हैं-- स्नान कराकर पुष्पों से, धूप से, खीर से, पूआ से, तथा लड्डू आदि से, तथा विविध प्रकार के नैवेद्य से प्रतिमा की पूजा करनी - શાય આદિ પચન, પાચન, તાપન તથા પ્રકાશ આદિ માટે અગ્નિકર્મને સમારંભ કરે છે, કરાવે છે અને કરનારને અનુદાન આપે છે. તેથી તે પટકાયના વિરાધક છે. દડી કહે છે કે અમે પંચમહાવ્રતધારી છીએ, જિનવચનના આરાધક અણગાર છીએ.” એ સાધવાભાસ સાવદ્ય ઉપદેશ આપે છે. અને શાસ્ત્રનિષિદ્ધ અગ્નિકર્મને સમારંભ કરાવે છે. શાસ્ત્રના વ્યાખ્યાન આદિમા, દેવકુલ આદિમા, પ્રતિમા પ્રતિશ્રય તથા પ્રતિષ્ઠા આદિમાં ધૂપ, દીપ અને હવન આદિ દ્વારા અગ્નિને આરંભ કરાવતા હોય તેવા દડી જોવામાં આવે છે. તે એમ કહે છે કે -સ્નાન કરાવીને, પુષ્પોથી, ધૂપથી, ખીરથી, માલપૂવા તથા લાડુ આદિથી તથા વિવિધ પ્રકારનાં નિવેદ્યથી પ્રતિમાની પૂજા કરવી જોઈએ. જિન Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ आचांराङ्गसूत्रे कर्तव्येत्यादि । पुनः - जिनस्य वामपार्थे धूपः स्थापनीयः, दक्षिणपार्श्वे घृतपूर्णः प्रज्वालितः प्रदीपः स्थाप्यः, पायसापूपघृतपूरलड्डूकादि नैवेद्यमपि पुरतः स्थापनीयमित्यादि । तच्च विनाग्निकर्मसमारम्भं नोपपद्यते । ओषध्यर्थं काथादि, शुण्ठिपाकादि, पातुमुष्णोदकं, भोक्तुं विविधाहारं च कारयन्तीति ॥ सु० ६ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद - ' तत्थ ' इत्यादि । · मूलम् - तत्थ खलु भगवया परिष्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण - पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिघाय हेउं से सयमेवे अगणिसत्यं चाहिए। जिन भगवान् के बाई (डावी) और धूप रखना चाहिए और दाहिनी (जिमणी ) ओर घी से भग जलता दीप रखना चाहिए । सामने खीर, मालपुआ, घेवर और लड्डू आदि नैवेद्य रखना चाहिए " । ये सब अग्निकर्म का समारंभ किये बिना नहीं हो सकते । वे लोग ओषधि के लिए काथ वगैरह, सौंठ का पाक आदि, पीने के लिए गर्म जल और खाने के लिए विविध प्रकार के आहार बनवाते है | सू० ६ ॥ सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं: - 'तत्थखलु' इत्यादि । ---- मूलार्थ - -- इस विषय में भगवान्ने बोध दिया है । इसी जीवन के लिए, चन्दन, मानना और पूजा के लिए, जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, तथा दुःखो का निवारण करने के लिए वह स्वयं अग्निगस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से अग्निशत्रका ભગવાનની ડામી તરફ ધૂપ રાખવા જોઈએ. અને જમણી તરફ્ ઘીના ભરેલા મળતે દીપક રાખવા જોઈ એ. સામે ખીર, માલપૂવા, ઘેવર અને લાડુ' આદિ નૈવેદ્ય રાખવું જોઈએ. એ સર્વ અગ્નિકર્મના સમારભ કર્યા વિના થઈ શકતાં નથી, તે લેક ઔષધી માટે કવાથ વગેરે; સુંઠના પાક આદિ, પીવા માટે ગરમ જલ અને ખાવા भाटे विध-विध प्रहारना महार मनावरावे छे. (सु. ६ ) सुधर्मा भी भ्यू स्वाभीने हे छे:- 'तत्थ खलु ' त्यिाहि. મૂલા આ વિષયમાં ભગવાને બેધ આપ્યું છે. આ જીવન માટે વંદન, માનન, અને પૃથ્વને માટે, જન્મ-મરણથી મુક્ત થવા માટે તથા દુઃખેનું નિરાકણુ કરવા માટે તે પોતે અમિરાજના આરંભ કરે છે, અંન્ત પાસે અગ્નિશને આરંભ કરાવે છે, અને Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४०७ अग्निशस्त्रमारम्भकारणनिरूपणम् ५६७ समारंभइ, अण्णेहि वा अगणिसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अवोहीए ॥ सू० ७॥ छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेव अग्निशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा अग्निशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्याबोधये ॥ सू० ७॥ टीकातत्र अग्निकायसमारम्भे भगवता-श्रीमहावीरेण परिज्ञा-सम्यगवबोधः खलु प्रवेदिता-पतिबोधिता। कर्मवन्धसमुच्छेदार्थ जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतिबोधितमिति भावः । उपभोगद्वारम्लोकः कस्मै प्रयोजनायाग्निकायमुपमर्दयती ?-त्याह-'अस्य चैव जीवितस्ये' आरंभ करवाता है और अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है, सो यह उस के अहित के लिए है, यह अबोधि के लिए है ॥ सू० ७ ॥ टीकार्थ-अग्निकाय के समारंभ में श्री महावीरने सम्यक् उपदेश दिया है । आशय यह है कि-कर्मबंध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञाका आश्रय अवश्य लेना चाहिए, ऐसा उपदेश दिया है। उपभोगद्वारकिस प्रयोजन से लोग अग्निकाय की हिंसा करते है यह बतलाते है-इसी અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન કરે છે. તે એના (પિતાના) मडित भाट छे, ते ममाधि भाटे छे. (सू. ७) ટીકા–અગ્નિકાયના સમારંભમાં શ્રી મહાવીરે સમ્યફ ઉપદેશ આપે છે. આશય એ છે કે-કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીવે પરિક્ષાનો આશ્રય અવશ્ય લેવો જોઈએ. એ ઉપદેશ આપ્યો છે. पाग द्वा२ક્યા પ્રજનથી લોક અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. એ બતાવે છે–આ ક્ષણભંગુર Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ आचाराङ्गमुत्रे त्यादि । अस्यैव क्षणभङ्गुरस्य जीवितस्य = जीवनस्य मुखार्थ प्रकाशकरणार्थम्, ओदनादिरन्धनार्थं, धूमयानादिगतिसिद्धयर्थं चेत्यर्थः । तथा - परिवन्दन - माननपूजनाथ- परिचन्दनं प्रशंसा तदर्थं यथा - अग्नियन्त्रेण 'आतिशवाजी' इतिभाषा प्रसिद्धे क्षणनश्वरस्फुलिङ्गट्यादौ माननं = जनसत्कारः तदर्थं यथा - भूपादीन साइयितुं दीपमालाप निर्माणादौ । पूजनं=बत्ररत्नादिपुरस्कारलाभस्तदर्थं, यथा - देवप्रतिमाद्यये धूपदीपारात्रिककरणादौ । तथा - जातिमरणमोचनाय = जन्ममरणचन्मोचनार्थ, यथा-हवनादौ, दुःखप्रतिघातहेतुम् = वातरोगापनयनाथं शीतापनोदनार्थ स्वरविपृचिकादिनिवृत्त्यथ च दहनप्रतापनादौ स=नश्वरजीवनसुवाद्यर्थी स्वयमेव अग्निशवम् = अग्न्युपमर्दकं द्रव्यभावगस्त्रं समारभते = व्यापारयति अगभङ्गुर जीवन के सुख के लिए. प्रकाश करने के लिए, चावल आदि पकाने के लिए. रेल आदि चलाने के लिए, तथा अपनी प्रशंसा के लिए. जैसे- अन्नियन्त्र से क्षणविनश्वर चिनगारियाँ बरसाने के लिए अर्थात् 'अतिशवाजी' के लिए जन-सत्कार के लिए जैसेराजा कौर को प्रसन्न करने के उद्देश्य दीपमालिका जलाना या दीपकों के वृक्ष को रचना करना, तथा वन, ख्न आदि पुरस्कार पाने के लिए, जैसे- देवप्रतिमा आदि के लिए धूप-दीप आदि करना । तथा जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, जैसे हवन आदि में, दुखों का प्रतीकार करने के लिए, जैसे- वातरोग हटाने के लिए, ठंड दूर करने के चिर तथा ज्वर एवं विचिका दूर करने के लिए डांभ देना या तपाना आदि कार्य करने में | इन सब प्रयोजनों के लिए इस जीवन के सुख का अर्थी पुरुष स्वयं द्रव्य જીવનના સુખ માટે, પ્રકાશ કરવા માટે, ચેખા આદિ રાંધવા માટે, ફૂલ આદિ ચલાવવા માટે તથા પેાતાની પ્રશંસા માટે, જેમકે અગ્નિય ત્રથી ઘુવિનશ્ર્વર ચિનगारीओ पाववा भाटे, अर्थात् 'आतशमा भारे, ननुसार भाटे, प्रेम-शल વગેરેને પ્રસન્ન કરવાના ઉદ્દેશી દીપમાલિકા જગાવવી અથવા દીપકેાના વૃક્ષની રચના કરવી, તથા વજ્ર, રત્ન આદિ પુરસ્કાર પ્રાપ્ત કરવા માટે જેમ-દેવપ્રતિમા આદિ માટે ધૂપદીપ આદિ કરવું, તથા જન્મ-મરણુથી મુકત થવા માટે જેમ-હવન આદિમાં, દુઃખને પ્રતિકાર કરવા માટે જેમ-વાતરેગ હટાવવા માટે, ઢંડી દૂર કરવા માટે તથા જવરઅને કેલેરા દૂર કરવા માટેડાંમવું—આદિ કાય કરવામાં, આ સર્વ પ્રત્યે!જને માટે આ જીવનના સુખના અર્ધી પુરુષ પાતે દ્રવ્યભાવ રૂપે અગ્નિશસ્ત્રને dia Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ७ अग्निकायोपभोगः ५६९ अन्यैर्वा अग्निशस्त्रं समारम्भयति = उद्योजयति । अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति = अनुमोदयति । तत्-अग्निकायसमारम्भणं, तस्य = अग्निकायसमारम्भणं कुर्वतः, कारयितुः, अनुमोदयितुश्च, अहिताय भवति, तथा तत्, तस्य अबोधये = सम्यक्त्वाळाभाय, भवति ॥ मू० ७ ॥ तु तीर्थङ्करादिसमीपेऽग्निकायजीवस्वरूपं परिज्ञातं स एवं विभावयतीत्याह -' से तं. ' इत्यादि । मूलम् से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा खलु भगवओ अणगाराणं वा अंतिए, इहमेगेसिं णायं भवइ एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए, इचत्थं गढिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थे हिं भावरूप अग्निशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से आरंभ करवाता है और आरंभ करने वालों की अनुमोदना करता है । वह अग्निकाय का आरंभ, करने, कराने और अनुमोदन करने वाले के अहित और सम्यक्त्व की अप्राप्ति के लिए होता है | सू० ७ ॥ जिस ने तोथङ्कर आदि से अग्निकाय का स्वरूप समझ लिया है वह इस प्रकार विचार करता है: - ' से तं.' इत्यादि । मूलार्थ - - जो पुरुष तीर्थकर भगवान् या उनके अनगारों, से उपदेश सुनकर चारित्र अङ्गीकार कर के विचरता है, वह इस प्रकार सोचता है - संसार में किन्हीं - किन्हीं को ही यह ज्ञान होता है कि - यह ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । આરભ કરે છે. ખીજા પાસે આરંભ કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમાનન આપે છે–આ અગ્નિકાયને! આરંભ કરનાર, કરાવનાર અને કરનારને અનુમેાદન આપનારના અહિત અને સમ્યક્ત્વની અપ્રાપ્તિ માટે થાય છે. (સ. ૭) જેણે તીર્થંકર આદિ પાસેથી અગ્નિકાયનુ સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रमाणे विचार उरे छे:- 'सेतं ' इत्यादि. મૂલા—જે પુરુષ તીર્થંકર ભગવાન અથવા તે તેમના અણુગાર પાસેથી ઉપદેશ સાંભળી ચારિત્ર અંગીકાર કરીને વિચરે છે–તે આ પ્રમાણે વિચારે છે કેઃ–સંસારમાં अर्ध-अधनेन मा लघुवामां होय छे - ग्रंथ छे, म भोह छे, या भार- मृत्यु छे. प्र. आ.-७२ Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे अगणिकम्मसमारम्भेणं अगणिसत्थं समारम्भमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसह ॥ सु० ८ ॥ ५७० छाया सतत् संबुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेषां ज्ञातं भवति - एष खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः, इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः अग्निकर्मसमारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति | ० ८ ॥ टीका यः खलु भगवतः = तीर्थङ्करस्य, अनगाराणाम् = तदीयश्रमण निर्ग्रन्थानाम् वा अन्तिके श्रुत्वा = उपदेशं निशम्य आदानीयम् = उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं समुत्थाय =अङ्गीकृत्य विहरति स तत्=अग्निकायसमारम्भणं, संबुध्यमानः = अहितावोधिजनकत्वेन विज्ञाता भवति । स हि एवं विभावयति - इह - मनुष्यलोके, एकेषां = श्रमणनिग्रन्थोपदेशगृद्ध लोक नाना प्रकार के शस्त्रों से अग्निकर्म का आरंभ करके अग्निशस्त्र का व्यापार करता हुवा अन्य भी अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है || सू० ८ ॥ टीकार्थ - - जो पुरुष भगवान् तीर्थकर अथवा उन के अनगारों के निकट उपदेश सुनकर सर्वसावधयोग के व्यागरूप चारित्र को स्वीकार कर के विचरता है, वह अग्निकाय के समारंभ को अहितकर और अबोधिकर समझ लेता है । वह इस प्रकार सोचता है - इस मनुष्य लोक में, श्रमण निग्रंथो के उपदेश से આ નરક છે. ગૃદ્ધલેાક નાના પ્રકારના શસ્રાથી અગ્નિકમને સમારભ કરીને અગ્નિ શસ્ત્રના વ્યાપાર કરતા થકા અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. (સૂ. ૮) ટીકા—જે પુરૂષ ભગવાન તીર્થંકર અથવા તેમના અણુગારની સમીપ ઉપદેશ સાંભળીને સર્વ સાવધયેાગના ત્યાગરૂપ ચારિત્રના સ્વીકાર કરીને વિચરે છે, તે અગ્નિકાયના સમારંભને અહિતકર અને અખેાધિકર સમજી લે છે. તે આ પ્રમાણે વિચારે છે કેઃ-આ મનુષ્ય લેકમાં શ્રમણ નિયંન્ધના ઉપદેશથી Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ स. ८ अग्निसमारम्भदोपः ५७१ संजातसम्यगववोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञातं विदितं भवति । किं ज्ञातं भवती ? -त्याकाङ्क्षायामाह-' एप खलु ग्रन्थः' इत्यादि । एषा अग्निशस्त्रसमारम्भः, खलु-निश्चयेन, ग्रन्थः-प्रथ्यते बध्यतेऽनेनेतिग्रन्थः अष्टविधकर्मवन्धः। कारणे कार्योपचारात् कारणभूतोऽग्निशस्त्रसमारम्भ एव कर्मवन्धरूपो ग्रन्थ इत्युच्यते । एवमग्रेडपि बोध्यम् । तथा-एषः अग्निशस्त्रसमारम्भः मोहः विपर्यासा=अज्ञानम् । तथा-एष एव मारःमरणं-निगोदादिमरणरूपः। तथाएष नरका=नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यथ एतदथै, कर्मवन्ध-मोह-मरण-नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनःपुनरेतदर्थमेव, लोक: अज्ञानवशवर्ती जीवः गृद्धः लिप्सुरस्ति । यद्वा-गृद्धःजिन्हें सम्यग्ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो गया है. उन आत्मार्थी पुरुषो को ही विदित होता है। क्या विदित होता ? सो कहते है-'यह ग्रंथ है' इत्यादि । ___यह अग्निशस्त्र का समारंभ निश्चय ही आठ प्रकार का कर्मबंध है । कारण में कार्य का उपचार करने से अग्निशस्त्र के समारंभ को ही कर्मबंध कहा है, वास्तव में यह समारम्भ कर्मबन्ध का कारण है । इसी प्रकार आगे भी समजना चाहिए। तथा यह अग्निसमारंभ मोह है-विपर्यास है-अज्ञान है। तथा यह समारंभ मृत्युरूप है-निगोद आदि मरणरूप है । और यह नरक है-नरक को दश प्रकार की यातनाओं का स्थान है । कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप घोर दुःखमय फल प्राप्त करके भी अज्ञानी જેને સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે, તે આત્માથી પુરૂષને જ જાણવામાં હોય છે. શું જાણવામાં હોય છે? તે કહે છે-“આ ગ્રંથ છે.” આદિ. આ અગ્નિશસ્ત્રનો આરંભ નિશ્ચય-નકકી જ આઠ પ્રકારના કર્મબંધ છે. કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવાથી અનિશસ્ત્રના સમારંભનેજ કર્મબંધ કહ્યો છે. વાસ્તવિક રીતે આ સમારંભ કર્મબંધનુ કારણ છે. આ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું જોઈએ. તથા આ સમારંભ મોહ છે–વિપર્યાસ–અજ્ઞાન છે, તથા આ સમારંભ મૃત્યરૂપ છે-નિગોદ આદિ મરણરૂપ છે. અને આ નરક છે-નરકની દસ પ્રકારની યાતનાઓનું સ્થાન છે. કર્મબંધ, મેહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘેર દુઃખમય કુલ પ્રાપ્ત કરીને પણ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ૭૨ आचारागसत्र भोगामिलापी लोकः संसारी जीवः इत्यर्थम् एतदर्थमेव-कर्मवन्धमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तते इति शेषः। अयं भावः-भोगाभिलापी लोकः शरीरादिपरिपोषणार्थं परिवन्दनमाननपूजनाथै जातिमरणमोचनाथै दुःखप्रतिघाताथै चाग्निशस्त्रसमारम्भं करोति, तत्फलं खलु कर्मवन्ध-मोह-मरण-नरकरूपमेव लभते, तस्मादग्निशस्त्रसमारम्भस्य तदेव फलं वोध्यमिति । ___ 'लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव प्रवर्तते ' इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-'यदिमम् .' इत्यादि । यद्यस्माद् , विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तप्रकारः अग्निकर्मजीव वार-चार इसी की इच्छा करते है । अथवा भोगो का अभिलाषी संसारी जीव ईस कर्मबंध, मोह मरण और नरक के लिए ही प्रवृत्त होते है। तात्पर्य यह है-भोगों का अभिलाषी लोक शरीर आदि का पोषण करने के लिए, वंदना, मानना और पूजा के लिए जन्म-मरण से मुक्त होने के लिए और दुःख का प्रतीकार करने के लिए अग्निशस्त्र का समारंभ करता है और फलस्वरूप कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप फल पाता है । अत एव अग्निशस्त्र के समारंभ का फल वही बंध आदि समझना चाहिए। 'लोक बार-बार कर्मबंध आदि के लिए ही प्रवृत्ति करता है' यह जो कहा है सो कैसे ज्ञात हुआ ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते है क्यों कि वह नाना प्रकार के पूर्वोक्तशस्त्रो से अग्नि की विराधना करने वाला અજ્ઞાની છવ વારંવાર તેની ઈચ્છા કરે છે. અથવા-ભેગોને અભિલાષી સંસારી જીવ આ કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરક માટેજ પ્રવૃત્ત થાય છે. તાત્પર્ય એ છે-ભેગેના અભિલાષી માણસે શરીર આદિનું પિષણ કરવા માટે વંદના, માનના અને પૂજને માટે, જન્મમરણથી મુક્ત થવા માટે અને દુઃખને પ્રતિકાર કરવા માટે અનિશ અને સમારંભ કરે છે અને ફલસ્વરૂપ કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરકરૂપ ફલને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલા માટે અગ્નિશસના સમારંભનું કુલ તે બંધ આદિ સમજવાં જોઈએ. લેક વારં-વાર કર્મબંધ વગેરે માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એવું જે કહ્યું તે કેવી રીતે જવામાં આવ્યું? આ પ્રમાણે જીજ્ઞાસા થવાથી કહે છે – કેમકે તે માને પ્રકાશ્મા પકત થી અગ્નિની વિરાધને કરવાવાળા માવળ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ सू. ८ अग्निसमारम्भदोषः ५७३ समारम्भेण=अग्न्युपमर्दनरूपसावधव्यापारण, इमम् अग्निकार्य विहिनस्ति । तथा अग्निशस्त्रं समारभमाणः व्यापारयन् अन्यान् पृथिवीकायादीन्, अनेकरूपान्त्रसान् स्थावरांश्च, प्राणान-माणिनो, विहिनस्ति-उपमर्दयति ॥ मू० ८॥ __ अग्निशस्त्रं समारभमाणा अनेकविधान् जीवान् कथ विहिंसन्ति ? तत्पतिबोधयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी पाह-' से बेमि'. इत्यादि। मूलम्से वेमि-संति पाणा पुढवीनिस्सिया तणनिस्सिया पत्तनिस्सिया कट्ठनिस्सिया गोमयनिस्सिया कयवरनिस्सिया, संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति, अगणिं च खलु पुडा एगे संघायमावज्जति, जे तत्य संघायमावज्जति. सावध व्यापार कर के अग्निकाय की हिंसा करता है और अग्निकाय का आरंभ करता हुआ अन्य पृथ्वीकाय आदि नाना प्रकार के स्थावर एवं त्रस प्राणियों का घात करता है । सू० ८॥ अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाले अनेक प्रकार के जीवों की विराधना किस प्रकार करते है । यह समझाने के लिए श्रीसुधर्मा स्वामी कहते है:-' से बेमि.' इत्यादि। मलार्थ--वही मै कहता हूँ-जीव पृथिवी के आश्रित है, तृण के आश्रित है, पतों के आश्रित है, काष्ठ के आश्रित हैं गोबर के आश्रित है, कचरे के आश्रित है; संपातिम जीव अचानक आकर अग्नि में पड़ जाते हैं, कोई-कोई अग्नि को छूकर सिकुड વ્યાપાર કરીને અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. અને અગ્નિકાયને આરંભ કરવા સાથે અન્ય પૃથ્વીકાય આદિ નાના પ્રકારના ત્રસ જીવે એ પ્રમાણે સ્થાવર પ્રાણીઓને धात ४२ छ. (सू. ८) અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળા અનેક પ્રકારના જીની વિરાધના કયા પ્રકાર (वी शत) ४२ छ १ ते सभqqा भाटे, श्री सुधर्मा भी ४ छ:-'से बेमिया મલાથ–તે હું કહું છું–જીવ પૃથ્વીના આશ્રિત છે. તૃણને આશ્રિત છે. પત્તાં– પાંદડાને આશ્રિત છે. લાકડાંને આશ્રિત છે. છાણને આશ્રિત છે. કચરાને આશ્રિત છે. સંપાતિમજીવ અચાનક આવીને અગ્નિમાં પડી જાય છે. જે સંકોચાઈ જાય છે. તે Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ आचारागसत्रे ते तत्थ परियावज्जति जे तत्थ परियावज्जति ते तत्थ उद्दायति ॥ सू० ९॥ छाया तद् ब्रवीमि-सन्ति प्रागाः पृथिवीनिश्रिताः तृणनिश्रिताः पत्रनिश्रिताः काष्ठनिश्रिताः गोमयनिश्रिताः कचवरनिश्रिताः, सन्ति संपातिमाः प्राणाः आहत्य संपतन्ति, अग्नि च खलु स्पृष्टा एके संघातमापद्यन्ते, ये तत्र संघातमापद्यन्ते ते तत्र पर्यापद्यन्ते, ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्रापदावन्ति ॥ मू० ९ ॥ टीकातद्-अग्निकायहिंसया यथा वहुविधाः प्राणिनः प्रणश्यन्ति, तद् ब्रवीमि= कथयामि, पृथिवीनिश्रिताः पृथिवीरूपं कायमाश्रित्य वर्तमानाः पृथिवीकायिका इत्यर्थः । 'पृथिवीनिश्रिताः' इत्युपलक्षणम् , तेन तदाश्रिताः कृमि-कुन्थु-पिपीलिका-भुजङ्गम-मण्डूक-वृश्चिक-कर्कटकादयो गृह्यन्ते । तथा च पृथिवीकायिकास्तदाश्रितास्त्रसाश्चेत्यर्थः, वृक्षलतादयश्च । तथा-वृणनिश्रिताः बनस्पतिकायिकाः, जाते है; जो सिकुड जाते है वे मूर्छित हो जाते है और जो मूर्छित हो जाते है वे मर भी जाते है ।सू० ९॥ टीकाथ--अग्निकाय की हिंसा से बहुत प्रकार के जीवो का घात होता है, सो में कहता हूँ-पृथिवी के सहारे रहने वाले जीव पृथिवीकायिकों के अतिरिक्त और भी बहुत से है । जैसे-कृमि, कुंथुवा, विउंटी, साप, मेंढक, बिच्छु, कैकडा, आदि । अतः पृथिवी आश्रित का अर्थ यहां पृथिवीकायिक स्थावर तथा त्रस जीव लेना चाहिए । वृक्ष और वेल आदि भी इसी में सम्मिलित हैं । तथा तृग-आश्रित वनस्पतिकाय के મૂચ્છિત થઈ જાય છે, અને જે મૂછિત થાય છે તે મરી પણ જાય છે. (સ. ૯) ટકાથ—-અગ્નિકાયની હિસાધી ઘણજ પ્રકારના જીવોને ઘાત થાય તે હું કહું પૃથ્વીને આગે રહેવાવાળા જીવ પૃથ્વીની સાથે બીજા પણ ઘણા છે. જેમ કૃમિ કુંચવા, કીડીઓ, સાપ, દેડકાં, વીંછી ફેંકડા આદિ. એ કારણથી પૃથ્વી આશ્રિતને અર્થ અદ્ધિ પૃથ્વીકાયિક રસ્થાવર તથા ત્રસ જીવ લેવા જોઈએ. વૃક્ષ અને વેલા-વેલ આદિ પણ તેમાં સચ્ચિલિત છે. તથા તૃઇ-આશ્રિત વનસ્પતિકાયના જીવ અને તૃણના આશ્રયે રહેવા Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीटपतङ्गनालादयः, अत्र काष्ठं शुष्कमिश्वरनिश्रिताः-कचवरः प्राणिनः सन्ति । आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ४ स. ९ अग्निसमारम्भदोषः ५७५ तृणमाश्रित्यावस्थायिनः मशककीटतणजलौकादयश्च, तथा-पत्रनिश्रिता' बनस्पतिकायिकाः पत्रमाश्रित्य निवासिनः पिपीलिकाभेदाः 'घोडन' इति मगधदेशे प्रसिद्धाः, कीटपतङ्गनीलशुप्रभृतयश्च, तथा-काष्ठनिश्रिताः काष्ठं शरणीकृत्य स्थिताः घुणोद्देहिका-तदण्डादयः, अत्र काष्ठं शुष्कमिन्धनरूपं सार्द्र च गृह्यते। तथा-गोमयनिश्रिताः गण्डूपदभूमिस्फोटादयः । तथा कचवरनिश्रिताः-कचवरः शुष्कतृणपत्ररजःसमुदायरूपः, तं निश्रिताः समाश्रिताः कृमिकुन्थुकीटादयः प्राणाः प्राणिनः सन्ति । तथा-संपातिमाः उत्प्लुत्योत्प्लुत्य पतनशीलाः, प्राणाः पाणिनः दंशमशकमक्षिकापतङ्गपक्षिपवनादयः सन्ति । एते संपातिमा आहत्य-अग्निशिखाकृष्टाः स्वयमेवोपेत्य, अग्नौ संपतन्ति । जीव और तृण के सहारे रहने वाले मच्छर कीडे और घास की जलोक (जौंक) आदि तृण-निश्रित कहलाते है । पतों के सहारे रहने वाले मगध देश में प्रसिद्ध घोडन तथा कीट, पतंग एवं नीलंगु (लट) आदि जीव हैं । धुन, उदई और उनके अण्डे आदि काठ के सहारे रहने वाले जीव काष्ठनिश्रित कहलाते हैं । यहाँ 'काष्ठ' शब्द से सूखा इंधनरूप काठ और गीला काठ, दोनों समझने चाहिए । तथा गोवर के आश्रित गिंडीला और भूमिस्फोटक (भूफोड) आदि जीव है । इसी केकार कचरे के सहारे रहने वाले कृमि कुंथुवा तथा कीडा वगैरह, ये सब प्राणी है । ___ उड-उड कर गिरने वाले डांस, मच्छर, मक्खी पतंग, पक्षी और पवन आदि संपातिम जीव कहलाते हैं । ये संपातिम जीव आग की शिखा से स्वयं आकार्षित हो कर आग में गिर जाते है। વાળા મચ્છર, કીડા અને ઘાસની જળે આદિ, તૃણ આશ્રિત કહેવાય છે. પત્તાં-પાંદડાંના આશ્રયે રહેવાવાળા મગધ દેશમાં પ્રસિદ્ધ ઘેડન તથા કીટ પતંગ અને નીલગુ લિટ) આદિ જીવ છે. ઘુણ ઉધેઈ અને તેનાં ઇંડાં આદિ–લાકડાના સહારે રહેવાવાળા જીવ કાછનિશ્રિત કહેવાય છે. અહિં કાષ્ટ શબ્દથી સૂકાં લાકડાંરૂપ કાષ્ટ અને લીલાં કાણ, આ બને સમજવા જોઈએ, તથા છાણમાં આશ્રય કરીને રહેલાં ગિડાળા અને ભૂફાડા આદિ જીવ છે. આ પ્રમાણે કચરાના આશ્રયે રહેવાવાળા કૃમિ, કુંથુવા તથા કીડા વગેરે, આ સર્વ પ્રાણી છે. ઉડી-ઉડીને પડવાવાળા ડાંસ, મચ્છર, માખી, પતંગ, પક્ષી અને પવન આદિ સંપતિમ જીવ કહેવાય છે. એ સંપાતિમ જીવ આગની–અગ્નિની શિખાથી પિતે આકર્ષિત થઈને અગ્નિમાં પડી જાય છે. Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ आचारागसूत्रे अग्निकायसमारम्भे पृथिव्यादिसमाश्रितानां स्थावराणां प्रसानां चोपमर्दनादिकं यथा भवति तद् दर्शयितुमाह-अग्नि चेत्यादि । एके-केचित् प्राणिनः, अग्निम् समुत्पादित प्रज्वालितं चाग्निकायं स्पृष्टाः स्पर्शकर्तारः, आपत्वात् कर्तरि क्तः ।। ____ संघात-पक्षादिदहनेन गात्रसंकोचनम् आपधन्ते, प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । तत्र अग्नी पतित्वा ये जीवाः संघातमापधन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते-तापाभिभूता मूर्ची प्राप्नुवन्तीत्यर्थः । ये तत्र अग्नौ पर्यापद्यन्ते, ते तत्र-अग्नौ, अपद्रावन्ति-माणान् परित्यजन्ति । अग्निसमारम्भेण केवलमनिकायविराधना न भवति, अपितु सर्वेदिक्संचारिणं त्रसानां पृथिव्यादीनां स्थावराणामपि बहुतराणां हिंसाऽवश्यं भवतीति भावः । अत एवोक्तं भगवता अग्निकाय का आरंभ करने से पृथिवी आदि में आश्रित स्थावरों और त्रस जीवों का विराधन किस प्रकार होता है ? सो कहते हैं । कोई-कोई प्राणी जलती अग्नि को स्पर्श करके सिकुड जाते हैं-उन के पंख वगैरह जल जाते हैं । अग्नि में पड कर जो जीव संघात को प्राप्त होते हैं वे गर्मी से मृच्छित हो जाते है । अग्नि में गिरने वाले अपने प्राण भी खो देते है। अग्नि का समारंभ करने से केवल अग्निकाय की ही विराधना नहीं होती वरन् समी दिशाओं में संचार करने वाले . त्रस और बहुत से स्थावर जीवों की भी हिंसा अवश्य होती है । इसी लिए भगवान् ने कहा है: અગ્નિકાયને આરંભ કરવાથી પૃથ્વી આદિમાં આશ્રય કરી રહેલાં સ્થાવર અને ત્રસ જીવેની વિરાધના જે પ્રકારે થાય છે, તે કહે છે– કઈ-કઈ પ્રાણી બળતી અગ્નિને સ્પર્શ કરીને સંકેચાઈ જાય છે. તેની પાંખ વગેરે બળી જાય છે. અગ્નિમાં પડીને જે જીવ સંઘાતને પ્રાપ્ત થાય છે તે ગરમીથી મૂછિત થઈ જાય છે. અગ્નિમાં પડવાવાળા જીવ જે મૂછિત થઈ જાય છે તે પિતાના પ્રાણ પણ ઈ નાખે છે. અગ્નિ સમારંભ કરવાથી કેવલ અનિકાયની વિરાધના થતી નથી, પરંતુ સર્વ દિશાઓમાં સંચાર કરવાવાળા ત્રસ અને ઘણુજ રઘાવર છની પણ હિંસા અવશ્ય થાય છે. એ માટે ભગવાને કહ્યું છે Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ सू. ९ अग्निसमारम्भदोपः ५७७ "जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमन्नयरं सत्थं, सबमोवि दुरासयं ॥१॥ पाईणं पडिणं वावि, उढं अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि य ॥ २ ॥ भूयाणमेसमाधाओ, हव्यवाहो न संसओ। तं पईवपयावट्ठा, संजओ किंचि नारभे ॥ ३॥"(दशवै० अ०६) छाया-जाततेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्ष्णमन्यतरत् शस्त्रं, सर्वतोऽपि दुरासदम् ॥ १ ॥ प्राच्या प्रतीच्या वापि, अर्वमनुदिक्ष्वपि । अधो दक्षिणतो वापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥ २ ॥ भूतानामेष आघातो, हव्यवाहो न संशयः । तं प्रदीपप्रतानार्थ, संयतः किञ्चिन्नारभेत ॥३॥ " साधु अग्नि को जलाने की इच्छा तक नहीं करते, क्यो कि वह एक वडा ही तीखा शस्त्र है, जो किसी भी और से दुस्सह है-सभी ओर से जलाता है ॥१॥ यह अग्निशस्त्र पूर्व से भी और पश्चिम से भी ऊपर से भी और विदिशाओं की तरफ से भी नीचे से भी और दक्षिण से भो तथा उत्तर से भी जलाता है ॥२॥ अग्नि जीवों का घातक है, इस में कोई संशय नहीं है । साधु दीपक जलाने तथा प्रतापने के लिए उस का जरा भी आरंभ नहीं करते ॥३॥ (दशवै. अध्य. ६) फिर भी कहा है સાધુ અગ્નિને સળગાવવાની ઈચ્છા સુધી કરતા નથી, કારણું તે એક મહાન ती २७ छे. ते पY माथी हुस्स छ-न्यारेय त२३थी माणे छ. " ॥२॥ આ અગ્નિશસ્ત્ર પૂર્વથી પણ અને પશ્ચિમથી પણ ઉપરથી અને વિદિશાઓની तरथी ५ नायथी मने क्षियुथी पशु भने उत्तरथी पर ाणे छ. ॥२॥ અગ્નિ જીવેને ઘાતક છે, તેમાં કાંઈ પણ સંશય નથી. સાધુ દીપક સળગાવવા तथा तापवान भाटे तना १२ Y मारल ४२ता नथी." ॥ 3 ॥ (श. मध्य. ६) ફરી પણ કહે છેप्र. भा.-७३ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - RDocucceenacao ५७८ आचारागसूत्रे "दो पुरिसा सरिसचया अन्नमन्नेहिं सद्धिं अगणिकाय समारंभंति, तत्य णं एगे पुरिसे अगणिकायं समुज्जालेति, एगे विझवेति, तत्थ णं के पुरिसे महाकम्मयराए ? के पुरिसे अप्पकम्मयराए ? गोयमा ! जे उज्जालेति से महाकम्मयराए, जे विज्झवेति से अप्पकम्मयराए "॥ छाया-द्वौ पुरुषौ सदृशवयस्को अन्यान्याभ्यां सार्द्धम् अग्निकार्य समारभेते, तत्र खलु एकः पुरुषः अग्निकार्य समुज्ज्यालयति, एको विध्यापयति, तत्र खलु कः पुरुषः महाकर्मतरकः ? कः पुरुषः अल्पकर्मतरकः ? । गौतम ! यः (अग्नि) उज्ज्वालयति स महाकर्मतरका, य (अग्नि) विध्यापयति स अल्पकर्मतरकः ( भगवती मूत्र०) ॥ सू० ९ ॥ तदेवमग्निकायहिंसया बहुतरजीवोपमर्दनं भवतीति विदित्वा त्रिकरणत्रियोगैः कृतकारितानुमोदितश्चाग्निशस्त्रसमारम्भो वर्जनीय इत्याह-एत्थ सत्यं' इत्यादि। “समान उम्र वाले दो पुरुष परस्पर अग्निकाय का आरंभ करते हैं । एक पुरुष अग्निकाय को जलाता है और एक बुझाता है। इन में से कौन-सा पुरुष महाकर्म बांधता है ? और कौन अल्पकर्म बांधता है ? । हे गौतम ! जो अग्नि जलाता है वह महा कर्म बाघता है और जो अग्नि बुझाता है वह अल्प कर्म वाधता है" (भगवतीसूत्र.) ॥ सू० ९|| इस प्रकार अग्निकाय की हिंसा होती है, यह जानकर तीन करण, तीन योग से, तथा कृत, कारित और अनुमोदना से अग्निशस्त्र का समारंभ त्याग देना चाहिए, यही बात कहते हैं-'एत्थ सत्यं.' इत्यादि। સમાન ઉમરવાળા બે પુરૂષ પરસ્પર અનિકાયનો આરંભ કરે છે. એક પુરૂષ અગ્નિકાયને સળગાવે છે. બાળે છે અને એક બુઝાવે–ઓલવે છે. તે બેમાંથી કયો પુરૂષ મહા કમ બાપે છે. અને કણ અ૫ કર્મ બાંધે છે ? હે ગૌતમ ! જે અગ્નિ સળગાવે છે--બાળે છે તે મહા કર્મ બાંધે છે. અને જે અગ્નિ બુઝાવે છે. તે म६५ ४भ मांधे छे." (लगती सूत्र.) (सू. ८) આ પ્રમાણે અગ્નિકાયની હિંસાથી ઘણુ પ્રકારના છની હિંસા થાય છે. એ જાણી કરીને ત્રણ કરવું, ત્રણ રોગથી તથા કરવું, કરાવવું અને અનુમોદનાથી मनिशबने। सभा त्यस देव मे, मे पात ४ -एत्य सत्य.' त्यादि. Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि टीका अध्य.१ उ.४ सू.१० अग्निकायसमारम्भनिषेधः ५७९ मूलम्एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिणाय मेहावी णेव सयं अगणिसत्थं समारंभेज्जा, नेवऽण्णेहिं अगणि-सत्थं समारंभावेज्जा अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे न समणु जाणिज्जा जस्सेते अगणिकम्मसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिण्णायकम्मे-त्ति वेमि ।। सु० १०॥ ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो ॥ १-४ ॥ छायाअत्र शस्त्र समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रसमारभगाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमग्निशस्त्रं समारभेत नैवान्यैरग्निशस्त्रं समारम्भयेत्, अग्निशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते अग्निकर्मसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा-इति ब्रवीमि ॥ मू० १०॥ ॥ चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥ १-४॥ टीका-- अत्र अस्मिन् अग्निकाये, शस्त्रं द्रव्यभावरूपं प्रागुक्तं :समारभमाणस्य मृलार्थ-अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाला इन आरंभो को नहीं जानता । अग्निशस्त्र का आरंभ न करने वाला इन आरंभो को जानता है । इन्हे जानकर बुद्धिमान् पुरुष स्वयं अग्निशस्त्र का आरंभ न करे, दूसरों से अग्निशस्त्र का आरंभ न करावे और अग्निशस्त्र का आरंभ करने वालो की अनुमोदना न करे । जो इन समारंभो का ज्ञाता होता है वही मुनि परिज्ञातकर्मा है, ऐसा मै (भगवान् के कथानानुसार) कहता हूँ ॥सू० १०॥ टीकार्थ--अग्निकाय में द्रव्य और भावरूप पूर्वोक्त शस्त्र का व्यापार करने મૂલાથ–અગ્નિશસ્ત્રનો આરંભ કરવાવાળા એ આરંભેને જાણતા નથી અગ્નિશઅને આરંભ નહિ કરવાવાળા એ આરંભેને જાણે છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ સ્વયં અનિશસ્ત્રને આરંભ ન કરે, બીજા પાસે અગ્નિશસ્ત્રને આરંભ કરાવે નહિ. અને અગ્નિશસ્ત્રનો આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જે આ સમારંભના જ્ઞાતા-જાણકાર હોય છે તે મુનિ પરિજ્ઞાતકમાં છે. એ પ્રમાણે હું (ભગવાનના qयनानुसा२) ४९ : (५. १०) ટીકાથ—અગ્નિકાયમ દ્રવ્ય અને ભાવ૫ પૂર્વેત શરૂને વ્યાપાર (ઉપગ) Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे व्यापारयतः, इत्येते=पचनपाचनादयः आरम्भाः सावधव्यापाराः, अपरिज्ञाताः= अष्टविधकर्मवन्धकारणत्वेनाविज्ञाता भवन्ति, अग्निकाये शस्त्रं प्रयुब्ञानस्य परिज्ञाया अभावादिति भावः । ___अत्र-अस्मिन् अप्काये शस्त्रम्-पूर्वोक्तस्वरूपम्, असमारभमाणस्य-अप्रयुब्जानस्य, इत्येते पचनपाचनादयः, आरम्भासावधव्यापाराः, परिज्ञाताः ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाताः भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यक्ता भवन्तीत्यर्थः । ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा समुद्भवति तथा दर्शयति-तत् परिज्ञाये'-त्यादि । तत्=अग्निकायारम्भणं, परिज्ञाय='कर्मबन्धाय भवती'. त्येवमवबुध्य, मेधावी हेयोपादेयविवेककुशलः, साधुमर्यादावधानशील इति यावत्, नैव स्वयमग्निशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैरग्निशस्त्रं समारम्भयेत्, अग्निशस्त्रं वाले को अर्थात् पचन-पाचन आदि पापमय कार्य करने वालो को यह ज्ञान नहीं होता कियह कार्य आठ प्रकार के कर्मों के बंध का कारण है, क्यों कि अग्निकाय के शस्त्र का प्रयोग करने वाले में परिज्ञा का अभाव होता है । ___ अग्निकाय में पूर्वोक्त शस्त्र का व्यापार न करने वाले को सावध व्यापारो का ज्ञान होता है । वह ज्ञपरिज्ञा से उन्हें जानता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देता है। ज्ञपरिज्ञा के बाद प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार उत्पन्न होती है ? सो कहते हैंअग्निकाय का आरंभ कर्मबंध का कारण है, यह जानकर हेय-उपादेय के विवेक में प्रवीण साधुमर्यादा का ध्यान रखने वाला स्वयं अग्निशस का आरंभ नहीं करता, दूसरों से કરવાવાળાને અર્થાપન-પાચન આદિ પાપમય કાર્ય–કરવાવાળાને એ જ્ઞાન હોતું નથી કે આ કાર્ય આઠ પ્રકારનાં કર્મોનાં બંધનું કારણ છે. કારણ કે અગ્નિકાયનાં શઅને પ્રયોગ કરવાવાળાઓમાં પરિસ્સાને અભાવ હોય છે. અગ્નિકાયમાં પૂર્વોક્ત અને વ્યાપાર-ઉપયોગ નહિ કરવાવાળાને સાવદ્ય વ્યાપારેનું જ્ઞાન હોય છે. તે જ્ઞપરિજ્ઞાથી તેને જાણે છે, અને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરી આપે છે. પરિક્ષાની પછી પ્રત્યાખ્યાન પરિશ્તા કયા પ્રકારે ઉત્પન્ન થાય છે? તે કહે છે – અગ્નિકાયનો આરંભ કર્મબંધનું કારણ છે. એ પ્રમાણે જાણીને હેય-ઉપાદેયના વિવેકમ પ્રવ-કુશળ સાધમર્યાદાને ધ્યાન રાખવાવાળા પોતે અગ્નિશઅને આરંભ કરતા નથી; બીજા પાસે ગારંભ કરાવતા નથી, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુદન Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.४ सू. १० अग्निकायसमारम्भनिषेधः ५८१ समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् नानुमोदयेत् । शेपं सुगमम् । यस्यैते अग्निकर्मसमारम्भाः कर्मणां समारम्भाः कर्मसमारम्भाः, अग्नेः कर्मसमारम्भाः अग्निकर्मसमारम्भाः अग्निं निमित्तीकृत्य कर्मकारणीभूताः उपमर्दनव्यापारा इत्यर्थः,परिज्ञाताः =सर्वथा ज्ञाताः, ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिवर्जिता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा-परिज्ञातानि=ज्ञपरिज्ञया स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्चावगतानि प्रत्याख्यानपरिज्ञयाच परित्यक्तानि कर्माणि सावधव्यापाराः येन-स परिज्ञातकर्मा मनोवाकायैः सकलसावधकरणकारणानुमतिनिवृत्तो मुनिर्भवतीत्यर्थः । 'इति ब्रवीमि' अस्य व्याख्यानं पूर्ववद् बोध्यम् । ॥ इत्याचारागसूत्रस्याऽऽचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने चतुर्थो देशकः संपूर्णः ॥ १-४॥ आरंभ नहीं कराता और आरंभ करने वालों की अनुमोदना नहीं करता । शेष भाग सुगम हैं। __अग्नि के निमित्त से होने वाले तथा कर्मबंध के कारणभूत यह सब पापमय व्यवहार जिस ने कर्मबंध के कारण ज्ञपरिज्ञा से समझ कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिये है वही परिज्ञातकर्मा मुनि है । जिसने इन व्यापारों का स्वरूप, फल और कारण ज्ञपरिज्ञा से जान लिया है तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग कर दिया है उसे परिज्ञातकर्मा मुनि कहते है । ऐसा मुनि मन, वचन काय से समस्त सावद्य के करने, कराने और अनुमोदन करने का त्यागी होता है । 'इति ब्रवीमि' की व्याख्या पहले के समान समझ लेना चाहिए ।।सू० १०॥ श्रीआचारागसूत्रकी 'आचारचिन्तामणि' टोकाके हिन्दी अनुवादमें प्रथम अध्ययनका चौथा उद्देश सम्पूर्ण ॥ १-४॥ આપતા નથી. શેષ–બાકીને ભાગ સુગમ છે. અગ્નિના નિમિત્તથી થવાવાળા તથા કર્મબંધના કારણભૂત આ સર્વ પાપમય વ્યવહારને જેણે કર્મબંધના કારણે સપરિણાથી સમજીને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યાગ કરી આપે છે તેને પરિજ્ઞાતકર્મ મુનિ કહે છે. એવા મુનિ-મન, વચન, કાયાથી समस्त साधने ४२, ४२१j मने मनुभाहन ४२७ तेना त्यागी डाय छ ' इति ववीमि 'नी व्याज्या प्रथम ना समान सम सेवी से. (स. १०) શ્રી આચારાંગસૂત્રની “આચારચિંતામણિ ટીકાના ગુજરાતી-અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનને या। देश: संपू. (१-४) Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૧૮૨ आचाराङ्गसूत्रे अथ पञ्चमोद्देशक:चतुर्थोदेशेऽग्निकायस्वरूपं मुनित्वप्राप्तये प्रतिबोधितम् । साम्प्रतं तदर्थमेव क्रमप्राप्तवासुकायप्रतिवोधनावसरे वनस्पतिकायजीवस्वरूपं प्रतिबोधयितुकामः पञ्चमोदेशकमुपक्रमते-'तं णो'. इत्यादि। ननु क्रममाप्तवायुकायप्रतिवोधनं कथं न प्रक्रम्यते ? उच्यते-वायुकायः प्रत्यक्षतया दृष्टिगोचरो न भवति, अतस्तत्र श्रद्धा झटिति नोदेतुं प्रभवति, पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवस्वरूपं प्रतिबुध्य तु सुतरां वायुकायो विज्ञास्यते, अतः स एव क्रमो गुरुभिरुपादेयो भवति, येन जीवादितत्त्वविज्ञानाय शिष्याः ___पंचम उद्देशकचौथे उद्देश में साघुता प्राप्त करने के लिए अग्निकाय का स्वरूप समझाया है। इसी के लिए क्रम के अनुसार वायुकाय का स्वरूप समझाने के प्रसंग में वनस्पतिकाय का स्वरूप बतलाने के लिए पाचवा उद्देश आरंभ करते है-'तं णो.' इत्यादि । प्रश्न-क्रम के अनुसार वायुकाय का स्वरूप क्यों नहीं बतलाया गया है ? और वायुकाय को छोडकर वनस्पतिकाय के विवेचन का उद्देश्य क्या है ? उत्तर-बात यह है कि वायुकाय नेत्रों से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता-सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय से उस की प्रतीति होती है । इस कारण उस के विषय में जल्दी श्रद्धा नहीं होती । हाँ, पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों का स्वरूप समझ लेने पर वायुकाय सहज ही समझ में आ जायगा । गुरुजन वही क्रम काम में लाते है जिस से शिष्य जीवादि यम देश:ચોથા ઉદ્દેશકમાં સાધુતા પ્રાપ્ત કરવાને માટે અગ્નિકાયનું સ્વરૂપ સમજાવ્યું છે. આ માટે જ ક્રમ અનુસાર વાયુકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવાના પ્રસગે વનસ્પતિકાયનું २५६५ मतावाने भाटे पां-यमा देशन मास ४२ छ-'तं णो.' त्यादि. પ્રશ્ન–કમ પ્રમાણે વાયુકાયનું સ્વરૂપ શા માટે બતાવ્યું નથી અને વાયુકાયને છેડીને વનસ્પતિકાયના વિવેચનમાં કયે ઉદ્દેશ્ય છે ઉત્તર–વાત એ છે કે-વાયુકાય નેત્રથી પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવતું નથી. માત્ર સ્પેન્દ્રિયથી તેની પ્રતીતિ થાય છે. આ કારણથી તેના વિષયમાં જલદી શ્રદ્ધા થતી નથી. હા, પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિય જીવોનું સ્વરૂપ સમજી લીધા પછી વાયુકાય સહેજે સમજવામાં આવી જશે. ગુજન આ કમને કામમાં લાવે છે, જે વડે કરી શિવ્ય છવાદિ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. १ सू. ५ उपक्रमः स्वयमेवोत्सहन्ते, तस्माद् वायुकायस्वरूपमनभिधाय वनस्पतिकायः प्रथमं प्रस्तूयते-- 'तं णो.' इत्यादि । यहा-अनन्तरचतुर्थोद्देशेऽग्निकायो दीर्घलोकशस्त्रशब्देनादौ प्रतिबोधितः । तत्र दीर्घलोकशब्दार्थों वनस्पतिरित्याशयं समधिगम्याग्निकायप्रकरणसमाप्त्यनन्तरं प्रथमं वनस्पतिकायस्वरूपं विज्ञातुकामस्य शिष्यस्य प्रतिवोधनाय पञ्चमं वनस्पतिकायोद्देशं कथयति-तं णो,' इत्यादि । __यथा वनस्पतिकायोपमर्दननिवृत्त्याऽनगारलं लभ्यते, तं प्रकारं निर्दिशति'तं णो.' इत्यादि। तत्त्वों के ज्ञान में उत्साहित हों । यही कारण है कि पहले वायुकाय का स्वरूप न कह कर वनस्पतिकाय का वर्णन किया जाता है-'तं णो'. इत्यादि । अथवा-चौथे उद्देश में अग्निकाय को 'दीर्घलोकशस्त्र' बतलाया है । दीर्घलोकका अर्थ वनस्पतिकाय है, यह आशय जानकर अग्निकाय के प्रकरण के पश्चात् ही शिष्य को वनस्पतिकाय का स्वरूप जानने की इच्छा होना स्वाभाविक है । जिज्ञासा के अनुरूप दिया हुआ उपदेश ही अधिक सफल होता है, अतः शिष्य की जिज्ञासा तृप्त करने के लिए पांचवें उद्देश में वनस्पतिकाय का कथन किया जाता है-'तं णो'. इत्यादि । वनस्पतिकाय की हिंसा से निवृत्त होने पर ही साधुता प्राप्त होती है, वह किस प्रकार प्राप्त होती है ? सो कहते हैं-'तं णो.' इत्यादि। તોના જ્ઞાનમાં ઉત્સાહિત થાય. આ કારણથી પ્રથમ વાયુકાયના સ્વરૂપને નહિ કહેતાં वनस्पतिशायर्नु पनि ४२वामा माव्यु छ-'तं णो.' त्यादि. अथवा-या। देशभi मनियर दीर्घलोकशन' तरी मताव्यु छे. દીર્ઘલેકને અર્થ વનસ્પતિકાય છે; એ આશયને સમજીને અગ્નિકાયના પ્રકરણની પછી જ શિષ્યને વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપને જાણવાની ઈચ્છા હોય–થવી તે સ્વાભાવિક છે. જીજ્ઞાસાને અનુરૂપ આપેલ ઉપદેશ જ અધિક સકલ થાય છે, એ કારણથી શિષ્યની જીજ્ઞાસા તૃપ્ત ४२वाने भाटे यांन्यमा देशमा वनस्पतियतुं विवेयन ४२पामा माव-तंणो.' त्याहि. વનસ્પતિકાયની હિંસાથી નિવૃત્ત થયા પછીજ સાધુતા પ્રાપ્ત થાય છે, તે કયા १२ प्राप्त थाय छे. ते ४ छ-'तं णो.' त्यादि Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ आचारागसूत्रे तं णो करिस्सामि समुट्ठाए मत्ता मइम, अभयं विदित्ता तं जे णो करए, एसोवरए एत्थोवरए, एस अणगारेत्ति पवुच्चइ ।। सू० १॥ छायातं नो करिष्यामि समुत्थाय मत्वा मतिमान् , अभयं विदित्वा तं यो नो कुर्यात् , एप उपरतः अत्रोपरतः, एपः अनगार इति प्रोच्यते ॥ सू० १॥ टीका-- मतिमान मेधावी श्रमणनिग्रन्थादिदेशनाश्रमणसंजातहेयोपादेयविवेकवानित्यर्थः । मत्वा वनस्पतिकायस्वरूपं विज्ञाय विभावयति-अहं समुत्थाय आत्मकल्याणार्थमुद्युक्तः सन् प्रव्रज्यां गृहीत्वा, तं वनस्पतिकायसमारम्भं नो करिष्यामीति । मूलार्थ-मेधावी पुरुष विचार करता है मैं आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर वनस्पतिकाय का आरंभ नहीं करूगा । जो पुरुष संयम को जानकर आरंभ नहीं करता है वही आरंभ से उपरत है-वही जिन शासन में आरंभ से निवृत्त कहलाता है । वही अनगार कहलाता है । सू० १॥ टीकार्थ-श्रमण निर्गन्थ आदि का उपदेश सुनने से जिसे हेय और उपादेय का विवेक उत्पन्न हो गया है वह वनस्पतिकाय का स्वरूप जानकर इस प्रकार विचार करता है:-मैं आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर-दीक्षा लेकर वनस्पतिकाय का आरंभ समारंभ नहीं करूंगा ॥ મૂલાથ–મેધાવી પુરૂષ વિચાર કરે છે-હું આત્મકલ્યાણ માટે તૈયાર થઈને વનસ્પતિકાયને આરંભ નહિ કરું. જે પુરૂષ સંયમને જાણીને આરંભ કરતા નથી તે આરંભથી ઉપરત છે, તે જ જિનશાસનમાં આરંભથી નિવૃત્ત કહેવાય છે, તેજ मागार वाय छे. ॥१॥ ટીકા-શ્રમણ નિર્ચ આદિને ઉપદેશ સાંભળવાથી જેને હેય અને ઉપાદેયને વિવેક ઉત્પન્ન થઈ ગયા છે. તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપને જાણીને આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે – હું આત્મકલ્યાણને માટે ઉઘત–તૈયાર થઈને-દીક્ષા લઈને વનસ્પતિકાયને આરંભ સમારંભ કરીશ નહિ. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिकाययतना ५८५ __अस्योद्देशस्य वनस्पतिकायविषयकतयाऽत्र तच्छब्देन वनस्पतिकायसमारम्भः परिगृह्यते । अत्र वनस्पतिकायस्वरूपविज्ञानानन्तरं तत्समारम्भवर्जनप्रतिज्ञाप्रदर्शनेन ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष इति प्रतिबोधितम् । यः अभयं नास्ति भयं यस्मात् कस्य चित् पाणिनः इत्यभयः सर्वप्राणिप्राणत्राणलक्षणः संयमः, तं-विदित्वा तं-वनस्पतिकायसमारम्भं नो कुर्यात् । एषः उपरतः वनस्पतिजीवविषये सर्वथा समारम्भाद् विनिवृत्तः, अत्र अस्मिन् जिनशासने उपरतः प्रोच्यते, इत्यन्वयः। तथा एषः पूर्वोक्तलक्षण उपरतः 'अनगारः' इति प्रोच्यते । अनगारगुणानां संपूर्णतया तत्र सत्त्वात् , स एवानगारशब्दवाच्योऽस्तीति भावः । अथ वनस्पतिकायस्य सम्यग्ज्ञानार्थ प्रागुक्ताष्टविधद्वाराणि निरूपणी यह उद्देश वनस्पतिकायसंबंधी है अतः यहाँ 'तत्' शब्द से वनस्पतिकाय का समारंभ लिया जाता है । पहले वनस्पतिकाय का ज्ञान होता है फिर उसके आरंभ का त्याग किया जाता है, यह बतलाकर सूचना की गई है कि मोक्ष, ज्ञान और क्रियादोनों से होता है। जिससे किसीभी प्राणी को भय नहीं ऐसा, प्राणीमात्र की रक्षारूप संयम अभय कहलाता है । उसे जानकर वनस्पतिकाय का समारंभ न करे । इस प्रकार वनस्पतिकाय के आरंभ से विरत पुरुष जिनशासन में 'उपरत' कहलाता है और वही उपरत पुरुष अनगार है, क्यों कि अनगार के गुण पूर्णरूप से उसीमें पाये जाते है। वनस्पतिकाय का स्वरूप सम्यक् प्रकार से जानने के लिए पूर्वोक्त आठ ॥ देश वनस्पतियसमधी छ. मे १२थी डिं 'तत्' श७४थी वनस्पतिકાય સમારંભ લેવામાં આવે છે. પહેલાં વનસ્પતિકાયનું જ્ઞાન થાય છે. પછી તેના આરંભને ત્યાગ કરવામાં આવે છે એ બતાવીને સૂચના કરવામાં આવી છે કે-જ્ઞાન અને ક્રિયા, આ બનેથી મોક્ષ થાય છે. જેનાથી કોઈ પણ પ્રાણીને ભય થાય નહિ. એ પ્રમાણે પ્રાણીમાત્રની રક્ષા૫ સંયમ તે અભય કહેવાય છે. તેને જાણીને વનસ્પતિકાયને સમારંભ કરે નહિ. આ પ્રમાણે વનસ્પતિના આરંભથી વિરત પુરુષ જિનશાસનમાં “ઉપરત કહેવાય છે. અને તેજ ઉપરત પુરુષ અનગાર છે. કારણ કે-અણગારના ગુણ પૂર્ણરૂપથી તેમાં જ જોવામાં આવે છે. વનસ્પતિકાયનું સ્વરૂપ સમ્યફપ્રકારે જાણવા માટે પૂર્વોકત આઠ દ્વારેનું નિરૂપણ प्र. आ-७४ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ आचाराङ्गसूत्रे यानि, तत्र लक्षण - प्ररूपणा - शस्त्रो - पभोगद्वाराणि प्रदर्शयामोऽस्मिन्नुद्देशे, शेपाणि तु पृथिवी काय वदवगन्तव्यानि । लक्षणद्वारम् ननु कथमिदं विज्ञायते - वनस्पतिकाय: सचित्तोऽस्तीति ? उच्यते - युक्तत्यागमाभ्यां वनस्पतिकायस्य सचित्तत्वं निर्णीयते । तथाहि वृक्षलतादयो जीवशरीराणि दृश्यत्वात्, करचरणादिसमुदायवत् । तथा वृक्षादयः कदाचित् सचित्ता अपि जीवशरीत्वात् करचरणादिसमुदायवदेव । द्वारों का निरूपण करना चाहिए | उनमें से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र और उपभोग द्वार यहाँ बतलाते है । शेष द्वार पहले कहे पृथ्वीकाय के समान समझ लेने चाहिए । लक्षणद्वार शङ्का – वनस्पतिकाय सचित्त है, यह कैसे जाना जा सकता है 2 समाधान -- युक्ति और आगम से वनस्पतिकाय की सचित्तता का निर्णय होता है । वह इस प्रकार - वृक्ष और लता आदि जीव के शरीर है, क्यों कि वे दृश्य हैं । जो दृश्य होते है वे सब जीव के शरीर होते है, जैसे आदि कभी-कभी सचित्त भी होते है, क्यों कि वे जीव हाथ-पैर शरीर है, होते हैं वे सचित्त होते है, जैसे हाथ-पैर आदि का समूह । के आदि । तथा-वृक्ष जो जीव के शरीर तथा - वृक्ष अव्यक्त १२ ले, तेभांथी सक्षय, अरूपया, परिभाष, शस्त्र भने उपलोग द्वार अडि मतावे छे. શેષ–બાકીના દ્વાર પ્રથમ પૃથ્વીકાયમાં જે કહ્યાં છે તેના પ્રમાણે સમજી લેવાં જોઇએ. लक्षागुद्वार- શકા—વનસ્પતિકાય સચિત્ત છે, એ કેવી રીતે જાણી શકાય છે? સમાધાન—યુક્તિ અને આગમથી વનસ્પતિકાયની સચિત્તતાનેા નિર્ણય થઈ શકે છે તે આ પ્રમાણે છે-વૃક્ષ અને લતા આદિ જીવના શરીર છે, કેમકે તે દૃશ્ય છે. જે દૃશ્ય હોય છે તે સર્વ જીવના શરીર હોય છે. જેવી રીતે હાથ-પગ આદિ. તથા વૃક્ષ દિ કૈાઈ કાઈ વખત સચિત્ત પણ હોય છે, કારણકે તે જીવના શરીર છે. જે જીવનાં ગરીર ટાય છે તે સચિત્ત હોય છે. જેમ હાથ-પગ આદિને સમૃદ્ધ. તથા વૃક્ષ અવ્યક્ત ઉપચેગ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ मू. १ वनस्पतिकाय सचित्तता ५८७ तथा-वृक्षाः अव्यक्तोपयोगमुखादिमन्तः, अव्यक्तचेतनावत्त्वात्, सुप्तमूच्छितपुरुषवत् । अत्र वनस्पतीनां दृश्यत्वहेतुना जीवशरीरत्वं सिद्धयति, ततश्च सचित्तत्वम् । अपरञ्च-वृक्षाः सचेतनाः, सर्वत्वगपहरणे मरणात्, अजवत् । वनस्पतिकायस्य सचेतनत्वमग्रेऽपि साधयिष्यते-'से वेमि-इमंपि जाइधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं' इत्यत्र। यद्वा--अव्यक्तोपयोगादीनि कषायपर्यन्तानि जीवलक्षणानि पृथिवीउपयोग (चेतना) और सुख आदि से युक्त है, क्यों कि उन में अव्यक्त चेतना हैं, जो अव्यक्त चेतनावाला होता है वह अव्यक्त चेतनावाला और सुख आदि वाला होता है, जैसे सुप्त या मूर्च्छित पुरुष । इस प्रकार 'दृश्यत्व' हेतु से सिद्ध होता है कि-वनस्पति, जीव का शरीर है और जीव का शरीर होने के कारण सचित्त भी है । इसके अतिरिक्त और भी प्रमाण है । जैसे वृक्ष चेतनावान् है क्यों कि उनकी सारी त्वचा (छाल) हटाने पर उनकी मृत्यु हो जाती है, सारी त्वचा हटाने पर जिस की मृत्यु हो जाती है वह सचेतन ही होता है, जैसे बकरा । वनस्पतिकाय को सचेतनता आगे भी-'से बेमि-इमंपि जाइधम्मयं एयपि जाइधम्मयं' इस सूत्र की व्याख्या करते हुए सिद्ध की जायगी। अथवा--अव्यक्त उपयोग से लेकर कषायपर्यन्त जीव के जो लक्षण पृथ्वी (ચેતના) અને સુખ આદિથી યુક્ત છે, કેમકે તેમાં અવ્યક્ત ચેતના છે. જે અવ્યકત ચેતનાવાળા હોય છે તે અવ્યકત ચેતનાવાળા અને સુખ આદિવાળા હોય છે. જેમ સુતેલા અથવા મૂચ્છિત પુરૂષ. આ પ્રકારે “દક્ષ્યત્વ હેતુથી સિદ્ધ થાય છે કે-વનસ્પતિ જીવનું શરીર છે અને જીવનું શરીર હોવાના કારણે સચિત્ત પણ છે એની સાથે બીજું પણ પ્રમાણ છે. જેમકે-વૃક્ષ ચેતનાવાનું છે કેમકે તેની તમામ ચામડી-છાલ કાઢી નાંખવાથી તેનું મૃત્યુ થઈ જાય છે. તમામ છાલ કાઢી નાંખવાથી જેનું મૃત્યુ થઈ જાય છે તે ચેતન १ हाय छे. रवी शत ५४२१. वनस्पतिशायनी येतनता माग ५-से वेमि-इमंपि जाधम्मयं एयंपि जाइधम्मयं' २मा सूचनी व्याश्या ४२ती मते सिद्ध ४२पामा माशे. અથવા–અવ્યકત ઉપયોગથી લઈને કષાય સુધી જીવના જે લક્ષણ પૃથ્વીકાયનાં Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ आचाराङ्गसूत्रे कायोदेशे प्रागभिहितानि, तेषां जीवलक्षणानां वनस्पतिकायेऽपि सद्भावाद् वनस्पतिः सचित्तोऽस्ति, मनुष्यवदिति निणर्णीयते । अपिच बनस्पतिः सचेतनः, बालाद्यवस्थासंदर्शनात्, अनुकूलप्रतिकूलाहारादिना पुष्टिकार्यादिदर्शनात्, छेदनभेदनादिना म्लानतादिदर्शनाच मनुष्य-शरीरवत् । ___यथा मनुष्यशरीरमनुकूलेनाहारादिना पुष्यति, तत्प्रतिकूलेन तदभावेन च शुष्यति, एवं वनस्पतिरप्यनुकूलजलवातादिभिः पुष्यतिः प्रतिकूलजलवातादिभिश्च शुष्यति । यथा वा छेदनादिना मनुष्यशरीरं हस्तादि म्लायति, तथा काय के उद्देश में पहले कहे गये है वे सब वनस्पतिकाय में भी पाये जाते है । इस कारण वनस्पति मनुष्य आदि के समान सचित्त है । ___ तथा--वनस्पति सचेतन है, क्यों कि उस में बाल्यावस्था आदि देखी जाती है, अनुकूल आहार से पुष्टि और प्रतिकूल आहार से कृशता आदि दिखाई देती है, और छेदन-भेदन आदि करने से मुरझाना वगैरह देखा जाता है, जैसे मनुष्य का शरीर । तात्पर्य यह है कि जैसे मनुष्य का शरीर अनुकूल आहार आदि से पुष्ट होता है और प्रतिकूल आहार से या आहार के अभाव से सूख जाता है, उसी प्रकार वनस्पति भी अनुकूल जल-वायु आदि से पुष्ट होती है और प्रतिकूल जल-वायु आदि से सूख जाती है । अथवा जैसे छेदन-भेदन करने से मनुष्य का शरीर हाथ आदि मुरझा ઉદ્દેશમાં પહેલા કહ્યાં છે, તે સર્વ વનસ્પતિકાયમાં પણ જોવામાં આવે છે. આ કારણથી વનસ્પતિ મનુષ્ય આદિના સમાન સચિત્ત છે. તથા–વનસ્પતિ સચેતન છે, કેમકે તેમાં બાલ્યાવસ્થા આદિ અવસ્થાઓ જોવામાં આવે છે. અનુકૂલ આહારથી પુષ્ટિ અને પ્રતિકૂલ આહારથી કૃશતા–દુર્બલતા આદિ દેખાય છે, અને છેદન, ભેદન આદિ કરવાથી મુરઝાઈ જવું–કરમાઈ જવું સુસ્ત કે ખિન્ન થવાપણું વગેરે જોવામાં આવે છે. જેવી રીતે મનુષ્યનું શરીર, તાત્પર્ય એ છે કે જેમ મનુષ્યનું શરીર અનુદ્દલ આહાર આદિથી પુષ્ટ થાય છે, અને પ્રતિકુલ આહારથી અથવા તે આહારના અભાવથી સુકાઈ જાય છે તેવી રીતે વનસ્પતિ પણ અનુકૂલ જલ, વાયુ આદિથી પુષ્ટ થાય છે, અને પ્રતિકૃલ જલ વાયુ આદિથી સુકાઈ જાય છે. અથવા જેવી રીતે છેદન -ભેદન કરવાથી મનુષ્ય શરીરને વાઘ-પગ આદિ કરમાઈ જાય છે. તે પ્રમાણે પાંદડા, ફલ, ફુલ, આદિ વનસ્પતિ પણ છેદન-મેદન Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८९ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ५ सु. १ वनस्पतिसचित्तता पल्लव फलकुसुमादिरूपो वनस्पतिरपि छेदनादिना म्लायति, तस्माद् वनस्पतिः सचेतन इति सिद्धम् । यद्वा-वनस्पतिर्जीवः, चेतनावच्चात्, मनुष्यवत्, यथा मनुष्यस्य शब्दादिग्रहणशक्तिरूपा चेतना, तथैव वनस्पतौ समुपलभ्यते । तथाहि - वकुलादयो गीत - सुरागण्डूष-कामिनीचरणताडनादिभिः फलन्ति, शमीलज्जालुप्रभृतिषु च स्वापावबोधसंकोचादयो दृश्यन्ते । शापानुग्रहाभ्यामान्तरौ संकोचविकाशौ समस्तवनस्पतीनां भवतः । उक्तञ्च जाता है उसी प्रकार पत्ता, फल, फूल, आदि वनस्पति भी छेदन - भेदन आदि से मुरझा जाती है, इससे सिद्ध होता है कि वनस्पति सचेतन है । अथवा — वनस्पति जीव है; क्यों कि चेतनावाली है, जैसे मनुष्य । जैसेमनुष्य आदि में शब्द आदि को ग्रहण करने की शक्तिरूप चेतना है उसी प्रकार वनस्पति में भी शब्द आदि को ग्रहण करने की शक्तिरूप चेतना पाई जाती है । बकुल आदि के वृक्ष गोत, मदिरा का कुल्ला, कामिनी के पैर के ताडन आदि से फलते है । शमी तथा लज्जावती आदि में स्वाप, (सोना) अवबोध ( जागना ) और संकोच (सिकुडना) देखा जाता है । गाप और अनुग्रह से सब वनस्पति में संकोच और विकास होता है । कहा भी है : આદિથી કરમાઈ જાય છે સુકાઈ જાય છે, આ કારણથી સિદ્ધ થાય છે કે વનસ્પતિ સચેતન છે. અથવા—વનસ્પતિ જીવ છે, કેમકે-ચેતનાવાળી છે, જેમ મનુષ્ય. જેવી રીતે મનુષ્ય આદિમાં શબ્દ આદિને ગ્રહણ કરવાની શક્તિરૂપ ચેતના છે. તે પ્રમાણે વનસ્પતિમાં પણ શબ્દ આદિને મહેણુ કરવાની શક્તિરૂપ ચેતના જોવામાં આવે છે. ખકુલ આદિ વૃક્ષ ગીત, મદિરાના ગંડૂષ (કાંગલા), સ્ત્રીના પગથી થયેલું તાડન આદિથી ફળે છે. શમી તથા લજ્જાવતી (રીસામણી) આદિમાં સુઈ જવું જાગવું અને સ કેચાઈ જવું વગેરે જોવામાં આવે છે. શાપ અને અનુગ્રહથી સર્વ વનસ્પતિમાં સ ંકેાચ અને વિકાસ થાય છે. કહ્યું છે કેઃ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे "स्त्रीणां स्पर्शात् प्रियङ्गुर्विकसति वकुलः शीधुगण्डूपसेकात् , पादाघातादशोकस्तिलककुरवको वीक्षणालिङ्गनाभ्याम् । मन्दारो नर्मवाक्याचटुमृदुहसनाचम्पको वक्त्रवाताद् , वल्ली गीतान्नमेरुविकसति च पुरो नर्तनात् कर्णिकारः " ॥१॥ इति ॥ आगमोपि ___ “वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता, अन्नत्थ सत्थपरिणएणं " इति । (दशवै०) प्रदर्शितं चाधुनिकवैज्ञानिकैः प्रत्यक्षतया स्वकृतप्रयोगविशेषेण वनस्पतीनां सचित्तत्वम् , यथा-क्रोधादिमुन्नाटयतां तेपां गालीप्रदानादिभत्सनवाक्यतो "प्रियंगु का पेड स्त्रियों के स्पर्श से विकसित होता है, बकुल मदिरा के कुल्ले से खिल उठता है । अशोक वृक्ष स्त्री के पैर का आघात लगने से खिल जाता है । तिलक वृक्ष स्त्रियो के देखने से, तथा कुरवक उनके आलिंगन से खिल उठता है । मन्दार वृक्ष विनोदमय वाक्य सुनकर, चम्पक मृदुहँसी से, वल्ली वक्त्र (मुख) वायु से और नमेरु गीत से विकसित होता है । कनेर का पेंड सामने नाचने से खिल जाता है " ॥१॥ वनस्पति की सचेतनता आगम प्रमाण से भी सिद्ध होती है । दश वैकालिक सूत्र में कहा है-शस्त्रपरिणत को छोड़कर शेष सब वनस्पति सचित्त कहो गई है, वह अनेक जीववाली है और उन जीवों की सत्ता पृथक् पृथक् है"। __ आधुनिक वैज्ञानिकोंने अपने प्रयोगों द्वारा प्रत्यक्ष दिखला दिया है कि-वनस्पति सचित्त है । क्रोध आदि करने से-गाली देने या भर्त्सना करने से वृक्ष, लता आदि પ્રિયંગુને છોડ સ્ત્રીઓના સ્પર્શથી વિકસિત થાય છે, બકુલ મદિરાના કેગળા કરવાથી ખિલી ઉઠે છે. અશોક વૃક્ષ સ્ત્રીના પગને આઘાત લાગવાથી ખિલી ઉઠે છે. તિલક વૃક્ષ સ્ત્રીઓને જેવાથી તથા કુરવક સ્ત્રીઓના આલિંગનથી ખિલી ઉઠે છે. મન્દાર વૃક્ષ વિનદમય વાક્ય સાંભળીને, ચમ્પક મૃદુ હાંસીથી, વલ્લી વકત્ર (મુખ) વાયુથી અને નમેરુ ગીતથી વિકસિત થાય છે. કનેરને છોડ તેના સામે નાચવાથી ખિલે છે. તેના વનસ્પતિની સચેતનતા આગમપ્રમાણેથી પણ સિદ્ધ થાય છે. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છે-“શસ્ત્રથી પરિણત- છેદાએલી)ને છોડીને બાકીની સર્વ વનસ્પતિ સચિત્ત કહેલી છે, તે અનેક જીવવાળી છે, અને તે જીવોની સત્તા પૃથ–પૃથક્ છે.” આધુનિક વૈજ્ઞાનિકોએ પોતાના પ્રયોગો દ્વારા પ્રત્યક્ષ-બતાવી આપ્યું છે કે વનસ્પતિ સચિત્ત છે. ક્રોધ આદિ કરવાથી, ગાળ દેવાથી અથવા તિરસ્કાર કરવાથી વૃક્ષ, લતા આદિ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सं. १ वनस्पतिसचित्तता वृक्षलतादयः संकोचमापद्यन्ते, स्तुतिवाक्यैश्च प्रवर्धन्ते, विकसन्ति चेति वनस्पतीनां सचेतनत्वे नास्ति केषाश्चिद् विवादः । ये तु सूक्ष्मा वनस्पतिकायास्ते चक्षुषा नैव दृश्यन्ते, अतस्तेषां सचित्तत्वं भगवद्वचनमात्रावगम्यमिति तत्रापि श्रद्धा करणीयैव । प्ररूपणाद्वारम्वनस्पतिजीवा द्विविधाः-सूक्ष्मवादरभेदात् । सूक्ष्माः सर्वलोके कज्जलकूपिकावत् संभृताः । बादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति । सूक्ष्माः पर्याप्तापर्याप्तभेदाद्विविधाः। बादरा द्विविधाः-प्रत्येकशरीर-साधारणशरीरभेदात् । एकमेकं जीवं संकोच को प्राप्त होते हैं और प्रशंसा करने से बढते, है और फूलते है अतः वनस्पति की सचित्तता में अब किसी को भी विवाद नहीं है । सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव आख से नहीं दिखाई देते । भगवान् के वचनों से ही जाने जा सकते है । उन पर श्रद्धा रखनी चाहिए । प्ररूपणाद्वारवनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म जीव समस्त लोकाकाश में काजल की कुप्पी की तरह भरे हुए है । बादर जीव लोक के एक-एक भाग में होते है। सूक्ष्म जीवों के भी दो भेद है-पर्याप्त और अपर्याप्त । बादर जीव प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर के भेद से दो प्रकार के है। સંકોચને પ્રાપ્ત થાય છે અને પ્રશંસા કરવાથી ફૂલે છે અને ખિલે છે એ કારણથી વનસ્પતિની સચિત્તતામાં હવે કોઈને પણ વિવાદ નથી. સૂક્ષમ વનસ્પતિકાયના જીવ નેત્રથી જોઈ શકાતા નથી. તે ભગવાનના વચનથી જ જાણી શકાય છે. તેના પર શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ. प्ररूपणाવનસ્પતિકાયના જીવ બે પ્રકારના છે (૧) સૂક્ષ્મ અને બાદર. સૂમ જીવ સમસ્ત લકાકાશમાં કાજલની કુપીની પ્રમાણે ભરેલા છે. બાદર જીવ લેકના એક-એક ભાગમાં હોય છે. સૂક્ષ્મ જીવોના પણ બે ભેદ છે. (૧) પર્યાપ્ત અને (૨) અપર્યાપ્ત. બાદર છવા પ્રત્યેક શરીર અને સાધારણશરીરના ભેદથી બે પ્રકારના છે. એક-એક જીવ સમ્બન્ધી Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ आचारागसूत्रे प्रति गतं प्रत्येकम् , प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः । प्रत्येकनामकर्मोदयवशादेफैकस्य जीवस्य शरीरमौदारिकं वैक्रियं वा पृथक् पृथग् भवति । एवम्भूता जीवाः प्रत्येकशरीरा उच्यन्ते । नारकदेवमनुष्याः, द्वीन्द्रियादयः, पृथिव्यादयः, वृक्षगुच्छादिवनस्पतयश्च प्रत्येकशरीरिणः सन्ति । इमे प्रत्येकाः प्रत्येकजीवा अपि कथ्यन्ते । प्रत्येकशरीरा द्वादशविधाः-वृक्ष-गुच्छ-गुल्म-लता-वल्ली-पर्वग-तृण-वलयरिती-पधि-जलरुह-कुहणभेदात् । तत्र वृक्षा द्विविधाः-एकास्थिकाः (एकवीजकाः) बहुवीजकाश्च । तत्रैकास्थिका अनेकविधाः-निम्बाम्रजम्बूकौशम्पादयः । बहुवीजका अप्यनेकविधाः एक-एक जीवसंबंधी शरीर प्रत्येकशरीर कहलाता है । प्रत्येकनामकर्म के उदय से एक-एक जीव के शरीर औदारिक और वैक्रिय अलग-अलग होता है । ऐसे अलग-अलग शरीर वाले जीव प्रत्येकशरीर कहलाते है-नारक, देव, मनुष्य द्वीन्द्रिय आदि, पृथ्वीकाय आदि तथा वृक्ष, गुच्छ आदि वनस्पतिजीव प्रत्येक शरीरी हैं। इन्हे प्रत्येक और प्रत्येकजीव भी कहते हैं। प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकाय बारह प्रकार के हैं-वृक्ष, गुच्छ गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषध, जलरुह और कुहण । इनमें वृक्ष दो प्रकार के है-एकास्थिक अर्थात् एक वीज वाले और बहुबीजक अर्थात् बहुत बीजों वाले । एक बीज वाले नीम, आम, जामन और कौशम्ब आदि अनेक प्रकार के है । बहुबीजक भी अनेक प्रकार के हैं । जैसे अस्थिक, तिन्दुक, શરીર પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. પ્રત્યેકનામકર્મના ઉદયથી એક–એક જીવના શરીર દારિક અને ક્રિય અલગ-અલગ હોય છે. એવા અલગ-અલગ શરીરવાળા જીવ પ્રત્યેક શરીર કહેવાય છે. નારક, દેવ, મનુષ્ય, દ્વીન્દ્રિય આદિ. પૃથ્વીકાય આદિ તથા વૃક્ષ, ગુચ્છ આદિ વનસ્પતિજીવ પ્રત્યેક શરીર છે. તેને પ્રત્યેક અને પ્રત્યેક જીવ પણ કહે છે. प्रत्येशरी वनस्पतिय मा२ प्रारना छ-वृक्ष, शु२७, शुक्ष्म, सता, पक्षी, पर्व, तृणु, १६य, रित, भौषध, ११२९ भने ए. એમાં વૃક્ષ બે પ્રકારના છે-એકાસ્થિક અર્થાત એક બીજવાળા, અને બસ્થિક અર્થાત્ ઘણાંજ બીજવાળાં. એક બીજવાળા-લીંબડ, આંબે, જાંબુ અને કૌશલ્બ, આદિ અનેક પ્રકારના છે. બહુબીજક એટલે ઘણા બીજવાળા પણ અનેક પ્રકારના છે. જેમકે – Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिप्ररूपणा ५९३ अस्थिक-तिन्दुक-कपित्था-म्बाडक-मातुलिङ्ग-बिल्वा-मलक-पनस-दाडिमादयः । ____ एकास्थिकानां वहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलैकजीवमाश्रित्य मूलकन्दस्कन्धखशाखाप्रवालेषु प्रत्येकमसंख्येया जीवाः सन्ति । एको मूलजीवस्तु मूलादिफल. पर्यन्तं सर्वावयवं व्याप्य वृक्षेषु तिष्ठति । नन्वेकास्थिकानां बहुवीजकानां च वृक्षाणां मूलकन्दस्कन्धत्वक्शाखादयः प्रत्येकमसंख्येयजीवाः सन्ति, इति यदुक्तं तत् कथमुपपद्यते, मूलादिफलपर्यन्ता वृक्षाः सर्वेऽप्येकशरीराकारा एवोपलभ्यन्ते, यथा-देवदत्तस्य शरीरमखण्डमेकरूपमुपलभ्यते तद्वत्, तस्मादेकशरीरात्मका एव वृक्षाः, कथममी प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवा इति ? उच्यते(तेंदू) कपित्थ (कविठ), अम्बाडक, मातुलिंग, बिल्व, आमला, पनस और दाडिम आदि । एकास्थिक और बहुबीजक वृक्षों में मूलके एक जीव के सहारे मूल, कंद, स्कंध, छाल, शाखा,और प्रवाल में अलग-अलग असंख्यात जीव हैं । एक मूल जीव, मूल से लेकर फल तक वृक्ष के सभी अवयवों में व्याप्त होकर रहता है। शंका--एक बीजवाले और बहुत बीज वाले वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा आदि प्रत्येक असंख्यात जीव वाले है, यह कथन सही कैसे हो सकता है ? मूल से लेकर फलपर्यन्त वृक्ष सभी एक शरीराकार ही उपलब्ध होते हैं, जैसे कि देवदत्त का शरीर अखंड एकरूप ही देखा जाता है । अतः वृक्ष एक-एक शरीररूप ही हैं । उन में असंख्यात प्रत्येक किस प्रकार हो सकते है ? मस्थि, तिन्दु, पित्थ, भा, भातुमि (मिन्नई), पि, (मोदी), मामi, પનસ અને દાડમ આદિ. એકાસ્થિક અને બહુબીજક વૃક્ષેમાં મૂળના એક જીવના આધારે મૂલ, કંદ, સ્કંધ છાલ, શાખા અને પ્રવાલમાં અલગ–અલગ અસંખ્યાત જીવ છે. એક મૂલ જીવ, મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષના સર્વ અવયવમાં વ્યાપ્ત થઈને રહે છે. શંકા-એકબીજવાળા અને બહુબીજવાળા વૃક્ષોના મૂળ, કંદ, સ્કન્ધ, ત્વચાછાલ, શાખા આદિ પ્રત્યેક અસંખ્યાત જીવવાળા છે. આ કથન સાચું છે એમ કેવી રીતે કહી શકાય ? અથવા એ કથન સાચું કેવી રીતે હેઈ શકે ? મૂલથી લઈને ફલ સુધી વૃક્ષ સર્વ એક શરીરાકારજ ઉપલબ્ધ થાય છે. જેમકે દેવદત્તનું શરીર અખંડ એકરૂપજ જોવામાં આવે છે. એ માટે વૃક્ષ એક એક શરીરરૂપજ છે. તેમાં અસંખ્યાત પ્રત્યેક શરીર કેવી રીતે હોઈ શકે છે? प्र. आ.-७५ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५९४ आचारागसूत्रे मूलस्कन्धादिषु तेपामसंख्येयानामपि जीवानां प्रत्येकनामकर्मोदयात् पृथक पृथगेव एकैकशरीरसद्भावेन प्रत्येकशरीरत्वं सिध्यति । ___ यद्यपि वृक्षाणां मूलादिषु प्रत्येकमसंख्येया अपि जीवाः परस्परं विभिन्नशरीराः, तथापि प्रबलरागद्वेपोपचिततथारूपप्रत्येकनामकर्ममाहात्म्यादेव परस्परं समाश्लिष्टाः संमिश्रिता भवन्ति । यथा श्लेपणद्रव्येण मिश्रीकृत्य निर्मितायां खसखसगुटिकायां प्रत्येकभागे स्वस्वसत्तया खसखसवीजानि तिष्ठन्ति । यथा वा-गुडमिश्रितैस्तिलैः कृतायां तिलपटिकायां तिलाः स्वस्वरूपेण वर्तन्ते, तथैव प्रत्येकशरीरा असंख्येयजीवाः मूलकन्दादिषु प्रत्येकं तिष्ठन्ति । साधारण ___समाधान-मूल और स्कन्ध आदि में उन असंख्यात जीवों के, प्रत्येकनामकम के उदय से अलग-अलग एक-एक शरीर हैं, अतः वे सब प्रत्येकशरीरी सिद्ध होते है। यद्यपि वृक्षों के मूल आदि में असंख्यात जीव हैं और उन सब के शरीर भिन्न-भिन्न है, फिर भी तीन राग-द्वेष के कारण उपार्जित प्रत्येकनामकर्म के प्रभाव से ही वे सब आपस में मिले हुए-से रहते है । जैसे किसी चिपकनी चीज में मिलाकर बनाई हुई खसखस की गोली के प्रत्येक भाग में खसखस के वीज अपना अलग-अलग अस्तित्व बनाये रखते है, अथवा जैसे गुड मिले तिलों की बनाई हुई तिलपपडी में तिलों के दाने अपने अपने स्वरूप में विद्यमान रहते है, उसी प्रकार प्रत्येकशरीरी असंख्यात जीव मूल, कन्द आदि में रहते हैं । साधारणवनस्पति से इन में यह भेद है कि प्रत्येकशरीरी સમાધાન–મૂલ અને સ્કંધ આદિમાં તે અસંખ્યાત જીવોના પ્રત્યેકનામકર્મના ઉદયથી અલગ-અલગ એક–એક શરીર છે, તે પણ તીવ્ર રાગદ્વેષના કારણે ઉપાર્જિત–પ્રાપ્ત કરેલા પ્રત્યેકનામકર્મના પ્રભાવથીજ તે સર્વ આપસમાં–પરસ્પરમાં મળેલા રહે છે, જેમ કેઈ ચિપકની (ચીકણીચાટી જાય તેવી ચીજમાં મેળવીને બનાવેલી ખસખસની ગોળીના પ્રત્યેક ભાગમાં ખસખસનાં બીજ પિતાનું અલગ અલગ અસ્તિત્વ બનાવી રાખે છે. અથવા જેમ ગોળ મેળવેલી તલની તલપાપડી–તલસાંકળીમાં તલના દાણા પિત–પોતાના સ્વરૂપમાં વિદ્યમાન રહે છે, તે પ્રમાણે પ્રત્યેક શરીરી અસંખ્યાત જીવ મલ, કંદ આદિમાં રહે છે. સાધારણ વનસ્પતિથી તેનામાં એ ભેદ છે કે પ્રત્યેક શરીર Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टोका अध्य. १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिप्ररूपणा ५९६ वनस्पतिभ्यस्त्वेतावान् विशेषः - प्रत्येकशरीराः परस्परं संमिश्रिता अपि भिन्ना एव तिष्ठन्ति, साधारणशरीरास्त्वन्योन्यानुविद्धा इति । पत्रेषु प्रत्येकं मूलजीवाद्भिन्न एकैको जीवः । उक्तं हि प्रज्ञापनायामेकास्थिकबहुवीजवृक्षप्ररूपणावसरे - " पत्ता पत्तेयजीविया " इति । तथा-तालसरलनालिकेरवृक्षाणां स्कन्धश्चैकजीवः । तदुक्तम्" णाणाविहठाणा, रुक्खाणं एगजीविया पत्ता । धोविएगजीवो, ताल - सरल - नाकिएरीणं "॥ छाया - नानाविध संस्थानानि, वृक्षणाम् एकजीविकानि पत्राणि । स्कन्धोऽपि एकजीवः, तालसरल नारिकेलानाम् || (प्रज्ञा० ) जीव आपस में मिले हुए भी भिन्न-भिन्न रहते है किन्तु साधारणशरीरवाले जीव आपस में अनुविद्ध - एक रूप होकर रहते है । तात्पर्य यह है कि - प्रत्येकशरीरी जीवों का शरीर अलगअलग होता है किन्तु इन साधारणशरीरी जीवों का शरीर एक ही होता है । पत्तों में मूल जीव से भिन्न एक-एक जीव अलग-अलग होते है । प्रज्ञापना सूत्र में एकबीज और बहुबीज वृक्षों की प्ररूपणा करते हुए कहा है- 'पत्ता पत्तेयजीविया' अर्थात् पत्ते प्रत्येक जीव वाले है । तथा ताल, साल, नालिकेर आदि वृक्षों का स्कन्ध एक जीव है । कहा है " नाना प्रकार के आकार वाले वृक्षों के पत्ते प्रत्येकजीव हैं और ताल, सरल तथा नारियल के स्कन्ध एकजीव हैं 1 "3 જીવ પરસ્પર મળેલા છતાં પણ ભિન્ન-ભિન્ન રહે છે; પરન્તુ સાધારણ શરીરવાળા જીવ પરસ્પરમાં અનુવિદ્ધ એકરૂપ થઈને રહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે-પ્રત્યેકશરીરી જીવાનાં શરીર અલગ-અલગ હાય છે. કિન્તુ આ સાધારણશરીરી જીવાનુ શરીર એકજ હાય છે. यत्तां-यांहडांभां, भूख लवधी भिन्न भे-भे! लव अलग-अलग होय छे. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં એકખીજ અને મહુખીજ વૃક્ષેાની પ્રરૂપણા કરતા થકા કહ્યું છે કેઃ " पत्ता पत्तेयजीविया' अर्थात् यत्तां प्रत्ये लववाजा है. તથા તાલ, સરલ, નાળિએર આદિ વૃક્ષાનાં સ્કંધ એક જીવ છે, કહ્યુ છે કેઃ“નાના પ્રકારના આકારવાળા વૃક્ષાનાં પત્તાં-પાંદડાં પ્રત્યેકજીવ છે. અને તાલ, સરલ તથા નારિએલના ધ એકજીવ છે. '' Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ आचाराङ्गमत्रे ___ पुष्पेषु अनेकजीवाः-संख्यावा असंख्याता अनन्ता वा सन्ति । उक्तञ्च"पुष्फा अणेगजीवा " इति । "पुप्फा जलया थलया, विंटवद्धा य नालिबद्धा य । संखिज्जमसंखिज्जा, बोधवाऽणंतजीवा य" || छाया-पुष्पाणि जलजानि स्थलजानि, वृन्तवद्धानि च नालिबद्धानि च । सख्येयानि (संख्येय जीवानि) असंख्येयानि (असंख्येय जीवानि) बोद्धव्यानि अनन्त जीवानि च ।। (प्रज्ञा०) यत्तु " पुष्पाणि चैकजीवानि मन्तव्यानी"-ति शीलाङ्काचार्यैरभिहितं तत् प्रामादिकम् , प्रज्ञापनासूत्रविरोधात् ।। ___ फलेषु मूलजीवमाश्रित्य प्रत्येकं द्वौ द्वौ जीबी स्तः । दोण्णि य जीवा फले भणिया" इति प्रज्ञापनावचनात् । वृक्षाः प्ररूपिताः, अथगुच्छादयः प्रोच्यन्ते फूलो मे अनेक-संख्यात असंख्यात अथवा अनन्त जीव होते है । कहा भी है-"पुप्फा अणेगजीवा" फूल अनेक जीव वाले होते है । "जल में उत्पन्न होने वाले, स्थल में उत्पन्न होने वाले, हन्तवद्ध या नालिबद्ध फूल सख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त जीव वाले समझने चाहिए। (मज्ञापनासूत्र) "फूल एक जीव वाले होते हैं" यह गीलाङ्काचार्य का कथन भूलभरा है, क्यों कि यह प्रज्ञापनासूत्र से विरुद्ध है। फलों में मूल जीव की अपेक्षा प्रत्येक दो-दो जीव है । प्रज्ञापना सूत्र में कहा है" फल में दो जीव कहे गये हैं।" यहाँ तक वृक्षों का निरूपण किया । अव गुच्छ आदि के विषय में कहते है માં અનેક સંખ્યાત અસંખ્યાત અથવા અનન્ત-જીત્ર હોય છે. કહ્યું પણ छे-'पुप्फा अणेगजीवा' "दू मने वा डाय छ " “જલમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાં, સ્થળમાં ઉત્પન્ન થવાવાળાં વૃત્તબદ્ધ અથવા નાલિબદ્ધ ફૂલ સંખ્યાત અસંખ્યાત અથવા અનન્ત જીવવાળાં છે, એમ સમજવું नये.” (प्रज्ञापनासूत्र). ફૂલ એક જીવવાળાં હોય છે આ શીલાંકાચાર્યનું કથન ભૂલભર્યું છે, કેમકે તે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રથી વિરુદ્ધ છે. ફલેમાં મૂલ જીવની અપેક્ષા પ્રત્યેક બે-બે જીવ છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રમાં કહ્યું છે"सभा मे ७१ सा छे." અહિં સુધી વૃક્ષોનું નિરૂપણ કર્યું, હવે ગુચ્છ આદિના વિષયમાં કહે છે Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिमरूपणा ५९७ गुच्छा अनेकविधाः-आढकी-वृन्ताकी-तुलसी-पिप्पलीप्रभृतयः । गुल्माःइस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, तेऽनेकविधाः-सेरिका-नवमालिका-कोरण्टकबन्धुजीवकादयः । लता अनेकविधाः-पद्मलता-नागलताऽशोकलताचम्पकलतादयः । यस्य वनस्पतेस्तिर्यक् तथाविधाः शाखाः प्रशाखा वा न प्रसृताः सा लतोच्यते ।। ____वल्ल्योऽनेकविधाः-पुष्पफली-कूष्माण्डी-कालिङ्गी-तुम्बी- त्रपुपी-कोशातकी -पटोलादयः । पर्वगा अनेकविधाः-इक्षु-वंश-नलवंश-वेतसप्रभृतयः । तृणानिअनेकविधानि-कुशदूर्वादीनि । वलयानि-ताल-तमाल-केतकी-कदली-कन्दल्या गुच्छ अनेक प्रकार के है । जैसे-अरहर वृन्ताकी, तुलसी, पिप्पली आदि । जिनका तना छोटा हो, कांड बहुत हो और जो पत्तो, फूलों और फलो से युक्त हों उन्हे गुल्म कहते है । वे भी कई प्रकार के हैं । यथा--सेरिका, नवमालिका, कोरण्टक, बन्धुजीवक वगैरह । लताएँ भी अनेक प्रकार की है। जैसे-पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता आदि । जिस वनस्पति की तिरछी अथवा खास तरह की शाखाएँ-प्रशाखाएँ नहीं फैलतीं वह लता कहलाती है। वल्ली के भी अनेक भेद है । जैसे-पुष्पकली, कूष्माण्डी, कालिंगी, तुम्बी, त्रपुषी, (ककडी) कोशातकी तथा पटोलादि । पर्वग भी अनेक प्रकार के है। जैसे-इक्षु, (सेलरी) वंश, (वास) नलवश, वेत आदि । कुश और दूब आदि तृण अनेक प्रकार के होते है। ताल, तमाल, केतकी, कदली, कन्दली आदि वलय गु२७ मने ना छे. व डे-तुवेर, gralsी, तुलसी, पिसी, मा. જેના થડ નાના હેય, કાંડ બહુજ હાય અને જે પત્તાં-ફૂલ અને ફળેથી યુક્ત હોય तत शुद्धम ४९ . ते ५५ घर प्रा२ना छे. भ-से२ि४ा, नवभाति, आरट, બંધુજીવક વગેરે, લતાઓ પણ અનેક પ્રકારની છે. જેવી રીતે કે–પદ્મલતા, નાગલતા, અશકતતા, ચમ્પકલતા આદિ. જે વનસ્પતિની તિરછી અથવા ખાસ તરહની શાખાઓ-પ્રશાખાઓ ફેલાતી નથી તે લતા કહેવાય છે. १दीन ५५] मने मे छ. रेवी शत पु५५सी, भांडी, अहिंसा, तुम्मा, धुषी, Audsी तथा पटोदाहि. प ५Y मने प्रारना 2. भ-शेरी, qांस, નલવંશ ત આદિ. કુશ-દાભડે અને દબ–ધ આદિ તૃણ અનેક પ્રકારનાં હોય છે. तास, तमासा, ती, ४६सी-3, ४.१ली माहिन सय उपाय छे. तसीय, (diaent) Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५९८ आचाराङ्गमुत्रे दीनि । हरितानि - तन्दुलीयक- वस्तुल- मार्जारपादिका - पालङ्क्यादीनि । ओषध्यःशालि - व्रीहि- गोधूम - यव - बर्जरी - मुद्र - मापादयः । जलरुहाः - उत्पल - पद्म-कुमुद - नलिन - पुण्डरीक - शतपत्र - सहस्रपत्र - कोकनदा - रविन्द - पनक - पनकचट्ट - शैवालादयः । कुणाः भूमिस्फोटकाssपकाय - सर्पच्छत्रादयः । उक्ताः प्रत्येकशरीरा वनस्पतयः । अथ साधारणशरीराः प्ररूप्यन्तेसाधारण नामकर्मोदयादनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति । तस्मात् साधारणमेकं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः । ननु कथमनन्तजीवानामेकं शरीरं संभवति, तथाहि - यः खलु प्रथमं कहलाते है | तन्दुलीयक, वस्तुल, मार्जारपादिका, पालंकी आदि को हरित कहते है । शालि व्रीहि (धान) ओ गेहूँ, जौ, बाजरी, मूग, उडद आदि के पौधे ओषधि कहलाते है । उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, पुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र, कोकनद, अरविन्द, पनक, पनकचट्ट, शैवाल आदि को जलरुह कहते है । भूमिस्फोटक, आपकाय और सर्पछत्र आदि कुहण कहलाते है । यहाँ तक प्रत्येकशरीर वनस्पति का विवेचन हुआ । साधारणशरीर का प्ररूपण इस प्रकार है साधारण नामकर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक साधारण होता है । जिनका शरीर साधारण अर्थात् एक हो, वे साधारणशरीर कहलाते है । शङ्का — अनन्त जीवों का शरीर एक कैसे हो सकता हो ? क्यों कि पहले वस्तुस (जथुवा) भार्लश्याहि, पास डी (सुवापास४) साहिने हस्ति उहे छे. शाली, श्रीद्धि (धान्य) गेहूं-ध, ४५, मारो, भग, आउछ आहि योषधि उडेवाय छे उत्यस, पद्म, भुह, नलिन, पुंडरीड, शतपत्र, सहखपत्र, ओम्नह, अरविंह, पन४, पनयट्ट. શૈવાલ આદિને જલરુહ કહે છે. ભૂમિસ્ફાટક, આપકાય અને સર્પ છત્ર माहि- हुड उवाय छे. અહિં સુધી પ્રત્યેક વનસ્પતિનું વિવેચન થયુ, સાધારણ શરીરનું પ્રરૂપણુ આ પ્રકારે છે— સાધારણનામકર્માંના ઉદયથી અનન્ત જીવાનુ એક સાધારણશરીર હાય છે. જેનું શરીર સાધારણુ અર્થાત્ એક હેાય તે સાધારણશરીર કહેવાય છે. શંકા- અનન્ત થવાનાં શરીર એક કેવી રીતે હોઈ શકે છે ? કેમકે પહેલ વહેલા Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ स. १ वनस्पतिप्ररूपणा ५९९ जातस्तेन तच्छरीरमुत्पादितं सर्वथा स्वायत्तीकृतं च कथं तत्रान्येषां जीवानामवकाशः, न हि देवदत्तशरीरे देवदत्त इवान्येऽपि जीवाः सर्वावयवेषु सहैव परस्परानुप्रवेशपूर्वकं प्रादुर्भवन्ति ? यद्वा-येनैव तच्छरीरं निष्पाद्य सत्यवकाशे स्वेतरैः सह परस्परानुप्रवेशेन स्वाधीनं कृतं स एव यत्र प्रधानः स्यात्, ततश्च तस्यैव पर्याप्तापर्याप्तव्यवस्था, प्राणापानादियोग्य पुद्गलोपादानं वा भवेत्, नतु शेषाणाम् ? अत्रोच्यते नायं प्रश्नो युक्तिपथमारोहति, शङ्काकर्तुर्जिनशासनपरिज्ञानाभावात् । पहल जो जीव उत्पन्न हुआ उसने वह शरीर उत्पन्न किया और उसे पूरी तरह अपना लिया । फिर उस शरीर में दूसरे जीवों को अवकाश किस प्रकार मिल सकता है ? देवदत्त के शरीर में देवदत्त की तरह अन्य जीव भी सब अवयवों में, एक दूसरे में मिलकर उत्पन्न कैसे हो सकते है ? अथवा — जिस जीवने वह शरीर उत्पन्न करके, अवकाश होने पर अपने से भिन्न अन्य जीवोंके साथ मिलकर ग्रहण किया है वही जैव उस शरीर में प्रधान होगा । ऐसी स्थिति में उसी की पर्याप्त और अपर्याप्त की व्यवस्था होगी । वही प्राणापान आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करेगा । शेष जीवों के विषय में किस प्रकार यह व्यवस्था हो सकती है । समाधान --- यह शंका उचित नहीं कही जा सकती, क्यों कि शंकाकार को जिनशासन का परिज्ञान नहीं है । જે જીવ ઉત્પન્ન થયા તેણે તે શરીર ઉત્પન્ન કર્યુ અને તેણે પૂરી રીતે પેાતાનું કરી લીધું. પછી એ શરીરમાં ખીજા જીવાને અવકાશ કેવી રીતે મળી શકે છે? દેવદત્તના શરીરમાં દેવદત્તની પ્રમાણે અન્ય જીવ પણ તમામ અવયવેામાં એક બીજાને મળીને ઉત્પન્ન કેવી રીતે થઈ શકે છે? અથવા જે જીવે આ શરીર ઉત્પન્ન કરીને અવકાશ મળતાં પેાતાનાથી ભિન્ન અન્ય જીવાની સાથે મળીને ગ્રહણ કર્યું" છે તે જીવ એ શરીરમાં પ્રધાન થશે. એવી અવસ્થામાં સ્થિતિમાં એની પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તની વ્યવસ્થા થશે. તેજ પ્રાણઅપાન આદિના ચેાગ્ય પુદ્ગલેને ગ્રહણ કરશે. શેષ–માકીના જીવાના વિષયમાં એ વ્યવસ્થા કેવી રીતે થઈ શકે છે? સમાધાન—આ શંકા ચેાગ્ય નથી કેમકે-શકા કરનારને જિન, શાસનનું પરિજ્ઞાન નથી. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे साधारण नामकर्मप्रभावादनन्ता अपि जीवा एकस्मिन्नेव काले सहेवोत्पत्तिदेशे तिष्ठन्ति, सदैव पर्याप्त निर्वर्त्तयन्ति, सहैव प्राणापानयोग्यपुद्गलानुपाददते, सदैव च तेषामाहारादिपुद्गलग्रहणम्, तस्मान्न काचिदनुपपत्तिरिति । उक्तञ्च भगवता - " समयं वकंताणं, समयं तेसिं शरीरनिव्वित्ती । समयं आणग्गहणं, समयं उस्सानीसासा ॥ १६ ॥ एक्कस्स उ जं गहणं, वहूण साहारणाण तं चैव । जं बहुयाणं गणं, समासओ तंपि एगस्स ॥ १७ ॥ छाया - समकं व्युत्क्रान्तानां समकं तेषां शरीरनिर्वृत्तिः । समकमानग्रहणं, समकमुच्छ्रवासनिःश्वासौ ॥ १६ ॥ एकस्य तु यद् ग्रहणं, बहूनां साधारणानां तदेव | यद् वहुकानां ग्रहणं, समासतस्तदप्येकस्य ॥ १७ ॥ ६०० साधारण नामकर्म प्रभाव से अनन्त जीव एक ही काल में साथ ही उत्पत्ति देश में उत्पन्न होते है, साथ ही पर्याप्तिया पूर्ण करते है, साथ ही प्राणापान के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और साथ ही आहार आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते है । अत एव इस कथन में तनिक भी अयुक्ति नहीं है । भगवान् ने कहा है "साथ ही वे जीव उत्पत्तिदेश में आते है, साथ ही उनका शरीर बनता है, साथ ही प्राण ग्रहण करते हैं, साथ ही उच्च्चास- निःश्वास होते हैं (१६) एक जीव जो ग्रहण करता है वह बहुत जीवों के लिए समान होता है और बहुत जीव जो ग्रहण करते हैं वह एक जीव के लिए भी होता है (१७) સાધારણ નામક ના પ્રભાવથી અનન્ત જીવ એકજ કાલમાં સાથેજ ઉત્પત્તિદેશમાં ઉત્પન્ન થયા છે. સાથેજ પર્યાપ્તિએ પૂર્ણ કરે છે. સાથેજ પ્રાણ અપાનના ચેાગ્ય–પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરે છે, અને સાથેજ આહાર આદિના ચેાગ્ય પુદ્ગલાને ગ્રહણ કરે છે. એ માટે આ કથનમાં જરાપણ અસ્વાભાવિકતા અથવા અયુકતતા નથી. ભગવાને કહ્યું છે કેઃ——— “તે જીવ એક સાથેજ ઉત્પત્તિદેશમાં આવે છે, સાથેજ એનાં શરીરો ખને છે, સાથેજ પ્રાણ ગ્રહણ કરે છે. સાથેજ શ્વાસેછ્વાસ થાય છે. (૧૬) એક જીવ જે ગ્રહણ કરે છે તે બધાય જીવા માટે સમાનપણે થાય છે, અને તમામ જીવા જે ગ્રહણ કરે છે તે એક જીવને માટે પણ થાય છે. (૧૭) Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ मू. १ वनस्पतिप्ररूपणा साहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च। __साहारणजीवाणं, साहारणलक्षणं एवं" ॥ १८ ॥ (प्रज्ञा० ११५) छाया-साधारणमाहारः, साधारणमानप्राणग्रहणं च । साधारणजीवानां, साधारणलक्षणमेतत् ॥ १८ ॥ एवं च परस्परानुविद्धानन्तजीवसमूहरूपेण एकशरीरावस्थायिनो जीवाः साधारणशरीरा इति सिद्धम् । एते साधारणजीवशब्देन साधारणशब्देनापि च व्यपदिश्यन्ते। तेऽनेकविधाः-सूरणकन्द - वज्रकन्द-शर्कराकन्द - रक्तालु-पिण्डालु - लशुनपलाण्डु-गृजन-शृङ्गबेरादयः । वनस्पतेर्मूलसंलग्नो भूम्यन्तर्गतो भागविशेषः कन्दः । एतेऽनन्तजीवपिण्डस्वरूपाः सन्ति । साधारण जीवों का आहार साधारण होता है और साधारण प्राणापान का ग्रहण होता है, इस प्रकार उनका यह साधारण लक्षण कहा गया है" ॥१८॥ (प्रज्ञा० ११५) इस प्रकार सिद्ध हुआ कि एक, दूसरे में मिले हुए अनन्तजीवसमूहरूप से एक ही । शरीर में रहने वाले साधारण जीव है । इन जीवो के लिए 'साधारणजीव' तथा 'साधारण' शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। साधारण जीव अनेक प्रकार के होते है । जैसे-सूरणकन्द, वज्रकन्द, शक्करकन्द, रताल, पिंडाल, लहसुन, प्याज, गाजर, अदरख आदि । वनस्पति के मूलक साथ जुडा हुआ और जमीन के अन्दर रहने वाला हिस्सा कंद कहलाता है । ये कंद अनंत जीवों के पिंड हैं। સાધારણ જીને આહાર સાધારણ હોય છે અને સાધારણ પ્રાણાપાનનું ગ્રહણ હોય છે. એ પ્રમાણે તેનું આ સાધારણ લક્ષણ કર્યું છે (૧૮)” આ પ્રમાણે સિદ્ધ થયું કે એક બીજામાં મળેલા અનન્તજીવસમૂહરૂપથી એક જ શરીરમાં રહેવા વાળાં સાધારણ જીવ છે. એ જીવેને માટે “સાધારણ જીવ તથા “સાધારણ” શબ્દને પણ વ્યવહાર કરી શકાય છે. साधारण १ मने प्रारना डाय छे. सम-सू२६४६, ताणु, पिंडा, લસણ, ડુંગળી, ગાજર, આદુ આદિ. વનસ્પતિના મૂળની સાથે જોડાએલા અને જમીનની અંદર રહેવાવાળે ભાગ કંદ કહેવાય છે આ કંદ અનઃ જીના પિંડ છે. प्र. आ.-७६ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ आचाराङ्गसूत्रे बादरा वनस्पतयः संक्षेपतः पड्विधाः-अग्रवीज-मूलबीज-पर्वबीज-स्कन्धबीज-वीजरुह-संमूच्छिमभेदात् । अग्रे बीजं येषां ते-अग्रवीजाः कोरण्टकमभूतयः । मूलमेव बीजं येषां ते मूलवीजाः कदल्यादयः । पर्वणि ग्रन्थौ सन्धिमागे पर्व वा बीजं येषां ते पर्ववीजाः इक्षु-वंश-वेत्रप्रभृतयः। स्कन्धः स्थुडं, स एव वीजं येपां ते स्कन्धवीजा: अरणि-शल्लकी-स्नुहीप्रभृतयः । वीजाद् रोहन्ति प्रादुर्भवन्तीति वीजरुहाः शालि-गोधूम-जव-मक्का-वर्जरीप्रभृतयः । संमूर्च्छन्ति बीज विनाऽपि दग्धभूमावपि समुद्भवन्तीति संमूच्छिमाः पृथिवीजलसंयोगमात्रजनितास्तृणविशेपाः । बादर वनस्पति संक्षेप में छह प्रकार की है-(१) अग्रबीज (२) मूलवीज (३) पर्वबीज (४) स्कन्धबीज (५) बीजरुह और (६) संमूर्छिम | जिन वनस्पतियोंका बीज आगे रहता है ऐसी कोरण्टक आदि वनस्पतिया अग्रबीज कहलाती है । पर्व (पोर-संधिभाग) में जिनका बीज हो, या पर्व ही जिनका बीज हो उन्हें पर्ववीज कहते है, जैसे-ईख, बास, बेंत आदि। स्कंध जिनका बीज हो ऐसी अरणि, शल्लकी, स्नुही (थुहर) वगैरह स्कन्धबीज कहलाती है । शाली, गेहूँ, जौ, मक्की, बाजरी वगैरह बीज से उगने वाली वनस्पति को बीजरुह कहते हैं । बीज के विना भी, जली हुई जमीन आदि में भी पृथ्वी और जल के संयोगमात्र से उत्पन्न होने वाली वनस्पति संमूर्छिम कहलाती है। मा६२ वनस्पति सपमा छ प्रा२नी छ- (१) मअमीर, (२) भूमी, (3) udular, (४) २४-८५ilor, (५) मा०४२७, (६) सभूभि. २ वनस्पतिमार्नु બીજ આગળ રહે છે એવી કેટક આદિ વનસ્પતિઓ અબીજ કહેવાય છે. મૂળ એજ જેનું બીજ હોય એવી કદળી આદિ વનસ્પતિઓ મૂળબીજ છે-પર-સંધિભાગ)માં જેનું બીજ હોય તેને પર્વબીજ કહે છે, જેમકે -શેલડી, વસ, નેતર આદિ. સ્કંધ જેનું બીજ હોય તે અરણ શલ્ય, સ્નેહી (ર) વગેરે સ્કંધબીજ કહેવાય છે. શાલી, ઘઉં, જવ, મકાઈ, બાજરી વગેરે બીજથી ઉગવા વાળી વનસ્પતિને બીજરૂહ કહે છે. બીજ વિના પણ બળી ગએલી જમીન આદિમાં પણ પૃથ્વી અને જલન સંગમાત્રથી ઉત્પન્ન થવા વાળી વનસપતિ તે સંમૂઈિમ કહેવાય છે. Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिप्ररूपणा ६०३ आकारतः प्रत्येकवनस्पतिरूपेण दृश्यमाना अपि वनस्पतयोऽनन्तजीवाः सन्ति। तेषां लक्षणमुच्यते यस्मिन् मूले भग्ने सति समश्चक्राकारो भङ्गो भवति, तत्र नियमतोऽनन्ता जीवा भवन्ति । तथा यस्मिन् स्कन्दे भग्ने संति समश्चक्राकारो भङ्गोदृश्यते तत्राप्य , नन्ता जीवाः । एवं शेषेषु स्कन्ध-त्वक्-शाखा-प्रवाल-पत्र-पुष्प-फल-बीजेष्वपि विज्ञेयम् । ईदृशश्व भङ्गः प्रायेणापरिकावस्थायां भवति । तथा यस्य वनस्पतेमध्यगतसारभूतकाष्ठापेक्षया बहुलतरा स्थूला त्वग् भवति सा त्वगनन्तजीवस्वरूपा। आकार से प्रत्येकवनस्पति के समान दिखाई देने वाली वनस्पतियाँ भी अनन्त जीव __ वाली होती है । उनका लक्षण यह है जिसका मूलभाग तोडने पर समान चक्राकार भंग होता है, उसमें नियम से अनंत जीव होते है । इसी प्रकार जिसका कन्द भागने पर समान चक्राकार भंग दिखाई दे उसमें भी अनंत जीव होते है। यही बात स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीजों के विषय में भी समझनी चाहिए । इस प्रकार के भंग प्रायः सब होते है जब वनस्पति कच्ची होती है। इसके अतिरिक्त जिस वनस्पति के बीच के सारभाग की अपेक्षा छाल बहुत मोटी होती है वह छाल भी अनंत जीव वाली होती है । આકારથી પ્રત્યેક વનસ્પતિના સમાન-સરખી–દેખાવાવાળી વનસ્પતિ પણ અનન્ત જીવવાળી હોય છે. તેનું લક્ષણ એ છે. કે જેનાં મૂળભાગને તેડવાથી સમાન ચક્રાકાર ભંગ થાય છે, તેમાં નિયમથી અનન્ત જીવ હોય છે. એ પ્રમાણે જેને કદ ભાંગવાથી સમાન ચકાકાર ભંગ થ દેખાઈ આવે તેમાં પણ અનન્ત જીવ હોય છે. એજ पात २४, त्वन्या, शामा, प्रवास, पत्र-५isi, J०५, ५८ २मने मीलना विषयमा પણ સમજવી જોઈએ. આ પ્રકારને ભંગ પ્રાયઃ ક્યારે થાય છે કે જ્યારે વનસ્પતિ કાચી હોય છે ત્યારે થાય છે. એના સિવાય જે વનસ્પતિના વચ્ચમાં સારભાગની અપેક્ષા છાલ ઘણું જ મોટી હેય છે, તે છાલ પણ અનંતજીવવાળી હોય છે. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TF 31 आचाराङ्गस्त्रे तथा - किसलयरूपे पत्राङ्कुरे उद्गम्यमाने नियमतोऽनन्ता जीवा भवन्ति । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां प्रथमपदे । " सव्योऽवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अनंतओ भणिओ. " इत्यादि । छाया - सर्वोऽपि किसलयः खलु उद्गच्छन् अनन्त भगितः इत्यादि । वनस्पतिर्भिद्यमानः पृथिवीसदृशेन भेदेन भिद्यते, सोऽप्यनन्तजीवस्वरूपः । अन्यच्चगूढसिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होड़ निच्छीरं । (6 जंपि य पट्टणसंधि, अनंतजीवं वियाणाहि ॥ १ ॥ " इति । ( प्रज्ञा० ) छाया - गूढशिराकं पत्रं, सक्षीरं यच्च भवति निःक्षीरम् । यदपि च प्रणष्टसन्धि, अनन्तजीव विजानीहि ॥ १ ॥ इति । ६०४ तथा -कौं पल जब उत्पन्न होती है तो उसमें भी अनंत जीव होते है । प्रज्ञापना के पहले पढ़ में कहा है " " उगते हुए सभी किसलय अनंतकाय कहे गये हैं । जिस वनस्पति की ग्रंथि या पोर, तोडनेपर रन से भरी हो, या जो वनस्पति, टूटने पर पृथ्वी के समान भेदों से टूटे, वह भी अनंतजीववाली होती है । और भी कहा है: " जिस के तंतु साफ दिखाई न देते हों, तथा जिसकी संधि बिलकुल दिखाई न देती हो ऐसा पत्ता, अगर दूधवाला हो या उसमें दूध उत्पन्न न हो, उसे भी अनंतजीववाला समझना चाहिए "" તથા—કુ પળ જ્યારે ઉત્પન્ન થાય છે ત્યારે તેમાં પણ અનંત જીવ હોય છે. પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રના પ્રથમ પદમાં કહ્યું છે કે: “ ઉગતાં હોય તે સવ` શિલય ( પધ્રુવ તાજા કુમળા પાનને સમૂહ) અનન્તકાય કહ્યાં છે. ” જે વનસ્પતિની ગ્રંથિગાંઠ અથવા પાર, તેાડવાથી રજથી ભરેલી, હાય અથવા જે વનસ્પતિ, તૂટવાથી પૃથ્વીના સમાન ભેદોથી તૂટે તે પણ અનંત જીવવાળી હાય છે. ખીજું પણ કહ્યું છે કેઃ "नेनां तंतुयो योध्यां हेयातां न होय, तथा नेनी संधि ( सांधे। ) ખીલકુલ દેખાતી હાય નહિ,એવાં પાંદડા દૂધવાળાં હાય અથવા એમાં દૂધ ઉત્પન્ન હાય નહિ, તેને પણુ અનત-જીવ વાળા સમજવા જોઈ એ. ’’ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू. १ वनस्पतिमरूपणा ६०५ गूढशिराकमिति गूढाः अलक्ष्यमाणाः शिरा-नाडीजालं तन्तुजालमिति वा यस्य तत् । प्रणष्टसंधीति-प्रणष्टा-सर्वथाऽनुपलक्ष्यमाणः, सन्धिः पत्रद्वयसंयोगरूपी भागो यस्य तत् । एतादृशं पत्रं सक्षीरं सदुग्धम् , निःक्षीरम् अनुत्पन्नदुग्धं वा तदनन्तजीवं विजानीहीत्यर्थः। एवमन्येऽप्यनेकविधाः शैवालादयोऽनन्तजीवाः स्वबुद्धया गुरुगमेन वा परिभावनीयाः । विस्तरतस्तु जिज्ञासुभिः प्रज्ञापनासूत्रं विलोकनीयम् । मूक्ष्मनिगोदास्तु भगवद्वचनावगम्या एव, अनन्तशरीरसंघाते सत्यप्यतिसूक्ष्मत्वान्नास्माकं चक्षुःपथेऽवतरन्ति । “ आणागिज्झा एए चक्खुप्फास न ते इति" इति वचनात् । उक्तश्च प्रज्ञापनायां सदृष्टान्तं निगोदजीवस्वरूपं, यथा इसी प्रकार सेवार आदि अन्यान्य वनस्पतियो को भी अपनी बुद्धि से या गुरुगम से अनंतजीववाली समझ लेनी चाहिए । जिन्हे विस्तारपूर्वक जानना हो उन्हें प्रज्ञापनासूत्र देखना चाहिए। सूक्ष्म निगोद भगवान् के वचन से ही समझे जा सकते है । एक शरीर में अनंत जीवों का पिण्ड होने पर भी वे जीव इतने मूक्ष्म होते है कि हम अपने नेत्रों से (आगम) उन्हे नहीं देख सकते । कहा भी है-"ये जीव सर्वज्ञको आज्ञा से ही ग्रहण किये (जाने) जाते है । आखे उन्हें नहीं देख सकती" । प्रज्ञापना सूत्र में उदाहरण के साथ निगोद का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-- એ પ્રમાણે સેવાળ આદિ જુદી-જુદી વનસ્પતિઓને પણ પિતાની બુદ્ધિથી અથવા ગુરુગમથી અનંતજીવવાળી સમજી લેવી જોઈએ, જેને વિસ્તારપૂર્વક જાણવાની ઈચ્છા હોય તેઓએ પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર જોઈ લેવું જોઈએ. સૂક્ષ્મનિગોદ ભગવાનના વચનથી જ સમજી શકાય છે (જાણી શકાય છે). એક શરીરમાં અનંત જીવોના પિંડ હોવા છતા પણ તે જીવ એટલા સૂક્ષ્મ હોય છે કે આપણે આપણા નેત્રથી તેને જોઈ શકતા નથી. કહ્યું પણ છે કે –“તે જીવ સર્વજ્ઞની આજ્ઞા (આગમ)થી જ ગ્રહણ કરવામાં આવે છે–જાણવામાં આવે છે, નેત્રથી તે જોઈ શકાતા નથી.” પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં ઉદાહરણની સાથે નિગોદનું સ્વરૂપ આ પ્રમાણે બતાવ્યું છે Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 " --- आचाराङ्गसूत्रे - "जह अयगोलो धंतो, जाओ तत्ततवणिज्जसंकासो । सन्चो अगणिपरिणओ, निगोअजीवे तहा जाण" ॥ १ ॥ इति । छाया-यथाऽयोगोलो ध्मातो, जातस्तप्ततपनीयसंकाशः । सर्वोऽग्निपरिणतो, निगोजीवान् तथा जानीहि ।। १ ।। यथा-अयोगोलोऽग्निना ध्मातः तप्तसुवर्णसदृशः सर्वांशतोऽग्निपरिणतोऽग्निरूप एव भवति हे शिष्य ! तथैव निगोदजीवान् जानीहि । निगोदजीवानां परिमाणस्वरूपमेव विज्ञेयम् अयं लोकश्चतुर्दशरज्जुपरिमितोऽस्ति । एको रज्जुरसख्यातयोजनात्मकः, योजन संख्यातागुलपरिमितम् , एकमङ्गुलमसंख्याताकाशप्रदेशात्मकं भवति । तस्याङ्गुजस्यैकैकाकाशप्रदेशे निगोदानामसंख्याता गोलकाः, एकैकस्मिन् गोलके निगोदानामसंख्यातानि शरीराणि, एककस्मिश्च शरीरेऽनन्ता जीवा निवसन्ति । उक्तश्च "जैसे अग्नि में तपाया हुआ लोहे का गोला तपे सोने के समान पूर्णतया अग्निरूप ही हो जाता है, हे शिष्य ! उसी प्रकार निगोद के जीव समझो” । निगोद जीवों का परिमाण इस प्रकार समझना चाहिए-- लोकाकाश चौदह राजू का है । एक राजू में असंग्ख्यात योजन होते है और संख्यात अगुल का एक योजन होता है । आकाश के असंख्यात प्रदेश-परिमित एक अंगुल होता है । इस अंगुल के एक-एक आकाश प्रदेश में निगोद जीवो के असख्यात गोले होते है । एक-एक गोलक में असंख्यात शरीर होते है और एक-एक शरीर में अनन्त जीवों का निवास है । कहा भी है “જેમ અગ્નિમાં તપાવેલો લોઢાને ગોળ તપેલા સોના-પ્રમાણે પૂર્ણપણે અગ્નિરૂપ જ થઈ જાય છે, હે શિષ્ય ! એ પ્રમાણે નિગોદના જીવ સમજે.” નિગોદના છાનું પરિમાણ–એ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કાકાશ ચૌદ રાજુને છે. એક રાજૂમાં અસંખ્યાત જન થાય છે, અને સંખ્યાત અંગુલને એક જન થાય છે. આકાશના અસંખ્યાતપ્રદેશ–પરિમિત એક અંગુલ હોય છે. એ અંગુલના એક–એક આકાશપ્રદેશમાં નિગોદ જીના અસંખ્ય ગેળા હોય છે. એક–એક ગોલકમાં અસંખ્યાત શરીર હોય છે અને એક-એક શરીરમાં અનન્ત અને નિવાસ છે. કહ્યું પણ છે– Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ मू. १ वनस्पतिप्ररूपणा ६०७ " गोला य असंखिज्जा, हुंति निगोया असंखया गोले । ___ एक्केको य निगोओ अणंतजीवो मुणेयवो" ॥ १ ॥ छाया-गोलाच असंख्येयाः, भवन्ति निगोदा असंख्येया गोले । एकैकश्च निगोदः, अनन्त जीवो ज्ञातव्यः ॥ १ ॥ इति । तत्रस्थप्रत्येकजीवस्य तैजसकामणे द्वे द्वे शरीरे पृथक् पृथक् स्तः । तदेकैकं शरीरमनन्तज्ञानावरणीयादियावदनन्तान्तरायकर्मणां वर्गणाभिः संयुक्तं वर्तते । सा चैकैका वर्गणाऽनन्तमूक्ष्मपरमाणुमयो भवतीति मूक्ष्मत्वं निगोदनीवानां सिद्धम् । ये च शरीरत्रयाङगुलासंख्येयभागशरीरादिभेदाः पृथिवीकायोद्देशेऽभिहितास्ते वनस्पतिकायानामपि बोध्या', केवलमनित्यंस्थम् अनियताकारं शरीरसंस्था "अंगुल के एक आकाशप्रदेश में असंख्यात गोले, एक गोले में असंख्यात निगोदशरीर और एक-एक निगोदशरीर में अनंत जीव जानने चाहिए" ॥१॥ निगोद में रहने वाले हरेक जीव के अलग-अलग तैजस और कार्मण शरीर होते है, और प्रत्येक गरीर अनन्त ज्ञानावरणीय आदि तथा अनन्त अन्तराय कर्मों की वर्गणाओं से संयुक्त है, वह एक वर्गणा अनन्तसूक्ष्मपरमाणुरूप होती है । इस कथन से निगोदिया जीवों की सूक्ष्मता सिद्ध होती है। पृथिवीकाय के उद्देश में तीन शरीर तथा अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना आदि का कथन किया है, वह वनस्पतिकाय के लिए भी समझना चाहिए । यहाँ विशेष बात यह है कि वनस्पति जीवों के शरीर का आकार अनियत होता है। અંગુલના એક આકાશપ્રદેશમાં અસંખ્યાત ગેળા, એક ગોળામાં અસંખ્યાત નિગદ-શરીર અને એક-એક નિગદ શરીરમાં અનન્તજીવ જાણવા જોઈએ.” [૧] નિગોદમાં રહેવા વાળા દરેક જીવને અલગ-અલગ તૈજસ અને કાર્મણ શરીર હોય છે, અને પ્રત્યેક શરીર અનન્ત જ્ઞાનાવરણીય આદિ તથા અનન્ત અનરાય કર્મોની વર્ગણુઓથી સંયુક્ત છે. તે એક વર્ગણા અનન્તસૂફમપરમાણુરૂપ હોય છે. આ વચનથી નિગદના જીવની સૂક્ષ્મતા સિદ્ધ થાય છે. પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં ત્રણ શરીર તથા અંગુલના અસંખ્યાતમા ભાગની અવગાહના આદિનું નિરૂપણ કર્યું છે. તે વનસ્પતિકાય માટે પણ સમજી લેવું જોઈએ. અહિં વિશેષ વાત એ છે કે -વનસ્પતિના જીવેનો આકાર અનિયત (નિયમવગરને) હોય છે. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ आचारागसत्रे नमेपाम् , शेपमन्यत् समानम् । एपां स्थानं घनोदधिवातवलयादि । संख्यामङ्गीकृत्यानन्ताः सर्वे वनस्पतयः। एवं वनस्पतीनां वृक्षादिभेदैः प्रत्येक साधारणभेदैः, तथा-वर्णगन्धरसस्पर्शमेदैश्व सहस्रशो भेदा भवन्ति । योन्यादिभेदैः पुनर्लक्षशो भेदा जायन्ते । ___ बनस्पतेोनिः संवृता भवति । तस्याः सचित्ताचित्तमिश्रभेदेन त्यो भेदाः, तथा शीतोष्णमिश्रभेदेन त्रयो भेदाः । एवं गणनया प्रत्येकवनस्पतियोनीनां दशलक्षसंख्यका भेदा भवन्ति । साधारणवनस्पतीनां चतुर्दशलक्षसंख्यका भेदा जायन्ते । शेष सव पूर्ववत् है । इन का स्थान घनोदधिवातवलय आदि है। संख्या की अपेक्षा पूर्वोक्त सब प्रकार की वनस्पति-संख्या अनन्त है। वृक्ष आदि के भेदों की अपेक्षा, प्रत्येक साधारण की अपेक्षा तथा वर्ण, रस गंध और स्पर्श के भेद की अपेक्षा वनस्पति के हजारों भेद होते है । योनि आदि के भेदों की अपेक्षा विचार किया जाय तो लाखों भेद हो जाते है। ___ वनस्पति की योनि संवृत है । संवृतयोनि सचित्त, अचित्त, और मिश्र के भेद से तीन प्रकार की होती है । शीत, उष्ण तथा मिश्र के भेद से भी तीन प्रकार की है । इस प्रकार गणना करने से प्रत्येकवनस्पति की दस लाख योनिया है । साधारणवनस्पति की योनिया चौदह लाख है। બાકી તમામ પૂર્વ પ્રમાણે છે. એનું સ્થાન ઘને દધિવાતવલય આદિ છે. સંખ્યાની અપેક્ષા પૂર્વોકત સર્વ પ્રકારની વનસ્પતિ–સંખ્યા અનન્ત છે. વૃક્ષ આદિના ભેદની અપેક્ષાએ, પ્રત્યેક-સાધારણ અપેક્ષાએ તથા વર્ણ, રસ, ગધ અને સ્પર્શના ભેદની અપેક્ષાએ વનસ્પતિના હજારે ભેદ થાય છે. યોનિ આદિના ભેદોની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે તે લાખ ભેદ થઈ જાય છે. વનસ્પતિની નિ સંવૃત છે. સંવૃતનિ સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની હેય છે અને શીત ઉoણ તથા મિશ્રના ભેદથી ત્રણ પ્રકારની છે. આ પ્રમાણે ગણના કરવાથી પ્રત્યેકવનસ્પતિની દસ લાખ એનિઓ છે, અને સાધારણવનસ્પતિની નિઓ ચૌદ લાખ છે. Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ स. १ वनस्पतिजीवपरिमाणम् परिमाणद्वारम् - उक्तं प्ररूपणाद्वारम् । परिमाणद्वारमुच्यते - पर्याप्तवादराः प्रत्येक वनस्पतिजीवाः पिण्डीभूत- चतुष्कोणीकृत - लोकश्रेण्यसंख्येयभागवर्त्याकाशप्रदेशराशिप्रमाणाः, वादरपर्याप्ततेजस्कायजी वराशेश्वा संख्यातगुणाः सन्ति । ६०९ अपर्याप्तवादराः प्रत्येक वनस्पतिजीवास्तु असंख्यातानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः सन्ति । इमेऽप्यपर्याप्तबादर तेजस्कायजीवराशितश्चाऽसंख्यातगुणाः । प्रत्येकवनस्पतयः सूक्ष्मा न सन्ति शास्त्रेऽनुपादानात । साधारण वनस्पतिजीवाः - सूक्ष्मवादरपर्याप्तभेदैश्चतुर्विधा अपि पृथक् पृथगन - न्तानां लोकानां यावन्तः प्रदेशास्तावन्त इति । अत्रायं विशेष: परिमाणद्वार प्ररूपणाद्वार हुआ । अब परिमाणद्वार कहते हैं - पर्याप्तबादर - प्रत्येकवनस्पति जीव चौकोन की हुई लोकश्रेणी के असंख्यातवें भागवत आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर है, और बादरपर्याप्ततेजस्काय के जीवों से असंख्यातगुणे हैं । असंख्यात लोककाशों के प्रदेशों की बराबर अपर्याप्त बादर प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीव हैं, और ये भी अपर्याप्तबादरतेजस्काय के जीवों से असंख्यात गुने हैं । प्रत्येक वनस्पति में सूक्ष्म जीव नहीं होते, क्यों कि शास्त्र में कहीं उनका उल्लेख नहीं है । साधारण वनस्पति के जीव सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चार प्रकार के है । इन चारों राशियों में से प्रत्येकजीवराशि की संख्या अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है । इसमें इतनी विशेषता समझ लेनी चाहिए Qu q પરિમાણ દ્વાર— -ढगताना પ્રરૂપણાદ્વાર થયુ. હવે પરિમાણુદ્વાર કહું છે-પર્યાપ્તખાદરપ્રત્યેકવનસ્પતિ જીવ, ચતુષ્કાણુ કરેલી લેાકશ્રેણિના અસ`ખ્યાતમા ભાગવત્ આકાશપ્રદેશની રાશિ– ખરાખર છે અને માદરપર્યાપ્તતેજસ્કાયના જીવાથી અસંખ્યાતગણા છે, અસ ખ્યાત લેાકાકાશીના પ્રદેશની ખરાખર અપર્યાપ્તખાદર પ્રત્યેકવનસ્પતિકાયના જીવ છે. અને તે પણ અપર્યાપ્તખાદર તેજસ્કાયના જીવાથી અસખ્યાતગણુા છે. પ્રત્યેક વનસ્પતિમાં સૂક્ષ્મજીવ નથી, કેમકે-તેના શાસ્ત્રમાં કાઈ સ્થાને ઉલ્લેખ નથી. સાધારણ વનસ્પતિના જીવ સૂક્ષ્મ, ભાદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી ચાર પ્રકારના છે. આ ચારેય રાશિમામાથી પ્રત્યેકજીવરાશિની સંખ્યા અનન્ત લેાકાકાશના પ્રદેશની ખરાખર છે. તેમાં એટલી વિશેષતા સમજી લેવી જોઈ એ— प्र. मा.-७७ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारामुत्रे साधारणवादरपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मा अपर्याप्ता असंख्यातगुणाः । तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्तका असंख्यातगुणा विज्ञेया इति । ६१० सूक्ष्मानन्तजीवानां परिमाणं कियदिति सदृष्टान्तमुच्यते - यथा - कश्चित् प्रस्थादिमापक वस्तुना धान्यराशि परिमाप्याऽन्यत्र निक्षिपति, तथा यदि साधारणसूक्ष्मजीवराशि लोकरूपस्थेन मापयेत् लोका संभृता भवेयुः । पर्याप्तवादरनिगोदपरिमाणं च यथा घनीभूतचतुरस्त्रीकृतसकललोकप्रतरस्यासंख्येयभागवर्तिप्रदेश राशिममाणाः पर्याप्रत्येकशरीर - वादरवनस्पति - पर्याप्तकेभ्यो प्तकवादर निगोदाः सन्ति, साधारणबादरपर्याप्त जीवों की अपेक्षा बादर - अपर्याप्त असंख्यातगुणा हैं । बादरपर्याप्त की अपेक्षा सूक्ष्म- अपर्याप्त असंख्यातगुणा है और सूक्ष्म - अपर्याप्त उनसे भी असंख्यातगुणा हैं । दृष्टान्त देकर समझाते हैं जगह रख देखा है, उसी सूक्ष्म अनन्त जीवों का परिमाण कितना है, यह बात जैसे कोई पुरुष प्रस्थ (सेर) आदि बाँटों से धान्य तोलकर दूसरी प्रकार यदि साधारण सूक्ष्मजीवराशि को लोकरूपी प्रस्थ से नापा जाय तो अनंत लोक भर जाएँ । पर्याप्त बादर निगोद जीवों का परिमाण इस प्रकार का है चौकोर (चतुष्कोण) घन किये हुए सम्पूर्ण लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों के बराबर पर्याप्तबादरनिगोद जीव हैं । वे प्रत्येकशरीर - बादरवनस्पति સાધારણપર્યાપ્ત જીવાની અપેક્ષા ખાદરઅપર્યાપ્ત અસંખ્યાતગણા છે. ખાદરપર્યાપ્તની અપેક્ષા સૂક્ષ્મ-અપર્યાપ્ત અસંખ્યાતગણા છે અને સૂક્ષ્મ-અપર્યાપ્ત તેનાથી પણ અસંખ્યાતગણા છે. સૂક્ષ્મ અનન્ત જીવાનું પરિણામ કેટલું છે. એ વાત દૃષ્ટાન્ત આપીને સમજાવે છે–જેમ કાઈ પુરુષ પ્રસ્થ (તાળવાનું વજન ૧ શેર) આદિ તાળવાના આંટ—વજનથી. ધાન્ય તેાળીને ખીજી જગ્યાએ રાખી દે છે તે પ્રમાણે જે સાધારણ સૂક્ષ્મ જીવરાશિને લેાકરૂપી પ્રસ્થથી તાળવામાં આવે તે અનંત લાક ભરાઈ જાય. પર્યાપ્તખાદરનિગાદ જીવાનું પરિમાણ આ પ્રકારે છે–ચતુષ્કોણુ ઘન કરેલા સમ્પૂર્ણ ઢાકપ્રતરના અસંખ્યાતમા-ભાગએઁ પ્રદેશની ખરાખર પર્યાપ્તમાદરનિગેાદ જીવ છે. Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ मू.१ वनस्पतिजीवपरिमाणम् ६११ ऽसंख्येयगुणाः। शेषास्त्रयः-अपर्याप्तवादरनिगोदाः, अपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदाः, पर्याप्तसूक्ष्मनिगोदाश्च प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः क्रमशो बहुतरकाः सन्ति । साधारणजीवाश्चैतेभ्यो निगोदपरिमाणेभ्योऽनन्तगुणाः सन्तीति बोध्यम् । यदि लोकाकाशस्यैकैकस्मिन् प्रदेशे एकैकः प्रत्येकवनस्पतिजीवः स्थाप्यते, तर्हि असंख्याता लोका भ्रियन्ते । यदि तु लोकाकाशस्यैकैकस्मिन् प्रदेशे एकैको निगोदजीवः स्थाप्यते, तर्हि अनन्ता लोका भ्रियन्ते । उक्तञ्च प्रज्ञापनायाम्-१ पदे। "लोगागासपएसे, परित्तजीवं ठवेहि एक्के । एवं ठवेज्जमाणा, हवंति लोगा असंखिज्जा" ॥१॥ पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा है । शेष तीन अर्थात् अपर्याप्तबादरनिगोद, अपर्याप्तसूक्ष्मनिगोद और पर्याप्त सूक्ष्मनिगोद असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर है, और क्रमशः अधिकअधिक संख्या में हैं । साधारण जीव इन से अनन्तगुणा हैं । ___ यदि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक प्रत्येकवनस्पति के जीव स्थापित किये जायँ तो असंख्यात लोक भर जाएँ, और यदि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एकएक निगोदिया जीव रक्खे जायँ तो अनन्त लोकाकाश भर जाएँ । प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पदमें कहा है "लोकाकाश के एक-एक प्रदेशमें अगर प्रत्येकवनस्पति के एक-एक जीव रख दिये जाय तो असंख्यात लोक भर जाए ॥१॥ તે પ્રત્યેક શરીર–આદરવનસ્પતિ પર્યાપ્ત જીથી અસંખ્યાત ગણ છે. બાકીના ત્રણ અર્થાતઅપર્યાપ્તબાદરનિગોદ, અપર્યાપ્તસૂક્ષ્મનિગોદ અને પર્યાપ્તસૂક્ષ્મનિગોદ અસંખ્યાત–લકાકાશ પ્રદેશના બરાબર છે, અને ક્રમશઃ અધિક-અધિક સંખ્યામાં છે. સાધારણ જીવ એનાથી અનન્ત ગણા છે. જે લોકાકાશના એક–એક પ્રદેશમાં એક-એક પ્રત્યેક વનસ્પતિના જીવને સ્થાપિત કરવામાં આવે તે અસંખ્યાત લોક ભરાઈ જાય, અને જે લેકાકાશના એક–એક પ્રદેશમાં એક–એક નિગેદિયા જીવને રાખવામાં આવે તે અનન્ત કાકાશ ભરાઈ જાય. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રથમ પદમાં કહ્યું છે કે – “કાકાશના એક-એક પ્રદેશમાં જે પ્રત્યેક વનસ્પતિના એક-એક જીવ રાખવામાં આવે તો અસંખ્યાત લોક ભરાઈ જાય.” || 1 || Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ लोगागासपए से निगोयजीवं ठवेहि एक्केकं । एवं ठवेज्जमाणा, हवंति लोगा अणन्ताओ ॥ १ ॥ " इति । छाया - लोकाकाशप्रदेशे, प्रत्येकजीवं स्थापय एकैकम् । एवं स्थाप्यमाना भवन्ति लोका असंख्येयाः ॥ १ ॥ लोकाकाशप्रदेशे निगोदजीवं स्थापय एकैकम् । एवं स्थाप्यमानाः भवन्ति लोका अनन्ताः ॥ १ ॥ इति परिमाणद्वारम् || मू० १ ॥ शब्दादिविषयासक्त्या वनस्पतिकायोपमर्दनपराः पुनः पुनर्भवसिन्धौ निपतन्तीत्याशयेनाह - ' जे गुणे. ' इत्यादि । मूलम् — जे गुणे से आवट्टे । जे आवट्टे से गुणे ॥ ०२ ॥ आचारासूत्रे छाया यो गुणः स आवर्तः । य आवर्तः स गुणः ॥ सु० २ ॥ लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक निगोद जीव रख दिये जायँ तो इस प्रकार रखने से अनन्त लोक हो जाएँ " । इति परिमाणद्वार ॥ ० २ ॥ (C इन्द्रियो के शब्द आदि विषयों में आसक्त होकर जो वनस्पतिकाय की हिंसा करते है वे बारम्बार भवसागर में डूबते है । इस अभिप्राय से शास्त्रकार कहते है :' जे गुणे ' इत्यादि । मूलार्थ - जो गुण है सो मावर्त्त है । जो आवर्त्त है सो गुण है ||०२|| લેાકાકાશના એક-એક પ્રદેશમાં એક-એક નિગેાદ જીવ રાખવામાં આવે તે न्या अठारे रामवाथी अनन्त सोउ यह लय " इति परिभानुद्वार. ॥ सू० १॥ ઇન્દ્રિયેાના શબ્દ આદિ વિષયામાં આસક્ત થઈને જે વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. તે વારંવાર ભવસાગરમાં ડૂખી જાય છે. એ અભિપ્રાયથી શાસ્રકાર કહે છે— ' जे गुणे.' त्याहि . भूसार्थ गुगु छे ते आवर्त्त छे. हे भावतं हे ते गुथु छे. ॥२॥ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ५ . २ वनस्पतिजीवघात दुष्फलम् ६१३ टीका यो गुणः शब्दादिकः, स आवर्त : - आवर्तन्ते = परिभ्राम्यन्ति जीवा यत्र स - आवर्त :- जन्मजराधिव्याधिनानाविधक्लेशसंपातस्वरूपः संसारः । कारणे कार्योंपचारात् संसारकारणीभूतस्य शब्दादिगुणस्य संसारत्वेन व्यपदेशः । गुणसेवनात् संसारं प्राप्नोतीति भावः । उक्तमर्थ दृढीकर्तुमुक्तवाक्यं परावर्तयन्नाह - य आवर्त इति । यश्चावर्तः = संसारः, स गुणः शब्दादिः । रागद्वेषवशग: संसारी नैव शब्दादिगुणतो - विरज्यते, न च मोक्षमार्ग प्राप्नोतीत्यर्थः । यद्वा- 'गुणे' 'आवर्ते' इति सप्तम्यन्तम् । यः गुणे = शब्दादौ वर्तते, टीकार्थ - शब्द आदि जो गुण अर्थात् विषय है वही आवर्त है । जिसमें आवर्त्तन अर्थात् भ्रमण किया जाय उसे आवर्त्त कहते है । जन्म- जरा, आधि-व्याधि आदि नाना प्रकार के क्लेशो से परिपूर्ण यह संसार ही आवर्त्त है । शब्द आदि विषय संसार के कारण है, स्वयं संसार नहीं है, किन्तु यही कारण में कार्य का उपचार करके शब्दादि विषयों को ही संसार कहा है । आशय यह है कि इन से संखार की प्राप्ति होती है । इसी अभिप्राय को दृढ करने के उद्देश्य से वाक्य को पलट कर शास्त्रकार कहते है - ' जो आवर्त है वही गुण है' । राग-द्वेष आदि के अधीन रहने वाला संसारी जीव शब्द आदि गुणों से विरक्त नही होता और न मोक्षमार्ग प्राप्त करता है । विषयों का सेवन करने अथवा -- मूल में जो 'गुणे' और 'आवट्टे' पद आये है । वे सप्तमीविभक्ति में है, इसका अर्थ यह हुआ कि जो पुरुष शब्दादि गुणों में वर्त्तता है वह आव ટીકા—શબ્દ આદિ જે ગુણ છે, અર્થાત્ વિષય છે તેજ આવત્ત છે. જેમાં આવર્ત્તન અર્થાત્ ભ્રમણ કરવામાં આવે તેને આવત્ત કહે છે. જન્મ, જરા, આધિ, વ્યાધિ આદિ નાના પ્રકારના કલેશાથી પરિપૂર્ણ આ સંસારજ આવ છે. શબ્દ આદિ વિષય સંસારના કારણ છે. સ્વયં સ’સાર નથી, પરન્તુ અહીં કારણમાં કાના ઉપચાર કરીને શબ્દાદિ વિષયાને જ સંસાર કહ્યો છે. આશય એ છે કેઃ–વિષયેાનુ સેવન કરવાથી સંસારની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે અભિપ્રાયને દૃઢ કરવાના ઉદ્દેશ્યથી વાકયને બદલીને શાસ્ત્રકાર કહે છે- જે આવત્ત છે તે ગુણ છે ' રાગદ્વેષ આદિના આધીન રહેવાવાળા સંસારી જીવ શબ્દ આદિ ગુણૈાથી વિરકત રહેતા નથી અને મેાક્ષમાને પ્રાપ્ત કરતા નથી. अथवा—भूसभां ने ‘गुणे' ने 'आवट्टे' यह आय्यां छे. ते सातभी विलतिभां છે. એનેા અથ એ થયે કે-જે પુરુષ શબ્દાદિ ગુણામાં વર્તે છે તે આવત્ત અર્થાત્ , Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसत्रे स आवर्ते संसारे वर्तते । यश्चावर्ते, स गुणे वर्तते । । __ननु 'यो गुणे वर्तते, स आवते वर्तते ' इति यदुक्तं तत् सम्यगेव, परन्तु य आवर्ते वर्तते, न त्वसौ नियमेन गुणे वर्तते । यतस्तीर्थङ्करा भावितात्मानो मुनयः प्रतिमाधारिश्रावकाचावते वर्तन्ते न तु शब्दादिगुणेषु, तदेतत् कथमुपपद्यते-'यथावर्ते वतते स गुणे वर्तते' इति ?। __अनुकूलशब्दादिषु रागः, प्रतिकूलशब्दादिषु द्वेपः समुद्भवतीति रागद्वेपपूर्वक गुणेषु शब्दादिपु या प्रवृत्तिस्तस्या एवात्राधिकारः । एवं चास्य वाक्यस्य तीर्थङ्करादिविषयकत्वाभावान्नास्त्युक्तशङ्कावसर इति । अर्थात् संसार में वर्तता है, और जो संसार में वर्तता है वह शब्द आदि में वर्तता है । शङ्का-जो शब्दादि गुणों में वर्तता है वह संसार में वर्तता है, यह कथन तो ठीक है, परन्तु जो संसार में वर्तता है वह नियम से शब्दादि विषयो में नहीं वर्तता ! भगवान् तीर्थकर, भावितात्मा मुनि और प्रतिमाधारी श्रावक संसार में तो वर्तते है मगर शब्द आदि विषयों में नहीं वर्तते । अत एव यह कथन किस प्रकार बन सकता है कि जो आवत में वर्तता है वह शब्द आदि में वर्त्तता है ? समाधान-अनुकूल शब्द आदि में राग उत्पन्न होता है और प्रतिकूल शब्द आदि में द्वेष होता है । इस प्रकार रागद्वेषपूर्वक विषयो में प्रवृत्ति करने का ही यहाँ प्रकरण है । तीर्थकर आदि राग-द्वेषपूर्वक विषयों में प्रवृत्ति नहीं करते, अतः यह वाक्य तीर्थकर या भावितात्मा मुनि आदि के लिए लागू नहीं होता । इस प्रकार उक्त शंका का यहां स्थान नहीं है। સંસારમાં વર્તે છે, અને જે સંસારમાં વતે છે તે શબ્દ આદિમાં વતે છે. શંક–જે શબ્દાદિ ગુણેમાં વતે છે, તે સંસારમાં વતે છે. આ કથનતે ઠીક છે, પરંતુ જે સંસારમાં વસે છે તે નિયમથી શબ્દાદિક વિષયમાં વર્તતા નથી. ભગવાન તીર્થકર ભાવિતાત્મા મુનિ અને પ્રતિભાધારી શ્રાવક સંસારમાં તે વર્તે છે, પરંતુ શબ્દાદિ વિષયેમાં વર્તતા નથી. એ માટે આ કથન કેવી રીતે બની શકે છે, કે જે આવર્તમાં વર્તે છે તે શબ્દ આદિમાં વસે છે.” સમાધાન–અનુકૂલ શબ્દ આદિમાં રાગ ઉત્પન્ન થાય છે અને પ્રતિકૂલ શબ્દ આદિમાં ઠેષ થાય છે. આ પ્રમાણે રાગ-દ્વેષપૂર્વક વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરવી તેનું જ અહીં પ્રકરણ છે. તીર્થકર આદિ રાગદ્વેષપૂર્વક વિષયમાં પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, માટે આ વાકય તીર્થકર અથવા ભાવિતાત્મા મુનિ આદિના માટે લાગું થતું નથી. આ પ્રમાણે પૂર્વે જે શંકા કરી છે તે શંકાને અહીં સ્થાન નથી. Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ५ सु. २ वनस्पतिजीवधात दुष्फलम् ६१५ त्यागतिरूप आवर्तोऽपि न तेषां दुःखजनको भवति । सामान्यतः संसारवर्तित्वं सामान्यशब्दादिगुणोपलब्धिश्च सर्वेषां संसारिणां संभवत्येव, तस्माद् गुगोपधिर्न प्रतिषिध्यते । किन्तु यस्तत्र रागद्वेषपरिणामः स एव परिवर्जनीयत्वेन प्रतिबोध्यते, अत एवोक्तं भगवता - " कष्णसोक्खेहिं सर्दि पेम्मं नाभिनिवेस " इत्यादि । किञ्च - " न शक्यं रूपमद्रष्टुं चक्षुर्गोचरमागतम् । रागद्वेषौ तु यौ तत्र, तौ बुधः परिवर्जयेत || " इदमत्र तत्वम् - शब्दादिविषयासक्ताः खलु वनस्पतिजीवान् बहुशी गति-आगतिरूप आवर्त्त भी उनके लिए दुःखजनक नहीं है । सामान्य संसारवर्त्ती पन और विषयों की सामान्य उपलब्धि सभी संसारी जीवों में होती है, अतः विषयों की उपलब्धि का निषेध नहीं किया जा सकता । हैं। विषयों में जो राग-द्वेषरूप परिणाम है वही व्याज्य है ! अतः भगवान् ने कहा है " कण्णसोक्खेहिं सहेहिं पेम्मं नाभिनिवेसए " इत्यादि । "कानों को सुख देने वाले शब्दों पर अनुराग नहीं करना चाहिए" । तथाआँखों के आगे आया हुआ रूप अनदेख नहीं किया जा सकता, वह तो दीख ही जाता है, मगर उस से कोई हानि नहीं होती । अलवत्ता उस रूप पर राग या द्वेष करने से हानि होती है । अतः विवेकी पुरुष राग और द्वेष का त्याग करे । आशय यह है - शब्द आदि विषयों में आसक्त पुरुष वनस्पतिकाय के जीवों की - ગતિ આગતિરૂપ આવત્ત પણ તેઓને માટે દુઃખરૂપ નથી. સામાન્ય સંસારવીપણું અને વિષયેાની સામાન્ય ઉપલબ્ધિ, સ સ’સારી જીવામાં હોય છે. એથી વિષયેાની ઉપલબ્ધિના નિષેધ કરી શકાતા નથી, હા, વિષયામાં જે રાગ-દ્વેષરૂપ પરિણામ છે, તેજ ત્યાજ્ય-ત્યજી દેવા ચેાગ્ય છે. એટલે ભગવાને કહ્યું છે– " कष्ण सोक्खेहिं सहहिं पेम्मं नाभिनिवेसए " अर्थात् अनाने सुख हेवावाजा શબ્દો પર પ્રીતિ નહિ કરવી જોઈએ. તથા નેત્રાની સામે આવેલા રૂપ, ન દીઠા– અઢી કરી શકાતા નથી તે તે દેખવામાં આવેજ છે, પરન્તુ તેમાં કોઈ હાનિ થતી નથી. અલખત્ત એ રૂપ પર રાગ અથવા દ્વેષ કરવાથી હાનિ થાય છે. એ માટે વિવેકી પુરુષ રાગ અને દ્વેષને! ત્યાગ કરે. આશય એ છે કેઃ—શબ્દ આદિ વિષયેામાં આસકત પુરુષ વનસ્પતિકાયના જીવેાની Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे ६१६ विहिंसन्ति । तथा हि- अनुकूलशब्दश्रवणार्थी वेणुवीणापटहादिवाद्यानि निर्मातुं बहुविधान् वनस्पतीन् विनिहन्ति । प्रियरूपविलोकनार्थी काष्ठमययुवतिप्रतिमा-गृहतोरण- वेदिका-स्तम्भादि रचयितुं कतिचन वनस्पतीन् विनिकृन्तति । एवं घ्राणसुखार्थी कपूर के तकी - पाटल लवङ्ग- सरम चन्दना - गुरु- केसर- जाती फल- जातीपत्रिकादीन् परिग्रहीतुं विविधान वनस्पतीन् विहिनस्ति । रसास्वादसुखार्थी मूलकन्दादिगतान संख्याताननन्तान् वा जीवानुपमर्दयति । एवं स्पर्शसुखाभिलापी च कमलदलमृणालकदलीदलवल्कलानुकूलदुकूलतूलादीन् परिग्रहीतुं नानाविधवनस्पतीनां प्राणव्यपरोपणं प्रकरोति । बहुत हिंसा करते है | जैसे - अनुकूल शब्द सुनने का अभिलापी पुरुष वेणु, चीणा, पटह (ढोल) आदि वाद्य बनाने के लिए नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा करता है । प्रियरूप देखने का इच्छुक युवती की काष्ठमय प्रतिमा, गृह, तोरण, वेदिका, और स्तंभ बनाने के लिए वनस्पति को काटता है । इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय के सुरुका लोलुप कपूर, केतकी, पाटल, ( गुलाब ) लोग, सरस चन्दन अगर, केसर, जायफल, जायपत्री आदि के उद्देश्य से विविध प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों को हिंसा करता है | रसास्वाद का अनुरागी मूल आदि कन्दों में रहने वाले असंख्यात और अनन्त जीवों की हिंसा करता है । इसी प्रकार स्पर्श - सुख का अभिलाषी कमल के पत्ते, कमल की दंडी, केले के, पत्ते छाल और अनुकुल वस्त्र तथा रुई प्राप्त करने के लिए नाना प्रकार के वनस्पति जीवों का प्राण लेता है । ઘણીજ હિંસા કરે છે. જેમ-અનુકૂલ શબ્દ સાંભળવાના અભિલાષી પુરુષ વેણુ-વીણા, ઢોલ આદિ વાદ્ય-વાત્રિ બનાવવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયના જીવાની હિંસા १रे छे. प्रियरूप लेवाना २ युवतीनी आष्ठभय प्रतिभा, गृह, तोरण, हि અને સ્તંભ મનાવવા માટે વનસ્પતિને કાપે છે. એ પ્રમાણે ઘ્રાણેન્દ્રિય (નાસિકા)ના सुमना सोलुप-सासयु उयूर, द्वैतडी गुलाम, सर्वांग, सरसयंहन, अगर सर, જાયફળ, જાવંત્રી આદિ મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી વિવિધ પ્રકારના વૃનસ્પતિકાયિક જીવાની હિંસા કરે છે. રસાસ્વાદના અનુરાગી જીવ મૂળ આદિ કન્દમાં રહેવાવાળા અસંખ્યાત અને અનન્ત જીવેાની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે સ્પસુખના અભિલાષી જીવ કમલપત્તાં, કમલકાકડી, કેવળનાં પત્તાં, છાલ અને અનુકૂલ વસ્ત્ર તથા રૂ પ્રાપ્ત કરવા માટે નાના પ્રકારના વનસ્પતિ જીવેાના પ્રાણ લે છે. Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू. २ वनस्पतिजीवोपघात दुष्फलम् ६१७ एवं च वनस्पतिनिष्पन्नेषु शब्दादिगुणेषु वर्तमानः संसारं प्राप्नोति, स च संसारी रागद्वेषमलिनात्मकतया पुनः शब्दादिगुणेषु वर्तमानश्चतुर्गतिकसंसारतो न कदाचिद् बहिर्यातीत्यर्थः ।। मू० २॥ ___ शद्वादिगुणोपलब्धिमात्रं न संसारान्तःपतनस्य कारणं, किन्तु तत्र मूच्छेवेत्याह -'उड्ढं'. इत्यादि। उड्ढं अहं तिरियं पाईणं पासमाणे रूवाई पासइ, सुणमाणे सद्दाइं सुणेइ । उड्दं अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छइ सद्देसु यावि । एस लोए वियाहिए ॥ सू० ३॥ __ छाया उर्ध्वम् अधः तिर्यक प्राचीनं पश्यन् रूपाणि पश्यति, शृण्वन् शद्वान् शृणोति, ऊर्ध्वम् अधः तिर्यक् प्राचीन मूर्छन् रूपेषु मूर्च्छति, शब्देषु चापि । एष लोकः व्याख्यातः॥ सू० ३॥ इस प्रकार वनस्पति से तैयार होने वाले इन्द्रिय-विषयों में वर्तमान जीव संसार प्राप्त करता हैं । संसारी जीव राग-द्वेष से मलिन होता है, अतः फिर विषयों में प्रवृत्त होता है । इस प्रकार वह कभी संसार से बाहर नहीं निकल पाता ॥सू० २॥ शब्द आदि विषयों को ग्रहण करने मात्र से संसार में पतन नहीं होता परन्तु उन में मूर्छा (गृद्धि) होना ही पतन का कारण है, यह कहते है-'उढ्ढ.' इत्यादि । ___ मलार्थ—ऊपर, नीचे, और सामने तिरछी दिशा में दृष्टि डालता हुआ रूपों को देखता है, सुनता हुआ शब्द सुनता है । ऊपर, नीचे और सामने तिरछी दिशा में रूपोंमें मूर्छित होता है और शब्दों में भी। यह लोक कहा गया है ॥ सू० ३ ॥ એ પ્રમાણે વનસ્પતિથી તૈયાર થવાવાળા ઇન્દ્રિય વિષયમાં વર્તમાન જીવ સંસારને પ્રાપ્ત કરે છે. સંસારી રાગદ્વેષથી મલિન થાય છે, તેથી ફરીને વિશ્વમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. આ પ્રમાણે તે કઈ દિવસ સંસારથી બહાર નીકળી શકતા નથી (સૂ.૨) શબ્દ આદિ વિષને ગ્રહણ કરવા માત્રથી સંસારમાં પતન થતું નથી. પરંતુ तेमा भू (द्धि) थपाथीपतन थाय छे. ते ४ छ-'उड्ढे. त्याहि. મૂલાર્થ–ઉપર, નીચે અને સામે તિરછી દિશામાં દષ્ટિ નાંખીને પિને જુવે છે, સાંભળતા થકા શબ્દ સાંભળે છે, ઉપર નીચે અને સામે તિરછી દિશામાં રૂપમાં भने Avोमा ५ भूर्छित थाय छे. - a वाय छ. ।। 3 ।। प्र. आ.-७८ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ - आचाराङ्गमत्रे टीकाप्रज्ञापकदिशापेक्षया उर्ध्वम् उर्ध्वदिश्यवस्थितं पर्वतशिखरमासादहाद्युपरिभागस्थम्, अधः अधोदिश्यवस्थित भूमिगृहादिकं, तिर्यक् याच्यादिदिश्ववस्थितं विदिश्वस्थितं च गृहभित्तिप्रासादहादिक, प्राचीनं-तियपदस्य विवरणमेतत् , प्राच्यां दिशि विद्यमानं पदार्थजातम् , एतच्चोपलक्षणम्-अन्या अपि तिर्यग्दिशो विज्ञेयाः । यद्वा-प्राचीनमिति-ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्दिगन्वयि, तेनो धस्तियग्दिक्ष्यवस्थित, प्राचीन पुरातनम्-आधुनिकशिल्पिदुष्करतयाऽऽश्चर्यकारि पदार्थजातं, पश्यन्= चक्षुर्व्यापारयन् , रूपाणि-चक्षुर्ग्राह्यतया परिणतानि रूपबद्रव्याणि शालमब्जिकादीनि स्न्यादिरूपाणि वा पश्यति । टीकार्थ-प्रज्ञापक-(दखने वाले की) दिशा की अपेक्षा ऊर्ध्व दिशा में-पर्वत के शिखर पर तथा प्रासाद या महल आदि के ऊपरी भाग में स्थित, भौंहरा आदि अघोदिशा में स्थित, पूर्व आदि तिरछी दिशाओं में स्थित तथा विदिशाओं में स्थित दीवार, हवेली और महल आदि को देखता है । मूल में आये हुए 'पाईणं' अर्थात् 'प्राचीन' शब्द को तिरछी दिशा का विवरणरूप समझना चाहिए । अथवा 'प्राचीन' पद ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् सभी दिशाओं के साथ संबंध रखता है । तात्पर्य यह निकला कि-ऊर्ध्व दिशा में स्थित अघोदिशा में स्थित तथा तिरछी दिशामें स्थित प्राचीन अर्थात् आधुनिक शिल्पकारों के लिए दुष्कर होने से आश्चर्य उत्पन्न करने वाले पुराने पदार्थों की ओर नजर करता हुआ सुन्दर पुतलियों वगैरह को तथा स्त्री आदि के रूप को देखता है । ટીકાથ–પ્રજ્ઞાપક–જેનારની) દિશાની અપેક્ષા ઉર્વ દિશામાં–પર્વતના શિખર પર તથા પ્રાસાદ અથવા મહેલ આદિના ઉપર ભાગમાં, સ્થિત, ભેંયરા આદિ અદિશામાં સ્થિત, પૂર્વ આદિ તિરછી દિશાઓમાં સ્થિત, તથા વિદિશાઓમાં સ્થિત ભીંત, હવેલી અને મહેલ આદિને દેખે છે. મૂલમાં આવેલો “ અર્થાત્ પ્રાચીન શબ્દને તિરછી દિશાના વિવરણપ સમજ જોઈએ, અથવા પ્રાચીન પદ ઉર્વ, અધઃ અને તિર્યફ સર્વ દિશાઓની સાથે સંબંધ રાખે છે. તાત્પર્ય એ નિકળે છે કેઉર્ધ્વ દિશામાં સ્થિત, અદિશામાં સ્થિત, તથા તિરછી દિશામાં સ્થિત પ્રાચીન અર્થાત આધુનિક શિલ્પકારે માટે દુષ્કર હોવાથી આશ્ચર્ય ઉત્પન્ન કરવાવાળા પુરાણા પદાર્થોની તરફ નજર કરતા થકા સુન્દર પુતળીઓ વગેરેને તથા સ્ત્રીઆદિના રૂપને દેખે છે. Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१३.५मू.३रूपादिमूर्छाया संसारहेतुत्वम् ६१९ तथा-एतासु दिक्षु च शण्वन् श्रोत्रोपयोगयुक्तः सन् शब्दान् वेणुवीणादिसमुत्थान गीतनादादिकान् वा शणोति । श्रोत्रोपयोगाभावे तु न शणोतीत्यर्थः । उपलक्षणमेतत्-जिघन् गन्धान जिघ्रति, रसयन् रसान् रसयति, स्पृशन् स्पर्शान् स्पृशति । इह दर्शनश्रवणाभ्यां रूपादिगुणोपलब्धिमात्रं प्रदर्शितम् । ऊर्ध्वाधस्तियक्पदोपादानेन च रूपादिगुणानां सर्वदिग्व्यापित्वेन तदुपयोगो दुष्परिहरोऽस्तीति प्रतिवोधितम् । रूपादिगुणोपयोगमात्रेण संसारगवितसंपातो न भवति, किन्तु रूपादिगुणेषु मूर्च्छयेति बोधयितुमाह-'उड्ढं.' इत्यादि । इसी प्रकार पूर्वोक्त दिशाओं में श्रोत्रेन्द्रिय का उपयोग लगा कर वेणु वीणा आदि वाद्यों का, तथा गीत आदि का शब्द सुनता है । श्रोत्र का उपयोग न हो तो नहीं भी सुनता है । यह कथन उपलक्षण है, इस से यह भी समझ लेना चाहिए कि घ्राण, रसना और स्पर्श इन्द्रिय का उपयोग लगाकर सूंघता है, चखता है और स्पर्श करता है। यहाँ देखने और सुनने से रूप आदि गुणों की उपलब्धिमात्र सूचित को है । ऊर्ध्व, अधः तथा तिर्यक् पद देकर यह प्रकट किया है कि-इन्द्रियों के विषयरूप आदि, सभी दिशाओं में भरे पडे है। ऐसी स्थिति में उनकी ओर ध्यान न जाने देना तो बडा ही कठिन कार्य है । मगर रूप आदि गुणों की ओर उपयोग जाने मात्र से संसार के गड्ढे में पतन नहीं होता । पतन तव होता है जब उनमें मूर्छा या राग-द्वेष हो, यह बात प्रकट करने के लिए कहा है-'उड्ढं.' इत्यादि । એજ પ્રમાણે પૂર્વોક્ત દિશાઓમાં શ્રોત્રેન્દ્રિય ઉપગ લગાવીને વેણુ–વીણા આદિ વાજીના તથા ગીત આદિના શબ્દ સાભળે છે. શ્રોત્રને ઉપયોગ ન હોત તે સાંભળતા નહિ. આ કથન ઉપલક્ષણ છે, એથી એમ સમજી લેવું જોઈએ કે, ઘાણ, રસના અને સ્પર્શન ઇન્દ્રિયને ઉપયોગ લગાવીને સૂઘે છે, ચાખે છે, અને સ્પર્શ કરે છે. અહીં દેખવા અને સાંભળવાથી રૂપ આદિ ગુણોની ઉપલબ્ધિ માત્ર સૂચિત કરી છે. ઉર્ધ્વ, અધઃ તથા તિર્ય પદ આપીને એ સૂચિત કર્યું છે કે–ઇન્દ્રિયોના વિષય ૩૫ આદિ, સર્વ દિશાઓમાં ભર્યા પડયા છે. એવી સ્થિતિમાં તેની તરફ ધ્યાન નહિ જવા દેવું તે તે ભારે કઠિન કામ છે. પરંતુ રૂ૫ આદિ ગુણેની તરફ ઉપગ જવા માત્રથી સંસારના ખાડામાં પડવાનું થતું નથી, પતન–પડવાનું છે ત્યારે થાય છે કે જ્યારે તેમાં भू-24 -द्वेष थाय. २॥ पात प्रगट ४२१८ माटे यु छ:-'उड्ढ.' त्याह Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દૂર आचारागसूत्र पुनरू• देरुचारणं कस्याश्चिदेकस्यामपि दिशि रूपादिपु मूर्च्छया संसारं प्राप्नोतीति वोधनार्थम् । अादिदिक्ष्ववस्थितं रूपगुणं प्रति मूर्च्छन् रागादिपरिणामं कुर्वन् सदसद्विवेकशून्यो भवन् वा रूपेषु-मनोहरेषु रूपवद्रव्येषु स्व्यादिरूपेषु वा मूर्च्छति-लोलुपो भवति । एवं शब्देपु च मूच्छति । अपिग्रहणाद् गन्धरसस्पर्शपु मूर्च्छति-गृघ्नुर्भवति । एप मूर्छाविषयीभूतो रूपादिगुणः, लोकः संसारः, कारणे कार्योपचारात् मूर्छाविषयीभूतरूपादिगुणात्मको लोक इति व्याख्यातः भगवता कथितः। ॥ सू० ३॥ संयमे गृहीतेऽपि प्रमादवशेन रूपादिगुणेषु मूर्छामुपगतः सन् पुनरगारित्वमापद्यते-इति दर्शयति-'एत्थ अगुत्ते.' इत्यादि । दोवारा ऊर्ध्व आदि दिशाओं का कथन करके यह बतलाया है कि किसी भी एक दिशामें स्थिति रूपादि में मूर्छा होने पर भी संसार की प्राप्ति होती है । ऊर्ध्व आदि दिशाओं में स्थित रूप आदि विषयों में राग-द्वेषरूप परिणाम करता हुआ, सत्-असत् के विवेक से शून्य होकर मनोहर रूपों में या मनोहर रूपवाली स्त्री आदि के रूपों में पुरुष लोलुप हो जाता है । इसी प्रकार शब्दों में मूर्छित हो जाता है । गंध, रस, तथा स्पर्श में भी मूर्छित हो जाता है । मूर्छा का विषयभूत यह रूप आदि ही, कारण में कार्य का उपचार करने से संसार कहलाता है। ऐसा भगवान् ने फरमाया है ॥ सू० ३ ॥ संयम ग्रहण कर लेने के पश्चात् भी प्रमाद के वश में होकर रूप आदि गुणों में मूर्छा को प्राप्त होनेवाला फिर गृहस्थ बन जाता है, यह बात बतलाते है:-'एत्थ अगुत्ते.' इत्यादि । બેવાર ઉર્ધ્વ આદિ દિશાએ કથન કરીને એ બતાવ્યું છે કે-કઈ પણ એક દિશામાં સ્થિત રૂપાદિમાં મૂચ્છ થતાં પણ સંસારની પ્રાપ્તિ થાય છે. ઉર્ધ્વ આદિ દિશાઓમાં સ્થિત જય આદિ વિષયમાં રાગ-દ્વેષરૂપ પરિણામ કરતા થકા સત્-અસના વિવેકમાં શૂન્ય થઈને મનહર રૂપમાં અથવા તે મનહર રૂપવાળી સ્ત્રી આદિના રૂપમાં પુરુષ લોલુપ થઈ જાય છે. એ પ્રમાણે શબ્દમાં મૂચ્છિત થઈ જાય છે. ગંધ, રસ તથા સ્પર્શમાં પણ મૂચ્છિત થઈ જાય છે. મૂછના વિષયભૂત (મૂરછ થવાનું કારણ) આ રૂપ આદિજ, કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવાથી, સંસાર કહેવાય છે. એ પ્રમાણે ભગવાને ફરમાવ્યું છે. (૩). સંયમ ગ્રહણ કરી લીધા પછી પણ પ્રમાદવશ થઈને ૫ આદિ ગુણોમાં મૂચ્છો पाभवावाणाशन गृहस्थ मनी नय छे. वात मताव छ:-'एत्थ अगुत्ते. त्यादि. Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य०१ उ. ५ सू. ४ रूपादिमूर्च्छितस्य पुनरगारवासः ६२१ मूलम् — एत्थ अगुत्ते अणाणाए, पुणो पुणो गुणासाए, वंकसमायारे पमते अगारमावसे ॥ सू० ४ ॥ छाया अत्र अगुप्तः अनाज्ञायां पुनः पुनर्गुणास्वादः, वक्रसमाचारः प्रमत्तः अगारमावसति ॥ ०४ ॥ टीका मनसा अत्र = अस्मिन् रूपादिगुणे, अगुप्तः = मनोवाक्कायगुप्तिरहितः रूपादिषु रज्यते, वचसा प्रार्थयति, कायेन तदभिमुखं प्रवर्तते स चागुप्तः अनाज्ञायाम् = अनाचारे वर्तमानः भगवदाज्ञावह्निर्वर्ती, अत एव पुनः पुनर्गुणास्वादः = असकृद् विषयसुखानुभवरसिकः, अत एव वक्रसमाचारः - वक्रः = कुटिलः समाचारः = मूलार्थ -- रूपादि विषयो में मन वचन कायका व्यापार न रोकने वाला भगवान् की आज्ञा से बाहर है, बार-बार विषयोंका आस्वादन करने वाला कुटिलाचारी, प्रमादी (साधु) फिर गृहस्थ बन जाता है ॥ सू० ४ ॥ टीका--रूप आदि विषयों में मन, वचन और काय की गुप्ति से रहित अर्थात् मन से राग करने वाला, वचन से विषयों की प्रार्थना करने वाला और काय से उनमें प्रवृत्ति करनेवाला ऐसा अनाचारी साधु भगवान की आज्ञा से बाहर हो जाता है । वह बारम्बार विषयसुखों के भोग में रसिक होकर कुटिल आचारवाला મૂલા—પાદિ વિષયેામાં મન, વચન અને કાયાનાં વ્યાપારને નહિ રોકવા વાળા, તે ભગવાનની આજ્ઞાથી બહાર છે. વારંવાર વિષયેાનું આસ્વાદન કરવાવાળા, भुटियायारी - प्रभाही (साधु) पाछा गृहस्थ मनी लय है. ટીકા રૂપ આદિ વિષયેામાં મન, વચન અને કાયાની ગુપ્તિથી રહિત અર્થાત્ મનથી રાગ કરવાવાળા, વચનથી વિષચેાની પ્રાથના કરવાવાળા અને કાયથી તેમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા, એવા અનાચારી સાધુ ભગવાનની આજ્ઞાથી બહાર થઇ જાય છે. તે વારવાર વિષયસુખાના ભાગમાં રસિક થઇને કુટિલ આચારવાળા-અર્થાત્ અસ યમનું Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ आचारांगसूत्रे आचारो यस्य स वक्रसमाचारः - असंयमानुष्ठायी, नरकादिगतिजनकत्वादसंयमस्य वक्रतया व्यपदेशः । इत्थम्भूतः स प्रमत्तः प्रमादवशाद् विषयेषु मूच्छितः, अगारं= गृहम् आवसति । गृहीतसंयमोऽपि प्रमादवशाद् विपयासक्तः सन् पुनर्गृहस्थो भवतीत्यर्थः ॥ स्रु० ४ ॥ अथ शस्त्रद्वारम् - अथ सर्वथा वनस्पतिशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान् तथाऽग्निशस्त्रसमारम्भमवृत्तान् द्रव्यलिङ्गिनश्च विविच्य प्रतिबोधयितुमाह-' लज्जमाणा' इत्यादि । मूलम् - अणगारा मो-ति एगे पवयमाणा, लज्जमाणा पुढो पास, जमिण अर्थात् असंमय का सेवन करने वाला प्रमादी फिर घर - वास में आजाता है । वह संयम धारण करने के पश्चात् भी प्रमाद के वश होकर विषयों में आसक्त होने के कारण फिर गृहस्थ बन जाता है || सू० ४ ॥ शस्त्रद्वार वनस्पतिशास्त्र के आरंभ का सर्वथा त्याग करने वाले अग्निशस्त्र के आरंभ में प्रवृत्त द्रव्यलिंगियों का विवेचन करके 'लज्जमाणा.' इत्यादि । अनगारों का तथा उपदेश देते है: मूलार्थ - वनस्पतिकाय के आरंभ में संकोच करने वाले देखो । तथा 'हम अनगार हैं ' इस प्रकार कहने वाले नाना प्रकार के शस्त्रोंसे साधुओं को अलग 4 સેવન કરવાવાળા પ્રમાદી ફરી ઘરવાસમાં આવી જાય છે. તે સંયમ ધારણ કર્યો પછી પણ પ્રમાદને વશ થઈને વિષયેામાં આસક્ત થવાના કારણે ફરી ગૃહસ્થ બની જાય છે. (સૂ૪) शत्रद्वार વનસ્પતિશસ્ત્રના આરભના સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા અણુગારનું તથા અગ્નિશસ્ત્રના આરંભમાં પ્રવૃત્ત દ્રવ્યલિંગીનું વિવેચન કરીને ઉપદેશ આપે છેઃ'लज्ज माणा.' त्याहि. " મૂલા—વનસ્પતિકાયના આરંભમાં સંકેચ કરવાવાળા સાધુઓને જુદા જાણા. તથા ‘અમે અણુગાર છીએ’ આ પ્રમાણે કહેવાવાળા, નાના પ્રકારના શસ્ત્રાથી વનસ્પતિ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १७.५सु. ५ वनस्पतिसमारम्भेण विविधमाणिघातः ६२३ विवरूवेहिं सत्थेहि वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्य समारंभमाणा अण्णे अगरूवे पाणे विहिंसंति ।। सू० ५ ॥ छाया लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति || सु० ५ ॥ टीका लज्जमानाः=परमकरुणयार्द्रहृदयतया वनस्पतिकायसमारम्भे पराङ्मुखाः, वनस्पतिशस्त्रसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारा इत्यर्थः । पृथक् = विभिन्नाः = केचित् प्रत्यक्षज्ञानोऽवधिमनः पर्यय केवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः सन्तीति पश्य । , यद्वा-पृथक् = द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे - सूक्ष्मवादरवनस्पतिकायसमारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैर्वनस्पतिकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति विलोकयेत्यर्थः । वनस्पतिकाय का आरंभ करने वाले, वनस्पतिशास्त्र का आरंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते है | सू० ५ ॥ टीकार्थ - अत्यन्त करुणा से आई हृदयवाले मुनि वनस्पतिकाय के आरंभ से विमुख रहते हैं। ऐसे मुनि कोई अवधिज्ञानी, मनः पर्यायज्ञानी, और केवलज्ञानी होते है, और कोईकोई परोक्षज्ञानी (मति - श्रुत ज्ञान के धारक ) भावितात्मा होते है उन्हें देखो । अथवा इन्हें द्रव्यलिंगियों से अलग ही समझना चाहिए । यह अनगार सूक्ष्म और बादर वनस्पति का आरंभ करने में भीत, त्रस्त, उद्विग्न है । तीन करण, तीन योग से वनस्पतिकाय के आरंभ के त्यागी है । કાયા આરંભ કરવાવાળા, વનસ્પતિ શસ્ત્રના આરંભ કરતા થકા અન્ય અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે ॥ ૫ ॥ टीडअर्थ- અત્યન્ત કરુણાથી આર્દ્ર હૃદયવાળા મુનિ વનસ્પતિકાયના આરંભથી વિરુદ્ધ રહે છે. એવા મુનિ કઈ-કઈ અવધિજ્ઞાની, મનઃપયય જ્ઞાની અને કેવળજ્ઞાની, હાય छे. मने अर्ध-अपरोक्षज्ञानी (भति-श्रुतज्ञानना धा२४) लावितात्मा होय छेतेने नुमा. અથવા તેને દ્રવ્યલિંગિએથી જૂદાજ સમજવા જેઈએ તે અણુગાર સૂક્ષ્મ અને માદર વનસ્પતિકાયના આરંભ કરવામાં ખીએલા-ભયવાળા, ત્રસ્ત, ઉદ્વિગ્ન છે. ત્રણ કરણ ત્રણ ચેાગથી વનસ્પતિકાયના આરંભના ત્યાગી છે. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ आचारागसूत्रे एके पुनरन्ये तु 'वयमनगाराः स्मः' इति साभिमानं प्रवदमानाः वयमेव वनस्पतिजीवरक्षणपराः महाव्रतधारिणः' इति प्रलपन्तो द्रव्यलिजिनः सन्ति, तान् पृथक् पश्य । इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिङ्गिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्तीति दशयति-'यदिमम्. ' इत्यादि। यद् यस्माद् विरूपरूपैः विभिन्नस्वरूपैः शस्त्रैः वनस्पतिकायशस्त्रैः, शस्त्रं हि वनस्पतिकायस्य द्रव्यभावभेदाद् द्विविधम् । तत्र द्रव्यशस्त्रं स्वकीय- , परकायोभयकायभेदात् त्रिविधम् । तत्र स्वकायशस्त्रं दण्डलकुटादयः । परकायशस्त्र कतरी-पाषाण-हस्त-पाद-मुख-वनयादयः । उभयकायशस्त्रं-वासी-दात्र ___ इनसे विपरीत कोई-कोई 'हम अनगार हैं। ऐसा अभिमानपूर्वक कहते हैं'हम ही वनस्पति जीवों की रक्षा करने में तत्पर और महाव्रतधारी हैं, ' इस प्रकार प्रलाप करते हुए द्रव्यलिंगी साधुओं को अलग समझो । अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणो में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते । ये गृहस्थ के किसी भी कामका त्याग नहीं करते है, यह वात आगे बतलाते हैं-'यदिमम्.' इत्यादि । नाना प्रकार के वनस्पतिकाय के शस्त्रोद्वारा वनस्पतिकाय का आरंभ करके वनस्पतिकायकी हिंसा करते है । वनस्पतिशस्त्र दो प्रकारका है-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र । द्रव्यशस्त्र के तीन भेद है-(१) स्वकायशस्त्र (२) परकायशस्त्र (३) उभयकायशस्त्र । डंडा लकडी वगैरह स्वकायशस्त्र है । कैंची, पत्थर, हाथ, पैर, मुख और आग आदि તેનાથી વિપરીત-વિરૂદ્ધ કઈ-કઈ “અમે અણગાર છીએ આ પ્રમાણે અભિમાન પૂર્વક કહે છે-“અમેજ વનસ્પતિ ની રક્ષા કરવામાં તત્પર અને મહાવ્રતધારી છીએ આ પ્રમાણે પ્રલાપ-(બકવાટ) કરનારા દ્રવ્યલિંગી સાધુઓને જુદા સમજે. અણગાર હોવાનું અભિમાન કરનારા એ દ્રવ્યલિંગી સાચા અણુગારના ગુણે માટે જરા પણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી તે ગૃહસ્થનાં કઈ પણ કામને ત્યાગ કરતા नथी. ये मतावे छे. 'यदिमम् .' त्यादि. નાના પ્રકારના વનસ્પતિકાયનાં શસ્ત્રો વડે વનસ્પતિકાયને આરંભ કરીને વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. વનસ્પતિશાસ્ત્ર બે પ્રકારનાં છે-દ્રવ્યશસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્ર द्रव्यशखना ३ ले छे-(१) स्व यशस, (२) ५२४यशस्त्र, मन (3) SHIयश. 1, aisa qोरे २१४ायशस्न छ, यी-(तर, सijसे) पत्थर, डाथ, ५२, Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार चिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ . ५ वनस्पतिकाय हिंसाकारणानि ६२५ कुठारादयः । भावशस्त्रं तु वनस्पति प्रति मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानम् । वनस्पतिकर्मसारम्भेण कर्मणां समारम्भः कर्मसमारम्भः = वनस्पति निमित्तीकृत्य ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धजनकसावद्यव्यापारस्तेन, इमं वनस्पतिकायं विहिंसन्ति । वनस्पतिकाय हिंसायां प्रवृत्ताः खलु पड़जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-' वनस्पतिशस्त्र - मित्यादि । वनस्पतिशास्त्र - वनस्पतिजीवोपमर्दकं शस्त्र पूर्वोक्तप्रकारं, समारभमाणाःनस्पतिं प्रति प्रयुब्जानाः अन्यान् = वनस्पतिकायभिन्नान्, अनेकरूपान, पृथिवीकायादीन्, द्वीन्द्रियादीन् प्रसांथ तदाश्रितान् प्राणान् प्राणिनः हिंसन्ति । TE बहुविधा द्रव्यलिङ्गिनो विद्यन्ते । तत्र शाक्यादयः कन्द - मूल - पत्रपरकायशस्त्र हैं । वसूला, दांती, कुठार आदि उभयकायशस्त्र हैं । वनस्पतिकाय के प्रति मन, वचन और काय का असत् प्रयोग करना भावशस्त्र है । इन शस्त्रद्वारा वनस्पतिकायका आरंभ करके ज्ञानावरण आदि आठप्रकार के कर्मों को उत्पन्न करने वाला सावध व्यापार करके वनस्पतिकाय की हिंसा करते है । जो वनस्पतिकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह छहों जीवनिकायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है, यह बतलाते हैं, 'वनस्पतिशास्त्रम्' इत्यादि । • वनस्पतिकाय की हिंसाजनक पूर्वोक्त शस्त्रों का आरंभ करनेवाले लोग वनस्पतिकाय के अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावरों की तथा वनस्पति- आश्रित द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों की भी हिंसा करते हैं । संसार में अनेक प्रकार के द्रव्यलिंगी हैं । उन में से शाक्य आदि कंद, मूल, સુખ અને અગ્નિ આદિ પરકાયશસ્ત્ર છે. વસૂલા દાંતી—દાતરડું, કુઠાર–કુહાડી આદિ ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. વનસ્પતિકાય પ્રતિ મન, વચન અને કાયને અસત્–પ્રયાગ કરવા તે ભાવશસ્ર છે. એ શàાદ્વારા વનસ્પતિકાયના આરંભ કરીને–જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને ઉત્પન્ન કરવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. જે વનસ્પતિકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તે છજીવનકાયરૂપ સમસ્ત सोनी डिसा रे छे. मे मतावे छे - ' वनस्पतिशास्त्रम् . ' त्याहि. વનસ્પતિકાયના હિંસાજનક પૂર્વોક્ત શસ્ત્રના આરંભ કરવાવાળા લેાક વનસ્પતિકાચના અતિરિક્ત પૃથ્વીકાય, આદિ અન્ય સ્થાવાની તથા વનસ્પતિ આશ્રિત દ્વીન્દ્રિયએ ઇંદ્રિય આદિ ત્રસ જીવાની પણ હિંસા કરે છે. સંસારમાં અનેક પ્રકારના દ્રવ્યલિંગી છે. તેમાંથી શાક્ય આદિ કદ, મૂલ, પત્તા, प्र. म.-७९ Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ आचारागसूत्रे पुष्पफलादिभोजनार्थ वनस्पतिकर्मसमारम्भं कुर्वन्ति, कारयन्ति, कुर्वतोऽनुमोदयन्ति च, तेन षड्जीवनिकायविराधका भवन्ति । दण्डिनोऽपि “वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनाज्ञाराधका अनगाराः स्मः" इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासाः सावधमुपदिशन्ति, शास्त्रप्रतिषिद्धमपि वनस्पतिकर्मसमारम्भं कारयन्ति ।। ते हि व्याख्यानमण्डपादौ चाशोकक्षपत्रादिभिर्वन्दनमालादिकं वन्धयन्ति, नानाविधपुष्पपत्रफलैः पञ्चोपचारादिपूजासु प्रवर्तयन्ति । तथाहि" काले सुइभूएणं, विसिट्टपुप्फाइएहिं विहिणा उ । सारथुइथोत्तगरुई, जिणपूया होइ कायव्वा ॥१॥" (पञ्चाशकवृत्तिः) छाया–काले शुचीभूतेन, विशिष्टपुष्पादिकैर्विधिना तु । सारस्तुति स्तोत्रकरुचिना, जिनपूजा भवति कर्तव्या ॥ १॥ पत्ता, फूल आदि खाने के लिए वनस्पति का आरंभ करते हैं, कराते हैं और करने वाले की अनुमोदना करते हैं। ऐसा करके वे षड्जीवनिकाय की विराधना के भागी होते हैं । "हम पंचमहाव्रतधारी, जिन भगवान् की आज्ञा के आराधक अनगार हैं" ऐसा कहने वाले दंडी झूठे साधु भी सावध का उपदेश देते है और शास्त्र में निषिद्ध किये हुए वनस्पतिकाय के आरंभ का उपदेश देते हैं। वे व्याख्यानमंडप आदि में अशोक वृक्ष के पत्तों से बन्दनवार आदि बँधवाते है, नाना प्रकार के फल फूल पतों से पंचोपचार आदि पूजाओं में (श्रावकों) को प्रवृत्त करते हैं । जैसे "उचित समय पर, विधिपूर्वक विशिष्ट पुष्प आदि के द्वारा सुन्दर स्तोत्र-स्तुतिपूर्वक जिन भगवानकी पूजा करनी चाहिए । ફૂલ આદિ ખાવા માટે વનસ્પતિને આરંભ કરે છે, અને કરાવે છે, અને કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે. એ પ્રમાણે કરીને તે ષડૂજીવનિકાયની વિરાધનાના ભાગીદાર થાય છે. અમે પંચ મહાવ્રતધારી, જિન ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક અણુગાર છીએ.” આ પ્રમાણે કહેવાવાળા દંડી જુઠા સાધુ પણ સાવધને ઉપદેશ આપે છે, અને શાઅમાં નિષેધ કરવામાં આવેલે વનસ્પતિકાયના આરંભને ઉપદેશ આપે છે. તે વ્યાખ્યાન–મંડપ આદિમાં અશોકવૃક્ષનાં પાંદડાંથી તરણ આદિ બંધાવે છે. નાના પ્રકારના ફલ-ફૂલ અને પાંદડાથી પંચેપચાર આદિ પૂજાઓમાં (શ્રાવકોને પ્રવૃત્ત કરે છે–જોડે છે. જેમ–ઉચિત સમય-ચોગ્ય સમય પર વિધિપૂર્વક વિશિષ્ટ-ઉત્તમ પુષ્પ આદિ દ્વારા સુન્દર તેત્ર, સ્તુતિપૂર્વક જિન ભગવાનની પૂજા કરવી જોઈએ.” Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ. ५ .५ वनस्पतिकायहिंसाकारणानि ६२७ अपरञ्च-उमास्वातिवाचककृतप्रकरणे- .. 'मध्याह्न कुसुमैः पूजा' इति । 'गन्धवासाक्षतैः स्रग्भिः ' इति । " 'प्रधानैश्च फलैः पूजा' इत्यादि । किञ्च" न शुष्कैः पूजयेदेवं, कुसुमैर्न महीगतैः।। न विशीर्णदलैः स्पृष्टै, न शुभै विकासिभिः " ॥१॥ ‘न शुष्कैः पूजयेद्देवं कुसुमैर्न महीगतैः' इत्यनेन 'आर्दै स्रोटि तैश्च कुसुमैदैवं पूजयेत् '-इत्यर्थोऽवगम्यते । अहो ! कीदृशो महासावधोपदेशस्तेषाम् । एवं देवमन्दिरादौ कदलीस्तम्भादिरोपणेन, अशोकादिवृक्षपत्रैर्वन्दनपञ्चाशकवृत्ति उमास्वातिकृत प्रकरण में कहा है "मध्याह्न में फूलों से पूजा की जाती है । " "गंध, वास और अक्षत से तथा मालाओं से पूजा होती है । " उत्तम फलों से पूजा की जाती है " इत्यादि । और भी कहा है-- "सूखे, जमीन पर गिरे हुए, टूटी पँखुडीवाले, छुए हुए, खराब और विना खिले फूलों से पूजा नहीं करनी चाहिए"। 'सूखे और जमीन पर गिरे हुए फूलों से पूजा नहीं करनी चाहिये ' इसका अभिप्राय यह हुआ कि ताजे और तोडे हुए फूलों से पूजा करनी चाहिये अरेरे ! उनका वह कैसा सावध उपदेश है। इस प्रकार देवमंदिर आदि में कदलीस्तंभ खडा करके, अशोक वृक्ष के पत्तों से પંચાશકવૃત્તિ ઉમાસ્વાતિકૃત પ્રકરણમાં કહ્યું છે– મધ્યાહૂનમાં ફૂલવડે પૂજા કરવામાં આવે છે.” “ગંધ, વાસ અને અક્ષતથી तथा भाणायाथी भूल थाय छे.' त्तम गाथी पूत ४२वामां भाव छ. 'छत्याल બીજું પણ કહ્યું છે કે – "सूi, मीन ५२ भरी ५i, रेनी ५iमडी तुटरी गाय, २५श रामेसां, ખરાબ અને ખિલ્યા વિનાનાં ફૂલથી પૂજા નહિ કરવી જોઈએ. » સૂકાં અને જમીન પર ખરી પડેલાં ફૂલે વડે પૂજા ન કરવી જોઈએ. આને અભિપ્રાય એ થયો કે લીલાં અને તાજા ડેલાં ફૂલેથી પૂજા કરવી જોઈએ, અરેરે! તેઓને આ સાવદ્ય ઉપદેશ કે છે ? આ પ્રમાણે દેવમંદિર આદિમાં કેળના સ્થંભ ઉભા કરીને અશોકવૃક્ષનાં પાંદડાંથી Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ आचारास्त्रे मालिकादिवन्धनेन, प्रतिमोपरि सचित्तपत्रपुष्पादिक्षेपणेन सचित्तनालिकेरदाडिमरसालफलादिनैवेद्योपचारेण च वनस्पतिहिंसां कारयन्तस्ते तदाश्रिताननेकविधान् त्रसस्थावरान् प्राणिनो घातयन्ति । नहि-वीतरागाणां सावद्या सपर्या समुचिता, 'एस खलु गंथे' इत्यादिवचनेन सर्वारम्भाणामस्मिन्नेवागमे तैः साक्षात् प्रतिपिद्धत्वात् । नहि तत्तत्यागिभ्यस्तत्तत्त्यक्तद्रव्यसमर्पणं तुष्टिकरं भवतीति । नहि लोके मद्यमांसत्यागिभ्यो मद्यमांससमर्पणं तत्परितोपाय जायते । अलं वहुना ! हरितकन्दमूलादित्यागिनः श्रावका अपि न हरितकन्दमूलादिसमर्पणेन संतुष्यन्तीति विचारयन्तु मनीषिणः ॥ सू० ५॥ ___ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद-'तत्थ.' इत्यादि। वन्दनवार बाधकर, प्रतिमा पर सचित्त पत्ते, फूल आदि चढाकर, सचित्त नारियल, दाडिम, आम आदि नैवेद्य के उपचार से वनस्पति को हिंसा करते हुए वे वनस्पति-आश्रित अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों का घात करवाते हैं । वीतराग देव की पूजा सावध होना उचित्त नहीं है । 'एस खलु गंथे.' इत्यादि कथन द्वारा इसी आगम में समस्त आरंभों का वीतराग भगवान्ने साक्षात् निषेध किया है । जो पुरुष जिस वस्तु का त्यागी है, उसकी तुष्टि उस वस्तु को अर्पित करने से नहीं हो सकती । लोक में मद्य-मांस का त्याग करने वालों को मद्य-मांस की भेट संतोषजनक नहीं होती। अधिक क्या कहे ! हरित कंद मूल के त्यागी श्रावक भी हरित कन्द मूल की भेंट से प्रसन्न नहीं होते है । बुद्धिमान् पुरुष स्वयं विचार करलें ॥ सू० ५ ॥ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते है-'तत्थ.' इत्यादि । વંદનવાર બાંધીને, પ્રતિમા ઉપર સચિત્ત પાંદડા, ફૂલ આદિ ચઢાવીને, સચિત્ત નાળિએર, દાડમ, આંબા આદિ નૈવેદ્યને ઉપચારથી વનસ્પતિની હિંસા કરીને તે વનસ્પતિ–આશ્રિત અનેક પ્રકારના ત્રસ–સ્થાવર જીનો ઘાત કરાવે છે. વીતરાગદેવની પૂજા સાદ્ય હોય ते योग्य नथी. 'एस खलु गंथे.' त्याहि ४थन द्वारा सा मागममा तमाम सभाરંભને વીતરાગ ભગવાને સાક્ષાત્ નિષેધ કર્યો છે. જે પુરુષ જે વસ્તુના ત્યાગી છે, તેની પ્રસન્નતા તે વસ્તુને અર્પણ કરવાથી થઈ શકતી નથી. લોકમાં મધમાંસના ત્યાગી–ત્યાગ કરવાવાળાને મદ-માંસની ભેટ સંતોષ ઉત્પન્ન કરતી નથી, અધિક શું કહીએ! લીલા કંદમૂળના ત્યાગી શ્રાવક પણ લીલા કન્દમૂળની ભેટથી પ્રસન્ન થતા નથી તે બુદ્ધિમાન પુરુષ પોતે વિચાર કરી લીએ. એ સૂ૦ પ सुधर्मा पाभी भ्यू स्वाभीर ४९ छ-'तत्य.' त्यादि Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ ७.५ मू.६ वनस्पतिकायहिंसाकारणानि ६२९ मूलम्तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुःखपडिघायहेडं, से सयमेव वणस्सइसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वणस्सइसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वणस्सइसत्थं समारंभमाणे समणुजागइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए ॥ मू० ६॥ छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दन-मानन -पूजनाय, जातिमरणमोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं, स स्वयमेव वनस्पतिशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्याबोधये ॥ सू० ६ ॥ टीका-- तत्रवनस्पतिकायसमारम्भे, भगवता-श्रीमहावीरेण, परिज्ञा-सम्यगवबोधः खलु-निश्चयेन भवेदिता-प्रतिवोधिता-कर्मबन्धसमुच्छेदार्थं जीवेन परि मूलार्थ--वनस्पतिकाय के आरंभ के संबंध में भगवान् ने सम्यक् बोध दिया है। इस जीवन के वन्दन, मानन और पूजन के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए तथा दुःखों का विनाश करने के लिए स्वयं वनस्पतिका यशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से आरंभ करता और आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है । वह आरंभ उस के अहित के लिए, उसकी अबोधि के लिए होता है । सू० ६ ॥ टीकार्थ---वनस्पतिकाय के आरंभ के विषय में भगवान् श्री महावीर स्वामीने सम्यक उपदेश दिया है । अर्थात् भगवान ने बतलाया है कि-कर्मबंध को नष्ट करने के મૂલાઈ–વનસ્પતિકાયના આરંભના સબંધમાં ભગવાને સમ્યફ ધ આ છે. આ જીવનના વંદન, માનન, અને પૂજન માટે, જન્મ-મરણથી છુટવાને માટે તથા દુઃખને વિનાશ કરવા માટે સ્વયં વનસ્પતિકાયશસ્ત્રનો આરંભ કરે છે, બીજા પાસે આરંભ કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. તે यास तेन मिति भाटे तेभर तेनी माधि भाटे खाय छे. ॥ सू०६ ॥ ટીકાઈ–વનસ્પતિકાયના આરંભના વિષયમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ સમ્યફ ઉપદેશ આપે છે. અર્થાત્ ભગવાને બતાવ્યું છે કે-કર્મબંધને નષ્ટ કરવા માટે Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारागसूत्रे ज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतियोधितमिति भावः । उपभोगद्वारम्लोकः कस्मै प्रयोजनाय वनस्पतिकायमुपर्दयती ? त्याह-' अस्य चैव जीवितस्ये '-त्यादि। अस्यैव नश्वरस्य जीवितस्य जीवनस्य सुखार्थम्आहार-वस्त्र-पात्र-माल्य-गन्ध-चूर्ण-तालसन्ता-ऽगला-खट्वा-पल्यङ्क-शिविकाशकट-हल-मुसल-पीठ-फलक-सिंहासन-दण्ड-लकुट-कपाट-वीणा-शालभजिका-निर्माण-तापन-प्रतापन-प्रकाशने-न्धन-तैलाबर्थमित्यर्थः । तथा-परिवन्दनमानन-पूजनाय, परिवन्दन-प्रशंसा, तदर्थ, यथा-कश्चित् स्वप्रशंसार्थम् उपवनादौ पत्रादिकर्तनकलाकौशलेन वृक्षलतादीनां पत्रादीनि तथा छेदयति यथा तत्कर्तनेन लिए जीव को परिज्ञा (उपदेश) अवश्य स्वीकार करना चाहिए । उपभोगद्वारलोग किस प्रयोजन से वनस्पतिकाय की हिंसा करते है ? यह बतलाते हैइसी नाशशील जीवन के सुख के लिए अर्थात् आहार, वस्त्र, पात्र, माला गंध, चूर्ण, तालवृन्त (पंखा), आगल, खाट, पलंग, पालकी, गाडी, हल, मूसल, पीढा, (वाजोट) फलको (पाट), सिंहासन, डंडा, लकडी, किवाड, वीणा, पुतली आदि बनवाने के लिए, तपाना, विशेष तपाना, प्रकाशन, ईधन, और तैल आदि के प्रयोजन से वनस्पतिकाय की हिंसा करते है । तथा प्रशंसा के लिए भी वनस्पति की हिंसा करते हैं, जैसे कोई पुरुष अपनी प्रशंसा के लिए बगीचा आदि में पत्ता वगैरह काटने की कला में कुशलता प्रकट करने के अभिप्राय से वृक्ष लता वगैरह को इस प्रकार काटता है जिससे उसमें જીવને પરિજ્ઞા (ઉપદેશ)ને અવશ્ય સ્વીકાર કરે જોઈએ. पा -- લોક શું પ્રજનથી વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે? તે બતાવે છે આ નાશ पामवावा ना सुभ भाटे, अर्थात्-माडा२, १स, पात्र, मामा, अध, यूए, ५ मा मारिया, भाट, ५, पासमी, गाडी, स, भूसा, माले, पाट, सिंहासन,1, લાકડી, કમાડ, વીણા, પુતલી વગેરે બનાવવા માટે, તપાવવું વિશેષ તપાવવું, પ્રકાશન, ઈન્દન-(બાળવાના લાકડા) અને તૈલ આદિના પ્રજનથી વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે. તથા પ્રશંસા માટે પણ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે, જેમકે-કેઈ પુરુષ પિતાની પ્રશંસા માટે બગીચા આદિમાં પાંદડા વગેરે કાપવાની કલામાં કુશળતા બતાવવાના અભિપ્રાયથી Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ सू.६ वनस्पतिकायहिंसा ६३१ गजाश्वमृगव्याघ्रसिंहादीनां स्वरूपं दधाना वृक्षादयस्तस्योपवनादेविशिष्टशोमां जनयन्ति। माननं जनसत्कारस्तदर्थ, यथा-स एव पत्रादिकर्तनकलाकुशलो मालाकारः स्वमाननार्थ कर्तरीशस्त्रेण वृक्षलतादीनां पत्रादिकं कृन्तति। पूजन वस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्थम् , यथा-देवपतिमाद्यर्थं पत्रपुष्पफलादीनां त्रोटने । तथाजातिमरणमोचनाय जन्ममरणबन्धमोचनाथै, यथा-मुक्तिकामन पूजायां पुष्पपत्रादिसमुच्छेदने, तथा-दुःखप्रतिघातहेतुं व्याधिशमनाद्यर्थम्-ओपधिवृक्षलतादीनां मूलकन्दशाखापत्रपुष्पफलादिभेदने, स जीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव हाथी, घोडा, हिरन, बाघ, सिंह आदि का आकार बन जाता है और इससे उस बगीचे की सुन्दरता बढती है, ऐसा जानकर करता है । जनसत्कार के लिए भी वनस्पति की हिंसा की जाती है, जैसे-पत्ता वगैरह काटने में कुशल वही पूर्वोक्त माली कैंची से वृक्षों या लताओं के पत्ता आदि काटता है । तथा पूजन के लिए अर्थात् वस्त्रों और रत्नों के लिए भी वनस्पतिकाय की हिंसा करते है । जैसे-देव प्रतिमा आदि के लिए पत्र, फूल, फल तोडने में । जन्म मरण से छुटकारा पाने से लिए भी उक्त हिंसा की जाती है। जैसे-मुक्ति की इच्छा से पूजा के लिए फूल-फल तोडने में । दुःखों का प्रतीकार करने के लिए भी यह हिंसा की जाती है । जैसे-रोग मिटाने के लिए ओषधि, वृक्ष, लता, मूल, कन्द, शाखा, पत्र, फूल आदि तोडने में हिंसा की जाती है। વૃક્ષ લતા વગેરેને એવા પ્રકારે કાપે છે કે તેમાં હાથી, ઘેડા, હરણ, વાઘ, સિંહ આદિને આકાર બની જાય છે, અને તેથી એ બગીચાની સુંદરતા વધે છે. એવું સમજીને જ કરે છે. જન–સત્કાર માટે પણ વનસ્પતિની હિંસા કરવામાં આવે છે, જેમ-પાંદડાં વગેરેને કાપવામાં કુશલ આગળ કહેલે તેજ માળી કંચી (કાતર)થી વૃક્ષો અથવા લતાઓનાં પત્તા આદિ કાપે છે. તથા પૂજન માટે અર્થાત્ વ અને રત્નને માટે પણ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરે છે, જેમ–દેવપ્રતિમા આદિ માટે પત્ર ફૂલ ફલ તોડવામાં. જન્મ-મરણથી છુટવા માટે પણ પૂર્વ કહેલી હિંસા કરવામાં આવે છે જેમકેમુક્તિની ઈચ્છાથી પૂજા માટે કુલ ફેલ તેડવામાં. દુને પ્રતિકાર કરવા માટે પણ એ હિંસા કરવામાં આવે છે. જેમકે–રોગનિવારણ કરવા માટે ઔષધી, વૃક્ષ, લતા, મૂલ, કન્દ, શાખા, પત્ર, ફૂલ આદિ તેડવામાં હિંસા કરવામાં આવે છે. Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ आचारागसूत्र वनस्पतिशस्त्रं वनस्पतिकायोपमर्दकं द्रव्यभावशस्त्र समारभते व्यापारयति । अन्यैवा वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयति । अन्यान वा वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति अनुमोदयति । तत्-वनस्पतिकायसमारम्भ, तस्य वनस्पतिसमारम्भ कुर्वतः कारयितुः अनुमोदयितुश्च अहिताय भवति । तथा-तत् तस्य अबोधये सम्यक्त्वालाभाय भवति । ।। सू० ६ ॥ येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे वनस्पतिकायस्वरूपं परिज्ञातं, स एवं विभावयतीत्याह-'से तं.' इत्यादि। मूलम्से तं संवुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अण इस प्रकार जीवन को सुखी बनाने का अभिलापी वह पुरुष वनस्पतिकाय की हिंसा करनेवाले द्रव्य और भावशस्त्र का स्वयं उपयोग करता है, दूसरों से उपयोग कराता है और वनस्पतिशस्त्र का उपयोग करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। वनस्पतिकाय का वह आरंभ, आरंभ करने वाले, कराने वाले और अनुमोदन करने वाले के अहित के लिए होता है और सम्यक्त्व की अप्राप्ति का कारण बनता है ।। सू० ६॥ तीर्थकर आदि के निकट वनस्पतिकाय का स्वरूप जिसने जान लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है-'से तं.' इत्यादि । मूलार्थ-वह पुरुष भगवान् या अनगारों से सुनकर समझ-बूझकर संयम એ પ્રમાણે જીવનને સુખી બનાવવાના અભિલાષી તે પુરુષ વનસ્પતિકાયની હિંસા કરવાવાળા દ્રવ્ય અને ભાવ અને સ્વયં ઉપગ કરે છે, બીજા પાસે ઉપગ કરાવે છે અને વનસ્પતિશાસ્ત્રને ઉપયોગ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. વનસ્પતિકાયને આ આરંભ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવવાવાળાને અને અનુમોદન કરવાવાળાને અહિત માટે છે અને સમ્યક્ત્વની અપ્રાપ્તિનું કારણ બને છે. આ સૂદ I તીર્થકર આદિના સમીપે વનસ્પતિકાયનું સ્વરૂપ જેણે જાણી લીધું છે. તે આ प्रमाणे विया२ ४२ छ-' से तं.' त्यादि. મૂલાઈ–તે પુરુષ ભગવાન અથવા અણગારો પાસેથી સાંભળી-સમજીબુઝીને Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ५ सू. ६ वनस्पतिविराधनादुष्फलम् ६३३ गाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवइ - - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सइकम्मसमारंभेणं वणस्सइसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ || ७|| छाया--- वा सतत् संबुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेषां ज्ञातं भवति - एष खलु ग्रन्थः, एष खह मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः । इत्यर्थं गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शखः वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिशस्त्रं समारभगाणः अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विनिम्ति ॥ स्रु० ७ ॥ टीका - यः खलु भगवतः = तीर्थङ्करस्य, अनगाराणां तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानां अन्तिके श्रुत्वा, आदानीयम् = उपादेयसर्व सावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं, समुत्थाय = अङ्गीकृत्य विहरति स तत् वनस्पतिकायसमारम्भणं संबुध्यमानः= अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन् एवं विभावयति - ' एवं खलु० ' इत्यादि । ग्रहण करके विचरता है । वह इस प्रकार समझता है - वनस्पतिकाय का आरंभ ग्रंथ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । गृद्ध लोग इसके लिए नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का आरंभ करके, शस्त्र का प्रयोग करते हुए और भी अनेक प्राणियों का घात करते है | सू. ७ ॥ टीकार्थ - - जो पुरुष तीर्थंकर से या उनके श्रमण निर्ग्रन्थों से सर्वसावध त्याग रूप संयम स्वरूप समझकर और उसे अंगीकार करके विचरता है वह वनस्पतिकाय के आरंभ को अहितकर और अबोधिजनक समझकर इस प्रकार विचार करता है:' एवं खलु ० ' इत्यादि । સંયમ ગ્રહણ કરીને વિચરે છે. તે આ પ્રમાણે સમજે છે-વનસ્પતિકાયના આરંભ ગ્રંથ છે, એ માહ છે, એ માર છે, એ નરક છે. ગૃદ્ધ લેાક એ માટે નાના પ્રકારના શસ્ત્રાથી વનસ્પતિકાયના આરંભ કરીને શસ્રના પ્રયાગ કરતા થકા ખીજા પણ અનેક आशियाना धात उरे छे. ॥ सू. ७ ॥ ટીકા”—જે પુરૂષ તીર્થંકરથી અથવા તેમના શ્રમણ નિર્ઝન્થા પાસેથી સર્વસાવદ્ય (કના) ત્યાગરૂપ સંયમના સ્વરૂપને સમજી ને અને તેને અંગીકાર કરીને વિચરે છે, તે વનસ્પતિકાયના આરંભને અહિતકર અને અમેાધિજનક સમજી આ प्रमाणे विचार उरे छे-' एवं खलु०' त्याहि. प्र. आ-८० Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे ६३४ इह = मनुष्यलोके एकेषां श्रमणनिर्ग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेवं ज्ञातं = विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाङ्क्षायामाह - 'एष खलु० ' इत्यादि । एषः वनस्पतिशस्त्रसमारम्भः खलु निश्चयेन ग्रन्थः कर्मवन्धः, कारणे कार्योंपचारात् कारणभूतो वनस्पतिशस्त्रसमारम्भ एवं कर्मबन्धरूपो ग्रन्थ इत्युच्यते । एवमग्रेऽपि वोध्यम् । तथा एपः वनस्पतिशस्त्रसमारम्भः मोह :- विपर्यास:अज्ञानम् । तथा-एष एव मारः - मरणं - निगोदादिमरणरूपः । तथा एष एव नरकः = नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इस मनुष्य लोक में जिन्हें श्रमण निर्गयों के उपदेश से सम्यग्ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो गया है, उन्हीं को यह विदित होता है । क्या विदित होता है ? इस शका का समाधान करने के लिए आगे कहते हैं-' एष खलु ग्रन्थ० ' इत्यादि । 2 वनस्पतिकाय का आरंभ निश्चय से ग्रंथ अर्थात् कर्मबंधरूप है । कारण में कार्य का उपचार करके आरंभ को कर्मबंध कहा है । वस्तुतः वह कर्मबंध का कारण है । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए । वनस्पतिकाय का समारंभ मोह अर्थात् अज्ञान है - अज्ञानजनक है । यह मार है अर्थात् निगोद आदि में मृत्यु का कारण है । यह नरक है अर्थात् नारकी जीवों को दश प्रकार की यातना का कारण है । આ મનુષ્યલેાકમાં જેને નિન્ગેાના ઉપદેશથી સભ્યજ્ઞાન, અને વૈરાગ્ય ઉત્પન્ન થઇ ગયા છે. તે આ જાણે છે. શું જાણે છે ? એ શંકાનું સમાધાન કરવા भोटे भागण अड्डे छे, ' एष खलु ग्रन्थ० ' - छत्याहि. વનસ્પતિકાયના આરંભ નિશ્ચય ગ્રંથ છે અર્થાત્ કખ ધરૂપ છે, કારણુમાં કાર્યના ઉપચાર કરીને આરભને કર્માંધ કહે છે, વસ્તુતઃ તે કર્મ ખંધનું કારણ છે. એ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું જોઈએ. વનસ્પતિકાયના સમારંભ માહે અર્થાત્ અજ્ઞાન છે—અજ્ઞાનજનક છે, તે માર છે, અર્થાત્ નિગેદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે. તે નરક છે, અર્થાત્ નારકી જીવાને દસ પ્રકારની યાતનાઓનું કારણ છે. } 1 Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ५ मु. ७ वनस्पतिविराधनादुष्फलम् ६३६ इत्यर्थम् एतदर्थ, कर्मबन्ध-मोह-मरण-नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव लोका=अज्ञानवशवर्ती जीवः, गृद्धा-लिप्सुरस्ति । यद्वा-गृद्धः भोगाभिलापी, लोक संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव-ग्रन्थ-मोह-मरणनरकार्थमेव प्रवर्तत इति शेषः। लोकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव प्रवर्तत इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-'यदिमम्.' इत्यादि । यद्-यस्माद् , विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तप्रकारैः, वनस्पतिकर्मसमारम्भेण वनस्पतिकायोपमर्दनरूपसावधव्यापारण, इमंचनस्पतिकायं विहिनस्ति । तथा वनस्पतिशस्त्र समारभमाणः व्यापारयन् अन्यान् पृथिवीकायादीन् अनेकरूपान् सान् स्थावरांश्च तदाश्रितान् प्राणान्याणिनः विहिनस्ति=उपमदयति ।मु० ७॥ अज्ञानी जीव कर्मबंध, मोह, मरण और नरक रूप इन फलों को प्राप्त करके भी बार-बार इसी में गृद्ध होते है । अथवा भोग के अभिलाषी पुरुष इसी ग्रंथ, मोह, मरण और नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते है । लोग पुन-पुनः कर्मबंध आदि के लिए ही प्रवृत्ति करते है' यह जो कथन किया है सो कैसे ज्ञात हुआ ? इस जिज्ञासा के होने पर कहते हैं-'यदिमम् .' इत्यादि । __ क्यों कि नाना प्रकार के पूर्वोक्त शस्त्रों द्वारा वनस्पति काय की हिंसा करने वाले लोग सावध व्यापार से वनस्पतिकाय का घात करते है। तथा वनस्पतिकाय का आरंभ करते हुए अन्य पृथ्वीकाय आदि अनेक प्रकार के तदाश्रित त्रस और स्थावर जीवों की घात करते है ॥ सू० ७॥ અજ્ઞાની જીવ કર્મબંધ, મોહ, મરણ અને નરકરૂપ એ ફળને પ્રાપ્ત કરીને પણ વારં–વાર એમાં ગૃદ્ધ થાય છે. અથવા ભેગના અભિલાષી પુરુષ આ ગ્રંથ, મોહ, મરણ અને નરક માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. લેક પુનઃ પુનઃ (ફરી-ફરી) કર્મબંધ વગેરે માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે; એ કથન જે युछे, ते ठेवीततामा मा०यु ? मेसा थवाथी ४९ छे. 'यदिमम्.' त्याहि. કેમકે નાના પ્રકારનાં પૂર્વોક્ત શ દ્વારા વનસ્પતિ કાયની હિંસા કરવાવાળા લેક સાવધ વ્યાપારથી વનસ્પતિકાયનો ઘાત કરે છે, તથા વનસ્પતિકાયને આરંભ કરતા થકા, અન્ય પૃથ્વીકાય આદિ અનેક પ્રકારના તદાશ્રિત ત્રસ અને સ્થાવર છે धात ४२ छे. ॥.७॥ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ आचाराङ्गसूत्रे वनस्पतिकर्मसमारम्भफलपदर्शनपुरस्सरं वनस्पतिसमारम्भेऽनेकत्रसस्थावरजीवहिंसाऽवश्यम्भाविनीति प्रदर्शितम् , संपति वनस्पतेः सचेतनत्वशङ्कायां तस्य मनुष्यशरीरवत् सचेतनत्वमस्तीति प्रदर्शयति-' से वेमि.' इत्यादि । ___ यद्वा-यथा मनुष्यशरीरे चैतन्य सुगमं, तथा वनस्पतिकायेऽपि, तस्माद् वनस्पतेर्मनुष्यशरीरसादृश्यं दर्शयति सूत्रकारः-'से वेमि.' इत्यादि । मूलम् -- से वेमि-इमंपि जाइधम्मयं एयपि जाइधम्मयं, इमंपि वुविधम्मयं एयंपि बुढिधम्मय, इमंपि चित्तमंतय एयंपि चित्तमंतयं, इमपि छिण्णं मिलाइ एयंपि वनस्पतिकाय के आरंभ का फल प्रगट करके यह भी प्रदर्शित कर दिया गया है कि-वनस्पतिकाय का आरंभ करने से अन्य त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा भी अवश्य होती है । अब वनस्पतिकाय के सचेतन होने में शंका होने पर उसकी मनुष्य शरीर के समान सचेतनता सूत्रकार प्रकट करते है-'से वेमि.' इत्यादि । अथवा--जैसे- मनुण्यशरीर में चैतन्य को समझना सुगम हैं उसी प्रकार वनस्पतिकाय में भी । अत एव वनस्पति मनुष्यशरीर के समान है, यह बात सूत्रकार कहते है-से बेमि.' इत्यादि। मूलार्थ-वह मैं कहता हूँ-यह (मनुष्यशरीर) जन्मशील है, वह (वनस्पतिशरीर) भी जन्मशील है। यह वृद्धिशील है, वह भी वृद्धिशील है। यह सचित्त है वह भी सचित्त है । छेदने पर यह मुरझा जाता है, वह भी छेदने पर मुरझा जाता है । વનસ્પતિકાયના આરંભનું ફળ પ્રગટ કરીને એ પણ પ્રદર્શિત કરી આપ્યું છે કેવનસ્પતિકાયને આરંભ કરવાથી અન્ય ત્રસ અને સ્થાવર જીની હિંસા પણ અવશ્ય થાય છે. હવે વનસ્પતિકાયની સચેતનતા હવામાં શંકા હોવાથી તેની સચેતના भनुष्यशशरनी सत्यतनता समान सूत्रधार प्रगट ४२ छ-'से बेमि.' त्याहि. અથવા–જેમ મનુષ્ય શરીરમાં ચિતન્યને સમજવામાં સુગમતા છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિકાયમાં પણ સુગમતા છે. એ માટે વનસ્પતિ મનુષ્ય શરીરના સમાન છે. એ વાત सूत्र४२ ४९ छ:-" से वेमि.' त्याहि. મૂલાર્થ–તે હું કહું છું—આ (મનુષ્ય શરીર) જન્મશીલ છે તે (વનસ્પતિ(શરીર) પણ જન્મશીલ છે, આ વૃદ્ધિશીલ છે, તે પણ વૃદ્ધિશીલ છે, આ સચિત્ત છેછેદવાથી તે સૂકાઈ જાય છે, તે પણ દવાથી સૂકાઈ જાય છે. આ પણ આહારક છે, તે Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीकाअध्य. १ उ. ५.८ मनुष्य शरीर वनस्पतिशरीरयोः साम्यम् ६३७ छिष्णं मिलाइ, इमंपि आहारगं, एयपि आहारगं, इमंपि अणिच्चयं एयंपि अणिच्चयं, इपि असासयं एप असासयं, इमपि चभवचयं एयपि चओवचइयं, इमपि विपरिणाममयं एयपि विपरिणामधम्मयं ॥ सू० ८ ॥ छाया , " सत्रवीमि - इदमपि जातिधर्मकम् एतदपि जातिधर्मकम्, इदमपि वृद्धिधर्मकम् एतदपि वृद्धिधर्मकम् इदमपि चित्तवत् एतदपि चित्तवत् इदमपि छिन्नं म्लायति एतदपि छिन्नं म्लायति, इदमपि आहारकम् एतदपि आहारकम् इदमपि अनित्यकम् एतदपि अनित्यकम् इदमपि अशाश्वतम् एतदपि अशाश्वतम् इदमपि चयोपचयकम् एतदपि चयोपचयकम् इदमपि विपरिणामधर्मकम् एतदपि विपरिणामधर्मकम् ॥ सू० ८ ॥ " टीका -- येन साक्षाद्भगवन्मुखाद् वनस्पतेः सचेतनत्वं श्रुतं सोऽहं ब्रवीमि= यथा भगवता कथितं, तथा कथयामीत्यर्थः । प्रतिज्ञातमर्थं प्रदर्शयति- इदमपीत्यादि । यह भी आहारक है, वह भी आहारक है । यह भी अनित्य है, वह भी अनित्य है । यह भी अशाश्वत है, वह भी अशाश्वत है । यह भी चय - उपचय वाला है, वह भी चय - उपचय वाला है । यह भी विविध प्रकार से परिणमनशील है और वह भी विविध प्रकार से परिणमनशील है || सू० ८ ॥ टीकार्थ – जिसने साक्षात् भगवान् के मुख से वनस्पतिकाय की सचेतनता सुनी है वही मै कहता हूँ-जैसा भगवान् ने कहा है वैसा ही मै कहता हूँ । यही बात कहते है-‘इदमपि०' इत्यादि । પશુ આહારક છે. આ પણ અનિત્ય છે. તે પણ અનિત્ય છે. આ પણ અશાશ્વત છે, તે यए। अशाश्वत छे. या पशु अय- उपययवाजा छे, ते यय यय - अयययवाजा छे. या प વિવિધ પ્રકારથી પરિણમનશીલ છે, અને તે પણ વિવિધ પ્રકારથી પરિણમન શીલ છે. IIસૂ ૮॥ ટીકાથ—જેણે સાક્ષાત્ ભગવાનના મુખથી વનસ્પતિકાયની સચેતનતા સાંભળી છે.તેજ हु हुं हुं नेतुं लगवाने छे, तेयुं हुं हुं छु, मेवात डे छे- 'इदमपि त्याहि. Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ चारसूत्रे इह पुरुषस्योपदेशयोग्यतया सामर्थ्येन संनिहितत्वात्तच्छरीरं संनिकृष्टवा - चिनेदशब्देन परामृश्यते । इदमपि मनुष्यशरीरं यद्वा - सामान्यरूपेण त्रसकाये चैतन्यस्य सुज्ञेयत्वात् इदं = त्र सशरीरं, जातिधर्मकं - जातिः - जननं, तद्धर्मकं - जननस्वभावं, एतदपि = वनस्पतिशरीरमपि जातिधर्मकं = मनुष्यशरीरवद् वनस्पतिशरीरमपि जननस्वभावकमस्तीत्यर्थः । तथा इदमपि मनुष्यशरीरं वृद्धिधर्मकं = बालकौमाराद्यवस्थामाश्रित्य वर्धनस्वभावम्, एतदपि वनस्पतिशरीरं अङ्कर किसलयपत्रस्कन्धशाखाप्रशाखादिना वर्धनशीलम् । इदमपि मनुष्यशरीरं चित्तवत् = चेतना 'इदम् ' शब्द का प्रयोग समीपवर्ती वस्तु के लिए किया जाता है । मनुष्य उपदेश का पात्र है और उसका शरीर भी अत्यन्त समीप है अतः मनुष्य के शरीर को 'इदम् ' शब्दद्वारा निर्दिष्ट किया गया है । अथवा त्रस जीव के शरीर में चैतन्य को समझना सुगम है, इस कारण 'इदम्' का अर्थ मनुष्यशरीर के बजाय त्रस जीव का शरीर समझ लेना चाहिए | यह मनुष्यशरीर या त्रस जीव का शरीर उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी उत्पन्न होने का स्वभाव वाला है । तथा मनुष्य शरीर वृद्धिशील है - बाल, कुमार आदि अवस्थाओं में बढता जाता है उसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अंकुर, किसलय, पत्र, स्कंध, शाखा और प्रशाखा आदि रूप से बढता जाता है । मनुष्यशरीर चेतनावान् है उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी चेतनावान् है, - " 'इदम् ' •’ શબ્દના પ્રયાગ સમીપવર્તી વસ્તુ માટે કરવામાં આવે છે. મનુષ્યજ ઉપદેશને પાત્ર છે, અને તેનુ શરીર અત્યન્ત સમીપ છે. એ કારણથી મનુષ્યના शरीरने ‘इदम्' शब्दद्वारा निर्दिष्ट उयु छे, अथवा त्रस लवना शरीरमां चैतन्यने सभनवु सुगम छे. थे अरथी 'इदम् ' नो अर्थ मनुष्य शरीरना महले त्रस लबनुं શરીર સમજી લેવું જોઈ એ. આ મનુષ્યશરીર અથવા ત્રસજીવનું શરીર ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળું છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનુ શરીર પણ ઉત્પન્ન થવાના સ્વભાવવાળું છે. તથા મનુષ્યશરીર વૃદ્ધિશીલ છે—ખાલકુમાર, આદિ અવસ્થામાં વધતું જાય છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિશરીર यणु अङ्कुर, ङिसलय-भजा, पान, पत्र, स्ध, शामा भने प्रशाखा माहि३पथी वध्ये જાય છે. મનુષ્યશરીર ચેતનાવાન છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પશુ ચેતનાવાન છે, Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१२.५८.८ मनुष्यशरीरवनस्पतिशरीरयो साम्यम् ६३९ युक्तम् , एतदपि वनस्पतिशरीरं चित्तवत् चेतनावत् , लज्जालुधात्र्यादीनां सकोचविकास-स्वापा-वबोधदर्शनात् । इदमपि-मनुष्यशरीरं हस्तादि छिन्नं सत् म्लायति शुष्यति, एतदपि वनस्पतिशरीरमपि पल्लवफलपुष्पादि छिन्नं सत म्लायति= शुष्कं भवति । इदमपि आहारकम्=क्षीरौदनाद्याहारकरणशील, तथैव एतदपि= वनस्पतिशरीरं भूजलाधाहारभोजि, न चैतदाहारकत्वमचेतनानां दृष्टम् ।। तथा इदमपि मनुष्यशरीरम् अनित्यक= न सर्वदाऽवस्थायि. एतदपि वनस्पतिशरीरम् अनित्यकम् आयुषोऽवधिसत्वात् , वनस्पतिशरीरस्य हि उत्कृष्टमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तथा-इदमपि मनुष्यशरीरम् अशाश्वतं प्रतिक्षणमादीचीमरक्यों कि लज्जावती धात्री आदि वनस्पत्तियों में सकोच, विकास, स्वाप (निद्रा) और अवबोध (जागना) देखा जाता है । हाथ आदि मनुष्यशरीर छेदने पर मुरझा जाता है उसी प्रकार पत्ता, फूल, फल आदिरूप वनस्पतिशरीर भी छेदने पर मुरझा जाता है । यह मनुष्यशरीर दूध और ओदन आदि का आहार करता है और वनस्पति शरीर भी पृथ्वी, जल आदि का आहार करता है । आहार करने क्रि क्रिया अचेतन में नहीं देखी जाती। मनुष्यशरीर अनित्य है-सदा ठहरने वाला नहीं है, इसी प्रकार वनस्पतिशरीर भी अनित्य है, क्यों कि उसकी आयु की सीमा है । वनस्पतिशरीर की उत्कृष्ट आयु दस हजार वर्ष की है। मनुष्य शरीर अशाश्वत है-आवीचिमरण प्रतिक्षण होता रहता है, और वनस्पति કેમકે લજજાવંતી–(રીસામણ), ધાત્રી આદિ વનસ્પતિઓમાં સંકેચાવું, વિકાસ, નિદ્રા અને જાગવું જોવામાં આવે છે. હાથ-આદિ મનુષ્ય શરીર છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. તે પ્રમાણે પાંદડા, ફલ, ફૂલ આદિ રૂપ વનસ્પતિશરીર પણ છેદવાથી સૂકાઈ જાય છે. આ મનુષ્ય શરીર દૂધ અને ભાત વગેરેને આહાર કરે છે, તેમ વનસ્પતિશરીર પણ પૃથ્વી, જલ આદિને આહાર કરે છે, આહાર કરવાની ક્રિયા અચેતનમાં જોવામાં આવતી નથી. મનુષ્ય શરીર અનિત્ય છે. હમેશાં સ્થિર રહેવાવાળું નથી, એ પ્રમાણે વનસ્પતિ શરીર પણ અનિત્ય છે. કેમકે–તેની આયુષ્યની સીમા છે. વનસ્પતિશરીરની ઉત્કૃષ્ટ આયુ દસ હજાર વર્ષની છે. મનુષ્ય શરીર આશાશ્વત છે-આવી ચિમરણ પ્રતિક્ષણ થતું રહે છે, તેમ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बामा एतदपिचनस्पतियापचयिकम् इष्टानाचतअतिक्षणमरणशील ६४० आचारागसूत्रे न मरणात्, एतदपि वनस्पतिशरीरम् अशाश्वतं प्रतिक्षणमरणशीलम् । यथाइदमपि मनुष्यशरीरं चयापचयिकम् इष्टानिष्टाहारादिक प्राप्य वृद्धिहासशीलम् , तथा-एतदपि वनस्पतिशरीरं चयापचयिकम् अनुकूल-प्रतिकूलजलवातादिना वृद्धिहासस्वभावम् । यथा-इदमपि मनुष्यशरीरं विपरिणामधर्मक-विविधपरिणामशीलम् , तत्तव्याधिवशाद् उदरद्धिपाण्डुकृशत्वादिरूपं, रसायनस्नेहाधुपचारवशाद् विशिष्टरूपवलोपचयादिरूपं वा विविधपरिणाम प्राप्नोति तथा-एतदपि3 वनस्पतिशरीरं विपरिणामधर्मक-व्याधिवशात् पत्रपुष्पफलादीनां वर्णादिष्वन्यथाभावदर्शनात् , विशिष्टदोहद प्रदानेन कदाचित्तपामुपचयदर्शनाद विविधपरिणामशीलम् । यथा जननस्वभावादिधर्माणां समुदायः सचेतने मनुष्यशरीरे शरीर भी अशाश्वत है-उसका भी प्रतिक्षण मरण होता है । मनुष्यशरीर इष्टानिष्ट आहार आदि को पाकर बढता-घटता रहता है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी अनुकूल जल-वायु से बढता और प्रतिकूल जल-वायु से घटता है । जैसे मनुष्यशरीर में नाना प्रकार के परिणमन होते हैं-विविध बीमारियों से उदर का बढना, पाण्डु, कृशता आदि, तथा रसायन और घृत आदि के सेवन से विशिष्टरूप और बल की वृद्धि होती है, उसी प्रकार वनस्पति का शरीर भी विविध प्रकार के परिणमनवाला है-रोग होने पर वनस्पति के पत्ते, फूल, फल आदि और ही तरह के देखे जाते हैं, विशेष प्रकार का दोहद देने से कभी-कभी उन में उपचय भी होता है । इस प्रकार वनस्पति का शरीर भी विविध परिणमन वाला है । जननस्वभाव आदि धर्मों का समूह सचेतन मनुष्य शरीर में या त्रस વનસ્પતિશરીર પણ અશાશ્વત છે–તેનું પણ પ્રતિક્ષણ મરણ થતું રહે છે. મનુષ્ય શરીર ઈટાનિષ્ટ આહાર આદિથી વધતું ઘટતું રહે છે તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ અનુકૂલ જલ–વાયુથી વધે છે અને પ્રતિકળ જલવાયુથી ઘટે છે. જેમ મનુષ્ય શરીરમાં નાના પ્રકારનું પરિણમન થાય છે, વિવિધ બિમારીઓથી પેટનું વધવું, પાંડુરોગ, કૃશતા (દુબલાપણું) આદિ, તથા રસાયન અને વૃતઆદિના સેવનથી વિશિષ્ટરૂપ અને બલવૃદ્ધિ થાય છે, તે પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ વિવિધ પ્રકારના પરિણામ વાળું છે, રોગ થતાં વનસ્પતિના પાંદડાં, ફલ, ફલ આદિ જૂદીજ જાતનાં દેખાય છે, વિશિષ્ટ પ્રકારના દોહદ દેવાથી કઈ-કઈ વખત તેમાં ઉપચય થાય છે, એ પ્રમાણે વનસ્પતિનું શરીર પણ વિવિધ પરિણમનવાળું છે. જનસ્વભાવ આદિ ધર્મોને સમૂહ સચેતન મનુષ્ય શરીરમાં અથવા ત્રસજીવના શરીરમાં જોવામાં આવે છે, તે જ પ્રમાણ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ५ सू. ८ वनस्पतिसचित्तता ६४१ प्रसशरीरे वा वर्तते, तथा-वनस्पतिशरीरेऽपि, तस्माद् वनस्पतिकायः सचेतन इति निःसंशयं जानीहीति भावः ॥ सू० ८॥ एवं वनस्पतिकायस्य सचित्तत्वं विदित्वा मुनित्वप्राप्तये त्रिकरणत्रियोगैस्तस्समारम्भो वर्जनीय इत्याशयेनाह– 'एस्थ सत्थं.' इत्यादि । मूलम्___एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं वणस्सइसत्थं समारंभेज्जा, णेवण्णेहिं वणस्सइसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे जीव के शरीर में पाया जाता है, उसी प्रकार वनस्पति के शरीर में भी पाया जाता है । अत एव वनस्पतिकाय सचेतन है, यह बात निःसंशय समझ लेना चाहिए ॥ सू० ८ ॥ इस प्रकार वनस्पतिकाय की सचित्तता जानकर साधुता प्राप्त करने के लिए तीन करण और तीन योग से वनस्पतिकाय का समारंभ त्यागना चाहिए । इस अभिप्राय से कहते है:--''एत्थ सत्थं.' इत्यादि । मलार्थ--वनस्पतिकाय में शस्त्र का आरंभ करने वाले को ये आरंभ ज्ञात नहीं होते । वनस्पतिकाय में शस्त्र का आरंभ न करने वाले को ये आरंभ ज्ञात होते हैं। इन्हें जानकर बुद्धिमान् पुरुष न स्वयं वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करे, न दूसरों से वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करावे और न वनस्पतिशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन વનસ્પતિના શરીરમાં પણ જોવામાં આવે છે. એજ માટે વનસ્પતિકાય સચેતન છે, એ पात सहित सभ० वा नये. ॥ ८॥ એ પ્રમાણે વનસ્પતિકાયની સચિત્તતા જાણુને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેગથી વનસ્પતિકાયને સમારંભ યજવો જોઈએ. એ ममिप्रायथा ४ छ:-'एत्थ सत्यं.' छत्यादि મૂલાઈ–વનસ્પતિકાયમાં શસ્ત્રનો આરંભ કરવાવાળાને આ આરંભ જાણવામાં નથી. (અને વનસ્પતિકાયમાં શસ્ત્રને આરંભ નહિ કરવાવાળાને આ આરંભ જાણવામાં છે. તેને જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ પિતે વનસ્પતિશાસ્ત્રને આરંભ કરતા નથી. બીજાની પાસે વનસ્પતિને આરંભ કરાવતા નથી. અને વનસ્પતિશાસ્ત્રનો આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુદન કરતા નથી. જે વનસ્પતિશાસ્ત્રના સમારંભના જાણકાર प्र. आ-८१ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ आचारागसूत्रे चणस्सइसत्यं समारंभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते वणस्सइसत्यसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिणायकम्मे-त्ति वेमि ॥ मु० ९॥ छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्तिः तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैर्वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयेत्, वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते वनस्पतिशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ।। मू० ९॥ टीका-अत्र अस्मिन् वनस्पतिकाये, शस्त्रं-पूर्वोक्तप्रकारं, समारममाणस्य व्यापारयतः, इत्येते-पूर्वोक्ताः त्रिकरण-त्रियोगैः आरम्भाः वनस्पतिकायोपमर्दनरूपाः सावधव्यापाराः अपरिज्ञाताः कर्मवन्धकारणत्वेनानवगता भवन्ति । अत्र अस्मिन्नेत्र वनस्पतिकाये शखंचागुक्तमकारम् असमारभमाणस्य अप्रयुञानस्य इत्येते-पूर्वोक्ता आरम्भा सावधव्यापाराः परिज्ञाता भवन्ति-जपरिज्ञया परिज्ञाता भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिक्षया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः । ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिजा यथा भवति तं प्रकारं दर्शयतिकरे । जो वनस्पतिशस्त्र के समारंभ का ज्ञाता है वही मुनि है, वही परिज्ञातकर्मा है । ऐसा मैं कहता हूँ ॥ सू० ९ ॥ टीकार्थ-वनस्पतिकाय के विषय में पूर्वोक्त प्रकार से शत्र का उपयोग करने वाले को पूर्वोक्त तीन करण तीन योग से होने वाले वनस्पति की हिंसारूप सावध व्यापार-अज्ञात होते हैं, अर्थात् वह नहीं जानता कि-इन व्यापारों से कर्म का बंध होता है । जो वनस्पतिकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का प्रयोग नहीं करता वह पूर्वोक्त सावध व्यापारों का ज्ञाता होता है। वह ज्ञपरिज्ञा से इन्हें जानता है और प्रत्याख्यानपरिक्षा से त्याग देता है । परिज्ञा के पश्चात् ही प्रत्याख्यानपरिज्ञा किस प्रकार होती है सो दिखलाते हैंछे, ते मुनि छ, ते परिज्ञात छ. से प्रभाए हु ४९ छु. ॥ २० ॥ ટીકાથ-વનસ્પતિકાયના વિષયમાં પૂર્વોક્ત પ્રકારથી શસ્ત્રને ઉપયોગ કરવાવાળાને પૂકત (આગળ કહેલા ત્રણ કરણ-ત્રણ વેગથી થવાવાળી વનસ્પતિની હિસારુપ સાવધ વ્યાપાર અજ્ઞાત હોય છે, અર્થાત તેને જાણવામાં નથી કે આ વ્યાપારથી કર્મ બંધ થાય છે. જે વનસ્પતિકાયના વિષયણ પૂર્વોક્ત સાવધ વ્યાપારના જ્ઞાતા હોય છે. તે જ્ઞપરિજ્ઞાથી તેને જાણે છે. અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યાગ કરી દે છે. જ્ઞપરિજ્ઞાની પછીજ પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા કેવા પ્રકારે હોય છે. તે બતાવે છે Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ५ सु. ९ उपसंहार ६४३ ' तत् परिज्ञाये ' त्यादि । तद् = वनस्पतिकायारम्भणं, परिज्ञाय = कर्मवन्धनस्य कारणं भवतीत्यवगत्य, मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं वनस्पतिशस्त्रं समारमेत= व्यापारयेत्, अन्यैर्वा नैव वनस्पतिशस्त्रं समारम्भयेत्, वनस्पतिशस्त्रं समारभमाणान् न समनुजानीयात्=नानुमोदयेत् । शेषं सुगमम् । यस्यैते वनस्पतिकर्मसमारम्भाः = वनस्पति निमित्तीकृत्य कर्मकारणीभूताः सावद्यव्यापाराः परिज्ञाताः = ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिताः, प्रत्याख्यान परिज्ञया च परिहृता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा=त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसावद्यव्यापारः, मुनिर्भवति । ' इति ब्रवीमि ' = इति = एतत्सर्वम्, ब्रवीमि भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ ०९ ॥ ॥ इत्याचाराङ्गसूत्रस्याचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने पञ्चमोद्देशकः संपूर्णः ॥ वनस्पतिकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर हेय - उपादेय का विवेक रखनेवाला बुद्धिमान् पुरुष स्वयं वनस्पतिकाय का आरंभ न करे, दूसरों से आरंभ न करावे और आरंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । शेष सब सुगम है । वनस्पतिकाय के आरंभ के निमित्त से होने वाले सावद्य व्यापारों को जिसने ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण जान लिया है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है, वह तीन करण तीन योग से समस्त सावधों का त्यागी ही मुनि होता है । सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते है - हे जम्बू ! जैसा भगवान् के समीप मैने सुना है, वैसा ही यह सब मै कहता हूँ || सू० ९ ॥ ॥ श्री आचाराङ्गसूत्रकी 'आचारचिन्तामणि ' टीका के हिन्दी अनुवाद में प्रथम अध्ययनका पाचवा उद्देश समाप्त ॥ १-५ ॥ વનસ્પતિકાયના આરંભને કર્મબંધનુ કારણ જાણીને હૈય-ઉપાદેયને વિવેક રાખવાવાળા બુદ્ધિમાન્ પુરૂષ પાતે વનસ્પતિકાયને આરભ કરતા નથી. ખીજા પાસે આરંભ કરાવતા નથી, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમેદન આપતા નથી. શેષ-ખાકી સર્વ સુગમ છે. વનસ્પતિકાયના આરંભના નિમિત્તથી થવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપારાને જેણે સરિજ્ઞાથી કબંધનું કારણ જાણી લીધુ છે અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યજી આપ્યા છે તે ત્રણ કરણ ત્રણ ચેગથી સમસ્ત સાવદ્યોના ત્યાગીજ મુનિ હોય છે. સુધર્માસ્વામી જમ્મૂસ્વામીને કહે છેહે જમ્મૂ ! જેવું ભગવાનની સમીપ મે' સાંભળ્યુ છે; તેવુંજ આ સર્વ હું કહું છું "સૂ॰ હા श्री आयारांगसूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' टीना गुनराती અનુવાદમાં પ્રથમ અધ્યયનના પાંચમા ઉદ્દેશક સમાપ્ત, ૧-૫|| Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६४४ आचारांगसूत्रे ॥अथ षष्ठोदेशः ॥ अनन्तरपञ्चमोद्देशके वनस्पतिकायस्वरूपं निरूपितम् । अधुना क्रमप्राप्तत्रसकायस्वरूपप्रतिवोधनार्थमयं षष्ठ उद्देशकः प्रस्तूयते । इयं हि शैली भगवद्देशनायाः, यद्-वनस्पतिकायानन्तरं त्रसकायप्रतिवोधनम् , सर्वस्मिन्नागमे तथैव भगवदेशनायाः सत्त्वात् । एतत् समीचीनमपि, मनुष्यशरीरदृष्टान्तोपन्यासेन वनस्पतेः सचेतनत्वं साध्यते, तत्र वनस्पतिकायस्वरूपविज्ञानानन्तरं मनुष्यस्वरूपं जिज्ञासमानस्य शिष्यस्य प्रतिबोधनाय तस्य त्रसकायान्तर्गतत्वेन त्रसकायोद्देशकथनस्यौचित्यात् । त्रसकायस्वरूपं वक्तुमनाः श्री सुधर्मास्वामी कथयति-से वेमि.' इत्यादि । छठाउद्देश पिछले पांचवें उद्देश में वनस्पतिकाय का स्वरूप निरूपण किया गया है अब क्रम से प्राप्त त्रसकाय का स्वरूप बतलाने के लिए छठा उद्देश कहते हैं। भगवान् के उपदेश की यही शैली है कि वनस्पतिकाय के अनन्तर त्रसकाय का स्वरूप समझाया जाता है । तब आगमो में भगवान् का उपदेश इसी प्रकार है । यह ठीक भी है, क्यों कि मनुष्य के शरीर का दृष्टान्त देकर वनस्पति की सचित्तता सिद्ध की है तो वनस्पतिकाय के स्वरूप के पश्चात् मनुष्य का स्वरूप जानने की इच्छा रखने वाले शिष्य के प्रतिबोध के लिए त्रसकाय का स्वरूप समझना चाहिए, क्यों कि मनुष्य भी त्रसकाय के अन्तर्गत है । त्रसकाय का स्वरूप कहने की इच्छा रखने वाले श्री सुधर्मा स्वामी अलग सूत्र कहते है:-'से बेमि.' इत्यादि । छो देशપાછળના પાંચમા ઉદેશમાં વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. હવે ક્રમથી પ્રાપ્ત ત્રસકાયના સ્વરૂપને બતાવવા માટે છઠ્ઠા ઉદ્દેશને કહે છે. ભગવાનના ઉપદેશની એજ શિલી છે કે –વનસ્પતિકાયની પછી ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવામાં આવે છે. સર્વ આગમોમાં ભગવાનને ઉપદેશ આ પ્રમાણે છે, અને તે ઠીક પણ છે, કેમકે મનુષ્યના શરીરનું દૃષ્ટાન્ત આપીને વનસ્પતિની સચિત્તતા સિદ્ધ કરી છે, તે વનસ્પતિકાયના સ્વરૂપ પછી મનુષ્યસ્વરૂપ જાણવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શિષ્યના પ્રતિબંધ માટે ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજાવવું જોઈએ, કારણકે મનુષ્ય પણ ત્રસકાયની અન્તર્ગત છે. ત્રસકાયના સ્વરૂપને કહેવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા શ્રી સુધર્મા स्वाभी. माजनु सूत्र ४ छ:-' से बेमि.' त्याल. Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार चिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ६ सू० १ त्रसजीव भेदाः मूलम् - से वे संति तसा पाणा, तंजहा- अंडया, पोयया, जराज्या, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा उब्भियया, उबवाइया, एस संसारेति पबुचड़ मंदस्स अवियाणओ || सू० १ ॥ ६४६ छाया- सब्रवीमि, सन्तीमे साः प्राणाः, तद्यथा - अण्डजाः, पोतजाः, जरायुजाः, रसजा, सस्वेदजाः संमूच्छिमा : ( संमूर्च्छनजाः ) उद्भिज्जाः, औपपातिकाः ( उपपातजाः) । एष संसार इति प्रोच्यते मन्दस्य अविजानतः ॥ स्र० १ ॥ टीका येन भगवदनारविन्द निर्गतसकलार्थाः सम्यगवधारिताः सोऽहं ब्रवीमि = यथा भगवन्मुखाच्छ्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः । साः माणा इमे सन्तीत्यन्वयः । त्रसा:- त्रस्यन्ति - त्रसनामकर्मोदयात् तापाssछुपतप्ताच्छायाऽऽदिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति सा = द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ताः । " मूलार्थ--वह मै कहता हॅू-ये त्रस प्राणी है, जैसे- अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदन, संमूर्च्छित, उद्भिज और औपपातिक ( उपपातज) । मद एवं अज्ञानी के लिए यह संसार कहा गया है || सू० १ ॥ टीकाय -- जिसने भगवान् के मुखकमल से निकले हुए समस्त जीवादि स्वरूपो को भली भाँति समझ लिया है ऐसा मै कहता हूँ, अर्थात् हे जम्बू ! भगवान के मुख से जैसा मैने मुना है वैसा तुझे कहता हूँ । त्रसनामकर्म के उदय से ताप आदि से पीडित होकर छाया वगैरह की ओर जाने वाले द्वीन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते है । इन में द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन भूसार्थ-ते हुं हुं छु - त्रस आणी छे, प्रेम-मउन, पोतन, भरायुन, રસજ, સ્વેદજ, સંમૂમિ, ઉદ્ભિજ અને ઔષપાતિક ( ઉપપાતજ ) મ અને અજ્ઞાનીએ માટે આ સસાર કહેવામાં આવ્યે છે. IIસૂ॰ ૧|| ટીકા—જેણે ભગવાનના મુખકમલથી નીકળેલા સમસ્ત જીવાદિ સ્વરૂપોના અંને રૂડી રીતે સમજી લીધા છે, એવે હું કહું છું', અર્થાત્ હે જમ્મૂ ! ભગવાનના મુખથી જેવું મેં સાંભળ્યુ' છે તેવુ ંજ તને કહું છું. ત્રસનામકર્મોના ઉદ્દયથી તાપ વગેરેથી પીડા પામીને છાયા વિગેરેની પાસે જવાવાળા દ્વીન્દ્રિય, (બે ઇન્દ્રિય) જીવથી લઇને પાંચ ઇન્દ્રિયવાળા જીવા સુધી સ ત્રસ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे तत्र द्वीन्द्रियाणां स्पर्शनरसनरूपे द्व इन्द्रिये, त्रीन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि त्रीणीन्द्रियाणि, चतुरिन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरूपाणि चत्वारीन्द्रियाणि, पञ्चेन्द्रियाणां स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणि पश्चेन्द्रियाणि सन्ति । यद्यपि त्रस्यन्ति अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमधस्तियक्षु चलन्तोति व्युत्पत्त्या द्वीन्द्रियादयस्तथाऽग्निकाया वायुकाया अपि असा उच्यन्ते । त्रसानां हि द्वौ भेदौ मुख्यतः स्तः-गतितो लब्धितश्च । तत्र गतिः क्रिया चलनं, देशान्तरमाप्तिः, स्वभावतोऽनभिसन्धिपूर्वक-तद्योगादग्निकाया वायुकायाच वसा भवन्तीति गतित्रसा उच्यन्ते । लब्धिस्तु बसनामकर्मोदये सति भवति, और रसना ये दो इन्द्रिया होती हैं । तीनईन्द्रियवालो के स्पर्शन, रसना और ब्राण, ये तीन इन्द्रिया होती है । चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्पर्शन, रसना, प्राण और चक्षु, ये चार इन्द्रिया होती है। पंचेन्द्रिय जीवों के स्पर्शन, रसना प्राण, चक्षु और श्रोत्ररूप पाँच इन्द्रियाँ होती है। जो जीव इरादापूर्वक या विना ही इरादे के, ऊपर नीचे या तिरछे चलते है वे त्रस जीव है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार द्वीन्द्रिय आदि तथा अग्निकाय और वायु भी त्रस कहलाते है। मुख्यरूप से त्रस जीवो के दो भेद है-(१) गतित्रस और (२) लब्धित्रस । गति कहिए अथवा क्रिया, चलना अथवा एक देश से दूसरे देश में पहुँचना कहिए । विना इरादे के यह गतिक्रिया मौजूद होने के कारण अग्निकाय और वायुकाय भी त्रस है । उन्हें गतित्रस कहते है। सनाकर्म का उदय होने पर लब्धि કહેવાય છે. કીન્દ્રિય જીને સ્પશન (ચામડી) અને રસના (જીભ) આ બે ઇન્દ્રિય હોય છે. ત્રીન્દ્રિયેને ચામડી, જીભ અને નાસિકા રૂપ ત્રણ ઈન્દ્રિયે હોય છે ચતુરિન્દ્રિય જીવેને ચામડી, જીભ, નાસિકા અને નેત્ર, આ ચાર ઈન્દ્રિયે હોય છે. પંચેન્દ્રિય ઇને ચામડી, જીભ, નાસિકા, નેત્ર અને શ્રોત્ર-કીન રૂપ પાંચ ઈન્દ્રિયે હોય છે. જે જીવ ઈચ્છાપૂર્વક અથવા ઈચછા વિના ઉપર, નીચે અથવા તિરછા ચાલે છે તે ત્રસ જીવે છે. આ વ્યુત્પત્તિ અનુસાર દ્વીન્દ્રિય આદિ તથા અગ્નિકાય અને વાયુકાય ५ ३ ४२वाय छे. भुज्य३५थी सवाना मे मेह छ-(१) गतिस (२) त्रस. ગતિ કહે અથવા ક્રિયા કહે તે એકજ છે. ચાલવું અથવા એક દેશથી બીજા દેશમાં પહોંચવું કહે. વિના ઈચ્છાથી આ ગતિ કરવાની ક્રિયા હાજર હોવાથી અગ્નિકાય અને વાયુકાય પણ ત્રસ છે. તેને ગતિગ્રસ કહે છે. ત્રસનામકર્મને ઉદય હવાથી લબ્ધિસતા Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ सू. १ सजीवभेदाः ६४७ तद्योगादभिसन्धिपूर्वकदेशान्तरमाप्तिलक्षणक्रियायुक्तत्वाद् द्वीन्द्रियादय एव लब्धिवसा उच्यन्ते । तेजोवायवः किल न त्रसनामकर्मोदयनिवृत्ताः, किन्तु स्थावरनामकर्मोदयनिर्वृतत्वाल्लब्धितः स्थावरा एव; तथाप्यत्र द्वीन्द्रियादयो लब्धित्रसा एव परिगृह्यन्ते, न तु गतित्रसाः, अग्निकायानां प्रागेव चतुर्थोद्देशे प्रतिवोधितत्वात् , वायुकायानामग्रे वक्ष्यमाणत्वाच । ___यत्तु " लब्ध्या तेजोवायू त्रसौ, लब्धिस्तच्छक्तिमात्रं लब्धित्रसानामिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽभिहितत्वाद् वायोश्चाभिधास्यमानत्वाद्, अतः सामर्थ्यात् गतित्रसा एवाधिक्रियन्ते " इति कैश्चिदुक्तं, तत् प्रामादिकम् , त्रसता प्राप्त होती है । इस लब्धि से इरादापूर्वक गतिक्रिया द्वीन्द्रिय आदि में ही पाई जाती है, अत एव उन्हें लब्धित्रस कहते हैं। तेजस्काय और वायुकाय में त्रसनामकर्म का उदय नहीं होता । उन में स्थावरनामकर्म का उदय है, अतः लब्धि की अपेक्षा ये दोनों स्थावर ही है। फिर भी यहाँ द्वीन्द्रिय आदि लब्धित्रस जीवों का ग्रहण करना चाहिए, गतित्रस जीवों का नहीं, क्यों कि अग्निकायिक जीवों का चौथे उद्देश में पहले ही वर्णन किया जा चुका है और वायुकाय का आगे वर्णन किया जायगा । किसी ने कहा है-"लब्धि की अपेक्षा तेजस्काय और वायुकाय त्रस हैं । लब्धि सिर्फ शक्ति को ही कहते हैं। यहाँ लब्धित्रस जीवों का प्रकरण नहीं है, क्यों कि अग्निकाय का कथन किया जा चुका है और वायुकाय का कथन आगे किया जायगा, अत: सामर्थ्य से गतित्रस ही यहा ग्रहण करने योग्य है " । यह कथन प्रमादपूर्ण है; પ્રાપ્ત છે. એ લબ્ધિથી ઈચ્છાપૂર્વક ગતિ કરવાની ક્રિયા દ્વીન્દ્રિયાદિમાં જ જોવામાં આવે છે, એટલા માટે તેને લબ્ધિત્રસ કહે છે. તેજસ્કાય અને વાયુકામાં ત્રસનામકર્મને ઉદય નથી; તેનામાં સ્થાવરનામકર્મને ઉદય છે. તેથી લબ્ધિની અપેક્ષાએ એ અને સ્થાવર જ છે. ફરીને પણ અહિં દ્વીન્દ્રિય આદિ લબ્ધિત્રસ જીવેનું જ ગ્રહણ કરવું જોઈએ, ગતિત્રસ જીવેનું નહિ. કારણકે અગ્નિકાયિક જીવનું ચેથા ઉદેશમાં પ્રથમ વર્ણન કરવામાં આવી ગયું છે, અને વાયુકાયનું આગળ ઉપર વર્ણન કરવામાં આવશે. કેઈએ કહ્યું કે-“લબ્ધિની અપેક્ષા તેજસ્કાય અને વાયુકાય ત્રસ છે-લબ્ધિ. માત્ર શક્તિને જ કહે છે. અહિં લબ્ધિત્રસ જીવેનું પ્રકરણ નથી કારણકે અગ્નિકાયનું વિવેચન તો કરી દેવામાં આવ્યું છે, અને વાયુકાયનું વિવેચન આગળ કરવામાં આવશે. તેથી સામર્થ્યથી ગતિગ્રસનું જ અહિં ગ્રહણ કરવું એગ્ય છે.” આ કથન પ્રમાદપૂર્ણ છે. Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ आचाराङ्गमुत्रे लब्धित्रसानां गतित्रसत्वेनाङ्गीकारात् । गवित्रसानां लब्धित्रसत्वाभावात्, द्वीन्द्रियादीनां यद्वा- वक्ष्यमाणप्रकारकाः गतित्रसत्वेन शास्त्रेऽनङ्गीकाराच्च । प्राणाः = पाणिनः, इमे = प्रत्यक्षतोऽवगम्याः, सन्ति । ते यथा - (१) अण्डजाः = अण्डाज्जाताः - पक्षिगृहकोकिलादयः, (२) पोतजाः = पोता एव जायन्त इति पोतजा :- हस्ति वल्गुलीचर्मजलूकादयः, (३) जरायुजाः = जरायुर्गर्भवेष्टनचर्म, तत्र जाताः - गोमहिष्यजा, चिकमनुष्यादयः, (४) रसजा : = विकृतरसाज्जाताः, (५) संस्वेदजाः - संस्वेदाज्जाताः - मत्कुणयूकादयः, (६) संमूर्छिमा ः = संमूर्च्छनजाः मक्षिकापिपीलिकाशलभादय:, (७) उद्भिज्जाः = उद्भेदनम्उद्भित्, तस्माज्जाताः पतङ्गखञ्जरीटादयः, (८) औपपातिकाः = उपपाते भवाः देवानार क्यों कि लब्धित्रसों को गतित्रसरूप में अंगीकार किया गया है । मगर गतित्रस लब्धित्रस नहीं हो सकते । द्वीन्द्रिय आदि में गति का सद्भाव है अतः गात्र में ऐसा अंगीकार नहीं किया गया । त्रस प्राणी इस प्रकार हैं- (१) अण्डन - अंडों से उत्पन्न होने वाले पक्षी, गृहकोकिला आदि । (२) पोतज - पोतरूप पैदा होने वाले हाथी, वल्गुली, चर्मजलू आदि । (३) जरायुज-गर्भ जिस से लिपटा रहता है वह पतली चमडी जरायु कहलाती है, उस से उप्तन्न होने वाले गाय, भैंस, बकरी, मनुष्य आदि जरायुज कहलाते हैं । (४) रसज - निकृत रस में पैदा हो जाने वाले, (५) संस्वेदज - पसीने से पैदा होने वाले खटमल, जूं आदि । (६) संमूर्च्छिम - मक्खी, कीडी, शलभ आदि । (७) उद्भिजउद्भेदन से उप्तन्न होने वाले पतंग, खंजरीट आदि । (८) औपपातिक - देव और नारकी । કારણ કે લબ્ધિત્રસેને ગતિંત્રસનાં રૂપમાં અંગીકાર કરવામાં આવ્યે છે, પરન્તુ ગતિત્રસ લબ્ધિત્રસ થઈ શકતા નથી. દ્વીન્દ્રિય આદિમાં ગતિના સદ્ભાવ છે, તેથી શાસ્ત્રમાં એ પ્રમાણે અંગીકાર કરવામાં આવ્યે નથી. ત્રસ પ્રાણી આ પ્રમાણે છે (૧) અંડજ-ઈંડાથી ઉત્પન્ન થવાવાળાં પક્ષી, ગૃહअहिसा (गरोजी) माहि. (२) पोतन - पोतय पेहा थवावाणा हाथी, वहगुसी, थर्भन्यूड (भजो) साहि. (3) ४रायुर-गर्ल नेनाथी विद्यामेतुं रहे ते पातजी याभडी જરાયુ કહેવાય છે. તેમાં ઉત્પન્ન થવાવાળા ગાય, ભેંસ, ખકરી, મનુષ્ય આદિ જરાયુજ डेवाय छे. (४) २स४ - विद्वृतरसभां येहा थवावाजा (५) सस्वेदन - परसेवाथी चेहा थवावाजा भाङ, भूळ माहि. (६) संभूर्छिम-भाषी, डीडी, तीउ आहि. (७) उद्दमिनઉલ્લેદનથી ઉત્પન્ન થવાવાળા પતંગ, ખંજરીટ આદિ. (૮) ઔષપાતિક–દેવ અને નારકી. Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ मू. १ त्रसजीवभेदाः ६४९ इह सर्वेषां त्रसजीवानामष्टविधं जन्म प्रतिबोधितम्एतदेव संमूर्च्छनगर्भीपपातेषु समावेश्य त्रिविधं जन्मेत्यपि शास्त्रेऽभिहितम् । सन्तीत्यनेन सानामप्यस्तित्वं त्रिकालवर्तीति बोध्यते । मन्दस्य कुशास्त्रवासनायुक्तस्य, अत एव-अविजानतः हिताहितविवेकरहितस्य, एषः अण्डजादिसमुदायः संसारः प्रोच्यते, अष्टविधत्रसकाये कुशास्त्रवासनावतः पुनः पुनरुत्पत्तिरूपं संसरणं भवतीति स एपः संसारो निगद्यत इत्यर्थः। अथ त्रसकायस्य सम्यग्ज्ञानार्थ लक्षणाधष्टद्वाराणि निरूपणीयानि । तत्र लक्षण-प्ररूपणा-परिमाण-शस्त्रो-पभोग-वेदना-द्वाराणि यथाक्रमं प्रदर्श्यन्ते, अवशिष्ट-वध-निवृत्ति-द्वारद्वयं पृथिवीकायोद्देशे यथाऽभिहितं तथैवावगन्तव्यम् । यहाँ सभी त्रस जीवों का आठ प्रकार का जन्म बतलाया गया है । इसे संमूर्छन, गर्म और उपपात में समाविष्ट कर देने से तीन प्रकार का जन्म शास्त्र में बतलाया है । 'संति' इस पद द्वारा त्रस जीवों का त्रिकालवर्ती अस्तित्व सूचित किया गया है । मन्द अर्थात् मिथ्याशास्त्रों के संस्कार से प्रभावित, अत एव हित-अहित के विवेक से शून्य पुरुष के लिए अण्डज आदि का समूहरूप संसार कहा गया है । आठ प्रकार के त्रसकाय में मिथ्याशास्त्रों के संस्कार वाले का पुनः पुनः जन्म-मरणरूप संसरण होता है । वही संसरण संसार कहलाता है ! सकाय का समीचीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए लक्षण आदि आठ द्वारों का निरूपण करना चाहिए । उन में से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र उपभोग और वेदना द्वार क्रम से बतलाते है । वध और निवृत्ति द्वार जैसे पृथ्वीकाय के उद्देश में कहे है वैसे ही यहा समझ लेने चाहिए। અહિં સર્વ ત્રસ જીવે આઠ પ્રકારનો જન્મ બતાવ્યું છે. તેને સંમૂઈન, ગર્ભ અને ઉપપાતમાં સમાવેશ કરી દેવાથી ત્રણ પ્રકારને જન્મ શાસ્ત્રમાં બતાવ્યું છે. 'संति' २॥ ५६ द्वारा स वार्नु त्रिसपत्ती अस्तित्व सूचित ४२पामा माव्यु છે. મંદ અર્થાત મિથ્યાશાસ્ત્રોના સંસ્કારથી પ્રભાવિત, એવં હિત અહિતના વિવેકથી શૂન્ય પુરૂષ માટે અંડજ આદિના સમૂહ૫ સંસાર કહેવામાં આવ્યું છે. આઠ પ્રકારના ત્રસકાયમાં મિથ્યાશાસ્ત્રોના સંસ્કારવાળાઓનું પુનઃ પુનઃ જન્મ-મરણ રૂપ સંસરણ થાય છે. એજ સંસરણ તે સંસાર કહેવાય છે. ત્રસકાયનુ સારૂ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા માટે લક્ષણ આદિ આઠ કાનું નિરૂપણ કરવું જોઈએ, તેમાંથી લક્ષણ, પ્રરૂપણ, પરિમાણ, શસ્ત્ર, ઉપગ અને વેદના દાર ક્રમથી બતાવે છે, વધ અને નિવૃત્તિ દ્વાર જેવી રીતે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં કહ્યાં છે તેવી રીતે જ અહિં સમજી લેવા જોઈએ. प्र - ८२ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारानसूत्रे लक्षणद्वारम्सुखदुःखेच्छाद्वेषादिकं चेतनलक्षणं त्रसकाये परिस्पष्टमस्ति । अस्य सचेतनत्वे विवादा नास्ति केषाञ्चित् अस्य व्यक्तोच्छासादिलक्षणप्राणयोगात् । अपरञ्च त्रसकायस्य लक्षणं शास्त्रे नवविधं प्रज्ञप्तम् यथा-(१) अभिक्रमणम् , (२) प्रतिक्रमणम् , (३) संकोचनम् , (४) प्रसारणम् , (५) रुतम् , (६) भ्रमणम् , (७) असनम् , (८) पलायनम् , (९) धागतिगतिविज्ञानम् , इति ॥ अभिक्रमण-प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणम्, प्रतिक्रमण-प्रज्ञापकात् प्रतिकूलं क्रमणम् । संकोचनम्-गात्रसंकोचकरणम् , प्रसारणं गात्रविततकरणम् , लक्षणद्वारसुख, दुःख, इच्छा और द्वेष आदि चेतना के लक्षण त्रसकाय में स्पष्ट मालूम होते है। इस की सचेतनता में किसी को भी विवाद नहीं है। प्रकट उच्छ्वास आदि प्राण होने के कारण त्रस जीव प्राणी हैं। शास्त्र में त्रसकाय का लक्षण नव प्रकार से बतलाया गया है । जैसे(१) अभिकमण (२) प्रतिक्रमण (३) संकोचन (४) प्रसारण (५) रुत (६) भ्रमण (७) त्रसन-त्रास पाना (८) पलायन-भागना और (९) गति-आगति का ज्ञान । प्रज्ञापक की अपेक्षा से सामने जाना अभिक्रमण है । प्रज्ञापक की अपेक्षा से प्रतिकूल जाना-पीछे लौटना प्रतिक्रमण है। शरीर को सिकोडना संकोचन है । शरीर को फैलाना લક્ષદ્વાર સુખ, દુઃખ, ઈચ્છા અને દ્વેષ આદિ ચેતનાનું લક્ષણ ત્રસકાયમાં સ્પષ્ટ માલુમ પડે છે, તેની ચેતનતામાં કેઈને પણ વિવાદ-વાં નથી. પ્રગટ ઉસ આદિ પ્રાણ હેવાના કારણથી ત્રસ જીવ પ્રાણી છે. શાસ્ત્રમાં ત્રસકાયના લક્ષણે અનેક પ્રકારે બતાવવામાં આવ્યાં છે. જેમકે(१) मलिभY, (२) प्रतिभ], (3) सायन, (४) प्रसा२९, (५) ३त, (६) प्रभा], (७)सन-त्रास पासवा, (८) पायन-भागमन (4) गति-मातिनुज्ञान. प्रज्ञा५४ना અપેક્ષાથી સામે જવું તે અભિકમણ છે. પ્રજ્ઞાપકની અપેક્ષાથી પ્રતિકૃલ જવું–પાછા ફરવું તે પ્રતિક્રમણ છે. શરીરને સંકેહવું તે સંકેચન છે. શરીરને ફેલાવવું તે પ્રસારણ છે. Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सू. १ त्रमजीवलक्षण - प्ररूपणा ६५१ रुतं=शब्दकरणम्, भ्रान्तम् - इतश्चेतश्च गमनम्, त्रसनम् - दु: खादुद्वेजनम्, पलायितम् = पलायनम्, आगतेः कुतश्चित्कचित् गतेश्च कुतश्चित् कचिदेव च विज्ञानम् । उक्तञ्चैतद्भगवता दशवैकालिकसूत्रे , " जेर्सि केसिंचि पाणाणं अभिक्कतं पडिक्कतं संकुचियं पसारियं रुयं भंत तसि पलाइ आगगइविष्णाया " ॥ १ ॥ इति । प्ररूपणाद्वारम् - 1 सकायाश्चतुर्विधाः - द्वीन्द्रिय - त्रीन्द्रिय - चतुरिन्द्रिय- पञ्चेन्द्रियभेदात् sta प्रथम देशके लोकवादिकरणे त्रसानां भेदप्रभेदाः प्ररूपिताः । विस्तरतो । प्रसारण है | बोलना रुत कहलाता है । इधर-उधर जाना भ्रमण है । दुःख से उद्वेग पाना त्रसन है । भागने को पलायन कहते है । एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने का विज्ञान आगतिगतिविज्ञान कहलाता है । भगवान् ने दशवैकालिक सूत्र में कहा है: " जिन किन्हों प्राणियों में अभिक्रमण, संकोचन, प्रसारण, रुत, भ्रमण, त्रसन, पलायन और आगतिगतिका विज्ञान ( पाया जाता है वे सब त्रस जीव हैं। ) " प्ररूपणाद्वार सकाय के चार भेद है - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इसी शस्त्र के पहले उद्देश के अन्दर लोकवादी प्रकरण में त्रस कहे हैं । विस्तार से जानने के इच्छुक वहीं से जान लेवें । इस सूत्र 1 पंचेन्द्रिय । और जीवों के भेद-प्रभेद में भगवान् ने ખેલવુ તે રૂત કહેવાય છે. અહીં-તહીં જવુ' તે ભ્રમણુ છે. દુઃખથી ઉદ્વેગ પામવું તે ત્રસન છે. ભાગવુ' તેને પલાયન કહે છે. એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાએ આવવાજવાનુ` વિજ્ઞાન તે આગતિગતિવિજ્ઞાન કહેવાય છે. ભગવાને દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છેઃ “? अर्ध आएणीसोभां अलि भणु, प्रतिभा, सायन, प्रसारण, रुत, अभय, त्रसन, पलायन भने आगति-जतिनुं विज्ञान ( लेवामां आवे छे ते सर्व त्रस व छे.) " પ્રરૂપણાકાર— ત્રસ કાચના ચાર ભેદ છેઃ દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પ'ચેન્દ્રિય, આજ શાસ્ત્રના પ્રથમના ઉદ્દેશમાં લેાકવાદીપ્રકરણમાં ત્રસજીવેાના ભેદ–પ્રભેદ ખતાવ્યા છે, વિસ્તારથી Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ आचाराङ्गसूत्रे जिज्ञासुभिस्तत एवावगन्तव्याः । अस्मिन् सूत्रेऽपि भगवता - अण्डजपोतजादिभेदाः प्रदर्शितास्तेऽपि तत्रैव समाविष्टाः ॥ परिमाणद्वारम् - क्षेत्रतः संवर्तितलाकमतरासंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणाः सकायपर्याशकाः । एते च वादरतेजस्कायपर्याप्त केभ्योऽसंख्येयगुणाः, त्रसकायपर्याप्तकेभ्यस्त्रसकायिकाऽपर्याप्तकाः असंख्येयगुणाः । तथा काळतः प्रत्युत्पन्नत्र सकायिकाः सागरोपमलक्षपृथक्त्वसमयराशिपरिमाणा जघन्यपदे, उत्कृष्टप्रदेऽपि सागरोपमलक्षपृथक्त्वपरिमाणा एवेति । तथा चागमः - अंडन और पोतज आदि जो भेद बतलाये है, ये सब भी उन्हीं में अन्तर्गत हो जाते है | परिमाणद्वार - त्रसकाय के पर्याप्त जीव क्षेत्र की अपेक्षा संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवत प्रदेशों की राशि के बराबर हैं । ये वादर तेजस्काय पर्याप्त जीवों से असंख्यातगुणा है । पर्याप्त त्रसकायिक जीवों की अपेक्षा अपर्याप्त त्रस जीव असंख्यातगुणा है । काल की अपेक्षा जघन्यपद में प्रत्युत्पन्न त्रस जीव एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समय - राशि के बराबर है और उत्कृष्ट पद में भी एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम की समयराशि के बराबर ही है | आगम में भी कहा है જાણવાની ઇચ્છાવાળા ત્યાંથી જાણી લે. આ સૂત્રમાં ભગવાને અડજ અને પાતજ આદિના જે ભેદ મતાન્યા છે, તે સર્વના તેમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. પરિમાણુદ્ધાર્ ત્રસકાયના પર્યાપ્તજીવ ક્ષેત્રની અપેક્ષા સંવર્તિત લેાકપ્રતરના અસખ્યાતમા ભાગવતૢ પ્રદેશેાની રાશિના ખરાખર છે. તે ખાદર તેજસ્કાય પર્યાપ્ત જીવાથી અસંખ્યાત ગણા છે. પર્યાપ્ત ત્રસકાયિક જીવાની અપેક્ષા અપર્યાપ્ત ત્રસજીવ્ર અસંખ્યાત ગણા છે. કાલની અપેક્ષા જઘન્યપદમાં પ્રત્યુત્પન્ન ત્રસજીવ એકલાખ થી નવલાખ સુધીના સાગરાપમની સમય—રાશિના ખરાખર છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરોપમની સમય--રાશિના ખરાખર જ છે. આગમમાં પણ કહ્યું છેઃ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु. १ त्रसजीव परिमाणम् ६५३ वा पडुप्पन्ना तसकाइया के इकालस्स निल्लेवा सिया ? गोयमा ! जहन्नपए सागरोवमसयसहस्तपुहत्तस्स, उक्कोसतएवि सागरोवम सय सहस्स पुहत्तस्स " || इति । विरहापेक्षया त्रसानां निष्क्रमणमुपपातथ जघन्यत एको द्वौ त्रयो भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु प्रतरस्यासंख्येयभाग प्रदेशपरिमाणाः । वसेपु जीवानां नैरन्तर्येणोत्पत्तिनिष्क्रमो वा जघन्येनैकं समयं द्वौ समयौ त्रीन् वा समयान् भवति । उत्कृष्टतस्त्वावलिकाया असंख्येयभागपरिमितं कालं सततमेवोत्पत्तिर्निष्क्रमो वा भवति । नैरन्तर्येणैकजीवस्यावस्थानं तु जघन्यतोऽन्तमुहूर्त काये भवति, तदनु स पृथिव्याये केन्द्रियेषु समुत्पद्यते । उत्कृष्टतः सातिरेकं सागरोपमसहस्रद्वयं सततं नैरन्तर्येण सकाये तिष्ठति । ततः 46 66 'पत्युत्पन्न त्रसकायिक जीव कितने काल के बराबर हैं ? गौतम ! जघन्य पद में एक लाख से नौ लाख तक के सागरोपम के बराबर और उत्कृष्ट पद में भी इतने ही है" । जघन्य एक, दो या बराबर है | सकाय में तीन समयतक है । विरह की अपेक्षा त्रस जीवों का निष्क्रमण और उपपात तीन हैं, और उत्कृष्ट प्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के जीवो की निरन्तर उत्पत्ति या च्यवन जधन्य एक समय, दो समय उत्कृष्ट आवलिका के असंख्यातवे भाग परिमित काल तक निरन्तर उत्पत्ति और च्यवन होता रहता है । निरन्तर एक जीव की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक सकाय में होती है और उसके बाद वह पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय में उप्तन्न होता है । उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार सागरोपमतक निरन्तर सकाय में ठहर सकता है । तत्पश्चात् પ્રત્યુત્પન્ન ત્રસકાયિક જીવ કેટલા કાલની ખરાખર છે? ગૌતમ! જઘન્ય પદમાં એક લાખથી નવલાખ સુધીના સાગરોપમની ખરાખર અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં પણ मेटसा ४ छे." વિરહની અપેક્ષા ત્રસ જીવાનુ નિષ્ક્રમણ અને ઉપપાત જઘન્ય એક, બે અથવા ત્રણ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ પ્રતરના અસખ્યાતમા ભાગવત્ત્ત પ્રદેશાની ખરાખર છે. સકાયમાં જીવાની નિર'તર ઉત્પત્તિ અથવા નિષ્કમણુ (ચવન) જઘન્ય એક સમય, એ સમય અથવા ત્રણ સમય સુધી છે. ઉત્કૃષ્ટ આવલિકાના અસખ્યાતમા ભાગ પરિમિત કાલ સુધી નિર'તર ઉત્પત્તિ અને નિષ્ક્રમણ ( નિકળવું) થતુ રહે છે. નિરંતર એક જીવની સ્થિતિ જઘન્ય અન્ત હૂંત સુધી ત્રસકાયમાં હોય છે. અને તે પછી તે પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિયમાં ઉત્પન્ન થાય છે. ઉત્કૃષ્ટ કાંઈક અધિક બે હજાર સાગરાપમ સુધી Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દુઃ पृथिव्यादिपूत्पद्यते । ॥ सू० १ ॥ आचाराङ्गसूत्रे सजीवानां सुखं दुःखं वा यथा भवति तदाह - 'निज्झाइत्ता. ' इत्यादि । मूलम् - निज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तयं परिनिव्वाणं सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महम्भयं दुक्खं-ति वेमि ॥ मु० २ ॥ छाया निध्याय प्रतिलेख्य प्रत्येक परिनिर्वाणं सर्वेषां प्राणानां सर्वेषां भूतानां सर्वेषां जीवानां सर्वेषां सत्त्वानाम् असातम् अपरिनिर्वाणं महाभयं दुःखमिति ब्रवीमि ॥ सू० २ ॥ प्रकरणसम्वन्धात् पृथिव्यादिसकलजीवस्वरूपं वा सजीवस्वरूपं पृथ्वीकाय आदि स्थावरों में उत्पन्न होता है | सू० १ ॥ त्रसजीवों को सुख-दुःख जिस प्रकार होता है सो कहते है : - ' निज्झाइत्ता. ' इत्यादि । मूलार्थ — विचार करके और अच्छी तरह देखकर कहता हूँ कि सभी प्राणियों का, सभी भूतों का, सभी जीवों का, और सभी सत्वों का परिनिर्वाण अर्थात् सुख पृथक्-पृथक् है । तथा असातारूप, अपरिनिर्वाणरूप महाभयरूप दुःख भी पृथक्पृथक् है । ॥ सू० २ ॥ WARNED टीकार्थ- - त्रस जीवों का प्रकरण होने के कारण 'विचार करने का आशय यह है कि सजीवों का स्वरूप, अथवा पृथ्वीकाय आदि समस्त जीवों का નિર'તર ત્રસકાયમાં રહી શકે છે, તે પછી પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરામાં ઉત્પન્ન થાય छे. ॥सू० १॥ त्रस लवाने सुभ-हुः ? अरे थाय छे, ते उडे छे:- 'निज्झाइत्ता.' त्याहि. મૂલા—વિચાર કરીને સારી રીતે જોઈને કહું છું કે-સર્વ પ્રાણીઓ સભૂતા, સર્વ જીવા અને સ સત્ત્વનું પરિનિર્વાણુ અર્થાત સુખ પૃથક્ -પૃથક્-દાં-જૂદાં छे, तथा असातारूप अपरिनिर्वाणुरुप भहालय३य हुआ या भूहां-हा छे. ॥सू० २ ॥ ત્રસજીવાનું પ્રકરણ હેાવાના કારણે ત્રસજીવાનુ` સ્વરૂપ અથવા પૃથ્વીકાય ઢીકા Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. ६ स. २ सस्थावरयोःसुखम् ६५५ निध्याय मनसा समालोच्य, प्रतिलेख्य-विलोक्य सम्यग् विज्ञायेत्यर्थः, ब्रवीमि= कथयामि-सर्वेषां प्राणानां प्राणाः सन्ति येषां ते प्राणा:-प्रणिनस्तेपां, सर्वेषां भूतानाम् उत्पत्तिशीलानाम् , सर्वेषां जीवानां कालत्रये जीवनाद् चैतन्यस्वरूपाणामिस्यर्थः, सर्वेषां सत्त्वानां-सर्वदाऽस्तित्ववताम् , त्रसजीवानाम् , यद्वा-सर्वेषामित्यस्य पुनः पुनरुपादानेन स्थावरा अपि गृह्यन्ते, तेन त्रसानां स्थावराणांचजीवानामित्यर्थः। परिनिर्वाण-मुखं, प्रत्येकम् एकैकं पृथक् पृथगस्ति । ___ शब्दव्युत्पत्त्या विभिन्नार्थबोधकत्वात् प्राणभूतादिशब्दानामुच्चारणं न पुनरुक्तिदोषः । 'निज्झाइत्ता' 'पडिलेहिता' इति पदद्वयेन जीवानां पुनः पुनरनुसन्धान प्रतिलेखनं च सूचितम् , तदेव पुनः पुनर्विधेयतया प्रतिवोधनार्थ स्वरूप मन से विचार करके तथा सम्यक् प्रकार से जानकर कहता हूँ । सभी प्राणियों का सभी भूतों अर्थात् उत्पत्तिशील जीवों का, सभी जीवों ( त्रिकाल में जीवित रहने वालों ) का और सभी सत्त्वों ( सर्वदा अस्तित्व वाले त्रस जीवों ) का, अथवा बार-बार — सव्वेसि' पदका प्रयोग करने के कारण यह अर्थ लेना चाहिए कि-सभी त्रस और स्थावर जीवों का सुख पृथक्-पृथक् है। शब्दशास्त्र की दृष्टि से भिन्न-भिन्न अर्थ के बोधक प्राण, भूत आदि शब्दों का उच्चारण करने पर भी पुनरुक्ति दोष नहीं है । अथवा प्राण भूत आदि शब्दों को एक ही अर्थ का वाचक मान लिया जाय तो भी पुनरुक्तिदाष नहीं है । 'निज्झाइत्ता' 'पडिलेहित्ता' इन दो पदों द्वारा जीवों का पुनः पुनः विचार एवं प्रतिलेखन सूचित किया है । उसी को पुनः पुनः विधेयरूप से समझाने के लिए આદિ સમસ્ત જીનું સ્વરૂપ મનથી વિચાર કરીને તથા સમ્યક્ પ્રકારે જાણીને કહું છું-સર્વ પ્રાણીઓનું, સર્વભૂતેનું અર્થાત્ ઉત્પત્તિશીલ જીવન, સર્વ જી (ત્રણ કાલ જીવિત રહેવાવાળા)નું, અને સર્વ સો-સર્વદા અસ્તિત્વવાળા ત્રસ જીવ)નું, मथा पारवा२ 'सव्वेसिं' पहने। अयो। ४२वाना रणे कसे अर्थ देवो ये हैસર્વ ત્રસ અને સ્થાવર નું સુખ પૃથ-પૃથક છે. શબ્દશાસની દૃષ્ટિથી ભિન્ન-ભિન્ન અર્થના બેધક પ્રાણ-ભૂત આદિ શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરવાથી પણ પુનરૂક્તિ દેષ આવતું નથી અથવા પ્રાણભૂત આદિ શબ્દોને એકજ અર્થના पाय भानी देवामा मावे तो प पुन३तिष नथी 'निज्झाइत्ता' 'पडिलेहित्ता' २मा मे પદો દ્વારા જીવને પુનઃ પુનઃ વિચાર અર્થાતુ પ્રતિલેખન સૂચિત કર્યું છે. તેને પુનઃ પુનઃ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ आचारागसत्रे मनेकपर्यायशब्देस्तेपामुपादानात् । तथा सर्वेषां दुःखं प्रत्येकं पृथक् पृथगस्ति । कथम्भूतं दुःखमित्याह' असात'-मित्यादि । असातम् असातवेदनीयकर्मफलभूतम् , तथा-अपरिनिर्वाणम्= सर्वथा शरीरमनः पीडाकरम् , तथा-महाभयम्-दुःखादधिकं भयमन्यन्नास्ति, यतः सर्वेऽपि प्राणिनः शारीरान्मानसादपि दुःखादुद्विजन्ते, तस्मान्महाभयस्वरूपमित्यर्थः ॥ मू० २॥ एतच्च ब्रवीमीत्याह ' तसंति पाणा.' इत्यादि । तसंति पाणा पदिसो दिसामु य । तत्थ पुढो पास आतुरा, परिताति, संति पाणा पुढो सिया ॥ मू० ३ ॥ अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है । इसी प्रकार सब जीवों का दुःख भी पृथक्-पृथक् है । दुःख किस प्रकार का है । सो कहते है-वह असातावेदनीय कर्म का फल है, शरीर और मन को पूरी तरह पीडा उत्पन्न करता है और महाभयंकर है-दुःख से बढकर और कोई भय नहीं है, क्यों कि सभी प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःख से घबराते हैं, अतः वह महाभयकारी है ॥ सू० २॥ __ और मैं यह कहता हूँ:--'तसंति पाणा.' इत्यादि । मूलार्थ-प्राणी विदिशाओ मे और दिशाओ मे उद्वेग पाते हैं। अलगअलग प्रयोजनो के लोलुप लोग उन्हें संताप पहुंचाते है । वे त्रस प्राणी पृथ्वी आदि विभिन्न आश्रयो पर आश्रित है ।। सू० ३ ॥ વિધેયરૂપથી સમજાવવા માટે અનેક પર્યાયવાચી શબ્દનો પ્રયોગ કરવામાં આવ્યો છે. આ પ્રમાણે સર્વજીના દુખ પણ જુદા-જુદા છે. દુઃખ કયા પ્રકારના છે? તે કહે છે–તે આ અસાતા વેદનીય કર્મનું ફળ છે; શરીર અને મનને પૂરી રીતે પીડા ઉત્પશ કરે છે. અને મહ ભયંકર છે. દુઃખથી વધારે કેઈપણ ભય નથી કારણકે સર્વ પ્રાણું–શારીરિક અને માનસિક દુઃખથી ગભરાય છે. તેથી તે મહાભકારી છે. સંસૂ રા मने हुये ५४] ४९ छु:-'तसंति पाणा.' त्याहि. સૂલાથ–પ્રાણી વિદિશાઓમાં અને દિશાઓમાં ઉદ્વેગ પામે છે. અલગ-અલગ પ્રજનેથી લોલુપ લેક તેને સંતાપ પહોંચાડે છે. તે ત્રસ પ્રાણી પૃથ્વી આદિ વિભિન્ન આશ્રયે પર આશ્રિત છે. સૂ૦ ૩ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ मू. ३ त्रसजीवसंचरणम् छायात्रस्यन्ति प्राणाः प्रदिशः दिशासु च । तत्र तत्र पृथक् पश्य, आतुराः परितापयन्ति, सन्ति प्राणाः पृथक् श्रिताः ॥ मू० ३॥ टीकाप्राणा: प्राणिनः प्रकरणसम्बन्धात् त्रसजीवाः प्रदिशः प्रगता दिक् प्रदिक् विदिगित्यर्थः, ततः प्रदिशः, तथा-दिशासुपाच्यादिदिक्षु च समागन्तुकेभ्यो दुखेभ्य, त्रस्यन्ति-विभ्यति । सर्वदिग्विदिक्षु त्रसाः सन्ति, ते च सर्वदिग्विदिग्भ्यः समागन्तुकेभ्यो दुःखेभ्यस्त्रस्यन्तीत्यर्थः। कुतस्तेषां दुःखसंभवः ? इति जिज्ञासायामाह-तत्र-तत्रे' त्यादि । तत्रतत्र तेषु-तेषु, पृथक्-विभिन्नेषु प्रयोजनेषु, आतुराः अर्चाचर्ममांसादिगृघ्नवः सान् परितायन्ति-परिपीडयन्ति । विविधवेदनोत्पादनेन प्राणव्यपरोपणेन च सर्वथा दुःखं जनयन्तीत्यर्थः । कीदृशास्ते त्रसाः, यानातुराः परितापयन्ति ? इति जिज्ञासाया टीकार्थ-त्रस का प्रकरण होने से 'प्राण' शब्द का अर्थ यहाँ त्रसजीव समझना चाहिए । त्रस प्राणी विदिशाओं में आगन्तुक दुःखों से त्रस्त हैं । तात्पर्य यह है कि सभी विदिशाओं में और समी दिशाओं में त्रसजीव विद्यमान हैं और सभी विदिशाओं और दिशाओं से आने वाले दुःखों से वे पीडित होते है । उन्हें दुःख क्यों होता हैं ? इसका उत्तर यह है-विभिन्न प्रयोजनों से आतुर लोग अर्थात् अर्चा (शरीर), चर्म, मांस, आदि के लोलुप पुरुष त्रस जीवों को पीडा पहुँचाते हैं। उन्हें भाँति-भांति की वेदना उत्पन्न करके उनके प्राणों का व्यपरोपण करते है और सब प्रकार से दुःख उत्पन्न करते हैं । वे त्रसजीव पृथिवी आदि के ટીકાથ-ત્રસનું પ્રકરણ હોવાથી “પ્રાણ” શબ્દનો અર્થ ત્રસજીવ સમજ જોઈએ ત્રસ પ્રાણુ વિદિશાઓમાં તથા દિશાઓમાં આગન્તુક દુઃખોથી ત્રાસ પામે છે. તાત્પર્ય એ છે કે સર્વ વિદિશાઓમાં અને સર્વ દિશાઓમાં ત્રસ જીવવિદ્યમાન છે, અને સર્વ વિદિશાઓ તથા દિશાઓથી આવવાવાળા દુઃખોથી તે પીડા પામે છે. તેને દુઃખ શા માટે થાય છે તેને ઉત્તર એ છે કે-જૂદા-જૂદા પ્રયોજનોથી આતુર લેક અર્થાત્ અર્ચા (શરીર), ચર્મ, માંસ વગેરેના લાલચું પુરુષ ત્રસ જીવેને પીડા પહોંચાડે છે, તેને જુદી-જુદી જાતની વેદના ઉત્પન્ન કરે છે. તે ત્રસ જીવ પૃથ્વી આદિના આશ્રયે - प्र. आ.-८३ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्रे माह-'सन्ति' इत्यादि। श्रिताः पृथिव्यादीन् समाश्रित्यावस्थिताः, पृथक्-विभिन्नाः द्वीन्द्रियादयः, प्राणाः प्राणिनः सन्ति । यद्यपि सर्वदिग्विदिग्भ्य आगामिनो दुःखाद् विभ्यन्तस्त्रसजीवाः स्वात्मरक्षार्थ पृथिव्यादीन् समाश्रित्व वर्तन्ते तथापि मांसचर्मादिलुब्धा आतुरास्तान् बन्धनवाडनादिना शावकायपहारेण प्राणाद्यपहारेण च परिपीडयन्ति, ततः संसारं प्राप्नुवन्ति । तस्मादेतत् परिज्ञाय सकलसावधव्यापारपरिहारेण संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति भावः ॥ सू० ३ ॥ __ अथ सर्वथा त्रसकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान् , तथा उसकायसमारम्भप्रवृत्तान् द्रव्यलिङ्गिनश्च विविच्य प्रतिवोधयितुमाह-'लज्जमाणा.' इत्यादि । सहारे अलग-अलग रहे हुए हैं। यद्यपि सब दिशाओं और विदिशाओं से आनेवाले दुःखों से डरने वाले त्रस जीव अपनी रक्षा के लिए पृथ्वी आदि के सहारे टिके रहते हैं फिर भी मांस और चर्म आदि के लोभी लोग उन्हें बंधन एवं ताडन द्वारा, उनके बच्चोंका अपहरण करके तथा उनके प्राणों का हनन करके उन्हें पीडा पहुँचाते है और इस कारण वे हिंसक, संसार को प्राप्त होते हैं। आशय यह हैं कि-यह सब जानकर सम्पूर्ण सावद्य व्यापार का त्याग करके संयम की साधना में प्रवृत्त होना चाहिए ॥ सू० ३ ॥ अब पूर्णरूप से त्रसकाय के आरंभ का त्याग करने वाले अनगारों का तथा त्रसकाय के आरंभ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिंगियों का विवेचन करके समझाते हुए कहते है'लज्जमाणा.' इत्यादि । मसास-मस डेसी छे. જે કે સર્વ દિશાઓ અને વિદિશાઓથી આવનારા દુખેથી ડરવાવાળા ત્રસજીવ પિતાની રક્ષા માટે પૃથ્વી આદિના આશ્રયે ટકી રહે છે. ફરી પણ માંસ અને ચામડા આદિના લેભી લેક તેને બંધન એ પ્રમાણે તાડન દ્વારા, તેના બચ્ચાઓનું અપહરણ કરીને (ચેરી જઈને) તથા તેના પ્રાણનું હનન–નાશ કરીને તેને પીડા પહોચાડે છે. અને આ કારણથી તે હિંસક-સંસારને પ્રાપ્ત થાય છે. આશય એ છે કે–એ સર્વ જાણી કરીને સંપૂર્ણ સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગ કરીને સંયમની સાધનામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. lal હવે પૂર્ણ રૂપથી ત્રસકાયનાં આરંભને ત્યાગ કરવાવાળા અણગારેનું તથા ત્રણકાયના આરંભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા દ્રવ્યલિંગિઓનું વિવેચન કરીને સમજાવતા થકા ४९ छ-'लज्जमाणा.' त्याहि Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्यं. १ उ. ६ सू. ४ ससमारम्भकाः मूलम् — लज्जमाणा पुढो पास, अणगारा मोति एगे पत्रयमाणा, जमिणं, त्रिरूवरूवेहि सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं, तसकायसत्थं समारभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति ॥ सू० ४ ॥ ६५९ छाया लज्जमानाः पृथक् पश्य, अनगाराः स्मः, इति एके प्रवदमानाः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः त्रसकायसमारम्भेण, त्रसकायशस्त्रं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् माणान् विहिंसन्ति | ० ४ ॥ टीका लज्जमानाः=परमकरुणयाऽऽर्द्रहृदयतया सकायसमारम्भे पराङ्मुखाः त्रसकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनागारा इत्यर्थः । पृथक = विभिन्नाः, केचित्प्रत्यक्षज्ञानिनोऽवधिमनःपर्यय केवलिनः केचित्-परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः, सन्तीति पश्य । यद्वा-पृथक - द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे त्रस - , मूलार्थ – सकाय के आरंभ में संकोच करने वाले ( अनगारों को) अलग समझो | 'हम अनगार हैं' ऐसा कहने वाले कोई-कोई ( द्रव्यलिंगी) नाना प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए और भी अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते है उनको अलग देखो ॥ सू० ४ ॥ टीकार्थ — परम करुणा से जिनका हृदय द्रवित है ऐसे अनगार त्रसकाय के आरंभ से सर्वथा विमुख रहते है । ये अनगार अलग-अलग हैं । कोई अवधिज्ञानी, कोई मन:पर्ययज्ञानी और कोई केवलज्ञानी हैं । कोई-कोई परोक्षज्ञानी भाविमात्मा है, 1 મૂલા—ત્રસકાયના આરભમાં સકેચ કરવાવાળા અણુગારાને અલગ-જુદાसमले, · અમે અણુગાર છીએ' એ પ્રમાણે કહેવાવાળા કાઈ કાઈ દ્રવ્યલિંગી, નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રથી ત્રસકાયના આરંભ કરીને, ત્રસકાયનાં શસ્ત્રોને પ્રયોગ કરતા થકા બીજા પણ અનેક પ્રકારના પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. તેને અલગ જુએ. IIસૂ॰ ૪II ટીકા—પરમ કરૂણાથી જેનું હૃદય દ્રવિત છે એવા અણુગાર ત્રસકાયના આરભથી સથા વિમુખ રહે છે દૂર રહે છે. તે અણુગાર અલગ-અલગ છે. કેઈ अवधिज्ञानी, अर्ध भनः - पर्ययज्ञानी, रमने अर्थ ठेवलज्ञानी छे, अर्ध- अर्ध परोक्षज्ञानी Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारामु कायसमारम्भकरणे भीतास्त्रस्ता उद्विग्नास्त्रिकरणत्रियोगैस्त्रसका यसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति विलोकयेत्यर्थः । " २.६६० एके पुनरन्ते तु 'वयमनगाराः स्मः ' इति साभिमानं प्रवदमानाः 'वयमेव त्रसकायरक्षणपरा महाव्रतधारिण:' इति प्रलपन्तो द्रव्यलिङ्गिनः सन्ति, तान् पृथक् पश्य । इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिङ्गिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रर्वतन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति — ' यदिमम् . ' इत्यादि । यद्=यस्माद् ; त्रिरूपरूपैः=विभिन्नस्वरूपैः शस्त्रैः शस्त्रं हि द्रव्यभावभेदाद् " इन्हें देखो | अथवा इन्हें द्रव्यलिंगियों से अलग समझना चाहिए। ये करते हुए डरते है, त्रस्त होते है, उद्विग्न होते हैं-तीन करण, तीन आरभ के त्यागी है, यह देखो । सकाय का आरंभ योग से त्रसकाय के और कोई-कोई 'हम अनगार हैं' इस प्रकार अभिमानपूर्वक कहते हुए तथा 'हम ही काय के रक्षक और महाव्रतधारी हैं। इस तरह प्रलाप करते हुए कई द्रव्यलिंगी है, उन्हें अनगारों से अलग समझो । अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणों में तनिक भी प्रवृत्त नहीं होते और न गृहस्थ के किसी काम का त्याग करते है । यह बात आगे बताते है: - 'यदिमम्' इत्यादि । द्रव्य और भाव के भेद से शस्त्र दो प्रकार का है । व्यशस्त्र के तीन ભાવિતાત્મા છે. આને જુએ. અથવા એને દ્રવ્યલિંગીએથી અલગ સમજવા જોઇએ. જે ત્રસકાયનો આરંભ કરતાં ડરે છે, ત્રસ્ત થાય છે, ઉદ્વિગ્ન થાય છે-ત્રણ કરણ, ત્રણ ચેાગથી ત્રસકાયના આરંભના ત્યાગી છે એ જુઓ. અને કેાઈ-કાઈ ‘અમે અણુગાર છીએ' એ પ્રમાણે અભિમાકપૂર્વક કહેતા થકા તથા ‘અમેજ ત્રસકાયના રક્ષક અને મહાવ્રતધારી છીએ' એ પ્રમાણે પ્રલાપઅકવાદ કરનારા કેટલાક દ્રવ્યલિગી છે. તેને અણગારોથી જૂદા સમજો. અણગાર હોવાનુ અભિમાન કરવાવાળા એ દ્રવ્યલિંગી અણુગારના ગુણેમાં જરાપણ પ્રવૃત્ત નથી અને ગૃહસ્થના કોઈ પણ કામને તેઓએ ત્યાગ કર્યું નથી. ते वात भागण मतावे छे -' यदिमम्.' त्याहि. દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદ્યથી શસ્ત્ર એ પ્રકારનાં છે. દ્રવ્યશસ્ત્રના ત્રણ ભેદ છે. સ્વકાય, Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ . ४ शस्त्रभेदनिरूपणम् ६६१ द्विविधम् , तत्र-द्रव्यशस्त्रं-स्त्रकाय-परकायो-भयकायभेदात् त्रिविधम् । तत्रस्वकायशस्त्रेत्रसकायस्य त्रसकायः,यथा-मृगादीनां व्याधकुक्कुरादयः,मनुष्यादीनां मनुष्यादयः। परकायशस्त्रम्-पाषाणजलाग्निलगुडखङ्गतोमरछुरिकादयः । उभयकायशस्त्रम्-लगुडखगादिधारिणो मनुष्यादयः । भावशस्त्रं तु त्रसकायं प्रति मनोवाक्कायानां दुष्प्रणिधानम् । त्रसकायसमारम्भेण, सनसनशीलः काया शरीरं यस्य स त्रसकायस्तस्य समारम्भः पीडाकरः सावधव्यापारस्तेन, इमंत्रसकायं विहिंसन्ति । सकायहिंसायां प्रवृत्ताः खलु षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-' त्रसकायशस्त्रम्.' इत्यादि । त्रसकायशस्व-त्रसजीवोपमर्दकं शस्त्रं पूर्वोक्तप्रकार, समारम्भमाणासकार्य प्रति प्रयुजानाः अन्यान्-त्रसकायभिन्नान् भेद हैं-स्वकाय, परकाय, और उभयकाय । त्रसकाय का त्रसकाय स्वकायशस्त्र है, जैसे मृग आदि के लिए व्याध, कुत्ता आदि, मनुष्य के लिए मनुष्य आदि । परकायशस्न जैसे पत्थर, जल, अग्नि, लकडी, तलबार, तोमर, शेरी आदि । उभयकायशस्त्र जैसे लाठी, तलवार आदि कारण करने वाला मनुष्य आदि । त्रसकाय के प्रति मन, वचन, और कायका अप्रशस्त व्यापार होना भावशस्त्र है । इन नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकाय का समारंभ करके लोग त्रसकाय को पीडा पहुँचाते है। सकाय की हिंसा में प्रवृत्ति करने वाले छह प्रकार के जीवनिकायरूप सम्पूर्ण लोक की हिंसा करते है, यह बात कहते है-त्रसकाय में, त्रसकाय की हिंसा करने वाले शस्त्रों का जो प्रयोग करते है वे त्रसकाय के अतिरिक्त अनेक प्रकार के पृथ्वीकाय आदि પરકાય અને ઉભયકાય, ત્રસકાયનું ત્રસકાય તે સ્વકાયશસ્ત્ર છે, જેમ મૃગ આદિને માટે વાઘ–કુતરા આદિ, મનુષ્યને માટે મનુષ્ય આદિ. પરકાયશ, જેમકે પથ્થર, ore, पनिसी , तरवार, मासु, छरी माहि. मययशस्त्र, माडी, તલવાર આદિ ધારણ કરવાવાળા મનુષ્ય આદિ. ત્રસકાયના પ્રતિ મન, વચન અને કાયાને અપ્રશસ્ત વ્યાપાર થવે તે ભાવશસ્ત્ર છે. તે નાના પ્રકારનાં શસ્ત્રથી ત્રસકાયને સમારંભ કરીને લેક ત્રસકાયને પીડા પહોંચાડે છે. ત્રસકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા છ પ્રકારના જવનિકાયરૂપ સંપૂર્ણ લોકની હિંસા કરે છે. એ વાત કહે છે–ત્રસકાયમાં, ત્રસકાયની હિંસા કરવાવાળા–શએને જે પ્રવેગ કરે છે, તે ત્રસકાયથી જૂદા અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય આદિ પાંચ સ્થાવર Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ आचाराङ्गमत्रे अनेकयरूपान् पृथिवीकायादीन् पञ्चस्थावरान् , प्राणान्माणिनः, विहिंसन्ति । इह बहुविधा द्रव्यलिङ्गिनो विद्यन्ते । तत्र शाक्यादयः कन्दमूलपत्रपुष्पफलादि भोक्तुं तदाश्रितत्रसजीवसमारम्भेण पृथिव्यादिस्थावरसमारम्भेण च त्रसजीवान् , पृथिव्यादीन् स्थावरांश्च ध्नन्ति घातयन्ति हिसतोऽनुमोदयन्ति च । दण्डिनोऽपि " वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिनाज्ञाराधका अनगाराः स्मः" इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासाः सावद्यमुपदिशन्ति शास्त्रप्रतिषिद्धमपि पड्जीवनिकायसमारम्मं कारयन्ति । प्रतिमामन्दिरादिनिर्माणार्थ गर्तकरणे, पाषाणादीनां खण्डशः करणे, तेपामूर्ध्वतो निपतने च मनुष्यादीन् तथा-बहुतरवृक्षच्छेदने पाँच स्थावर प्राणियों की भी हिंसा करते है । संसार में बहुत प्रकार के द्रव्यलिंगी है । उन में से शाक्य आदि कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल आदि भोगने के लिए उन पर रहे हुए त्रसजीवो का समारंभ करके त्रस और स्थावर जीवों की घात करते हैं, कराते है और घात करने वाले की अनुमोदना करते है । दण्डी भी हम पंचमहाव्रतधारी, जिनाज्ञा के आराधक अनगार हैं' ऐसा कहने वाले झूठे साधु सावद्य का उपदेश देते है और शास्त्र में निषिद्ध षड्जीवनिकाय का समारंभ कराते है । प्रतिमा, मन्दिर, आदि का निर्माण करने के लिए-खड्डे खोदने में, पत्थरों के टुकडे करने में, उन्हे ऊपर से पटकने में मनुष्य आदि का घात कराता है । बहुत-से वृक्षो को छेदने में वृक्षाश्रित अण्डजों के पंचेन्द्रिय बच्चों का घात कराते है । પ્રાણીઓની પણ હિંસા કરે છે. સ સારમાં ઘણા પ્રકારનાં દ્રવ્યલિંગી છે. એમાંથી શાક્ય આદિ કન્દ, મૂળ, પત્ર, પુષ્પ, ફલ આદિ ભેગવવા માટે–ઉપગ કરવા માટે, તેના પર રહેલા ત્રસ જીવને સમારંભ કરીને અને પૃથ્વી આદિ સ્થાવર જીવેને સમારંભ કરીને ત્રસ અને સ્થાવર જીવેને ઘાત કરે છે. કરાવે છે, અને ઘાત કરવાવાળાને અનુમોદન આપે છે. દંડી પણ “અમે પચમહાવ્રતધારી, જિનાજ્ઞાના આરાધક અણગાર છીએ.” એ પ્રમાણે કહેવાવાળા જુઠા સાધુ સાવધને ઉપદેશ આપે છે. અને શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધ જીવનિકાયને સમારંભ કરાવે છે. પ્રતિમા, મંદિર વગેરેનું નિર્માણ કરવા માટે ખાડા ખેદવા, પથરેના ટુકડા કરાવવા, તેને ઉપરથી પછાડવામાં મનુષ્ય આદિને ઘાત કરાવે છે. ઘણાંજ વૃક્ષોને કાપવાથી વૃક્ષોના Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ६ म.४ द्रव्यलिंङ्गिभेदाः तदाश्रितान् अण्डजशावकादीन , पञ्चेन्द्रियान् पिपीलिकापतङ्गादिवहुविधविकलेन्द्रियांश्च, प्रतिमापूजनार्थ पुष्पवाटिकाकरणे पुष्पपत्रफलादिवोटनेऽपि च षड्जीवनिकायान् घातयन्ति ॥ सू० ४ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति-तत्थ खलु.' इत्यादि। मूलम् - तत्थ खलु भगवया परिणा पवेइया, इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए जाइमरणमोयणाए दुःखपडिघायहेउं से सयमेव तसकायसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए ॥ सू. ५॥ कीडी पतंग आदि बहुत प्रकार के विकलोन्द्रिय जीवों का घात कराते हैं । प्रतिमापूजन के लिए फूलोका बगीचा बनाने में, ल, पत्ता और फल आदि तोडने में भी षट्काय के जीवो की घात कराते है । सू० ४ ॥ अब सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैः-'तत्थ खलु.' इत्यादि । मूलार्थ-त्रसकाय के आरंभ के विषय में भगवान्ने उपदेश दिया है । इसी जीवन के वन्दन, मानन, और पूजन के लिए, तथा जन्म-मरण से छूटने के लिए और दुःख का विनाश करने के लिए वह स्वयं त्रसकाय के शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों द्वारा त्रसकाय का समारभ करता है और त्रसकाय का समारंभ करने वाले अन्य लोगों का अनुमोदन करता है। यह उसके अहित के लिए है, उसकी अंबोधि के लिए है ॥ सू० ५॥ આશ્રયે રહેલા અંડજ ના પંચેન્દ્રિય બચ્ચાઓને ઘાત કરાવે છે. કીડી પતંગ આદિ ઘણાજ પ્રકારના વિકલેન્દ્રિય અને ઘાત કરાવે છે. પ્રતિમાપૂજન માટે ફૂલના બગીચા બનાવવામાં ફેલ, પતાં (પાંદડા) અને ફળ આદિ તોડવામાં પણ षटूायना वान धात ४२ छ. ॥ ४ ॥ हवे सुधा २वामी ०४-५ स्वाभीने ४ छ:-" तत्थ खलु.' त्यादि. મૂલાથત્રસકાયના આરંભના વિષયમાં ભગવાને ઉપદેશ આપે છે. આ જીવનના વંદન, માન, અને પૂજનને માટે તથા જન્મ-મરણથી છૂટવા માટે અને દુઃખને નાશ કરવા માટે તે પિતે ત્રસકાયના શસ્ત્રને સમારંભ કરે છે, બીજા પાસે ત્રસકાયને આરંભ કરાવે છે. અને ત્રસકાય સમારંભ કરવાવાળા અન્ય લોકેને અનુમોદન આપે છે, તે એમના અહિત માટે છે, એમની અબાધિ માટે છે. સૂ૦ પા. Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसूत्रे छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखप्रतिघातहेतुं, स स्वयमेव त्रसकायशस्त्रं समारभते, अन्यैर्वा त्रसकायशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत्तस्याहिताय, तत्तस्यावोधये ॥ मू० ५॥ टीकातत्र त्रसकायसमारम्भे भगवता-श्रीमहावीरेण परिज्ञा-ज्ञ-प्रत्याख्यानभेदाद् द्विविधा, खलु निश्चयेन प्रवेदिता प्रतियोधिता। कर्मरजःपरिहरणार्थ जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतिबोधितमिति भावः । उपभोगद्वारम्लोकः कस्मै प्रयोजनाय त्रसकायमुपमर्दयतीत्याह-'अस्य चैव जीवितस्य' इत्यादि । अस्यैव-अचिरस्थायिनः, जीवितस्य-जीवनस्य सुखार्थम्मांसचर्माद्यर्थम् , तथा-परिवन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थम् , यथाव्याधादिमृगयादौ, माननं जनसत्कारस्तदर्थम् , यथा-राज्ञः सकाशात् पदकादि टीकार्थ-वसकाय के समारंभ के संबंध में श्री महावीरने ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यानपरिज्ञा का उपदेश दिया है । अर्थात् भगवान्ने कहा है कि-कर्मरज को हटाने के लिए जीव को परिज्ञा अवश्य स्वीकार करनी चाहिए। उपभोगद्वारलोग किस प्रयोजन से त्रसकाय की हिंसा करते हैं ? सो कहते हैं-इसी अस्थायी जीवन के सुख के लिए, मांस और चमडी के लिए, तथा प्रशंसा के लिए, जैसे व्याघ्र आदि का शिकार करने में, मानन के लिए, जैसे राजा से पदवी पाने के उद्देश्य से ટીકાર્ય–ત્રસકાયના સમારંભના સંબંધમાં શ્રી મહાવીરે જ્ઞપરિણા અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાને ઉપદેશ આપે છે. અર્થાત્ ભગવાને કહ્યું છે કે-કર્મ રજને દૂર કરવા માટે જીવે પરિજ્ઞા અવશ્ય સ્વીકારવી જોઈએ. पमा २લોક શું પ્રજનથી ત્રસકાયની હિંસા કરે છે? તે કહે છે–આ અસ્થિર જીવનના સુખ માટે, માંસ અને ચામડીના માટે, તથા પ્રશંસા માટે. જેમાં કે–વાઘ આદિના શિકાર કરવામાં. માન માટે, જેમ કે–રાજા પાસેથી પદવી મેળવવાના ઉદ્દેશ્યથી જીવતા Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सू० ५ सकायसमारम्भदोषः लब्धुं सजीवसदृशव्याघ्रादिमृतकलेवर निर्माणादौ, तथा-पूजन = वस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्थम्, यथा- देवीपूजार्थं बलिदानादौ, ६६५ तथा - जातिमरणमोचनार्थम् = जन्ममरणबन्धपरिहारार्थ=यथा मोक्षकामनया यागादौँ, यथा- वातादिव्याधिप्रतीकाराय तैलादौ सः - जीवनसुखाद्यर्थी स्वयमेव त्रसकायशस्त्रं समारभते = व्यापारयति, अन्यैर्वा सकायशस्त्रं समारम्भयति= प्रयोजयति, अन्यान् वा सकायशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति = अनुमोदयति, तत्=त्रसकायसमारम्भणम्, तस्य त्रसकाय समारम्भं कुर्वतः कारयितुः, अनुमोदयितुश्च, अहिताय भवति । तथा तत् तस्य अवाधये = सम्यक्त्वा लाभाय भवति । जीवित व्याघ्र आदि के समान व्याघ्र आदि का कलेवर बनाने में, और पूजक के लिए जैसे वस्त्र रत्न आदि की प्राप्ति के लिए, तथा - देवीकी पूजा करने के लिए प्रयोजन से वलिदान आदि करने में हिंसा करते है । तथा— जन्म-मरण-बंध आदि से छुटकारा पाने के लिए, जैसे - मोक्ष की कामना से यज्ञ आदि करने में, वात आदि के रोगों का प्रतीकार करने के लिए तैल आदि तैयार करने में, जीवन के सुख का अर्थी स्वयं ही त्रसकोय के शस्त्र का समारंभ करता है, दूसरों से सकाय के शस्त्र का समारंभ कराता है और त्रसकाय के शस्त्र का समारंभ करने वालों का अनुमोदन करता है । यह सकाय का आरंभ उस आरंभकर्ता के लिए अहितकर और अबोधिजनक होता है । વાઘના સમાન વાઘ આદિનું કલેવર મનાવવામાં અને પૂજન માટે જેમકે-વસ્ત્ર, રત્ન આદિ પ્રાપ્તિ માટે. તથા દેવીની પૂજા કરવાના પ્રયાજનથી ખલિદાન આદિ કરવામાં હિંસા કરે છે. तथा-४न्भ, भर], अंध आद्दिथी छुटवा भाटे. नेम-भोक्षनी अभनाथी यज्ञ આદિ કરવામાં, વાત આદિરાગના પ્રતિકાર કરવા માટે (રાગની દવા કરવા માટે) જીવનના સુખના અર્થી સ્વયં-પેાતેજ ત્રસકાયના શસ્રના સમારભ કરે છે. ખીજા પાસે ત્રસકાયના શસ્રને સમારંભ કરાવે છે. અને ત્રસકાયના શસ્ત્રને સમારંભ કરવાવાળાને અનુમેદન આપે છે. તે ત્રસકાયના આરંભ એ આરંભ કરનારને માટે અહિતકર્તા અને અમેધિ ઉત્પન્ન કરનાર છે. प्र. म.-८४ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ आचाराजसप्रे वेदनाद्वारम्अत्र प्रसङ्गतहसकायस्य वेदनोच्यते-वेदना यथासंभवं द्विविधा-का यिकी, मानसी च । शल्यमूच्यादिवेधाज्जाता, ज्वरातिसारकासादिव्याधिजनिता वा कायिकी, प्रियवियोगादकृता मानसी ॥ सू० ५॥ येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे त्रसकायस्वरूपं परिजातं स एवं विभावयतीत्याह‘से तं.' इत्यादि। मूलम्से तं संबुच्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोच्चा भगवओ अनगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं गाय भवड, एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु वेदनाद्वारप्रसंग पाकर त्रसकाय की वेदना का निरूपण किया जाता है-यथासंभव वेदना दो प्रकार की है-कायिक और मानसिक । कांट, सुई आदि चुमने से अथवा ज्वर, अतिसार, 'खांसी आदि रोगों से उप्तन्न होने वाली वेदना कायिक कहलाती हैं । प्रिय वस्तु के वियोग आदि कारणों से होने वाली वेदना मानसिक वेदना है ॥ सू० ५॥ जिसने तीर्थंकर आदि के समीप त्रसकायका स्वरूप समझ लिया है, वह इस प्रकार विचारता है:-'से तं.' इत्यादि। मूलार्थ-भगवान् अथवा अनगारों के समीप सुनकर वह त्रसकाय का ज्ञाता त्रसकाय को जानता हुआ संयम धारण करके इस प्रकार जानता है यह त्रसकाय का आरंभ नावाપ્રસંગ હોવાથી ત્રસકાયની વેદનાનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે–સાધારણ રીતે વેદના બે પ્રકારની છે-કાયિક અને માનસિક કાંટા, સોય આદિ વાગવાથી, અથવા જવર-તાવ, અતિસાર-ઝાડા, ખાંસી આદિ રોગોથી ઉત્પન્ન થવાવાળી વેદના કાયિક કહેવાય છે. પ્રિય વસ્તુના વિગ વગેરેના કારણોથી થનારી વેદના માનસિક–વેદના છે. સૂપી જેણે તીર્થકર આદિના સમીપમાં ત્રસકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रमाणे वियारे छ–'से तं.' त्यादि મૂલાઈ–ભગવાન અથવા અણગારોના સમીપ સાંભળીને તે ત્રસકાયના જ્ઞાતા ત્રસકાયને જાણતા થકા સંયમ ધારણ કરીને આ પ્રમાણે જાણે છે-આ ત્રસકાયનો આરંભ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ सु. ६ त्रसहिंसाया ग्रन्थादिता ६६७ मारे, एस खलु णरए, इच्चत्यं गढिए लोए, जमिण विरूवरूवेहि सत्थेहिं तसकायसमारंभेण, तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिसइ ।। सू०६॥ छायास तत् संबुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा भगवतोऽनगाराणां वा अन्तिके, इहैकेषां ज्ञातं भवति-एष खलु ग्रन्थः एष खलु मोहः, एष खलु मारः, एष खलु नरकः । इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः त्रसकायसमारम्मेण सकायशस्त्रं समारभमाणोऽन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिनस्ति । सू०६॥ टीकायः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्य, अनगाराणां तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानां या अन्तिके श्रुत्वा, आदानीयम्-उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं, समुत्थाय-अङ्गीकृत्य, विरहति, स तत्स कायसमारम्भणं संबुध्यमानः अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन् एवं विभावयतिग्रन्थ है, यह मोह है, यह मार है, यह नरक है । लोलप लोग नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा त्रसकायका आरंभ करके, त्रसकायका आरंभ करते हुए अनेक प्रकारके अन्य प्राणियोंका (भी) विराधाता करते हैं । सू० ६ ॥ ___टीकार्थ-जो पुरुष भगवान् तीर्थंकर के मुख से अथवा उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ श्रमणों के मुख से सुनकर सर्व सावद्य के त्यागरूप चारित्र को अंगोकार करके विचरता है, वह त्रसकाय के समारंभ को अहितकर और अबोधिजनक समझता है । वह इस प्रकार सोचता है ગ્રન્થ છે, આ મેહ છે, આ માર છે; આ નરક છે, લોલુપ લેક નાના પ્રકારનાં શદ્વારા ત્રસકાયને આરંભ કરીને, ત્રસકાયને આરંભ કરતા થકા અનેક પ્રકારના मन्य प्रमान पर घात ४२ छ. ॥१० ॥ ટીકાથ–જે પુરૂષ ભગવાન તીર્થંકરના મુખથી અથવા તેમના અનુયાયી નિગ્રંથ શ્રમણોના સુખથી સાંભળીને સર્વ સાવદ્ય ત્યાગરૂપ ચારિત્રને અંગીકાર કરીને વિચરે છે તે ત્રસકાયના સમારંભને અહિતકર અને અબાધિકર-અબોધિ ઉત્પન્ન કરનાર સમજે છે. તે આ પ્રમાણે વિચાર કરે છે - Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ आचारागसूत्रे इह-मनुष्यलोके, एकेषां श्रमणनिग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव ज्ञातं भवति । किं ज्ञातं भवती ?-त्याकाङ्क्षायामाह-' एस खलु ग्रन्थः.' इत्यादि । एषत्रसकायसमारम्भः, खलु-निश्चयेन, ग्रन्थः कर्मवन्धः, कारणे कार्योपचारात् , एवमग्रेऽपि वोध्यम् । तथा एषः त्रसकायसमारम्भः मोहः= विपर्यासः-अज्ञानम् । तथा-एष एव मारः मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा-एप एव नरका नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । ___इत्यर्थम् एतदर्थ-ग्रन्थ-मोह-मरण-नरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव लोका=अज्ञानवशवर्ती जीवः, गृद्धः लिप्सुरस्ति । यद्धा-गृद्धः= भोगामिलाषी, लोकः संसारी जीवः, इत्यर्थम् एतदर्थमेव ग्रन्थमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तते । इस मनुष्य लोक में श्रवण निर्ग्रन्थों के उपदेश से सम्यग् ज्ञान और वैराग्य प्राप्त कर लेने वाले ही यह जान लेते है कि-त्रसकाय का समारंभ निश्चय ही कर्मबंध है । यह। कारण में कार्यका उपचार करके कर्मबंध के कारण को कर्मबंध कहा है । आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए । यह त्रसकाय का समारंभ मोह अर्थात् अज्ञान है । वह मार अर्थात् निगोद आदि में मृत्यु का कारण है । यह समारंभ नरक है अर्थात् दस प्रकार की नारकीय यातना का स्थान है। ग्रंथ, मोह, मरण और नरकरूप घोर दुःखमय फल प्राप्त करके भी अज्ञानी लोग बार-बार इसी के इच्छुक होने है । अथवा भोगों की अभिलाषा करने वाले संसारी लोग इस ग्रंथ, मोह, मार और नरक के लिए ही प्रवृत्ति करते है । આ મનુષ્ય લોકમાં નિર્ચન્ધના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીલેવાવાળા જ એમ જાણી શકે છે કે–ત્રસકાયને સમારંભ નિશ્ચયજ ગ્રંથ-કર્મબંધ છે. અહિં કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરીને કર્મબંધના કારણને કર્મબંધ કહ્યો છે. આગળ પણ આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ. આ ત્રસકાય સમારંભ મોહ અર્થાત અજ્ઞાન છે. આ માર અર્થાત નિગોદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે. આ સમારંભ નરક છે. અર્થાત્ દસ પ્રકારની નારકીય યાતનાનું સ્થાન છે. ગ્રંથ, મોહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘોર દુઃખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની લોક વારંવાર તેની ઇચ્છાવાળા થાય છે. અથવા ભેગોની અભિલાષા કરવાવાળા સંસારી લોક આ ગ્રંથ, મેહ, માર અને નરક માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु. ६ त्रसहिंसाया ग्रन्थाद्यर्थत्वम् ६६९ 'लोकः पुनः पुनर्ग्रन्थाद्यर्थमेव प्रवर्तते' इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह - ' यदिमम् . ' इत्यादि । यद्=यस्माद्, विरूपरूपैः=नानाविधैः शस्त्रैः = पूर्वोक्तप्रकारैः त्रसकायसमारम्भेण= सकायोपमर्दनरूपसावद्यव्यापारेण, इमं त्र सकार्यं विहिनस्ति । तथा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणः=व्यापारयन् अन्यान् पृथ्वीकायादीन् स्थावरान् प्राणान् = प्राणिनः, विहिनस्ति = उपमर्दयति ॥ ०६ ॥ यस्मै प्रयोजनाय सकायो हन्यते, तत् प्रयोजनं यद्यपि - 'इमरस चेव जीवियस्स.' इत्यादिनाऽभिहितम्, तथापि विशिष्य तत्तत्प्रयोजनं पुमः प्रदर्शयितुमाह' से बेमि' इत्यादि । लोग बारम्बार ग्रंथ आदि के लिए ही प्रवृत्ति करते है, यह बात कैसे मालूम हुई 2 इस का समाधान के लिए कहते है - ' यदिमम्' इत्यादि । क्यों कि वे नाना प्रकार के शस्त्रो द्वारा त्रसकाय का समारंभ करके काय की हिंसा करते हैं और त्रसकाय का समारंभ करते हुए पृथ्वीकाय आदि अन्य स्थावर प्राणियों का भी विराधना करते है || सू० ६ ॥ जिस प्रयोजन से त्रसकाय की हिंसा की जाती है वह योजन 'इस जीवन के सुख के लिए' इत्यादि कथन द्वारा बतलाया जा चुका है, फिर भी विशेष रूप से उस हिंसाका प्रयोजन बतलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी कहते है - ' से बेमि . ' इत्यादि । લાક વારવાર ગ્રંથ આદિના માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે, એ વાત કેવી રીતે માલૂમ घडी ? मेनु सभाधान वा भाटे हे छे:- ' यदिमम् . ' त्याहि. કેમ કે નાના પ્રકારના શસ્રાદ્વારા ત્રસકાયને સમારભ કરીને ત્રસકાયની હિંસા કરે છે, અને ત્રસકાયના સમારભ કરતા થકા પૃથ્વીકાય આદિ અન્ય સ્થાવર પ્રાણીयो घात उरे छे. ॥ सू० ६॥ જે પ્રત્યેાજનથી ત્રસકાયની હિંસા કરવામા આવે છે. તે પ્રત્યેાજન આ જીવનના સુખ માટે” ઈત્યાદિ વિવેચનદ્વારા બતાવ્યુ છે. ( પતાવી ચૂકયા છીએ.) ક્રી પણ વિશેષરૂપથી એ હિંસાનું પ્રત્યેાજન ખતાવવા માટે શ્રી સુધર્મા સ્વામી કહે છેઃ'से बेमि.' इत्याहि. Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० आचाराङ्गमुत्रे मूलम् - सेवेम - अप्पेगे अच्चाए हणंति, अपेगे अजिगाए वहति अप्पे मंसाए वहंति, अप्पे साणियाए वहंति, एवं हिययाए, पित्ताए, बसाए, पिच्छाए, पुच्छाए, बालाए, सिंगाए, विसाणाए, दंताए, दाढाए, पहाए, हारूणीए, अट्टीय, अट्ठिमिंजाए, अाए, अण्डा, अपेगे 'हिंसिस मे' त्ति वा वहति अप्पेगे 'हिंसंति मे' त्ति वा वहंति, अप्पेगे 'हिंसिस्संति मे' त्ति वा वहति ॥ ०७ ॥ छाया तद् ब्रवीमि - अप्येके अचयै घ्नन्ति, अप्येके अजिनाय नन्ति, अप्येके मांसाय घ्नन्ति, अप्येके शोणिताय घ्नन्ति एवं हृदयाय, पित्ताय, वसायै, पिच्छाय, पुच्छाय वालाय, शङ्गाय, विपाणाय, दन्ताय, दंष्ट्रायै, नखाय, स्नायवे, अस्थने, अस्थिमज्जायै, अर्थाय, अनर्थाय, अप्येके 'अवधीपुरस्मा-निति वा घ्नन्ति, अप्येके 'हिंसन्त्यस्मा' निति वा घ्नन्ति, अप्येके अप्येके 'हनिष्यन्त्यस्मा ' -निति वा घ्नन्ति ॥ ०७ ॥ मूलार्थ - - मैं वह (प्रयोजन) कहता हूँ - कोई अर्चा शरीर के लिए सकाय का विराधना करते है, कोई चर्म - चमडे के लिए घात करते है, कोई मांस के लिए घात करते हैं, कोई रक्त के लिए घात करते है, कोई हृदय के लिए, पित के लिए, चर्बी के लिए पंख के लिए, पूँछ के लिए, बाल के लिए, सींग के लिए, विषाण (सुअर का दांत ) के लिए, दांत (हाथीदांत ) के लिए, दाढों के लिए, नख के लिए, स्नायु के लिए, हड्डी के लिए, मज्जा के लिए, अर्थ के लिए, अनर्थ के लिए - (निरर्थक) कोई 'हमें मारा था' इस भावना से, कोई 'हमें मारता है' इस भावना से, और कोई 'हमें मारेगा' इस भावना से त्रसकाय का घात करते है || सू० ७ ॥ भूदार्थ – हुं हुं छु:-अर्ध अर्था (शरीर) भाटे सायनो घात उरे छे. अर्ध ચામડી માટે ઘાત કરે છે. કેઈ માંસ માટે ઘાત કરે છે. કોઈ રક્ત-લેહી માટે धात ४रे छे. अर्ध हृदय भाटे, पित्त भाटे, थरणी भाटे, यांगो भाटे, पूंछडा भाटे, बाज भाटे, शींगडा भाटे, विषाणु (सूवरना हांत) भाटे, हाथी हांत भाटे, हाढो भाटे, नभ भाटे, स्नायु भाटे, हाडां भाटे, भन्न भाटे, अर्थ भाटे, अनर्थ -(निरर्थ3). अर्ध 'अभने भार्या हुता' में भावनाथी, अर्ध 'अमने मारे छे' थे लावनाथी, भने अर्थ 'अभने भारशे' मा लावनाथी सायनो धात ४रे छे. ॥ सू० ७ ॥ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ६ सु० ७ सकाय हिंसाप्रयोजनम् ६७१ टीका यदर्थ सजीवा हन्यन्ते, तद् ब्रवीमि - अप्येके केचिच्च, अत्रापि - शब्दः वक्ष्यमाणापेक्षया समुच्चयार्थः, अर्चायैि- अर्च्यते = पूज्यते इत्यर्चा =शरीरं, तदर्थ घ्नन्ति = हिसन्ति, यथा सुलक्षणं पुरुषं व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्र, साधयन्ति यद्वा- स्वर्णपुरुषनिर्माणार्थं द्वात्रिशलक्षणं पुरुषं प्रतप्ततैले निक्षिप्य निघ्नन्ति । तथा अप्येके = केचन अजिनाय =चमथं मृगव्याघ्रादीन् घ्नन्ति । तथा अप्येके = केचन मांसाय छागादीन् घ्नन्ति । अप्येके = केचन शोणिताय = त्रिशूलालेख करणादौ शोणितं ग्रहीतुं ध्नन्ति । एवं हृदयाय = हृदयं गृहीत्वा साधका मथ्नन्ति तदर्थं घ्नन्ति । पित्ताय मयूरादीन, वसायै व्याघ्रादीन्, पिच्छाय मयूरादीन् पुच्छाय रोझादीन, वालाय चमर्यादीन, शृङ्गाय मृगादीन्, - टीकार्थ - हे जम्बू जिस प्रयेजन से स्काय की हिंसा होती है, वह कहता हूँ । कोई-कोई अर्चा अर्थात् शरीर के लिए विराधाना करते हैं, जैसे किसी पुरुष को अच्छे लक्षण वाला समझकर उसे मार डालते हैं, और उसके शरीर से विद्या तथा मत्र का साधन करते हैं । अथवा स्वर्णपुरुष के निर्माण के लिए बत्तीस लक्षण वाले पुरुष को तपे हुए तेल में डालकर मारते हैं । कोई चर्म के लिए मृग और वाघ आदि का घात करते है । कोई मांस के लिए बकरा आदि को मारते है । कोई त्रिशूल का चिह्न बनाने आदि के लिए तथा रक्त पीने के उद्देव्य से घात करते हैं । इसी प्रकार हृदय के लिए घात करते हैं - घातक लोग हृदय लेकर मथते है । इसी तरह पित्तके लिए मयूरों को चर्बीके लिए वाघ आदि को, पंखों के लिए मयूरों को, पूंछके लिए रोझ आदि को, बाल के ટીકાથ—જે પ્રત્યેાજનથી ત્રસજીવાની હિંસા થાય છે; તે કહું છું. કઈ-કઈ અર્ચા અર્થાત્ શરીરના માટે ઘાત કરે છે. જેમકે-કેાઈ પુરૂષને સારા લક્ષણવાળા સમજીને તેમ મારી નાંખે છે, અને તેના શરીરથી વિદ્યા તથા મંત્રની સાધના કરે છે અથવા– સ્વર્ણ પુરૂષના નિર્માણ માટે ખત્રીસ લક્ષણુવાળા પુરૂષને તપાવેલા તેલમાં નાંખીને મારે છે. કેાઈ ચામડા માટે મૃગ અને વાઘ વગેરેના ઘાત કરે છે. કેાઈ માંસ માટે બકરા વગેરેને મારે છે. કેાઈ ત્રિશુલનું ચિહ્ન મનાવવા વગેરે માટે લેાહી પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશ્યથી ધાત કરે છે. એ પ્રમાણે કોઈ હૃદય માટે ધાત કરે છે—ધાતકી લેાક હૃદય લઈને મથે છે. એ પ્રમાણે પિત્ત માટે, મારને, ચરખી માટે વાઘ આદિને વાળ માટે ચમરી-ગાય આદિને, શીંગ માટે મૃગ આદિને મારે છે. વિષાણુ શબ્દ જો કે હાથી Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६७२ आचारागसूत्रे विपाणाय, विषाणशब्दो गजदन्ते रूढस्तथापीह सूकरदन्तो ग्राह्यः, तदर्थ सकरम् , दन्ताय हस्त्यादीन् , दंष्ट्राय वराहादीन् , नखाय व्याघ्रादीन् , स्नायवे गवादीन् , अस्थ्ने शङ्खादीन , अस्थिमज्जायै-अस्थिमज्जा-अस्थिगतरसः, तदर्थ, महीपादीन् , घ्नन्ति । इत्थम्-अर्थाय प्रयोजनवशात् केचिद् घ्नन्ति । तथा- अनर्थायविनाऽपि प्रयोजन केचिद् नन्ति । अप्ये के-केचिच्च, “इमे व्याघ्रसर्पसूकगदयः शत्रवो वा अस्मान् अपीडयन् , अस्मदीयान् वाऽवधिषुः” इति द्वे पचासनया नन्ति । अप्येके केचिच्च, “इमे व्याघ्रादयः शत्रवो वा वर्तमानकालेऽस्मान् , अस्मदीयान् वा हिंसन्ति.” इति मत्वा घ्नन्ति । लिए चमरी गाय आदि को, सींग के लिए मृग आदि को मारते हैं । विषाण शब्द यद्यपि हाथीदांत के अर्थ में रूढ है तथापि यहाँ 'सुअर का दांत' अर्थ लेना चाहिए । सुअर के दांत के लिए सुअर का घात किया जाता है। दांत के लिए हाथी आदि को, दाढों के लिए शूकर वगैरह को, नख के लिए वाघ आदि को, स्नायु के लिए गाय आदि को, हड्डी के लिए शंख आदि को, अस्थिमज्जा अर्थात् हड़ियों में रहने वाले एक प्रकार के रस के लिए भैंसा वगैरह का घात करते है । इस प्रकार कोई-कोई प्रयोजन के लिए त्रसजीवों की हिंसा करते हैं और कोई-कोई विना प्रयोजन ही हिंसा करते हैं । कोई-कोई 'इस वाघ, सर्प और शूकरने तथा शत्रुओंने हमें पीडा पहुँचाई है, अथवा हमारे आत्मीयजन का वध किया है' इस प्रकार की द्वेष-वासना से इनका घात करते हैं । कई लोग यह सोचकर कि-'ये व्याघ्र आदि अथवा शत्रु वर्तमान कालमें हमें या हमारे लोगोंको मारते है' उनका घात करते है । कोई लोग यह विचार करके कि-'यह દાંતના અર્થમાં રૂઢ છે. તે પણ અહિં “સૂઅરનાં દાંત એ અર્થ લે જોઈએ. સૂઅરના દાંત માટે સૂઅરને ઘાત કરવામાં આવે છે. દાંત માટે હાથી આદિને, દાઢેને માટે શકરભૂંડ વગેરેન, નખ વગેરે માટે વાઘ આદિને, સ્નાયુને માટે ગાય આદિને, હાડકાં વગેરે માટે શંખ આદિ, અસ્થિમજજા અર્થાતુ, હાડકાંમાં રહેનારા એક પ્રકાર રસ માટે ભે સા–પાડા વગેરેને ઘાત કરે છે, આ પ્રમાણે કોઈકેઈ પ્રયોજન માટે ત્રસ જીવેની હિંસા કરે છે. અને કઈ-કઈ પ્રયજન વિનાજ હિંસા કરે છે. કેઈકે ઈ આ વાઘ સર્ષ અને શુકર-ભૂંડે તથા શત્રુઓએ અમને પીડા પહોંચાડી હતી. અથવા અમારા આત્મીયજનને (તેણે) વધ કર્યો હતો. આ પ્રકારે દ્વેષ-વાસનાથી તેનો ઘાત કરે છે. કોઈ માણસ એ વિચાર કરીને કે–આ વાઘ આદિ, અથવા શત્રુ વર્તમાન કાલમા મને અથવા Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ६ सू. ७ त्रसका यहिंसाप्रयोजनम् ६७३ अप्येके=केचिच्च, ‘अस्मान् अस्मदीयान् वा इमे व्याघ्रादयः शत्रवो वा हनिष्यन्ति” इति हेतोखसकायान् घ्नन्ति ॥ सू० ७ ॥ एवं त्रसकायसमारम्भं विदित्वा मुनित्वलाभाय तत्समारम्भः सर्वथा परिहर्तव्यः, इत्याशयेनो देशकार्थमुपसंहरन्नाह - " एत्थ सत्थं." इत्यादि । मूलम् — एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिणाय मेहावी वयं तसकायसत्थं समारंभेज्जा, पोवडण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेज्जा, asoणे तसकायसत्थं समारंभंते समणुनाणेज्जा । जस्सेते तसकायसमाव्याघ्र आदि अथवा यह शत्रु हमें या हमारों को मारेंगे' उन्हें मार डालते है । इस प्रकार लोग सकाय की हिंसा करते हैं || सू० ७ ॥ इस प्रकार त्रसकाय के समारंभ को जानकर साधुता प्राप्त करने के लिए त्रसकाय का आरंभ सर्वथा त्याग देना चाहिए । इस आशय से इस उद्देश का उपसंहार करते हुए कहते हैं - 'एत्थ सत्थं', इत्यादि । मूलार्थ - काय में शस्त्र का समारंभ करने वाले को यह आरंभ अपरिज्ञात होते है । त्रसकाय में शस्त्र का समारंभ नही करने वाले को यह आरंभ परिज्ञात होते हैं । मेधावी पुरुष उन्हें जानकर स्वयं त्रसकाय में शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से सकाय के शस्त्र का समारंभ न करावे, और त्रसकाय में शस्त्र का समारंभ करने वाले का अनु અમારાને મારે છે” તેથી તેના ઘાત કરે છે. કાઈ લેાક ‘આ વાઘ આદિ અથવા આ શત્રુ મને અથવા અમારાને મારશે. ’એવું વિચારીને તેને મારી નાંખે છે. આ प्रमाणे बोर्ड त्रसायनी हिंसा उरे छे. ॥ सू० ७ ॥ / આ પ્રમાણે ત્રસકાયના સમારંભને જાણીને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે ત્રસકાયના આરંભ સર્વથા ત્યાગી દેવા જોઈએ ત્યજી દેવા જોઇએ. એ આશયથી આ ઉદ્દેશકના ઉપસહાર કરતા થકા કહે છે एत्थ सत्थं ' इत्याहि. મૂલા ——ત્રસકાયને વિષે શસ્ત્રના સમારંભ કરવાવાળાને આ આરંભ અપરિજ્ઞાત હાય છે. ત્રસકાયને વિષે શસ્રના સમારંભ નહિ' કરવાવાળાને આ આરંભ પરિજ્ઞાત છે. (જાણવામાં છે). બુદ્ધિમાન પુરૂષ તેને જાણીને પોતે ત્રસકાયમાં શસ્રના સમારંભ કરે નહિં ખીજા પાસે ત્રસકાયના શસ્રના સમારભ કરાવે નહિં અને ત્રસકાયમાં શસ્ત્રને સમાર ભ प्र. आ.-८५ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ आचाराङ्गमत्रे रंभा परिणाया भवति, से हु मुणी परिणाय कम्मे-ति वेमि ।। सू० ८ ॥ छठ्ठो उद्देसो समत्तो ॥६॥ छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्यइत्येते आरम्भा अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रसमारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैस्त्रसकायशस्त्रं समारम्भयेत् , त्रसकायशवं समारममाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् । यस्यैते त्रसकायशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ।। सू० ८ ॥ ॥ षष्ठोदेशः समाप्तः ॥ ६॥ टीका-अत्र अस्मिन् सकाये, शस्त्रं-पूर्वोक्तप्रकार, समारंभमाणस्य= व्यापारयतः, इत्येते-पूर्वोक्ताः त्रिकरणत्रियोगैः आरम्भाः वनस्पतिकायोपमर्दनरूपाः सावधव्यापाराः, अपरिज्ञाता: कर्मवन्धकारणत्वेनानवगता भवन्ति । अत्र अस्मिन्नेवत्रसकाये, शस्त्र प्रागुक्तप्रकारम् , असमारभमाणस्य अप्रयुञ्जानस्य, इत्येते-पूर्वोक्ताः, आरम्भाः सावधव्यापाराः परिज्ञाता भवन्ति-ज्ञपरिज्ञया वन्धकारणत्वेन विज्ञाता भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः । मोदन न करे । जो त्रसकाय के समारभो का ज्ञाता है वही मुनि है, परिज्ञातकर्मा है ।।सू० ८॥ टीकार्थ-त्रसकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का व्यापार करने वाले को 'तीन करण और तीन योग से होने वाले सावध व्यापार कर्मबंध के कारण है' ऐसा ज्ञात नहीं होता। और त्रसकाय में पूर्वोक्त शस्त्रों का व्यापार न करने वाला पूर्वोक्त सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबध का कारण समझता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनका त्याग कर देता है। કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ, જે ત્રસકાયના સમારંભને જાણે છે. તે જ મુનિ छे. परिज्ञात छ. ॥ सू० ८॥ ટીકાથ–ત્રસકાયના વિષયમાં પૂર્વોકત (આગળ કહેલાં) અને વ્યાપાર કરવાવાળા “ત્રણ કરણ અને ત્રણ રોગથી થવાવાળે સાવદ્ય વ્યાપાર કર્મબંધનું કારણ છે. એ પ્રમાણે જાણતા નથી. અને ત્રસકાયમાં પૂકત (આગળ કહેલાં) શોના વ્યાપાર નહિ કરવાવાળા પૂર્વોકત (આગળ કહેલા ) સાવદ્ય વ્યાપારને રૂપરિજ્ઞાથી કર્મબંધનું કારણ સમજે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કરી દે છે. Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७५ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ मू. ८ उपसंहारः ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति तं प्रकारं दर्शयति-तत् परिज्ञाये'-त्यादि । तद्-त्रसकायारम्भणम् , परिज्ञाय कर्मवन्धस्य कारणं भवतीत्यवबुध्य, मेधावो-हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं त्रसकायशस्त्रं समारभेतव्यापारयेत् , अन्यैर्वा नैव त्रसकायशस्त्रं समारम्भयेत् , त्रसकायशस्त्रं समारभामाणान् अन्यान् वा न समनुजानीयात्म्नानुमोदयेत् ।। ___ यस्यैते त्रसकायसमारम्भाः त्रसकायोपमर्दकसावधव्यापाराः, परिज्ञाता:ज्ञपरिज्ञया वन्धकारणत्वेन विदिताः, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा-त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसावद्यव्यापारः, मुनिर्भवति । ' इति ब्रवीमि ' इति । अस्य व्याख्यानं पूर्ववत् ।। सू० ८॥ ॥ इत्याचारागसूत्रस्याचारचिन्तामणिटीकायां प्रथमाध्ययने षष्ठ उद्देशकः संपूर्णः ॥ ज्ञपरिज्ञापूर्वक होने वाली प्रत्याख्यानपरिज्ञा का स्वरूप शास्त्रकार दिखलाते है त्रसकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर बुद्धिमान् अर्थात् हेय-उपादेय का विवेकी पुरुष स्वयं त्रसकाय के शस्त्र का उपयोग न करे, दूसरों से त्रसकाय के शस्त्र का उपयोग न करावे और त्रसकाय के शस्त्र का उपयोग करनेवाले का अनुमोदन न करे । जिसने त्रसकाय का घात करने वाले सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से बंध का कारण समझ लिया है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण तीन योग से सर्व सावध व्यापारों का ज्ञाता पुरुष मुनि होता है । 'त्ति बेमि' पदकी व्याख्या पहले के समान समझनी चाहिए ॥ सू० ८॥ श्री आचारागसूत्र के प्रथम अध्ययन का छठा उद्देश समाप्त १-६॥ જ્ઞપરિણાપૂર્વક થવાવાળી પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાનું સ્વરૂપ શાસ્ત્રકાર બતાવે છેત્રસકાયના આરંભને કર્મબ ધનું કારણ જાણીને બુદ્ધિમાન અર્થાત્ હેય-ઉપાદેયને વિવેકી પુરૂષ પોતે ત્રસકાયના શસ્ત્રને ઉપયોગ કરે નહિ, બીજા પાસે ત્રસકાયના શસ્ત્રને ઉપગ કરાવે નહિ, અને ત્રસકાયના શસ્ત્રનો ઉપયોગ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જેણે ત્રસકાયને ઘાત કરવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપારેને જ્ઞપરિજ્ઞાથી બંધનું કારણ સમજી લીધું છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યજી દીધું છે. તે ત્રણ કરણ, ત્રણ ચગથી सर्वसावधव्यापारीना ज्ञाता-१२ पु३५ मुनि डाय छे. 'त्ति वेत्ति' पहनी व्याभ्या પહેલાં પ્રમાણે સમજી લેવી જોઈએ. સૂ૦ ૮ના શ્રી આચારાંગસૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનનો છઠ્ઠો ઉદ્દેશ સમાપ્ત, છેલા દા Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចខ្ញុំ आचाराङ्गमत्रे । अथ सप्तमोद्देशकः। वायुकायस्य चाक्षुषप्रत्यक्षविषयत्वाभावात् तस्य सचित्तत्वे स्वतः श्रद्धा नोत्पद्यते, किन्तु पृथिव्यायेकेन्द्रियाणां, द्वीन्द्रियादेवसकायस्य च स्वरूपं विदित्वा जातश्रद्धो वायुकायं सुतरां विजानातीत्याशयेन तद्विपयकश्चरमः सप्तमोऽयमुद्देशक प्रारभ्यते । यथा वायुकायोपमर्दननिवृत्त्या मुनित्वं प्राप्यते, तं प्रकार प्रदर्शयितुमाह'पहू एजस्स.' इत्यादि । मूलम्पहू एजस्स दुगुंछगाए आयंकदंसो अहियं-ति नच्चा । जे अज्झत्थं सातवा उद्देशवायुकाय के जीव चक्षु के गोचर नहीं होते, अत एव वायु की सचित्तता में स्वतः श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती । किन्तु पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रियों का, तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवों का स्वरूप समझ लेने से जिसे श्रद्धा उत्पन्न होगई है वह वायुकाय को स्वयं ही जान लेता है । इस आशय से वायुकायसंबंधी यह अंतिम सातवा उद्देश आरंभ किया जाता है। वायुकाय की हिंसा त्यागने से ही साधुपन प्राप्त होता है, यह बात आगे प्रदर्शित करते है:-'पह एजस्स.' इत्यादि । मुलाथे-दुःखदर्शी पुरुष (वायुकाय के आरंभ को) अहितकर जानकरके वायुकाय के आरम्भ को त्यागने में समर्थ होता है । जो अध्यात्म को जानता है वह સાતમે ઉદેશવાયુકાયના જીવ નેત્રથી જોવામાં આવતા નથી, એ કારણથી વાયુની સચિત્તતામાં સ્વતઃ શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થતી નથી. પરન્ત પૃથ્વીકાય આદિ એકેન્દ્રિયોના તથા કીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીના સ્વરૂપને સમજી લેવાથી જેને શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન થઈ ગઈ છે, તે વાયુકાયને પિતે જ જાણી લે છે. એ આશયથી વાયુકાયસંબંધી આ અંતિમછેલ્લા સાતમા ઉદ્દેશો આરંભ કરવામાં આવે છે. વાયુકાયની હિંસા ત્યાગવાથી સાધુતા પ્રાપ્ત થાય છે. એ વાત આગળ બતાવે छ-'पहू एजस्स.' त्याहि. મૂલાઈ–દખદશ પુરૂષ (વાયુકાયના આરંભને) અહિતકર જાણીને વાયુકાયના આરંભને ત્યજી દેવામાં સમર્થ હોય છે, જે અધ્યાત્મને જાણે છે. તે બહારને જાણે છે, Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ७ सु. १ उपक्रमः ६७७ जाड़, से वहिया जाण, जे वहिया जाणड़, से अज्झत्थं जाणइ । पयं तुल्लमन्नेसिं । इह संतिया दविया णावकखंति जीविउं ॥ सू० १ ॥ छाया प्रभुः एजस्य जुगुप्सायाम् आतङ्कदर्शी अहित - मिति ज्ञात्वा । यः अध्यात्मं जानाति स वहिर्जानाति । यः बहिर्जानाति स अध्यात्मं जानाति । एतद् तुल्यमन्येषाम् । इद् शान्तिगताः द्रविकाः नावकाङ्क्षन्ति जीवितुम् ॥ ० १ ॥ , टीका यः आतङ्कः कृच्छ्रजीवनं दुःखं तच्च शारीरमानसभेदाद् द्विविधम्, तत्र कण्टकशस्त्रादिजनितं शारीरम् प्रियवियोगाप्रियसंयोगाभिलपितालाभदारिद्रयादिकृतं मानसम् । एतद् द्विविधदुःखरूपमातङ्कं पश्यति तच्छीलश्चेत्यातङ्कदर्शी, यद्वाषड्जोत्रकायसमारम्भेग वायुकायसमारम्भेग वा यद्दुख स आतङ्कः, तं बाह्य को जानता है, जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । यह (सुख-दुःख) दूसरों का भी अपने समान है । उपशम को प्राप्त और राग-द्वेष से रहित संयमी पुरुष, पर की हिंसा करके अपने जीवन की इच्छा नहीं करते ॥ सू० १ ॥ टीकार्थ — कष्टमय जीवन या दुःख को आतंक कहते है । शारीरिक और मानसिक भेद से दुःख दो प्रकार का है । कंटक एवं शस्त्र आदि से होने वाला दुःख शारीरिक कहलाता है । प्रियवियोग और अप्रियसंयोग, इस की अप्राप्ति और दरिद्रता आदि से होने वाला दुःख मानसिक कहलाता है, इन दोनों प्रकार के दुःखरूप आतंक को देखने वाला आतंकदर्शी कहलाता है । अथवा षड्जीवनिकाय या वायुकाय के समारम्भ से होने वाला दुःख आतंक कहलाका है, और उसे देखने वाला अतंकदर्शी है । वह જે બહારને જાણે છે તે અધ્યાત્મને જાણે છે. આ ( સુખ-દુઃખ ) બીજાઓને પણ આપણા સમાન છે, ઉપશમને પ્રાપ્ત અને રાગ-દ્વેષથી રહિત સંયમી પુરૂષ પરની-ખીજાની હિંસા કરીને પેાતાના જીવનની ઈચ્છા કરતા નથી. ।। સૂ૦ ૧ । ટીકા કષ્ટમય જીવન અથવા દુ:ખને આતંક કહે છે. શારીરિક અને માનસિક ભેદથી દુઃખ એ પ્રકારનાં છે. કંટક અર્થાત્ શસ્ત્ર આદિથી થવાવાળાં દુ.ખ શારીરિક કહેવાય છે. પ્રિયવિયેગ અને અપ્રિયસંચાગ, ઈષ્ટની અપ્રાપ્તિ અને દરિદ્રતા આદિથી થનારા દુ:ખા તે માનસિક કહેવાય છે. આ બન્ને પ્રકારનાં દુઃખરૂપ આતંકને જેવાવાળા આત`કદર્શી કહેવાય છે. અથવા ષડ્થનિકાય અથવા વાયુકાયના સમાર’ભથી Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭૮ आचाराङ्गसूत्रे पश्यतीत्यातङ्कदर्शी भवति, स हिताहितविवेककुशलवाद् अहितम् = अशुभकरं वायुकायसमारम्भणमस्तीति ज्ञात्वा, एजस्य = एजतीत्येजः कम्पनशीलत्वाद् वायुः, तस्य, जुगुप्सायां = निन्दायां सेवनपरिवर्जने समारम्भनिवृतौ इति यावत्, प्रभुः=समर्थो भवति । जुगुप्सा, संयमना, अकरणा, वर्जना, व्यावर्तना, निवृत्तिरित्येकार्थाः । अयमाशयः-वायुकायसमारम्भकरणे शारीरं मानसं च सर्वमेव दुःखं मयि समापद्येत, तस्मादिदमातङ्क जनकत्वादहितमिति विज्ञाता, तत्सेवनलक्षणसमारम्भपरिहरणे समर्थो भवतीति । यः अध्यात्मम्=आत्मनीति अध्यात्मम् स्वात्मगतं सुखं दुःखं वेत्यर्थः, हित-अहित के विवेक में कुगल होने से वायुकाय से आरम्भ को अहितकर समझकर वायु के आरम्भ का त्याग करने में समर्थ होता है । मूल में आये हुए जुगुप्सा ( दुगुछा ) गन्द के कई अर्थ होते है । जैसे - संयमन, अकरण ( न करना), वर्जन ( त्यागना), व्यावर्त्तन ( हटना ) और निवृत्ति (त्याग) । आशय यह है- 'वायुकाय का आरम्भ करने से मुझे शारीरिक और मानसिक सभी दुःख प्राप्त होंगे अतः यह आरम्भ अतंकजनक होने के कारण अहितकर है' । ऐसा जानने वाला उसके सेवनरूप आरम्भ के त्याग में समर्थ होता है । जो अध्यात्म को अर्थात् अपने आत्मा में स्थित सुख-दुःख को जानता है થનારૂ દુઃખ આંતક કહેવાય છે, અને એને જોવાવાળા આત કદી છે. તે હિતઅહિતના વિવેકમાં કુશળ હોવાના કારણથી વાયુકાયના આર ંભને અહિતકર સમજીને वायुना आरंभने त्याग श्वामां समर्थ होय छे. भूसभां आवे 'दुर्गुछणा - जुगुप्सा' शब्दना ऐटसाय अर्थ थाय छे. नेम :- संयमन, अणु - ( नहि ४२ ) वन, (त्यागवु) व्यावर्त्तन, ( उठवु) भने निवृत्ति (त्याग). આશય એ છે કે વાયુકાયના આરંભ કરવાથી મને શારીરિક અને માનસિક સર્વ દુઃખ પ્રાપ્ત થશે; એ માટે એ આરભ આતંકજનક હોવાના કારણે અહિતકર છે.' એ પ્રમાણે જાણવાવાળા એના સેવનરૂપ આરંભના ત્યાગમાં સમ હોય છે. જે અધ્યાત્મને અર્થાત્ પેાતાના આત્મામા સ્થિત સુખ-દુઃખને જાણે છે, તે ખાત Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ न. १ वायुकायविराधनाविवेकः ६७९ जानाति स बहिः परकीय स्ख दुःखं वा जानाति । ममात्मनि दुःखमसातवेदनीयकर्मोदयात स्मापत्ति, सुरुमपि सातवेदनीयकादियात् स्वानुभवसिद्धम् , एवं स्वात्मगतसु र दुःखप्रत्यक्षेण परकीयसुखदुःखानुमाने क्तुं शक्नोतीत्यर्थः । उक्तमर्थ दृढीकर्तु पुनस्तमेव परावर्तयन्नाह--' यः वहिर्जानाति '. इत्यादि । ___ यः, बहिः परात्मगतं सुखं दुःखे वा जानाति, स अध्यात्म-स्वात्मगतं सुख दुःखं वा जानाति । परेषां स्वस्य च सुखदुःखयोरनुकूलपतिकूलवेदनीयरूपे स्वरूपे साम्यादिति भावः । यद्वा-परविराधनापरिहारेण तत्फलभूतं स्वात्मनः सुख, तथा परपीडनेन तत्फलभूतं स्वात्मनो दुःख भवति, एवं परकीयमेव सुख दुःखं वा वह वाह्य अर्थात् दूसरे के सुख-दुःख को जानता है । मेरे आत्मा में असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख आया है और सातावेदनीय कर्म के उदय से सुख स्वानुभव सिद्ध है । इस प्रकार अपने आत्मा का सुख और दुःख जो प्रत्यक्ष से जानता है, वह दूसरों के सुख-दु:ख का अनुमान कर सकता है । इसी अभिप्राय को पुष्ट करने के लिए यही बात पलटकर कहते हैं-जो बाम को जानता है वह अध्यात्म को जानता है । अर्थात्-जो पराये सुख-दुःख को जानता है वह अपने आत्मा के सुख दुःख को जानता है । पराये और अपने सुख-दुःख का अनुकूल वेदन और प्रतिकूल वेदन रूप स्वरूप समान है। अथवा-परको पीडा पहुंचाने का त्याग करने से सुखरूप फल प्राप्त होता है और पीडा पहुंचाने से दुःख मिलता है । इस प्रकार पराया सुख और दुःख અર્થાતુ બીજાના સુખ-દુઃખને જાણે છે. મારા આત્માને વિષે અસાતવેદનીય કર્મના ઉદયથી દુઃખ આવ્યું છે, અને સાતવેદીય કર્મના ઉદયથી સુખ સ્વાનુભવસિદ્ધ છે. આ પ્રમાણે પિતાનાં આત્માનાં સુખ-દુઃખનું અનુમાન કરી શકે છે. એ અભિપ્રાયને પુષ્ટ કરવા માટે એજ વાત પલટાવીને કહે છે જે બાહ્યને જાણે છે તે અધ્યાત્મને જાણે છે. ___ अर्थात्-२ ५२या सुम-:मने गये , ते पोताना यात्माना सुम-दुःभने જાણે છે. પરાયા-બીજાના અને પિતાના સુખ-દુઃખનું અનુકૂલ વેદના અને પ્રતિકૂલ વેદનરૂપ સ્વરૂપ સમાન છે. અથવા–બીજાને પીડા પહોંચાડવાના ત્યાગ કરવાથી સુખરૂપ ફલ પ્રાપ્ત થાય છે. અને પીડા પહોંચાડવાથી દુખ મળે છે. Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० आचारागसत्रे स्वात्मनः सुखरूपेण दुःखरूपेण वा परिणम्यते । एवं तयोः कार्यकारणभावं यो विजानाति, स एव स्वात्मगतसुखदुःखविज्ञातेति भावः। परकीयसुखदुःखविज्ञाता स्वात्मनः सुखं दुःखं वा जानातीत्युक्तार्थे हेतुं प्रदर्शयन्नाह- 'एयं तुल्लमन्ने सि ' इति । एतत्-सुखं दुःखं वा, तुल्यं सदृशमेव, अन्येषाम्=परेषां जीवानां स्वस्व चेत्यर्थः।। " कटेण कंटणए च, पाए विद्वस्स वेयणट्टम्स । जा होइ अणिव्याणी, णायव्या सव्वजीवाणं ॥ जह सम ण पियं दुक्वं, जाणिय एमेव जीवाणं "॥ छाया-- काष्ठेन कण्टकेन वा पादे विद्धस्य वेदनात्तस्य । या भवति अनिर्वाणि-तिच्या सर्वजीवानाम् । यथा मम न प्रियं दुःखं ज्ञात्वा एवमेव सर्वजीवानाम् ।” इति । ही अपने सुख-दुःख के रूप में परिणत हो जाता है । इस प्रकार जो उनके कार्यकारण भाव को जानता है वही अपने आत्मा के सुख-दुःख का ज्ञाता होता है । दूसरों के सुख-दुःख का ज्ञाता ही अपने सुख-दुःख को जानता है, इस क्थन में हेतु दिखलाते हुए कहते हैं:-'यह सुख और दुःख दूसरों के और अपने समान ही है। कहा भी है: लकडी से या कंटक से पैर में विध जाने की वेदना से पीडित पुरुष को जो असतोष होता है, वही सब जीवों को होता है । जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार अन्य अन्य प्राणियों को भी दुःख प्रिय આ પ્રમાણે બીજાના સુખ અને દુઃખજ પિતાના સુખ-દુખના રૂપમાં પરિણત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે જે તેના કાર્યકારણ ભાવને જાણે છે, તે જ પોતાના આત્માનાં સુખ-દુઃખના જ્ઞાતા હોય છે બીજાના સુખ-દુઃખનાં જ્ઞાતા જ પિતાના સુખ–દુઃખને જાણે છે. આ કથનમાં હેતુ બતાવતા થકા કહે છે કે – " २॥ सुप. मन हुम भीतन मने मापgi समान छ.” ४थु छ : “લાકડીથી અથવા કાંટાથી પગમાં વિધાઈ જવાની વેદનાથી પીડિત પુરુષને २ मत ना थाय छ, तवा सर्व वान. (वहना) थाय छे." “भ भने दुः५ प्रिय नथी, ते प्रमाणे मी माने ५ म प्रिय नथी." Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सू. १ वायुकायविराधनाविवेकः ६८१ अन्यत्र च-" मर्तव्यमिति यद्दखं, पुरुषस्योपजायते । शक्यस्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरिक्षतुम् " ॥१॥ इति । ___ स्वपर-सुखदुःखयास्तुल्यत्ववेदिनो न वायुकायं विराधयन्तीत्याह'इह शान्तिगताः' इत्यादि। इह-जिनप्रवचने, शान्तिगताः स्वपरसुखदुःखयोः समत्वविज्ञानाद् औपशमिकभावं प्राप्ताः सम्यक्त्विन इत्यर्थः यद्वा-शान्तिः सावधव्यापारपरिहारः, तामुपगताः द्रविकाः रागद्वेषरहिताः, यद्वा-द्रवः= संयमः कर्मद्रवणकारित्वात् , स विद्यते येषां ते द्रविकाः= कर्मनिवारणशीला: संयमिनः जीवितम् व्यजनादिना वायुकायस्य समारम्भेण प्राणान् परिरक्षितुं नावकाङ्क्षन्ति नेच्छन्ति । दूसरी जगह कहा है__ तेरा मरना ही अच्छा है, ऐसा वाक्य सुनने मात्र से पुरुष को जो दुःख होता है, इसी में अंदाज लगाकर दूसरों की रक्षा करनी चाहिए " ।१। जो पुरुष स्व-पर सुख-दुःख को समान समझते हैं वे वायुकाय की विराधना नहीं करते, यही बात कहते हैं: जिनशासन में अपने और पराये सुख-दुःख को समान समझकर जो उपशम भावको प्राप्त हुए हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि है, अथवा पापमय व्यापारों के त्यागी है, तथा राग-द्वेष से रहित हैं, अथवा कर्मों को निवारण करनेवाले संयम से विभूषित हैं, वे पंखा आदि से वायुकाय का समारम्भ करके अपने प्राणों की रक्षा करने की इच्छा नहीं करते। બીજી જગ્યાએ પણ કહ્યું છે કે – તારે મરવું જ સારું છે.” એ પ્રમાણે સાંભળવાથી પુરુષને જે દુઃખ થાય छ. ते मनुमानथी मीनी रक्षा ४२वी नये. ॥१॥ २५३५ २१-५२ना (पोतानां मने ॥२४ाना) सुम-दुःपने समान समो छ, તે વાયુકાયની વિરાધના કરતા નથી. તે વાત કહે છે જિન શાસનમાં પિતાનાં અને બીજાનાં સુખ-દુઃખને સમાન સમજીને જે ઉપશમ ભાવને પ્રાપ્ત થયા છે, અર્થાત્ સમ્યગ્દષ્ટિ છે, અથવા પાપમય વ્યાપારના ત્યાગી છે. તથા રાગ દ્વેષથી રહિત છે, અથવા કર્મોનું નિવારણ કરવાવાળા સંયમથી વિભૂષિત છે તે પંખા આદિથી વાયુકાયનો સમારંભ કરીને પિતાના પ્રાણની રક્ષા કરવાની ઈચ્છા કરતા નથી. प्र. आ-८६ Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गमुत्रे जिनप्रवचनोक्तचरणकरणसेविनः स्वप्राणरक्षणार्थमपि परजीवोपमर्दनं नेच्छन्ति, ते हि अचाक्षुषवायुजीवविराधनाविनिवृत्ताः कथमन्यचाक्षुपपृथिव्यादिजीवोपमर्दने प्रवर्तेत, न कथमपीति भावः । ६८२ अथ वायुकायस्य सम्यग्ज्ञानार्थं लक्षणाद्यष्ट द्वाराणि निरूपणीयानि । तत्र लक्षणप्ररूपणापरिमाणशस्त्रोपभोगद्वाराणि यथाक्रमं निरूप्यन्ते । अवशिष्ट वधवेदनानिवृत्ति द्वाराणि पृथिवीकायोद्देशे यथा कथितानि तथैवावगन्तव्यानि । जिनागम में कथित चरण- करण का सेवन करने वाले अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए भी दूसरे जींव की हिंसा करने की अभिलाषा नहीं करते । वे चक्षु से न दिखाई देने वाले वायुकाय के जीवों की विराधना से भी निवृत होते हैं तो चक्षुगोचर अन्य पृथ्वीकाय आदि के जीवों की विराधना में कैसे प्रवृत्त हो सकते है - किसी प्रकार भी नहीं । वायुकाय का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए लक्षण आदि आठ द्वारों का निरूपण करना चाहिए | उनमें से लक्षण, प्ररूपणा, परिमाण, शस्त्र और उपभोग द्वारों का क्रम से निरूपण करते हैं । शेष वध, वेदना और निवृत्ति द्वार जैसे वैसे ही यहाँ समझ लेने चाहिए । पृथ्वीकाय के उद्देश में कहे हैं જિનાગમમાં કહેલા ચરણ-કરણનું સેવન કરવાવાળા પેાતાના પ્રાણાની રક્ષા કરવા માટે પણ બીજા જીવેાની હિંસા કરવાની અભિલાષા કરતા નથી. તે નેત્રથી નહિ દેખાતા વાયુકાયના જીવેાની વિરાધનાથી પણ નિવ્રુત્ત હાય છે, તે પછી નેત્રથી જોઈ શકાય તેવા ખીજા પૃથ્વીકાય આદિના વેાની વિરાધનામાં કેવી રીતે પ્રવૃત્ત થઈ શકે છે? કાઈ પ્રકારે પણ થઈ શકતા નથી. વાયુકાયનું સભ્યજ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવા માટે લક્ષણ આદિ આઠ દ્વારાનું નિરૂપણ કરવું જોઈએ. તેમાંથી લક્ષણ, પ્રરૂપણા, પરિમાણ, શસ્ત્ર અને ઉપભેાગ દ્વારાનું ક્રમથી નિરૂપણ કરે છે, શેષ-(બાકી) વધ, વેદના અને નિવૃત્તિ દ્વાર જેવી રીતે પૃથ્વીકાયના ઉદ્દેશમાં કહ્યા છે, તેવીજ રીતે અહિં સમજી લેવું જોઈએ. 1 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १उ. ७सू. १ वायुकायलक्षणम् ६८३ लक्षणद्वारम्ननु कथमिदं ज्ञायते वायुः सचित्त इति ?, अत्रोच्यते-गृह्यतां तावदनुमानं प्रमाणम् , वायुश्चेतनावान् अनन्य प्रेरिताऽनियततिर्यग्गमनवत्त्वात् , हरिणगवयादिवदिति । अनियतविशेषणोपादानात् परमाणौ अपरप्रेरिततिर्यग्गतिसत्त्वेऽपि नानैकान्तिकत्वम् , तस्य हि परप्रयोगनिरपेक्षस्य स्वाभाविको गतिरनुश्रेणिर्भवति तस्मात् सा नियतैव । आगमोऽपि प्रमाणं, यथादशवैकालिकसूत्रे-“वाउ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं " । इति, वायुश्चित्तवानाख्यातोऽनेकजीवः पृथक्सत्त्वः अन्यत्र शस्त्रपरिणतात् । इति च्छाया, लक्षणद्वारशंका-वायु सचित्त है, यह बात किस प्रकार जानी जाय ? समाधान—पहले अनुमान प्रमाण ही लीजिए:-वायु चेतनायुक्त है, क्यों कि वह दूसरों की प्रेरणा विना अनियत रूप से तिरछी गति करती है, जैसे हिरन, रोझ आदि । हेतु में 'अनियत' विशेषण लगा देने से प्रेरणा का अभाव और तिरछी गति होने पर भी परमाणु व्यभिचार नहीं होता । परमाणु दूसरे की प्रेरणा के विना जो गति करता है वह गति श्रेणी के अनुसार नियत ही होती है-अनियत नहीं । इस विषय में आगम भी प्रमाण है। दशवैकालिक सूत्र में कहा है___"वायु सचित्त कही गई है । वह अनेक जीवोंवाली है, और उन जीवों का अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । सिर्फ शस्त्रपरिणत वायु सचित्त नहीं है"। लक्षद्वारશં –વાયુ સચિત્ત છે એ વાત કેવી રીતે જાણી શકાય? સમાધાન–પ્રથમ અનુમાન પ્રમાણ લઈએ-વાયુ ચેતનાયુક્ત છે, કેમકે તે બીજાની પ્રેરણા વિના અનિયતરૂપથી તિરછી ગતિ કરે છે, જેમ-હરણ, રેઝ આદિ. હતમાં “અનિયતઃ વિશેષણ લગાવી દેવાથી પરપ્રેરણાને અભાવ અને તિરછી ગતિ હોવા છતાંય પણ પરમાણુથી વ્યભિચાર થતું નથી, પરમાણુ બીજાની પ્રેરણા વિના જે ગતિ કરે છે, તે ગતિ –અનુસાર નિયતજ હોય છે, અનિયત નહિં. આ વિષયમાં આગમ પણ પ્રમાણ છે. દશવૈકાલિક સૂત્રમાં કહ્યું છે વાયુ સચિત્ત કહેવામાં આવ્યું છે. તે અનેક જીવવાળો છે અને તે જીવનું અસ્તિત્વ પૃથ–પૃથફ (જુ-જુદું) છે, માત્ર શસ્ત્રપરિણત વાયુ સચિત્ત નથી.” Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ आंचारागसूत्रे प्ररूपणाद्वारम्वायुकाया द्विविधाः-सूक्ष्मा बादराश्चेति । तत्र सूक्ष्माः सकललोकव्यापिन:, बादरास्तु लोकैकदेशे सन्ति । वादराः पञ्चविधाः-उत्कलिकावातः, मण्डलिकोवातः, गुञ्जावातः, धनवातः, शुद्धावतश्चेति । ये तु ते पौरस्त्यादिभेदा लोकवादिप्रकरणे पागभिहितास्तेऽप्यत्रैवान्तर्भूताः । यः स्थित्वा स्थित्ना उत्कलिकाभिर्वाति स उत्कलिकावातः, वातोलीरूपो मण्डलिकावातः, यो गुञ्जन् वाति स गुञ्जावातः, पृथिव्यादीनामाधारतया व्यवस्थितो हिमपटलकल्पोऽतिघनीभूतो घनवातः, मन्दस्तिमितः शीतकालादिषु शुद्धवातः । ____ संक्षेपेण वायुकायात्रिविधाः-सचिता अचित्ता मिश्राश्च । उत्कलिकावातादयः प्ररूपणाद्वारवायुकाय दो प्रकार का है-सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म जीव समस्त लोक में रहते हैं । बादर पाच प्रकार के है-(१) उत्कलिकावात (२) मण्डलिफावात (३) गुञ्जावात (४) घनवात और (५) शुदवात । पौरस्त्य आदि जो भेद लोकवादी के प्रकरण में पहले बतलाये हैं वे सब भी इन्हों मेदों में अन्तर्गत हो जाते हैं । ठहर-ठहर कर उत्कलिकारूप से वहनेवाली वायु उत्कलिकावात है। वातोलीरूप वायु को मण्डलिकावात कहते हैं। गूंज-गूज कर बहने वाली वायु को गुजावात कहते है । पृथ्वी आदि के आधार पर स्थित हिमपलट के समान अत्यन्त सघन वायु को घनवात कहते है । शोत काल आदि में घीमे-- धीमे चलने वाली वायु शुद्धवात है । ___ संक्षेप से वायुकाय के तीन भेद है-(१) सचित्त (२) अचित और પ્રરૂપણદ્વાર– વાયુકાય બે પ્રકારના છે. (૧) સૂક્ષમ અને (૨) બાદર, સૂક્ષ્મ જીવ સમસ્ત લાકમાં व्यात छ. मन माह२, सोना मे४-देशमा २ छे. मार पाय अठारना छ. (१) लि. आवात, (२) मंसिवात, (3) गुजपात, (४) धनपात भने (५) शुद्धपात. પીરસ્ય આદિ જે ભેદ કવાદીના પ્રકરણમાં પહેલાં બતાવ્યાં છે, તે સર્વે આ ભેદેમા અન્તર્ગત થઈ જાય છે. જરા–રહી-રહીને ઉત્કલિકાપમાં વહેવાવાળે વાયુ તે ઉત્કલિકાવાત છે. વાતેલીરૂપ વાયુને મંડલિકાવાત કહે છે. ગૂંજી-ગૂંજી ને વહેવાવાળી હવાને ગુંજવાત કહે છે. પૃથ્વી આદિના આધાર પર સ્થિતિ હિમપટલ સમાન અત્યન્ત સઘન વાયુને ઘનવાત કહે છે. શીતકાલ આદિમાં ધીમે-ધીમે વહેતે વાયુ તે શુદ્ધવાયુ છે. सपथी वायुयना से छे. (१) सचित्त (२) मस्थित मन (3) मिश्र, Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ६ मू. १ वायुकायपरिमाणम् ६८५ सचित्ताः, उद्गारोच्छ्वासादयोऽचित्ताः सचित्ताचित्तयोः संमिश्रणेन मिश्राः। परिमाणद्वारम्ये बादरपर्याप्तका · वायुकायास्ते संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिपरिमाणाः, शेषास्त्रयोऽपि राशयः पृथगसंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणा भवन्ति, विशेषश्चायमत्रावगन्तव्यः-बादराप्कायपर्याप्तकेभ्यो वादरवायुपर्याप्तका असंख्येयगुणाः, बादराकायाऽपर्याप्तकेभ्यो बादरवायुकायाsपर्याप्तका असंख्येयगुणाः । सूक्ष्मापूकायाऽपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुकायाऽपर्याप्तका विशेषाधिकाः, सूक्ष्माप्कायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्मवायुकायपर्याप्तका विशेषाधिकाः । सू०१॥ (३) मिश्र । उत्कालिकावात आदि सचित है, उद्गार और उच्छास आदि अचित्त है, और मिली हुई-सचित्त-अचित्त वायु मिश्र है । परिमाणद्वारबादरपर्याप्तवायुकाय के जीव संवर्तित लोकप्रतर के असंख्यातवें भागवर्ती प्रदेशों के बराबर है। शेष तीनों प्रत्येक राशिया असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। यहाँ इतनी विशेषता समझनी चाहिए-बादर अप्काय के पर्याप्त जीवों की अपेक्षा वायुकाय के बादर पर्याप्त असंख्यात गुणा है । अप्काय के अपर्याप्त बादर जीवो से वायुकाय के अपर्याप्त बादर असंख्यात गुणा हैं । अप्काय के सूक्ष्म अपर्याप्त जीवो से सूक्ष्म वायुकाय के अपर्याप्त विशेष अधिक है । अप्काय के सूक्ष्म पर्याप्त जीवों से सूक्ष्म वायुकाय के पर्याप्त विशेषाधिक है । सू० १॥ ઉત્કાલિકાવાત આદિ સચિત્ત છે. ઉદગાર અને ઉ@સ આદિ અચિત્ત છે. અને સચિત્ત તથા અચિત્ત એ બંને એક સાથે મળેલા હોય તે વાયુ મિશ્ર છે. परिमाणाબાદરપર્યાપ્તવાયુકાયના જીવ સંવતિત લોક પ્રતરના અસંખ્યાતમા ભાગવતી પ્રદેશના બરાબર છે. બાકી ત્રણ પ્રત્યેક રાશીઓ અસંખ્યાત લોકાકાશના પ્રદેશની બરાબર છે. અહિં એટલી વિશેષતા સમજવી જોઈએ–બાદર અપૂકાયના પર્યાપ્ત જીની અપેક્ષા વાયુકાયના બાદર પર્યાપ્ત અસંખ્યાત ગણે છે. અપૂકાયના અપર્યાપ્ત બાદર જીવથી વાયુકાયના અપર્યાપ્ત બાદર અસંખ્યાત ગણા છે. અપકાયના સૂક્ષ્મ અપર્યાપ્ત જીવથી સૂક્ષ્મ વાયુકાયના અપર્યાપ્ત વિશેષ અધિક છે. અપૂકાયના સૂક્ષ્મપર્યાપ્ત જીથી, સૂમ વાયુકાયના પર્યાપ્ત વિશેષાધિક છે. સૂ૦ ૧ / Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ आचाराङ्गसूत्रे अथ सर्वथा वायुकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनगारान् , तथा वायुकायसमारम्भमत्तान् द्रव्यलिङ्गिनश्च विविच्य प्रतिबोधयितुमाह-'लज्जमाणा.' इत्यादि। अथ शस्त्रद्वारम् मूलम्लज्जमाणा पुढो पास । अणगारा मो-त्ति एगे पवयमाणा जमिणं विख्वरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं, वाउसत्थं समारंभमाणा अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसंति ॥ सू० २ ॥ छायालज्जमानाः पृथक् पश्य । अनगाराः स्म इति एके प्रवदमानाः, यदि विरूपरूपैः शस्त्रैः वायुकायसमारम्भेण, वायुकायशस्त्रं समारभमाणा अन्यान् अनेकरूपान् प्राणान् विहिंसन्ति ॥ सू० २॥ वायुकाय के समारंभ का सर्वथा त्याग करने वाले मुनियों को और वायुकाय के समारम्भ में प्रवृत्ति करने वाले द्रव्यलिंगियो को अलग-अलग बतलाने के लिए कहते हैं'लज्जमाणा.' इत्यादि । शस्त्रद्वारमूलार्थ-वायुकाय का समारम्भ करने में संकोच करने वाले अनगारों को अलग देखो, और कोई-कोई 'हम अनगार है' ऐसा कहते हुए नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुझाय का समारम्भ करके, वायुकाय का समारम्भ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते है उनको अलग देखो ।। सू० २ ॥ વાયુકાયના સમારંભને સર્વથા ત્યાગ કરવાવાળા મુનિઓને અને વાયુકાયના સમારંભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા દ્રવ્યલિંગિઓને જુદા-જુદા બતાવવા માટે કહે છે – 'लज्जमाणा.' त्यादि. शाમૂલાથ–વાયુકાયના સમારંભમાં સંકેચ કરવાવાળા અણગારેને જૂદા જાણે, અને કઈ-કઈ “અમે અણગાર છીએ' એવું કહેનારા અને નાના પ્રકારના શસ્ત્રથી વાયુકાય સમારંભ કરીને, વાયુકાય સમારંભ કરતા થકા બીજા અનેક પ્રકારના प्राणिमानी डिसा ४२ छ. तेने ५४ हा-ह! on. ॥ सू०२ ।। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ७ सू. २ वायुकायाहिंसक हिंसकौ टीका ६८७ वायुकायसमारम्भे पराङ्मुखाः, केचन प्रत्यक्ष लज्जमानाः=परमकरुणयाऽऽर्द्रचित्तया वायुकायसमारम्भपरित्यागिनोऽनागाराः, पृथकू = विभिन्नाः, ज्ञानिनोऽवधिमनःपर्ययकेवलिनः केचित् परोक्षज्ञानिनो भावितात्मानः सन्तीति पश्य । यद्वा-पृथकू=द्रव्यलिङ्गिभ्यः पृथग्भावेन सन्तीति पश्य । इमे वायुकायसमारम्भकरणे भीतास्रस्ता उद्विग्ना त्रिकरण त्रियोगैर्वायुकायसमारम्भपरित्यागिनो विद्यन्ते इति विलोकयेत्यर्थः । एके पुनरन्येतु 'वयम नगाराः स्मः ' इति साभिमानं प्रवदमानाः 'वयमेव वायुकायरक्षणपरा: महाव्रतधारिण:' इति प्रलपन्ता द्रव्यलिङ्गिनः सन्ति, तान् पृथक् पश्य । टीकार्थ — परम करुणा से आई - चित्त होने के कारण वायुकाय के समारम्भ से विमुख, वायुकाय के समारम्भ का सर्वथा त्याग करने वाले अनगार भिन्न है - कोई अवधिज्ञानी कोई मन:पर्ययज्ञानी और कोई केवलज्ञानी हैं, और कोई मतिश्रुतज्ञान के धारक भावितात्मा साधु हैं, उन्हे देखो । अथवा उन्हें द्रव्यलिंगियों से भिन्न वायुकाय का समारम्भ करने में भीत हैं, त्रस्त हैं, उद्विग्न है तथा तीन वायुकाय का समारम्भ करने के त्यागी है । समझो | ये अनगार करण तीन योग से और कोई-कोई 'हम अनगार हैं' इस प्रकार अभिमानपूर्वक कहते हुए, 'हम ही वायुकाय की रक्षा करने वाले पंचमहाव्रतधारी हैं' ऐसा प्रलाप करने वाले द्रव्यलिंगी हैं, उन्हें अनगारों से अलग समझो । टीडार्थ—પરમ કરુણાથી આદ્ર-ચિત્ત હાવાના કારણે વાયુકાયના સમારંભથી વિમુખ, વાયુકાયના સમારંભના સથા ત્યાગ કરવાવાળા અણુગાર જૂદા છે—કોઈ અવધિજ્ઞાની, કાઈ મનઃપયજ્ઞાની અને કાઈ કેવલજ્ઞાની છે, અને ડૅાઈ પતિશ્રુત જ્ઞાનના ધારક ભાવિતાત્મા સાધુ છે, તેને જુએ. અથવા તેને દ્રવ્યલિંગિએથી જૂદા लोो, ते अणुगार वायुभयना समारंभ वामां लीत (जीवा वाजा ) छे, त्रस्त छे, ઉદ્વિગ્ન છે. તથા ત્રણ કરણ ત્રણ ચેગથી વાયુકાયના સમારંભ કરવાના ત્યાગી છે. અને કોઈ-કોઈ ૮ અમે અણુગાર છીએ' આ પ્રમાણે અભિમાનપૂર્વક કહે છે, કે 'અમેજ વાયુકાયની રક્ષા કરવાવાળા પંચમહાવ્રતધારી છીએ. ’ એવા અકવાદ કરનારા દ્રવ્યલિંગી છે. તેને અણુગારેથી જૂદા જાણે. Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ आचारागसूत्रे इमे खल्वनगाराभिमानिनो द्रव्यलिङ्गिनो मनागप्यनगारगुणेषु न प्रवर्तन्ते, नापि गृहस्थकृत्यं किञ्चित् परित्यजन्तीति दर्शयति-'यदिमम्.' इत्यादि । यद् यस्माद्, विरूपरूपैः विभिन्नस्वरूपैः, शस्त्रः. शस्त्रं हि द्रव्यभावभेदाद् द्विविधम् , तत्र द्रव्यशस्त्र-रवकायपरकायोभयकायभेदार त्रिविधम् । तत्र स्वकायशस्त्रं-शीतवायोरुग्णवायुः, उप्णवायोश्च शीतवायुः पूर्वदिगादिवायोः पश्चिमदिगादिवायुः स्वकायशस्त्रम् । व्यजन-तालसन्त-शूर्प-चामर-पत्र-वेलकर्णाभिधारणादयः, धर्मातों यद् वहिरवतिष्ठते वातागमनमार्ग साऽभिधारणा, तथा-चन्दनोशीरादीनां गन्धाः, अग्निालापतापश्च, तथा मुशलादिना अनगार होने का अभिमान करने वाले ये द्रव्यलिंगी अनगार के गुणो में तनिक भी प्रवृत्ति नहीं करते और गृहस्थों के किसी कृत्य का त्याग नहीं करते हैं । यह आगे कहते हैं: द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र के भेद से शस्त्र दो प्रकार का है । द्रव्यशस्त्र के तीन भेद हैं-(१) स्वकाय (२) परकाय और (३) उभयकायशस्त्र । उग्णवायु, शीतवायु का और शीतवायु, उष्णवायु का, तथा पूर्वादिदिशाओंका वायु, पश्चिमादिदिशाओं के वायु का स्वकायशस्त्र है, पंखा, तालवृन्त, सूप, चामर, पत्र, कपडा और अभिधारणा आदि, धूप से पीडित पुरुष हवा आने के रास्ते में ठहरता है उसको अभिधारणा कहते हैं। तथा-चन्दन, खसखस आदि की गंध, आगकी ज्वाला, ताप आदि परकायशस्त्र है। અણગાર હોવાનું અભિમાન કરવાવાળાઓ દ્રવ્યલિંગી (સાચા) અણગારના ગુણમાં જરા પણ પ્રવૃત્તિ કરતા નથી, અને ગૃહસ્થના કેઈ પણ કાર્યને ત્યાગ કરતા નથી તે આગળ કહે છે. દ્રવ્યશાસ્ત્ર અને ભાવશસ્ત્રના ભેદથી શસ્ત્ર બે પ્રકારના છે, દ્રવ્યશાસ્ત્રના ત્રણ ભેદ छ (१) २१४ाय, (२) ५२४।य, (3) GAयाय-शस्त्र, Goyायु, शीतवायुनो भने શીતવાયુ, ઉષ્ણવાયુને તથા પૂર્વાદિ દિશાઓના વાયુને પશ્ચિમ આદિ દિશાઓને વાયુ સ્વકાયશસ્ત્ર છે. વાંસને બનાવેલો તથા તાલપત્રને બનાવેલો પંખે, સૂપડા, ચામર, પત્ર, વસ્ત્રખંડ અને અભિધારણ આદિ, તાપથી પીડિત પુરુષ હવા આવવાના રસ્તામાં થોભી જાય છે, તેને અભિધારણા કહે છે. તથા-ચન્દન, ખસખસ, આદિની ગંધ, અગ્નિ, અગ્નિની વાલા, તાપ આદિ તથા Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ.७ सू. १ वायुकायशस्त्राणि. ६८९ कण्डनं, तुषाद्यपसारणार्थ शूस्फिालनं, वस्त्रादिगतरजःप्रभृतिवारणाय वस्त्रादीनामाच्छोटनमास्फोटनं प्रस्फोटनं च, तथा शीघ्रगमनं वायुकायस्य विराधकं परकायशस्त्रम् । उभयकायशस्त्रम्-अनावृतमुखेन भाषणम् , एतत्सर्व द्रव्यशस्त्रम् । भावशस्त्रं तु मनोवाकायानां दुष्प्रणिधानम् । एवंविधैः शस्त्रैः, वायुकायसमारम्भेण-वायुकायोपमर्दकसावधव्यापारण, इमं वायुकायं विहिसन्ति । वायुकाहिसायां प्रवृत्ताः खलु षड्जीवनिकायरूपं लोकं सर्वमेव विहिंसन्तीत्याह-वायुकायशस्त्रम्.' इत्यादि । वायुकायशस्त्रं वायुकायोपमर्दक द्रव्यभावशस्त्रं पूर्वोक्तप्रकारं, समारभमाणा: वायुकायं प्रति प्रयुञानाः अन्यान् वायु. कायभिन्नान् अनेकरूपान् पृथिवीकायादीन् स्थावरान् द्वीन्द्रियादीन्त्रसांश्च प्राणान्= प्राणिनः, विहिंसन्ति । मूसल से कूटना, छिलके हटाने के लिए सूप से फटकना, धूल-रेत आदि झाडने के लिए वस्त्र आदि को फटकारना-झटकना तथा जल्दी चलना भी वायुकाय का विराधक परकाय शस्त्र है खुले मुख से बोलना उभयकायशस्त्र । मन, वचन, और कायका अप्रशस्त व्यापार भावशस्त्र है । इन नाना प्रकार के शस्त्रों से द्रव्यलिंगी वायुकाय की हिंसा करने वाले सावध व्यापार करके वायुकाय की हिंसा करते हैं । ___ जो वायुकाय की हिंसा में प्रवृत्त होता है वह षट्कायरूप समस्त लोक की हिंसा करता है, यह कहते है-वायुकाय की विराधना करने वाले पूर्वोक्त द्रव्य और भावशस्त्रों का वायुकाय के प्रति प्रयोग करने वाले वायुकाय से भिन्न अनेक प्रकार के पृथ्वीकाय आदि स्थावरों की तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रसजीवों की भी हिंसा करता हैं। મૂસળથી કૂટવું, છાલ કાઢવા માટે, સૂપડાથી ઝાટકવું, ધૂળ-રેતી વગેરેને ખંખેરવા માટે વસ્ત્ર વગેરેને ઝાટકવું–પછાડવું, તથા જલદી–જલદી ચાલવું તે પણ વાયુકાયનું વિરાધક પરકાય શસ્ત્ર છે. ઉઘાડા-ખૂલ્લા મેઢે બોલવું તે ઉભયકાયશસ્ત્ર છે. આ સર્વ વાયુકાયનાં દ્રવ્યશાસ્ત્ર છે, મન, વચન અને કાયાનો અપ્રશસ્ત (વખાણવા લાયક નહિ તે) વ્યાપાર તે ભાવશસ્ત્ર છે. આ નાના પ્રકારના શોથી દ્રવ્યલિંગી વાયુકાયની હિંસા કરવાવાળાઓ સાવદ્ય વ્યાપાર કરીને વાયુકાયની હિંસા કરે છે. જે વાયુકાયની હિંસામાં પ્રવૃત્ત થાય છે તે કાયરૂપ સમસ્ત લેકની હિંસા કરે છે. એ કહે છે–વાયુકાયની વિરાધના કરવાવાળા પૂર્વોક્ત દ્રવ્ય અને ભાવશઅને વાયુકાયના પ્રતિ પ્રગ કરવાવાળા વાયુકાયથી ભિન્ન અનેક પ્રકારના પૃથ્વીકાય આદિ સ્થાવરની, તથા શ્રીન્દ્રિય આદિ ત્રસ જીવની પણ હિંસા કરે છે. प्र. मा-८७ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाराङ्गसुत्रे बहुविधद्रव्यलिङ्गो विद्यन्ते तत्र शाक्यादयो व्यजनादिशस्त्रैर्वायुकायसमारम्भं कुर्वन्ति, कारयन्ति, कुर्वतोऽनुमोदयन्ति तथा च संपातिमादीनां हिंसनेन षड्जीवनिकायविराधका भवन्ति । दण्डिनोपि - " वयं पञ्चमहाव्रतधारिणो जिना - ज्ञाराधका अनगाराः स्मः" इत्यादि प्रवदमानाः साध्वाभासाः सावद्यमुपदिशन्ति, शास्त्रप्रतिषिद्धमपि वायुकायसमारम्भं कुर्वन्ति, कारयन्ति च । ते हि अनावृतमुखेन वदन्ति गायन्ति च । तथा अग्रपूजादौ विविधवाद्यनृत्यादिकं कारयन्ति एतत्सर्वं मिथ्यादर्शनशल्याभिधं पापमाचरन्ति । ६९० उक्तञ्च - " गंधव्वनट्टवाइय - लवणजलारतिआइदीवाई । जं किच्चं तं सव्वं - पि ओ अरइ अग्गपुयाए " ॥ १ ॥ संसार में तरह-तरह के द्रव्यलिंगी हैं, उन में से शाक्य आदि पंखा वगैरह से वायुकाय का आरंभ करते हैं, कराते हैं और आरंभ करने वाले की अनुमोदना करते हैं, और संपातिम ( उडकर अचानक आजाने वाले ) आदि जीवों की हिंसा करके षट्रकाय के विराधक बनते हैं । झूठे साधु दण्डी भी 'हम पंचमहाव्रतधारी तथा जिन भगवान् की आज्ञा के आराधक अनगार हैं' इस प्रकार कहते हुए सावद्य का उपदेश देते हैं । शास्त्र में निषिद्ध वायुकाय का समारंभ करते हैं और कराते हैं । वे खुले मुख से बोलते और गाते हैं, तथा अग्रपूजा आदि में विविध प्रकार से वाद्य एवं नृत्य आदि कराते है । यह सब मिथ्यादर्शनशल्यनामक पाप है । वे इसका आचरण करते हैं । जैसे कहा है " સંસારમાં તરેહ-તરેહના દ્રવ્યલિંગી છે, તેમાંથી શાકય આદિ પંખા વગેરેથી વાયુકાયના આરંભ કરે છે, કરાવે છે, અને આરંભ કરવાવાળાને અનુમાન આપે છે, અને સંપાતિમ (ઉડીને અચાનક આવવાવાળા) આદિ જીવાની હિંસા કરીને ષટ્રકાયના વિરાધક બને છે. દ'ડી પણ અમે પંચમહાવ્રતધારી તથા જિન ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક અણુગાર છીએ. ” આ પ્રમાણે કહેતા થકા સાવદ્યના ઉપદેશ આપે છે. શાસ્ત્રમાં નિષિદ્ધે મનાએલા વાયુકાયના સમારભ કરે છે અને કરાવે છે. તે ખુલ્લા મુખથી–ઉઘાડા માઢમલે છે અને ગાય છે, તથા અગ્રપૂજા વગેરેમાં વિવિધ પ્રકારથી વાઘ અને નૃત્ય આદિ કરાવે છે. આ સવે મિથ્યાદ નશલ્ય નામનું પાપ છે. તે એનું આચરણ કરે છે. જેમ કહ્યું છે Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सू. २ वायुकायविराधना छाया-गन्धर्वनृत्यवादित्र-लवणजलारात्रिकादिदीपादयः। यत्किञ्चित्कृत्यं तत्सर्वमप्यवतरत्यग्रपूजायाम् ॥ १ ॥ इति । किञ्च-सप्तदशभेदिपूजाविधावपि गीतनृत्यवाद्यानि कर्त्तव्यतयोपदिशन्ति । किश्चैकविंशतिविधपूजायामपि नृत्यगीतवादित्रैश्चामरवीजनैश्च वायुकायसमारम्भ कारयन्ति । उक्तश्च-" स्नात्रं विलेपनविभूषणपुष्पवास धूपप्रदीपफलतन्दुलपत्रपूगैः। नैवेद्यवारिवसनैश्चमरातपत्र,वादित्रगीतनटनस्तुतिकोशद्धया ॥ १ ॥ इत्येकविंशतिविधा जिनराजपूजा" इत्यादि । "गाना, नाचना, बजाना, लवण-जल, आरती करना, दीपक जलाना आदि जितने कार्य हैं, वे सब अग्रपूजा में किये जाते है" ॥१॥ तथा वे द्रव्यलिंगी दण्डी 'सत्तरहप्रकार की पूजा में भी गीत, नृत्य और वाद्य आदि क्रियाएँ करनी चाहिए' ऐसा अपदेश देते हैं। तथा इक्कीसभेदी पूजा में भी नृत्य, गीत, वादिन तथा चामर और पंखा आदि के द्वारा वायुकाय का समारंभ कराते है । जैसा कहा है:-- “स्नान, विलेपन, आभूषण, पुष्प, वास, धूप, दीप, फल, चावल पत्र, सुपारी, नैवेद्य जल, वस्त्र, चामर, छत्र, वादित्र, गीत, नाट्य, स्तुति और कोंशवृद्धि, इस तरह इक्कीस प्रकार की जिन भगवान् की पूजा होती है " ॥१॥ ong, नाय, मqg, भी, rel, Pारती ४२वी, ही५४-ही। माण। माEि Reai छे, सर्व म लमा ४२पामा यावे छे.” ॥ १ ॥ તથા તે દ્રયલિંગી-દંડી “સત્તરપ્રકારની પૂજામાં પણ હમેશાં નૃત્ય અને વાદ્યવાત્ર આદિ કિયાએ કરવી જોઈએ.” એ ઉપદેશ આપે છે. તથા એકવીસભેદી પૂજામાં પણ નૃત્ય, ગીત, વાજીંત્ર તથા ચામર અને પંખા આદિ દ્વારા વાયુકાય સમારંભ કરાવે છે. જેમ કહ્યું પણ છે– - "स्नान, विवेपन, आभूषण, ५०५, पास, धूप, दीप, ५६, योगा, पत्र, सौपारी, नैवेद्य, જલ, વસ્ત્ર, ચામર, છત્ર, વાજીંત્ર, ગીત, નાટક, સ્તુતિ અને કેશવૃદ્ધિ (ધર્માદાના નામે નાણું–ધન–નીવૃદ્ધિ) આ પ્રમાણે એકવીસ પ્રકારની જિનભગવાનની પૂજા થાય છે.” Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसूत्र अलमधिकेन-एवमपि ते प्रलपन्ति-यदि जिनभक्त्युनेकेण साधुरपि नृत्येत्तदा नास्ति दोष इति ।। सू०२ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं पाह-'तत्थ खलु.' इत्यादि । मूलम्तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाइमरणमोयणाए दुक्खपडिधायहेउं से सयमेव वाउसत्थं समारंभइ, अण्णेहिं वा वाउसत्थं समारंभावेइ, अण्णे वाउसत्थं समारंमंते समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए ॥ सू० ३॥ छायातत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परि ज्यादा क्या कहें ! वे यहाँ तक भी बकते है कि-जिनराज की भक्ति में मस्त होकर अगर साधु भी नाचने लगे तो भी कोई दोष नहीं है अर्थात् वह आराधक है ।। सू० २ ॥ सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते है:-'तत्थ खलु.' इत्यादि । मूलार्थ-भगवान् ने वायुकाय के आरंभ के विषय में उपदेश दिया है। इसी जीवन के परिवन्दन, मानन, और पूजन के लिए, जन्म-मरण से छुटकारा पानेके लिए, दुःख का नाश करने के लिए लोग स्वयं वायुकायशस्त्र का आरंभ करता है, दूसरों से वायुकायशस्त्र का आरंभ कराता है और वायुकायशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों की अनुमोदना करता है । यह उसके अहित के लिए और उसकी अबोधि के लिए है ॥ सू० ३॥ વિશેષ શું કહીએ, તે એટલે સુધી પણ કહે છે કે-જિનરાજની ભક્તિમાં મસ્ત થઈને અગર સાધુ પર્ણનાચ કરવા લાગે તો પણ કઈ દેષ નથી અર્થાત્ તે આરાધક છે. રા. सुधास्वामी स्वाभान ४ छ:-" तत्थ खलु.' त्याहि. મૂલાથ–ભગવાને વાયુકાયના આરંભના વિષયમાં ઉપદેશ આપ્યો છે. આ જીવનના પરિવંદન, મનન અને પૂજા માટે, જન્મ, મરણથી છુટવા માટે, દુઃખને નાશ કરવા માટે. લેક સ્વયં-પતે વાયુકાયશસ્ત્રને આરંભ કરે છે, બીજા પાસે વાયુકાયશસ્ત્રને આરંભ કરાવે છે. અને વાયુકાયશઅને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે छ. तसना (पोताना ) मलित भाटे मन तभनी ममाधिन भाटे छे. ॥३॥ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. ७ सु. ३ वायुविराधनाप्रयोजनानि. ६९३ वन्दनमाननपूजनाय, जातिमरणमोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेव वायुशस्त्र समारभते, अन्यैर्वा वायुशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान् वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्याबोधये ॥ सू० ३ ॥ टीका- तत्र = वायुकायसमारम्भे, भगवता = श्रीमहावीरेण, परिज्ञा - ज्ञ - प्रत्याख्यानभेदाद् द्विविधा, खलु = निश्चयेन, म वेदिता = प्रतिबोधिता । कर्मरजः - परिहरणार्थं भव्यजीवन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतिबोधितमिति भावः । उपभोगद्वार -- लोकः कस्मै प्रयोजनाय वायुकायमुपमर्दयतीत्याह - ' अस्य "चैव जीवितस्य ' इत्यादि । अस्यैव = अल्पकालावस्थायिनः, जीवितस्य = जीवनस्य सुखार्थम् व्यजन- तालवृन्त - भस्त्र - ध्मात - फूटकारा - च्छ्वासादिभिश्व, शीतोष्णवायु टीकार्थ - वायुकाय के समारंभ के विषय में श्री महावीरने ज्ञपरिज्ञा तथा प्रत्याख्यानप्ररिज्ञा बतलाई है । तात्पर्य यह है कि - कर्मरूपी रजको हटाने के लिए भव्य जीव को परिज्ञा अवश्य स्वीकार करना चाहिए, ऐसा उपदेश भगवान् ने दिया है । उपभोगद्वार लोग किस प्रयोजन से वायुकाय की विराधना करते हैं ? यह बतलाते हैं- इस अल्पकालीन जीवन के सुख के लिए पंखा, ताडपंखा हिलाना, धौंकनी का धौंकना, फूंक मारना, श्वास लेना आदि क्रियाओं द्वारा, तथा शीत और उष्ण वायुका सेवन द्वारा वायुकाय की हिंसा करते हैं । ટીકા—વાયુકાયના સમાર’ભના વિષયમાં શ્રીમહાવીરે સપરિજ્ઞા તથા પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા બતાવી છે. તાત્પર્ય એ છે કે:-કમરૂપી રજને દૂર કરવા માટે ભવ્ય જીવેાએ પરિજ્ઞાન અવશ્ય સ્વીકાર કરી લેવા જોઇએ. આ પ્રમાણે ભગવાને ઉપદેશ આપ્યા છે. उपभोगद्वार— લાક કયા પ્રત્યેાજનથી વાયુકાયની વિરાધના કરે છે? એ બતાવે છે. આ અલ્પકાળના જીવનના સુખ માટે પંખા, તાડપ ંખા હલાવવા, ધમણુ ધમવી–ફૂંક મારવી, શ્વાસ લેવા, આદિ ક્રિયાએદ્વારા તથા શીત અને ઉષ્ણ (ઠંડા અને ગરમ) વાયુના સેવનદ્વારા Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ आचाराङ्गसूत्रे सेवनैश्च, तथा परिवन्दन-मानन-पूजनाय, परिवन्दनं प्रशंसा, तदर्थ-दृतिवाद्यवेणु· प्रभृतिवादनादौ, माननं जनसत्कारस्तदर्थ, व्यजनयन्त्रादिप्रचालनादौ, पूजन वस्त्ररत्नादिलाभस्तदर्थ वायुयान-वायुयन्त्रादिनिर्माणादौ, तथा जातिमरणमोचनार्थ देवप्रतिमाभिमुख नृत्यगीतवादिप्रयोगे, व्यजनचामरादिवीजने च, तथा दुःखप्रतिघातहेतु-व्याधिप्रतीकारार्थनवीनवैज्ञानिकोद्भावितवायुचिकित्सायां, तथा-तालवृन्तादिना वायुकायोद्भावने स-जीवनसुखाद्यर्थी, स्वयमेव वायुशस्त्रं वायुकायोपमर्दकं-शस्त्र समारभते व्यापारयति, अन्यैर्वा वायुकायशस्त्रं समारम्भयति-प्रयोजयति, अन्यान् वायुशस्त्रं समारभमाणान् समनु तथा परिवन्दन अर्थात् प्रशंगा पाने के लिए, मशकवाद्य और वॉसुरी बजाकर, मानन अर्थात् जनसत्कार के लिए व्यजनयंत्र (बीजली का पंखा) गानयंत्र (रेडियो, ग्रामोफोन आदि) वजाकर, पूजन अर्थात् वस्त्रों एवं रत्नो आदि के लाम के लिए वायुयान (एरोप्लेने) वायुयंत्र आदि के . बनाने में, तथा जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए, जैसे-जिनप्रतिमा के आगे नृत्य, गीत और वादित्र का प्रयोग करने में, चामर पंखा आदि डुलाने में तथा दुःख का नाश करने के लिए, जैसे-व्याधि मिटाने के लिए आधुनिक वैज्ञानिको द्वारा निकालो हुई वायुचिकित्सा में तथा ताडपंखा आदि द्वारा वायुकाय को उदोरणा करने में वायुकाय की हिंसा करते है । इस प्रकार इस जीवन के सुख के अर्थी स्वयं वायुकाय के धातक शस्त्रों का समारंभ करते है, दूसरों से कराते है और वायुकाय का समारंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन તથા પરિવન્દન, અર્થાત્ પ્રશંસા મેળવવા માટે મશકવાદ્ય અને વાંસળી વગેરે બજાવીને, વ્યજનયંત્ર તથા ગાનયંત્ર (વિજળીથી ચાલતા પંખા અને રેડીઓ તથા ગ્રામેફેન) વગેરે બજાવીને, પૂજન અર્થાત્ –વ એવં રત્ન આદિના લાભ માટે વાયુયાન (એરપ્લેન) અને વાયુમંત્ર આદિ બનાવવામાં તથા જન્મમરણથી છુટવા માટે. જેમકે–દેવપ્રતિમાની પાસે નૃત્ય-ગીત અને વાજીંત્રને પ્રગ કરવામાં, ચામર, પંખા આદિ હલાવવામાં, તથા દુઃખને નાશ કરવા માટે, જેમકે-વ્યાધિ મટાડવા માટે આજકાલના વૈજ્ઞાનિક દ્વારા શોધ કરાએલી વાયુચિકિત્સામાં, તથા તાડપત્રના પંખાદ્વારા વાયુકાયની ઉદીરણામાં વાયુકાયની હિંસા કરે છે. એ પ્રમાણે આ જીવનના "સુખના અર્થી પોતે વાયુકાયના ઘાતક શોને સમારંભ કરે છે, બીજાની પાસે કરાવે છે. અને વાયુકાય સમારંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન આપે છે. વાયુકાયને એ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ७ सू. ३ वायुकायोपभोगः ६९५ जानाति अनुमोदयति । तद्-वायुकायसमारम्भणं, तस्य वायुकायसमारम्भणंकुर्वतः कारयितुः अनुमोदयितुश्च अहिताय भवति । तथा-तत् तस्य अबोधयेसम्यक्त्वालाभाय भवति ।। सू० ३॥ येन तु तीर्थङ्करादिसमीपे वायुकायस्वरूपं परिज्ञातं स एवं विभावयतीत्याह'से तं. ' इत्यादि। मूलम्से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाय सोचा खलु भगवओ अणगाराणां वा अंतिए, इहमेगेसि णायं भवइ-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णरए । इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं, वाउसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसइ ॥ मू० ४ ॥ करते हैं । वायुकाय का यह आरंभ करने बाले, कराने वाले और उसकी अनुमोदना करने वाले को अहितकर होता है तथा अबोधिजनक होता है ॥ सू० ३ ॥ तीर्थंकर आदि के निकट जिसने वायुकाय का स्वरूप समझ लिया है, वह इस प्रकार विचार करता है:-‘से तं.' इत्यादि । मूलार्थ--भगवान् से या उनके अनगारों से सुनकर-समझकर जिसने संयम धारण किया है वह जानता है कि-यह वायुकाय का समारंभ ही ग्रंथ है, यही मोह है, यही मार है, यही नरक है । इसी में लोग गद्ध हो रहे है, क्यों कि नाना प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय के समारंभद्वारा वायुशस्त्र का आरंभ करते हुए अन्य अनेक प्रकार के प्राणियों की हिंसा करते हैं ॥ सू० ४ ॥ આરંભ, આરંભ કરવાવાળાને, કરાવનારને અને તેની અનુમોદના આપવાવાળાને मडित४२ थाय छ, तथा समाधिन थाय छे. ॥ सू० 3॥ તીર્થકર આદિના સમીપમાં જેણે વાયુકાયનું સ્વરૂપ સમજી લીધું છે, તે આ प्रमाणे विया२ ४२ छ:-'से तं.' त्याहि. મૂલાથ–ભગવાન પાસેથી અથવા તેમના અણગાર પાસેથી સાંભળી–સમજી ને જેણે સંયમ ધારણ કર્યું છે તે જાણે છે કે આ વાયુકાય સમારંભ જ ધંથ છે. એજ મેહ છે. એજ માર છે. એજ નરક છે, એમાં લકે ગૃદ્ધ થઈ રહ્યા છે, કેમકે નાના પ્રકારના શોથી વાયુકાયના સમારંભદ્વારા વાયુશાસ્ત્રને આરંભ કરતા થકા અન્ય અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે. સૂ૦ ૪. Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारागसत्रे छायास तत् संवुध्यमान आदानीयं समुत्थाय श्रुत्वा खलु भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेपां ज्ञातं भवति-एप खलु ग्रन्थः, एष खलु मोहः, एप खलु मारः, एष खलु नरकः, इत्यर्थ गृद्धो लोकः, यदिमं विरूपरूपैः शस्त्रैः वायुकर्मसमारम्भेण वायुशस्त्रं समारभमाणः अन्यान् अनेकरूपोन् प्राणान् विहिनस्ति ॥ सू० ४ ॥ ___टीकायः खलु भगवतः तीर्थङ्करस्य, अनगाराणां तदीयश्रमणनिर्ग्रन्थानां वा अन्तिके श्रुत्वा आदानीयम्-उपादेयं सर्वसावद्ययोगविरतिरूपं चारित्रं समुत्थाय= अङ्गीकृत्य, विहरति, स तत्वायुकाय समारम्भणं संवुध्यमानः अहिताबोधिजनकत्वेन विज्ञाता सन्नेवं विभावयति इह-मनुष्यलोके, एकेषां श्रमणनिग्रन्थोपदेशसंजातसम्यगवबोधवैराग्याणामात्मार्थिनामेव, ज्ञातं विदितं भवति । किं ज्ञातं भवतीत्याकाङ्क्षायामाह--'एष खलु ग्रन्थः' इत्यादि। ___ एपः वायुशस्त्रसमारम्भः खलु-निश्चयेन ग्रन्थः कर्मवन्धः, कारणे टीकार्थ- जिस पुरुषने तीर्थंकर भगवान् या उनके अनुयायी श्रमण निर्ग्रन्थों के मुखारविन्द से सुनकर सर्व सावद्य का त्यागरूप संयम अंगीकर किया है वह वायुकाय के समारंभ को अहितकर और अबोधिजनक समझता हुआ इस प्रकार विचारता है इस लोक में श्रमण निग्रंथों के उपदेश से सम्यग्ज्ञान और वैराग्य प्राप्त करने वाले आत्मार्थी जनों को ही यह विदित होता है कि वायुशस्त्र का यह समारंभ निश्चितरूप से कर्मबंध का कारण है। कारण में ટીકાથ–જે પુરુષે તીર્થકર ભગવાન અથવા તેમના અનુયાયી શ્રમણ-નિર્ચના સુખારવિન્દથી સાંભળીને સર્વ સાવદ્યના ત્યાગરૂપ સંયમ અંગીકાર કર્યો છે, તે વાયુકાયના સમારંભને અહિતકર અને અબાધિજનક સમજતા થકા આ પ્રમાણે વિચારે છે આ લોકમાં શ્રમણ નિગ્રન્થના ઉપદેશથી સમ્યજ્ઞાન અને વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરવાવાળા આત્માર્થી જીવને જ એ જાણવામાં છે કે – વાયુશસ્ત્ર અને સમારંભ નિશ્ચિતરૂપથી કર્મબંધનું કારણ છે. કારણમાં Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ७ सु. ४ वायुकायविराधनादोषः ६९७ कार्यों पचारात् । एवमग्रेऽपिबोध्यम् । तथा-एषः वायुशस्त्रसमारम्भः, मोहः विपर्यासः -अज्ञानम् । तथा एष एव मार-मरणं निगोदादिमरणरूपः । तथा एष एव नरकः नारकजीवानां दशविधयातनास्थानम् । इत्यथ एतदर्थं ग्रन्थमोहमरणनरकरूपं घोरदुःखफलं प्राप्यापि पुनः पुनरेतदर्थमेव, लोकः अज्ञानवशवी जीवः गृद्धा लिप्सुरस्ति । यद्वा गृद्धा भोगाभिलाषी, लोका-संसारी जीवः, इत्यर्थ-एतदर्थमेव अन्यमोहमरणनरकार्थमेव प्रवर्तत इति शेषः । लीकः पुनः पुनः कर्मबन्धाद्यर्थमेव प्रवर्तत इति यदुक्तं, तत् कथं ज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह-'यदिमम्.' इत्यादि । यद्यस्माद् विरूपरूपैः नानाविधैः शस्त्रैः पूर्वोक्तप्रकारैः वायुकर्मकार्य का उपचार करके कर्मबंध के कारण को मूल में कर्मबंध कहा है । आगे भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए । तथा यह वायुकाय का समारंभ अज्ञानरूप है, यह निगोद आदि में मृत्यु का कारण है, और नरक है अर्थात् नारकीय यातनाओं का स्थान है। ग्रंथ, मोह मरण और नरकरूप धोर दुःखमय फल पाकर भी अज्ञानी जीव बार-बार इसी की लालसा करते हैं । अथवा भोगों के अभिलाषी संसारी जीव इस ग्रंथ, मोह, मरण और नरकरूप फल के लिए ही प्रवृत्ति करते है । लोग कर्मबंध के लिए ही पुनः-पुनः प्रवृत्ति करते हैं, यह जो कहा है सो किस प्रकार जाना जाय ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते हैं:--'यदिमम्' इत्यादि । __ क्यों कि नाना प्रकार के, वायुकाय की विराधना करने वाले सावध व्यापार કાર્યને ઉપચાર કરીને કમબંધનાં કારણને મૂલમાં કર્મબંધ કહેલ છે. આગળ પણ આ પ્રકારે સમજી લેવું જોઈએ. તથા એ વાયુકાય સમારંભ અજ્ઞાનરૂપ છે. એ નિગદ આદિમાં મૃત્યુનું કારણ છે (અર્થાત નિગદમાં લઈ જવાવાળો છે) અને નરક છે. અર્થાત્ નારકીય યાતનાઓનું સ્થાન છે. ગ્રંથ, મેહ, મરણ અને નરકરૂપ ઘેર દુખમય ફલ પ્રાપ્ત કરીને પણ અજ્ઞાની જીવ વારંવાર એની લાલચ કરે છે, અથવા ભેગોના અભિલાષી સંસારી જીવ આ ગ્રંથ, મેહ, મરણ અને નરકપ ફલ માટેજ પ્રવૃત્તિ કરે છે. લેક’ કર્મબંધ માટેજ પુનઃ પુનઃ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એ પ્રમાણે જે કહ્યું છે તે 8वी शत नए सय १ मेवी ज्ञासा थdi ४ छ-' यदिमम् ' त्याहि. કેમકે નાના પ્રકારથી વાયુકાયની વિરાધના કરવાવાળા સાવઘવ્યાપારદ્વારા તે प्र. आ-८८ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ आचारागसूत्रे समारम्भेण वायुकायोपमर्दनरूपसावधव्यापारण, इमंचायुकाय विहिनस्ति । तथावायुशस्त्रं समारभमाणः-व्यापारयन् , अन्यान् पृथिवीकायादीन् , अनेकरूपान् स्थावरांस्वसांच, प्राणान् माणिनः विहिनस्ति-उपमर्दयति ॥ मू० ४ ॥ वायुशस्त्रं समारभमाणा अनेकविधान् जीवान् कथं विहिंसन्ति, तत् च प्रतिबोधयितुं श्रीसुधर्मा स्वामी पाह-' से बेमि.' इत्यादि । मूलम्से बेमि-सति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य, फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावति । जे तत्थ संघायमावज्जति, ते तत्थ परियावज्जति । जे तस्थ परियावज्जति ते तत्थ उदायति ॥ सू०५॥ छायातद् ब्रवीमि-संति संपातिमाः प्राणाः, आहत्य संपतन्ति च, स्पर्श च खलु स्पृष्टा एके संघातमापधन्ते । ये तत्र संघातमापधन्ते, ते तत्र पर्यापद्यन्ते । ये तत्र पर्यापद्यन्ते ते तत्रापद्रावन्ति ॥५॥ द्वारा वे वायुकाय का घात करते हैं। तथा वायुकाय के शस्त्रों का प्रयोग करते हुए पृथ्वीकाय आदि अनेक प्रकार के स्थावरों का, तथा त्रस जीवों का उपमर्दन करते है ।सू. ४॥ वायुकाय के शस्त्रों का प्रयोग करने वाले नाना प्रकार के जीवों की हिंसा कैसे करते हैं ? यह बतलाने के लिए श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं:-'से बेमि.' इत्यादि । मूलार्थ--वह मैं कहता हूँ-एकाएक उडकर पड़ने वाले जीव हैं जो अचानक आपडते हैं, और वायुकाय से स्पृष्ट होकर कोई-कोई संघात को प्राप्त होते हैं । जो संघात को प्राप्त होते हैं उनका शरीर सिकुड जाता है, मूर्छित हो जाते हैं, वे मर भी जाते हैं । सू० ५ ॥ વાયુકાયને ઘાત કરે છે. તથા વાયુકાયના શોને પ્રયોગ કરતા થકા પૃથ્વીકાય આદિ અનેક પ્રકારના સ્થાવર તથા ત્રસજીનું ઉપમન (નાશ કરે છે. સૂ. જો વાયુકાયના શસ્ત્રોના પ્રવેગ કરવાવાળા નાના પ્રકારના જીની હિંસા કેવી રીતે ४२ छ १ मे मतावा भाटे श्री सुधी स्वामी ४१ छ:-' से बेमि.' त्यादि મૂલાથ–હું તે કહું છું—એકાએક (ઓચિંતા) ઉડીને પડવાવાળા જીવ છે. તે અચાનક આવી પડે છે, અને વાયુકાયથી પૃષ્ટ થઈને કઈ-કઈ જથારૂપે થાય છે. જે સંઘાત-સમુદાય-જથારૂપમાં પ્રાપ્ત થાય છે, તેનું શરીર સંકેચાઈ જાય છે, મૂછિત થઈ જાય છે, અને તે મરી પણ જાય છે. તે સૂ. ૫ Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९९ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सू. ५ वायुविराधनादोषः । टीका-- तद् ब्रवीमि-वायुकायहिंसया यथा बहुविधाः माणिनः प्रणश्यन्ति, तत् कथयामि-संपातिमाः उत्पत्योत्पत्यपतनशीलाः, प्राणा: माणिनः सन्ति = वायुकायमाश्रित्व विद्यन्ते । एते संपातिमाः आहत्य-व्यजनतालन्तवस्त्रादिभिः प्रोद्भावितवायुकायादाघातं प्राप्य, संपतन्ति वायुवेगसमाकृष्टाः प्राणापगमायोद्विग्नास्तत्रैव वायुकाये संविशन्ति, संश्लिष्यन्तीत्यर्थः । स्पर्श चेति । स्पर्शोऽस्यास्तीति स्पर्शः स्पर्शवान् , तं स्पर्श वायुकायं, स्पृष्टाः =स्पर्शकर्तारः, आपत्वात् कर्तरि क्तः । एके वायुवेगसमाहताः प्राणिनः, संघातमापधन्ते-परस्परसंघर्षेण गात्रसंकोचं प्राप्नुवन्ति । ये तत्र वायुकाये संपतिताः संघातमापद्यन्ते, ते तत्रयायुकाये टीकार्थ-वायु की हिंसा से अनेक प्रकार के प्राणियो का घात किस प्रकार होता है सो कहता हूँ । संपातिम अर्थात् उड-ऊडकर पड़ने वाले अनेक जीव वायुकाय के आश्रित रहते हैं। ये संपातिम जीव पंखा, तालवृन्त-पंखा कि एक जाति, वस्त्र आदि से ऊदीरणा की हुई वायुकायद्वारा आघात पाकर गिर पडते हैं, अर्थात् वायु के वेग से खिंचकर घबराये हुए वायुकाय के साथ हो जुड-से जाते है। यहाँ स्पर्श का अर्थ हैं स्पर्शवान् अर्थात् वायु । कोई-कोई वायु के वेग से आहत हुए जीव संघात को प्राप्त होते है अर्थात् परस्पर रगड खाकर सिकुड जाते है । वायुकाय में पड़े हुए जो जीव सिकुड जाते है वे वायुकाय के आघात से ટીકાઈ–વાયુકાયની હિંસાથી અનેક પ્રકારનાં પ્રાણીઓને ઘાત કેવી રીતે થાય છે. તે હું કહું છું –સંપાતિમ-ઉડી-ઉડીને પડવાવાળા અનેક જીવ વાયુકાયના આશ્રયે રહે છે. તે સંપાતિમ જીવ, પંખા, તાડપત્ર, વસ્ત્ર આદિથી ઉદીરણા કરાએલા વાયુકાયદ્વારા આઘાત પામીને પડી જાય છે. અર્થાત્ વાયુના વેગથી ખેંચાઈને ગભરાએલા વાયુકાયની સાથે જ જોડાઈ જાય છે. અહીં સ્પશને અર્થ છે સ્પર્શવાન–અર્થાત વાયુ કેઈકે વાયુના વેગથી આહત-તાડન કરાએલા જીવ સંઘાત-જથાપટ્ટાને પ્રાપ્ત થાય છે. અર્થાત્ પરસ્પર ઘસડાઈને સંકોચાઈ જાય છે. વાચકાયમાં પડેલા જે જ સંકોચાઈ જાય છે તે વાયુકાયના આઘાતથી મૂર્શિત Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० आचाराङ्गसूत्रे संश्लिष्टा पर्यापद्यन्ते वायुकायाघातेन मूछ प्राप्नुवन्ति-प्रणष्टचेतना भवन्तीत्यर्थः । ये तत्र-पर्यापद्यन्ते, ते तत्र वायुकाये, अपद्रावन्ति-माणैर्वियुज्यन्ते ।। वायुशस्त्रसमारम्भेण न केवलं वायुजीवविराधना जायते, किन्तु सर्वदिक्संचारिणां संपातिमजीवानामन्येषां च बहुविधानां हिंसाऽपि दुर्निवारा भवतीति भावः ॥ सू० ५॥ ___ एवं वायुकायस्य सचित्तत्वं विदित्वा मुनित्वप्राप्तये त्रिकरण-त्रियोगैस्तत्समारम्भो वर्जनीय इत्याशयेनाह–' एत्थ सत्थं.' इत्यादि । मूलम्एत्थ सत्यं समारम्भमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति । मूर्छित हो जाते हैं-उनकी चेतना नष्ट हो जाती है, और जो मूर्छित हो जाते है वे प्राणों से रहित हो जाते हैं अर्थात् मर जाते है । वायुकाय के शस्त्र का आरम्भ करने से अकेले वायुकाय की ही विराधना नहीं होती वरन् समी दिशाओ में फिरने वाले संपातिम जीवों की तथा अन्य अनेक प्रकार के जीवों को हिंसा होना भी अनिवार्य है । सू० ५ ॥ ___ इस प्रकार वायुकाय की सचित्तता समझकर साधुता प्राप्त करने के लिए तीन करण तीन योग से वायुकाय का समारम्भ त्यागने योग्य है । इस आशय से सूत्रकार कहते है-- 'एत्थ सत्थं.' इत्यादि। मूलार्थ-वायुकाय के विषय में शस्त्र का व्यापार करने वाला इन व्यापारों થઈ જાય છે-તેની ચેતના નાશ પામી જાય છે. અને જે મૂછિત થઈ જાય છે તે પ્રાણથી રહિત પણ થઈ જાય છે અર્થાત્ મરણ પામે છે. વાયુકાયના શસ્ત્રને આરંભ કરવાથી, એકલા વાયુકાયના જીનીજ વિરાધના થાય છે એટલું જ નહિ પરંતુ સર્વ દિશાઓમાં ફરવાવાળા સંપાતિમજીની તથા અન્ય અનેક પ્રકારના છની ઘાત થવી તે પણ અનિવાર્ય છે. સુ. પના આ પ્રમાણે વાયુકાયની સચિત્તતા સમજીને સાધુતા પ્રાપ્ત કરવા માટે ત્રણે કરણ ત્રણ વેગથી વાયુકાય સમારંભ ત્યાગ કરવા ચોગ્ય છે. એ આશયથી सूत्रसर ४ छ:-'एत्य सत्थं.' त्याहि. અલાર્થ ––વાયુકાયના વિષયમાં શસ્ત્રને વ્યાપાર કરવાવાળાઓ એ વ્યાપારને Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ ७ मू. ६ वायुविराधनापरिहारः ७०१ एत्थं सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति। तं परिणाय मेहावी व सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे वाउसत्थं समारंभते समणुजाणेज्जा, जस्से ते वाउसत्थसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिणायकम्मे-त्ति बेमि ॥ सू० ६ ॥ छायाअत्र शस्त्रं समारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाता भवन्ति । अत्र शस्त्रमसारभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाता भवन्ति । तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं वायुशस्त्र समारभेत, नैवान्यैर्वायुशस्त्रं समारम्भयेत् , नैवान्यान् वायुशस्त्रं समारममाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते वायुशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति, स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू०६॥ टीकाअत्र अस्मिन् वायुकाये, शस्त्रपूर्वोक्तप्रकारं समारभणास्य व्यापारयतः, इत्येते पूर्वोक्ताः त्रिकरणत्रियोगैः कृता आरम्भा वायुकायोपमदनरूपाः को कर्मबंध का कारण नहीं समझता । वायुकाय में शस्त्रों का व्यापार न करने वाला इन व्यापारों को कर्मबंध का कारण समझता है। उसे जानकर विवेकी पुरुष स्वयं वायु शस्त्र का आरम्भ न करे, दूसरों से वायुशस्त्र का आरम्भ न करावे और वायुशस्त्र का आरम्भ करने वालों का अनुमोदन न करे । जो वायुकाय के शस्त्रो के व्यापार को जानता है वही मुनि है, वही सावद्य व्यापार का त्यागी है । ऐसा मैं कहता हूँ ॥ सू० ६ ॥ टीकार्थ-वायुकाय के विषय में पूर्वोक्त शस्त्रों का उपयोग करने वाला तीन करण तीन योग से किये जाने वाले और वायुकाय के घातक सावध व्यापारों को कर्मबंध કર્મબંધનું કારણ સમજતા નથી, વાયુકાયમાં શસ્ત્રોને વ્યાપાર નહિ કરવાવાળા તે વ્યાપારને કર્મબંધનું કારણ સમજે છે. તેને જાણીને વિવેકી પુરૂષ પોતે વાયુશાસ્ત્રને આરંભ કરે નહિ, બીજા પાસે વાયુશસ્ત્રનો આરંભ કરાવે નહિ, અને વાયુશાસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જે વાયુકાયના શસ્ત્રોના વ્યાપારને જાણે છે તે भुनि छ. ते सावध व्यापान त्यागी छे. मावु-( मा प्रभार) हुँ ४९ छुः ॥ सू. ६॥ ટીકાથ-વાયુકાયના વિષયમાં પૂર્વોક્ત શસ્ત્રોને ઉપયોગ કરવાવાળા, ત્રણ કરણ ત્રણ ગથી કરવામાં આવતા અને વાયુકાયના ઘાતક સાવદ્ય વ્યાપારને કર્મબંધનું કારણ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७०२ आचारागसत्रे सावधव्यापाराः, अपरिज्ञाताः कर्मबन्धकारणेत्वेनानवगताः भवन्ति । अत्र अस्मिन्नेव वायुकाये, शस्त्रं मागुक्तमकारम् , असमारभमाणस्य अप्रयुजानस्य, इत्येते-पूर्वोक्ताः, आरम्भाः सावधव्यापाराः, परिज्ञाता भवन्ति-ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाताः, मत्याख्यानपरिज्ञया परिवर्जिता भवन्तीत्यर्थः । ज्ञपरिज्ञापूर्विका प्रत्याख्यानपरिज्ञा यथा भवति, तं प्रकारं दर्शयति-तत् परिज्ञाय' इत्यादि । तद्-वायुकायारम्भणं, परिज्ञाय= कर्मवन्धस्य कारणं भवती' त्यवगत्य, मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः स्वयं वायुशस्त्रं नैव समारभेत नैव व्यापारयेत्, अन्यैर्वायुशस्त्रं नैव समारम्भयेत् , वायुशस्त्रं समारभमाणान् अन्यान् नैव समनुजानीयात् नैवानुमोदयेत् । यस्यैते वायुशस्त्रसमारम्भाः वायुकायमुद्दिश्य शस्त्रैस्तदुपमर्दनरूपाः का कारण नहीं समझता । अर्थात् उसे यह ज्ञान नहीं होता कि-'इन पाप-कृत्यों से मुझे कर्भ का बंध होगा' लेकिन इसी वायुकाय के विषय में शस्त्रों का आरंभ न करने वाला सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से जानता है और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग देता है । ज्ञपरिज्ञापूर्वक प्रत्याख्यानपरिज्ञा जिस प्रकार होती है सो दिखलाते है-वायुकाय के आरंभ को कर्मबंध का कारण जानकर हेयोपादेय का विवेक रखने वाला पुरुष स्वयं वायुशस्त्र का आरंभ न करे, दूसरों से वायुशस्त्र का आरंभ न करावे और वायुशन का आरंभ करनेवालों का अनुमोदन न करे। जिसने वायुकायसंबंधी इन आरंभों को अर्थात् सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से સમજતા નથી. અર્થાત્ તેમને એ જ્ઞાન થયું નથી કે–“આ પાપકૃત્યોથી મને કર્મનો બંધ થશે. પરંતુ આ વાયુકાયના વિષયમાં શસ્ત્રોને આરંભ નહિ કરવાવાળા સાવ વ્યાપારને જ્ઞપરિજ્ઞાથી જાણે છે, અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી ત્યજી દે છે જ્ઞપરિઝાપૂર્વક પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞા જે પ્રમાણે હોય છે. તે બતાવે છે–વાયુકાયના આરંભને કર્મબંધનું કારણ જાણીને હેય-ઉપાદેયને વિવેક રાખવાવાળા પુરુષ પિતેજ વાયુશસ્ત્રનો આરંભ કરે નહિ બીજા પાસે વાયુશસને આરંભ કરાવે નહિ. અને વાયુશાસ્ત્રને આરંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ. જે વાયુકાયસંબંધી એ આરંભેને અર્થાત સાવદ્ય વ્યાપારને પરિજ્ઞાથી ‘કર્મ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य० १ उ. ७ सु. ६ वायुविराधना परिहारः ७०३ सावद्यव्यापाराः परिज्ञाताः = ज्ञ - परिज्ञया बन्धकारणतया विदिताः, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिवर्जिता भवन्ति, स एव परिज्ञातकर्मा - त्रिकरणत्रियोगैः परिवर्जितसकलसावद्यव्यापारः, मुनिर्भवति । किरणत्रयोर्वाकायविराधनापरिहारेण यस्तु परिज्ञातकर्मा स एव मुनिर्भवतीत्युक्तं तत्कथमुपपद्यते ? यतो हि गच्छता तिष्ठता आसीनेन स्वपता भुब्जानेन भाषमाणेन वायुकायविराधना दुष्परिहरा कथं तर्हि मुनिश्वरेत् तिष्ठेत् आसीत शयीत भुञ्जीत भाषेत ? इति । अत्रोच्यते मुनिनां सर्वं स्वकर्त्तव्यं यतनयैव संपादनीयम्, अत एवोक्तं भगवता -- कर्मबंध का कारण जान लिया और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग दिया है वही तीन करण और तीन योग से व्याग करने वाला मुनि होता है । शंका--' तीन करण और तीन योग से वायुकाय की विराधना का त्याग करने वाले ही मुनि होते हैं" यह कथन किस प्रकार सही हो सकता है ? चलने, ठहरने, बैठने, सोने, आहार करने और भाषण करने में वायुकाय की विराधना से बच नहीं सकते । ऐसी दशा में मुनि कैसे चले, कैसे ठहरे कैसे बैठे, कैसे सोए, कैसे भोजन करे 1 और कैसे बोले ? समाधान – मुनि को अपनी सब क्रियाएँ यतनापूर्वक ही करनी चाहिए | भगवान् ने कहा है: -- અન્યનું કારણ છે' એમ જાણી લીધું છે અને પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યજી દીધા છે, તે ત્રણ કરણ અને ત્રણયેાગથી ત્યાગ કરવાવાળા મુનિ હાય છે. ०४ શંકા ત્રણ કરણ અને ત્રયાગથી વાયુકાયની વિરાધનાના ત્યાગ કરવાવાળા મુનિ હેાય છે.” આ વચન કેવી રીતે સાચું હોઈ શકે છે? ચાલતાં, બેસતાં, રાકાતાં, સુતાં, ભાજન કરતાં અને ભાષણ કરતાં વાયુકાયની વિરાધનાથી ખેંચી શકાતું નથી. એવી દશામાં મુનિ કેવી રીતે ચાલે, કેવી રીતે બેસે, કેવી રીતે રાકાય, કેવી રીતે સુવે, કેવી રીતે ભેાજન કરે અને કેવી રીતે ખેલે ? સમાધાન—મુનિએ પાતાની સર્વ ક્રિયાએ યતનાપૂર્વક કરવી જોઇએ, ભગવાને ४ छे Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७०४ आचारागसूत्रे " जयं चरे जय चिटे, जयमासे जयं सए। ___जयं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई" ॥१॥ ननु गमनागमनादौ यतनायाः सुसंपाद्यत्वेऽपि भाषणयतना कथं विधेया ? कथमपि भाषणे हि वायुकायविराधना परिहर्तुं न शक्यते, कथं मुनिर्यतनया भाषेत ? भाषणे वायुकायविराधनया साई सूक्ष्मव्यापिसंपातिमजीवानामपि विराधनाऽवश्यम्भाविनी, तेपां वायुवेगसमाकृष्टानामाहत्य संपतनेन, वायुसंस्पर्शेन च संघात पर्यापत्त्य-पद्रावणान्तं भवतीत्यत्रैवोद्देशेऽभिहितत्वात् ? इति चेदुच्यते-- मुखवस्त्रिकावधनं भाषणयतना भगवता प्रतिवोधिता, एप वायुकाय "यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खडा रहे, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक भोजन करे और यतनापूर्वक बोले तो (साधु) पापकर्म का बंध नहीं करता है " ॥१॥ शङ्का--जाने-आने में यतना सरलता से हो सकती है मगर बोलने की यतना किस प्रकार करनी चाहिए ? बोलने में वायुकाय की विराधना कीसी भी प्रकार नहीं टल सकती तो मुनि किस प्रकार भाषण करे ?, भाषण करने में वायुकाय की विराधना के साथ सर्वत्र व्याप्त छोटे-छोटे संपातिम जीवों की विराधना भी अवश्य होती है । इसी उद्देश में बतलाया गया है कि-संपातिम जीव वायु के वेग से खिंचकर आ पडते हैं और वायु के स्पर्श से संघात को प्राप्त होते है, मूर्छित्त हो जाते हैं और मर भी जाते हैं। समाधान--भगवान् ने मुखवस्त्रिका बाधना भाषणो की यतना बतलाई है । યતનાપૂર્વક ચાલે, યતનાપૂર્વક બેસે, યતનાપૂર્વક રોકાય; યતનાપૂર્વક સુવે, યતના પૂર્વ ભજન કરે, અને યતનાપૂર્વક બેલે (સાધુ) પાપ કર્મને બંધ કરતા નથી./૧il શકા–જવા આવવામાં યતના સરલતાપૂર્વક થઈ શકે છે, પરંતુ બેલવાની યતના કેવી રીતે કરવી જોઈએ? બોલવામાં વાયુકાયની વિરાધના કેઈ પણ પ્રકારથી ટળી શકતી નથી, તે મુનિ કેવી રીતે ભાષણ કરે? ભાષણ કરવામાં વાયુકોયની વિરાધનાની સાથે સર્વત્ર વ્યાપ્ત નાના-નાના સંપાતિમ જીવોની વિરાધના પણ અવશ્ય થાય છે. આ ઉદેશમાં બતાવવામાં આવ્યું છે કે-સંપાતિમ જીવ વાયુના વેગથી ખેંચાઈને આવી પડે છે અને વાયુના સ્પર્શથી સંઘાત-(સમુદાય)ને પામે છે, મૂછિત થઈ જાય છે. અને મરણ પણ પામે છે. સમાધાન-ભગવાને મુખવસ્ત્રિકા બાધવી તે ભાષણની ચતના બતાવી છે. આ વાયુકાયને Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ. ७ मू. ६ मुखवस्त्रिकाविचारः ७०५ समारम्भः ग्रन्थमोहमारनरकरूपस्तस्मादहितोऽयमिति मत्वा वायुकायविराधनया शान्तिमार्गावलम्बिनः संयमिनः प्राणान् धारयितुमपि नावकाङ्क्षन्तीत्यत्रैवोद्देशे समुपदिशता भगवता भाषणयतनारूपं मुखवस्त्रिकावन्धनमिति सूचितम् । उक्तञ्च समुत्थानसूत्रे " ........तओ पच्छा गोयमा ! सलिंगे मुहपत्तिं मुहेण सद्धिं बंधे ॥१॥ मुहपत्तीःणं भंते ! किंपमाणा ? गोयमा ! मुहप्पमाणा मुहपत्ती । मुहपत्ती णं मंते ! कस्स वत्थस्स कडे ? गोयमा ! एगस्सवि सेयवत्थस्स णं अट्ठपुडलाए मुहपत्तिं करेह ॥२॥ कस्सष्टुं मुहपत्तीए णं अट्ठ पुडलाई ? गोयमा ! अट्टकम्मदहणटुं ॥ मुहपत्ती णं भंते ?, कहं बंधे ?, गोयमा! एगकन्नेण दुच्चकन्नप्पमाणेण दोरेण सद्धिं मुहे बंधेह । मुहपत्तीएणं भंते ! के अहे ?, गोयमा ? जण्णं मुहअंते सइ वट्टति से तेणद्वेणं मुहपत्ती । कस्सलुभंते ! मुहपत्तिं मुहेणसद्धिं बंधे ?, गोयमा ! सलिंगवाउजीवरक्खणटुं ॥३॥ जइ णं भंते ! मुहपत्ती वाउजीवरक्खणट्ठाए तो किं सुहुमवाउकायजीवरक्खणहाए वा वायरवाउकायजीवरक्खणडाए वा ? गोयमा! णोति सुहुमवाउकायजीवरक्खणट्ठाए वायरवाउकायजीवरक्खणट्ठाए । नो-ति अविसेसं, एवं ते सव्वेवि अरिहंता पवुच्चंति ॥ ४ ॥" इति । यह वायुकाय का समारंभ ग्रन्थ है, मोह है, मार है, नरक है और इस कारण अहितकारी है, अत एव शान्ति-मोक्षमार्ग का अवलम्बन करने वाले संयमी वायुकाय की विराधना करके अपने प्राणों की भी इच्छा नहीं करते । इसी उद्देश में भगवान् ने उपदेश देते हुए भाषा यतनारूप मुखवस्त्रिका का बाँधना सूचित किया है । समुत्थान सूत्र में कहा भी है: સમારંભ ગ્રંથ છે, એહ છે, માર છે, નરક છે, અને તે કારણે અહિતકારી છે. એટલા માટે શાંતિ–મોક્ષ માર્ગનું અવલંબન કરવાવાળા સંયમી વાયુકાયની વિરાધના કરીને પિતાના પ્રાણની પણ ઈચ્છા કરતા નથી. આ ઉદ્દેશમાં ભગવાને ઉપદેશ આપતા થકા ભાષા યતનારૂપ મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાની સૂચના કરી છે. સમુત્થાનસૂત્રમાં કહ્યું પણ છે – प्र. आ.-८९ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ भाचाराशस्त्रे - छाया" ...ततः पश्चात् गौतम ! सलिङ्गो मुखपत्रीं मुखेन साई वस्नीयात् । मुखपत्री खलु भदन्त ! किंप्रमाणा ?, गौतम ! मुखप्रमाणा मुखपत्री। मुखपत्री खलु भदन्त ! केन वस्त्रेण कृता ?, गौतम ! एकस्यापि श्वेतवस्त्रस्याष्टपुटका मुखपत्रीं कुर्यात् ॥ २॥ कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्री खलु अष्टपुटका ?, गौतम ! अष्टकर्मदहनार्थम् । मुखपत्रीं भदन्त ! कथं वध्नीयात् ?, गौतम ? एककर्णेन द्वितीयकर्ण ". ..गौतम ! तत्पश्चात् स्वलिंगी साधु मुख के साथ मुखपत्ती बाधे ॥१॥ प्रश्न-भगवान् । मुँहपत्ती का क्या प्रमाण है ? उत्तर-गौतम ! मुँह के बराबर मुँहपत्ती होती है। प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती किस वस्त्र की होती हैं ? उत्तर-गौतम ! एक सफेद वस्त्र की आठ पुटकी मुँहपत्ती होती है ॥२॥ प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती आठ पुटकी क्यों होनी चाहिए ? उत्तर-गौतम ! आठ कर्मों को भस्म करने के लिए। प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती किस तरह बाँधनी चाहिये ? उत्तर-गौतम ! एक कान से दूसरे कान तक लम्बे डोरे के साथ मुँहपत्ती मुख पर बौद्धनी चाहिए। "....गौतम! तत्पश्चात स्पलिंगी साधु भुम साथै भुमपत्ति मांध. (१) પ્રશ્ન–ભગવાન્ ! મુંહપત્તીનું શું પ્રમાણ છે? उत्तर-गौतम! भुमनी १२॥१२ भुंडपत्ती खाय छे. प्रश्न-मापन् ! भुउपत्ती ४॥ पनी मन छ ? ઉત્તર–ગૌતમ! એક સફેદ વસ્ત્રની આઠ પડની મુંહપત્તી હોય છે. (૨) प्रश्न-भगवन् ! मुंडपत्ती मा8 ५डनी भोट डावी नये ? ઉત્તર–ગૌતમ! આઠ કર્મોને ભસ્મ કરવા માટે. प्रश्न-भगवन् ! मुंडपत्ती वी शते माधवी नये ? ઉત્તર–ગૌતમ! એક કાનથી બીજા કાન સુધી લાંબા દેરાની સાથે મુંહપના મુખ પર બાંધવી જોઈએ. Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि टीका अध्य. १ उ. ७ सू. ६ मुखवस्त्रिकाविचारः ७०७ प्रमाणदवरकेण सर्द्ध मुखे वध्नीयात् मुखपत्र्या भदन्त ! कोऽर्थः ?, गौतम ! यत्खलु मुखान्ते सदा वर्तते तेनार्थेन मुखपत्री । कस्मै अर्थाय भदन्त ! मुखपत्री मुखेन साई वध्नीयात् ?, गौतम ! स्वलिङ्गवायुजीवरक्षणार्थम् ॥ ३॥ यदि खलु भदन्त ! मुखपत्री वायुजीवरक्षणार्थाय तत्कि सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणार्थाय वा वादरवायुकायजीवरक्षणार्थाय ? गौतम ! नो इति सूक्ष्मवायुकायजीवरक्षणार्थीय, (किन्तु) बादरवायुकायजीवरक्षणार्थांय, नो इति अविशेषम् , एवं ते सर्वेऽपि अर्हन्तः ब्रुवन्ति ॥ ४ ॥ इति । संपति केचिन्मुनिम्मन्या मुखवस्त्रिकावन्धनं प्रतिषेधयन्ति तेषामाचार्यास्तु प्रश्न-भगवान् ! मुँहपत्ती का अर्थ क्या है ? उत्तर-वह सदैव मुंह पर बंधी रहती है इस लिए वह मुँहपत्ती कहलाती है । प्रश्न-किस प्रयोजन से मुँहपत्ती मुख पर बाँधनी चाहिए ? उत्तर-मुँहपत्ती बाँधना साघु का स्वलिंग है इस लिए, तथा वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए मुँहपत्ती बाँधी जाती है ॥३॥ प्रश्न-भगवान् अगर वायुकाय की रक्षा के लिए मुँहपत्ती है तो सूक्ष्म वायुकाय की रक्षा के लिए है या बादर वायुकाय की रक्षा के लिए ? उत्तर-सूक्ष्म वायुकाय की रक्षा के लिए नहीं किन्तु बादर वायुकाय के जीवों की रक्षा के लिए है । सभी अर्हन्त ऐसा ही कहते है " ॥४॥ आजकल अपने को मुनि मानने वाले कोई-कोई मुखवत्रिका के बाँधने का પ્રશ્ન–ભગવન્! મુંહપત્તીને અર્થ શું છે? ઉત્તર–ગૌતમ! તે હમેશાં મુખપર બાંધી રહે છે. તેથી તે મુંહપત્તી કહેવાય છે. પ્રશ્ન–શું પ્રયોજનથી મુંહપત્તી મુખપર બાંધવી જોઈએ? ઉત્તર–સંહપત્તી બાંધવી તે સાધુનું સ્વલિંગ છે એ માટે, તથા વાયુકાયના वानी २क्षा भाटे मुंडपत्ती मांधे. (3)। પ્રશ્ન–ભગવન! અગર વાયુકાયની રક્ષા માટે, મુંહપત્તી છે. તે શું સક્ષમ વાયુકાયની રક્ષા માટે છે. અથવા બાદર વાયુકાયની રક્ષા માટે છે? ઉત્તર–સૂમ વાયુકાયની રક્ષા માટે નહિ પરંતુ બાદર વાયુકાયના જીની રક્ષા માટે છે. સર્વ અહંન્ત એ પ્રમાણેજ કહે છે. (૪). આજ કાલ પિતાને મુનિ માનવાવાળા કેઈક ઈ મુખવસ્ત્રિકા બાંધવાને નિષ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ आचाराङ्गसूत्रे मुखवस्त्रिकावन्धनं स्वीकुर्वन्त्येव । उक्तञ्च जिनप्रतिशिष्यपूर्ण भद्रगणिकृतातिमुक्तकचरित्रे (श्लोकेषु ८०-८१-८२ )– " अथानन्यमुखस्तिष्ठन्, पुरतो निश्वलासनः । प्राब्जलिवंदनद्वारे, दधानो मुखवत्रिकाम् ॥ ८० ॥ इत्यादि यावत् श्रावास श्रुतस्यार्थ - मतिमुक्तमुनिर्मुदा " ॥ २ ॥ इति विक्रमसंवत्सरे द्वयशीत्यधिकद्वादशशत (१२८२ ) परिमिते पूर्णभद्रगणिना विरचितोऽयमतिमुक्तकचरित्रनाधेयो ग्रन्थः, यस्यास्मिन् विक्रमसंवत्सरे द्वयधिकद्विसहस्र (२००२) परिमिते विंशत्यधिकसप्तशत (७२०) वर्षाणि व्यतीतानि, इतथ स्फुटमेतदवगम्यते मुखवस्त्रिकाबन्धनं सादर परिगृहीतं तेषामाचार्यैस्तदनुयायिभिश्च । निषेध करते है । परन्तु उनके आचार्य मुखवस्त्रिका बांधना स्वीकार करते है । निपति के शिष्यपूर्णभद्रगणिविरचित 'अतिमुक्तकचरित्र' (श्लोक ८०-८१-८२ ). में कहा है: " पर - पदार्थों में सुख न मानने वाला, निश्चल आसन से सामने हाथ जोडकर मुख पर मुँहपती धारण किये हुअ अतिमुक्तक मुनिने श्रुतका अर्थ सुना ॥८०-८२ ॥ विक्रम संवत १२८२ में पूर्णभद्र गणिने यह अतिमुक्तकचरित्र नामक ग्रंथ लिखा है । इस संवत् २००२ तक उसे ७२० वर्ष हो चुके हैं । इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उनके आचार्योंने और उनके अनुयायियोंने मुखवस्त्रिका का बाँधना आदरपूर्वक अंगीकार किया है | કરે છે. પરન્તુ તેમના આચાર્ય મુખવસ્ત્રિકા આંધવાનું સ્વીકાર કરે છે. જિનપતિના શિષ્ય પૂર્ણ ભદ્રગણિ–વિરચિત ‘ અતિમુક્તકચરિત્ર ’માં ક્ષેાક ૮૦-૮૧-૮૨માં કહ્યું છેઃ પર પદાર્થોમાં સુખ નહિ માનવાવાળા નિશ્ચલ આસનથી સામે હાથ જોડીને સુખપર સુંહપત્તી ધારણ કરેલા ‘અતિમુક્તક' મુનિએ શ્રુતના અથ સાંભળ્યે. ૮૦-૮૨ વિક્રમ સંવત્ ૧૨૮૨માં પૂર્ણભદ્ર ગણિએ આ અતિમુકતકચરિત્ર નામના ગ્રંથ લખ્યા છે. આ સવત્ ૨૦૦૨ સુધીમાં તેને ૭૨૦ વર્ષ વ્યતીત થઈ ચૂકયાં છે. એથી સ્પષ્ટ જાણમાં આવે છે કે તેમના આચાર્ચીએ અને તેમના અનુયાયિઓએ સુખવકિા આંધવાનું આદરપૂર્વક અંગીકાર કર્યુ` છે. Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सू. ६ मुखवस्त्रिकाविचारः ७०९ अपरश्च जिनपतिशिष्य लव विरचिते सनत्कुमारचरित्रे सनत्कुमाररतीय-पूर्वभविक-'विक्रमयशो'-नृपवर्णने भिहितम् " मुखेन्दुराजन्मुखवस्त्रिकश्च, ___ कथासु लेभे विरजा द्विजोधैः । निषेवितः पान्तनिविष्टराज, ___ हंसीव विभ्राजि सरः श्रियं यः ॥ १॥" सनत्कुमारः, तृतीयपूर्वजन्मनि विक्रमयशो नाम नृपोऽभवद् । स च परिपदि धर्मकथाश्रवणार्थ यथोपविष्टस्तद्वर्णनं कुर्वन्नाह " मुखेन्दुराजन्मुखवस्त्रिकश्च " इत्यादि । व्याख्या-इन्दुरिव मुखं मुखेन्दुः, मुखेन्दौ राजन्ती मुखवस्त्रिका यस्य स मुखेन्दुराजन्मुखवस्त्रिकः, मुखोपरिनिवद्धातिशुक्लवस्त्रविनिर्मितदेदीप्यमानमुखवस्त्रिकः । विरजाः निर्मलान्तः करणः, इसके अतिरिक्त जिनपति के शिष्य लवद्वारा रचित सनत्कुमारचरित्र में सनत्कुमार के तीसरे पूर्वभववर्ती विक्रमयश नामक राजा का वर्णन करते हुए कहा है सनत्कुमार अपने तृतीय पूर्वभव में विक्रमयश नामक राजा था । वह परिषद् में धर्मकथा सुनने के लिए जिस प्रकार बैठा था उसका वर्णन करते हुए कहते है-'मुखेन्दु.' इत्यादि । इसकी व्याख्या इस प्रकार है: जिसके मुखचन्द्र पर मुखवत्रिका सुशोभित थी अर्थात् मुख के ऊपर बंधी हुई, सफेद वस्त्र की बनी हुई मुखवस्त्रिका से जिसका मुख शोभायमान हो रहा था, जिसका अन्तःकरण निर्मल था और जो द्विजों के समूह से सेवित था ऐसा विक्रमयश એ સિવાય જિનપતિના શિષ્ય લવદ્વારા રચિત સનકુમારચરિત્રમાં સનસ્કુમારના ત્રીજા પૂર્વભવવત્ત “વિકમયશ” નામના રાજાનું વર્ણન કરતા થકા કહે છે કે – સનકુમાર પિતાના ત્રીજા પૂર્વભવમાં વિક્રમશ નામના રાજા હતા, તે પરિષદમાં (સભામાં) ધર્મકથા સાંભળવા માટે જે પ્રમાણે બેઠા હતા તેનું વર્ણન કરતા થકા કહે छे -'मुखेन्दु.' त्याहि. मेनी व्याच्या मा प्रमाणे छ જેના મુખચંદ્ર પર મુખવઝિકા સુશોભિત હતી, અર્થાત મુખ ઉપર બાંધેલી સફેદ વસ્ત્રની બનેલી મુખવસ્ત્રિકાથી જેનું મુખ ભાયમાન થઈ રહ્યું હતું, જે અન્તઃકરણ નિર્મલ હતું, અને જે દ્વિજોના સમૂહથી સેવિત હતા, એવા વિક્રમશ નામના રાજા Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० आचारागसूत्र द्विजौधैः द्विजसमूहैनिपेवितः, य=विक्रमयशो नृपः कथासु-धर्मकथापरिषत्सु श्रियं शोभां लेभे प्राप्तवान् । किमिव ? प्रान्ते निविष्टा राजहंसी यस्य तत् प्रान्तनिविष्टराजहंसि, विभ्राजि-देदीप्यमानं सर इव । __ यथा प्रान्तनिविष्टया राजहंस्या विभ्राजमानं सरः श्रियं लभते तथा मुखोपरिनिबद्धदेदीप्यमानमुखवस्त्रिकया विक्रमयशो नृपः सदसि श्रियं लब्धवानित्यर्थः । ___ करेण मुखवस्त्रिकाधारणे तु करतलातमुखवस्त्रिकाया दीप्तिः समाच्छादिता स्यात् , कथं तर्हि '....राजन्मुखवस्त्रिकः' इत्यत्र 'राजन् '-पदप्रयोगसंसूचितमुखवस्त्रिकागतप्रभायाः प्रकाशमानता तिरोहिता भवेत् , तर्हि राजहंसीप्रभया 'विभ्राजी' -ति सरोविशेषणेन साम्यमपि न सिद्धयेत् । नामक राजा धर्मकथा की परिषद् में शोभा को प्राप्त हुआ । कैसी शोभा को प्राप्त हुआ ? जैसे जिसके किनारे राजहंसी बैठी हो वह तालाव सुशोभित होता है। जिसके किनारे राजहंसी बैठी हो वह तालाव जैसे शोभित होता है उसी प्रकार मुख पर बंधी हुई और देदीप्यमान मुखवत्रिका से विक्रमयश राजा व्याख्यानपरिषद् में शोभित हुआ। अगर हाथ से मुखवस्त्रिका पकडी होती तो मुखवस्त्रिका की दीप्ति हथेली से छिप जाती । ऐसी स्थिति में '....राजन्मुखवस्त्रिकः' इस पद में 'राजन' शब्द के प्रयोग से मखवस्त्रिका की जो प्रभा सूचित की है वह प्रकाशमान कैसी होती ? फिर तो वह छिपी हुई प्रभा रहजाती ! और फिर सरोवर के किनारे बैठी हुई राजहंसिनी की उपमा भो ठीक नहीं बैठ सकती। ધર્મકથાની સભામાં શોભાને પામ્યા છે. કેવી શોભાને પામ્યા છે? જેમકે જેના કિનારે રાજહંસી બેઠાં હોય તે તળાવ સુશોભિત થાય છે. જેના કિનારે રાજહંસી બેઠાં હોય તે તળાવ જેવી રીતે સુમિત હોય છે તે પ્રમાણે મુખ પર બાંધેલી અને ઝગમગાટ શેભાયમાન મુખવસ્ત્રિકાથી વિક્રમ રાજા વ્યાખ્યા પરિષ–(સભા)માં શોભતા હતા. અથવા હાથથી મુખવસ્ત્રિકા પકડી હોતે તે તે મુખવસ્ત્રિકાની દીપ્તિ-પ્રકાશ थेवीथा 5त. मेवी स्थितिमा 'राजन्मुखवस्तिकः' मा ५४मा 'राजन् ' શબ્દના પ્રયોગથી મુખવસ્ત્રિકાની જે પ્રભા-(પ્રકાશ) સૂચિત કરી છે, તે પ્રકાશમાન કેવી રીતે થાત? પછી તે તે ઢકાએલી જેવી પ્રભા રહી જાત અને પછી સરેવરના કિનારે બેઠેલાં રાજહંસીની ઉપમા બરાબર ઘટી શકત નહિ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य० १ उ. ७ सू. ६ मुखवस्त्रिकाविचारः ७११ अपर सरसि राजहंसी यथा सर्वथाsनावृता सती सरःशोभां जनयति तथा मुखत्रिका नृपस्य श्रियं करोतीति तात्पर्य करतलेन मुखवत्रिकाधारणे कथमपि नोपपद्यते । तस्मादेतत्सनत्कुमारचरित्रपद्यं विक्रमयशोनृपस्य सदोरकमुखवस्त्रिकाबन्धन - मासीदिति सुस्पष्टमावेदयति । अहो ! महीयान् मोहमहिमा यत्स्वकीयगुरुवराणां संप्रदायवाक्यमपिसमुल्लङ्घयन्तो नवीना न कथञ्चित्त्रपन्ते । विस्तरतस्तु जिज्ञासुभिर्दशवैकालिकसूत्रस्य मत्कृताचारमणिमञ्जूषाटीकायां प्रथमाध्ययने विलोकनीयम् । इसके अतिरिक्त — जैसे राजहंसिनी बिलकुल उघाडी होकर ही सरोवर की शोभा बढाती है उसी प्रकार मुखवस्त्रिका राजा की शोभा बढाती थी । यह तात्पर्य हाथ से मुखवस्त्रिका धारण करने में किसी भी प्रकार नहीं घट सकता । अतः सनत्कुकारचरित्र का यह पथ स्पष्टरूप से प्रकट करता है कि - विक्रम यश राजा के मुख पर डोरासहित मुखवस्त्रिका बंधी थी । अहो ! मोह की महिमा महान है, जिस के प्रभाव से आधुनिक लोग अपने गुरुओं के परम्परा वाक्य का उल्लंघन करते हुए भी लज्जित नहीं होते । विस्तार से समझने की इच्छा रखने वाले मेरी रची हुई दशवैकालिक सूत्र की 'आचारमणिमंजूषा ' - टीका के अन्दर पहले अध्ययन में देख सकते है । એ સિવાય–જેવી રીતે રાજસિની એકદમ ઉઘાડી થઈનેજ સરાવરની શાભા વધારે છે, તેવીજ રીતે મુખવસ્ત્રિકા રાજાની શેાભા વધારતી હતી. આ તાત્પ હાથથી સુખવસ્ત્રિકા ધારણ કરે તેા-અથવા કરવાથી કેાઈ પણ પ્રકારે બની શકે નહિ. એ કારણથી સનત્કુમારચરિત્રનું એ પદ્ય સ્પષ્ટરૂપથી ખતાવી આપે છે કે:-~ વિક્રમયશ રાજાના સુખપર દોરાસહિત મુખવગ્નિકા ખાંધી હતી. અહા! માહુના મહિમા મહાન્ છે, જેના પ્રભાવથી આધુનિક લેાક પેાતાના ગુરુના પરમ્પરા વાકયનું ઉલ્લંઘન કરતા પણ શરમાતા નથી. ८ વિસ્તારથી સમજવાની ઈચ્છા રાખવાવાળા, મારી રચેલી દશવૈકાલિકસૂત્રની आचारमणिमंजूषा ' - टीअनी अंदर पहेला अध्ययनभां लेई राडे छे, Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ७१२ आचारागसूत्रे __इति ब्रवीमि, इति-एतत्सर्वं ब्रवीमि-भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथयामीत्यर्थः ॥ सू० ६॥ अथ पड्जीवनिकायारम्भकरणेन कर्मवन्धो भवतीत्याह-एथपि. इत्यादि । मूलम्एत्थंपि जाण उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणाविणयं वयंति, छन्दोवणीया अज्झोववण्ण आरंभसत्ता पकरंति संगं ॥ ५० ७॥ छायाअवापि जानीहि उपादीयमानाः, ये आचारो न रमन्ते, आत्ममाणा विनय वदन्ति, छन्दोपनीता अध्युपपन्नाः, आरम्भसक्ताः प्रकुर्वन्ति सङ्गम् ॥ सू० ७॥ सुधर्मा स्वामी कहते हैं-यह सब भगवान् के समीप जैसा सुना है वैसा कहता हूँ ! सू० ३ ॥ ___ अब यह कहते हैं कि-षड्जीवनिकाय का आरंभ करने से कर्मबंध होता है:'एत्थंपि.' इत्यादि। मूलार्थ--वायुकाय के विषय में भी आरंभ करने वाले, कर्मों से बद्ध होते हैं, ऐसा समझो । जो आचार में रमण नहीं करते आरम्भ करते हुए भी अपने को विनय (चारित्र) वाले मानते है, इच्छानुसार चलते है, गृद्ध हैं और आरम्भ में आसक्त हैं वे कर्मों उपार्जन करते हैं । सू० ७॥ સુધર્મા સ્વામી કહે છે–આ સર્વ ભગવાનની સમીપમાં જેવું સાંભળ્યું છે ते ४९ छु. ॥६॥ હવે એ કહે છે કે–ષજીવનિકાયનો આરંભ કરવાથી કમબંધ થાય છે'एत्यंपि.' त्याहि. મૂલાઈ–વાયુકાયના વિષયમાં પણ આરંભ કરવાવાળા, કર્મોથી બદ્ધ થાય છે એ પ્રમાણે સમજે. જે આચારમાં સ્મણ કરતા નથી, આરંભ કરતા થકા પણ પિતાને વિનય (ચારિત્ર) વાળા માને છે, ઈચ્છાનુસાર ચાલે છે, ગૃદ્ધ છે, અને આરંભમાં मासत छ, ते भान जपान ४२ छे. ॥ सू० ७॥ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा रचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ. ७ सृ. ६ पजीवनिकायारम्भदोपः ७१३ टीका अत्रापि = एतस्मिन वायुकायेऽपि, अपिशब्दात् अवशिष्टे पृथिव्यादिचतुष्के स्थावरे काये च ये भोगलोलुपाः स्वार्थवशगाः आरम्भं कुर्वन्ति, ते उपादीयमानाः = ज्ञानावरणीयादिकर्मभिर्बध्यमाना भवन्तीत्येवं जानीहि । 'एकजीवारम्भप्रवृत्तः शेषजीवनिकायारम्भजनितकर्मभिर्वद्धो भवतीत्येवं विद्धीस्यर्थः । के पुनः पृथिव्याद्यारम्भकरणेन शेषजीवारम्भजन्यकर्मभिरपि बध्यमाना भवन्तीति जिज्ञासायामाह - 'ये आचारे न रमन्ते इति । " - 'ये आचारे ज्ञानदर्शनादिपञ्चविधाचारे न रमन्तेन धृतिं कुर्वन्ति, तान् कर्मभिर्वध्यमानान् जानीहि । के पुनराचारे न रमन्ते ? दण्डिशाक्यादयः । कथमेतद्विज्ञायते ? इति जिज्ञासायामाह - ' आरभमाणा विनयं वदन्ति ' टीकार्थ - इस वायुकाय के विषय में भी - (अपि) शब्द से पृथ्वी आदि अन्य स्थावरों में तथा त्रसंकाय में जो भोगों के लोलुप और स्वार्थपरायण होकर आरम्भ करते है, वे ज्ञानावरण आदि कर्मों से बद्ध होते हैं, ऐसा समझो । तात्पर्य यह है कि - एक जीव के आरम्भ में प्रवृत्ति करने वाला शेष जीवनिकायोंके आरम्भ से उत्पन्न होने वाले कर्मों से भी बद्ध होता है । ऐसे कौन हैं जो पृथ्वी आदि एक कायका आरम्भ करके शेष जीवनिकायों के आरम्भ से होने वाले कमद्वारा बद्ध होते है ? इस का समाधान करने के लिए कहते है - 2 जो ज्ञानाचार दर्शनाचार आदि पाँच आचारों में स्थिर नहीं होते उन्हें कर्मबंध होता है, ऐसा जानो । आचार में कौन स्थिर नहीं होते ? दण्डी तथा शाक्य आदि । यह कैसे ज्ञात हुआ ? इसके उत्तर में कहते हैं - वे पृथ्वीकाय आदि की विराधना 2 ટીકા આ વાયુકાયના વિષયમાં પણ ‘અપિ' શબ્દથી પૃથ્વી આદિ અન્ય સ્થાવામાં તથા ત્રસકાયમાં જે ભાગેાના લાલચુ અને સ્વા પરાયણ થઈને આરંભ કરે છે. તે જ્ઞાનાવરણ આદિ કર્માંથી અદ્ધ થાય છે. એ પ્રમાણે સમજો. તાત્પય એ છે કે-એક જીવના આરભમાં પ્રવૃત્તિ કરવાવાળા માકીના જીવ– નિકાયાના આરંભથી ઉત્પન્ન થવાવાળા કર્મોથી પણ બદ્ધ થાય છે. એવા કેાણુ છે કે જે પૃથ્વી આદિ એક કાયના આરંભ કરીને માકીના જીવ– નિકાચાના આરભથી થનારા કર્મોદ્વારા થાય છે? તેનું સમાધાન કરવા માટે કહે છેઃજે જ્ઞાનાચાર-દર્શાનાચાર આદિ પાંચ આચારમાં સ્થિર નથી થતા તેને કअन्ध थाय छे, थे प्रभाही लो આચારમાં કાણુ સ્થિર નથી રહેતા ? દડી અને શાકય આદિ, એ કેવી રીતે જાણ્યુ ? તેના ઉત્તરમાં કહે છેઃ-તે પૃથ્વીકાય આદિની વિરાધના प्र. आ.-९० - . Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ आचाराङ्गसूत्रे इति । आरभमाणाः पृथिव्यादीन् पीडयन्तोऽपि विनयं = कर्मणां विनयाद् विनयः संयमस्तं, वदन्ति == 'वयमेव संयमि सेवनपराः ' इति निःशङ्क निगदन्तीत्यर्थः । ननु स्वात्मानं संयमिनं मन्यमानास्ते कस्मात्पृथिव्यादिजीवहिंसनपराः १ इति जिज्ञासायां हेतुगर्भविशेषणपदद्वयमाह-'छन्दोपनीताः ' ' अभ्युपपन्नाः ' इति । छन्दोपनीताः 'छन्दः स्वाभिप्रायः तेनोपनीताः स्वतन्त्राः शास्त्रविरूद्ध विचारशीला इत्यर्थः । तथा यद्वा छन्दः - अभिप्रायः = इच्छा, विषयाभिलापस्तेनोपनीताः, 'अभ्युपपन्नाः, ' अधि=अधिकम् अतिशयेन उपपन्नाः = तद्गतचित्ताः विषयसंनिविष्टचित्ताः विषयभोगार्थमातुरा इत्यर्थः । यतश्छन्दोपनीता अभ्युपपन्नाश्च तस्मात्ते पृथिव्यादीन् विहिंसन्तीति भावः । एवं पृथिव्यादिहिंसनेन पुनः कर्मबन्धं प्राप्नोतीत्याह - ' आरम्भसक्ताः' इत्यादि । आरम्भः = सावद्यव्यापारः, करते हुए भी अपने आपको निश्शक होकर संयमी कहते हैं । वे यह मानते हैं कि हम ही संयम का सेवन करने में तत्पर हैं । • वे लोग अपने आपको संयमी मानते हुए भी पृथ्वीकाय आदि के जीवों की हिंसा में तत्पर क्यों होते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर दो विशेषण कहते हैं, जिन में हेतु छिपा है'छन्दोपनीत ' और 'अध्युपपन्न' छन्द का अर्थ है-अपना अभिप्राय, उससे स्वतंत्र अर्थात् शास्त्र से विरुद्ध विचार करने वाले । अथवा छन्द का अर्थ इच्छा है । कहाँ विषयभोगों की अभिलाषा को छन्द कहा है, उस में जो स्वतंत्र हों । तथा अध्युपयन्न अर्थात् विषयों में अत्यन्त आखक्त-विषयभोगों के लिए आतुर | तात्पर्य यह है कि - छन्दोपनीत और अध्युपपन्न होने के कारण वे पृथ्वी आदि की हिंसा करते हैं और कर्मों का बंध करते हैं । आरम्भ કરવા છતાંય પણ પાતે-પેાતાને નિઃશંક થઈને સંયમી કહે છે. તે એવું માને છે કે “અમે ણુ સંયમનું સેવન કરવામાં તત્પર છીએ. તે લેાક પેાતે-પેાતાને સંયમી માનતા થકા પણ પૃથ્વીકાય આદિના જીવાની હિંસામાં તત્પર શા માટે હાય છે? એવી જીજ્ઞાસા થતાં એ વિશેષણ કહે છે જેમાં હેતુ छुपाये। छे 'छन्दोपनीत' भने 'अध्युपपन्त' 'छन्' नो अर्थ छे पोताना अलिप्राय तेनाथी સ્વતંત્ર અર્થાત્ શાસ્ત્રથી વિરૂદ્ધ વિચાર કરવાવાળા, અથવા છન્દના અર્થે ઇચ્છા છે. અહિં વિષયભાગાની અભિલાષાને છન્દ કહેલ છે. તેમાં જે સ્વતંત્ર હાય. તથા અધ્યુપપન્ન અર્થાત્ વિષયેામાં અત્યન્ત આસકત–વિષયભાગા માટે આતુર, તાત્પર્ય એ છે કે છન્દોપનીત અને અધ્યુપપન્ન હોવાના કારણે તે પૃથ્વી આદિની હિંસા કરે છે અને કર્મોના બંધ કરે છે. આરંભ અર્થાત્ સાવધ વ્યાપારમાં પ્રવૃત્ત પુરુષ જ્ઞાનાવરણીય Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचारचिन्तामणि -टीका अध्य. १ उ. ७ ० ७ पड्जीवनिकायारम्भदोषः ७१५ तत्र सक्ताः=प्रवृत्ताः, सङ्ग=सज्यन्ते श्लिष्यन्ते जीवा अनेनेति सङ्गः = ज्ञानावरणी - यादिकं कर्म तं सङ्गप्रकुर्वन्ति = समुत्पादयन्ति । एवं षड्जीवनिकायारम्भकारिणः खलु कर्मबन्धनपराधीनतां समुपेत्य जन्मजरामरणेष्ट वियोगा निष्टसंयोगेप्सिताऽसिद्धिविविधव्याधिजनितदुःख संकुलेघोरतरसंसारदावानले पुनः पुनः स्वात्मानमिन्धनीकुर्वन्तीति भावः । सू० ७ ॥ अथ यस्तु पृथिव्यादिषड्जीवनिकायारम्भकरणाद्विनिवृत्तः स एव मुनिर्भवतीस्युद्देशार्थमुपसंहरन्नाह - ' से वसुमं. ' इत्यादि । मूलम् — से वसुमं सव्वमण्णागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्जं पावं कम्मं णो अण्णेसि ॥ सू० ८ ॥ छाया स वसुमान् सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन आत्मना अकरणीयं पापं कर्म नो अन्वेषयेत् ॥ सू० ८ ॥ अर्थात् सावद्य व्यापार में प्रवृत्त ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को ऊपार्जन करते है । इस प्रकार षड्जीवनिकाय का आरम्भ करने वाले कर्मबन्धन के अधीन होकर जन्म मरण, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इष्ट की असिद्धि तथा विविध प्रकार की व्याधियों से उत्पन्न होने वाले दुःखों से व्याप्त, घोरतरसंखाररूपी दावानल में अपने आत्मा को ईंधन बनाते हैं | सू० ७ ॥ जो पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय के आरम्भ से निवृत्त है वही मुनि होता है; इस उद्देश के अर्थ का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार कहते हैं: - ' से वसुमं.' इत्यादि । मूलार्थ - वही वसुमान् है (सम्यक्त्व - चारित्रवान् सम्यग्दृष्टि है) जो यथार्थ पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानात्मा से पाप को अकरणीय समझकर नहीं करता है | सू० ८ ॥ આદિ કર્માનું ઉપાર્જન કરે છે. આ પ્રમાણે ષડ્થવનિકાયના આરંભ કરવાવાળા કર્મબન્ધને આધીન થઈને ४न्भु, ४रा, भरणु, छष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, छरछेसी वस्तुनी सप्राप्ति, तथा વિવિધ પ્રકારની વ્યાધિઓથી ઉત્પન્ન થનારાં દુ:ખાથી વ્યાપ્ત, ઘેારતર સંસારરૂપી हावानसभां पोताना आत्माने धन-(अणतयु३५) मनावे छे. ॥ सू० ७ ॥ જે પૃથ્વી આદિ ષડ્થવનિકાયના આરભથી નિવૃત્ત છે તેજ મુનિ હેાય છે, २मा उद्देशना अर्थत। उपस हार अरीने शास्त्रर उडे छे:-' से वसुमं.' त्याहि. મૂલા તેજ વસુમાવ્ છે (સમ્યક્ત્વ-ચારિત્રવાન્ સમ્યગ્દષ્ટિ છે) જે યથાર્થ પદાર્થોને જાણવાવાળા જ્ઞાનાત્માથી પાપને અકરણીય (કરવા ચેાગ્ય નથી એવું) સમજીને કરતા નથી. સૂ॰ ૮।। Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ आचारागसूत्रे - टीका___ यस्तु पड्जीवनिकायारम्भनिवृत्त्या संयमपालनपरायणः, स वमुमान , द्विविधानि हि वसूनि सन्ति द्रव्यभावभेदात् , तत्र द्रव्यवसूनि-मुवर्णादीनि, भाववसनि-सम्यक्त्वादीनि, अत्र भाववसुतात्पर्यको वसुशब्दः, तानि वसूनि यस्य यस्मिन् वा सन्ति स वसुमानित्यर्थः, सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेन=सर्वाणि समन्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञान यथावस्थितविषयग्राहिसर्वेविषयकज्ञानवान , तेन । यद्वा-सर्वेषु द्रव्यपर्यायेपु समन्वागत-सम्यमाप्तं तत्तद्विषयमाकलय्य सर्वद्रव्यपर्यायगतं प्रज्ञानं यस्य स सर्वसमन्वागतमज्ञानः, तेन, आत्मना, अकरणीयम् अकर्तयन्स् , ऐहिकपारलौकिकसुखविघातकत्वादनाचरणीयम् , इति मत्वा, पापं कर्मप्राणातिपात-मृपावादा-दत्तादान-मैथुन-परिग्रह-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष टीकार्थ-जो पुरुष षड्जीवनिकायसंबंधी आरम्भ का त्याग करके संयम के पालन में तत्पर होता है वही वसुमान् हैं । वसु के दो भेद हैं-(१) द्रव्यवसु और (२) भाववसु । स्वर्ण आदि धन द्रव्यवसु कहलाता है, और तप संयमादिरूप ऋद्धि को भाववसु कहते है । यहाँ 'वसु' शब्द से भाववसु ही समझना चाहिए । वसु जिसे प्राप्त हो वह वसुमान है, अर्थात् सम्यक्त्व आदि से युक्त पुरुप वसुमान् कहलाता है । ___ जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में जानने वाला सर्वग्राही ज्ञान 'सर्वसमन्वागत प्रज्ञान' कहलाता है । अथवा समस्त द्रव्यों और पर्यायों को यथार्थरूप से जानने वाला ज्ञान 'सर्वसमन्वागत प्रज्ञान' कहलाता है। ऐसे ज्ञानरूप आत्मा से पाप को इस लोक तथा परलोकसंबंधी सुखों का घातक होने से अकर्तव्य समझकर (१) प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) अदत्तादान (४) मैथुन । (५) परिग्रह (६) क्रोध, (७) मान (८) माया (९) लोभ ટીકા–જે પુરૂષ ષડૂજીવનિકાયસંબંધી આરંભને ત્યાગ કરીને સંયમના पासनमा तत्५२ थाय छे. ते वसुमान् (सभ्यष्टि ) छे. वसुना में ले छे. (१) द्रव्यવસુ અને (૨) ભાવવસુ, સુવર્ણ આદિ ધન દ્રવ્યવસુ કહેવાય છે. અને સમ્યક્ત્વ આદિ જય ઋદ્ધિને ભાવવસુ કહે છે. અહિં “વસુ શબ્દથી ભાવવસુ જ સમજવું જોઈએ. વસુ જેને પ્રાપ્ત હોય તે વસુમાન્ છે. અર્થાત્ સમ્યક્ત્વ આદિથી યુક્ત પુરૂષ વસુમાન કહેવાય છે. જે વસ્તુ જેવી છે તેને તેવા રૂપમાં જાણવાવાળા સર્વગ્રાહી જ્ઞાન “સર્વસમન્હાગત પ્રજ્ઞાન, કહેવાય છે. અથવા સમસ્ત દ્રા અને પર્યાને યથાર્થ રૂપથી જાણવા વાળું જ્ઞાન “સર્વસમન્વાગત પ્રજ્ઞાન કહેવાય છે. એવા જ્ઞાનરૂપ આત્માથી પાપને આ લેક તથા પરલોક-સંબંધી સુખનું ઘાતક હોવાથી અકર્તવ્ય સમજીને (૧) પ્રાણાતિપાત, (२) भृषापा, (3) महत्तहान, (४) भैथुन, (५) परियड, (6) 14, (७) भान, Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंचारचिन्तामणि-टीका अध्य. १ उ. ७ सु. ८ वायुविराधनापरिहारः ७१७ -कलहाऽभ्याख्यान-पैशुन्य-परपरिवाद-रत्यरति-मायामृपा-मिथ्या-दर्शनशल्याभिधानमष्टादशप्रकारं नान्वेषयेत् न स्वयं कुर्यात्, न चान्यैः कारयेत्, न चान्यं कुर्वाणमनुमोदयेदित्यर्थः । योऽयमात्मा स्वकीयप्रज्ञानेन सर्वद्रव्यपर्यायसमाकलनयोग्यतां धारयति, येन च मोक्षमार्गावलम्बनतः शिवपदमपि शक्यते गन्तुम्, तस्यात्मनः पुनरधःपतनकारित्वात् पापं कर्म सर्वथा परित्याज्यमिति विभाव्य षड्जीवनिकायारम्भकरणासर्वथा विनिवर्तितव्यमिति भावः ।। सू०८ ॥ षड्जीवनिकायारम्भस्य सर्वथा परिहार एव मुनित्वं प्रापयतीत्याह--'तं परिणाय.' इत्यादि। तं परिणाय मेहावी णेवसयं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभेज्जा .णेवऽण्णेहिं छज्जीवनिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवण्णे छज्जीवनिकायसत्थं - (१०) राग (११) द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) पैशुन्य (१५) परपरिवाद (१६) रति-अरति (१७) माया-मृषा और (१८) मिथ्यादर्शनरूप अठारह प्रकार का पाप जो स्वयं नहीं करता है, दूसरो से नहीं कराता है और दूसरे करने वाले का अनुमोदन नहीं करता है वही पुरुष वसुमान् है। ' तात्पर्य यह है कि-जो आत्मा अपने प्रज्ञान से समस्त द्रव्यों और पर्यायों को भली भांति जानने की योग्यता धारण करता है और जो मोक्ष-मार्ग का आश्रय लेकर मुक्तिपद भी प्राप्त कर सकता है उसको 'आत्मा का अधःपतन करने वाले पापकृत्य सर्वथा त्याज्य है' ऐसा विचार करके षड्जीवनिकाय के आरंभ से विरत हो जाना चाहिए ॥सू० ८॥ 1 षट्काय के आरंभ का त्याग ही साधुता प्राप्त कराता है, यह बात आगे कहते है:-'तं परिण्णाय.' इत्यादि । (८) भाया, (6) , (१०) २१, (११) द्वेष, (१२) ४१3, (१३) २मस्याभ्यान, (१४) शुन्य, (१५) ५२परिवाह, (१६) २ति-मति, (१७) भाया-भूषा मन (१८) મિથ્યાદર્શનરૂપ અઢાર પ્રકારનાં જે પાપ તેને પોતે કરતા નથી, બીજા પાસે કરાવતા નથી, અને બીજા કરવાવાળાને અનુમોદન આપતા નથી. તેજ પુરૂષ વસુમાન્ છે. તાત્પર્ય એ છે કે –જે આત્મા પોતાના પ્રજ્ઞાનથી સમસ્ત દ્રવ્યો અને પર્યાને રૂડી રીતે જાણવાની યોગ્યતા ધારણ કરે છે, અને જે મેક્ષમાગને આશ્રય લઈને મુક્તિપદ પણ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, તેને, “આત્માનું અધઃપતન કરનારાં પાપકૃત્ય સર્વથા ત્યાજ્ય છે? એ વિચાર કરીને ષજીવનિકાયના આરંભથી નિવૃત્ત થઈ જવું જોઈએ. સૂ૦ ૮૫ ષડૂકાયના આરંભનો ત્યાગજ સાધુતા પ્રાપ્ત કરાવે છે. એ વાત આગળ કહે છે – 'तं परिण्णाय.' त्यादि. Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ आचाराङ्गमत्रे समारंभंते समणुजाणेज्जा । जस्सेते छज्जीवनिकायसत्थसमारंभा परिणाया भवंति, से हु मुणी परिणायकम्मे-त्ति वेमि ॥ सू० ९॥ ॥सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ १ ॥ ७॥ । आयारसुत्ते पढमज्झयणं समत्तं ॥१॥ छायातत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्रं समारभेत, नैवान्यैः षड्जीवनिकायशस्त्रं समारम्भयेत्, नैवान्यान् षड्जीवनिकायशस्त्रं समारभमाणान् समनुजानीयात् । यस्यैते षड्जीवनिकायशस्त्रसमारम्भाः परिज्ञाता भवन्ति स खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा, इति ब्रवीमि ॥ सू० ९॥ ॥ सत्पम उद्देशः समाप्तः ॥ १७ ॥ ॥ आचारसूत्रे प्रथमाध्ययनं समाप्तम् ॥ टीकातत्-पड्जीवनिकायारम्भणं, परिज्ञायज्ञपरिज्ञया 'कर्मबन्धस्य कारणं भवतीति बुद्ध्वा मेधावी हेयोपादेयविवेकनिपुणः, नैव स्वयं षड्जीवनिकायशस्त्र समारभेत । अन्यैर्नैव समारम्भयेत्-नैव प्रयोजयेत् । अन्यान् षडूजीवनिकायशस्त्रं समारभमाणान् नैव समनुजानीयात् नैवानुमोदयेत् । यस्यैते षड्जीवनिकायशस्त्रसमारम्भाः-पडूजीवनिकायानां शस्त्रैः मूलार्थ--यह बात जानकर बुद्धिमान् पुरुष षड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से षड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ न करावे, और षड्जीवनिकायसंबंधी शस्त्र का समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे । षड्जीवनिकायसंबंधी आरंभ को जो बंध का कारण जान लेता है, वही मुनि है और वही परिज्ञातकर्मा है। ऐसा मैं कहता हूँ॥सू० ८॥ टीकार्थ-घड्जीवनिकाय के आरम्भ को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण जानकर हेय-उपादेय का विवेक रखने वाला पुरुष षड्जीवनिकाय के शस्त्र का स्वयं आरम्भ न करे, दूसरों से न करावे और आरम्भ करने वालों की अनुमोदना न करे। षड्जीवनिकायसंबंधी जो शस्त्र पहले बतलाये जा चुके हैं उनके द्वारा षड्जीवनिकाय को મૂલાથ–એ વાત જાણીને બુદ્ધિમાન પુરૂષ ષડૂજીવનિકાયસંબંધી શસ્ત્રને સમારંભ કરે નહિ, બીજા પાસે ષડૂજીવનિકાયસંબંધી અને સમારંભ કરાવે નહિ, અને ષડૂછવનિકાયસંબંધી શસ્ત્રને સમારંભ કરવાવાળાને અનુમોદન આપે નહિ જીવનિકાયસંબંધી આરંભને જે બંધનું કારણ જાણી લે છે. તેજ મુનિ છે, અને तर परिज्ञाती छे. हुं छुः ॥सू० ८॥ ટીકાથ–ષડૂછવનિકાયના આરંભને જ્ઞપરિજ્ઞાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને હયુઉપાદેયને વિવેક રાખવાવાળા પુરૂષ ષડૂછવનિકાયના શસ્ત્રને પિતે આરંભ કરે નહિ, બીજા પાસે કરાવે નહિ, અને આરંભ કરનારને અનુમોદન આપે નહિ , પહજીવનિકાચસંબંધી જે શસ્ત્ર પ્રથમ બતાવી આપ્યાં છે. તેના દ્વારા પહઝવનિકાયને Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषारचिन्तामणि-टीका अध्य० १ उ.७ सू. ९ उपसंहारः ७१९ स्वस्वशस्त्रैः समारम्भाः पीडाकरसावधव्यापाराः परिज्ञाता:-ज्ञपरिज्ञया बन्धकारणत्वेन विदिता, प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहता भवन्ति स एव परिज्ञातकर्मा त्रिकरणत्रियोगैःः परिवर्जितसकलसावधव्यापारः, मुनिर्भवति । इति एतत् सर्वम् , ब्रवीमि-भगवतः समीपे यथा श्रुतं तथा कथयामि ॥ सू० ९॥ ॥ इत्याचारागसूत्रे आचारचिन्तामणिटीकायां शास्त्रपरिज्ञाख्ये प्रथमाध्ययने सप्तमोदेशः सम्पूर्णः ॥ १-७॥ पीडा पहुँचाने वाले सावध व्यापारों को ज्ञपरिज्ञा से कर्मबंध का कारण जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से त्याग देता है वही पुरुष तीन करण औन तीन योग से सावध व्यापारों का त्यागी मुनि होता है । यह सब भगवान् के मुखारविन्द से जैसा मैंने साक्षात् सुना है वैसाही कहता हूँ ।। सू० ९ ॥ ॥ इति श्री आचारागसूत्रकी आचारचिन्तामणिटीका के हिन्दी-अनुवादमें प्रथम अध्ययनका सातवा उद्देश सम्पूर्ण ॥ १॥ પીડા પહોંચાડવાવાળા સાવદ્ય વ્યાપારને જે જ્ઞપરિસ્સાથી કર્મબંધનું કારણ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાથી ત્યજી દે છે, તે પુરૂષ ત્રણ કરશું અને ત્રણ ભેગથી સાવદ્ય વ્યાપારને ત્યાગી મુનિ હોય છે. આ સર્વે ભગવાનના મુખારવિંદથી જેવું મેં સાક્ષાત્ सालण्युं छेतge 3ई छु.॥ सू०८॥ धतिश्रीमायारागसत्रनी 'आचारचिन्तामणि' आना शुभती अनुपामा चारचिन्तामणि' ASTORIES प्रथम अध्ययननी सातभा देश सम्पूण. ॥ १-७॥ - Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० - आचारागसूत्रे आधे चाध्ययने प्ररूपितमिदं संसारचक्रेऽनिशं, भ्राम्यन् दिक्षु विदिक्षु गच्छति ततश्चात्मा समागच्छति । इत्येवं कथित मही-जल-शिखि-प्राण-द्रमाणां तथा, ___ जीवत्वं त्रस-कायिकस्यचतदारम्भे परिज्ञाऽपि च ॥१॥ इति श्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलित ललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मायक-वादिमानमर्दकश्रीशाहछत्रपति-कोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य ' पदभूषितकोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्रीघासीलालबति विरचितायाम् आचारागसूत्रस्याऽचारचिन्ता मणिटीकायां शस्त्रपरिज्ञाख्यं प्रथममध्ययनं संपूर्णम् ॥ १॥ . . . प्रथम अध्ययन में यह निरूपण किया गया है कि आत्मा संसार चक्र में पडकर नाना दिशाओं में और नाना विदिशाओं में निरन्तर भ्रमण करता रहता है । साथ ही पृथ्वी, अप, तेज, वायु वनस्पति और, त्रस की सचित्तता भी सिद्ध की गई है, और उनकी आरम्भ करने में परिज्ञा भी प्रदर्शित की गई है ॥ १ ॥ ॥ इति श्री-आचारागसूत्रकी 'आचारचिन्तामणि' टीका के, हिन्दी अनुवाद में 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण ॥१॥ પ્રથમ અધ્યયનમાં એ નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે –આત્મા સંસારચક્રમાં પડીને અનેક દિશાઓમાં અને અનેક વિદિશાઓમાં નિરન્તર ભ્રમણ કરતા રહે છે. સાથેજ પૃથ્વી, અપ, તેજ, વાયુ, વનસ્પતિ અને વ્યસની સચિત્તતા પણ સિદ્ધ કરી છે. અને તેને આરંભ કરવામાં પરિજ્ઞા–વિવેક પણ પ્રદર્શિત કરેલ છે. !! ૧ ll ॥धति श्री मायारागसूत्रनी 'आचारचिन्तामणि' टान गुमराती मनुवाहमा 'शस्त्रपरिज्ञा' नामर्नु प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण ॥१॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાતાઓની નામાવલી * - - ' ' E આદ્ય મુરબ્બીશ્રી, મુરબ્બીશ્રી, સહાયક મેમ્બર તથા મેમ્બરની યાદી - - - = = = = = = = ગામવાર કક્કાવારી લીષ્ટ = = . તા. ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા. ૨૮–૨–૧૮ સુધીમાં દાખલ થએલ મેમ્બરે. (૨૫૦ થી ઓછી રકમ આ યાદીમાં સામેલ કરી નથી.) છે શ્રી અખિલ ભારત થે.સ્થા. જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીઆ કુવા રેડ - ગ્રીન લોજ પાસે રાજકેટ. Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરખ્ખીશ્રીએ-૪ ( એછાસા એછી રૂા. ૫૦૦૦ ની રસ આપનાર) નખર નામ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાન્તીલાલ મંગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૦૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચંદ કાલીદાસભાઈ વારીયા. હા. શેઠ લાલચંદભાઈ, જેચંદભાઈ નગીનભાઈ, વૃજલાલભાઈ, તથા વધ્રુમદાસભાઈ ભાણુવડ ૬૦૦૦ કાઠારી જેચંદભાઈ અજરામર હા. હરગેાવીદભાઈ ચદભાઈ ૩ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઇ ૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વમાન કોઠારી હા. કહાનદાસભાઈ તથા વેણીલાલભાઈ ર્દોશી પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ ર મ્હેતા ગુલામચંદ પાનાચંદ મુખીશ્રીએ-૨૨ ( ઓછામાં એછી રૂા. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર ) ૪ સ્વ. પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે હૈ. ભાવસાર ભાગીલાલ છગનલાલ . ૫ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય સંઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલામચંદ છુ, શેઠ શામજીભાઈ વેલજીભાઈ વીરાણી ૮ નામદાર ઠાકર સાહેબ લખધીરસ ઢુજી મહાદુર ૯ શેઠ લહેરચંદ કુંવરજી હા. શેઠ ન્યાલચંદ વહેચ ૧૦ શાહ છગનલાલ હેમચઢ વસા હા, માહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ ૧૧- શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ ૧૨ શ્વેતા સામ તુલસીદાસ તથા તેમનાં ધર્મપત્નિ . સૌ. મણીગૌરી મગનલાલ રાજકાટ પરપ૧ સેાલાપુર ૫૦૦૧ ૧૩, શ્વેતા પાપટલાલ માવજીભાઇ ૧૪ _દેશી કપુરચંદ અમરીં હા. દલપતરામભાઇ ૧૫ મગડી જગજીવનદાસ રતનશી '' જેતપુર ૩૬૦૫ રાજાટ ૩૬૦૪ ૩૨૮૯ના 27 અમદાવાદ ૩૫૧ ઘાટકીપર ૩૫૦ જામનગર ૩૧૦૧ શકાટ ૨૫૦૦ મારી ૨૦૦૦ સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ સુમઇ ૨૦૦૦ મારી ૧૯૬૩ રતલામ ૧૫૦૦ જામજોધપુર ૧૩૦૧ ૧૦૦૨ ,, દામનગર ૧૦૦૨ Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૧૭ શેઠ માણેકલાલ ભાણાજીભાઈ પારમ દર ૧૮ શ્રીમાન ચંદ્રસિંહજી મ્હેતા ( રેલ્વે મેનેજર સાહેબ) કલકત્તા ૧૯ મ્હેતા સામચંદ નેણસીભાઇ (કરાંચીવાલા ) શાહ હરીલાલ અનેાદભાઈ ૨૦ ૨૧ કાઢારી છબીલદાસ હરખચંદભાઈ ૨૨ કાઢારી રંગીલદાસ હરખચંદભાઈ સહાયક મેમ્બરા-૩૬ (ઓછામાં આછી રૂા. ૫૦૦ ની રકસ આપનાર) ૧ શાહ રંગજીભાઇ માહનલાલ ૨ મેાદી કેશવલાલ હરીચંદ્ન 3 શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સધ હા. શેઠ ઝુંઝાભાઈ વેલસીભાઇ ૪ શેઠ નરાત્તમદાસ એઘડભાઇ ૫ શેઠ રતનશી હીરજીભાઇ હા. ગારધનદાસભાઇ હું ખાટવીયા ગીરધર પ્રમાણંદ હા. અમીચંદભાઇ છ મારમીવાળા સંધવી દેવચંદ નેણશીભાઇ તથા તેમના ધર્મપત્નિ અ. સૌ. મણીબાઇ તરફથી હા. મુળચંદ્ર દેવચંદ (કરાંચીવાળા) ૮ વારા મણીલાલ પેપટલાલ ગાસળીયા હરીલાલ લાલચ તથા અ. સૌ. ચંપાબેન ગેાસળીયા ૧૦ શેઠ પ્રેમચંદ માણેકચંદ તથા અ. સૌ. સમરતબેન ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ મારમી ૧૦૦૧ ખભાત ૧૦૦૧ સુમઈ ૧૦૦૦ સિહાર ૧૦૦૦ ૧૧ શેક ઇશ્વરલાલ પુરૂષાતમદાસ ૧૨ શેઢ ચંદુલાલ છગનલાલ ૧૩ શાહે શાન્તીલાલ માણેકલાલ ૧૪ શેઠ શીવલાલ ડંમરભાઇ (ઇરાચીવાળા ) ૧૫ કામદાર તારાચંદ પાપટલાલ ધારાજીવાળા ૧૬ શ્વેતા માહનલાલ કપુરચંદ ૧૭ શેઠ ગાવીદજી પેપટભાઇ ૧૮.શેઠ રામજીભાઇ શામજી વીરાણી અનંદાવાદ સામરમતી ૭૫૦ વઢવાણુ શહેર જોરાવરનગર ૭૦૦ જામજોધપુર ૫૫૫ ખાખીજાળીઆ ૫૨૭ મલાડ અમદાવાદ ( રાજસીતાપુરવાળા ) અમદાવાદ અમદાવાદ ૭૫૧ ૭૫૦ ૫૧૧ ૧૦૨ ૧૦૨ ૫૦૨ અમદાવાદ ૫૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ લીમડી ૫૦૧ રાજકેટ ૫૦૦ ગુજફાટ ૫૦૦ રાજકોટ ૫૦૦ રાજકેટ ૫૦૧ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ સ્વ. પિતાશ્રી નંદાજીના સ્મરણાર્ચ હા. વેણીચંદ શાન્તીલાલ ( જાનુઆવાળા ) ૨૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ હા. શેઠ ઠાકરશી ૨૧ શેઠ તારાચંદજી પુખરાજજી શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૨૨ ૧૫૦ શેઠ શેષમજી જીવરાજજી "" ૧૨૫ અનરાજજી લાલજી ૧૨૫ ધુડચંદજી રૂપચંદજી ૧૦૦ દેગડુમલજી ચાંદમલજી ૫૦૦ ૨૩ મ્હેતા મૂળચંદ રાઘવજી હા. મગનલાલભાઇ તથા દુલ ભજીભાઈ ધ્રાફા ૫૦૦ ૨૪ શેઠ હરખચંદ પુરૂષાત્તમ હા. ઇન્દુકુમારભાઇ ચારવાહ ૫૦૧ ૨૫ શેઠ કેસરીમલજી વસતીમલજી ગુગલીયા . રાણાવાસ ૫૦૧ ૨૬ સ્થા. જૈનસંઘ હા. બાટવીયા અમીચઢ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીઆ ૫૦૧ ૨૭ શેઠ ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ ૩૦ ૩૧ હા. કુલચંદભાઇ, નાગરદાસભાઈ તથા જમનાદાસભાઈ મુંબઈ ૫૦૧ ૨૮ શેઠ મણીલાલ માહનલાલ ડગલી હા. મુળજીભાઇ મણીલાલ મુઅ ૫૦૧ સ્વ. કાંતીલાલભાઇના સ્મરણાર્થે હા, શેઠે ખાલચંદ સાકરચંદ મુંબઈ ૫૦૧ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી ( જેતપુરવાળા ) ૨૯ શાહે જયંતીલાલ અમૃતલાલ ૩૨ વેારા મણીલાલ લક્ષ્મીચંદ ૩૩ શેઠે ગુલામચંદ ભુદરભાઈ ૩૪. મહાન ત્યાગી મેન ધીરજકુંવર ચુનીલાલ મ્હેતા ૩૫ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈનસોંધ . ૩૬ મેઘનગર કરસનજી થાનગઢ ઔર ગામાદ ઔર ગામાદ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ ! ♥ ૫ ૧ શેઠે ગીરધરલાલ કરમચંદ ૨ 3 * ૩૧૬ મેમ્બરાનું ગામવાર લીસ્ટ અસદાવાદ તથા પરા શેઠ ટાલાલ વખતચંદ હસ્તે ફકીરચંદભાઈ શાહે કાન્તીલાલ ત્રીભાવનદાસ શાહે પાચાલાલ પીતામ્બરદાસ શાહુ પેપઢલાલ માહનલાલ ૫૦૧ ૫૦૦ ૫૦૦ ૫૦૦ મુખઈ ૫૦૧ શીવ ૫૦૧ શીવ ૫૦૧ ખારાડ ૫૦૧ ૫૦૧ ધ્રાફા ૫૦૧ ૫૦૧ ભાણવડ રાજકાટ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ર૫૧ ૫૧ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ ૨૫૦ ૭ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૮ શેઠ લાલભાઈ મંગળદાસ ૨૫૧ ૯ સ્વ. અમૃતલાલ વર્ધમાનના સમરણાર્થે હસ્તે કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૧૦ ભાવસાર ભેગીલાલ જમનાદાસ (પાટણવાળા) ૨૫૧ ૧૧ શાહ નટવરલાલ ચંદુલાલ ૨૫૧ શાહ નરસિંહદાસ ત્રિીભવનદાસ ૨૫૧ ૧૩ શ્રી શાહપુર દરીયાપુરી આઠકટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. વહીવટકર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરૂષોતમદાસ ૨૫૬ ૧૪ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા. જનસંઘ હા, ચંદુલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ C/o શાહ બાલાભાઈ મહાસુખરામ ૨૫૧ ૧૬ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૭ શ્રી સુખલાલ ડી. શેઠ હા. ડે. કુ. સરસ્વતીબેન શેઠ ૨૫૧ ૧૮ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા. જૈનસંઘ હ. શાહ કાન્તીલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૯ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૨૫૧ ૨૦ શાહ મેહનલાલ ત્રીકમદાસ ૨૫૧ ૨૧ શ્રી છકેટી સ્થા. જૈનસંઘ હો. શાહ પિચલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૨ શેઠ પોપટલાલ હંસરાજના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ બાબુલાલ પિપટલાલ ર૫૧ ર૩ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા. ભાઈલાલ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૨૪ શાહ નવનીતલાલ અમુલખરાય ૨૫૧ શાહ મણીલાલ આશારામ ૨૫૧ ૨૬ શાહ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૭ શાહ વરજીવનદાસ ઉમેદચંદ ૨૫૧ ૨૮ શાહ રજનીકાન્ત કસ્તુરચંદ ૨૫૧ ર૯ સંઘવી જીવણલાલ છગનલાલ (સ્થા. જૈન) ૨૫૧ ૩૦ શાહ શાંતિલાલ મોહનલાલ ધાંગધ્રાવાળા ૨૫૧ ૩૧ અ. સૌ. બેન રતનબાઈ નાચા હા. શાહ ધુલાઇ ચંપાલાલજી રપ૧ ૩ર શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૨૫૧ ૩૩ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠેકેટી સ્થા. જૈન ઉપાશ્રય હા. ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી સાદડીવાળા ૨૫૧ - ૩૫ શેઠ લાલચંદ મીશ્રીલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૬ સ્વ. પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારમલજી બરડીયાના સ્મરણાર્થે હા. મૂળચંદ જવાહરલાલ ૩૭ સ્વ. ભાવસાર બબાભાઈ (મંગળદાસ) પાનાચંદના સ્મરણાર્થે હા. તેમના ધર્મપત્નિ પુરીબેન ૩૮ સ્વ. પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ. માતુશ્રી મૂળીબાઈના સ્મરણાર્થે હ. કાલભાઈ ઠારી ૩૦૧ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૨૫૧ ૪૦ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા. પાર્વતીબેન ૨૫૧ ૪૧ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપરવાળા (સાબરમતી) ૨૫૧ ૪૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ (સાબરમતી) ૨૫૦ ૪૩ બીપીનચંદ્ર તથા ઉમાકાંત ચુનીલાલ પાણી (રાણપુરવાળા) ૩૦૧ અમલનેરા ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ ગાંડાલાલ ભીખાલાલ આણંદ ૧ રમણીકલાલ એ, કપાસી હા. મનસુખલાલભાઈ ૨૫૧ આસનસેલ ૧ બાવીસી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ મણીબાઈ તરફથી હા. રસીકલાલ, અનીલકાંત, વિદરાય. આટકેટ ૧ શાહ ચુનીલાલ નારણજી ઉદેપુર ૧ શેઠ મોતીલાલજી રણજીતલાલજી હીંગડ ૨૫૧ ૨ શેઠ મગનલાલજી બાગટેચા ૨૫૧ ૩ અ.સૌ. બહેન ચંદ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલ નાહરનાં ધર્મપત્નિ હા. શેઠ રણજીતલાલજી હીંગડ ૨૫૬ ૪ સ્વ. શેઠ કાળલાલજી લોઢાના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ દેલતસિંહજી લેઢા ૨૫૧ ૫ સ્વ. શેઠ પ્રતાપભલજી સાખલાના સ્મરણાર્થે હા, પ્રાણલાલ હીરાલાલ સાખલા ૨૫૧. ૩૦૧ س پیر ૨૫૧ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૬ પૂજ્ય પિતાશ્રી મોતીલાલજી મહેતાના સમરણાર્થે હ. રણજીતલાલજી મોતીલાલજી મહેતા ૭ છગનલાલજી બાગચા ઉમરગાવરોડ ૧ શાહ મોહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ સ્વ. બેન સંતોકબેન કચરા હા. ઓતમચંદભાઈ, છોટાલાલભાઈ તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા. શેઠ પ્રતાપભાઈ ૪ સંઘાણી મૂળશંકર હરજીવનભાઈને સ્મરણાર્થે હ. તેમના પુત્ર જયંતીલાલભાઈ તથા રમણલાલ એડન કેમ્પ ૧ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ મહિનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હ. શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨૫૧ ૨ ડે. મયાચંદ મગનલાલ શેઠ હા. ડે. રતનચંદ મયાચંદ ૨૫૧ ૩ સ્વ. નાથાલાલ ઉમેદચંદના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શાહ મણલાલ તલકચંદના સ્મરણાર્થે હા મારફતીયા ચંદુલાલ મણીલાલ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા. દરીયાપુરી જિનસંઘ હા. ભાવસાર દામોદરદાસ ઈશ્વરભાઈ ૫૧ કેલકી ૧ પટેલ ગોવીંદલાલ ભગવાનજી ૨૫૧ ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી તેમના સ્વ. સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) ૩૦૨ ૧ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ ૨૫૧ ખંભાત ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જનસંઘ હ. પટેલ કાન્તીલાલ અંબાલાલ ૨૫૧ ૩ શાહ સાકરચંદ મેહનલાલ ૨૫૧ ૪ શાહ ચંદુલાલ હરીલાલ ૨૫૧ - ખીચન . Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧ ગુદા સ્વ. મહેતા પુનમચંદ ભવાનભાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ દીવાળીબેન લીલાધર ૧ ગોંડલ સ્વ, ખાખંડ વચ્છરાજ તુલસીદાસનાં ધર્મપત્નિ કમળમાઈ તરફથી હા. માણેકચંદભાઇ તથા કપુરચંદભાઈ ૨ પીપળીઆ લીલાધર દામેાદર તરફથી તેમનાં ધર્મ પત્નિ અ. સૌ. લીલાવતી સાકરચંદ કાઠારીના બીજા વરસીતપની ખુશાલીમાં ૩૦૧ 3 કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા. હરીલાલ જીઠાભાઈ ૩૦૧ ગાધરા શાહુ ત્રીભાવનદાસ છગનલાલ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ઘટકણ ઘાલવાડ (થાણા) ૧ મહેતા ગુલામચંદ ગંભીરમલજી ચુડા ( આલાવાડ) ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ હ. રતીલાલ ગાંધી પ્રમુખ જલેસર (માલાસેાર) ૧ શ્રી સ્થા. જૈનસંઘ ર ૧ સંઘવી નાનચંદ પાપટભાઈ થાનગઢવાળા જામજોધપુર શાહે ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા જામનગર ૧ શેઠ છેટાલાલ કેશવજી ર્શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી ૩વારા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ જામખંભાળીઆ ૫૧ ૧ શેઠ વસનજી નારણજી ૨ શ્રી સ્થા. જૈન. સંઘ હા. શ્વેતા રહ્યુછેાડદાસ પરમાણંદ 3 સંઘવી પ્રાભુલાલ લવજીભાઈ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૮૭ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ જુનાગઢ ૧ શાહ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા. હરીલાલભાઈ (હાટીના માળીઓવાળા) ૨૫૧ નારદેવ (મધ્યપ્રાંત) ૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાઘાભાઈ જેતપુર ૧ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા. નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા) ૨ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ ૩ કોઠારી ડેલરકુમાર વેણીલાલ ૨૫૧ જેતલસર ૧ શાહ લક્ષમીચંદ કપુરચંદ ર કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ જનકબેન . તરફથી હા. શાન્તીલાલભાઈ ગોંડલવાળા ૨૫૧ ડભાસ ૧ સ્વ. તુરખીઆ લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપતિ જીવતીબાઈ તરફથી હા. જયંતીભાઈ ડોંડાઈચા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હા. શેઠ ચંપાલાલ મારવે થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરસનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીવનદાસ ૩ શાહ ધારશી પાશવીર હા. સુખલાલભાઈ દહાણુ રેડ (થાણા) ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખંધાર (કરાંચીવાળા) ૨૫૧ દિલ્હી ૧ લાલા પૂર્ણચંદજી જન (સેન્ટ્રલ બેંકેવાળા) ધાર (મધ્યપ્રાંત) ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ૨૫૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૦ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ધાંગધ્રા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન મોટા સંઘ હ. શેઠ માવજીભાઈ જીવરાજ . ૨ સંઘવી નારણદાસ વખતચંદ ૩૦૧ ૩ ઠક્કર નારણદાસ હરગોવીંદદાસ ૨૫૧ ધોરાજી ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મૂળજીભાઈ ૨ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈ સ્મરણાર્થે હા. પટેલ દલીચંદ ભગવાનજી ૩ અ. સૌ. બચીબેન બાબુભાઈ ૪ ધી નવ સૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા. લીમીટેડ ૨૫૧ ૫ સ્વ. રાયચંદ પાનાચંદ શાહના સ્મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ રાયચંદ ૩૦૧ ૬ ગાંધી પિપટલાલ જેચંદ ૨૫૦ ધંધુકા ૧ ભાવસાર ખેડીદાસ ગણેશભાઈ ૨ શેઠ પોપટલાલ ધારશી ૨૫૧ ૩ સ્વ. ગુલાબચંદભાઈના સમરણાર્થે હા. વેરા પોપટલાલ નાનચંદ ૨૫૧ ૪ વસાણું ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ ૨૫૧ નંદુરબાર ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ છે. શેઠ પ્રેમચંદ ભગવાનલાલ ૨૫૦ પાસણા ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સંઘ ૨૫૧ પાલણપુર ૧ લમીબેન હા. મહેતા હરીલાલ પીતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨ શ્રી લોકાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય ૨૫૧ પાલેજ ૧ સ્વ. મનસુખલાલ મેહનલાલ સંઘવીના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ - બરવાળા (ઘેલાશા) ૧ સ્વ. મેહનલાલ નરસીદાસના સ્મરણાર્થે - હ. તેમનાં ધર્મપત્નિ સુરજબેન મોરારજી . ૨૫૧ ૩૦૧ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ બગસરા (ભાયાણું) ૧ સ્વ. પૂજ્ય માતુશ્રી જકલબાઈને મરણાર્થે હ. દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ ૨૫૧ ૨ શેઠ પોપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હા શેઠે માનસંગ પ્રેમચંદ ૨૫૧ બેરાજા (કચ્છ) - ૧ શેઠ ગાંગજી કેશવજી (જ્ઞાનભંડાર માટે) બોટાદ ૧ સ્વ. વસાણ હરગોવીંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ છબલબેન ૨ શ્રી સ્થાનવાસી જૈનસંઘ (૨૫૦ બાકી) બોડેલી ૧ શાહ પ્રવીણચંદ્ર નરસિંહદાસ (સાણંદવાળા) ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ભાણવડ ૧ શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદ ૩૦૧ ૨ સંઘવી માણેકચંદ માધવજી ૩ શેઠ લાલજીભાઈ માણેકચંદ (લાલપુરવાળા) ૨૫૧ ૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૨૫૧ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરી આ ૨૫૧ દ ફરીઆ ગાંડાલાલ કાનજીભાઈ હા. અ. સી. શાંતાબેન વસનજી રપ૧ મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચંદજી મનેર (થાણ) ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચંદજી જસવંતગઢવાળા હ. પૂનમચંદજી શેરમલજી બોલ્યા માનવા (કચ્છ) ૧ સ્વ. મહેતા કુંવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ કુંવરબાઈ હરખચંદ - (માનકુવા સ્થાનકવાસી જૈનસંઘ માટે) ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મુંબઈ તથા પરાઓ ૧ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ ૨૫૧ ૨ શાહ હરજીવન કેશવજી ૨૫૧ ૩ ઘેલાણ પ્રભુલાલ ત્રિીકમજી (બોરીવલી) ૨૫૨ ૪ શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાલા ૨૫૧ ૫ શ્રીવર્ધમાન સ્થા. જૈનસંઘ હાકેસરીમલજી અનેપચંદજી ગુગળીયા(મલાડ,ર૫૧ ૬ શેઠ ડુંગરશી હંસરાજ વીસરીયા ૨૫૧ ૭ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ. સી. કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૨૧ ૮ શાહ હિંમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૯ શાહ રતનશી મણશીની કંપની ૨૫૧ ૧૦ શાહ શીવજી માણેક કચ્છ (બેરાજાવાળા) ૨૫૧ ૧૧ વેરા પાનાચંદ સંઘજીના સમરણાર્થે હા. નંબકલાલ પાનાચંદ રા બ્રધર્સ ૨૫૧ ૧૨ સ્વ. પૂ. પિતાશ્રી વીરચંદ જેસીંગભાઈ લખતરવાળાના મરણાર્થે હા. કેશવલાલ વીરચંદ શેઠ ૨૫૧ ૧૩ શાહ કુંવરજી હંસરાજ ૨૫૧ ૧૪ સ્વ. માતુશ્રી માણેકબેનના સ્મરણાર્થે હા. શેઠ વલ્લભદાસ નાનજી (પોરબંદરવાળા) ૧૫ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પૂનમીયા સાદડીવાળા ૨૫૧ ૧૬ એક સગ્ગહસ્થ હા. શેઠ સુદરલાલ માણેકચંદ ૨૫૧ ૧૭ અ. સી. પાનબાઈ . શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ (મલાડ) ૨૫૧ ૧૮ શ્રી અમૃતલાલ વર્ધમાન બાપોદરાવાળા હા. દલીચંદ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૧૯ સ્વ. શાહ નાગશી સેજપાળ ગુંદાળાવાળાના સમરણાર્થે હા. રામજી નાગશી (મલાડ) ૩૦૧ ૨૦ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૨૧ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી વેરાવળવાળા ૨૫૧ ૨૨ શીવલાલ ગુલાબચંદ શેઠ મેવાવાળા ૨૩ સ્વ. જટાશંકર દેવજી દેશીના સ્મરણાર્થે હા. રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશંકર દેશી સ્વ. ગડા વણારશી ત્રીભવન સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે હા. જગજીવન વણારશી ગડા (મલાડ) ૨૫ સ્વ. ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વીંછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હ. હરગોવિંદદાસ ત્રીભોવનદાસ સજમેરા, ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ - ૨૫ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૬ સ્વ. કાનજી મૂળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈને ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસંગે હા. જયંતીલાલ કાનજી કાળાવડવાળા (મલાડ) ૨૫૧ ૨૭ શેઠ ખુશાલભાઈ ખેંગારભાઈ ૨૫૦ ૨૮ શાહ પ્રેમજી માલશી ગંગર (મલાડ) ર૫૧ ૨૯ સ્વ. પિતાશ્રી મનુભાઈનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. કાનજી પતુભાઈ ૨૫૧ ૩૦ શાહ વેલજી જેશીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમનાં ધમપત્નિ અ.સૌ. સ્વ. નાનબાઈના સ્મરણાર્થે ૩૧ સ્વ.પિતાશ્રી રામશી વેલજીના સ્મરણાર્થે હા.શાહ દામજી રામશી(મલાડ) ૩૦૧ ૩૨ શેઠ ત્રંબકલાલ કસ્તુરચંદ લીંબડીવાળા તરફથી શ્રી અજરામર શાસ્ત્ર ભંડાર લીંબડી માટે (માટુંગા) ૨૫૧ ૩૩ સ્વ. પિતાશ્રી ભીમશી કેરશી તથા માતુશ્રી પાલાબાઈને મરણાર્થે હ. શાહ ઉજમશીભાઈ ભીમશીભાઈ કચ્છતરીવાળા (મલાડ) ૩૦૧ ૩૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫૧ ૩૫ શાહ વૃજાંગભાઈ શીવજી (મલાડ) ૩૬ રતીલાલ ભાઈચંદ મહેતા ૨૫૧ ૩૭ શાહ ખીમજી મૂળજી પૂજા (મલાડ ) ૨૫૧ ૩૮ મેસર્સ સવાણું ટ્રાન્સપોર્ટ કંપની હ. શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૩૯ ઘેલાણી વલભજી નરભેરામ હા. નરશીભાઈ વલભજી ૨૫૧ ૪૦ અ.સૌ. સમતાબેન શાન્તીલાલ Coશાન્તીલાલ ઉજમશી શાહ(મલાડ) ૨૫૧ ૪૧ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચંદ ૨૫૧ ૪૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૨૫૧ ૪૩ સ્વ. પિતાશ્રી કેશવલાલ વછરાજ કે ઠારીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા. તનસુખલાલભાઈ (મલાડ) ૪૪ દડીયા અમૃતલાલ મેતીચંદ (ઘાટકેયર) ૨૫૧ ૪૫ શેઠ સરદારમલજી દેવીચંદજી કાવડીયા (સાદડીવાળા) ૨૫૧ -૪૬ દેશી ચત્રભુજ સુંદરજી (ઘાટકેપર) ૪૭ દેશી જુગલકીશોર ચત્રભુજ (ઘાટકેપર) ૪૮ દેશી પ્રવીણચંદ્ર ચત્રભુજ (ઘાટકોપર) ૪૯ શાહ ત્રીજોવનદાસ માનસિંગ દેઢીવાળાના સમરણાર્થે હા. શાહ હરખચંદ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૫૦ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી ધ્રાંગધ્રાવાળા હ. શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૫૧ શાહ ચંદુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૦૧ ૨૫૧ પર સ્વ. પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગાંડલવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્રો તરફથી હા. વૃજલાલ શામળજી બાવીશી ૩૦૧ પ૩ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ૨૫૧ ૫૪ સ્વ. પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચંદ જસાણીના સ્મરણાર્થે હા. લક્ષમીચદ તથા કેશવલાલભાઈ ૫૫ સ્વ. પિતાશ્રી હંસરાજ હીરાના સ્મરણાર્થે હા. દેવશી હંસરાજ કચ્છ બીડાલાવાળા (મલાડ) ૫૬ સ્વ. માતુશ્રી મતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ પિપટલાલ પાનાચંદ ૨૫૧ પણ શેઠ નેમચંદ સ્વરૂપચંદ ખંભાતવાળા હા. ભાઈ જેઠાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૫૮ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ અંબાલાલ પરસોતમ પાણશણાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હા. બાપાલાલભાઈ ૨૫૧. ૫૯ બેન કેસરબાઈ ચંદુલાલ જેસીંગલાલ શાહ ૨૫૧ ૬૦ દડીયા જેસીંગલાલ ત્રીકમજી ૨૫૧. ૬૧ શાહ કાન્તીલાલ મગનલાલ (ઘાટકેયર) ૨૫૧ દર કે ઠારી સુખલાલજી પૂનમચંદજી (ખાર) ૨૫૧ ૬૩ સ્વ. માતુશ્રી કડવી બાઈના સ્મરણાર્થે હા. તેમના પત્ર હકમીચંદ તારાચંદ દેશી (કાંદીવલી). ૨૫૧ ૬૪ શેઠ સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૬૫ શાહ કેરશીભાઈ હીમજીભાઈ ૩૦૧ ૬૬ પિતાશ્રી કુંદનમલજી મોતીલાલજીના સ્મરણાર્થે હા. મેતીલાલ જુબરમલ (અહમદનગરવાળા) ૬૭ શ્રી વર્ધમાન શ્વેતામ્બર સ્થા. જૈનસંઘ હા. શેઠ રૂપચંદ શીવલાલ કામદાર (અંધેરી) ૬૮ અ. સૌ. કમળાબેન કામદાર હા. રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૬૯ ધી મરીના મેડ હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા. શાહ મણલાલ ઠાકરસી ૨૫૧ ૭૦ સ્વ. માતુશ્રી જીવીબાઈને સ્મરણાર્થે હા. શામજી શીવજી કચ્છ ગુંદાળાવાળા (ગેરેગાંવ) ૨૫૧ ૭૧ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કંપની (કાંડીવલી) ૨૫૧ ૭૨ અ. સૌ લાછું બેન હા. રવજી શામજી (કાંદીવલી) ૨૫૧ ૭૩ અ.સૌ. બેન કુંદનગરી મનહરલાલ સંઘવી (ખારોડ) ૨૫૧ ૭૪ શાહ કરશનભાઈ લઘુભાઈ (દાદર) ૩૦૧ ૭૫ અ.સૌ. રજનગૌરી ચંદુલાલ શાહ C/o ચંદુલાલ લક્ષ્મીચંદ (માટુંગા) ૨૫૧ ૭૬ મહેતા મેટર સ્ટેસે હા. અનેપચંદ ડી. મહેતા (મુંબઈ) ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ માંડવી (કચ્છ) ૧ શ્રી. સ્થા. છ કોટી જન સંઘ હા. મહેતા ચુનીલાલ વેલજી ર૭૭ ભેસાણ ૧ શાહ પદમશી સુરચંદના સમરણાર્થે હા. શીવલાલ પદમશી વીરમગામવાળા ૨૫૧ * મેમ્બાસા ૧ શાહ દેવરાજ પેથરાજ ૨૫૦ ૨ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી. મહેતા ૨૫૧ યાદગીરી ૧ શેઠ બાદમલજી સૂરજમલજી બેન્કસ ૨૫૦ રાણપુર (ઝાલાવાડ) ૧ શ્રીમતી માતુશ્રી અમૃતબાઈના સ્મરણાર્થે હા..નરોત્તમદાસ ચુનીલાલ ૨૫૧ રાણાવાસ (મારવાડ) ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમચંદજી હા. બાબુરખબચંદજી ૩૦૧ રાજકેટ . ૧ ધી વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીંગ વર્કસ ४०० ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ૩ બાબુ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ઉદેપુરવાળા) ૨૫૦ ૪ શેઠ મનુભાઈ મુળચંદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૫ શેઠ શાન્તીલાલ પ્રેમચંદ તેમનાં ધર્મપત્નિના વરસીતપ પ્રસંગે ૬ ઉદાણું ન્યાલચંદ હાકેમચંદ વકીલ ૨૫૧ ૭ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી * ૨૫૧ ૮ શેઠ હકમીચંદ દીપચંદ ગાંડલવાળા) સ્ટેશનમાસ્તર ૯ બહેન સુર્યબાળા નૌતમલાલ જસાણું (વરસીતપની ખુસાલી) ૧૦ મેદી સૌભાગ્યચંદ મેતીચંદ ૨૫૧ ૧૧ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમનાં ધર્મપત્નિ અ. સૌ. સમરતબેનના વરસીતપની ખુશાલી ૨૫૧ ૧૨ દેશી મોતીચંદ ધારશીભાઈ (રીટાયર્ડ ઈનજીનીયર સાહેબ) ૧૩ કામદાર ચંદુલાલ જીવરાજ ૨૫૦ ૧૪ હેમાણ ઘેલુભાઈ સવચંદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ રંગન * ૧ કામદાર ગેરધનદાસ મગનલાલનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. કમળાબેન લખતર ૧ શાહ રાયચંદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા. શાહ. શાન્તિલાલ રાયચંદ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૩ શાહ તલકશી હીરાચંદના સમરણાર્થે હા. ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૨૫૧ ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૨૫૧ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈ સદાદવાળાના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ શાન્તીલાલ જાદવજી ૨૫૧ ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચંદના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ સમરતબેન વ્રજલાલ તરફથી હ. જયંતીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ લાલપુર ૧ શેઠ નેમચંદ સવજીભાઈ મોદી હા. મગનલાલભાઈ ૨૫૧ ૨ શેઠ મૂળચંદ પિપટલાલ હ. મણીલાલભાઈ તથા જેસીંગલાલભાઈ ૨૫૧ લાખેરી (રાજસ્થાન) ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા. હેતા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એજીનીઅર સાહેબ) ૨૫૧ લીમડી (પંચમહાલ) ૧ શાહ કુંવરજી ગુલાબચંદ ૨૫૧ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ, ગુલાબચંદ ૨૫૧ લેનાવલા ૧ શેઠ ઘનરાજજી મૂળચંદજી મૂળા વઢવાણ શહેર ૧ શાહ દિલીપકુમાર સવાઈલાલ હ. સવાઈલાલ ત્રંબકલાલ શાહ ૨૫૧ ૨ શાહ મગનલાલ ગોકળદાસ હા. રતીલાલ મગનલાલ કામદાર ૨૫૧ ૩ સંઘવી મૂળચંદ બેચરભાઈ હ. જીવણલાલ ગફલદાસ ૨૫૧ ૪ શેઠ વૃજલાલ સુખલાલ ૨૫૧ ૫ શેઠ કાતીલાલ નાગરદાસ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૬ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૨૫૧ ૭ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ ૮ શાહ દેવશી દેવકરણ ૨૫૧ ૯ વેરા ડેસાભાઈલાલચંદ સ્થા. જૈન સંઘ હ. વેરા નાનચંદ શીવલાલ ૨૫૧ ૧૦ વેરા ધનજીભાઈ લાલચંદસ્થા. જૈનસંઘ હા. વેરા પાનાચંદ ગોબરદાસ ૨૫૧ ૧૧ દેશી વીરચંદ સુરચંદ હ. દેશી નાનચંદ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૨ સ્વ. વેરા મણીલાલ મગનલાલ હા. વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ વટામણ ૧ શ્રી વટામણ સ્થા. જનસંઘ હા. શ્રી ડાહ્યાભાઈ હલુભાઈ પટેલ ૨૧૧ વલસાડ ૧ શાહ ખીમચંદ મૂળજીભાઈ વણું ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલનાં ધર્મપત્નિ સ્વ. ચંચળબેન તથા - પુરીબેનના સ્મરણાર્થે હા. ભાઈ મનહરલાલ નાનાલાલ વડોદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિંમતરામ પ્રોફેસર સાહેબ (ગોંડલવાળા) ૨ વકીલ મણલાલ કેશવલાલ શાહ ૨૫૧ ૩ સ્વ. પિતાશ્રી શાહ ફકીરચંદ પુંજાભાઈના સ્મરણાર્થે હા. શાહ રમણલાલ ફકીરચંદ વડીયા ૧ પંચમીયા ભવાનભાઈ કાળાભાઈ (જેતપુરવાળા) વાંકાનેર ૧ માસ્તર કાન્તીલાલ ત્રંબકલાલ ખંઢેરીયા ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ (રૂા. ૨૫ બાકી) ૨૫૧ ૩ દફતરી ચુનીલાલ પોપટભાઈ મેરબીવાળા હા. પ્રાણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ વીંછીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી. સ્થા. જૈન સંઘ હાં. અજમેશ રાયચંદ વ્રજપાળ ર૫૧ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ વીરમગામ ૧ શાહ વાડીલાલ નેમચંદ વકીલ ૨ શાહ વિઠ્ઠલભાઈ મોદી માસ્તર ૩ શાહ નાગરદાસ માણેકચંદ ૨૫૧ ૪ શાહ મણીલાલ જીવણલાલ (શાહપુરવાળા) ૨૫૧ ૫ શાહ અમુખલ (બચુભાઈ) નાગરદાસનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. બેન લીલા- વતીના વરસીતપના પારણાની ખુશાલીમાં હા. ભાઈ કાન્તીલાલ નાગરદાસ ૩૦૦ ૬ સ્વ. શેઠ ઉજમશી નાનચંદના મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હ. શેઠ ચુનીલાલ નાનચંદ ૭ સ્વ. મણીલાલ લક્ષ્મીચંદના મરણાર્થે તેમના પુત્રે તરફથી હા. ખીમચંદભાઈ (ખારાઘોડાવાળા) ૮ સ્વ. શેઠ હરીલાલ પ્રભુદાસના સમરણાર્થે હા. શેઠ અનુભાઈ હરીલાલ ૨૫૧ ૯ સંઘવી જેચંદભાઈ નારણદાસ ૧૦ સ્વ. શાહવેલશીભાઈ સાંકરચંદભાઈને મરણાર્થે હા. ચીમનલાલ વેલશી (કત્રાસવાળા) ૨૫૧ ૧૧ પારેખ મણલાલ ટેકશી લાતીવાળા તરફથી (માટીબેનના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૧૨ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના સુપુત્ર વાડીલાલભાઈનાં ધર્મપત્નિ અ.સૌ. નારંગબેનના વરસીતપ નીમીત્ત હા. શાન્તીભાઈ - ૨૫૧ ૧૩ સ્વ. છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે તેમનાં ધર્મપત્નિ કમળાબેન તરફથી હા. મંજુલાકુમારી ૧૪ શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવિકાસંઘ હા. પ્રમુખ અ. સૌ. રંભાબેન વાડીલાલ ૨૫૧ ૧૫ સ્વ. શ્રીવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ. અ. સૌ. ચંચળબેનના મરણાર્થે હા. ડૉકટર હિંમતલાલ સુખલાલ ૧૬ શાહ મૂળચંદ કાનજીભાઈ તરફથી હા. શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ ૧૭ શેઠ મોહનલાલ પીતાંબરદાસ હા. ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૫૧ ૧૮ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વરસીતપ નીમિત્તે હિ. નથુભાઈ નાનચંદ શાહ ૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસેત્તમ સુંદરજીના સમરણાર્થે હા. શેઠ સાકરચંદ પરસોતમદાસ ૨૫૧ ૨૦ શેઠ મણલાલ શીવલાલ વેરાવળ ૧ શાહ કેશવલાલ જેચંદભાઈ ૨ શાહ ખીમચંદ સૌભાગ્યચંદ વસનજી ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ સતારા * * ૨૫૧ ૧ સ્વ. મદનલાલજી કુંદનલાલજી કે ઠારીના સ્મરણાર્થે હા. તેમનાં ધર્મપત્નિ રાજકુંવરબાઈ મદનલાલજી સાલબની (બંગાળ) ૧ દેશી ચુનીલાલ કુલચંદ મોરબીવાળા ૨૫૦ સાણંદ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શાહ હીરાચંદ છગનલાલ હા. શાહ ચીમનલાલ હીરાચંદ ૨ અ. સૌ. ચંપાબેન હા. દેશી જીવરાજ લાલચંદ ૨૫૧ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ ૪ શાહ સાકરચંદ કાનજીભાઈ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લીંબડીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. વાડીલાલ મોહનલાલ કોઠારી ૬ પારેખ નેમચંદ મેતીચંદ મૂળીવાળાના સ્મરણાર્થે હા. પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ ૨૫૧ ૭ સંઘવી નારણદાસ ધરમશીના મરણાર્થે હા. જયંતીલાલ નારણદાસ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ સુરત ૧ શ્રી. સ્થા. જૈનસંઘ હા. શાહ છોટુભાઈ અભેચંદ સુવઇ (કચ્છ) ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનંદી જૈન મુનીશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા. જૈનસંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ ૨૫૧ સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાંપશીભાઈ સુખલાલ ૨૫૧ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૨૫૧ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મૂળજીભાઈનાં ધર્મપત્નિ અમૃતબાઈને સ્મરણાર્થે હા. ભાઈલાલ કેશવલાલ (થાનગઢવાળા) ૨૫૧ ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચંદ ૨૫૧ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ ર૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ સંજેલી (પંચમહાલ) ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદ ૨ શ્રી. સ્થા. જૈનસંઘ હ. શેઠ શ્રેમચંદ દલીચંદ હાટીનામાળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ હારીજ ૧ શાહ અમુલખભાઈ મૂળજી હા. પ્રકાશચંદ અમુલખ ૨ સ્વ. બેન ચંદ્રકાન્તાનાં સ્મરણાર્થે હા. અમુલખ મૂળજીભાઈ - હુબલી ૧ શેઠ હીરાચંદ વનેચંદજી કટારીઆ ૩૦૧ ૩૦૧ ૨૫૧ કુલ્લ મેમ્બરની સંખ્યા તા. ૨૮-૨-૫૮ સુધી ૪ આધ મુરબ્બીશ્રીઓ ૩૧૬ પ્રથમ વર્ગના મેમ્બરો ૨૨ સુરીશ્રીઓ ૮૩ બીજા વર્ગના મેમ્બરે ૩૬ સહાયક મેમ્બરે ૪૬૧ કુલ મેમ્બરે (બીજા વર્ગને સદંતર બંધ કરવામાં આવેલ છે.) રાજકોટ, તા. ૧-૩-૫૮ સાંકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ શ્રી આ ભા. . સ્થા. જૈન શા. સ. નોટ તા. ૨૩–૧૨–૫૭ ના દિને મુંબઈ મુકામે ધી યુનિયન બેંક ઓફ ઈન્ડીઆ લી. માં રૂા. ૨૫૧-૦-૦ એક સદગૃહસ્થ ભરેલા છે. જેનું નામ તે ભરનાર ભાઈ તરફથી મળેલ નથી તેમજ બેંક તરફથી વધુ વિગત મળી નથી તો તે રૂા. ૨૫૧ ડીપોઝીટ તરીકે હાલ જમા પડયા છે જેનું નામ અને મળતાં લીસ્ટમાં લેવામાં આવશે. 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