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आचाराङ्गसूत्रे
“ पिंडविसोही४-समिई५, भावण १२ पडिमा १२ य इंदियानि रोहो५ । पडिलेहण२५ गुत्तीओ३, अभिग्गहा४ चेव करणं तु ॥ १ ॥” इति । तयोरनुयोगश्चरण करणानुयोगः (१) ।
धर्मकथानुयोगादयश्चरणकरणयोर्भव्यजीवान् प्रवर्त्तयन्तीति तेषां चरणकरणाङ्गतया प्राधान्यमेतस्यानुयोगस्य, अत एवास्य प्राथम्यम् । उक्तञ्च - आत्मन् | जानीहि पूर्व चरणकरणयोराश्रये यन्महत्त्वं,
मोहं दूरीकरोति प्रकटयति परं निश्चयात्मस्वरूपम् ।
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चार पिण्डविशुद्धि, पाच समितियां, बारह भावना, बारह् पडिमा, पांच इन्द्रियनिरोध, पचीस प्रतिलेखना, तीन गुप्तियां, चार अभिग्रह, यह सत्तर ७० प्रकारका करण कहलाता है ।
इस तरह चरण और करण के अनुयोग को, अर्थात् भगवान् की वाणी के अनुकूल व्याख्यान को चरणकरणानुयोग कहते हैं । तात्पर्य यह है कि -- जिस शास्त्र में चारित्र सम्बन्धी निरूपण है, वह चरणकरणानुयोग समझना चाहिए ।
धर्मकथानुयोग आदि शेष तीन अनुयोग भव्यजीवों को चरण और" करण में प्रवृत्त करते है, अतः वे इसी अनुयोग के अङ्ग है । इस प्रकार चारों अनुयोगो में चरणकरणानुयोग ही प्रधान है । प्रधान होने के कारण ही इस की गणना सर्वप्रथम की गई है। कहा भी है
हे आत्मन् ! चरण और करण में जो महत्त्व है, उसे पहले समझ ले । वह मोह को निवारण करता है, आत्मा के निश्रय अर्थात् वास्तविक स्वरूप को प्रकट करता है, वह सब
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“यार पिंडविशुद्धि, पांथ समितियो, मार भावना, भार पडिभा, पांच इन्द्रिय નિધ, પચીશ પ્રતિલેખના, ત્રણ ગુપ્તિએ, ચાર અભિગ્રહ, આ સર્વ કરણ્
वाय छे.” ॥ १॥
આ પ્રમાણે ચરણુ અને કરણના અનુચેાગને અર્થાત્ ભગવાનની વાણીને અનુકૂલ હું વ્યાખ્યાનને ચરણકરણાનુયાગ કહે છે. તાત્પર્ય એ છે કે જે શાસ્ત્રમાં ચારિત્રસમ્બન્ધી નિરૂપણુ છે તે ચરણકરણાનુયાગ સમજવું જોઇએ.
ધર્મકથાનુંયેાગ આદિ બાકીના ત્રણ અનુયાગ ભવ્ય જીવને ચરણ અને કરણમાં પ્રવૃત્ત કરે છે; તેટલા માટે તે પણ એ અનુચેાગનુ અંગ છે. આ પ્રકારે ચારેય અનુયા ગોમાં ચરણકરણાનુયોગ પ્રધાન–મુખ્ય છે.
· मुख्य देवाना अरले तेनी गथुना सोथी प्रथम श्री छे, “हे आत्मन्! य२त्रु भने भने भई छे, तेने प्रथम समल से,
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