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सच्चे सुख की शोध
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संस्कृति के एक अमर गायक ने कहा है कि देवलोक के देवता भी सुखी नहीं हैं । सेठ और सेनापति तो सुखी होंगे ही कहाँ से ? भूमण्डल पर शासन करने वाला चक्रवर्ती राजा भी सुखी नहीं है, वह भी विषयाशा के अन्धकार में भटक रहा है । अस्तु, संसार में सुखी कोई नहीं । सुखी है, एक मात्र वीतराग भाव की साधना करने वाला त्यागी साधक ! न चि सुही देवया देवलोए,
नव ही सेट्ठि सेावई य ।
न वि सुही पुढविपई राया, एगंत-सुही साहू
भगवती सूत्र में भगवान् महावीर ने त्यागजन्य श्रात्मनिष्ठ सुख की महत्ता और भोगजन्य वस्तुनिष्ठ वैषयिक सुख की हीनता बताते हुए कहा है कि बारह मास तक वीतराग भाव की साधना करने वाले श्रमण निग्रन्थ का श्रात्मनिष्ठ सुख, सर्वार्थ सिद्धि के सर्वोत्कृष्ट देवों के सुख से कहीं बढ़कर है ! संयम के सुख के सामने भला बेचारा वैषयिक सुख क्या अस्तित्व रखता है ?
साहू वीयरागी ॥
वैदिक धर्म के महान् योगी भर्तृहरि भी इसी स्वर में कहते हैं कि भोग में रोग का भय है, कुल में किसी की मृत्यु का भय है, धन में राजा या चोर का भय है, युद्ध में पराजय का भय है । किं बहुना, संसार की प्रत्येक ऊँची से ऊँची और सुन्दर से सुन्दर वस्तु भय से युक्त हैं । एक मात्र वैराग्य भाव ही ऐसा है, जो पूर्ण रूप से अभय है, निराकुल है ।
'सर्व वस्तु भवान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम् ।' -वैराग्य शतक
यह उद्गार उस महाराजाधिराज भर्तृहरि का है, जिस के द्वार पर संसार की लक्ष्मी खरीदी हुई दासी की भाँति नृत्य किया करती थी, बड़ेचढे राजा महाराजा क्षुद्र सेवक की भाँति श्राज्ञापालन के लिए नंगे पैरों
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