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सच्चे सुख की शोध भर आया और उन्होंने अाकर कुत्ते को घेर लिया एवं सब के सब दांत पंजे आदि से उसको मारने लगे। यह देखकर बेचारे कुत्ते ने मुख से हड्डी छोड़ दी। हड्डी छोड़ते ही सब कुत्ते उसे छोड़कर हड्डी के पीछे पड़ गए और वह कुत्ता जान बचाकर भाग गया । उन कुत्तों में हड्डी के पीछे बहुत देर तक लड़ाई होती रही और वे सब के सब घायल होगए । यह तमाशा देखकर आरुणि ऋषि विचार करने लगे कि "अहो, जितना दुःख है, ग्रहण में ही है, त्याग में दु ख कुछ नहीं है, प्रत्युत सुख ही है । जब तक कुत्ते ने हड्डी न छोड़ी, तब तक पिटता और घायल होता रहा
और जब हड्डी छोड़ दी, तो सुखी होगया। इससे सिद्ध होता है कि त्याग ही सुख रूप है, ग्रहण में दुःख है । हाथ से ग्रहण करने में दुःख हो, इसका तो कहना ही क्या है, मन से विषय का ध्यान करने में भी दुःख ही होता है। सच कहा है कि विषयों का ध्यान करने से उनमें संग होता है, संग होने से उनकी प्राप्ति की कामना होती है, कामना में प्रतिबन्ध पड़ने से क्रोध होता है। कामना पूरी होने पर लोभ होता है, लोभ से मोह होता है, मोह से स्मृति नष्ट होती है--सद्गुरु का उपदेश याद नहीं रहता, स्मृति नष्ट होने से विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है,
और विवेक बुद्धि नष्ट होने से जीव नरक में जाता है; इसलिए विषयाशक्ति ही सब अनर्थ का मूल कारण है ! 'खाणी अणस्थाण उ कामभोगा' जब विषयों का त्याग होता है, वैराग्य होता है, तभी सच्चे सुख का
झरना अन्तरात्मा में बहता है और जन्म जन्मान्तरों से आने वाले वषयिक सुख दुःख के मैल को बहाकर साफ कर डालता है ।
बाह्य दृष्टि से धन वैभव, भोग विलास कितने ही रमणीय एवं चित्ताकर्षक प्रतीत होते है, परन्तु विवेकी मनुष्य तो इन में सुख की गन्ध भी नहीं देखता । विषयासक्त होकर आज तक किसी ने कुछ भी सुख नहीं पाया । विषयासक्त मनुष्य, अपने आप में कितना ही क्यों न बड़ा हो, एक दिन शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों से सदा के लिए हाथ धो बैठता है । क्या कभी विषय-तृष्णा भोग से शान्त
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