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सच्चे सुख की शोध
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तो दूसरा वस्तुनिष्ठ । एक आध्यात्मिक है तो दूसरा भौतिक । एक अजर अमर है तो दूसरा क्षणिक, क्षण भंगुर । एक दुःख की कालिमा से सर्वथा रहित है तो दूसरा विषमिश्रित मोदक |
बाह्य सुख में सब प्रकार के भौतिक तथा पौद्गलिक सुखों का समावेश हो जाता है । यह सुख वस्तुनिष्ठ है, अतः वस्तु है तो सुख है, अन्यथा दुःख ! एक बच्चा रो रहा है । आपने खिलौना दिया तो श्रानन्द में उछल पड़ा, नाचने लगा । परन्तु कितनी देर ? देखिए, खिलोना टूट गया है, और वह बच्चा अब पहले से भी अधिक रो रहा है । कहाँ गया, वह श्रानन्द-नृत्य ? खिलौने के साथ साथ वह भी टूट गया; क्योंकि वह वस्तुनिष्ठ था । यही सुख, वह सुख है, जिसके पीछे संसारी प्राणी पागल की तरह भटकता रहा है, अपने समय और शक्तियों का अपव्यय करता आ रहा है। इस सुख का केन्द्र धन है, विषय वासना है, भोग लिप्सा है, वस्तु संग्रह है, सन्तान की इच्छा है, स्वजन परिजन याद हैं | परन्तु यह सब सुख, सुख नहीं, सुखाभास है । भोगवासना की तृप्ति में कल्पित सुख की अपेक्षा वास्तविक दुःख ही अधिक है । अधिक क्या, अनन्त है | 'खण मित्तसुक्खा, बहुकाल दुक्खा ।'
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क्या धन में सुख है ? धनप्राप्ति के लिए कितना दम्भ रचा जाता है ? कितनी घृणा ? कितना द्वेष ? कितना अत्याचार ? भाई भाई का गला काट रहा है, धन के लिए । विश्व व्यापी युद्धों में प्रजा के खून की नदियाँ बह रही हैं, धन के लिए । मनुष्य धन के लिए पहाड़ों पर चढ़ता है, रेगिस्तानों में भटकता है, समुद्रों में डूबता है, फिर भी भाग्य का द्वार नहीं खुल पाता । साधारण मजदूर कहता है कि हाय धन मिले तो आराम से जिन्दगी कटे, संसार में और कुछ दुर्लभ नहीं, दुर्लभ है – एक मात्र धन !
परन्तु सेठिया कहता है कि अरे धन की क्या बात है ? मैंने लाखों कमाये हैं, और लाखों कमा सकता हूँ। मैंने सब तरफ धन के ढेर लगा दिए हैं, सोने के महल खड़े कर दिए हैं । परन्तु इस धन
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