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|| মীমাং সীমান্ত ব্যাথা ते जीवसमास है । बहुरि परि कहिये समंतता ते प्राप्ति कहिये प्राप्ति, सो पर्याप्ति है । शक्ति की निष्पन्नता का होना सो पर्याप्त जानना । बहुरि प्राणंति कहिये जीवे हैं जीवितव्यरूप व्यवहार कौं योग्य हो हैं जीव जिनिकरि, ते प्राण हैं । बहुरि
आगम विर्षे प्रसिद्ध बांछा, संज्ञा, अभिलाषा ए एकार्थ हैं। बहुरि जिन करि वा जिन विर्षे जीव हैं, ते मृग्यंते कहिये 'अवलोकिये ते मार्गरणा है । तहां अवलोकनहारा मृगयिता तो भव्यनि विर्षे उत्कृष्ट, प्रधान तत्वार्थ श्रद्धावान जीव जानना । अवलोकने योग्य, मृग्य चौदह मार्गणानि के विशेष लिये प्रात्मा जानना । बहुरि अवलोकना मुग्यता का साधन कौं वा अधिकरण को जे प्राप्त, ते गति आदि मार्गणा हैं । बहुरि मार्गरणा जो अवलोकन, ताका जो उपाय, सो ज्ञान-दर्शन का सामान्य भावरूप उपयोग है । ऐसें इन प्ररूपणानि का साधारण अर्थ का प्रतिपादत्त कह्या ।
प्रागै संग्रहनय की अपेक्षा करि प्ररूपणा का दोय प्रकार को मन विर्षे धारि गुणस्थान-मार्गरणास्थानरूप दोय प्ररूपणानि के नामांतर कहें हैं -
संखेओ ओघोत्ति य, गणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारासोति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ संक्षेप प्रोध इति च गुणसंज्ञा, सा च मोहयोगभवा । .
विस्तार आदेश इति च, मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥३॥ __ टीका - संक्षेप ऐसी अोध गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विर्षे रूढ है, प्रसिद्ध है । गुणस्थान का ही संक्षेप वा ओघ असा भी नाम है । बहुरि सो संज्ञा 'मोहयोगभवा' कहिए दर्शन चारित्रमोह वा मन, वचन, काय योग, तिनकरि उपजी है । इहां संज्ञा के धारक गुणस्थान के मोह-योग से उत्पन्नपना है । तात तिनकी संज्ञा के भी मोह-योग करि उपजना उपचार करि कह्या है । बहुरि सूत्र विषै चकार कह्मा है, तातें सामान्य असी भी गुणस्थान की संज्ञा है; असा जानना ।
बहुरि तैसे ही विस्तार, आदेश असी मार्गणास्थान की संज्ञा है। मार्गणा का विस्तार, आदेश जैसा नाम है । सो यहु संजा अपना-अपना मार्गणा का नाम की प्रतीति के व्यवहार को कारण जो कर्म, ताके उदय ते हो हैं । इहां भी पूर्ववत् संज्ञा के कर्म तै उपजने का उपचार जानना । निश्चय करि संज्ञा तो शब्दजनित ही है।