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[ गोम्मटसार जो काण्ड गाथा ३८
भावार्थ - च्यारि च्यारि प्रमाण लीए, एक-एक विकथा प्रमाद का पिंड, diet दूसरा प्रमाद कषाय का प्रमाण च्यारि, सो च्यारि जायगा स्थापि, एक-एक पिंड के ऊपरि क्रम तैं एक-एक कषाय स्थापिए (१११ असे स्थापन कीए, तिनं
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का जोड सोलह पिंड प्रमाण होइ । बहुरि 'अँसें ही सर्वत्र करना' इस वचन से यह सोलह प्रमाण पिंड जो समुदाय, सो तीसरा इंद्रिय प्रमाद का जेता प्रमाण, तितनी जायगा स्थापिए । सो पांच जायगा स्थापि ( १६ १६ १६ १६ १६ ), इनके ऊपरी तीसरा इंद्रिय प्रमाद का प्रमाण एक-एक रूपकरि स्थापन करना ! :: भावार्थ- पूर्वोक्त सोलह भेद जुदे-जुदे इंद्रिय प्रमाद का प्रमाण पांचा, सो पाच जायगा स्थापि, एक-एक पिंड के ऊपर एक-एक इंद्रिय भेद स्थापन करना
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( १६ १६ १६ १६ ) जैसे स्थापन कीए श्रवस्तन कहिए नीचे की पेक्षा अक्षसंचार को कारण दूसरा प्रस्तार हो है ।
सो इस प्रस्तार अपेक्षा श्रालाप जो भंग कहने का विधान, सो कैसे हो है ?
सोई कहिए है - स्त्रीकथालापी- क्रोधी - स्पर्शन- इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालुस्नेहवान् असा असी मंगनि विषै प्रथम भंग है। बहुरि भक्तकथालापी- क्रोधी-स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालु स्नेह्वान भैसा दूसरा भंग है । बहुरि राष्ट्रकथालापीshar - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत- निद्रालु स्नेहवान् जैसा तीसरा भंग हैं । बहुरि अवनिपालकथालापी-क्रोधी - स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत-निद्रालु स्नेहवान् अंसा चौथा भंग है । असें ही क्रोध की जायगा मानी वा मायावी वा लोभी कम ते कहि च्यारिच्यारि भंग होइ, च्यारों कषायनि के एक स्पर्शन इंद्रिय विषै सोलह ग्रालाप हो हैं ।
बहरि असे ही स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत की जायगा रसना वा प्राण वा चक्षु वा श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत क्रम ते कहि एक-एक के सोलह-सोलह भेद होइ पांचों इंद्रियनि के प्रसी प्रमाद श्रालाप ही हैं । तिनि सबनि को जानि हत्ती पुरुषनि करि प्रमाद छोडने ।
भावार्थ एके जीव के एक काल कोई एक-एक, कोई भेदरूप विकथादिक ही हैं । तातें तिनके पलटने की अपेक्षा पंद्रह प्रमादनि के असी भंग हो हैं । असा ही यहु अनुक्रम चौरासी लाख उत्तरगुण, अठारह हजार शील के भेद, तिनका भी प्रस्तार विष करना !