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सम्यग्जानचन्द्रिका भाषाटीका ]
18 में छेहा जैसे दाड्यौ वा नारंगी विर्षे हो है । बहुरि पर्व, गांठि जैसे साठा विर्षे हो है, सो कच्ची अवस्था विर्षे जाके ए बाह्य दीखें नाही, ऐसा वनस्पती बहुरि समभंग कहिए जाका टूक ग्रहण कीजिये, तां कोऊ तातूं लगा न रहे, समान बरावरि टूटै असा । बहुरि अहीरहं कहिए जाके विर्षे सूत सारिखा तातूं न होइ असा । बहुरि छिन्नरहं कहिए जो काट्या हुवा ऊगै असा वनस्पती सो साधारण है । इहां प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवनि करि प्राश्रित की उपचार करि साधारण कहा है । बहुरि तद्विपरीत कहिये पूर्वोक्त गूढ, सिरा आदि लक्षण रहित नालियर, प्रामादि शरीर अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जानना । गाथा विर्षे कहा है जो चकार सो इस भेद कौं
मले कंदे छल्ली, पवाल सालदलकसम फलबीजे। समभंगे सदि रणंता, असमे सदि होति पत्तया ॥१८६॥
मूले कंदे त्वक्प्रधालशालावलकुसुमफलबोजे ।
समभंगे सति नांता, असमे सति भवंति प्रत्येकाः ॥१८९॥ ___टीका - मूल कहिये बड़, कंद कहिये पेड़, छल्ली कहिए छालि, प्रवाल कहिए कोंपल, अंकुरा; शाला कहिए छोटी डाली, शाखा कहिए बड़ी डाहली, दल कहिए पान, कुसुम कहिए फूल, फल कहिए फल, बीज कहिये जाते फेरि उपजे, सो बीज; सो ए समभंग होइ, तो अनंत कहिए; अनंतकायरूप प्रतिष्ठित प्रत्येक हैं। बहुरि जो मूल आदि वनस्पती समभंग न होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक हैं । जीहि बनस्पति का मूल, कंद, छाल इत्यादिक समभंग होइ, सो प्रतिष्ठित प्रत्येक है । अर जाका समभंग न होइ सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है । तोड्या थका तांतू कोई लग्या न रहै, बराबरि टूटै, सो समभंग कहिए ।
कंदरस व मूलस्स व, सालाखंदस्स वावि बहलतरी। छल्ली साणंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकवरी ॥१६॥
कंवस्य वा मूलस्य वा, शालास्कंधस्य वापि बहलतरी। - त्वक् सा अनंतजीया, प्रत्येकजीवास्तु तनुकतरी ॥१९०।।
टीका - जिस वनस्पती का कंद की वा मूल की वा क्षुद्र शाखा की वा स्कंध को छालि मोटो होइ, सो अनंतकाय है । निगोद जीव सहित प्रतिष्ठित प्रत्येक
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