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सभ्यामन्त्रिका भाषाटोका ]
जह कंचरणमग्गि-मयं, सुचइ किरण कालियाए य । तह कायबंध-मुक्का, अकाइया झाण- जोगेण ॥२०३॥
यश कांचनवमिगतं, मुच्यते किट्टेन कालिकया च तथा कार्यबंधमुक्ता, अकायिका - ध्यानयोगेन ॥२०३॥
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टीका जैसे लोक विषै मल युक्त सीना, सो अग्नि को प्राप्त संता, अंतरंग पारा आदि की भावना करि संवार्थी हुंवा बाह्य मल तो कोटिका भर अंतरंग मल श्वेतादि रूप अभ्यवर्षे, ताकरि रहित हो है । देदीप्यमान सोलहेबान विज स्वरूप की लब्धि को पाइ, सर्व जननि करि सराहिए है । तैसे ध्यानयोग जो धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान रूप भावना, ताकरि थर बहिरंग तपरूपी अग्नि का संस्कार करि निकट भव्य जीव हैं, ते भी श्रीदारिक, तेजस शरीर सहित कार्मारण शरीर का संबंध रूप करि मुक्त होइ । कायिका: कहिए शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ते अनंत ज्ञानादि स्वरूप की उपलब्धि की पांइ; लोकाग्र विषे सर्व इन्द्रादि लोक करि स्तुति, नमस्कार, पूजनादि करि सराहिए है । काय जिनि पाइए ते कायिक, शरीरधारक संसारी जानने । तिनते विपरीत काय रहित अकायिक मुक्त जीव जानने ।
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आगे श्री माधवचंद्र त्रैविद्यदेव ग्यारह गाथा सूत्रनि करि पृथिवीकायिक आदि जीवन की संख्या कहें हैं
उड्ढरांसिवार, लोगे अण्णोष्णसंग तेऊ ।
भूजलवाऊ अहिया, पंडिभागोऽखलोगो दु ॥ २०४ ॥
सार्धत्रय शिवारं लोके श्रन्योन्यसंगुणे तेजः । भूजलवायवः अधिकाः, प्रतिभागोऽसंख्य लोकस्तु ॥२०४॥
टीका - जगत्थेशी घन प्रमाण लोक के प्रदेश, तीहि प्रमाण शलाका, विरलन, देय - ए तीन राशि करि तहां विरलनराशि का 'विरलन करि, एक-एक जुदाजुदा बखेरि, तहां एक-एक प्रति देवराशि को स्थापि, यतिसंवर्ग करना । जाका व कीया, ताका समंतपने वर्ग करना । सो इहां परस्पर गुणने का नाम वर्गितसंवर्ग
'१' पर्सयायम् - घथला पुस्तक १, पृष्ठ २६२, गांधी १४४५