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सतरहतां अधिकार : सम्यक्त्व-मार्गणा
शान उदधि शशि कुंथु जिन, बंदौ अमितविकास ।
कुश्वादिक कीए सुखी, जनम मरण करि नाश ॥ प्रागें सम्यक्त्व मार्गणा कौं कहैं हैं:--.: - छ-प्पंच-पव-विहाणं, प्रत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। . प्राणाए अहिगमेण य, सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥५६॥
षट्पञ्चनवविधानामर्थानां जिनघरोपदिष्टानाम् ।
प्राशाया अधिगमेन च, श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वम् ।।५६१॥ टीका - द्रव्य भेद करि छह प्रकार, मस्तिकाय भेद करि पांच प्रकार पदार्थ भेद करि नौ प्रकार से जो सर्वज्ञ देव करि कहे जीवादिक बस्तु तिनका श्रद्धानरुचि-यथावत प्रतीति; सो सम्यक्त्व जानना । सो सर्वदेवने जैसें कहा है, तेसे ही है। कैसे प्राप्तवचन करि सामान्य निर्णयरूप है लक्षण जाका असी जो आज्ञा, तीहिकरि बिना ही प्रमाण नयादिक का विशेष जाने, श्रद्धान हो है । अथवा प्रत्यक्ष - परोक्ष प्रमाण अर द्रव्याथिक - पर्यायाथिक नय अर नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, निक्षेप पर व्याकरणादि करि साधित निरुक्ति पर निर्देश, स्वामित्व भादि अनुयोग इत्यादि करि विशेष निर्णयरूप है लक्षण जाका, असा जो अधिगम, तीहिकरि श्रद्धान हों है ।
सरागवीतरागात्म-विषयत्वान् द्विधा स्मृतम् ।
प्रशमादिगुणं पूर्व, परं चात्मविशुद्धिजम् ॥१॥ सम्यक्त्व दोय प्रकार है, एक सराग, एक वीतराम । तहां उपशम, संवेग, मास्तिक्यादिक गुणनिरूप राग सहित श्रद्धान होइ, सो सराग सम्यक्त्व है । बहुरि केवल चैतन्य मात्र प्रात्मस्वरूप की विशुद्धता मात्र वीतराग सम्यक्त्व है ।
१. षाडागम -- पवजा पुस्तक १, पृष्ठ सं. १५३ गाथा सं. १६. पृष्ठ ३६७, गाथा सं. २१२