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गोम्पाट सार जीवकाय गाया ५६८
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तहां प्रश्न - जी जैसे शिष्य पढ़े है। भर उपाध्याय पढावै है । तहां दोऊनिकै पठनक्रिया देखिए है । तैसें धर्मादिक द्रव्य प्रवते हैं पर काल प्रबर्ताव है; तौ धर्मादिक द्रव्य की ज्यों काल के भी तिनि पर्यायनि का प्रवर्तनरूप क्रिया का सद्भाव प्राया।
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तहां उत्तर - जो असे नाहीं है । इहां निमित्तमात्र वस्तु को हेतु का कर्ता कहिए है । जैसे शीतकाल विधं शीत करि शिष्य पढ़ने कौं समर्थ न भए; तहां कारीषा के अग्नि का निमित्त भैया । तब वै पढने लग गए । तहां निमित्त मात्र देखि अंसा कहिए जो कारीषा की अग्नि शिष्यनि कौं पढाये है; सो कारीषा की अग्नि "पाप पढ़नेरूप क्रियावान न हो है । तिनिके पढ़ने को निमित्तमात्र है । तैसें काल आप क्रियावान न ही है । काल के निमित्तल व स्वंय मव परिणवै हैं .। तातें अंसा कहिए हि । जो तिनिक काल प्रवाद है। . बहुरि तिस काल का निश्चय कैस होई ?
सो केहिए हैं : समय, घडी इत्यादिक क्रियाविशेष, तिनिकी लोक विषं संमयादिक कहिए है । बहरि समय, घडी इत्यादि करि जे पचनादि क्रिया होइ, तिनिकौं लोक विर्षे पाकादिक कहिए है। तहां तिनि विर्षे काल अंसा जो शब्द आरोपरय कीजिए है । समय काल, घडी काल, पाक काल इत्यादि कहिए है, सो यहु व्यवहार काल मुख्य काल का अस्तित्व की कहै है । जाते गौण है, सो मुख्य की सापेक्षा की धरै है। जैसे किसी पुरुष का सिंह कहा, तौ तहां जानिए है, जो कोई सिंह नामा पदार्थ जगत विर्षे पाइए है । अँसें काल का निश्चय कीजिए है। प्रत्यक्ष केवली जाने है।
बहुरि षट् द्रव्य की वर्तना कौं कारण मुख्य काल है । वर्तना गुण द्रव्यसमूह विर्षे ही पाइए है; असे होते काल का आधार करि सर्व द्रव्य प्रवत हैं । अपने अपने पर्यायरूप परिणमैं है; यात परिणमनरूप जो क्रिया, ताकों परत्व पर अपरत्व जो प्रामें पीछेपना, सो काल का उपकार है। - इहां प्रश्न जो क्रिया का परत्व - अपरत्व तौ जीव पुद्गल विर्षे है, धर्मादिक अमूर्तीक द्रव्यनि विर्षे कैसे संभवै ? सो कहै हैं ।
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१. प्तस्वार्थसूत्र में-वर्तनापरिणाम क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य' अ. ५ मूत्र २२।।