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[गोम्मटसार मीना गाय ६१७ अर विषम रूपी भी हो है । पर अरूपी भी हो है। जहां दोनों के समान गुण होई सो रूपी, जहां समान गुण न होंइ, सो अरूपी कहिए । जैसे स्निग्ध - रूक्ष की सम पंक्ति विषं दोय गुरण के दोय गुण रूपी हैं, च्यारि गुण के च्यारि गुरग रूपी है । छह गुण के छह मुरण रूपी हैं । इत्यादि संख्यात, असंख्यात, अनंतगुणा पर्यंत जानने । बहुरि दोय गुणं के दोय गुण बिना अर एक, तीन, च्यारि, पांच इत्यादिक अरूपी हैं।
___ भावार्थ -- एक परमाणू दोय गुण धारक है । अर दूसरा परमाणू भी दोय गुणधारक है । तो तहां तिनलों परहार, पाझरे । गौर होनाषिक गुण धारक परमाणू कौं प्ररूपी जैसी संज्ञा कहिए । अस ही च्यारि, छह इत्यादिक विर्षे जानना। बहुरि विषम पंक्ति विर्षे तीनः गुण के तीन गुण, पंच गुरणं के पंच गुण इत्यादिक :संख्यात, असंख्यात, अनंत पर्यंत संमा . गुरगधारक परमाणू परस्पर रूपी हैं । अवशेष होनाषिक गुण धारक हैं। ते परस्पर अलंपी हैं, जैसी संज्ञा करि कहिये है । सो सम पर विषम दोऊ पंक्तिनि विर्षे ही समान गुण धारक रूपी परमाण, तिनकै परस्पर बंधन हो है । तत्त्वार्थसूत्र विष भी कहा है - 'गुणसाम्ये सरशाना याका अर्थ यहु हीगुणनि की समानता होते सदृश पारमाणनि के परस्पर बंध न हो हैं । बहुरि अरूपी परमाणूनि के यथोचित स्वस्थान या परस्थान विर्ष बैंघ हो हैं। स्निग्धे अर स्निग्ध . का, बहुरि रूक्ष अर रूक्ष का बंध, सो स्वस्थान बंध कहिए । स्निग्ध पर रूक्ष का बंध होइ सो परस्थान बंध कहिए ।
प्रागै इस' ही अर्थ कौं और - प्रकार करि कहैं हैं-- दो-त्तिग-पभवउत्तरगवेसरणंतरदुगाण बंधो दु: गिद्धे लुक्खे वि तहा वि जहण्णुभये वि सम्वत्थ ॥६१७॥
वित्रिप्रभषधु सरगतेष्वनन्तरविकयोः बन्धस्तु ।
स्निग्धे रुक्षेऽपि तथापि जघन्योभयेऽपि सर्वत्र ॥६१७॥ टोका - स्निग्ध विर्षे वा रूक्ष वि समपंक्ति विर्षे दोय मादि दोय दोय बघता पर विषम पंक्ति विर्षे तीन प्रादि दोय दोय बधता अंश क्रम करि पाइए है । तहां अनंतर द्विनि का बंध होई । कैसे ? स्निग्ध का च्यारि अंशबा रूक्ष को च्यारि अंश
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१. सरदासूत्र : अध्याय-५, सूत्र-३५ ।