Book Title: Samyaggyanchandrika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 858
________________ ! सभ्यताका भाषाटोका ] मणपज्जय परिहारो, पढमुदसम्मत दोणि श्राहारो । एवेसु एक्कपगदे, णत्थि ति असयं जाते ||७२६॥ मन:पर्ययपरिहारी, प्रथमोपसम्यक्त्वं द्वावाहारों । एतेषु एकप्रकृते, नास्तीति अशेषकं जानीहि ।।७२६॥ टीका - मन:पर्यय ज्ञान श्रर परिहारविशुद्धि संयम पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व अर आहारकद्विक योग, इनि व्यारों विषै एक कोई होत संत श्रवशेष लोन न होंइ, भैसा नियम है । रामसर रोडीयोदिषि षिदावीसु । सग-सग-लेस्सा-मरिदे देवअपज्जत्तगेव हवे ||७३०॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं श्रेषितोऽवतीर्णेऽविरतादिषु । स्वकस्वक लेश्यामृते देवापर्याप्तक एव भवेत् ॥७३० ॥ 19 टीer + उपशम श्रेणी तें संक्लेश परिणामनि के वशर्तें नीचे प्रसंयतादि गुणस्थाननि विषे उतरे । ते असंयतादिक अपनी अपनी लेश्या करि जो मरें, तो अपर्याप्त असंयत देव होंइ नियमकरि जाते देवायु का जाकें बंध भया होइ, तोहि बिना अन्य जीव का उपशम श्रेणी विषं मरण नाहीं । अन्य आयु जाके बंध्या होइ, ताकेँ देशसंयम, सकल संयम भी न होइ । तातें सो जीव अपर्याप्त असंयत देव ही है । तिन विषे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व संभव है; तातें वैमानिक अपर्याप्त देव विष उपशम सम्यक्त्व का है । सिद्धाणं सिद्धूगई, केवलरणारणं च दंसणं खयियं । सम्मत्तमणाहार, उवजोगणिय कम उत्ती ॥७३१॥ [ ८५५ सिद्धानां सिद्धगतिः, केवलज्ञानं च दर्शनं क्षायिकं । सम्यक्त्वमनाहारमुपयोगानायमप्रवृत्तिः ॥१७३१।। टीका - सिद्ध परमेष्ठी, तिनके सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार कर ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग की अनुक्रमता करि रहित प्रवृति ए प्ररूपणा पाइए है

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