Book Title: Samyaggyanchandrika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 873
________________ 12] गाथा At गामा सं. पृष्ठसं. माया साथा सं० पृष्ठ 414 282 208 344 सो संजम ण गिसोहम्मेसारण सोहम्मादासारं सोहम्मीसारमा 205 711 .766 307 202 737 660 157 443 563 सुहदुरखसुबह सुहमेसु संख सुहौदरगुण सुहमणिपाते सहसो सुहम सेती सूई अंगुस सेढी सुई पल्ला सेनाकिण्हे मदद सेसहारसमा सोलसंसय सोलसर रख मोदक्कमाणुर्वक्कम 685 263 112227 128 :276 154 002 516 336 627 266 602 482 705 402 हेठिमउक्कसं हेवा बेसि हेठिमप्पुढवी हेटिमलप्पुढचीरणं होति अगिर्याटणी होति खरा इगि होदि प्रतिम DAHIGH WWW 630 - 700 जैसाकेवलज्ञान द्वारा जाना वैसा करणानुयोग में व्याख्यान है तथा केवलज्ञान द्वारा तो बहुत जाना परन्तु जीव को कार्यकारी जीव-कर्मादिक का व त्रिलोकादिक का ही निरूपण इसमें होता है / तथा उनका भी स्वरूप सर्व निरूपित नहीं हो सकता, इसलिए जिस प्रकार बचनगोचर होकर छदमस्थ के ज्ञान में उनका भाव भासित हो, उस प्रकार संचित करके मिरुपण करते हैं। यहां उदाहरण---जीव के भावों की अपेक्षा गुरणस्थान कहे हैं, वे भाव अनन्तस्वरूप सहित वचनगोचर'नहीं हैं, वहां बहत भावों की एक जाति करके चौदह गुणस्थान कहे हैं। तथा जीवों को जानने के अनेक प्रकार हैं, वहाँ मुख्य चौवह मार्गपा का निरुपण किया है / तथा कर्म परमाणु असन्त प्रकार शक्ति युक्तं हैं; उनमें बहुतों की एक "जाति करके पाठ व एक सौ अडतालीस प्रकृतिमा कही है। तथा त्रिलोक में अनेक रवनाएं हैं वहाँ कुछ मुख्य रचनाओं का निरूपण करते हैं। तथा प्रमाण के अनन्त भेद हैं, यहाँ "संख्यातादि तीन भेद व इनके इक्कीस भेद निरूपित किये हैं / इसी प्रकार अन्यत्र जानना / पं. टोडरमल : मोसमा प्रकाशक, पृष्ठ सं० 275

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