Book Title: Samyaggyanchandrika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 860
________________ सम्यग्ज्ञानवनिका भाषरटोका ] प्रार्यसेनगुणगणसमूहसंधार्यजितसेनगुरुः । भुवनगुरुय॑स्य गुरुः स राजा गोम्मटो जयतु ॥७३४॥ टीका - आर्य जो आर्यसेन नामा आचार्य तिनके गुण पर तिनका गण जो संघ, ताका धरनहारा, असा जगत का गुरु, जो अजितसेन नामा गुरु, सो जिसका गुरू है जैसा गोम्मट नो मुंहाय रामा, यो जगलंत प्रवतौं । इहां प्रश्न -- जो जयवंत प्रवर्ती असा शब्द ती जिनदेवादिक पूज्य की कहना संभव, इहां अपने सेयक कौं प्राचार्यने असा कैसे कह्या ? . ताका समाधन - जैसे इहां प्रवृत्ति विर्षे याचक श्रादि होन पुरुषकौं सुखी होहु इत्यादिक वचन कहै, सो इच्छापूर्वक नम्रता लीएं वचन हैं । तेसैं जिन देवादिक की जयवंत प्रवर्ती, असा शब्द कहना जानना । बहुरि जैसे पिता आदि पूज्य पुरुष पुत्रादिक कौं सुखी होहु इत्यादिक वचन कहै; सो आशीर्वाद रूप वचन हैं । तैसे इहां राजा की जयवंत प्रवतो, असा कहना युक्त जानना । इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रयको जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका अनुसारि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विर्षे प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनिविर्षे 'पालाप प्ररूपणा नामा बावीसमा अधिकार संपूर्ण मया।

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