Book Title: Samyaggyanchandrika
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 861
________________ trintent wwwwwwwURATIOकाजाम ५८ 1 । मोम्मटसार ओवका श्रिया कार्याटिको वृत्ति, चरिणश्रीकेशकैः कतिः । कृतेयभन्यथा किंचिद्, विशोध्यं तद्बहुश्रुतः ॥१॥ अथ संस्कृत टीकाकार के वचनदोहा- अभयचन्द्र श्रीमान के हेतु करी जो टोक । सोधो बहु श्रुतधर सुधी, सो रचना करि ठीक ॥१॥ चौपाई-केशव वौँ भव्य विचार । कर्णाटक टीका अनुसार ॥ संस्कृत टीका कोनी एहु । जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥१॥ अथ भाषा टीकाकार के वचनदोहा- जीवका कौं जानिक, शानकांउमय होइ। . निज स्वरूप में रमि रहै, शिवपद पार्य सोइ ।। सोरठा- मंगल श्री अरहंत सिद्ध साधु जिम धर्म नि । ... .मंगल च्यारि महंत एई हैं उत्तम शरण ।। सवैया प्ररथ के लोभी ह का करिक सहास अति, अगम अपार ग्रंथ पारावार में पर। थाह लौ न आओ तहाँ फेरि कौन पात्रो पार, तात सूधे मारम ब आधे पार उतरै ।। इहां परजत जीव कांडको है मरजाद, याके अर्थ जाने निज काज सब सुधरं । निजमति अनुसारि अर्थ गहि टोडर हू, भाषा बनवाई यात अर्थ यहाँ सगरे । इति जीवका सम्पूर्णम् ॥ me FREEarna थेय

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