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सम्झामचन्द्रिका भावारीका ।
टीका - सो दोऊ. प्रकार अपर्याप्त आलाप सामान्य मिथ्यादृष्टी विर्षे ही पाइए हैं । बहुरि सासादन, असंयत, प्रमत्त विर्षे निवृत्ति अपर्याप्त ही आलाप है ।
जोगं पडि जोगिजिणे, होदि हु रिणयमा प्रपुण्णगत्तं तु । - प्रवसेस-रणव-छारणे, पज्जतालावगो एक्को ॥७११॥ ..
योगं प्रति योगिजिने, भवति हि नियमादपूर्णकत्वं तु ।
अवशेषनवस्थाने पर्याप्सालापक एकः ॥७११॥ .. टीका - सयोगीजिन विर्षे नियमकरि योगनि की अपेक्षा ही अपर्याप्त पालाप है । जैसें अपर्याप्त पालाप विर्षे विशेष है, सो इनि पंच गुणस्थाननि विर्षे तो तीनूं आलाप हैं । बहुरि अवशेषः नब गुणस्थान रहे, तिनिविर्षे एक पर्याप्त आलाप ही है।
आगें चौदह मार्गणा स्थानकनि विर्षे कहै हैंसत्तण्हं पढवीरणं, ओघे मिच्छे य तिष्णि आलावा । पढमाबिरवे वि तहा, सेसारणं पुण्णगालावो ॥७१२॥
सप्तानां पृथिवीना, प्रोघे मिथ्यात्वे च त्रय आलापाः ।
प्रथमाविरतेऽपि तथा, शेषाणां पूर्णकालापाः ॥७१२॥ टीका -- नरकगति विर्षे सामान्यपने सप्तपृथ्वी संबंधी मिथ्यादृष्टी विर्षे तीन आलाप हैं । अर तेसे ही प्रथम पृथ्वी संबंधी असंयत विर्षे तीन बालाप हैं । जो नरकायु पहिले बांध्या होइ, असा वेदक, क्षायिक सम्यग्दृष्टी जीव सो तहां ही प्रथम पृथ्वी विर्षे उपजै है । बहुरि अवशेष पृथ्वी संबंधी अविरत अर सर्व पृथ्वी या सासादन, मिश्र, इनके एक पर्याप्त मालाप ही है।
तिरियचउपकाणोधे, मिच्छवुगे अविरदे य तिण्टगेव । णवरि य जोणिणि अयदे, पुण्णो सेसे वि पुण्णोतु ॥७१३॥
तिर्यकचतुष्कारणामोघे, मिथ्यात्वादि के अविरते च य एव ।
नयरि च योनिश्ययते, पूर्णः शेषेऽपि पूर्णस्तु ॥७१३॥ ___टीका -- तिर्यंच पंच प्रकार । सर्व भेद जाम गर्भित असा सामान्य तिर्यंच । बहुरि जाके पांचों इन्द्रिय पाइए: असा पंचेंद्री तिर्यच । बहुरि जो पर्याप्त अवस्था कों