________________
"
..
"..:
सम्पन्झानचन्द्रिका भाषाटीका ! .... मणुसिणि पमत्तविरदे, आहारदुगं तु गतिथ रिणयमेण । ..... अवमवधेधे मणुसिरिण, सण्णा भूदगदिमासेज्ज ॥७१५॥
भानुष्यां प्रमत्तविरते, प्राहारोहिकं तु नास्ति, नियमेन ।
अपगतवेदायां मानुष्या, संज्ञा भूतगतिमासाद्य ।।७१५॥
टीका - द्रव्य पुरुष पर भाव स्त्री असा मनुष्य 'प्रमत्तविरत. गुणस्थान विर्षे होइ, ताके आहारक पर श्राहारक आंगोपांग नामकर्म का उदय नियम करि नाहीं है ।
तु शब्द से स्त्रीयद, नपुंसमवेद का उदय विर्षे मनःपर्ययज्ञान अर परिहार विशुद्धि संयम ए भी न हो है। .......... .: ..
बहुरि भाव मनुष्यणी विर्षे चौदह गुरवस्थान हैं। द्रव्य मनुष्यणी विर्षे पांच ही गुणस्थान हैं ।
......- * : .बहुरि वेद रहित अनिवृत्तिकरण विर्षे मनुष्यणी के मैथुन संज्ञा कही है । सो कार्य रहित भूतपूर्वगति न्याय करि जाननी । जैसे कोऊ राजा था, वाकौं राजभ्रष्ट भए पीछे भी राजा ही कहिए है; तसे जाननी । सो भाव स्त्री भी नववा ताई ही है। इहां चौदह गुरगस्थान कहे, सो भूतपूर्वगति त्यायकरिता ही कहे हैं । बहुरि पाहारक ऋद्धि कौं जो प्राप्त भया, ताक भी वा परिहार विशुद्धि संयम विर्षे द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पर मन:पर्थय ज्ञान न हो है; जातें तैतीस वर्ष बिना सो परिहार विशुद्धि संयम होइ नाहीं। प्रथमोपशम सम्यक्त्व की इतनी स्थिति नाहीं। पर परिहार विशुद्धि संयम सहित श्रेणी न चढे, तातै द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी बनें नाहीं; तातें तिन दोऊनि का संयोग नाहीं संभव है। . .
. परलद्धिप्रपज्जत्ते, एक्को दु अपुण्णगो दु आलावो। . लेस्साभेदविभिण्णा, सत्तवियप्पा सुरदारणा ॥७१६॥
नरलब्ध्यपर्याप्ते, एकस्तु अपूर्णकस्तु' अरलागः . ... लेश्याविभिन्नानि, सप्तविकतानिासरस्थानानि ७१६॥
टोका - बहुरि लब्धि : अपर्याप्त मनुष्य निदाएकअपर्याप्त पालाप ही है । बहुरि लेश्या भेद करि भिन्न असे देवति के स्थानक सात हैं। ते कहै हैं ।