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इक्कीसवां अधिकार : अंतरभावाधिकार
fare श्रमित ज्ञानादि जुत, सुरपति नुत नमिनाथ । जय मम ध्रुवपद बेहु बिहि, हत्यो धातियां साथ ॥२१॥ आगे बीस प्ररूपणा का अर्थ कहि व उत्तर अर्थ को कहै हैंगुणजीवा पज्जत्ती, पाणा सणा य मग्गणुवजोगो । जोग्गा परुविदaar, ग्रोधादे से पत्तेयं ॥६७७॥
रणजीवाः पर्याप्तियः प्राखाः संज्ञान मार्गरणोपयोगी । योग्याः प्ररूपितव्या, प्रोधादेशयोः प्रत्येकम् ॥६७७॥
च परण चोस चरो, णिरयादिसु चोद्दसं तु पंचकखे । deer सेसिका मिच्छं गुणठाणं ॥ ६७८ ॥
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टीका - कही जे बीस प्ररूपणा, तिनिविषै गुणस्थान पर मार्गणास्थान, इचि विषे गुणस्थान र जीवसमास पर पर्याप्ति पर प्राण पर संज्ञा पर चौदह मार्गा श्रर उपयोग ए बीस प्ररूपणा जैसे संभव, तैसे निरूपण करनी । सोई कहें है
चत्वारि पंच चतुर्दश, चत्वारि निरयादिषु चतुर्दश तु पंचाक्षे । Teeta शेषेत्रिकाये मिथ्यात्वं गुणस्थानम् ॥६७८ ॥
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टीका - गति-मार्गणा विषै क्रम तें गुरणस्थान मिथ्यादृष्ट्यादि नरक विर्षे
च्यारि तिर्यच विषे पांच, मनुष्य विषे चौदह, देव विषे च्यारि जानने । बहुरि इन्द्रियमार्गणा व अर काय मार्गणा विषे पंचद्रिय में अर सकाय में तौ चौदह गुणस्थान हैं । अवशेष इंद्रिय श्रर काय में एक मिथ्यादृष्टी गुणस्थान है । बहुरि जीवसमास नरकगति पर देवगति विषे सेती पर्याप्त, निर्वृत्ति पर्याप्त ए दोष हैं; पर तिच विषे सर्व चौदह ही हैं। मनुष्य विषे सेवी पर्याप्त, अपर्याप्त ए दोय हैं। वहां नरक देवगति विषै लब्धि अपर्याप्तक नाहीं; तातै निर्वृत्ति-अपर्याप्त कह्या । मनुष्य विषै निर्वृति-अपर्याप्त, लब्धि पर्याप्त दोऊ पाइए ताते सामान्यपने पर्याप्त ही कह्या है । बहुरि इंद्रिय -मार्गला विषे एकेंद्रिय में बादर, सूक्ष्म, एकेंद्री तो पर्याप्त र अपयति जैसे च्यारि जीवसमास हैं। बेंद्री इन्द्री में पता अपना पर्याप्त अपर्याप्त रूप दोय जीवसमास हैं। पंचेंद्रिय में सैवी, असैनी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए च्यारि