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सम्मशानचन्द्रिका भाषाटोका ।
[७४३ . टीका - मिथ्यादृष्टी प्रादि प्रमत्तपर्यत अपना कार्यसहित च्यार्यों संज्ञा हैं। तहां छठे गुणस्थानि पाहार संज्ञा का विच्छेद हूवा, अवशेष तीन संज्ञा अप्रमत्तादि विर्षे हैं; सो तिनिका निमित्तभूत कर्म पाइए है। तहां ताकी अपेक्षा है। कार्य रहित है, सो अपूर्वकरण पर्यंत तीन संज्ञा है । तहां भय संज्ञा का विच्छेद भया । अनिवृत्ति करण का प्रथम सवेदभाग पर्यंत मैथुन, परिग्रह दोय संज्ञा हैं । तहाँ मैथुन संज्ञा का विच्छेद भया । सूक्ष्मसापराय विर्षे एक परिग्रह संज्ञा रही। ताका तहां ही विच्छेद भया । ऊपरि उपशांत कषायादिक. विषं कारण का अभाव ते कार्य का भी प्रभाव है । तातें कार्य रहित भी सर्व संज्ञा नाहीं हैं। . .: मग्गण उवजोगा वि य, सुगमा पुत्वं परूविदत्तादो। .
गदिनादिसुमिच्छादी, परूविदे रूविदा होति ॥७०३॥ :
माग उपयोगा अपि च, सुगमाः पूर्व प्ररूपितत्यात् । . .. मत्यादिषु मिथ्यात्वाद्वी, प्ररूपिते रूपिता भवंति १७०३॥ ___टीका - गुणस्थानकनि विर्षे चौदह मार्गणा पर उपयोग लगाना सुगम है, जातें पूर्व प्ररूपण करि पाए हैं ! मार्गणानि विषं गुणस्थान या जीवसमास कहे । लहां ही कथन आय गया, तथापि मंदबुद्धिनि के समझने के निमित्त बहरि कहिए हैं। नरकादि गतिनामा नामकर्म के उदय ते उत्पन्न भई पर्याय, ते गति कहिए, सो मिथ्यादृष्टी विर्षे च्यार्यो नारकादि गति, पर्याप्त वा अपर्याप्त हैं। सासादन विर्षे नारक अपर्याप्त नाही, अवशेष सर्व हैं। मिश्र विर्षे च्यार्यो गति पर्याप्त ही हैं । असंयत विर्षे धम्मानारक तौ पर्याप्त अपर्याप्त दोऊ हैं । अवशेष नारक पर्याप्त ही हैं ! बहुरि भोगभूमियां तिर्यंच वा मनुष्य अर कर्मभूमियां मनुष्य अर वैमानिक देव तो पर्याप्त वा अपर्याप्त दोऊ हैं । अर कर्मभूमिया तिर्यंच अर भवनत्रिक देव ए पर्याप्त ही चतुर्थ गुणस्थान विर्षे पाइए हैं । बहुरि देशसंयत विर्षे कर्मभूमियां तिथंच बा मनुष्य पर्याप्त ही हैं । बहुरि प्रमत्त विर्षे मनुष्य पर्याप्त ही है, आहारक सहित पर्याप्त, अपर्याप्त दोऊ हैं । बहुरि प्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत मनुष्य' पर्याप्त ही हैं, सयोगी विर्षे पर्याप्त . वा समुद्धात अपेक्षा अपर्याप्त हैं । अयोगी पर्याप्त ही हैं।
. बहुरि एकेद्रियादिक जातिनामा नामकर्म के उदय तें निपज्या जीव के पर्याय सो इन्द्रिय है । तिनकी मार्गणा एकेंद्रियादिक पंच हैं । ते मिथ्यादृष्टी विर्षे तो पांचों