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[ होम्मटसार नौवकाग्छ गाथा ७०४ . इहां प्रण ... जो मिथ्यात्व को मिथ्या प्रवाह कहा कीया? . .:
ताका समाधान - पूर्व जो उस मिथ्यात्व की स्थिति थी, तामै प्रतिस्थापना वली मात्र घटाव है, सो अतिस्थापनावली का भी स्वरूप प्राग कहेंगे । जो अप्रमत्त गुरणस्थान को प्राप्त हो हैं, सो अप्रमत्तस्यों-प्रमत्त में अर प्रमतस्यों-अप्रमत्त में संख्यात हजार बार आवै जाय है । तातें प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रमत्त विर्षे भी कहिए ते ए च्यार्यो गुणस्थानवी प्रथमोपशमसम्यक्त्व का अंतर्मुहूर्त काल विर्षे जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह प्रावली अवशेष रहैं, अर तहां अनंतानुबंधी की किसी प्रकृति का उदय होइ तो सासादन होइ। बहुरि जो भव्यता गुण का विशेष करि सम्यक्त्व गुण का नाश न होइ तो उस उपशम सम्यक्त्व का काल कौं पूर्ण होतें सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते वेदक सम्यग्दृष्टी हो है । बहुरि जो मिश्र प्रकृति का उदय होइ, तौ सम्यग्मिध्यादृष्टी हो है । बहुरि जो मिथ्यात्व ही का उदय आवै तो मिथ्यादृष्टी ही होइ जाइ।
बहुरि द्वितीयोपशम सम्यक्त्व विष विशेष है, सो कहा ? . ...
उपशम श्रेणी चढने के निमित्त कोई सातिशय अप्रमत्त वेदक सम्यग्दृष्टी तहां अप्रमत्त विर्षे तीन करण की सामर्थ्य करि अनंतानुबंधी का प्रशस्तोपशम बिना अप्रशस्तोपशम करि ऊपरि के जे निषेक, जिनिका काल न आया है, ते. तो हैं ही; जे. नीचे के निषेक अनंतानुबंधी के हैं, तिनिकों उत्कर्षरण करि ऊपरि के निषेकनि विर्षे प्राप्त करै है वा विसंयोजन करि अन्य प्रकृतिरूप परिणमावै है, असक्षपाइ दर्शनमोह को तीन प्रकृति, तिनिका बीचि के निषेकनि का प्रभाव करने रूप अंतरकरण करि अंतर कीया । बहुरि उपशमविधात करि दर्शनमोह की प्रकृतिनि कौं उपशमाइ, अंतर कीएं निषेक संबंधी अंतर्मुहूर्त काल का प्रथम समय विषं द्वितीयोपशम सम्यदृष्टी होइ, उपशम श्रेणी कौं चढि, क्रम तै उपशांत कषाय पर्यंत जाइ, तहां अंतर्मु. हूर्त काल तिष्ठि करि, अनुक्रम ते एक एक मुणस्थान उलरि करि, अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहां अप्रमत्त स्यों.प्रमत्त में वा प्रमत्त स्यों अप्रमत्त में हजारों बार आवै जाइ, तहांस्यों नीचे देशसंयत होइ, तहां तिष्ठ; या असंयत होइ तहां सिष्ठ । अथवा जो ग्यारह्वां आदि गुणस्थाननि विर्षे मरण होइ, तौ तहां स्यों अनुक्रम बिना ' देव पर्यायरूप असंयत हो है | वा. मिश्र प्रकृति के उदय ते मिश्र गुणस्थानवर्ती हो है वा अनंतानुबंधी के उदय होते द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कौं विराध है; असी किसी आचार्य की पक्ष की अपेक्षा सासादन हो है। वा मिथ्यात्व का उदयं करि मिथ्या
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